जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (Jatavarman Sundara Pandyan I, 1251-1268)

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1251-1268)

मारवर्मन् सुंदरपांड्य के बाद पांड्य राजगद्दी पर जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1251-1270 ई.) आसीन हुआ। उसके समय में पांड्य शक्ति अपने चरम पर पहुँच गई। उसकी गणना दक्षिणी भारत के इतिहास के प्रसिद्ध विजेताओं में होती है। उसके शासनकाल के मिले अनेक अभिलेखों से उसके समय की घटनाओं एवं उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। उसे अपने शासनकाल के प्रारंभ में ही अनेक युद्धों में भाग लेना पड़ा और छः वर्ष के भीतर चेर, होयसल, चोल, काडव तथा सिंहल पर विजय प्राप्त की तथा त्रावनकोर से लेकर दक्षिणी अर्काट तक पांड्य शक्ति का विस्तार किया। उसने होयसलों को मैसूर पठार तक ही सीमित कर दिया, कांचीपुरम को पांड्यों की दूसरी राजधानी बनाया और केरल तथा श्रीलंका पर भी कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया। इन विजयों में जटावर्मन् सुंदरपांड्य को अनेक राजवंशीय राजकुमारों ओर सामंतों का भी सहयोग मिला था, जिनमें जटावर्मन् वीरपांड्य प्रमुख था।

जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम (Jatavarman Sundara Pandyan I, 1251-1268 AD)
पांड्य राज्य का विस्तार

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम की उपलब्धियाँ

चेर राज्य की विजय

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने अपना पहला अभियान वीररवि उदय मार्तंडवर्मन द्वारा शासित चेर क्षेत्र पर आक्रमण के साथ किया। उसने एक छोटी सेना के साथ चेर शासक वीररवि उदयमार्तंड पर आक्रमण किया। मलनाडु में दोनों पक्षों में लड़ाई हुई, जिसमें चेर सेना पूरी तरह पराजित हुई, उदयमार्तंड को मौत के घाट उतार दिया और मलैनाडु का विध्वंस किया गया। इस विजय के बाद उसने चेर शासक के किसी प्रतिद्वंदी को चेर राजगद्दी सौंप दी।

होयसलों के विरूद्ध सफलता

चेरों को विजित करने के बाद जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने पांड्यों के पुश्तैनी दुश्मन चोलो एवं होयसलों पर दृष्टि डाली। इस क्रम में उसने कावेरी क्षेत्र में होयसलों के प्रमुख सोमेश्वर को पराजित कर शिंगण दंडनायक तथा अन्य सेनापतियों को मार डाला। इस विजय के उपलक्ष्य में पांड्य शासक को बहुत से हाथी तथा घोड़े मिले। होयसल शासक सोमेश्वर ने भागकर मैसूर के पहाड़ी क्षेत्र में शरण ली। किंतु पांड्य-होयसल संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ। कुछ दिन बाद पांड्यों और होयसलों में पुनः शक्ति-परीक्षण हुआ और 1262 ई में सोमेश्वर ने पांड्य साम्राज्य पर आक्रमण करने की कोशिश की। इस बार भी विजयश्री ने पांड्यों का ही वरण किया। होयसल सोमेश्वर श्रीरंगम के युद्ध में मौत के घाट उतार दिया गया।

चोलों के विरूद्ध सफलता

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम की होयसलों पर विजय प्रकारांतर से चोलों के विरूद्ध सफलता थी, क्योंकि होयसलों की उपराजधानी कण्णनूर चोलराज्य में ही स्थित थी। जटावर्मन् सुंदरपांड्य के एक लेख के अनुसार पोन्नि (कावेरी नदी का प्रदेश), जो पहले चोलों के राज्य में था, कन्नि अर्थात् पांड्यों के अधीन हो गया था। एक दूसरे लेख में इसे ‘चोलप्रजातिरूपी पर्वत के लिए वज्र’ बताया गया है। पांड्यों की सफलता की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि चोल राजेंद्र तृतीय 1258 ई. के बाद पांड्यों के सामंत के रूप में शासन कर रहा था।

श्रीलंका पर आक्रमण

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने 1252 ई. से 1254 ई. के बीच किसी समय श्रीलंका पर भी आक्रमण किया। उसने श्रीलंका के राजा को पराजित कर मार डाला और उत्तरी श्रीलंका पर अधिकार कर लिया। यह आक्रमण 1262 ई. और 1264 ई. के दौरान राजा परक्कमबाहु द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। सिंहल से जटावर्मन् सुंदरपांड्य बड़ी मात्रा में मोती और हाथियों के साथ वापस आया था।

काडव शासक के विरूद्ध अभियान

चोलों एवं होयसलों के विरुद्ध अभियान के बीच जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने कभी शेंदमंगलम् के काडव शासक कोप्पेरुजिंग की ओर दृष्टि डाली। यद्यपि काडव शासक ने उपहारादि देकर पांड्य शासक को प्रसन्न करने की कोशिश की, किंतु पांड्य शासक ने उस पर आक्रमण कर दिया और शेंदमंगलम् के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। बाद में उसने कोप्पेरुग्जिंग को फिर से शासनाधिकार दे दिया, लेकिन उसके प्रदेश, कोषागार, सेना आदि पर कब्जा कर लिया और काडव शासक को अपना सामंत बना लिया।

बाणों के विरूद्ध अभियान

यद्यपि जटावर्मन् सुंदरपांड्य के सैन्याभियानों का तिथिक्रम सुनिश्चित नहीं है, किंतु ऐसा लगता है कि उसने चोलों एवं होयसलों की ओर से निपटने के बाद उत्तर की ओर अभियान किया। उत्तर की ओर उसने बाणों को आक्रांत कर बाण शासक को वन्य प्रदेश की ओर जाने के लिए बाध्य किया और कोंगु प्रदेश को जीत लिया। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि संभवत: कोप्पेरुग्जिंग और वीर सोमेश्वर के विरुद्ध युद्ध के संबंध में ही सुंदरपांड्य ने कोंगु और मगदै की विजय की थी।

तेलगुचोड शासक के विरूद्ध सफलता

उत्तर की ओर बढ़कर जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने तेलगु चोड शासक गंडगोपाल पर आक्रमण किया और उसे मार डाला। उसके भाइयों ने पांड्य शासक के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर सुंदरपांड्य ने उसका राज्य वापस कर दिया। इस विजय के फलस्वरूप उसने 1258 ई. में कांचीपुरम् पर कब्जा कर लिया। बाण और गणपति संभवतः गंडगोपाल के मित्र थे।

काकतीयों के विरूद्ध सफलता

तेलगु चोड शासक को पराजित कर तथा काँची पर अधिकार करने के बाद सुंदरपांड्य प्रथम ने काकतीय शासक गणपति और उसके सामंतों (देवगिरि के यादवों) को मुडुगूर के युद्ध में पराजित किया। इस अभियान के दौरान वह नेल्लोर तक पहुँच गया, जहाँ उसने अपना वीराभिषेक करवाया।

इस प्रकार अपनी विजयों के द्वारा जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने तमिल प्रदेशों में चोलों की शक्ति अवरुद्ध किया, होयसलों को कण्णनूर से निर्वासित कर कर्नाटक की ओर जाने के लिए विवश किया, कोंगु प्रदेश पर अधिकार स्थापित किया, केरल के शासक को अपने अधीन किया और सुदूर श्रीलंका पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसने जिस विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की, उसमें दक्षिण में कन्याकुमारी से लेकर उत्तर में नेल्लूर और कुडप्पा तक (मैसूर को छोड़कर) के प्रदेश सम्मिलित थे।

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम की अन्य उपलब्धियाँ

जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम एक महान विजेता और साम्राज्य निर्माता शासक था। उसने महाराजाधिराज तथा परमेश्वर की पारंपरिक उपाधियों के साथ-साथ समस्तजगदाधार, काँचीपुरकोंडन, हेमाच्छदनराज, इलांडलैयान, इम्मंडलमुंकोडरुलिय, बालाल्वलितिरंदान, मर्कतपृथ्वीकृत, राजपतन तथा कोदंडराम जैसी उपाधियाँ भी धारण की थी।

अपने सैन्याभियानों एवं विजयों में प्राप्त धन से जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने चिदंबरम् और श्रीरंगम् के मंदिरों का विवर्द्धन किया। उसने इन मंदिरों के मंडप और शिखर को सोने की चद्दरों से सज्जित करवाया। श्रीरंगम् के विष्णुमंदिर में उसने विजयहार और सुवर्णमुकुट धारण कर एक भव्य राजसिंहासन पर अपनी रानी के साथ विराजमान हुआ और चोल राज्यों के शासक के रूप में तुलाभार दान दिया। इस अवसर पर उसने जैन पल्लियों को दान देकर अपनी धार्मिक उदारता का परिचय दिया। कहा जाता है कि उसने श्रीरंगम् के मंदिर को 18 लाख स्वर्ण सिक्कों का दान दिया था। अरगलूर में एक मंदिर और मदुरै में मीनाक्षी मंदिर के पूर्वी टॉवर का निर्माण भी उसके शासन के दौरान किया गया था। उसके समय में मंदिरों में उत्सवों तथा मेलों के आयोजन किये गये थे।

जटावर्मन् सुंदरपांड्य ने कम से कम 1268 ई. तक शासन किया था। उसके बाद के पांड्य शासकों का तिथिक्रम अनिश्चित है। अनुमान है कि जटावर्मन् सुंदरपांड्य के बाद मारवर्मन् कुलशेखर प्रथम (1268-1310 ई.) पांड्य राजगद्दी पर बैठा।

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