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गौरवशाली क्रांति (1688)
इंग्लैंड की गौरवशाली क्रांति को इतिहास में ‘रक्तहीन क्रांति’ या ‘वैभवशाली क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह क्रांति पूर्णतया शांतिपूर्वक संपन्न हुई थी और इसमें रक्त की एक बूँद भी नहीं गिरी थी। यह धार्मिक-राजनीतिक क्रांति इंग्लैंड में 1688 ई. में हुई थी। इस क्रांति ने इंग्लैंड के तत्कालीन कैथोलिक शासक जेम्स द्वितीय (1685-1688 ई.) को अपनी गद्दी छोड़कर फ्रांस भागने के लिए विवश कर दिया और उसकी पुत्री मेरी द्वितीय और दामाद विलियम, जो प्रोटेस्टेंट थे, संयुक्त रूप से इंग्लैंड का राजा बनाया गया।
गौरवशाली क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में दैवी राजतंत्र का अंतिम रूप से अंत हो गया और जनता की प्रभुसत्ता का सिद्धांत स्थापित हुआ। इस क्रांति ने राजा और संसद के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष का अंत कर दिया और संसद की सर्वोच्चता स्थापित कर दी। संसदीय शासन-पद्धति की स्थापना से जनसाधारण के अधिकार सुरक्षित हो गये और राजनीतिक एवं धार्मिक अत्याचार के भय से मुक्त होकर इंग्लैंड आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर हुआ।
गौरवशाली क्रांति के कारण
चार्ल्स द्वितीय की मृत्यु (1685 ई.) के बाद उसका छोटा भाई जेम्स द्वितीय 1685 ई. में इंग्लैंड के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। जेम्स जिद्दी, अदूरदर्शी और कट्टर कैथोलिक था और राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांत में विश्वास करता था। जेम्स के राज्यारोहण के समय परिस्थितियाँ सर्वथा उसके अनुकूल थी, किंतु वह मात्र तीन वर्षों तक शासन कर सका, तत्पश्चात् उसे इंग्लैंड छोड़कर भागने पर विवश होना पड़ा।
वास्तव में अपने तीन वर्षीय अल्प शासनकाल में जेम्स ने ऐसे कार्य किये, जिनके कारण संसद से उसका संघर्ष आरंभ हो गया और जनता उसके विरुद्ध हो गई। इस बीच जेम्स द्वितीय की दूसरी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिससे जनता के धैर्य का बाँध टूट गया। अंततः संसद ने हॉलैंड के राजा विलियम ऑफ ऑरेंज को, जो जेम्स की बड़ी पुत्री मेरी का पति था, सिहासन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया। विलियम के आते ही जेम्स द्वितीय फ्रांस भाग गया। इस प्रकार बिना रक्तपात और हिंसा के इंग्लैंड में सत्ता-परिवर्तन हो गया, जिसे ‘रक्तहीन क्रांति’, ‘गौरवशाली क्रांति’ या ‘शानदार क्रांति’ के नाम से जाना जाता है। इस गौरवशाली रक्तहीन क्रांति के प्रमुख कारण इस प्रकार थे-
राजा एवं संसद के बीच संघर्ष
इंग्लैंड की संसदीय व्यवस्था सबसे पुरानी है। 1215 में कुछ सामंतों के माँग-पत्र को इंग्लैंड के शासक ने स्वीकार किया था और उसी समय संसद की नींव पड़ी थी। किंतु राजा और संसद के अधिकार स्पष्टतः परिभाषित नहीं थे। तीसवर्षीय ‘गुलाब के फूलों के युद्ध’ के बाद हेनरी सप्तम ने सामंतों की शक्ति नष्ट कर दिया, जिससे ट्यूडर शासक निरकुश हो गये थे। किंतु पुनर्जागरण और धर्म-सुधार आंदोलनों के कारण मध्यवर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो चुका था। ट्यूडर वंश की अंतिम शासिका एलिजाबेथ के समय तक राजा और संसद के बीच संबंध अच्छे बने रहे। एलिजाबेथ के शासनकाल के अंतिम वर्षों में मध्यवर्ग रानी एलिजाबेथ का विरोध करने लगा था, किंतु एलिजाबेथ की कुशल वैदेशिक नीति की असाधारण सफलता के कारण इंग्लैंड की जनता उसका सम्मान करती थी। इसलिए एलिजाबेथ को किसी विशेष संकट का सामना नहीं करना पड़ा।
इंग्लैंड में 1603 ई. में स्टुअर्ट वंश की स्थापना हुई। स्टुअर्ट शासक राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास करते थे और वे संसद को अपने ढंग से चलाना चाहते थे। जेम्स प्रथम ने जनता पर अपने दैवी अधिकारों को थोपने का प्रयास किया, जिसके कारण राजा और संसद के बीच संघर्ष आरंभ हो गया। जेम्स प्रथम तो किसी प्रकार शासन करने में सफल रहा, किंतु चार्ल्स प्रथम को इस संघर्ष का परिणाम भुगतना पड़ा और उसे 1649 ई. में फाँसी दे दी गई।
ओलिवर क्रामवेल और चार्ल्स द्वितीय के शासनकाल में भी राजा और संसद के बीच संघर्ष चलता रहा। जेम्स द्वितीय (1685-1688 ई.) के शासनकाल में यह संघर्ष तीव्र हो गया और रक्तहीन क्रांति के रूप में इसका अंत हुआ। इस प्रकार संसद ने राजा पर विजय प्राप्त की।
जेम्स द्वितीय की निरंकुशता
जेम्स द्वितीय राजा के दैवी अधिकारों का प्रबल पक्षधर था और जनता में भय एवं आतंक उत्पन्न कर स्वेच्छाचारिता से शासन करना चाहता था। जेम्स कैथोलिक था, जबकि इंग्लैंड की अधिकांश जनता प्रोटेस्टेंट थी और एंग्लिकन चर्च में विश्वास करती थी। जेम्स इंग्लैंड में कैथोलिक धर्म का प्रचार करना चाहता था और इसी उद्देश्य से उसने लंदन में एक नवीन गिरजाघर बनवाया, जिसका जनता ने घोर विरोध किया। जेम्स ने अवसर पाकर अपनी सेना में वृद्धि की और उसमें कैथोलिक अधिकारियों को नियुक्त किया। इससे जनता को लगा कि इंग्लैंड में पुनः सैनिक शासन की स्थापना हो सकती है। जनता इंग्लैंड में पुनः सैनिक शासन नहीं चाहती थी क्योंकि क्रामवेल के सैनिक शासन से वह तंग आ चुकी थी। इस प्रकार जेम्स की निरंकुश नीति का जनता द्वारा विरोध होना स्वाभाविक था।
खूनी न्यायालय
ह्विग दल इंग्लैंड में जेम्स द्वितीय के राजगद्दी पर आसीन होने का विरोधी था। ह्विग नेताओं ने चार्ल्स के अवैध पुत्र मन्मथ को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। मन्मथ ने सेना एकत्र करके स्वयं को इंग्लैंड का राजा घोषित किया। जेम्स द्वितीय ने सेजमूर नामक स्थान पर मन्मथ को पराजित करके बंदी बना लिया। इन विद्रोहियों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया और मन्मथ को मृत्युदंड दिया गया। इस न्यायालय को ‘खूनी न्यायालय’ कहा गया और जेम्स द्वितीय की इस कठोर नीति के कारण जनता उससे घृणा करने लगी।
जेम्स ने इंग्लैंड के साथ ही आयरलैंड और स्कॉटलैंड में भी अपनी निरंकुश नीति को कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया। उसने स्कॉटलैंड और आयरलैंड में कैथोलिक अधिकारियों को नियुक्त किया, जिन्होंने वहाँ के प्रोटेस्टेंटों पर अत्याचार किये। फलतः स्कॉटलैंड में अर्ल ऑफ अरगिल ने विद्रोह कर दिया। जेम्स ने इस विद्रोह का भी कठोरतापूर्वक दमन किया और विद्रोहियों को कठोर दंड दिया। तीन सौ व्यक्तियों को मृत्युदंड दिया गया और लगभग आठ सौ विद्रोही दास बनाकर वेस्टइंडीज में बेच दिये गये। जेफ्रीज नामक न्यायाधीश ने स्त्रियों एवं बच्चों को भी क्षमा नहीं किया और उनके साथ अमानुषिक व्यवहार किया। पुराने कैथोलिक न्यायालयों की पुनर्स्थापना और इन न्यायालयों की कठोर नीति के कारण जेम्स की बहुत बदनामी हुई। अब इंग्लैंड की जनता के साथ-साथ स्कॉटलैंड और आयरलैंड की जनता भी जेम्स की विरोधी हो गई।
1685 ई. में जेम्स ने गिरजाघरों पर पूर्ण रूप से राजकीय श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए कोर्ट ऑफ हाई कमीशन को पुनः स्थापित किया, जिसमें कैथोलिक धर्म की आलोचना करने वालों को दंडित किया जाता था और गिरजाघरों में जो पादरी राजा की आज्ञा का पालन नहीं करते थे, उन्हें पदच्युत् कर दिया जाता था। इससे भी जनता कें असंतोष में वृद्धि हुई।
जेम्स की धार्मिक नीति
एलिजाबेथ के शासनकाल तक इंग्लैंड मुख्यतः प्रोटेस्टेंट (एंग्लिकन) धर्म को अपना चुका था, किंतु स्टुअर्ट शासक इंग्लैंड को एक कैथोलिक देश बनाना चाहते थे। ऐसे में जब चार्ल्स द्वितीय (1660-1625 ई.) ने चुपके से कैथोलिक धर्म अपना लिया, तो इंग्लैंड को गृहयुद्ध के दौर से गुजरना पड़ा और इसकी कीमत चार्ल्स द्वितीय को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी। जेम्स द्वितीय (1685-1688) ने इससे कोई सबक नहीं लिया और कैथोलिक धर्म को स्थापित करन का प्रयत्न किया। उसने न केवल कैथोलिकों को अधिकाधिक सुविधाएँ देने का प्रयास किया, बल्कि रोम के पोप को इंग्लैंड आमंत्रित किया और लंदन में कैथोलिक कलीसिया स्थापित किया, जिससे इंग्लैंड के प्यूरिटन और प्रोटेस्टेंट उसके विरोधी हो गये।
टेस्ट नियम की अवहेलना
इंग्लैंड की संसद में राजा के समर्थक थे और वे राजा के विशेष अधिकारों का समर्थन करने का तैयार थे। किंतु संसद चाहती थी कि राजा धार्मिक प्रश्न पर उसके परामर्श के अनुसार कार्य करे। चार्ल्स द्वितीय के समय संसद ने टेस्ट अधिनियम पारित किया था। इस अधिनियम के अनुसार केवल एंग्लिकन चर्च के अनुयायी ही सरकारी पदों पर नियुक्त हो सकते थे। दूसरे शब्दों में, कैथोलिकों को सरकारी सेवा से वंचित कर दिया गया था। किंतु जेम्स द्वितीय एक निष्ठावान कैथोलिक था और कैथोलिकों को अधिक से अधिक सुविधाएँ प्रदान करना चाहता था। किंतु टेस्ट अधिनियम के कारण वह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पा रहा था।
जेम्स ने संसद से माँग की कि वह टेस्ट अधिनियम को निरस्त कर दे, किंतु संसद ने इसे अस्वीकार कर दिया। इस पर जेम्स ने संसद को भंग कर दिया और उसे फिर कभी नहीं बुलाया। इस प्रकार जेम्स और संसद में संघर्ष आरंभ हो गया।
निलंबन और विमोचन के अधिकार का दुरुपयोग
जेम्स कैथोलिकों को अधिक सुविधाएँ देने के लिए प्रतिबद्ध था। जब संसद ने टेस्ट अधिनियम को निरस्त करने से इनकार कर दिया तो उसने राजा के विशेष अधिकारों का प्रयोग करना प्रारंभ किया। इसी समय गोडेन बनाम हेल्स के मुकदमे में एक न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि चूंकि कानून राजा के द्वारा बनाये जाते हैं, इसलिए राजा अपने विशेषाधिकारों के द्वारा इन कानूनों के विरुद्ध कार्य कर सकता है। इस आधार पर जेम्स ने ‘राजा के निलंबन’ और विमोचन अधिकार का प्रयोग करना प्रारंभ किया क्योंकि इस अधिकार के द्वारा राजा किसी भी अधिनियम को स्थगित कर सकता था और किसी भी व्यक्ति को दंड से क्षमा कर सकता था। जेम्स ने इन अधिकारों का प्रयोग करके टेस्ट अधिनियम को स्थगित कर दिया और मंत्री, न्यायाधीश, नगर निगम के सदस्य और सेना में उच्च पदों पर कैथोलिकों को नियुक्त किया। इंग्लैंड की संसद ने जेम्स के इन कार्यों का विरोध किया क्योंकि संसद द्वारा पारित नियमों की अवहेलना करना देश के संविधान का अपमान था। जेम्स ने संसद के विरोध की परवाह नहीं की, जिससे इंग्लैंड की प्रोटेस्टेंट जनता में विद्रोह की भावना जाग्रत होने लगी।
विश्वविद्यालयों में हस्तक्षेप
कैथोलिक मतावलंबी होने के कारण जेम्स ने टेस्ट अधिनियम की अवहेलना करते हुए विश्वविद्यालयों में भी कैथोलिकों को नियुक्त करना प्रारंभ किया। क्राइस्ट चर्च कॉलेज में अधिष्ठाता के पद पर एक कैथोलिक की नियुक्ति की गई और मैक्डालेन विद्यालय के सभी शिक्षाधिकारियों को हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने एक कैथोलिक को अपना सभापति बनाने से इनकार कर दिया था। जेम्स ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के कुलपति को भी पदच्युत् कर दिया क्योंकि उसने एक कैथोलिक को उपाधि देने से इनकार कर दिया था। कैंब्रिज विश्वविद्यालय का नया कुलपति एक कैथोलिक को बनाया गया। इस प्रकार जेम्स द्वितीय ने शिक्षा पर कैथोलिकों का आधिपत्य स्थापित करने का प्रयत्न किया, जिससे प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के लोग जेम्स के विरोधी हो गये।
धार्मिक अनुग्रह की घोषणाएँ
जेम्स द्वितीय ने इंग्लैंड को कैथोलिक देश बनाने के लिए टेस्ट अधिनियम की अवहेलना करके समस्त उच्च राजकीय पदों पर कैथोलिकों को नियुक्त किया। उसने रोम के पोप को भी इंग्लैंड आमंत्रित किया और उसका खूब आदर-सत्कार किया। इसके बाद, जेम्स ने अप्रैल, 1687 ई. में धार्मिक अनुग्रह की पहली घोषणा की, जिसके द्वारा कैथोलिकों तथा अन्य संप्रदायों पर लगे प्रतिबंध और नियंत्रण समाप्त हो गये। बाह्य रूप से देखने पर यह धार्मिक सहिष्णुता की नीति लगती है, किंतु इसका वास्तविक उद्देश्य कैथोलिकों को अधिकार देना था। इंग्लैंड की जनता ने इस घोषणा का दो आधारों पर विरोध किया। पहला यह कि यदि राजा अपने विशेष अधिकारों से किसी कानून को निलंबित कर सकता है तो फिर किसी कानून की सुरक्षा की आशा नहीं की जा सकती थी। दूसरे, इंग्लैंड की जनता कैथोलिकों को किसी प्रकार के अधिकार नहीं देना चाहती थी। फलतः धार्मिक अनुग्रह की पहली घोषणा से टोरी और ह्विग दोनों दल जेम्स के विरूद्ध हो गये। किंतु जेम्स ने किसी के विरोध की कोई परवाह नहीं की और अपनी नीति पर चलता रहा। उसने जेसुइट पादरी पेट्रे सहित चार अन्य कैथोलिकों को प्रीवी कौंसिल में नियुक्त कर दिया। जेम्स के इन कार्यों से जनता समझ गई कि जब जेम्स धार्मिक सहिष्णता की बात करता था तो उसका अभिप्राय कैथोलिकों का प्रभाव स्थापित करना था।
धार्मिक अनुग्रह की दूसरी घोषणा
जेम्स द्वितीय की नीतियों से सामंत और ग्रामीण क्षेत्रों के जमींदार रूष्ट हो गये, जिन्होंने गृहयुद्ध में उसके पिता चार्ल्स द्वितीय का साथ दिया था। जेम्स का सिथति की गंभीरता का ज्ञान नहीं था कि उसके समर्थक भी उसके विरोधी होते जा रहे थे।
अभी धार्मिक अनुग्रह की पहली घोषणा को अधिक समय नहीं बीता था कि जेम्स द्वितीय ने 1688 में धार्मिक अनुग्रह की दूसरी घोषणा की, जिससे सभी धर्मों को पूर्ण स्वतंत्रता मिल गई और बिना किसी पक्षपात के सभी को राजकीय पदों पर नियुक्त किये जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। जेम्स प्यूरिटनों को अपने पक्ष में करना चाहता था, किंतु प्यूरिटनों ने जेम्स के सरकारी नौकरियाँ देने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उसके इस कार्य से प्रोटेस्टेंटों में क्रांति की भावना प्रबल होने लगी।
सात पादरियों की गिरफ्तारी
जेम्स द्वितीय ने आदेश दिया था कि धार्मिक अनुग्रह की दूसरी घोषणा को प्रत्येक रविवार को पादरियों द्वारा कलीसिया में प्रार्थना के अवसर पर पढ़ा जाये। यद्यपि राज्यादेशों को प्रार्थना सभाओं में सुनाये जाने की परंपरा थी, किंतु पादरी वर्ग का कहना था कि यह आदेश धार्मिक हस्तक्षेप था और अवैधानिक था। अंत में, कैंटरबरी के आर्चबिशप सेनक्राफ्ट, जो एक उग्रवादी टोरी और राजा के दैवी अधिकारों का समर्थक था, ने अपने छः साथियों से परामर्श कर राजा को एक प्रार्थना-पत्र दिया, जिसमें राजा से निवेदन किया गया था कि वह (राजा) अपनी घोषणा को पढ़ने के आदेश को निरस्त कर दे और पुराने नियमों को भंग करने की नीति को त्याग दें। इस पत्र के अंत में यह भी लिखा गया था कि हम राजा की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर रहे हैं, बल्कि राजा ही देश के नियमों का उल्लंघन कर रहा है। जेम्स ने पादरियों के इस कार्य को अपमान तथा विद्रोह समझा और उन्हें राजद्रोह के आरोप में लंदन के टॉवर में कैद कर लिया। इंग्लैंड की जनता ने जब पादरियों को टॉवर में जाते देखा तो वह क्रांति के लिए तैयार हो गई, किंतु न्यायाधीशों ने इन पादरियों को निर्दोष घोषित कर मुक्त कर दिया। इंग्लैंड की जनता ने पादरियों की मुक्ति पर प्रसन्नता व्यक्त की और जनता के इस उल्लास में सेना ने भी भाग लिया।
फ्रांस के साथ मैत्री-संबंध
इस समय यूरोप में फ्रांस के शासक लुई चौदहवें का प्रभाव छाया हुआ था। चार्ल्स द्वितीय की तरह जेम्स द्वितीय भी लुई चौदहवें से अत्यधिक प्रभावित था। वह फ्रांस से आर्थिक एवं सैनिक सहायता प्राप्त कर इंग्लैंड में अपने निरंकुश शासन को स्थापित करना चाहता था। लुई चौदहवाँ कट्टर कैथोलिक था और फ्रांस में प्रोटेस्टेंटों पर अत्याचार करता था जिसके कारण इंग्लैंड की जनता लुई चौदहवें से घृणा करती थी और चाहती थी कि जेम्स भी फ्रांस से मित्रता न रखे। किंतु जेम्स ने जनता की भावनाओं की परवाह नहीं की और लुई चौदहवें का पिछलग्गू बना रहा। इंग्लैंड की जनता को यह भी संदेह था कि लुई चौदहवें और जेसुइट पादरियों के प्रभाव में आकर जेम्स द्वितीय इंग्लैंड में कैथोलिक धर्म स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। जेम्स की फ्रांस-समर्थक नीति से इंग्लैंड की संसद और जनता का अप्रसन्न होना स्वाभाविक था।
यह सही है कि जेम्स की गृहनीति अनुचित थी, किंतु उसके पतन का वास्तविक कारण उसकी गृहनीति नहीं, अपितु वैदेशिक नीति थी। यदि वह फ्रांस के स्थान पर हॉलैंड से मित्रता करता तो संभवतः उसे अपना पद छोड़ने पर विवश न होना पड़ता, क्योंकि हॉलैंड एक प्रोटेस्टेंट देश था, इसलिए उससे मित्रता करने पर जेम्स को इंग्लैंड की जनता का समर्थन मिल जाता। किंतु उसने ऐसा नहीं किया, जिसका परिणाम उसे शीघ्र ही भुगतना पड़ा।
जेम्स द्वारा जनता की शक्ति को कम आंकना
जेम्स को यह भ्रम था कि वह जनता को शक्ति के द्वारा भयभीत करके स्वेच्छाचारिता से शासन कर सकता है। उसे इतिहास से सबक लेना चाहिए था और यह नहीं भूलना चाहिए था कि जनता ने उसके पिता चार्ल्स प्रथम के विरुद्ध किस प्रकार अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया था और उसको मृत्युदंड दे दिया था। जेम्स के लिए यह आवश्यक था कि वह जनता की भावनाओं को समझता और चार्ल्स द्वितीय की तरह शासन करता, किंतु उसने जनता की भावनाओं के विरुद्ध कार्य किया और जनता की शक्ति को समझने में असफल रहा।
स्थायी सेना का निर्माण
मनमथ के विद्रोह का बहाना करके जेम्स ने स्थायी सेना का निर्माण किया। यद्यपि इस सेना का निर्माण विद्रोह के दमन के लिए किया गया था, किंतु जेम्स ने विद्रोह के बाद इस सेना को स्थायी रूप से बनाये रखा। संसद इस सेना के व्यय के लिए धन देने के लिए तैयार थी, किंतु वह चाहती थी कि जेम्स इस सेना के कैथोलिक अधिकारियों को हटा दे। जेम्स ने संसद की माँग मानने से इनकार कर दिया। इससे संसद का संदेह बढ़ गया क्योंकि इस सेना में अधिकांश सैनिक और अधिकारी कैथोलिक थे। इसी बीच जेम्स ने लंदन की जनता को आतंकित करने के लिए 13000 सैनिकों को नगर के समीप नियुक्त कर दिया, इससे जेम्स के प्रति जनता का संदेह और गहरा हो गया।
जेम्स द्वितीय के पुत्र का जन्म
जेम्स की प्रथम पत्नी ऐन हाइड से दो पुत्रियाँ थीं-मेरी तथा ऐन, और दोनों ही प्रोटेस्टेंट थीं। मेरी का विवाह हॉलैंड के राजकुमार विलियम से हुआ था, जो एक प्रोटेस्टेंट था। इंग्लैंड की जनता को विश्वास था कि जेम्स द्वितीय की मृत्यु के बाद मेरी ही इंग्लैंड की शासिका बनेगी और प्रोटेस्टेंट संप्रदाय को पुनः सुविधाएँ मिल सकेंगी। इसी आशा और विश्वास के साथ जनता जेम्स के अत्याचारी शासन को सहन कर रही थी। किंतु जिस दिन सात पादरियों को टावर में बंदी बनाया गया था, उसके दो दिन बाद 10 जून, 1588 को जेम्स द्वितीय की दूसरी पत्नी मोडेना ने एक पुत्र को जन्म दिया और यह स्पष्ट हो गया कि वही भविष्य में इंग्लैंड का शासक बनेगा। इस संभावना मात्र से जनता में असंतोष फैल गया कि अब उन्हें कैथोलिक राजाओं से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। इस पुत्र के संबंध में भी लोगों को संदेह था क्योंकि उसके जन्म के समय केवल कैथोलिक पादरी ही वहाँ उपस्थित थे। यहाँ तक कि जेम्स की दूसरी पुत्री ऐन और क्लेरेंडन भी वहाँ उपस्थित नहीं थे, जो प्रोटेस्टेंट थे। इस आसारधारण स्थिति के कारण जनता को शक हुआ कि यह एक कैथोलिक षड्यंत्र था और किसी अन्य के पुत्र को महल में लाकर उसे राजा का पुत्र घाषित कर दिया गया था।
इस प्रकार यद्यपि जेम्स के पतन के कारणों के लिए उसके शासनकाल में किये गये अनेक कार्य उत्तरदायी हैं, जैसे- उसने सदैव जनता की इच्छा के विरुद्ध शासन किया, असांविधानिक तरीके से निलंबन तथा विमोचन के अधिकारों का प्रयोग किया, धार्मिक न्यायालयों की स्थापना करके कानून को भंग किया, गिरजाघरों और विश्वविद्यालयों पर आक्रमण करके पादरियों और टोरियों को रुष्ट किया। उसका सात पादरियों को बंदी बनाना अत्याचारपूर्ण था। उसने शक्ति के द्वारा स्वेच्छाचारी बनना चाहा, किंतु यदि उसके पुत्र न हुआ होता तो इसमें संदेह है कि यह क्रांति होती।
ह्विग और टोरी दलों की एकता
क्रांति का एक महत्वपूर्ण कारण टोरी और ह्विग दलों का एकजुट होना भी था। अभी तक दोनों दल एक-दूसरे के विरोधी थे, किंतु जेम्स की धार्मिक नीति ने दोनों को एक कर दिया और दोनों दलों ने जेम्स को सिंहासन से हटाने और प्रोटेस्टेंट मेरी को सिंहासन पर बैठाने का निर्णय किया।
गौरवशाली क्रांति की घटनाएँ
जिस दिन सात पादरियों को मुक्त किया गया, उसी रात अर्थात् 30 जून 1688 ई. को एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें सात प्रमुख पादरियों, टोरियों और ह्विगों ने निर्णय लिया कि जेम्स द्वितीय के दामाद विलियम ऑफ ऑरेंज को, जो हॉलैंड का राजा था, को इंग्लैंड के राजसिंहासन के लिए आमंत्रित किया जाए। इस निर्णय के अनुसार एडमिरल हार्वर्ड भेष बदल कर विलियम को निमंत्रित करने हालैंड गया। विलियम उन दिनों फ्रांस से युद्ध में व्यस्त था। फ्रांस, हॉलैंड से कहीं अधिक शक्तिशाली था, अतः विलियम ने इस अवसर से लाभ उठाने का निश्चय किया क्योंकि फ्रांस, इंग्लैंड और हॉलैंड की सम्मिलित शक्ति का सामना नहीं कर सकता था। फलतः विलियम इंग्लैंड आने के लिए राजी हो गया।
लुई चौदहवें ने जेम्स को इस खतरे के विरूद्ध चेतावनी दी। अतः जेम्स ने अपनी नीति ने परिवर्तन करते हुए धार्मिक न्यायालय को भंग कर दिया। जिन गिरजाघरों, विश्वविद्यालयों, न्यायालयों, नगर निगमों तथा सेना के अधिकारियों को उनके पदों से हटा दिया गया था, उन्हें पुनः उनके पदों पर बहाल कर दिया गया। कुछ अन्य प्रोटेस्टेंट भी उच्च पदों पर नियुक्त किये गये, किंतु अब तक बहुत देर हो चुकी थी और जेम्स जनता का विश्वास खो चुका था।
विलियम ऑफ ऑरेंज पंद्रह हजार सेना के साथ 5 नवंबर 1688 में ट्रोबे के बंदरगाह पर उतरा। अभी तक इंग्लैंड में जेम्स की स्थिति बहुत अच्छी थी। जेम्स के अधीन चालीस हजार सेना थी और नौसेना भी उसके प्रति वफादार भी थी। जेम्स की तुलना में विलियम की सेना बहुत छोटी थी और विभिन्न राष्ट्रों के सैनिकों के कारण उसकी सेना संगठित भी नहीं थी। इस समय यदि जेम्स एक स्वतंत्र संसद के निर्वाचन और उसकी इच्छानुसार शासन करने का आश्वासन देता तो संभवतः यह क्रांति न होती, किंतु जेम्स ऐसा करने के लिए तैयार नहीं था।
विलियम अपनी सेना के साथ लंदन की ओर चला। जेम्स भी अपनी सेना के साथ विलियम का सामना करने आगे बढ़ा, किंतु रास्ते में उसके साथी उसका साथ छोड़ने लगे और विलियम की ओर मिल गये। यहाँ तक कि उसका प्रमुख और विश्वासपात्र सेनापति जॉन चर्चिल और उसकी छोटी पुत्री ऐन भी उसका साथ छोड़कर विलियम से जाकर मिल गये। इस प्रकार जेम्स की सेना के छिन्न-भित्र हो गई और वह निराश हो गया। जेम्स ने निराश होकर कहा- ‘ईश्वर दया कर मेरे अपने ही बच्चे मेरा साथ छोड़ चुके हैं।’
अंततः चारों ओर से निराश जेम्स 23 दिसंबर 1688 को राजमुद्रा को टेम्स नदी में फेंककर फ्रांस भाग गया, जहाँ उसकी पत्नी और पुत्र पहले ही पहुँच चुके थे। ह्विग ओर टोरी नेताओं ने जेम्स को बंदी न बनाकर भाग जाने दिया क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि चार्ल्स प्रथम की फाँसी की घटना की पुनरावृत्ति हो। इस प्रकार रक्त की एक भी बूँद बहाये बिना इंग्लैंड में क्रांति हो गई। इसलिए इसे ‘रक्तहीन क्रांति, ‘गौरवशाली क्राति’ या ‘शानदार क्रांति’ कहते हैं।
जेम्स के फ्रांस भाग जाने के बाद इंग्लैंड का राजसिंहासन खाली हो गया था। संसद ने मेरी को रानी और विलियम को संरक्षक नियुक्त करना चाहा, किंतु विलियम इसके लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उसे हॉलैंड की रक्षा करने के लिए शक्ति की आवश्यकता थी। 22 जनवरी, 1689 ई. को संसद की पुनः बैठक हुई, जिसमें संसद ने विलियम के समक्ष कुछ शर्तें (डिक्लेरेशन ऑफ राइट) रखी, जिनको मेरी और विलियम ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जेम्स द्वितीय के बाद इंग्लैंड के राजसिंहासन पर विलियम और मेरी संयुक्त रूप से आसीन हुए।
गौरवशाली क्रांति के परिणाम
1688 ई. की गौरवशाली क्रांति का इंग्लैंड के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस क्रांति के परिणामस्वरूप संसद और राजा के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष का अंत हो गया। इस क्रांति ने उन समस्त सिद्धांतों को स्पष्ट कर दिया जिनके कारण यह संघर्ष चल रहा था, जिसके कारण गृहयुद्ध हुआ और इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम को फाँसी देनी पड़ी थी। संसद और राजा के बीच संघर्ष के मुख्य कारण थे कि राजा और संसद में किसके अधिकार सर्वोपरि हैं; इंग्लैंड के चर्च का स्वरूप क्या हो, एंग्लिकनया कैथोलिक; राज्यमंत्री राजा के प्रति उत्तरदायी हैं अथवा संसद के; नागरिक स्वाधीनता की रक्षा, कानून बनाने और कर लगाने का अधिकार किसको है; देश की वैदेशिक और गृहनीति किसकी इच्छानुसार संचालित होनी चाहिए? 1688 की इस शानदार क्रांति ने इन सभी प्रश्नों का उत्तर दे दिया।
इस रक्तहीन क्रांति ने स्पष्ट कर दिया कि राजा के दैवी अधिकारों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह ईश्वर के प्रति नहीं, बल्कि जनता की प्रतिनिधि संसद के प्रति उत्तरदायी है। जनता की शक्ति सर्वोपरि है, इसलिए राजा को प्रचलित नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। राजा की वास्तविक शक्ति संसद के सहयोग पर ही निर्भर है।
राजमंत्रियों के उत्तरदायित्व के संबंध में भी यह स्पष्ट हो गया कि वे संसद के प्रति ही उत्तरदायी हैं। राजा के क्षमा करने से वे संसद के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकते। इस क्रांति ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करना, कानून बनाना और कर लगाना संसद के अधिकार हैं, राजा इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। राज्य की गृह एवं वैदेशिक नीति का निर्धारण भी राजा अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि संसद के परामर्श से करेगा। इस प्रकार इस क्रांति ने राजा और संसद के बीच चलने वाले दीर्घकालीन संघर्ष का अंत कर दिया और संसद की सर्वाच्चता को स्थापित कर दिया। इसी सर्वोच्चता के प्रश्न पर इंग्लैंड में 1642-1649 तक गृहयुद्ध हुआ था और चार्ल्स प्रथम को फाँसी दी गई थी।
धार्मिक क्षेत्र में भी स्पष्ट हो गया कि इंग्लैंड का वास्तविक धर्म एंग्लिकन अथवा प्रोटेस्टेंट है। चर्च पर से राजा का अधिकार समाप्त हो गया और संसद को चर्च का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि कोई कैथोलिक अथवा जिसका विवाह कैथोलिक से हुआ हो, इंग्लैंड की राजगद्दी पर आसीन नहीं हो सकता। इस प्रकार इस क्रांति ने कैथोलिक खतरे को इंग्लैंड से सदैव के लिए समाप्त कर दिया और प्रोटेस्टेंट धर्म इंग्लैंड में स्थापित हो गया।
इस प्रकार गौरवशाली क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में राजाओं की निरंकुशता एवं स्वेच्छाचारिता के स्थान पर वास्तविक संसदीय प्रणाली की स्थापना हुई, जिससे न केवल इंग्लैंड, बल्कि संपूर्ण विश्व प्रभावित हुआ।
इस क्रांति के कारण इंग्लैंड में सहिष्णुता की भावना और दृढ़ हुई और प्रेस को स्वतंत्रता मिली। न्याय विभाग और कार्यकारिणी पृथक्-पृथक् किये गये और एक लोकप्रिय सरकार की स्थापना हुई। इस प्रकार इस नवीन युग-निर्मात्री घटना से इंग्लैंड में लोकप्रिय सरकार का युग आरंभ हुआ और सत्ता निरंकुश राजाओं के हाथ से निकलकर संसद के हाथ में आ गई।
गौरवशाली क्रांति ने इंग्लैंड के साथ-साथ संपूर्ण यूरोप को प्रभावित किया। इंग्लैंड और हॉलैंड में पिछले कई दशकों से व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण शत्रुता चल रही थी। डान्वी ने यद्यपि मित्रता स्थापित करने का प्रयत्न किया था, किंतु यह मित्रता अस्थायी सिद्ध हुई। इस क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड और हॉलैंड का राजा एक ही होने के कारण दोनों देशों के बीच स्थायी मित्रता स्थापित हुई। इससे फ्रांस का हॉलैंड पर अधिकार करने सपना टूटकर चकनाचूर हो गया।
इंग्लैंड और हॉलैंड में मित्रता तो स्थापित हुई, किंतु फ्रांस और इंग्लैंड के संबंध खराब हो गये। चार्ल्स द्वितीय तथा जेम्स द्वितीय के समय में इंग्लैंड और फ्रांस के संबंध बहुत मधुर थे क्योंकि दोनों ही कैथोलिक थे। जेम्स द्वितीय तो लुई चौदहवें से अत्यधिक प्रभावित था। गौरवशाली क्रांति के कारण इंग्लैंड में प्रोटेस्टेंट शासन की स्थापना और हॉलैंड तथा फ्रांस की शत्रुता के कारण इंग्लैंड तथा फ्रांस में भी शत्रुता हो गई। इंग्लैंड और हॉलैंड की संयुक्त शक्ति के कारण इंग्लैंड का खोया हुआ वैदेशिक सम्मान उसे पुनः प्राप्त हो गया।
इस गौरवशाली क्रांति ने इंग्लैंड एवं यूरोप की राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया और इंग्लैंड तथा यूरोप के इतिहास को एक नवीन दिशा प्रदान की। अब तक यूरोप में निरकुंश और स्वेच्छाचारी शासन था, परंतु इस गौरवपूर्ण क्रांति के कारण यूरोप मे भी लोकतंत्र और वैज्ञानिक राजतंत्र हेतु आंदोलन प्रारम्भ हुए।
वास्तव में यह क्रांति सुखद और शानदार थी क्योंकि इसमें फ्रांस की क्रांति की तरह रक्तपात और आतंक नहीं था र यह सभी दलों की सहमति से हुई थी।
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