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1833 का चार्टर ऐक्ट
1813 के चार्टर ऐक्ट द्वारा कंपनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व-प्रबंध बीस वर्षों के लिए सौंपा गया था। इसलिए 1833 में कंपनी के संचालकों ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद से प्रार्थना की। उन दिनों इंग्लैंड में उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगवादियों और मानवतावादियों का बोलबाला था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी और प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता दे दी गई थी। एक वर्ष पहले ही सुधार अधिनियम पारित हुआ था, जिसके द्वारा संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किये गये थे। मुक्त व्यापार की नीति से जनता प्रसन्न थी। उन दिनों ब्रिटिश राजनीति पर प्रधानमंत्री ग्रे, संसद सदस्य मैकाले और नियंत्रण बोर्ड के सचिव जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का प्रभुत्व था। बेंथम का शिष्य जेम्स मिल संचालक मंडल के कार्यालय इंडिया हाऊस में महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। ऐक्ट की रूपरेखा पर इन सुधारवादियों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। सुधार और उत्साह के इसी वातावरण में संसद को ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर को नया करने का अवसर मिला।
1813 के अधिनियम के बाद भारत में कंपनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिंध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। इस चार्टर ऐक्ट को संसद में प्रस्तुत करने पर कंपनी को एक साथ व्यापारिक तथा शासकीय संस्था बनाये रखने की कड़ी आलोचना की गई। बकिंघम ने स्पष्ट कहा कि ‘भारत जैसे देश का प्रबंध, जो अपनी जनसंख्या, सैन्य-शक्ति तथा वित्तीय साधनों में इंग्लैंड से भी महान् है, एक कंपनी के हाथों में सौंपे रखना सर्वथा अनुचित है।’ लॉर्ड मैकाले ने बकिंघम के तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना नहीं हो सकती तथा कंपनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को न तो भारतीय मामलों का ज्ञान है और न ही इसके लिए समय है। लॉर्ड मैकाले ने कंपनी के पक्ष में एक और तर्क दिया कि ‘ईस्ट इंडिया कंपनी देश के राजनीतिक और धार्मिक प्रभावों से मुक्त है, इसलिए उसका अन्य कोई विकल्प नहीं हो सकता। कंपनी इंग्लैंड की राजनीति को दृष्टि में रखकर नहीं, अपितु भारत की राजनीति को दृष्टि में रखकर काम करती है, भारतीय प्रशासन को कंपनी के हाथों में रखना ही उचित और उपयुक्त है।’ मैकाले की सार्थक युक्तियों से प्रभावित होकर संसद ने तमाम विरोध के बावजूद 23 अगस्त, 1833 में चार्टर को पारित कर कंपनी के अधिकार को बीस वर्षों के लिए नया कर दिया।
1833 के चार्टर ऐक्ट के प्रमुख प्रावधान
1833 के चार्टर ऐक्ट द्वारा कंपनी का चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार भी समाप्त कर दिया गया, जिससे कंपनी एक राजनैतिक संस्था मात्र रह गई। कंपनी को अगले बीस वर्षों के लिए क्राउन व उसके उत्तराधिकारियों के न्यास के रूप में भारत पर प्रशासन करने का अधिकार दिया गया। प्रशासन का केंद्रीयकरण कर बंगाल के गवर्नर-जनरल को भारत का गवर्नर-जनरल बना दिया गया। सरकारी सेवाओं में चयन के लिए जाति, वर्ण, लिंग एवं व्यवसाय के अधार पर भेदभाव अपनाने पर कुछ प्रतिबंध लगाये गये तथा दास प्रथा को खत्म करने की व्यवस्था की गई।
लॉर्ड विलियम बैंटिक के काल में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित 1833 के चार्टर ऐक्ट के द्वारा कंपनी की स्थिति, उसके संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। इस चार्टर अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे-
व्यापारिक एकाधिकार समाप्ति
इस चार्टर ऐक्ट द्वारा भारत में कंपनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि अगले बीस वर्ष के लिए बढ़ा दी गई और उसे महामहिम सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से भारत को प्रन्यास (ट्रस्ट) के रूप में अपने नियंत्रण में रखने तथा प्रशासन करने की अनुमति दे दी गई। कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिये गये और कहा गया कि वह अपना व्यापार जल्दी से समेट ले। कंपनी के ऋणों का भुगतान भारत को करना था और उसके भागीदारों को उनकी पूँजी के अनुसार 10.5 प्रतिशत दर से भारतीय राजस्व से आगामी चालीस वर्ष तक लाभांश देने का वादा किया गया।
प्रशासन का केंद्रीकरण
इस ऐक्ट द्वारा केंद्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर प्रशासन का केंद्रीकरण किया गया। अब बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका था। गवर्नर जनरल को कंपनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन, प्रबंध का नियंत्रण, निर्देशन और अधीक्षण सौंप दिया गया। बंबई, मद्रास तथा बंगाल और अन्य प्रदेश गवर्नर जनरल के नियंत्रण में दे दिये गये। सपरिषद् गवर्नर जनरल की आज्ञा से ही सभी कर लगाये जाने थे और व्यय किये जाने थे। इस प्रकार प्रशासनिक एवं वित्तीय शक्तियाँ सपरिषद् गवर्नर जनरल को सौंप दे दी गई।
कानून बनाने की शक्ति का भी केंद्रीकरण किया गया। अब सपरिषद् गवर्नर जनरल को ही भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया और बंबई तथा मद्रास की परिषदों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सपरिषद् गवर्नर जनरल सभी विषयों पर, सभी स्थानों तथा लोगों के लिए कानून बना सकता था और उसके कानून सभी न्यायलयों द्वारा लागू किये जाते थे। कुछ विशेष मामलों में उसकी कानून बनाने की शक्ति पर प्रतिबंध भी लगे थे, जैसे- न तो वह कंपनी के संविधान या चार्टर एक्ट में परिवर्तन कर सकता था और न ही सम्राट के विशेषाधिकारों अथवा संसद में बनाये कानूनों तथा उसके अधिकारों में कोई बदलाव कर सकता था। इसी प्रकार वह विद्रोह अधिनियम को भी नहीं बदल सकता था।
विधान-निर्माण में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए उसकी परिषद् में एक कानूनी सदस्य (लॉ मैंबर) को चाौथे सदस्य के रूप में बढ़ाया गया। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा होनी थी तथा वह कंपनी का कर्मचारी नहीं होता था। सिद्धांततः वह परिषद् की केवल उन्हीं बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून तथा अधिनियम आदि बनाने के लिए बुलाई गई हों, किंतुु निदेशकों के कहने पर प्रथम कानून सदस्य लॉर्ड मैकाले को सभी बैठकों में सम्मिलित किया जाता था।
विधि-आयोग की स्थापना
भारत में प्रचलित विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल को विधि-आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों तथा पुलिस कर्मचारियों के अधिकार-क्षेत्र और शक्तियों की जाँच-पड़ताल के साथ-साथ सभी प्रकार की न्याय-विधियों तथा कानूनों की छानबीन करना था। इस आयोग की कई रिपोर्टों में मैकाले द्वारा तैयार की गई भारतीय दंड-संहिता (इंडियन पेनल कोड) की रिपोर्ट सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
प्रांतीय सरकारों के प्रशासन के लिए गवर्नर तथा परिषद् की पूर्ववर्ती व्यवस्था कायम रही। प्रत्येक प्रांतीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप सपरिषद् गवर्नर जनरल के सम्मुख प्रस्तुत करे। सपरिषद् गवर्नर जनरल उस पर विचार-विमर्श कर उसकी सूचना संबंधित प्रेसीडेंसी को देता था।
प्रांतीय सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। प्रांतीय सरकारों के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल को सभी आदेशों तथा अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ भेजना अनिवार्य था। प्रांतीय सरकारें संचालक मंडल से सीधा पत्र-व्यवहार कर सकती थी, किंतुु पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजना आवश्यक था। सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्राधिकार अधिकृत भारतीय प्रदेशों तथा हर भाग के निवासियों, न्यायालयों, स्थानों एवं वस्तुओं पर लागू कर दिया गया।
वित्तीय मामलों में प्रांतीय सरकारों को केंद्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। अब गवर्नर जनरल की आज्ञा के बिना कोई भी प्रांतीय गवर्नर न तो किसी पद की व्यवस्था कर सकता था और न ही किसी नये वेतन या भत्ते की स्वीकृति दे सकता था।
गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था, इसलिए उसने अपनी परिषद् के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की। बंगाल प्रांत को दो प्रांतों- बंगाल और आगरा में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, किंतु यह योजना कभी क्रियान्वित नहीं हो हुई।
इस ऐक्ट के पहले अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था, किंतुु 1833 के ऐक्ट के द्वारा लाइसेंस का प्रतिबंध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया। भारत में ईसाइयों के लिए बंगाल, बंबई तथा मद्रास में बिशपों (बड़े पादरियों) की नियुक्ति की गई और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बनाया गया।
अधिनियम की साधारण धाराओं में सबसे महत्वपूर्ण धारा 87 थी जिसमें कहा गया था कि ‘किसी भी भारतीय तथा सम्राट की देशज प्रजा को अपने धर्म, जन्मस्थान, वंशानुक्रम, वर्ग अथवा इनमें से किसी एक कारण से कंपनी के अधीन किसी स्थान, पद अथवा सेवा के अयोग्य नहीं माना जायेगा।’ दूसरे शब्दों में, सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए किसी प्रकार का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया। निःसंदेह यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की उदारता का प्रतीक थी और इसी उपबन्ध के आधार पर लॉर्ड मार्ले ने 1833 के अधिनियम को 1909 तक संसद द्वारा पारित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भारतीय अधिनियम बताया था।
कंपनी के लोकसेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और प्रवेश के संबंध में नियम बनाये गये। अब ‘द यूनाईटेड कंपनी ऑफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू द ईस्ट इंडिया’ कंपनी का नाम बदलकर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ कर दिया गया।
इस अधिनियम द्वारा भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया और गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी परिषद् के सदस्यों की सहायता से भारत में दासों की अवस्था को सुधारने और अंततः दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे। 1843 में भारत में दास-प्रथा की समाप्ति की घोषणा कर दी गई।
1833 के चार्टर ऐक्ट का मूल्यांकन
निःसंदेह 1833 का अधिनियम उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। वस्तुतः इस ऐक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया, अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणा कर व्यापक मानवतावादी सिद्धांतों का अनुपालन भी किया। इस ऐक्ट ने कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया, इसलिए अब वह मात्र शासकीय संस्था ही रह गई। चूँकि अब कंपनी केवल शासन करनेवाली संस्था रह गई थी, इसलिए इस पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण बढ़ता गया और 1858 में कंपनी के शासन का अंत हो गया।
इस अधिनियम के तहत कंपनी को ब्रिटिश सरकार की ओर से भारत का क्षेत्र, ट्रस्ट के रूप में तब तक रखने की आज्ञा दी गई, जब तक कि ब्रिटिश संसद ऐसा चाहे। इसने संचालक मंडल के अधिकारों को सीमित कर भारतीय मामलों के संबंध में सम्राट और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित कर दिया। अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड, सचिव एवं अन्य अधिकारियों का वेतन ब्रिटिश सरकार निश्चित करेगी, किंतु धन कंपनी उपलब्ध करायेगी।
संवैधानिक दृष्टि से 1833 के अधिनियम ने समस्त शक्तियों को गवर्नर जनरल के हाथों में केंद्रित करके प्रशासनिक एवं वैधानिक एकरूपता स्थापित की। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आई जो देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।
अधिनियम की एक महत्वपूर्ण देन थी- विधि-अयोग की स्थापना। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 में भारतीय दंड संहिता (इंडियन पेनल कोड) का प्रलेख तैयार हुआ, जिसे संशोधित कर 1860 में कानून का रूप दिया गया। इंडियन पेनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले का महत्त्वपूर्ण योगदान था। विधि-आयोग ने सम्पूर्ण भारत के लिए दंड-संहिता तथा दीवानी और फौजदारी प्रक्रिया का संकलन किया, जिससे कानूनों में एकरूपता आई और केंद्रीय सरकार की केंद्रीयकरण की नीति को बल मिला। इस ऐक्ट से भारत सरकार को दासों की दशा सुधारने तथा दासता समाप्त करने के लिए नियम बनाने का अधिकार मिल गया।
ऐक्ट की धारा 87 की दयालुतापूर्ण घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति की प्रतीक थी। यद्यपि यहघोषणा प्रशंसनीय थी और इसने कानूनन भारतीयों को प्रत्येक पद के योग्य बना दिया, किंतु व्यावहारिक रूप में इससे भारतीयों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इस घोषणा के बावजूद भारतीयों को 1858 तक उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया गया।
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