चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)

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चीन की सभ्यता

चीन की सभ्यता विश्व की प्राचीन सभ्यता है और संभवतः मिस्र, मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी की सभ्यताओं से भी प्राचीन है। विश्व के अन्य देश जब बर्बरता के अंधेरे में गोते लगा रहे थे, उस समय चीनी सभ्यता की ज्योति विश्व में जगमगा रही थी। वास्तव में, जिस समय रोम शब्द ही नहीं था, यूनान और ईरान का अस्तित्व ही नहीं था और जब अब्राहम ने अपनी महत्त्वपूर्ण यात्रा प्रारंभ की थी, उसके बहुत पहले ही चीनी लोग अपने देश को सभ्य बना चुके थे। आज जबकि मिस्र, मेसोपोटामिया, यूनान व रोमन आदि सभ्यताओं का अस्तित्व समाप्त हो चुका है, वहीं चीन की सभ्यता आज भी जीवित है।

पाश्चात्य विद्वान् मिस्र और बेबीलोनिया की सभ्यता को सबसे पुरानी सभ्यता इसलिए मान लेते हैं, क्योंकि उनको चीन के इतिहास का ज्ञान प्रायः नहीं के बराबर है। अन्य सभ्यताएँ जन्मीं और नष्ट हो गईं, किंतु प्राचीन चीन ने जिस सभ्यता को जन्म दिया, वह कभी नष्ट नहीं हुई। वाल्तेयर ने लिखा है कि चीनी साम्राज्य का शरीर बिना किसी परिवर्तन के चार हजार वर्षों से जीवित है, उसके कानून, परंपराएँ, भाषा और फैशन आज भी वैसे ही हैं। चीन की विचित्रताओं के बारे में एलिस और जॉन ने लिखा है: ‘चीन के नाम से रेशम के कीड़ों, दरियाई भैंसों, पंखों, कागज की लालटेनों और विशाल दीवार का, लकड़ी की तीलियों से चावल खाने वालों, खूबसूरत राजकुमारियों और लंबे गाउन पहने अकड़कर बैठे सम्राटों का चित्रण आँखों के आगे नाचने लगता है। चीन अमेरिका की कल्पना को उत्तेजित करता है, क्योंकि वह इतना रंगीन और पश्चिमी देशों से भिन्न है।’

चीन की सभ्यता की जानकारी से विश्व को अनेक लाभ हुए हैं। विलड्यूरेंट के अनुसार चीन सभ्यता की खोज प्रबुद्धता की एक भारी प्राप्ति है। चीन के लोग एशिया के अन्य लोगों से सभ्यता, कला, बुद्धि, दर्शन और नीति में उच्च हैं, वे जो यूरोप के सभी लोगों से भी इस क्षेत्र में बाजी मार गये हैं। इस सभ्यता का विकास मिस्र, सुमेरिया व भारत की भाँति नदियों की उपजाऊ घाटियों में ही हुआ है। चीन की उपजाऊ भूमि ने उन्हें घुमक्कड़ नहीं बनने दिया। वे तंबुओं में नहीं, अपने घरों में रहते थे। यही कारण है कि उन्हें ‘चालीस शताब्दियों का किसान’ कहा जाता है।

चीन की सभ्यता अपनी सातत्य एवं निरंतरता के कारण विश्व की सभ्यताओं में विशिष्ट है। आज विश्व की अनेक सभ्यताएँ इतिहास के पृष्ठों तक सीमित हो गई हैं, चीन की सभ्यता आज भी जीवित है। चीन की सभ्यता मिस्र, मेसोपोटामिया और यूनान की तरह विभिन्न जातियों और नस्लों के लोगों की नहीं, बल्कि एक ही जाति के लोगों की सभ्यता है, जो एक ही भाषा बोलते और लिखते हैं और यह वही भाषा है, जिसका आविष्कार आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार चीन की सभ्यता में एक सातत्य है।

चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)
चीन की सभ्यता

प्राचीन चीन के निवासी अपने देश को मध्यराज, अधोस्थित राज, तंगजेन, हन जेन इत्यादि नामों से पुकारते थे। आधुनिक नाम ‘चीन’ तृतीय शती ई.पू. में स्थापित ‘चिन’ राजवंश के नाम पर पड़ा है। आज यह एशिया का सर्वाधिक विस्तृत भू-क्षेत्र एवं जनसंख्या वाला देश है और विश्व के विशाल एवं महत्त्वपूर्ण देशों में से एक है। यहाँ हजारों वर्षों से सरकारी इतिहासकार थे, जो घटनाओं का समुचित विवरण लिखते थे। इसीलिए चीन को ‘ऐतिहासिकों का स्वर्ग’ कहा जाता है।

भौगोलिक स्थिति

चीन के उत्तर में सोवियत रूस, मंगोलिया, दक्षिण में हिंदचीन, बर्मा, भारत, पूर्व में कोरिया तथा प्रशांत महासागर, पश्चिम में सोवियत रूस, अफगानिस्तान तथा भारत के पश्चिमोत्तर भाग अवस्थित हैं। पर्वतों, रेगिस्तानों और समुद्रों से घिरी होने के कारण इस सभ्यता ने अपने मौलिक रूपों का समुचित विकास किया। चीन को भौगोलिक दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है- मूल चीन और बहिर्वर्ती प्रांत। इनमें मुख्य (मूल) चीन ही प्राचीन चीनी सभ्यता एवं संस्कृति का प्रधान केंद्र था। इसका संपूर्ण क्षेत्र तीन अजस्रवाहिनी नदियों- ह्वांग हो, यांग्त्से तथा सी क्यांग और उनकी सहायक नदियों से सिंचित है। उत्तरी तथा पश्चिमी पर्वतमालाओं से निकलकर अनेक सहायक नदियाँ को साथ लेकर तीनों नदियाँ प्रशांत महासागर में गिरती हैं। यही तीनों नदियाँ चीन को उत्तरी चीन, मध्य चीन तथा दक्षिणी चीन में विभाजित करती हैं।

चीन की तीनों नदियों में ह्वांग हो सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण नदी है। यह कुनलुन पर्वत श्रृंखला की सरिंग नोर तथा ओरिंग नोर झीलों से निकलकर अंततः पीत सागर में विलीन हो जाती है। इसकी सबसे बड़ी सहायक नदी बी हो नदी है, जो टंगक्वान में इससे मिलती है। लोयस पठार से गुजरते समय यह पठार की पीली मिट्टी को काटकर अपने साथ ले जाती है। इसीलिए इसे ‘पीली नदी’ और इसके द्वारा निर्मित मैदान को ‘पीत मैदान’ कहते हैं। वर्षाकाल में बाढ़ आने से इसका पाट बहुत चौड़ा हो जाता है, जिसके कारण यह नदी अकसर अपनी धारा बदलती रहती है। इस दौरान इसमें भंयकर बाद आ जाती है और समीपवर्ती समस्त बस्तियाँ इसमें समा जाती हैं। इसलिए चीनवासी इसे ‘चीन का शोक’, ‘भटकती नदी’ तथा ‘हजारों अभिशापों की नदी’ जैसे नामों से संबोधित करते हैं। चीनियों ने अपनी बौद्धिक कुशलता का परिचय देते हुए मिट्टी का बाँध बनाया, जिससे नदी की विभीषिका से सुरक्षा हो सके। पीत मैदान विश्व का सबसे बड़ा उपजाऊ क्षेत्र है। इसलिए जहाँ एक ओर ह्वांग हो नदी चीनवासियों के लिए शोक थी, वहीं दूसरी ओर लाभदायक भी सिद्ध हुई। प्राचीन चीनी सभ्यता के सृजन एवं संवर्द्धन में इस नदी की वही भूमिका रही है, जो मिस्र के लिए नील नदी का और मेसोपोटामिया के सृजन में दजला-फरात नदियों का था।

यांगटिसीक्यांग नदी तिब्बती पठार के तंगला श्रेणी से निकलकर चीन सागर में मिल जाती है। यह चीन की सबसे बड़ी नदी है। इसकी कुल लंबाई 5.557 कि.मी. है। इस नदी का बेसिन चीन के 20 प्रतिशत भाग को आच्छादित किये हुए है। कृषि और यातायात के क्षेत्र में इस नदी की बड़ी उपयोगिता रही है। इसके दक्षिण में चीन की तीसरी बड़ी नदी सीक्याँग युन्नान पठार से निकलकर दक्षिणी चीन सागर में गिरती है।

चीन के बहिर्वर्ती मंचूरिया, मंगोलिया, सी क्याँग और तिब्बत हैं। चीनी शासक इन्हें चीन का अविभाज्य अंग मानते हैं और प्रायः इस पर अधिकार करने के लिए प्रयास करते रहते थे। किंतु इन देशों में चीनी सदैव अत्यल्प रहे हैं, और सांस्कृतिक दृष्टि से भी वे कभी पूर्ण चीनी नहीं बन पाये, विशेषकर, तिब्बत का पृथक अस्तित्व एवं भौगोलिक पृष्ठभूमि एक ऐतिहासिक तथ्य रहा है। इतना ही नहीं, चीन के हृास काल में इन्होंने उस पर आक्रमण भी किये। इनमें से कई भाग चीन पर आक्रमण करके अपने को स्वतंत्र करने का सफल प्रयास किये हैं और कुछ ने पूर्ण स्वतंत्र सत्ता प्राप्त भी कर लिया है।

चीन की भौगोलिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में पूर्व में प्रशांत महासागर, दक्षिण एवं पश्चिम में विशाल पर्वतमालाओं एवं रेगिस्तान तथा दक्षिण में हिमालय कराकोरम और पामीर पर्वतमालाओं और पश्चिम में गोबी मरूस्थल से घिरा चीन प्राचीन काल में बाह्य आततायियों से पूर्णतया सुरक्षित रहा है। इसलिए यहाँ विदेशी जातियाँ प्रवेश नहीं हो सका है।

प्रागैतिहासिक काल

चीनी मानव के जो अवशेष पेंकिंग (चीन की राजधानी) के निकट चोट कोड तिएन गुफा से मिले हैं, पुरातात्त्विक दृष्टि से पूर्व पाषाण काल के हैं। इससे स्पष्ट है कि वहाँ मानव जाति का एक प्रमुख केंद्र था और यहाँ के निवासी ऐतिहासिक चीनी जाति के समान मंगोलिड परिवार के थे। पेकिंग मानव को मंगोल जाति का ही नहीं, विशिष्ट चीनी जाति का पूर्वज बताया गया है। पेकिंग से प्राप्त मानव के दाँत, खोपड़ी और अन्य अस्थि-पंजर पुरा पाषाणकालीन हैं। इसके बाद के काल के पत्थर के औजार और मिट्टी के बर्तन पीली नदी के उत्तर-पश्चिम की पहाड़ियों की तलहटी में मिले हैं और यह श्रृंखला मध्य तथा दक्षिण चीन तक मिलती है। इससे पता चलता है कि पाषाण काल में पेकिंग मानव ने अधिक परिष्कृत पत्थर के उपकरणों तथा मृद्भांडों का निर्माण करना सीख लिया था।

पुरापाषाण काल के पश्चात् चीन में नव-प्रस्तरयुगीन सभ्यता के अवशेष पीली नदी के मध्य मार्ग से मिलते हैं, जिनमें दो स्थल हेनान और शानक्सी विशेष महत्वपूर्ण हैं। हेनान प्रांत के योग शाओं गाँव में नव पाषाणकालीन स्थल का उत्खनन जे.जी. एंडर्सन ने किया था। यहाँ चित्रित मृद्भांड के साक्ष्य मिले हैं, जिसे यांग शाओं के नाम पर ‘यांग शाओं संस्कृति’ नाम से जाना जाता है। दक्षिण शानक्सी के यानपो स्थल की खुदाई में लकड़ी के खंभों और मिट्टी की दीवारवाले घर मिले हैं, जिन पर मिट्टी के गारे से लीपा हुआ फूस का छप्पर था। फर्श मिट्टी से पोते गये थे और मिट्टी का ही प्रयोग चूल्हों, आलमारियों और बैठकों के लिए भी किया गया था। मृद्भांड लाल और भूरी मिट्टी तथा मोटे रेत से बनाये गये थे। इन बर्तनों पर चित्रकारी भी मिली है। प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेष पूर्वी क्षेत्र के लुंगशान नामक स्थान से मिले हैं। इसीलिए उसे ‘लुंगशान संस्कृति’ कहा जाता है। यहाँ के अवशेषों में तपाई हुई अस्थियाँ प्रमुख हैं, जिनमें दरारें हैं।

इन दोनों नव पाषाणकालीन संस्कृतियों में मुख्यतः बाजरा उगाया जाता था। कहीं-कहीं गेहूँ की फसल भी होती थी। कृषि के अलावा, कुत्ते, सुअर, बकरी, भेड़ तथा अन्य पशु भी पाले जाते थे। तीर और धनुष कमान भी मिले हैं, जिनसे पता चलता है कि चीनियों में शिकार की परंपरा प्रचलित थी। तीरों के अग्रभाग में अस्थियों के फलक लगाने के प्रमाण मिले हैं। प्रमाणों से स्पष्ट है कि लुंगशान संस्कृति यांग शाओं संस्कृति के अंतिम दौर में शुरू हुई और उसके बाद अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँची क्योंकि इन दोनों में सातत्य है और दोनों में समान प्रकार के पत्थर के औजार मिले हैं। फिर भी, यांग शाओं संस्कृति की अपेक्षा लुंगशान संस्कृति के उपकरण अधिक परिष्कृत हैं। इन दोनों संस्कृतियों की मृद्भांड कला क्रमशः चित्रित मुद्भांड और कृष्ण मृद्भांड हैं और दोनों संस्कृतियाँ प्रकृत्या चीन की स्वदेशी संस्कृतियाँ प्रतीत होती हैं। ईसापूर्व 3000 में ये दोनों संस्कृतियाँ फलती-फूलती रहीं। इसके बाद लगभग 1000 वर्षों तक चीन की सभ्यता किस प्रकार विकसित हुई, इसका कोई भौतिक या पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलता है।

ऐतिहासिक स्रोत

प्राचीन चीन साहित्यिक रचना की दृष्टि से समृद्ध था, किंतु चीनियों ने बाँस की खपच्चियों, रेशमी वस्त्रों पर प्रभूत साहित्य का सृजन किया था, उनका अधिकांश भाग जलवायु और अनवरत चलने वाले युद्धों के कारण नष्ट हो गया है। इसके अलावा, सम्राट शी ह्वांग टी ने भी बहुत से ग्रंथों को नष्ट करवा दिया था। संप्रति चीनी साहित्य का एक अंश मात्र ही उपलब्ध है। इसके अलावा, चीन के विभिन्न ऐतिहासिक पुरास्थलों, विशेशकर हेनान प्रांत से उत्खनन में तमाम पुरातात्त्विक सामग्री प्रकाश में आई है, जो चीनी इतिहास के निर्माण में पर्याप्त सहायक हुई है।

चीन का राजनीतिक इतिहास

चीन का पौराणिक इतिहास

नवपाषाणकाल की समाप्ति से लेकर ऐतिहासिक शिया राजवंश के उदय के पूर्व तक का चीनी इतिहास पौराणिक काल के अंतर्गत आता है। इस काल के इतिहास के एकमात्र स्रोत पौराणिक आख्यान हैं। चीन के पौराणिक मिथकों के अनुसार चीनी राज्य का जन्मदाता ‘पान कू’ नामक शासक था। कहते हैं कि पान कू दो रहस्यमयी शक्तियों के संयोग से उत्पन्न हुआ था। उसने पृथ्वी और आकाश को पृथक् किया और अठारह हजार वर्षों तक परिश्रम कर रुखानी और मुंगडे से ठोंककर अंतरिक्ष में उड़ते हुए ग्रेनाईट के पत्थरों को चंद्र, पृथ्वी और तारों का रूप दिया। मृत्यु के बाद पान कू का सिर पहाड़ों में परिवर्तित हो गया, उसकी छाती बादल तथा हवा के रूप में और आवाज बिजली तथा मेघो के गर्जना में परिवर्तित हो गई। उसकी धमनियों ने नदियों का रूप धारण कर लिया और नसें छोटी-छोटी पहाड़ियाँ तथा घाटियाँ बन गईं। उसका मांस खेतों में बदल गया और चमड़े व बालों ने पेड़-पौधों का रूप धारण कर लिया। उसका पसीना वर्षा के जल में परिवर्तित हो गया। अंत में, उसके शरीर की ओर जो कीड़े आकृष्ट हुए, उन्होंने मानव का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार पान कू ने सृष्टि की रचना की।

तीन अधिपति (सानहुआंग) और पाँच सम्राट (वूती)

माना जाता है कि चीन की सभ्यता का प्रथम चरण तीन शासकों का काल है, और दूसरा पाँच शासकों का। इन शासकों ने चीन में 2852 ईसापूर्व से 2205 ईसापूर्व तक शासन किया। शुमाचीन के अनुसार प्रथम तीन शासकों का तात्पर्य तीन शासक समूहों से है, जिनमें पहले समूह में बारह दैवी शासक (तिएन हुआंग), दूसरे में ग्यारह पृथ्वी लोक के शासक (ति हुआंग) और तीसरे समूह में नौ मानवीय शासक (जेन हुआंग) हुए। इन तीन शासक समूहों को वास्तव में स्वर्ग, पृथ्वी और मानव का प्रतीक माना गया है। इनमें से दैवी और स्थलज सम्राटों ने अलग-अलग अठारह हजार वर्ष तक और नौ लौकिक मानव सम्राटों (जेन-हुआंग) ने चार लाख छप्पन हजार वर्ष तक शासन किया था। कुछ इतिहासकार चीन के पौराणिक शासकों में फू सी, नुवा और शेनोंग नामक तीन सम्राटों का उल्लेख करते हैं।

पहला शासक फूशी

चीनी मिथकों के अनुसार चीन के तीन पौराणिक सम्राटों में फू शी पहला था। चीनी मिथकों के अनुसार उसका धड़ अजगर जैसा और सिर मनुष्य की तरह था। चीनी पांडुलिपियों के अनुसार फू शी ने पशु-जगत् पर विजय प्राप्तकर चीनी सभ्यता की नींव डाली। किंवदंती के अनुसार भूमि एक बड़ी बाढ़ से बह गई थी और केवल फू शी और उसकी बहन नुवा ही बची थी। परमात्मा ने उनके मिलन की स्वीकृति दी और भाई-बहनों ने मानव जाति को जन्म देना शुरू किया।

इस प्रकार फू शी पहला शासक था, जिसने परिवार का निर्माण कर सामूहिक निवास की आधारशिला रखी और मानवता के नियमों को निर्धारित किया। फू शी एक सांस्कृतिक नायक था, जिसने चीनी लोगों को घर बनाना, खाना बनाना, लोहे से बने हथियारों से शिकार करना, जाल से मछली पकड़ना, पशुपालन, संगीत, लेखन-कला और सितार बजाकर गाना सिखाया। उसने शकुन विचार (पाकुआ) के लिए ‘आठ रेखाचित्रों’ का आविष्कार किया, जिनसे कालांतर में चीनी अक्षरों का निर्माण हुआ। उसने नापने की विधि खोज निकाली, जो बाद में पंचाग की आधार बनी।

नुवा

फू शी की बहन और पत्नी का नाम नु वा था, जो एक चमत्कारी स्त्री थी। एक बार बाढ़ आने पर पानी को सुखाने के लिए उसने नरकुल के सरकंडों की राख का प्रयोग किया था। नुवा को विवाह संस्था को व्यवस्थित करने और आग के आविष्कार का श्रेय दिया गया है। दक्षिण-पश्चिमी चीन में कुछ अल्पसंख्यक नुवा को अपनी देवी मानते हैं।

शेनोंग

तीसरे प्रसिद्ध शासक शेनोंग के नाम का अर्थ ही है ‘दिव्य किसान’। शेंनोंग ने चीन के लोगों को खेती, व्यापार और औषधि की शिक्षा प्रदान की और पाँच तारों वाले सितार का आविष्कार किया। उसने कुदाल और हल का आविष्कार कर चीनी लोगों को दलदली जमीन को खेती योग्य बनाने और खानाबदोश जीवन छोड़कर कृषक के रूप में गाँवों में रहना सिखाया। इस कारण शेनोंग को ‘कृषि के देवता’ के रूप में याद किया जाता हैं। चीनी किंवदंती के अनुसार उसने 2737 ईसापूर्व में चाय की खोज की थी। उसने वस्तुओं के आदान-प्रदान के लिए मुद्रा और बाजार का आविष्कार किया, क्रय-विक्रय तथा व्यापार करना सिखाया और अनेक जड़ी-बूटियों की खोजकर चिकित्सा विज्ञान की नींव डाली। यही कारण है कि शेनोंग को कृषि, व्यापार और आयुर्वेद शास्त्र का जनक माना जाता हैं। यह भी माना जाता है कि उसने एक्यूपंक्चर तकनीक की भी शुरुआत की थी।

तीन अधिपतियों के बाद पाँच सम्राटों (वूती)- ह्वांग टी, शियु, खु, याओ तथा शुन ने शासन किया, जिन्होंने आग, कृषि, पंचाँग (कैलेंडर) और चीनी लिपि आदि सांस्कृतिक उपादानों का आविष्कार किया।

चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)
पीत सम्राट्’ (यलो सम्राट)
ह्वांग टी (यलो सम्राट)

पाँच सम्राटों में से पहला सम्राट् ह्वांग टी चीन के पौराणिक इतिहास में ‘पीत सम्राट्’ (यलो सम्राट) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे चीनी जाति का पिता और चीनी सभ्यता का संस्थापक माना जाता हैं। चीनी मिथकों के अनुसार ह्वांग टी ने 2697-2597 ई.पू. या 2696-2598 ई.पू. के बीच शासन किया था। चीन के ऐतिहासिक संवत् का प्रारंभ इसके शासन के पहले वर्ष से माना जाता हैं। कथाओं के अनुसार वह चीन की केंद्रीय सरकार का निर्माता, ब्रह्मांड का शासक और पाताल लोक का स्वामी था। कभी-कभी उसे सभी चीनी मूल के लोगों का पूर्वज भी कहा गया है। उसकी रानी ली त्जू ने चीनियों को सबसे पहले रेशम के कीड़े पालना सिखाया, इसलिए उसे ‘रेशम की जननी’ कहा जाता है।

ह्वांग टी ने बर्बर आक्रमणकारियों को पराजित किया और पैंतालिस नगरों का निर्माण करवाया। उसने भूमि को चिंग-तिएन पद्वति के अनुसार वितरित किया, पंचांग को परिष्कृत किया और तिथि-गणना में षष्ठिक पद्धति आरंभ की। उसके समय चीन में अनेक आविष्कार हुए, जैसे- गाड़ी, ईंट, टोपी, ओखली, मूसल, तीर कमान, कम्पास, मुद्रा आदि। ह्वांग टी के इतिहास मंत्री चांग चे ने राजकीय आज्ञा से लिपि का निर्माण कर इतिहास लिखवाया। एक इतिहास मंत्री सिंहासन के बाईं ओर रहता था, जो सम्राट द्वारा दी गई आज्ञाओं व मंत्रियों, प्रार्थियों के व्यक्तव्यों को लिखता था, जबकि दाहिनी ओर रहने वाला मंत्री तिथिवार घटनाओं को दर्ज करता था। कालांतर में तीसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य में चीन के सम्राट शि ह्वांग टी के आदेश पर इन इतिहास-ग्रंथों को जला दिया गया।

याओ तथा ‘यु महान’

ह्वांग टी के बाद क्रमशः चुआन शियु, खु, याओ तथा शुन ने शासन किया। किंतु इनमें याओं को छोड़कर अन्य किसी के बारे में कोई महत्वपूर्ण सूचना नहीं मिलती है। सम्राट खु ने संभवतः 2436 ईसापूर्व से 2366 ईसापूर्व तक शासन किया, इसके बाद 20 साल की उम्र में याओ शासक बन गया। सम्राट याओ (2358-2258 ईसापूर्व) को तांग याओ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि उसने एक चीनी खेल का आविष्कार किया था।

याओ तथा उसके पुत्र ‘यु महान’ का चीनी इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। कन्फ्यूशियस ने इन दोनों की आदर्श शासक के रूप में प्रशंसा की है। अनुश्रुतियों के अनुसार याओ के शासनकाल में ह्वांग हो नदी में भीषण आने पर याओ के पुत्र यु महान् ने बाढ़ से सुरक्षा के लिए बड़ी-बड़ी नहरें बनवाकर बाढ़ का पानी इधर-उधर बाँटकर चीनियों की बाढ़ से रक्षा की। किंतु राजपद वंशानुगत न होने के कारण याओ ने अपना सिंहासन ग्रेट शुन को सौंप दिया। सम्राट शुन को ‘द ग्रेट शुन’ या ‘यु शुन’ के नाम से भी जाना जाता था। याओ और शुन को ‘दो सम्राट’ के रूप में भी जाना जाता है और उनका शासनकाल चीनी इतिहास का स्वर्णयुग माना जाता है। शुन विशेष रूप से अपनी विनय और संतानोचित पवित्रता के लिए प्रसिद्ध थे। आखिरी सम्राट शुन ने अपना उत्तराधिकारी यू को नियुक्त किया, जिसने पौराणिक शिया राजवंश की स्थापना की थी।

शिया राजवंश (2070 ई.पू.–1600 ई.पू.)

शुन के बाद यु महान् ने प्राचीन चीन के प्रथम राजवंश की स्थापना की, जिसे शिया राजवंश (शिया चाओ) कहा गया है। शिया राजवंश चीन का पहला राजवंश है, जिसका उल्लेख बाँस कथाएँ, इतिहास का शास्त्र और महान इतिहासकार के अभिलेख जैसे चीनी इतिहास-ग्रंथों में मिलता है। इस राजवंश ने लगभग 2070 ई.पू. से 1600 ई.पू. तक शासन किया।

शिया राजवंश के संस्थापक यु महान को चीन में कृषि शुरू करने का श्रेय दिया गया है। देश को बाढ़ से होने वाली क्षति से बचाने के लिए यु ने चीन की नौ बड़ी नदियों का मुँह चौड़ा करवाकर उनके बहाव को समुद्र की तरफ मोड़ दिया था। इसके समय से चीनी इतिहासकार शूमा चीन ने अपने ग्रंथ चीन का इतिहास प्रारंभ किया है।

यद्यपि शिया राजवंश के शासकों संबंध में अधिक जानकारी नहीं हैं, किंतु स्रोतों से पता चलता है कि इस काल में चीन में पर्याप्त उन्नति हुई, भूमि का व्यवस्थित वितरण किया गया और नियमित कर-व्यवस्था की शुरूआत हुई। इस काल में ईश्वर की इच्छा की पूजा होती थी, जिसे ‘तिएन’ कहा गया है। इस समय का सबसे प्रतिष्ठित देवता शांग टी था, जो पृथ्वी पर होने वाले कार्यों का निरीक्षण एवं नियंत्रण करता है। धीरे-धीरे इस वंश का शासन-तंत्र शिथिल होता गया। इस वंश का अंतिम शासक ‘की’ बहुत निर्दयी और विलासी था, जिसने किसी रखैल के चक्कर में अपना सब कुछ खो दिया। अंततः ‘तांग’ नामक एक युवराज ने शिया वंश के अंतिम शासक को मिंगटिओं के युद्ध में पराजित कर शांग राजवंश की स्थापना की।

पश्चिमी इतिहासकार शिया राजवंश को मात्र पौराणिक मानते हैं और इसकी ऐतिहासिकता पर संदेह करते हैं। किंतु 1959 में चीन के हेनान प्रांत के उत्खनन से उस समय के कुछ पुरातत्व स्थल मिले हैं, जिनसे संबंधित नगरीय संस्कृति को अर्लीतोउ संस्कृति के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से शिया राजवंश का राज्यकाल कांस्य युग में पड़ता है और अर्लीतोउ संस्कृति में ढले हुए कांस्य के बर्तनों का धार्मिक अनुष्ठानों में उपयोग किया जाता था, जिसका अनुकरण बाद में शांग और चाउ शासकों ने भी किया है। इस प्रकार शिया राजवंश के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है।

शांग राजवंश (1600 ई.पू.-1046 ई.पू.)

चीन का राजनीतिक इतिहास अस्पष्ट रूप में शांग वंश (शांग चाओ) के समय से ही मिलता है, जिसकी स्थापना तांग नामक राजकुमार ने की थी। इनका राज्य ह्वांग हो (पीली नदी) की वादी में स्थित था। चीनी इतिहास में शांग काल को यिन काल के नाम से भी जाना जाता है, किंतु पुरातात्त्विक शब्दावली में इसे ‘कांस्य काल’ नाम दिया गया है।

शांग राजवंश के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हेनान प्रांत से खुदाई से मिली दस हजार दैववाणी हड्डियाँ हैं, जो बैल के कंधों की अथवा कछुओं की कठोर पीठ हैं। दैवीसंवाद हड्डियाँ देववाणी से संबद्ध मानी जाती थीं या भविष्य जानने के लिए इन पर खुदाई की जाती थी, इसलिए इन्हें ‘ऑरकेल बोन्स’ कहा जाता है। इन हड्डियों पर वे प्रश्न खुदे रहते थे, जिनके उत्तर उस समय के लोग अपने पूर्वजों या देवताओं से पूछना चाहते थे। लोगों का विश्वास था कि इन प्रश्नों का उत्तर स्वप्नों के सहारे देवता उन्हें दिया करते थे। इस प्रकार चीन की प्राचीन सभ्यता में प्रतीकों और अंधविश्वासों की प्रधानता रही है। चीनी लिपि का सबसे पुराना प्रमाण इन्हीं ऑरकेल हड्डियों पर मिलता है। हेनान प्रांत से ग्यारह शाही मक़बरे, महलों-मंदिरों के खँडहर तथा हथियार और जानवरों तथा मानवों की बलि देने के स्थल भी मिले हैं। इसके अलावा, हज़ारों कांसे, हरिताश्म (जेड), पत्थर, हड्डी और चिकनी मिटटी की वस्तुएँ मिली हैं, जिनकी बारीक़ कारीगिरी को देखकर इस संस्कृति के विकसित होने का अनुमान किया जा सकता है।

पुरातात्त्विक उत्खननों से स्पष्ट है कि 1400 ई.पू. के बाद पान केंग नामक एक शासक ने हुआन नदी के तट पर अन्यांग नामक नगर बसाया और इसे अपनी राजधानी बनाया था। इस नगर को शांग लोगों का महानगर कहा जाता था। अन्यांग तीन दिशाओं में नदियों के कारण पूरी तरह सुरक्षित था और नदियों की उर्वर घाटी में बसा होने के कारण कृषि की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी था। इस नगर के उत्खनन से स्पष्ट है कि चीन में इस समय एक उच्च स्तरीय कांस्यकालीन संस्कृति विकसित थी।

साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि शांग वंश के कम से कम उनतीस राजाओं ने शासन किया था, किंतु विस्तृत जानकारी इस वंश के अंतिम राजा चाऊ सिन के बारे में ही मिलती है। यद्यपि शांग शासकों की राजधानी उत्तर-मध्य घाटी में स्थित अन्यांग नगर में थी, किंतु बाढ़ और व्रिदोहों के कारण इस वंश के शासकों ने अपनी राजधानी को छह बार स्थानांतरित किया था। अपने अंतिम दिनों में शांग साम्राज्य काफी विस्तृत था और ह्वांग हो बेसिन का लगभग एक तिहाई भाग इसमें सम्मिलित था, जिसमें होपीई, शांतुंग तथा अन्हुई के उत्तरी भाग जुड़े हुए थे।

इस वंश के अधिकांश शासक धर्मप्रघान थे और स्वयं को ईश्वर का दूत मानते थे। शांग शासक ईंटों के प्रयोग से अपरचित थे, इसलिए उनके घर मिट्टी के बने होते थ और उनकी छतें घास-फूस की होती थीं। दासों और नौकरों के लिए घर जमीन के अंदर गड्डे खोदकर बनाये जाते थे, जबकि धनी लोग जमीन के ऊपर बने अच्छे घरों में रहते थे। चीनी समाज में दास प्रथा का प्रचलन था, दासियों को ‘ची’ कहा कहा जाता था। ची का अर्थ है- रखैल या उपपत्नी। प्राचीन मिस्र की भाँति चीन में भी मृत राजाओं के साथ उनकी पत्नियों या सेवकों को दफनाने की प्रथा थी।

परंपराओं से पता चलता है कि शांग वंश का अंतिम राजा चाऊ सिन अत्यंत वीर और कुशल शासक के होने के साथ-साथ अत्यंत क्रूर भी था। उसकी पत्नी ‘त कि’ को क्रूरता एवं व्यभिचार की साक्षात् मूर्ति बताया गया है। इसके राजदरबार में कामुक नृत्यों का आयोजन होता था और बगीचों में स्त्री-पुरुष नग्न क्रीड़ा करते थे। अंततः राजा-रानी के निंद्य आचरण से त्रस्त होकर पश्चिमी चाऊ राज्य के लोगों ने वेन वांग के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। यद्यपि चाऊ सिन ने वेन वांग को पराजित कर उसे बंदी बना लिया था, किंतु बाद में क्षतिपूर्ति की बड़ी रकम लेकर उसने वेन वांग को छोड़ दिया। बाद में, वेन वांग के पुत्र वु वांग (झोऊ वु वांग) ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिए विद्रोह कर दिया और 1046 ई.पू. में मुये के युद्ध में चाऊ सिन को पराजित कर चाऊ राजवंश की स्थापना की। पराजित शांग शासक चाऊ सिन ने अपने महल में आग लगाकर आत्महत्या कर ली।

चाऊ राजवंश (1046 ई.पू.– 221 ई.पू.)

चाऊ राजवंश (झोऊ चाओ) की स्थापना से चीन का प्राचीन इतिहास अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट होने लगता है। चाऊ राजवंश ने किसी भी अन्य राजवंश की अपेक्षा अधिक लंबे समय (1046 ईसापूर्व से लगभग 256 ईसा पूर्व) तक चीन पर शासन किया।

चीन के अन्य राजवंशों की अपेक्षा पश्चिमी चाऊ काल के अवशेष और लिखित विवरण बहुत कम मिले हैं, जिससे इस काल के समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था के संबंध में पूरी सूचना नहीं मिल सकी है।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि चाऊ मूलतः तुर्क थे। इसके विपरीत, कुछ विद्वान चाऊ लोगों को तथा आर्यों में समानता ढ़ूँढ़ने का प्रयास करते हैं, क्योंकि दोनों समकालीन थे और दोनों ही युद्धों में रथों का प्रयोग करते थे। प्रसिद्ध चीनी इतिहासकार लातुरे के अनुसार चाऊ जाति उत्तरी चीन के मैदान में रहने वाले चीनियों से संबंधित थे, किंतु चाऊ लोग प्राजातीय एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से उनसे भिन्न थे। चाऊ जो भी रहे हों, इस वंश की स्थापना वेन वांग के पुत्र वु वांग ने 1046 ई.पू. में की थी। चाऊ राजवंश मूलतः आधुनिक पश्चिमी शानक्सी प्रांत की वेई नदी घाटी का राज्य था, जहाँ उन्हें शांग शासकों ने रक्षक नियुक्त किया था। दूसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व के अंत में चाउ शासक वु वांग ने मुये की लड़ाई में शांग राजा को हराकर अधिकांश केंद्रीय और निचली पीली नदी घाटी पर अधिकार कर लिया। चाउ शासक वु वांग को ‘पश्चिम का नरेश’ कहा जाता था। इस राजवंश के नरेशों ने अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार करके चीनी संस्कृति के प्रभाव-क्षेत्र को विस्तृत कर दिया।

चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)
चाऊ राजवंश

चाऊ राजवंश के संपूर्ण शासनकाल को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है- पश्चिमी चाऊ काल (1046 ई.पू.-771 ई.पू.) और पूर्वी चाऊ काल (771 ई.पू.-221 ई.पू)

पश्चिमी चाऊ काल

चाऊ राजवंश के प्रारंभिक शासक अत्यधिक शक्तिशाली थे। सम्राट ‘वू’ ने शांग राजवंश को पराजित तो कर दिया था, लेकिन इतने बड़े राज्य को व्यवस्थित करने की उसमें सामर्थ्य नहीं थी। इसलिए सम्राट वू ने पश्चिम में वेई की घाटी में चंगन के निकट चंगझोऊ को अपनी राजधानी बनाया और वहाँ से स्वयं शासन किया और शेष राज्य को अपने भाई-बंधुओं को जागीरों के रूप में बाँट दिया। हर उपराज्य की अलग राजधानी थी, किंतु वे मुख्य सम्राट के अधीन थे। वु ने जिन राज्यों का निर्माण किया था, वे नाममात्र की चाऊ सम्राट के अधीन थीं। समय के साथ धीरे-धीरे इन जागीरों के शासक स्वतंत्र राज्यों की तरह व्यवहार करने लगे और चाऊ राजवंश की शक्ति का हृास प्रारंभ हो गया।

आठवीं शताब्दी ईसापूर्व के मध्य में 771 ई.पू. के आसपास उत्तर से आये क़बीलों ने अपने हमलों से चाऊ साम्राज्य को वेई नदी घाटी से (आधुनिक चीन के गांसू और शानक्सी प्रांत) बहिष्कृत कऱ दिया और इस प्रकार 771 में पश्चिमी चाऊ राजवंश की केंद्रीय सत्ता समाप्त हो गई।

पूर्वी चाऊ काल

वेई नदी घाटी से बहिष्कृत चाऊ शासकों ने 771 ई.पू. के आसपास पूरब की ओर बढ़कर लोयंग/लुओयांग (होनानफू के समीप) में अपनी राजधानी बनाई और चाऊ राजवंश के दूसरे प्रमुख चरण की शुरुआत की। पूर्व में राजधानी की स्थापना के कारण ही परवर्ती चाऊ शासकों को ‘पूर्वी चाऊ सम्राट’ कहा जाता है। पूर्वी चाऊ सम्राटों के काल को भी दो भागों में विभाजित किया गया है- बसंत तथा शरद काल (771 ई.पू. से 476 ई.पू.) और संघर्षरत राज्यों का काल (476 ई.पू. से 221 ई.पू.)।

बसंत और शरद काल

प्राचीन चीन के पूर्वी चाऊ काल का पहला भाग ‘बसंत और शरद काल’ कहलाता है, जो 771 ई.पू. से 403 ई.पू. तक चला। इस काल से संबंधित चीनी सभ्यता का क्षेत्र ह्वांग हो नदी घाटी के मैदान में, शानदोंग प्रायद्वीप में और इनके कुछ नज़दीकी क्षेत्रों में स्थित था। इस काल में चाऊ राजवंश के सम्राटों की शक्ति नाम-मात्र की रह गई थी और उनका नियंत्रण केवल अपनी राजधानी पर था। इस समय राज्यों के संघर्ष के साथ-साथ राज्यों के अंदर भी आपसी संघर्ष चल रहे थे। अंततः 403 ई.पू. में ‘जिन’ राज्य के तीन सर्वाेच्च परिवारों-झाओ, वेई और हान ने शासक परिवार को उखाड़ फेंका और राज्य का विभाजन कर लिया। इस प्रकार ‘बसंत और शरद काल’ का अंत हो गया।

संघर्षरत राज्यों का काल

पूर्वी चाऊ काल के दूसरे भाग ‘संघर्षरत राज्यों का काल’ (झांगुओ शिदाई) 403 ई.पू. से 221 ई.पू. तक चला। इस काल में कहने के लिए चाऊ सम्राट की सत्ता सर्वाेच्च थी, जबकि भिन्न-भिन्न राज्यों और जागीरों के शासक अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के लिए आपस में लड़ते रहते थे। इस काल में सात राज्यों के बीच निरंतर संघर्ष चलता रहा, जिनमें चि, चिन, छिन, सुंग तथा चू नामक पाँच राज्य विशेष महत्वपूर्ण थे और आपस में संघर्षरत थे। अतः इस काल को चीनी इतिहास में ‘संघर्षरत राज्यों का युग’ कहा जाता है।

चीन की सभ्यता (Chinese Civilization)
संघर्षरत राज्यों का काल

पाँचवीं शती ई.पू. से तृतीय शताब्दी ई.पू. के बीच संघर्षरत राज्यों में चिन, चू, येन, हान, वेई, चाऊ तथा ची जैसे राज्यों का महत्व बढ़ गया, किंतु इस राजनीतिक दाँवपेंच में अंततः चिन राज्य को सफलता मिली। फलतः चिन वंश के ली सू ने 249 ई.पू. में अंतिम चाऊ नरेश को पराजित कर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इसके बाद 221 ई.पू. तक आते-आते चाऊ वंश का अंत हो गया और चिन वंश की सत्ता स्थापित हो गई।

चीन की शक्ति व प्रतिष्ठा बढ़ने से चाऊ काल में चीन के शासक को ‘स्वर्गपुत्र’ माना जाने लगा, जो सिद्धांततः ईश्वरीय आदेश और पुण्य के आधार पर शासन करता था। राजा को ‘वेंग’ कहा जाता था, जो राजनीतिक व धार्मिक दोनों ही मामलों में सर्वोपरि था। राजा के अधिकारों व कार्यों के निर्देशन के लिए विधियों व नियमों की एक संहिता बनाई गई थी, जिसे चीनी भाषा में ‘ली’ कहा जाता है।

चाऊ वंश के शासकों ने उत्तराधिकारी नियुक्त करने की नई परंपरा की शुरूआत की। इसके पहले भाई को उत्तराधिकार मिलता था, किंतु सम्राट वेन ने पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त कर इस प्रथा को सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में लागू किया। चाऊ काल में प्रशासनिक कर्मचारियों की नियुक्ति बहुत जाँच-पड़ताल के बाद ही की जाती थी।

चाऊ काल को ‘सामंती युग’ कहा जाता हैं क्योंकि इसी काल में चीन में सामंतवाद का विकास हुआ। चाऊ शासकों के सुव्यवस्थित शासन-तंत्र में साम्राज्य की सीमाएँ काफी विस्तृत हो गई थीं। चाऊ शासकों ने अपने विशाल साम्राज्य को नौ राज्यों (खंडों) और 210 रियासतों में विभाजित कर उन्हें अपने संबंधियों व मित्रों (सामंतों) को सौंप दिया था, जो आवश्यकतानुसार अपने सैनिकों के साथ शासक की सहायता करते थे। इस राजवंश ने लंबे समय तक मंगोल, तातार और हूण जैसी बर्बर जातियों के आक्रमणों से चीन की रक्षा की। इस काल में युद्ध मुख्यतः रथों द्वारा लड़े जाते थे।

चाऊयुगीन चीनियों के मुख्य उद्यम कृषिकर्म और पशुपालन थे। सिद्धांततः समस्त भूमि शासक के अधीन होती थी, किंतु खेती के लिए भूमि का विभाजन परंपरागत चिंग तियेन विधि के अनुसार किया जाता था। इस विधि के अनुसार उर्वर भूमि के 866 वर्ग कि.मी. एक खंड को नौ टुकड़ों में इस प्रकार बाँटा जाता था कि एक भाग बीच में तथा शेष भाग अगल-बगल होते थे। बीच के टुकड़े में आठ परिवार सामूहिक खेती करते थे, शेष बाहर के आठ भागों पर उनका व्यक्तिगत स्वामित्व होता था। प्रत्येक को अपनी भूमि के नवें हिस्से की उपज राष्ट्र को देनी पड़ती थी।

कृषि के साथ व्यवसाय और व्यापार का भी प्रचलन था। यह काल धातुओं के प्रयोग, कागज, छपाई एवं बारूद के आविष्कार के लिए भी प्रसिद्ध है। इसी समय चीन में लोहे का प्रयोग शुरू हुआ और चीन ने लौह-युग में प्रवेश किया। इसके साथ ही कांस्य कला अपने विकास के चरम पर पहुँच गई। चाऊ काल में ही चीन की प्राचीन चित्रलिपि को आधुनिक रूप मिला। इसी काल में 1000 ई.पू. के आसपास मुद्रा प्रणाली का विकास हुआ।

यद्यपि परवर्ती चाऊकालीन चीन में राजनैतिक अस्थिरता व्याप्त थी, फिर भी इस समय बौद्धिक स्वतंत्रता का वातावरण सृजित हुआ, जिसके कारण अनेक नई विचारधाराओं का उदय हुआ, जिसे ‘सौ विचारधाराओं का युग’ (झूज़ी बाईजिआ) कहा गया है। इस समय उदित होने वाली प्रमुख विचारधाराओं का उल्लेख शीजी ग्रंथ (महान इतिहासकार के अभिलेख) में मिलता है। इनमें से चार विचारधाराओं- कन्फ्यूशियस (कुंग-तु-त्जे) के कन्फ़्यूशियसवाद (रुजिया), हान फ़ेईज़ी और ली सी के न्यायवाद (फ़जिया), मोज़ी के मोहीवाद (मो चिया), लाओत्से (लिया) के ताओवाद (ताओ चिया) ने कालांतर में चीनी राजनीति और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया। इस काल का सबसे शक्तिमान देवता तिएन था, जो वास्तव में शांगकाल का शांग टी ही था। चाऊ काल को ‘प्राचीन चीनी साहित्य का स्वर्णयुग’ कहा जाता है।

चिन राजवंश (221-ई.पू.–206 ई.पू.)

परवर्ती चाऊ साम्राज्य में व्याप्त अराजकता एवं अव्यवस्था के बाद ली सू ने 255 ई.पू. में चिन साम्राज्य की नींव डाली। किंतु चिन वंश (छिन छाउ) का वास्तविक संस्थापक वांग चेंग था, जिसने 221 ई.पू. में चाऊ वंश के अंतिम शासक नान मांग की मृत्यु के बाद चीन में चिन वंश की स्थापना की। इस राजवंश का उदय शान्शी प्रांत से हुआ था और इस वंश का नाम उसी प्रांत का परिवर्तित रूप है।

शी ह्वांग टी

चिन राजवंश का प्रथम और सबसे प्रसिद्ध राजा वांग चेंग था, जिसने शेष छह राज्यों को जीतकर के चीन का एकीकरण किया और शी ह्वांग टी की उपाधि धारण की। शी ह्वांग टी का अर्थ होता है- प्रथम सम्राट। माना जाता है कि चिन साम्राज्य के नाम पर इस देश का नाम चीन पड़ा।

शी ह्वांग टी एक महान् विजेता और कुशल प्रशासक था। उसने उत्तरी-पश्चिमी सीमा के निकट सियेनयंग में अपनी नई राजधानी बनाई और चीन के इतिहास में पहली बार सामंत व्यवस्था को समाप्त कर दिया। उसने छोटे राजाओं और सामंत सरदारों का दमनकर एक एकीकृत केंद्रीय राज्य का निर्माण किया और संपूर्ण साम्राज्य को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया। विशाल साम्राज्य को एकता के सूत्र में बाँधने के कारण उसे ‘लौहपुरुष’, ‘भयानक व्यक्तित्व का सम्राट’ और ‘चीन का बिस्मार्क’ कहा जाता हैं। उसने सुदृढ़ शासन प्रबंध के लिए योग्य व्यक्तियों को राजकीय पदों पर नियुक्त किया।

शी ह्वांग टी ने उत्तर पश्चिम में विदेशी बर्बर हूण आक्रमणकारियों को रोकने के लिए अपने प्रधानमंत्री लि स्सू के सहयोग से उत्तर-पश्चिम सीमा पर चीन की महान दीवार का निर्माण आरंभ करवाया, जिसकी गणना विश्व के सात आश्चर्यों में की जाती है। 1500 मील लंबी, 22 फीट ऊँची और 20 फीट चौड़ी इस दीवार में 20 हजार गुंबदें, 23 हजार स्तंभ और 10 हजार सुरक्षा चौकियाँ बनी हुई हैं। इस दीवार के कारण हूणों को पश्चिम की ओर आगे बढ़ना पड़ा, जिससे रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। चीन की इस विशाल दीवार के सामने मिस्र के अद्भुत पिरामिड भी चीटियों के घर की तरह लगते हैं।

चीन में राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के लिए शी ह्वांग टी ने हजारों लोगों को उनके घर उजाड़कर सीमांत प्रदेशों में बसाया। एक इतिहासकार के अनुसार इस काल में चीनी जनता को कठोर व्यवहार का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्हें अकसर साम्राज्य की निर्माण परियोजनाओं के लिए जबरन श्रम करवाया जाता था।

शी ह्वांग टी का विशाल साम्राज्य 40 च्युन प्रांतों में बंटा हुआ था। इस विशाल साम्राज्य पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए उसने सड़कों और नहरों का जाल बिछवाया और पूरे देश में एक भाषा, एक लिपि और समान माप-तौल की प्रणाली लागू की। उसके काल में कृषि की उन्नति हुई, चीनी लिपि व मुद्रा का विकास हुआ और व्यापारिक विकास को प्रोत्साहन दिया। जनता का दुःख-दर्द और प्रशासन की त्रुटियों को जाँचने के लिए वह स्वयं छद्मवेश में राज्य का भ्रमण करता था। उसने अपने जीवनकाल में ही लिशन की पहाड़ी पर अपनी समाधि का निर्माण भी करवा दिया था।

चिन शासक न्यायवाद में विश्वास करते थे और अपने नागरिकों पर कड़ा नियंत्रण रखते थे। कहा जाता है कि शी ह्वांग टी ने 213 ई.पू. में हजारों प्राचीन ग्रंथों को जलवा दिया और लगभग 400 विद्वान्, दार्शनिक और विचारकों की हत्या कर दी गई। इस बर्बरता का कारण संभवतः यह था कि चाऊ राजवंश के शासनकाल में उपदेशकों की संख्या बहुत बढ़ गई थी और इन अकर्मण्य लोग अतीत के मुकाबले वर्तमान को तुच्छ घोषित कर अपने स्वार्थ साधते थे, जिससे देश को हानि हो रही थी।

अंततः चिन राजवंश की जन-विरोधी नीतियों के विरूद्ध विद्रोह होने लगे। 210 ई.पू. में राज्य-भ्रमण के दौरान शी ह्वांग टी की मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के बाद राज्य में विद्रोह और षड्यंत्र होने लगे। केंद्रीय सत्ता की दुर्बलता के कारण विद्रोहियों ने चिन राजधानी पर कब्जा कर लिया। अंततः 202 ई.पू. में चिन वंश समाप्त हो गया और उसके स्थान पर लिऊ बांग (गाओज़ू) ने हान वंश की स्थापना की।

हान राजवंश (206-ई.पू.–220 ई.)

हान राजवंश (हान चाओ) की स्थापना लिऊ बांग (गाओज़ू) ने 202 ई.पू. में की। इस राजवंश के प्रतिभाशाली शासकों ने 400 से अधिक वर्षों तक देश में स्थिरता और समृद्धि प्रदान की और चीन को एक केंद्रीय शासन के अधीन एकीकृत किया। हान शासकों के काल में कला, संस्कृति और विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई, कन्फ्यूशियसवाद को आधिकारिक तौर पर मान्यता मिली और बाद की चीनी सभ्यता को सुदृढ़ आयाम दिया, जिसके कारण इस काल को चीन का ‘द्वितीय स्वर्णयुग’ कहा जाता है।

पश्चिमी हान और पूर्वी हान

हान शासन के दौरान 9 ई. से 23 ई. तक शिन राजवंश ने सत्ता को हथिया लिया था, किंतु हान वंश के शासक शीघ्र ही सत्ता पर पुनः अधिकार करने में सफल रहे। इसलिए शीन राजवंश से पहले के हान राजवंश के शासकों को ‘पश्चिमी हान’ और शीन राजवंश के बाद के परवर्ती हान शासकों को ‘पूर्वी हान’ कहा जाता है।

हान वंश के महत्वाकांक्षी सम्राट वू ने अपने साम्राज्य को विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। उसने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए, कन्फ्यूशियसवाद को संरक्षण दिया, विश्वविद्यालयों की स्थापना की और देश की वित्तीय संरचना को मजबूत किया। सम्राट वू ने अपने सैन्य-अभियानों और राजनयिक प्रयासों के फलस्वरूप हान साम्राज्य का प्रभाव-क्षेत्र तारिम बेसिन के राज्यों तक प्रसारित किया और चीन को पश्चिम से जोड़ने वाले रेशम मार्ग पर अधिकार कर लिया, जिससे द्विपक्षीय व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा मिला। उसने दक्षिण में यांग्त्स़ी नदी घाटी से बहुत दूर विभिन्न छोटे राज्यों को औपचारिक रूप से साम्राज्य में शामिल कर लिया और कूटनीति तथा व्यापार के द्वारा दक्षिण पूर्व एशिया के राज्यों से संपर्क स्थापित किया।

हान साम्राज्य को उत्तर में रहने वाली शियोंगनु नामक ख़ानाबदोश जाति के आक्रमणों का अकसर सामना करना पड़ता था। 200 ई.पू. में शियोंगनु नेता मोदू चानयू ने हान सेना को पराजित कर दिया। हान शासक को विवश होकर मोदू चानयू से समझौता करना पड़ा और 198 ई.पू. में एक हान राजकुमारी शियोंगनु सरदार से ब्याही गई। उम्मीद थी कि इस मधुर संबंध की स्थापना के बाद स्थिति सुधर जायेगी, किंतु विवाह के बावजूद संघर्ष चलता रहा।

सम्राट वू के बाद हान साम्राज्य धीरे-धीरे आर्थिक रूप से कमजोर हो गया और 9 ई. में हान राजवंश के स्थान पर अल्पकालिक शिन राजवंश की स्थापना हुई। किंतु 23 ईस्वी में एक किसान विद्रोह के बाद हान सम्राट गुआंग वु ने हान राजवंश को पुनर्स्थापित किया। इस नये युग को ‘पूर्वी हान राजवंश’ कहा जाता है। परवर्ती हान सम्राट मिंग और झांग ने अपने सुदृढ़ प्रशासन, सफल सैन्याभियानों और सांस्कृतिक उपलब्धियों के द्वारा हान राजवंश के गौरव को पुनः स्थापित किया।

कालांतर में केंद्रीय सत्ता की दुर्बलता का लाभ उठाकर हान साम्राज्य के कुछ राज्यों ने विद्रोह किया, जिसे चीनी इतिहास में ‘सात राज्यों का विद्रोह’ कहा गया है। किंतु हान शासक इस विद्रोह को कुचलकर हान साम्राज्य को संगठित करने में सफल रहे। दूसरी शताब्दी के अंतिम चरण में भूमि अधिग्रहण, विदेशी आक्रमण और संघ कुलों तथा हिजड़ों के बीच संघर्ष के कारण हान साम्राज्य का पतन हो गया और चीनी साम्राज्य तीन राज्यों-वेई, शु और वू में बँट गया, जिनमें वेई राज्य के राजा त्साओ पी ने 220 ई. में सम्राट शियान को हटाकर सिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद चीन में तीन राजवंशों के संघर्ष का काल आरंभ हुआ।

हान राजवंश के शासकों ने विभिन्न प्रांतों को जीतकर एक विशाल सम्राज्य की स्थापना की और मोटे तौर पर चीन की वर्तमान सीमाएँ निर्धारित हुईं। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से हान साम्राज्य कई प्रांतों में विभक्त था, जहाँ सैनिक अधिकारियों को हटाकर राज्यपालों की नियुक्ति की गई थी। इसी समय राजकीय सेवाओं में नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रणाली आरंभ हुई।

हान शासक राजत्व के दैवी-सिद्धांत में विश्वास करते थे और इस समय राज्य की वास्तविक शक्ति सम्राट के हाथों में केंद्रित थी। हान शासक निरंकुश और स्वेच्छाचारी थे। राजा की सहायता के लिए प्रधानमंत्री और एक मंत्रिमंडल होता था, किंतु सम्राट उनकी सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था। मंत्रियों का चुनाव शाही परिवारों और पढ़े-लिखे लोगों में से किया जाता था और स्वशासित प्रदेशों पर राजकुमार शासन करते थे। हान शासकों ने प्रत्येक प्रांत में राज्यपालों की नियुक्ति की और साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा रखा था, ताकि कर्मचारी जनता व कृषकों का शोषण न कर सकें। अपने सैन्य-अभियानों और नव विजित क्षेत्रों को संगठित करने के लिए हान शासकों ने नमक और लोहे पर राज्य का एकाधिकार स्थापित किया।

हान वंश के शासकों ने सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए समाजवाद को स्थापित करने का प्रयास किया और दासता की समाप्ति तथा भूमि का राष्ट्रीयकरण किया। न्यायालयों में बिना किसी भेदभाव के निर्णय किये जाते थे और अपराधियों को कठोर दंड देने की व्यवस्था थी। किसानों से उपज का दसवाँ भाग भूमिकर के रूप में लिया जाता था। राज्य की सुरक्षा के लिए एक विशाल सेना थी, जिसका खर्च जनता से वसूल किया जाता था। राज्य के कर्मचारियों को वेतन का आधा नगद और आधा अनाज के रूप में दिया जाता था।

हान काल चीन के विकास का काल था। हान काल में चांग ची नामक व्यक्ति को पश्चिमी देशों के भ्रमण के लिए भेजा गया, जिसके विवरण के आधार पर चीनी लोगों को पहली बार ईरान, मिस्र, मेसोपोटामिया और रोमन साम्राज्य के बारे में जानकारी मिली। हान साम्राज्य के मध्य एशिया में विस्तार से यूरोप और एशिया के बीच प्रसिद्ध ‘रेशम मार्ग’ स्थापित हुआ। यह व्यापारिक मार्ग चीन के उत्तर से चलकर मध्य एशिया होते हुए फारस के उत्तरी भाग तक जाता था। इस मार्ग से रेशमी वस्त्रों का निर्यात अधिक होता था। व्यापारिक विकास के लिए रोम, भारत, तिब्बत आदि देशो से व्यापार शुरू किया गया। चाऊ शासकों ने सिक्कों पर आधारित मुद्रा-व्यवस्था का प्रचलन किया था, किंतु हान राजाओं ने 119 ई. में एक टकसाल स्थापित किया, जिसमें गढ़े हुए सिक्के चीन में तंग राजवंश (618-907 ई.) के समय तक चलते रहे।

विदेशी संपर्क के कारण चीन का अन्य देशों के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ, जिसकी पुष्टि उर्गा और तारिम घाटी की खुदाई में उपकरणों और मूर्तियों से भी होती है। सांस्कृतिक संपर्क के कारण यूनानियों ने चीन की संगीत कला, गणित, ज्योतिष आदि को प्रभावित किया।

हान काल में चीन में विज्ञान के क्षेत्र में भी बड़ी प्रगति की। इस काल में धूपघड़ी का आविष्कार हुआ और सून्य चियेन ने एक नया पंचांग बनाया। इसी समय बंग चूंग ने भूकंप के कारणों का पता लगाया और लुंग हेंग नामक ग्रंथ से चंद्रग्रहण के बारे में जानकारी मिली। इसी समय एक चिकित्सक नी चिंग ने शल्य-चिकित्सा पर ‘केनन ऑफ मेडिसिन’ नामक पुस्तक लिखी। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि चाय की खोज और छापे की कला का आविष्कार भी हान वंश के शासन के दौरान ही हुए थे।

हानवंशीय प्रबुद्ध शासकों ने जनता को शिक्षित करने के लिए कई स्कूलों-कॉलेजों की स्थापना की, जिसके फलस्वरूप हीनयांग शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र बन गया। इस समय के विश्वविद्यालयों में चंगन विश्वविद्यालय विशेष रूप से प्रसिद्ध था, जिसमें 30 हजार छात्र पढ़़ते थे। चीन का प्रथम इतिहासकार शूमा चीन इसी काल में हुआ था, जिसने भिन्न-भिन्न राजघरानों से प्राचीन ग्रंथ जुटाकर शिया वंश के सम्राट यु से लेकर पहली शताब्दी ईसा पूर्व तक का विशद् इतिहास तैयार किया था।

हान वंश के शासक संगीत प्रेमी भी थे और उन्होंने कई संगीतकारों को आश्रय दिया था। इस युग के वाद्ययंत्रों में पि पा (वीणा), कुंगहाऊ तथा जिथर आदि प्रमुख थे। हान वंश के साम्राट मिंग टी ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया, तत्पश्चात् बौद्ध धर्म चीन का प्रमुख धर्म बन गया। इस काल में जापान तथा कोरिया आदि देशों में चीनी सभ्यता का प्रसार हुआ। यही कारण है कि इस वंश के काल को चीन में ‘द्वितीय स्वर्णयुग’ कहा जाता है।

तीन राजवंशों का काल (220 ई.–266 ई.)

हान राजवंश के 220 ई. में सत्ता से हटने के बाद तीन राजवंशों (सान्गुओ शिदाई) का काल शुरू हुआ। इस काल में तीन बड़े राज्यों- उत्तर के साओ वेई, दक्षिण के पूर्वी वू और पश्चिम के शु हान के बीच चीन पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ। इन राज्यों को ‘वेई’, ‘वू’ और ‘शु’ के नाम से भी जाना जाता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार तीन राजवंशों के काल की शुरुआत वेई राज्य की 220 ई. में स्थापना से हुई और इसका अंत पूर्वी वू राज्य पर जिन राजवंश की 280 ई. में विजय से हुआ था।

अनेक चीनी इतिहासकार इस काल का आरंभ 184 ई. में होने वाले ‘पीली पगड़ी विद्रोह’ से मानते हैं, जो हान काल का एक किसान विद्रोह था, जिसमें ताओ धर्म के अनुयायी भी सम्मिलित थे।

यद्यपि तीन राजवंशों का अल्प शासनकाल उथल-पुथल से भरा रहा, फिर भी, इस काल में धर्म, साहित्य तथा विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य हुए। वाई काल में मठीय बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। इस काल में 260 ई में चु शिह हिंग नामक चीनी विद्वान खोतान गया, जहाँ उसने एक प्रज्ञासूत्र की एक प्रतिलिपि प्राप्त की। चीन में यह ‘पंचविशंतसाह्स्रिक प्रज्ञापारमिता’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी काल में सिंचाई, वाहनों और हथियारों के क्षेत्र में नई तकनीकों का आविष्कार हुआ। इसी समय ‘दक्षिणमुखी रथ’ नामक यंत्र बनाया गया, जो बिना चुंबक के दिशा की जानकारी देता था। यदि एक बार इसका मुख दक्षिण को कर दिया जाए, तो कहीं भी जाने पर इसका मुंह स्वयं मुड़कर दक्षिण की ओर हो जाता था।

जिन राजवंश  (266–420 ई.)

तीनों राज्यों के अधःपतन की स्थिति में उनका स्थान जिन राजवंश (जिन चाओ) ने ले लिया। जिन शासक सीमा यान ने पहले साओ वेई राज्य पर क़ब्ज़ा किया और फिर पूर्वी वू राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद, उसने अपना नाम बदलकर सम्राट वू रख लिया और चीन में नये जिन राजवंश की स्थापना की। जिन राजवंश के संपूर्ण शासनकाल को दो भागों में बाँटा जाता है-पश्चिमी जिन राजवंश (265 ई-316 ई.) और पूर्वी जिन राजवंश (317 ई.-420 ई.)। चीन में 1115 ई. से 1234 ई. तक भी एक जिन राजवंश ने शासन किया था, किंतु इन दोनों राजवंशों के बीच कोई संबंध नहीं था।

पश्चिमी जिन राजवंश ने लुओयांग को राजधानी बनाकर लगभग एक अर्ध शताब्दी तक शासन किया। इस काल के अंतिम चरण में दो भिक्षुणियाँ चिंग चिएन और आन लिंग शाऊ का उल्लेख मिलता है, जिनका धर्म-परिवर्तन बुद्धदान नामक बौद्ध भिक्षु ने करवाया था।

पूर्वी जिन राजवंश का काल 317 ई. में सिमा रुई द्वारा जिआनकांग को राजधानी बनाने से आरंभ होता है। इस जिन राजवंश ने दक्षिणी चीन पर एक सदी तक राज्य किया था। इस काल में फाहियान ने विनयपिटक की संपूर्ण प्रतियों को प्राप्त करने के उद्देश्य से भारतवर्ष के एक बड़े भाग की यात्रा की थी।

उत्तरी और दक्षिणी राजवंश (420–589 ई.)

5वीं शताब्दी के आरंभ में चीन ने उत्तरी और दक्षिणी राजवंशों की सत्ता स्थापित हुई, जिन्होंने समानांतर रूप से देश के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों पर शासन किया। दक्षिणी राजवंशों में लिऊ सोंग, दक्षिणी ची, लियांग और चेन सम्मिलित थे, जबकि उत्तरी राजवंशों में उत्तरी चाऊ, उत्तरी ची, उत्तरी वेई, पश्चिमी वेई और पूर्वी वेई थे।

उत्तरी और दक्षिणी राजवंशों के इस राजनैतिक अस्थिरता के युग में भी चीन में कला, विज्ञान और संस्कृति का विकास हुआ और हान चीनी जाति यांग्त्से नदी से दक्षिण के क्षेत्रों में फैल गई। इसी समय उत्तर से आये बहुत से ग़ैर-चीनी लोगों का चीनीकरण हुआ और दक्षिण में रहने वाले बहुत से आदिवासी भी चीनी संस्कृति में मिला लिये गये। इसी समय चीन में भारत से बौद्ध धर्म की महायान शाखा का फैलाव हुआ और ताओ धर्म का भी विकास हुआ। स्तूप पर आधारित पगोडा का निर्माण भी चीन में इसी समय शुरू हुआ, जो आज चीनी संस्कृति की प्रमुख पहचान है। पगोडा का आविष्कार बौद्ध ग्रंथों और पांडुलिपियों को संरक्षित करने के लिए किया गया था।

सुई राजवंश (589 AD-618 ई.)

उत्तरी और दक्षिणी राजवंशों के बाद सुई राजवंश (सुई चाओ) का 29 वर्षीय अल्पकालीन शासनकाल (589-618 ई.) चीनी इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण है। इस राजवश की स्थापना यांग जिआन ने की थी, जो उत्तरी राजवंशों में से एक उत्तरी चाऊ राज्य में सरकारी सेवक था और चाऊ सम्राट का दामाद था। यांग जिआन ने चीन को फिर से संगठित किया और तीन शताब्दियों के राजनीतिक विभाजन को समाप्त किया। इस राजवंश के शासकों ने अपनी सैन्य-शक्ति में वृद्धि की और उत्तर के क़बीलों से बचाव के लिए चीन की महान दीवार का और विस्तार किया।

सुई काल चीन में अपनी कई बड़ी निर्माण परियोजनाओं के लिए प्रसिद्ध है। इसी समय अनाज के आवागमन और सैनिकों के परिवहन के उद्देश्य से चीन की 1776 कि.मी. लंबी महान् नहर (ग्रांड कैनाल) का निर्माण किया गया, जो ह्वांग हो (पीली नदी) को यांग्त्से नदी से जोड़ती है और आज भी विश्व की सबसे लंबी कृत्रिम नहर है। सुई शासकों के काल में चीन की महान दीवार का भी विस्तार किया गया।

सुई शासकों ने अमीरी-ग़रीबी का अंतर घटने के लिए भूमि का पुनर्वितरण किया, सरकारी मंत्रालयों को संगठित किया और संपूर्ण एकीकृत साम्राज्य में मानकीकृत सिक्कों का प्रचलन किया। सुई काल में बौद्ध धर्म को राजकीय प्रोत्साहन मिला, जिसके फलस्वरूप चीन की भिन्न जातियाँ और संस्कृतियाँ एक-दूसरे के समीप आईं।

यद्यपि सुई सरकार सुव्यवस्थित थी, लेकिन सुई शासक ख़र्चीले और क्रूर भी थे। महान दीवार और नहर के लिए जनता से भारी कर वसूले गये और जनता से बेगार लिया गया। सुई शासक कोरिया से भी संघर्षरत थे और सातवीं सदी में उससे हार गये। इसके बाद विद्रोहों, विश्वासघात और हिंसा के कारण सुई राजवंश का का पतन हो गया। इसके बाद तांग राजवंश की स्थापना हुई।

तांग राजवंश (618-907 ई.)

तांग राजवंश (थाङ छाउ) की स्थापना एक सोलह वर्षीय किशोर ली शिह मिग ने रखी थी, जिसने सुई साम्राज्य के अवनति काल में सत्ता पर अधिकार कर लिया था। इस राजवंश के शासन में लगभग 15 साल का एक अंतराल आया, जब दूसरे चाऊ राजवंश की महारानी वू ज़ेतियाँ वू ज़ेटियन ने कुछ समय (690 ई.-705 ई.) के लिए राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था।

तांग शासकों ने चांगान (आधुनिक शीआन) नगर को अपनी राजधानी बनाया, जो उस समय दुनिया का सबसे बड़ा नगर था। प्रारंभिक तांग राजवंश ने एक केंद्रीकृत नौकरशाही लागू करने के लिए केंद्रीय सरकार को ‘तीन विभागों और छह मंत्रालयों’ के रूप में संगठित किया और सरकारी सेवकों की नियुक्ति के लिए प्रशासनिक परीक्षाओं की शुरूआत की, जिससे प्रशासन में उत्कृष्टता आई। किंतु बाद में, तांग शासकों ने क्षेत्रीय सामंतो की नियुक्ति की, जो साम्राज्य के अंतिम वर्षों में अपनी स्वायत्तता के लिए विद्रोह करने लगे, जिसमें 8वीं सदी (755- 763 ई.) का लुशान विद्रोह बहुत भयंकर था। युद्धों, विद्रोहों और आर्थिक अराजकता के कारण केंद्रीय सरकार कमजोर होती गई। फलतः हुआंग चाओ विद्रोह ने 874 से 884 ई. तक एक दशक के लिए पूरे साम्राज्य को झकझोर दिया। तांग राजवंश के अवसान के बाद चीन में पुनः राजनीतिक विभाजन का युग आरंभ हो गया।

तांग राजवंश का शासनकाल चीनी सभ्यता के विकास का स्वर्णयुग माना जाता है, जिसके कारण तांग काल को हान काल के बराबर या उससे भी महान माना जाता था। इस शांति और समृद्ध के रचनात्मक काल में संस्कृति, कला, साहित्य, विशेष रूप से कविता और प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण विकास हुआ।

तांग शासकों ने 7वीं और 8वीं शताब्दियों में चीन में जनगणना करवाई, जिससे पता चला कि उस समय चीन में लगभग 5 करोड़ परिवार पंजीकृत थे। इस बड़ी जनसंख्या के बल पर तांग शासकों ने लाखों सैनिकों की विशाल सेना का निर्माण किया और अपनी सैनिक विजयों तथा कूटनीतिक के द्वारा न केवल मध्य एशियाई जनजातियों से खतरों को कम किया, बल्कि मध्य एशिया के क्षेत्रों में चीन का विस्तार कर रेशम मार्ग जैसे मुनाफ़े वाले व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण रखा। इस प्रकार चांगान मध्य एशिया और दूर पश्चिम के क्षेत्रों से जुड़ गया। तांग शासकों ने बहुत से क्षेत्रों के राजाओं को अपना प्रभुत्व स्वीकार करने पर मजबूर किया, जिससे इस राजवंश का सांस्कृतिक प्रभाव कोरिया, जापान और वियतनाम तक फैल गया।

सांस्कृतिक दृष्टि से इस काल को ‘चीनी कवियों का स्वर्णयुग’ माना जाता है, जिसमें चीन के दो सबसे प्रसिद्ध कवियों- ली बाई और डू फू ने अपनी रचनाएँ लिखी। हान गान, झांग शुआन और झऊ फ़ंग जैसे जाने-माने चित्रकार भी तांग युग में थे। इस युग के विद्वानों ने कई ऐतिहासिक साहित्य की पुस्तकें, ज्ञानकोश और भूगोल-प्रकाश की रचना की। इसी दौरान चीन में बौद्ध धर्म का भी बहुत विस्तार हुआ। इस वंश के संस्थापक ली ने भारत से आए भिक्षु प्रभाकर मित्र और भारत की यात्रा कर लौटे ह्वेनसांग का स्वागत सत्कार किया था। ताई त्सुंग के उत्तराधिकारी काओ त्सुंग के राज्यकाल को बौद्ध धर्म का स्वर्णयुग कहा जाता है। काओ त्सुंग की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी वू चाओ ने अपने पुत्र फू कुआंग वांग के समय शासन सत्ता पर अपना नियंत्रण बनाये रखा। उसने तांग वंश का नाम बदलकर चाऊ वंश कर दिया। सम्राज्ञी वू चाओ के बाईस वर्षीय शासनकाल में बौद्ध धर्म देश भर में फ़ैल गया।

पाँच राजवंश और दस साम्राज्यों का काल (907–960 ई.)

तांग राजवंश के अवसान के बाद का समय चीनी इतिहास में पाँच राजवंशों और दस साम्राज्यों की अवधि के रूप् में जाना जाता है, जो 907 ई. से 979 ई. तक चला। इस काल में चीन के उत्तर में एक-के-बाद-एक पाँच राजवंश सत्ता में आये और चीन में, विशेषकर दक्षिणी चीन में बारह से अधिक स्वतंत्र राज्य स्थापित हो गये। इनमें से इतिहास में 10 राज्यों का उल्लेख अधिक मिलता है, इसलिए इस काल को ‘पाँच राजवंशों और दस साम्राज्यों का काल’ के नाम से जाना जाता है।

उत्तरी चीन में शासन करने वाले पाँच राजवंश थे- परवर्ती लियांग राजवंश (907-923 ई.), परवर्ती तांग राजवंश (923-936 ई.), परवर्ती जिन राजवंश (936-947 ई.), परवर्ती हान राजवंश (947-951 ई.) और परवर्ती चाऊ राजवंश (951-960 ई.)

दस साम्राज्यों का विवरण इस प्रकार हैं- वू (907-978 ई.), मीन (909-945 ई.), चू (907-951 ई.), दक्षिणी हान (917-971 ई.), पूर्वकालीन शू (907-925 ई.), उत्तरकालीन शू (934-965 ई.), जिंगनान (924-963 ई.), दक्षिणी तांग (937-975 ई.) और उत्तरी हान (951-979 ई.)

इसी काल में मंचूरिया-मंगोलिया क्षेत्र में खितानी लोगों का लियाओ राजवंश भी स्थापित हुआ, जिससे उत्तरी खानाबदोश साम्राज्यों के विरूद्ध चीन की रक्षा-पंक्ति कमजोर हो गई। दक्षिण में, कई शताब्दियों तक चीनी प्रांत होने के बाद वियतनाम ने स्थायी स्वतंत्रता प्राप्त की।

सोंग, लियाओ, जिन और पश्चिमी शि़या राजवंश (960–1279 ई.)

पाँच राजवंश और दस साम्राज्यों के बाद 960 ई. में सम्राट ताइज़ू ने चीन में सोंग राजवंश (सोंग चाओ) की स्थापना की, जिसकी राजधानी कैफेंग (बिआनजिंग) में थी। सोंग राजवंश ने 979 ई. में अधिकांश चीन को पुनः एकीकृत किया, किंतु बाहरी प्रदेशों के बड़े क्षेत्रों पर खानाबदोश राज्यों का अधिकार था। लियाओ वंश ने 907 से 1125 ई. तक मंचूरिया, मंगोलिया और उत्तरी चीन के कुछ हिस्सों पर शासन किया। इस बीच, 1032 से 1227 ई. तक गांसु, शानक्सी और निंग्ज़िया के उत्तर-पश्चिमी चीनी प्रांतों पर तांगुत जनजातियों ने पश्चिमी शि़या राजवंश की स्थापना की।

सोंग शासकों के काल को दो भागों में बाँटा जाता है- उत्तरी सोंग शासकों ने 960-1127 ई. के दौरान चीन के अंदरूनी भाग पर बिआनजिंग (कैफेंग) को राजधानी बनाकर शासन किया। इसके बाद, 1127 ई. में एक दैवी आपदा (जिंगकांग घटना) के बाद इस क्षेत्र पर जिन राजवंश (1115-1234 ई.) का अधिकार हो गया।

उत्तरी चीन को हारने के बाद सोंग शासकों ने यांग्त्से नदी से दक्षिण में लिनआन (हांगझोऊ) में अपनी राजधानी बनाई और 1127 से 1279 ई. तक शासन किया। इन्हें दक्षिणी सोंग शासक कहा जाता है।

सोंग काल चीनी सभ्यता का उच्चतम् बिंदु माना जाता है। इस राजवंश के काल में चीन में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। सोंग काल में ही चीन में खगोलीय घड़ी बनाई गई, चुंबक का दिशा-सूचक यंत्र बनाया गया और छापाखाना स्थापित किया गया। समृद्ध आर्थिक गतिविधियों के कारण इस काल में तांबे के सिक्कों के पूरक के रूप में पहली बार काग़ज़ के नोट छापे गये।

इस समय तकनीकी उन्नति, चावल की खेती में सुधार और उत्पादन के लिए कोयले की व्यापक उपलब्धता के कारण जनसंख्या 100 मिलियन से अधिक हो गई और चीनी अर्थव्यवस्था समृद्धि हो गई। यद्यपि सुदूर पश्चिम के भूमि व्यापार मार्ग खानाबदोश साम्राज्यों द्वारा अवरुद्ध कर दिये गये थे, किंतु पड़ोसी राज्यों के साथ चीनियों का व्यापक समुद्री व्यापार चलता रहा। कम्पास से युक्त लकड़ी के विशाल जहाज पूरे चीन सागर और उत्तरी हिंद महासागर में यात्रा करते थे। युद्ध के क्षेत्र में भी सोंग काल नवाचार का युग था। चीन में पहली स्थायी नौसेना 1132 ई. में ही स्थापित की गई थी। यद्यपि बारूद की खोज तांग काल में की गई थी, लेकिन इसका पहली बार प्रयोग सोंग सेना द्वारा ही किया गया। इस काल में चीनी अर्थव्यवस्था के साथ कलाओं का भी विकास हुआ।

सोंग राजवंश के दौरान विशाल साहित्यिक कृतियों का संकलन किया गया। छापाखाने के आविष्कार ने ज्ञान के प्रसार को और सुगम बना दिया। बांसुरी के अठारह गीतों के साथ-साथ महान बौद्ध चित्रकारों जैसे विपुल लिन टिंगगुई जैसी कलाकृतियों के साथ संस्कृति और कला का विकास हुआ। इस काल में कन्फ़्यूशियस धर्म और बौद्ध धर्म दोनों का विकास हुआ।

1234 ई. में मंगोलों ने जिन राजवंश को हराकर उनके इलाक़ों पर अधिकार कर लिया और फिर सॉग साम्राज्य पर आक्रमण किया। अंततः कुबलाई ख़ान ने 1279 ई. में यमन की लड़ाई में सोंग शासक को हरा दिया। उसने 1271 ई. में ही स्वय को चीन का सम्राट घोषित कर दिया था, इसलिए उसके द्वारा स्थापित युआन राजवंश की शुरुआत 1271 ई. से मानी जाती है।

चीनी सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ

राजनीतिक व्यवस्था
सम्राट

चीन की कांस्यकालीन सभ्यता का उच्च स्तरीय विकास शांग राजाओं के शासनकाल में हुआ। प्रशासकीय प्रबंधन से संबद्ध देववाणी अस्थियों (ऑरकेन बोंस) से ज्ञात होता है कि राजनीतिक संगठन राजतंत्रात्मक था। इस राजतंत्रीय शक्ति का केंद्र-बिंदु राजा होता था, जो शासन के साथ-साथ न्याय और धर्म का भी सर्वोच्च होता था। शासक को ‘ती’ कहा जाता गया था। ‘ती’ उपाधि का अभिप्राय है- ‘देवाधि देव’, जो शासक की सर्वोच्च सत्ता का प्रतीक था। चीनियों का विश्वास था कि उनका राजा संपूर्ण पृथ्वी पर शासन करता है। राज्य के प्रधान सेनापति के रूप में उसका कर्त्तव्य देश में शांति एवं सुव्यवस्था की स्थापना, बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा करना, प्राचीन रीति रिवाजों तथा धर्म के अनुसार शासन करना, नियम बनाना और जनता की भलाई के लिए कल्याणकारी कार्य करना था। चीनी शासक जनता के सुख-दुख को अपना सुख-दुःख मानते थे और ’ईश्वरीय पुत्र’ होने के बावजूद जनता पर अत्याचार करने अथवा निरंकुश व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र नहीं थे।

चाऊकालीन प्रशासनिक तंत्र में सम्राट ‘वेंग’ की उपाधि धारण करता था। हैवेन्स मेंडेट (स्वर्ग का आदेश) के आधार पर माना जाता था कि सम्राट ईश्वर का प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि वह केवल पूर्वजों की इच्छा, व्यक्तिगत गुणों तथा देव-कृपा से एक अधिकारी मात्र है, जिसे एक निश्चित कार्य सौंपा गया है। यही मौलिक अवधारणा राज्य और राजा की वैधानिकता में सन्निहित है। आरंभिक चाऊकाल में शासकों को असीमित अधिकार प्राप्त थे, किंतु परवर्ती काल में उनकी शक्ति का हृास होने लगा और वे नाममात्र के शासक रह गये। इनका महत्व केवल पैतृक प्रतिष्ठा एवं धार्मिक कृत्यों के संपादन मात्र तक सीमित हो गया।

मंत्री और मंत्रिपरिषद

राजा की सहायता के लिए कई प्रकार के मंत्रियों की नियुक्ति होती थी और राजा शासन के कार्यों में इन मंत्रियों की सहायता लेता था। राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद का भी गठन किया जाता था। इतिहासकारों के मतानुसार इस मंत्रिपरिषद में चार सदस्य होते थे। शासन के प्रमुख विभागों में सेना के अतिरिक्त, न्याय, धर्म एवं शिक्षा आदि के मंत्री अपने-अपने क्षेत्रों में कार्यरत थे। चीनी सम्राटों ने अपने साम्राज्य को सुचारू ढ़ंग से संचालित करने के लिए साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभक्त किया था। वू ती के समय प्रांतों की कुल संख्या 13 थी। प्रांतों में सम्राट द्वारा गर्वनर की नियुक्ति होती थी, जो साधारणतया शासक के परिवार से ही होती थी।

चाऊकाल में सम्राट की सहायता के लिए एक मुख्यमंत्री तथा छः अन्य मंत्रियों की नियुक्ति की जाने लगी थी। चाऊ शासक मानते थे कि आकाश में 360 नक्षत्र हैं और इसी आधार पर उन्होंने तीन सौ साठ अधिकारियों की नियुक्ति भी की थी। प्रत्येक मंत्री के विभाग में 60 अधिकारी कार्य करते थे।

नगर प्रशसन

नगर प्रशसन की सबसे छोटी इकाई होती थी। नगर का प्रमुख नगराधिकारी होता था, जिसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। वह अपने समस्त कार्यों के लिए शासक के प्रति उत्तरदायी होता था। पदाधिकारियों की नियुक्ति के पहले उनकी विधिवत परीक्षण एवं प्रशिक्षण दिया जाता था, जिसमें तीरअंदाजी, घुड़सवारी, संगीत, लेखन एवं धर्मशास्त्र के ज्ञान का परीक्षण किया जाता था। ये अधिकारी कर-संग्रह, प्राचीरों, मंदिरों, भवनों, समाधियों आदि के निर्माण एवं सिंचाई का समुचित प्रबंध करते थे।

सामंतीय व्यवस्था

चीन में शांगकाल से ही सामंतीय व्यवस्था का प्रचलन था क्योंकि शांग शासकों के अधीन कुछ ऐसे सामंती राज्य थे, जो युद्धों में पराजित होने पर राजा की अधीनता स्वीकार कर लेते थे। किंतु अधीन होते हुए भी ये सामंत अपने प्रदेशों में स्वतंत्र रूप से शासन करते थे और इन पर केंद्र का शायद ही कोई नियंत्रण रहता था।

चाऊ काल को ‘सामंती युग’ के नाम से जाना जाता है। इस वंश के संस्थापक ‘वु वांग ने अपने प्रशासन के समुचित संचालन के लिए अपने साम्राज्य में अनेक सामंतों की नियुक्ति की थी। उसने सामंतों की पाँच श्रेणियाँ- कुन, हाऊ, पो, जे और नान निर्धारित की थी। इन सामंतों का चयन चाऊ वंश तथा स्थानीय सरदारों में से किया जाता था, जो अपने-अपने क्षेत्र में सुरक्षित दुर्गों में रहते थे। इन्हें राजा को कर और आवश्यकतानुसार सैनिक सहायता देनी पड़ती थी। चाऊ साम्राज्य लगभग 210 रियासतें और नौ प्रदेशों में बँटा हआ था और छोटे-बड़े सभी सामंतों की कुल संख्या 1703 थी। सामंतवाद के कारण प्रशासन का विकेंद्रीकरण हो गया था। राज्य की संप्रभुता राजा और सामंतों में विभाज्य थी। सामंतों पर सम्राट का नियंत्रण बनाये रखने के लिए निरीक्षकों की नियुक्ति की जाती थी और सामंतों को अपना हिसाब-किताब देने के लिए स्वयं सम्राट के समक्ष उपस्थित होना पड़ता था। सम्राट स्वयं समय-समय पर रियासतों का दौरा करता था। किंतु यह सामंती व्यवस्था कालांतर में चाऊ साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई।

सैन्य-व्यवस्था

शांगकालीन चीनियों का सैन्य-संगठन अच्छा अवश्य था, किंतु विशाल सेना का अभाव था। प्रायः तीन हजार तथा पाँच हजार सेना का ही उल्लेख मिलता है। सेना के संचालन के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं है। इतना अवश्य है कि युद्ध आरंभ करने से पहले ज्योतिषियों एवं शकुन विचारकों से विधिवत् परामर्श किया जाता था। शत्रुओं के आक्रमण की आशंका होने पर प्रेतात्माओं से भी सहायता माँगी जाती थी। सुनियोजित युद्ध प्रायः बसंत ऋतु में शुरू होते थे, किंतु आकस्मिक युद्धों का कोई निश्चित समय नहीं होता था। युद्ध में मुख्य रूप से धनुष-बाण, कुल्हाड़ी, बर्छे तथा भाले जैसे अस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। सिर एवं शरीर की रक्षा के लिए धातु निर्मित शिरस्त्राण तथा कवच का प्रयोग किया जाता था। अन्यांग नगर के उत्खनन से 70 से अधिक कांस्य निर्मित शिरस्त्राण मिले हैं। युद्धों में दो घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथों का प्रयोग होता था, किंतु रथों की अपेक्षा सेना में पैदल सैनिक अधिक होते थे। सैनिकों में अधिकतर किसान होते थे, जिन्हें युद्ध का प्रशिक्षण देकर सैनिक के रूप में तैयार किया जाता था। सैनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति मुख्यतया कुलीन वर्ग से की जाती थी। युद्धबंदी या तो दास बना लिये जाते थे अथवा उनकी बलि दे दी जाती थी।

चाऊकालीन सैनिक संगठन अपेक्षाकृत सुदृढ़ था। युद्ध में रथों का प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता था। चाऊ सैनिक युद्ध क्षेत्र में अतिशय क्रूरता प्रदर्शित करते थे। बर्बर जातियों से युद्ध करते समय विजयोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। इस प्रकार के युद्धों में उन्हें मृत शत्रुओं के माँस-भक्षण में भी आनंद मिलता था।

चाऊ युग के परवर्ती कालों में सामंतीय व्यवस्था के विकास के कारण सदैव युद्ध की संभावनाएँ बनी रहती थीं। इसलिए राज्य के 20 वर्ष से 60 वर्ष तक के व्यक्तियों को सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। प्रति पाँच से बारह घरों से एक रथ, चार घोड़े, तीन सारथी, बहत्तर पदाति, पच्चीस कार्यवाहक तथा बारह बैल लिये जाते थे। इस तरह बड़ी संख्या में सैनिक एकत्र किये जाते थे। राज्य के छः सैनिक विभाग बनाये गये थे और प्रत्येक विभाग के पास लगभग 12,500 सैनिक थे। इनका एक प्रधान सेना अध्यक्ष होता था और प्रधान सेनाध्यक्षों के अधीन 6-6 सहायक सेनाध्यक्ष नियुक्त किये गये थे। इन सहायक सेनाध्यक्षों के अधीन 500 सैनिकों के सेनापति और इनके अधीन 100 सैनिकों के सरदार होते थे। सरदार के अधीन 25 सैनिकों के नायक थे। अंतिम इकाई पाँच सैनिकों की थी। पाँच सौ सैनिकों और इससे नीचे वाले अधिकारियों के पद प्रायः विद्वानों को दिये जाते थे। इस प्रकार चीन का सैनिक संगठन पिरामिडाकार था।

कानून एवं दंड-विधान

प्राचीन चीन की राजनीति एक विशिष्ट अनुशासन पर अवलंबित थी। अनुशासन का मूल-बिंदु सदाचार की अवधारणा थी। प्रशासनिक वर्ग का सदाचार व नैतिक नियम था-प्रजा की रक्षा और उसकी सेवा, साथ ही, वे पारस्परिक उत्तरदायित्व के सूत्र में भी आबद्ध थे। दंड-व्यवस्था कठोर थी। चीनी सभ्यता में मृत्युदंड, अंडोच्छेदन, पादविच्छेदन, नासिकाच्छेदन, चेहरे को गोदने जैसे दंड प्रचलित थे, किंतु इसके बदले अर्थदंड की भी व्यवस्था थी। यहाँ अनुबंध नियमित बनाये जाते थे और उन्हें स्वीकार करना पड़ता था।

समाजिक व्यवस्था
परिवार

चीन के सामाजिक संगठन का प्राथमिक स्वरूप परिवार नामक संस्था थी। इस परंपरा का पितरपूजा के कारण विशेष महत्व था। इनका विश्वास था कि पितर (पूर्वज) मानव को सुखी और समृद्ध बना सकते हैं। परिवार की शक्ति एवं प्रतिष्ठा वृद्धि के लिए ये अपने प्राणों का उत्सर्ग भी कर देते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि इससे अपना स्थान पूर्वजों में सुरक्षित हो जायेगा और हमारी संतानें इसका अनुकरण करेंगी। परिवार के साथ विश्वासघात करने और वंश समाप्त करने को घोर अपराध माना जाता था। चीन में संयुक्त पारिवार की प्रथा का प्रचलन था। पिता कुल का स्वामी होता था और परिवार को सुखी बनाये रखने के लिए विनय एवं शिष्टाचार के नियम थे। माता पिता के प्रति संतान की आज्ञाकारिता एवं भ्रातृत्व स्नेह मानवीय गुण माना जाता था। परिवार के मुखिया की मृत्यु होने पर परिवार का स्वामित्व उसके बड़े भाई अथवा भाई के अभाव में पुत्र को मिलता था। यद्यपि माता की सत्ता पिता की अपेक्षा गौण थी, किंतु पिता की मृत्युपरांत माता की सत्ता अनुल्लंघनीय होती थी। प्रत्येक चीनीवासी स्वयं को पितृ ऋण का आभारी होता था।

प्राचीन चीनी समाज में उत्पादन का प्रमुख स्रोत भूमि थी। अतः सामाजिक प्रतिष्ठा एवं स्थान निर्धारण का मूल मानदंड भूमि को ही माना जाता था। शांगकालीन समाज में खेतिहर मजदूरों (कृषकों) को भूमि पर स्वामित्व प्राप्त था। शांगकालीन स्रोतों से पता चलता है कि इस युग में समाज में शोषक तथा शोषित दो वर्ग थे। शोषक वर्ग में शासक, राजपरिवार के सदस्य, पुरोहित, योद्धा आदि आते थे, जबकि शोषित वर्ग में श्रमिक तथा दास थे। पहले वर्ग का दूसरे वर्ग पर नियंत्रण होता था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि दासों के सिर गोद दिये जाते थे, जिससे उनकी अलग पहचान बनी रहती थी और भागने पर उन्हें आसानी से पकड़ लिया जाता था। इससे लगता है कि दासों के साथ कठोरता का व्यवहार किया जाता था।

चाऊकालीन समाज तीन वर्गों-राजवर्ग, उच्च वर्ग और कृषक वर्ग में बँटा हुआ था। राजवर्ग में राजा और उसके परिवार के लोग सम्मिलित थे। उच्च वर्ग में सामंत, जागीरदार, लिपिक, राज्य कर्मचारी, पुजारी, ज्योतिषी आदि आते थे। कृषक वर्ग कृषकों और मजदूरों का होता था। प्रत्येक वर्ग अनेक कुलों के योग से बनता था। प्रत्येक कुल का प्रधान कोई राजा, देवता, पूर्वज अथवा काल्पनिक व्यक्ति होता था। कभी-कभी यह स्थान योद्धाओं को भी दिया जाता था। कर्मचारियों को यह विशेष छूट प्रदान की गई थी कि वे अपने कर्मों द्वारा उच्च स्तरीय राजकीय पद को प्राप्त कर सकते थे और उनका परिवार संभ्रांत वर्ग में सम्मिलित कर लिया जाता था।

वस्त्राभूषण एवं रहन-सहन

प्राचीन चीन के लोग ऋतु के अनुसार सन, रेशम तथा बाल वाले खालों का प्रयोग करते थे। चीनी में सर्वप्रथम रेशम के वस्त्रों का निर्माण किया गया और विश्व में इसका प्रसार हुआ। चीनी लोग आभूषण-प्रेमी थे और हाथीदाँत, सीपी, शंख आदि के बने आभूषण धारण करते थे। बाल में पिन लगाने का चलन था। चीनी समाज में मनोरंजन को विशेष स्थान प्राप्त था। चीनवासियों ने नृत्य एवं संगीत के क्षेत्र में विभिन्न मुद्राओं एवं सुरों की खोज की और उनका विकास किया। समाज में अनेक उत्सव एवं त्यौहार प्रचलित थे, जो प्रायः उपयोगिता के आधार पर मनाये जाते थे, जैसे- कृषि-त्योहार, बसंत ऋतु त्यौहार, बाल-जन्मोत्सव आदि।

विवाह प्रथा

कुल एवं परिवार को सुव्यवस्थित रखने के लिए विवाह की परंपरा का प्रचलन था। वैवाहिक कार्यक्रम अत्यंत धूमधाम से मनाये जाते थे। एक ही कुल में वैवाहिक संबंध निषिद्ध थे, किंतु कई पीढ़ियों के अंतर से और मातृकुल में विवाह किये जा सकते थे। प्रायः विवाह के लिए कन्या की आयु 17 वर्ष और वर की आयु 20 वर्ष निर्धारित की गई थी। निश्चित आयु में विवाह न करने पर माता-पिता को दंडित किया जाता था। काव्य-संग्रह में विवाह की विधि का विस्तार-पूर्वक वर्णन मिलता है।

समाज में विधवा-विवाह एवं पुनर्विवाह की प्रथा भी प्रचलित थीं। तलाक के सामान्य कारण बाँझपन, व्यभिचार, पति-अवज्ञा, सास-ससुर की अवज्ञा, असाध्य रोग, वाक्चाल, चोरी, ईर्ष्या आदि माने जाते थे। ऐसी स्त्रियों को तलाक नहीं दिया जा सकता था, जिनके पति विवाह के बाद धनी हो गये हों अथवा जिनके लौटने के लिए पिता का घर न हो, अथवा जिन्होंने अपने पति के माता-पिता की मृत्यु पर तीन वर्ष का शोक मनाया हो। राजपरिवार एवं कुलीन वर्ग में बहु-विवाह का प्रचलन था। साधारण राज-कर्मचारी दो पत्नियाँ रख सकता था, बड़े अधिकारी तीन और राजा नौ। शिशु के भाग्य का निर्णय उसके जन्मदिन के मुहूर्त के अनुसार किया जाता था। अशुभ क्षणों में उत्पन्न शिशुओं को त्याग दिया जाता था।

स्त्रियों की स्थिति

पुरुष प्रधान होने के कारण चीनी समाज में स्त्रियों का स्थान अपेक्षाकृत गौण था। शांगकाल में स्त्रियों की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई थी और उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। राजाओं के मरने के बाद रानियों की बलि दे दी जाती थी। बहुपत्नीक प्रथा के कारण स्त्रियों की स्थिति दयनीय थी, तथापि सामान्य वर्ग में पुरुष और स्त्रियाँ समान रूप से श्रम करते थे, पुरुष मुख्यतः खेतों और उद्योगों में तथा स्त्रियाँ घरों में। स्त्रियाँ अपने पुरुषों के लिए खेतों पर भोजन ले जाती और काम-काज में उनकी सहायता करती थीं। समाज के अभिजात वर्ग तथा राजपरिवार से संबद्ध स्त्रियों को ‘चियेह’ कहा जाता था। चियेह का अभिप्राय दासी अथवा रखैल दोनों है। इससे प्रतिध्वनित होता है कि मालिकों को उन्हें किसी भी तरह से इस्तेमाल करने का पूरा अधिकार होता था। इसी से ‘रखैल’ परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार स्त्रियों को आमोद-प्रमोद का साधन भी माना जाता था।

ऐसा लगता है कि स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था और उनके जीवन की नियति विवाह बन गया था। उन्हें प्रायः सार्वजनिक जीवन से मुक्त रखा गया था। स्त्रियाँ अशिक्षित होती थीं, किंतु उच्च शिक्षित स्त्रियों के प्रमाण भी मिले हैं। लू परिवार की एक वृद्धा राजनीति एवं शासन-व्यवस्था विषयक चर्चाएँ विद्वत्तापूर्ण करती थी। यद्यपि इन्हें वृद्धावस्था में सम्मान मिलता था, फिर भी, गोपनीय वार्त्ताओं के लिए इन्हें शंका एवं हेय की दृष्टि से देखा जाता था। इनकी सलाह से काम करना पुरुषोचित नहीं माना जाता था। किंतु ऐसे भी प्रमाण मिले हैं, जहाँ स्त्रियों की सलाह न मानने पर हानि उठानी पड़ी है। एक काव्य-संग्रह में कहा गया है कि ‘बुद्धिमान पुरुष खड़ी करता है दीवार (रहस्यों को छिपाने के लिए), किंतु बुद्धिमान स्त्री तोड़ देती है उस दीवार को’।

मृतक-संस्कार

ह्वांग हो तट के अनेक पुरास्थलों के उत्खननों से पुरातत्वविदों को दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. की बहुत-सी समाधियाँ मिली हैं, जिनमें मृतकों के साथ आवश्यक उपकरण सहित दस अथवा सैकड़ों लोगों को दफनाया गया था। चीनियों का विश्वास था कि वे मृतात्मा की सेवा करेंगे। इसके अतिरिक्त, दासों के हाथ-पैर काटकर भी उनके स्वामी के साथ दफनाये जाने के प्रमाण मिले हैं।

आर्थिक व्यवस्था

शांग काल में चीन की कांस्यकालीन सभ्यता भौतिक दृष्टि से उन्नति पर पहुँच गई थी। यह आर्थिक समृद्धि मुख्यतः कृषि, पशुपालन और शिकार पर निर्भर थी।

कृषि-व्यवस्था

चीन में ह्वांग हो की उर्वर घाटी कृषि के लिए बहुत उपयोगी थी, जिसके कारण आरंभ में कृषि ही चीनियों का मुख्य व्यवसाय था। फसल बोने के पूर्व शकुन पर विधिवत् विचार किया जाता था। यहाँ ज्वार, बाजारा, धान, जूट, गेहूँ आदि की खेती की जाती थी। खेती प्रायः पुरुष ही करते थे, किंतु स्त्रियाँ भी इनकी सहायता करती थीं। रेशम उत्पादन में स्त्रियाँ होती थीं।

गाँव की जमीन को आठ-आठ परिवारों की एक इकाई में नौ समान खंडों में बाँटा गया था। इनमें बीच वाले खंड पर आठों परिवार रहते थे, शेष अगल-बगल के आठ टुकड़ों में से प्रत्येक परिवार को एक-एक टुकड़ा खेती के लिए दिया जाता था। यह भू-खंड तथा इस पर हुआ उत्पादन उस परिवार की निजी संपत्ति होती थी। बीच में जिस भाग पर आठों परिवार निवास करते थे, उस पर सामूहिक खेती की जाती थी।

भूमि का स्वामी राजा होता था। पच्चीस वर्षों तक निरंतर खेती करते रहने के बाद खेत पर किसान का अधिकार हो जाता था। यह अधिकार 60 वर्षों तक बना रहता था। इसके बाद उस भूमि को राजा जिसे चाहे दे सकता था। भूमिकर को ‘चीह’ कहा जाता था। इस प्रकार चीनियों का भू-स्वामित्व सिद्धांत चिंग-तिएन पद्धति पर आधारित थी।

इस प्रकार चीन में व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार की खेती का प्रचलन था। आरंभ में बैलों से खींचे जाने वाले हल की जानकारी शायद उन्हें नहीं थी। अतः कुदाल से गोड़कर खेती की जाती थी। बाद में बैल की जगह साँड़ का ही प्रयोग किया जाता था। इनके हलों में लोहे के फाल लगे होते थे। कृषि कर्म मुक्त वृद्धों के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व राज्य पर था। इसी प्रकार अशक्त, बधिर, मूक एवं पागल का भरण-पोषण भी राज्य द्वारा किया जाता था। चाऊकालीन शासकों ने कृषि उत्पादनों को बढ़ाने के लिए दलदली भूमि को सुखाने और नहरों के द्वारा सिंचाई की व्यवस्था की थी।

प्राचीन चीन के लोग फलोत्पादन भी करते थे जिसमें मुख्य रूप से शहतूत की खेती की जाती थी। इसका मूल कारण था कि यहाँ रेशम उद्योग का विशेष प्रचलन था। इसी के पेड़ों पर रेशम के कीड़े पाले जाते थे।

खेतिहर मजदूर भूमिपति की दया पर आश्रित था। मजदूरी के लिए कोई नियम नहीं था और न ही न्यूनतम मजदूरी की कोई निर्धारित दर थी।

पशुपालन

चीनवासियों की जीविकोपार्जन का दूसरा साधन पशुपालन था। कृषि-कार्य में पशुओं से सहायता ली जाती थी। पशुओं में हाथी, घोड़े, कुत्ते, सुअर, बैल, भेड़, बकरी, हिरण, भैंस, तथा बंदर आदि पाले जाते थे। गाय, बैल, सुअर, भेड़, कुत्ता तथा मुर्गी का माँस खाया जाता था। कुत्तों, भेड़ों तथा बकरियों की बलि भी दी जाती थी। चीनी लोग पशुओं के मांस का उपयोग बड़े चाव से करते थे, किंतु वे दूध के उपयोग से अपरिचित थे। इस प्रकार पशुधन का उपयोग बोझा ढोने, कृषि कार्य, रथ चलाने, खाल, ऊन, मांस तथा बलि के लिए किया जाता था।

चीनी लोग जंगली पशुओं का शिकार भी करते थे। शांग राजधानी अन्यांग में अत्यधिक सर्दी पड़ती थी। अतः समाज के निम्न वर्ग के लोग पशुओं की खाल के लिए भी शिकार करते थे। इससे उन्हें भोजन के लिए मांस भी मिल जाता था। राजा और उसके सामंत मनोरंजन तथा शक्ति प्रदर्शन हेतु भी शिकार करते थे।

व्यापार एवं विनिमय मुद्रा

आरंभिक चीनी सभ्यता में नगर एवं गाँव दोनों आत्मनिर्भर थे और व्यापार का प्रचलन प्रायः नहीं था। विनिमय के माध्यम से व्यापार प्रचलित था, किंतु व्यापार जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं तक ही सीमित था। विदेशों के साथ व्यापार प्रायः राजाओं तथा सामंतों और कुलीन वर्गों के लोगों के उपयोग की सामग्री के लिए ही किया जाता था। घोड़ों तथा अन्य पशुओं की खाल और अनाज का निर्यात होता था। विनिमय में घोड़े, गाय, बैल तथा अनाज का ही प्रयोग किया जाता था। आरंभ में सिक्कों के रूप में कौड़ियाँ प्रयुक्त की जाती थीं।

अन्य व्यवसाय एवं उद्योग

शांग काल में हस्तकलाएँ पूर्णतः विकसित नहीं थीं, किंतु लोग कातने, बुनने की कला से परिचित थे। शांग काल में युद्धोपयोगी उपकरण, रथ, नाव तथा भांड बनाने के धंधे प्रचलित थे। बर्तन बनाने के लिए साधारण मिट्टी तथा पीली मिट्टी का प्रयोग किया जाता था। उजली मिट्टी से निर्मित बर्तन शीशे की तरह चमकते थे। इनके कुछ बर्तन 4.5 मीटर ऊँचे तथा लगभग 2.19 मीटर चौड़े मिले हैं। मिट्टी के साथ-साथ ये लोग कासे के बर्तन भी बनाते थे जिन पर अनेक प्रकार की आकृतियाँ बनी रहती थीं।

चीनियों को पत्थर और सीप से बटन बनाने का ज्ञान था। लकड़ी पर नक्काशी की कला से वे परिचित थे, टोकरियाँ और चटाइयाँ बुनी जाती थीं। कांसे के बर्तन बनाये जाते थे और उन पर नक्काशी की जाती थी। सिलाई के लिए हड्डी की सुइयों का प्रयोग किया जाता था। बाद में काँसे की सुई भी बनने लगी। खुखरी और तीर के फाल भी पत्थर के बनाये जाते थे। आभूषण बनाने के लिए बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग किया जाता था, जिसे वे ‘यू’ कहते थे। यह प्रायः हरे रंग का होता था। पत्थर के खिलौने भी बनाये जाते थे, जो प्रायः पशुओं और पक्षियों की आकृतियों के होते थे। कालांतर में इन उद्योगों पर राज्य का स्वामित्व स्थापित हो गया।

शिक्षा एवं साहित्य

चीनी समाज में शिक्षित व्यक्ति का जितना महत्त्व, मान व सम्मान था, उतना अन्य किसी सभ्यता में नहीं था। प्राचीन चीन की शिक्षा पद्धति उन्नत थी। गाँव के प्रत्येक 25 परिवारों के लिए एक ‘शू’ (प्राथमिक पाठशाला), पाँच सौ परिवारों के लिए ‘ह्साँग’ तथा प्रत्येक जिले के पच्चीस हजार परिवारों के लिए एक विद्यालय ‘हू’ होता था। इसी प्रकार प्रथम श्रेणी के राज्य की राजधानी में महाविद्यालय ‘पक्वॉन’ तथा साम्राज्य की राजधानी में राजकीय विश्वविद्यालय ‘पुयंग’ होता था।

बालक की प्रारंभिक शिक्षा 8 वर्ष में प्रारंभ होती थी। विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों का उल्लेख ‘कर्मकांडीय ग्रंथ’ में मिलता है। इन विषयों में प्रमुख रूप से गुण-दया, अच्छाई, सत्यता, आज्ञाकारिता, एकाग्रता तथा छः सत्कार्य, जैसे- माता-पिता का आदर करना, भ्राता के साथ मित्रवत्, हिल-मिलकर रहना, संबंधियों से विवाह करके प्रेम संबंध बनाये रखने, विश्वासपात्र बनाने तथा सहानुभूति रखना शामिल थे। इसमें छः कलाओं- कर्मकांड, धनुर्विद्या, रथ विद्या के पाँच प्रकार थे। छः प्रकार का साहित्य लेखन तथा गणित की नौ विद्याएं थीं। चरित्र-निर्माण के लिए संगीत पढ़ाया जाता था। वाद्य-यंत्रों में नगाड़ा, घंटी, बांसुरी तथा शहनाई सम्मिलित थे। नर्तक विभिन्न वाद्यों के साथ नाचते थे।

बालक-बालिकाओं की शिक्षा के लिए कहा गया है कि छठवें वर्ष में बालक-बालिकाओं को संख्या आदि मुख्य बातों का ज्ञान कराना चाहिए। 7 वर्ष के होने पर बालक-बालिकाओं को एक ही चटाई पर नहीं बैठाना चाहिए और न साथ-साथ खाना खाना चाहिए। 8वें वर्ष में स्कूल से बाहर आने-जाने में तथा भोजन करने या बैठने के लिए जाते समय बड़ों का अनुकरण करना चाहिए। नवें वर्ष में उन्हें दिन गणना करना सिखलाया जाता था। दसवें वर्ष में बालक शिक्षक के साथ रहकर चरित्र और गणना की शिक्षा पाता था और युवक के व्यवहार का ज्ञान प्राप्त करता था। 13वें वर्ष में वह नृत्य, धनुर्विद्या, रथ-संचालन की शिक्षा पाता था। इनकी शिक्षा 25 वर्ष तक चलती थी। इस काल तक वह शिक्षार्थी माना जाता था।

बालिकाएँ 10 वर्ष के बाद बालिका-कक्ष से बाहर नहीं जा सकती थीं। उन्हें मधुर वाणी बोलने तथा सद्व्यवहार की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा, उन्हें सहिष्णता, आज्ञाकारिता, रेशम के धागे कातने, वस्त्र बुनने, यज्ञों को देखने तथा पेय पदार्थ देने की शिक्षा भी मिलती थीं। 15 वर्ष की आयु में वह केश श्रृंगार कर सकती थीं और 20 वर्ष में उनका विवाह कर दिया जाता था। इनका विवाह परिस्थितिवश 23 वर्ष में भी की जा सकती थी। यदि शास्त्रीय विधि से विवाह होता था, तो वह पत्नी कहलाती थी, किंतु अविधिक रूप से उसे रखैल कहा जाता था।

चीनी शिक्षाविदों का मुख्य ध्येय योग्य नागरिक तैयार करना था। ‘कुआन च डंग’ के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य जनता को नागरिक बनाने के लिए शिक्षित करना है। शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि जनता के निरंतर आजीविका तथा आर्थिक सुरक्षा देने के लिए है। कहा गया है कि लोगों को अधिकार और सत्कर्म का ज्ञान होने के पूर्व व्यक्तिगत या सरकारी अनागार भरे होने चाहिए। इसी प्रकार प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा का ज्ञान होने के पहले भोजन एवं वस्त्र का पूरा प्रबंध होना चाहिए। शिक्षक, कृषक, श्रमिक तथा व्यापारी देश के स्तंभ हैं। अतः इन्हें एक दूसरे से मिलकर नहीं रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से भाषा खिचड़ी हो जायेगी और व्यवसाय अव्यवस्थित हो जायेगा। अतः विद्वानों के लिए पृथक् आवास होने चाहिए। इस प्रकार जब वे एक साथ रहेंगे, तो पिता पितृप्रेम की बातें करेगा। पुत्र उन्हें ग्रहण करेगा। सुबह से रात तक ये सद्गुण उन्हें सिखाये जायेंगे। किशोरावस्था में वे इनके आदी हो जायेंगे, कुछ भी उन्हें विरक्त नहीं कर सकता। पिता बिना प्रयास के पढ़ायेंगे और पुत्र बिना कठिनाई के पढ़ेंगे। अतः विद्वानों के पुत्र सामान्य रूप से विद्वान बन जायेंगे। यही विद्या कृषकों, श्रमिकों तथा व्यापारियों के लिए भी थी। कालांतर में यही व्यवस्था प्राचीन चीन में जाति-व्यवस्था की पृष्ठिका बनी थी।

लिपि एवं लेखन सामग्री

चीनी सभ्यता का सर्वाधिक वैशिष्टयपूर्ण अंग शांगयुगीन लिपि है। इनके लिपि-संकेतों में हजारों वर्षों की सांस्कृतिक परंपराएँ निहित हैं। इनसे चीनियों के रीति-रिवाजों, परंपराओं, विचारों आदि का ज्ञान मिलता है। किंवदंतियों के अनुसार चीनी लिपि के जनक ‘फूह सी’ थे। इनका समय 2850 ई.पू. माना जाता है। फूह सी के पश्चात् 2687 ई.पू. के आसपास हुआंग वी के मंत्री त्सा-ड्ची ने इसे संशोधित कर स्थायी रूप दिया। कहते हैं कि पीत सम्राट के शासनकाल में दो इतिहासकार मंत्री थे- एक शासक के बाईं ओर बैठता था, जो शासक एवं मंत्रियों के भाषण लिखता था और दूसरा दाईं ओर बैठता था, जो तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाएँ लिखता था। किंतु इस प्रकार की कोई लिखित सामग्री प्राप्त नहीं हुई है।

बौद्ध ग्रंथ ‘ललितविस्तार’ के अनुसार चीनी लिपि के जनक त्सी ड्ची थे जिन्होंने इसे पक्षी पैर से प्राप्त किया था। एक अनुश्रुति के अनुसार त्सी ड्ची ने एक दिन रास्ते में एक कछुआ देखा तथा उसके आकार पर विचार करके उसका रेखाचित्र बना दिया। इसके पश्चात् उसने अन्य जीवों-मनुष्यों, पशु-पक्षियों, मछलियों सर्पों तथा निर्जीव वस्तुओं- पर्वत, नदी, सूर्य, चंद्र, मकान आदि का चित्र बनाया। इसकी लिपि के प्राचीनतम् साक्ष्य देववाणी अस्थियों (ऑरकेल बोन्स) पर मिलते हैं। इस लिपि को ‘कुवेन’ (प्राचीन आकृतियाँ) नाम दिया गया है। यह एक प्रकार की चित्रलिपि थी। इसमें लगभग 2500 चित्र संकेत थे। इनमें वृक्ष, सूर्य, चंद्र तथा पशुओं के चित्रों की प्रधानता थी। बाद में वस्तु-चित्रों में थोड़ा परिवर्तन कर अमूर्त भावों को भी व्यक्त किया जाने लगा। वस्तु-चित्रों से आगे बढ़कर ये दो चित्रों को मिलाकर भाव व्यक्त करते थे। भाव चित्रों के बाद ध्वनिबोधक चित्रों का विकास हुआ।

आरंभिक चीन में लिखने के लिए मुख्य रूप से कच्छप-कवचों, कांस्य पात्रों, काष्ठ फलकों, बाँस तथा रेशमी कपड़ों का प्रयोग किया जाता था। लिखने में बाँस की नुकीली कलम तथा हड्डियों की नुकीली कील का प्रयोग होता थे। परंपरानुसार माना जाता है कि ब्रश कलम (पि) का आविष्कार चिन जनरल मेड् लिपेन ने 215 ई.पू. में किया था। अन्यांग के पुरावशेषों में ब्रश कलम की प्राप्ति से लगता है कि शांगकाल से ही इसका प्रचलन था। प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों में भी ब्रश से लिखे गये रेशमी वस्त्रों का उल्लेख मिलता है। अन्यांग से प्राप्त कुछ चित्रों में लकड़ी की तख्तियों को इनके छेदों में रस्सी डालकर बंधा दिखाया गया है, जो संभवतः पुस्तकें थी।

साहित्य: शांग युग के उपलब्ध साहित्य केवल देववाणियों से संबंधित हैं, जिनमें मौसम, फसल, युद्ध, सैन्याभियानों, शिकार, यात्रा आदि के शकुन तथा रोग-निवारण मंत्र हैं। किंतु चाऊकालीन प्रारंभिक साहित्य धार्मिक था। इनके मंत्र एवं गीत भोजों, यज्ञों एवं पूर्वजों के सम्मान में आयोजित प्रीतिभोजों एवं नृत्यों के अवसर पर गाये जाते थे। गद्य एवं पद्य दोनों विधाएँ प्रचलित थीं, जिन्हें क्रमशः ‘फू’ एवं ‘शीह’ कहा जाता था। गद्य-खंड पूर्वजों के मंदिरों में आयोजित मूकाभिनय के साथ-साथ पढ़े जाते थे। कभी-कभी भाषण तैयार कर अभिनयकर्ता को प्रदान कर दिया जाता था। शासकीय लेख उत्कृष्ट भाषा में लिखे जाते थे। चाऊ काल में चाऊ यू यान नामक कवि बहुत प्रसिद्ध था।

चाऊकालीन प्रमुख साहित्यिक कृतियों में शू-चिंग अथवा शांग शू अर्थात् संरक्षित पुसतकें (बुक ऑफ हिस्ट्री), शी-चिंग अर्थात् काव्य संग्रह (बुक ऑफ पोयट्री), चुन-चिऊ (बसंत और शरद), बेम्बू एनाल्स, त्सो-चुआन अर्थात् बसंत और शरद की टीका, ज्योतिष ग्रंथ ई-चिंग (बुक ऑफ चेंजिज), कुओ-यु अर्थात् राज्यों पर प्रवचन (डिस्कोर्सेज ऑन द स्टेट्स), चान कु ओत्से (डॉक्यूमेंट्स ऑफ दि फाइटिंग स्टेट्स), आई-ली, ली-ची तथा चाक-ली, युआन की रचना ली-शाओ, चीन का प्राचीनतम् शब्दकोष ए र ए र और लाओत्से की दार्शनिक रचना ताओ-ते-चिंग आदि महत्वपूर्ण हैं।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

प्राचीन चीनियों ने अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के अनुसार ज्ञान में वृद्धि किये और व्यावहारिक प्रयोगों के आधार पर प्रायोगिक विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति किये। नव पाषाणकाल में पत्थर को काटकर उपकरण बनाने की कला और मृद्भांड-निर्माण तथा रंगाई व चित्रण के लिए रंगों के निर्माण एवं मिश्रण उनकी वैज्ञानिक प्रगति के सूचक हैं। शांग काल में ताँबे की खोज हुई और रांगा तथा जस्ते के मिश्रण से काँसे का निर्माण किया गया। धातु को गलाकर साँचों में उसकी ढलाई उनकी वैज्ञानिकता का परिचायक है। लेखन के लिए रंगों और ब्रश का आविष्कार किया गया। ज्यामितीय रचनाएँ भी विज्ञान के विकास का सूचक हैं।

चाऊ काल में चीनियों ने अनेक नक्षत्रों, सितारों और पुच्छल तारा की गति का पता लगा लिया था। ज्योतिष के आधार पर पाँचवीं शताब्दी ई.पू. के मध्य में 365 1/4 दिनों का एक कैलेंडर वर्ष तैयार किया गया और सप्ताह में 10 दिन रखे गये। ई.पू. 350 में उन्होंने बृहस्पति तथा शनि ग्रहों की गति का पता लगा लिया था। पाँचवीं सदी ई.पू. में ये धूपघड़ी तथा जलघड़ी का प्रयोग करने लगे थे। तीर-कमान के क्षेत्र में भी नवाचार को अपनाया गया। इस विधि में प्रत्यंचा के स्थान पर खटके (लीवर) से चलने वाले धनुष का निर्माण किया गया।

चिनकाल में पूर्वकालीन खुखरी ने तलवार का स्थान ले लिया, जिससे युद्ध के इतिहास में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। तलवार ने युद्ध में रथ की अनिवार्यता समाप्त कर दी और घोड़े का प्रयोग आरंभ हुआ। नहरों एवं दुर्गों के निर्माण में गणित व ज्यामिति का प्रयोग किया गया। ईसा से चार शताब्दी पूर्व निर्मित चीन की महान् दीवार आज भी रेखा, कोण, मेहराब, गोलाई एवं ज्यामितीय आकृतियों का अनुपम प्रमाण है। ईसा से 200 वर्ष पूर्व चीन ने छपाई के लिए मशीनें बनाई गईं और सर्वप्रथम पेंसिल और कागज का आविष्कार हुआ। चमड़े को पकाने, सिल्क के कीड़े पालना और उनसे सिल्क तैयार करना, चमड़े और लकड़ी पर लाख की रंगाई और चित्रकला तथा चंद्रमा की गति के आधार पर पंचांग निर्माण करना चीनियों की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं। इनके लकड़ी के बने बहुत सामानों, काँसे के सुंदर दर्पणों तथा सोने-चाँदी जड़ित नक्काशी किये गये बर्तनों से भी विज्ञान-प्रौद्योगिकी की प्रगतिशीलता का ज्ञान होता है।

कला एवं स्थापत्य

कला के क्षेत्र में चीनी कलाकार सुंदरता और स्वच्छता का तो ध्यान रखते ही थे, साथ ही साथ कला को आनंद का स्रोत एवं मानव भावनाओं का दर्पण मानते थे।

वास्तु कला

चीनी स्थापत्यकारों को ईसापूर्व 1500 के पहले स्थापत्य के विकसित सिद्धांतों का ज्ञान था, जिसका उपयोग उन्होंने नगर-नियोजन एवं स्थापत्य में किया है। शांग राजाओं ने राजधानी के रूप में अन्यांग का चयन किया, जो सामरिक और स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। अन्यांग नगर तीन ओर से हुआन नदी से घिरा हुआ और पश्चिम की ओर 100 मील विस्तृत पर्वत श्रृंखला से सुरक्षित है। इस नगर के दक्षिण में कोई प्राकृतिक अवरोध न होने के कारण कुटी हुई मिट्टी का परकोटा बनाया गया था। इसकी नींव 12 फुट चौड़ी है। इससे लगता है कि परकोटे की दीवार काफी ऊँची रही होगी। यहाँ मकान भी बनाये गये हैं। मकान की दीवारों के लिए लकड़ी के साँचों के बीच गीली मिट्टी भरकर उनकी कुटाई की गई और छत को रोकने के लिए काष्ठ-स्तंम खड़े किये गये थे। स्तंभ की नींव गहराई में मोटे व मजबूत पत्थर पर टिकी थी। यहाँ दीवारें केवल पर्दे का काम करती थीं। छत के लिए बाँस अथवा नरकुल की चटाई का प्रयोग किया जाता था और उस पर मिट्टी की गहरी परत बिछाई जाती थी। छतें ढलानदार होती थीं। काव्य-संग्रहों में नगरों को सुनियोजित ढंग से बसाये जाने का उल्लेख मिलता है।

राजमहल के निर्माण के विषय में काव्य-संग्रह में उल्लेख है कि उसके दरवाजे पश्चिम और दक्षिण की ओर खुलते थे। राजा के बैठने, रहने, मनोरंजन तथा वार्तालाप के लिए अलग-अलग कमरे थे। दीवारों का निर्माण ठोस कुटाई से गई थी। महल का आँगन समतल और चिकना था। इसके खंभे ऊँचे तथा सुंदर थे। कक्षों में प्रकाश आने की समुचित व्यवस्था की गई थी और गलियारे गहरे तथा चौड़े थे। उत्खनन में एक कक्ष का प्रमाण मिला है, जो 26 फुट चौड़ा और 92 फुट लंबा है। छत के लिए पहाड़ों से मजबूत लकड़ी (चीड़ और साइप्रस) लाई जाती थी।

चीन की वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण ‘चीन की विशाल दीवार’ है। इसका निर्माण हूणों के आक्रमण से सुरक्षा के लिए सम्राट शी हांग टी ने आरंभ करवाया था। इस दीवार की लंबाई लगभग 2400 कि.मी., ऊँचाई 22 फीट तथा चौड़ाई 20 फीट है। यह मिट्टी एवं पत्थरों से बनाई गई है। दीवर पर 25,000 प्रहरी बुर्ज हैं। यह दीवार की गणना विश्व के सात महान् आश्चर्यों में की जाती है।

चीन की कब्रों से संगमरमर की उत्कृष्ट कलाकृतियाँ मिली हैं, जो गोलाकार हैं और संगमरमर संग यशब (हरा पत्थर) एवं संगमूसा (काले पत्थर) पर छेनी और हथौड़े के माध्यम से उच्चकोटि की नक्काशी का काम किया गया है।

मूर्तिकला

प्राचीन चीनियों ने मूर्तिशिल्प में पक्षियों, कछुओं, पशुओं और दैत्याकार सर्पों की आकृतियों का प्रचुरता से उपयोग है। एक कब्र से बैल का सिर मिला है, जो जीवित बैल के सिर से बड़ा है। इसमें एक पिन लगी हुई है, जिससे लगता है कि इसे लकड़ी के आधार पर लगाया जाता था। इन मूर्तियों में विभिन्न अंगों का अनुपात, गोलाइयाँ और चिकनाई अद्भुत रूप से पूर्ण हैं और इनमें शीशे जैसी चमक है।

मृद व कांस्य पात्र कला

चीन के लोगों की कलात्मक अभिव्यक्ति का समुचित निदर्शन कांस्य पात्रों के निर्माण में होता है। मूलतः इन पात्रों की आकृतियाँ पूर्ववर्ती मृद्भांडों से अनुकरण की गई है, किंतु धीरे-धीरे उनमें क्रांतिकारी रूपांतरण हुआ। नव प्रस्तर युग के दो मृद्भांड ‘टिंग’ और ‘ली’ अपनी मौलिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका उपयोग धार्मिक अवसरों पर किया जाता था। टिंग तीन पायों वाली खुली कढ़ाई है, जिसके दोनों ओर दो हत्थे लगे हैं। ली तलीदार पात्र है, जिसमें बलि इत्यादि के लिए पकाया जाने वाला भोजन रखा जाता था। ली के दोनों ओर बने हत्थे हाथी की सूंड के आकार में हैं। ‘चिया’, ‘कुई’ और ‘त्सुन’ कांस्य-निर्मित पात्र अपनी मौलिकता एवं उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। चिया पात्र में बाजरे की काली मदिरा को गर्म किया जाता था। कुई बलि का भोजन पात्र है। दो भैंड़ों के आकार में ढाला गया ‘त्सुन’ पात्र है। इनके अतिरिक्त, चीन के प्रमुख पात्र हैं- भोजन सामग्री रखने के लिए ‘तुई’, ‘फू’, मदिरा रखने के लिए ‘यी’, ‘यू’, ‘हू’, ‘लाई’ और ‘कुआंग’। मदिरापान के लिए ‘चुअेह’ और ‘कु’ तिपाईदार पात्र थे। पानी रखने के लिए ‘यान’ नामक पात्र था और परोसने के लिए ‘ही’ तथा ‘यी’ नामक टोंटीदार सुंदर पात्र थे। यद्यपि ये सभी पात्र मूलतः प्रारुपिकी उपयोगिता पर आधृत थे, किंतु चीनी इस सीमा को लांघकर शुद्ध कलात्मकता के क्षेत्र में प्रवेश कर गये और उनमें एक विलक्षण सौंदर्य-बोध के साथ ही दैवी-रहस्यात्मकता का समावेश भी हो गया।

आभूषण कला

प्राचीन चीनियों की कला का दर्शन उनके द्वारा निर्मित आभूषणों में भी परिलक्षित होता है। शांगकाल में कला अपने पूरे निखार पर थी। इस काल के आभूषणों में लोभ के विरुद्ध चेतावनी देने वाला ‘दैत्य मुखौटा’ ताओ तियेह अपनी कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध रहा है। इस मुखौटे पर अनेक प्रकार के दैत्याकार सर्प तथा अन्य पशु-पक्षियों का अंकन किया जाता था।

चाऊकाल के आरंभिक वर्षों में आभूषण कला में कुछ शिथिलता आई, किंतु सातवीं शताब्दी ई.पू. से कला पुनः उत्कर्ष हुआ और काँसे पर सोने, चाँदी और फिरोजे का काम किया जाने लगा। यहाँ आभूषणों का उपयोग केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं होता था, बल्कि घोड़ों, रथों, तलवारों, कुल्हाड़ों, पेटी के हुकों इत्यादि को भी आभूषणों से सजाया जाता था। विशेषतः जिन पशुओं और घोड़ों को बलि दी जाती थी, उन्हें अच्छी तरह सजाया जाता और आभूषणों सहित ही दफनाया जाता था। हान काल में अंगूठियाँ, कर्णफूल, जंजीर में लटकने वाले पैडेट आदि निर्मित किये जाने लगे थे। आभूषण के रूप में चिड़ियों, मछलियों और खरगोश आकृतियों वाले पाषाण ताबीज भी बनाये गये थे। हान काल में चमड़े पर लाख से चित्रकारी की कला का उदय हुआ। इस कला का प्रयोग मदिरा पीने वाले प्यालों की रंगाई और उन पर चित्रकारी के लिए किया जाता था।

धर्म एवं दर्शन
चीनी देव मंडल

शांगकाल से ही चीनवासियों का धर्म सर्वचेतनावादी और बहुदेववादी था। उनकी धारणा थी कि समस्त विश्व छोटी-बड़ी दैवी शक्तियों से परिपूर्ण है। यही कारण है कि उन्होंने टीलों, पर्वतों, नदियों, वृक्षों और नक्षत्रों की उपासना करने के साथ ही चूल्हे, मट्ठी, अस्त्र-शस्त्र एवं पात्र जैसे सामान्य वस्तुओं में भी दैवी-शक्ति की कल्पना कर डाली। वे अपने पूर्वजों एवं प्राचीन वीरों की भी पूजा करते थे। उनकी धारणा थी कि मृत्युपरांत आत्मा शक्ति-युक्त हो जाती है और यही आत्माएँ व्यक्ति के जीवन एवं कार्यों में सफलता एवं विफलता प्रदान करती हैं। जीवित मनुष्य और आत्मा में अनुबंधात्मक संबंध होता है, उन्हें बलि द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है। यही कारण है कि वे अपने पूर्वजों व वीरों के प्रति असीम प्रेम और श्रद्धाभाव रखते थे। चीन में यह मान्यता थी कि मृतक वायु अथवा भूत का रूप ले लेते हैं और वे वायु की भाँति व्यापक और शक्तिशाली बन जाते हैं। यद्यपि इन्हें देवी शक्ति के रूप में कल्पित किया गया था, तथापि ये सभी जगत का निर्माण, नियमन एवं विनाश करने वाली परा-जागतिक शक्ति की श्रेणी में गणनीय नहीं थे। फिर भी, ये पूर्वज कालांतर में शक्तिशाली और रहस्यमय देवताओं का रूप ग्रहण कर लेते थे। ऐसी ही देवताओं में पौर्वात्य माता, पाश्चात्य माता तथा दिकपालों की गणना की गई है।

चीनी देवसमूह को दो वर्गों में बाँटा गया है-भूवासी और आकाशीय। भूवासी देवों में सर्वोच्च स्थान देवी ‘होऊ तू’ का था, जबकि आकाशीय देवताओं में ‘शांग टी’ को यह स्थान मिला था। इन दोनों में भी शांग टी को उच्चतर माना जाता था। शांग अभिलेखों में उसे ही सर्वोच्च शासक कहा गया है। चाऊकाल में शांग टी का स्थान ‘तिएन’ (आकाश) नामक देवता ने ले ली। सैद्धांतिक रूप से चाऊ चीनी शासक उसकी अनुमति से ही शासन-कार्य संचालित करते थे। कालांतर में तिएन में ही शांग टी को समाहित कर दिया गया।

अनुष्ठान एवं पूजा

प्राचीन काल से ही चीनियों का विश्वास कि जीवन का सार तत्त्व श्वास है; वहीं आत्मा है, जब वह निकल जाता है तो निस्सार शरीर मृत हो जाता है। फिर भी, वह व्यक्ति आत्मा के रूप में सदैव जीवित और सक्रिय रहता है, इसलिए उसे भौतिक वस्तुओं की आवश्कता पड़ती है। आत्मा तक भौतिक वस्तुओं को पहुँचाने के लिए बलि अनुष्ठान का सहारा लिया जाता था। आत्माओं को भोजन व नर या पशु की बलि के साथ ताम्रपात्र भेंट किये जाते थे। बलि के रूप में चढ़ाया गया भोजन प्रायः प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता था। उन्हें मदिरा भी चढ़ाया जाता था। बलि चढ़ाये गये नर अथवा पशुओं को गाड़ दिया जाता था अथवा अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था। इससे उनके पूर्वज या देवता खुश होते थे। यहाँ से एक राजा की आत्मा को 38 अश्वों की बलि दिये जाने का प्रमाण भी मिला है। बलि के लिए बहुमूल्य पत्थर भी प्रयुक्त किये जाते थे, जो प्रायः हरे रंग के होते थे। एक लेख में कौड़ियों की बलि का भी उल्लेख है। बलि के अवसर पर प्रार्थनाएँ भी की जाती थीं। इन प्रार्थनाओं में लंबी आयु, वंश, वृद्धि समृद्धि और सुख की कामना तथा विजय एवं राज्य विस्तार आदि की मनौतियाँ माँगी जाती थीं। इस प्रकार धार्मिक अनुष्ठान एवं पूजा का मौलिक उद्देश्य शक्ति-संपन्न सत्ता से मनोवांक्षित लाभ प्राप्त करना था।

पुरोहित वर्ग एवं देवस्थान

चीन में पुरोहितों पूजा के लिए प्रशिक्षित पुरोहित नियुक्त होते थे, जिन्हें इस कार्य के बदले वेतन दिया जाता था। इस कार्य में दासों से भी सहायता ली जाती थी। चीनी लोग अपने पूर्वजों के लिए मंदिर बनाते थे, जिसे ‘आत्मा-गृह’ कहा जाता था। बलि के लिए अलग बलिगृह होते थे। नदी को चढ़ाई गई बलि नदी में डाल दी जाती थी और भूमि को दी जाने वाली बलि भूमि में। केवल स्वस्थ और सांगोपांग पशुओं की ही बलि दी जा सकती थी। पूर्वजों का मंदिर परिवार के जीवन और उसकी प्रवृत्तियों का केंद्र होता था। इसी प्रकार राजा के पूर्वजों का मंदिर संपूर्ण राज्य के जीवन का केंद्र माना जाता था। राज्य के सभी प्रमुख समारोह इसी मंदिर में संपन्न होते थे।

दर्शन एवं नीतिशास्त्र

दर्शन के क्षेत्र में चीनी सभ्यता का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। छठी शताब्दी ई.पू. पूरे विश्व में नवीन दर्शन एवं नवीन सिद्धांतों के प्रणयन के लिए प्रसिद्ध है। इस क्रांतिकारी वैचारिक युग में चीन में भी अनेक महामानवों ने धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विकृतियों को दूर करने का प्रयत्न किया। प्राचीन चीन के महान् दार्शनिकों एवं कवियों में कन्फ्यूशियस, मेंसियस, शुन कुआंग, लाओत्से, चुआंग त्जू, मोत्जू, यांग चू, त्यू येन, यिन यांग और हान फेज त्जू विशेष महत्वपूर्ण हैं, जिन्होंने चीन को वैचारिक रूप से सुदृढ़ किया।

विश्व सभ्यता में चीन का योगदान

चीन की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम् सभ्यतओं में से एक है। प्राचीन काल से ही चीन एक सभ्य एवं सुसंस्कृत देश रहा है। चीनी सभ्यता लोग विश्वबंधुत्व के सिद्धांत में विश्वास करते थे। चीन ने संसार को शांति का उपदेश दिया। चीन ही एक ऐसा देश है जहाँ पर सैनिक होना अपमानजनक समझा जाता था और युद्ध को एक बुरा तथा अनैतिक कार्य माना जाता था। इस प्रकार विश्व-शांति का संदेश चीन की सबसे बड़ी देन हैं। चीनी की दूसरी महत्वपूर्ण देन है- उनका व्यापक दृष्टिकोण। चीनी आरंभ से ही सहिष्णुता और विशाल दृष्टिकोण को मान्यता देते थे और जातीय अथवा धार्मिक मतभेदों पर विशेष ध्यान नही देते थे। यही कारण है कि चीन में सदा एक भाषा और एक लिपि रही है। यह विश्व की एकमात्र सभ्यता है, जो शुरू से अब तक लगातार चली आ रही है।

विश्व संस्कृति को चीनी सभ्यता का एक अत्यंत दुर्लभ योगदान राज्य समाजवाद हैं। राज्य का नमक और लोहे पर एकाधिकार था। चीन विद्वानों और अध्यापकों का बहुत आदर होता था। छोटे बड़ों का आदर करते थे। यही कारण है कि आक्रमणकारी और राजवंश आये और चले गये, लेकिन चीनी सभ्यता का जीवन-क्रम अभी भी अपरिवर्तित रूप से मौजूद है।’

चीन में विश्व को आठ अमूल्य उपहार दिये, जिसके लिए संसार चीन का सदा ऋणी रहेगा। ये उपहार हैं- कागज, छापाखाना, चाथ, ताश के पत्ते, रेशम, कतुबनुमा (दिशा-सूचक यंत्र), बारूद और प्रतियोगिता परीक्षा। इसीलिए कहा जाता है कि यूरोप में नवजागरण जितना यूनानी विद्याओं के पुनरुत्थान के कारण हुआ, उतना ही चीन के दिशा-सूचक यंत्र, बारूद तथा मुद्रण के आविष्कार के कारण। इसके अलावा, चीनी लिपि, पेंसिल, रेशम, कागजी मुद्रा, चीनी मिट्टी के बर्तन, चाय, रेशम के कीड़े पालने की विधि, लकड़ी पर लाख की रंगाई और चित्रकारी, चंद्र की गति के आधार पर पंचाग बनाना, पहियेवाली गाड़ी, नहरों के जल को नियंत्रित करने वाले द्वार, वेधशाल आदि वस्तुएँ भी चीन ने विश्व को दी हैं।

चीनी लोगों ने तीन हजार वर्ष पूर्व युद्धों की निंदाकर संयुक्त राष्ट्र संघ की विचारधारा को चरितार्थ कर दिखाया। कला, साहित्य और दर्शन में सुदूर पूर्व के पास जो कुछ भी है, लगभग यह संपूर्णतः प्रत्यक्ष रूप से चीनी प्रतिभा की उपज है। चीन का संपर्क भारत से प्राचीनकाल से ही था। बौद्ध धर्म ने दोनों देशों के मध्य अच्छा सांस्कृतिक संपर्क स्थापित कर दिया।

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