1833 का चार्टर एक्ट (Charter Act of 1833)

1833 का चार्टर एक्ट 1833 का चार्टर एक्ट ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन और भारतीय […]

1833 का चार्टर ऐक्ट (Charter Act of 1833)

1833 का चार्टर एक्ट

1833 का चार्टर एक्ट ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन और भारतीय प्रशासन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण कदम था। 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी को भारतीय प्रदेशों और उनके राजस्व प्रबंधन का अधिकार बीस वर्षों के लिए दिया गया था। इस अवधि के समाप्त होने पर, 1833 में कंपनी के संचालकों ने चार्टर के नवीकरण के लिए ब्रिटिश संसद से अनुरोध किया। उस समय इंग्लैंड में उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगितावादियों और मानवतावादियों का प्रभाव था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी, प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई थी, और 1832 में सुधार अधिनियम पारित हो चुका था, जिसने संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए थे। मुक्त व्यापार की नीति से जनता प्रसन्न थी। ब्रिटिश राजनीति पर प्रधानमंत्री ग्रे, संसद सदस्य मैकाले और नियंत्रण बोर्ड के सचिव जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का प्रभुत्व था। जेम्स मिल, जो जेरेमी बेंथम के शिष्य थे, इंडिया हाउस में एक महत्वपूर्ण अधिकारी थे। इस सुधारवादी और उत्साहपूर्ण वातावरण में संसद को ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर को नवीकृत करने का अवसर प्राप्त हुआ।

1813 के चार्टर एक्ट के बाद कंपनी का भारतीय साम्राज्य काफी विस्तृत हो चुका था। महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिंध, ग्वालियर, इंदौर आदि क्षेत्रों पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। जब 1833 में चार्टर एक्ट को संसद में प्रस्तुत किया गया, तो कंपनी को एक साथ व्यापारिक और शासकीय संस्था बनाए रखने की कड़ी आलोचना हुई। बकिंघम ने स्पष्ट कहा, “भारत जैसे देश का प्रबंध, जो अपनी जनसंख्या, सैन्य शक्ति और वित्तीय साधनों में इंग्लैंड से भी बड़ा है, एक कंपनी के हाथों में सौंपना सर्वथा अनुचित है।” इसके जवाब में लॉर्ड मैकाले ने तर्क दिया कि भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण संस्थाओं की स्थापना संभव नहीं है और कंपनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को न तो भारतीय मामलों का पर्याप्त ज्ञान है और न ही इसके लिए समय। मैकाले ने यह भी कहा कि कंपनी इंग्लैंड की राजनीति के बजाय भारत की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर काम करती है, और इसलिए भारतीय प्रशासन को कंपनी के हाथों में रखना उचित है। मैकाले की युक्तियों से प्रभावित होकर संसद ने तमाम विरोध के बावजूद 28 अगस्त 1833 को चार्टर एक्ट पारित कर कंपनी के अधिकार को अगले बीस वर्षों के लिए नवीकृत कर दिया।

1833 के चार्टर एक्ट के प्रमुख प्रावधान

1833 के चार्टर एक्ट ने कंपनी की स्थिति, उसके संविधान और भारतीय प्रशासन में बहुमुखी और महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे:

व्यापारिक एकाधिकार की समाप्ति:

इस एक्ट द्वारा कंपनी का चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, जिससे कंपनी केवल एक शासकीय संस्था बनकर रह गई। कंपनी को अगले बीस वर्षों के लिए ब्रिटिश सम्राट और उसके उत्तराधिकारियों की ओर से भारत का प्रशासन ट्रस्ट के रूप में संचालित करने का अधिकार दिया गया। कंपनी को निर्देश दिया गया कि वह अपना व्यापार जल्द से जल्द समेट ले। कंपनी के ऋणों का भुगतान भारतीय राजस्व से किया जाना था, और उसके भागीदारों को उनकी पूँजी पर 10.5 प्रतिशत की दर से अगले चालीस वर्षों तक लाभांश देने का वादा किया गया।

प्रशासन का केंद्रीकरण:

इस एक्ट ने प्रशासन का केंद्रीकरण किया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब को छोड़कर शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका था। गवर्नर जनरल को कंपनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक और असैनिक प्रशासन, प्रबंध का नियंत्रण, निर्देशन और अधीक्षण सौंपा गया। बंबई, मद्रास, बंगाल और अन्य क्षेत्र गवर्नर जनरल के नियंत्रण में आ गए। सभी कर लगाने और व्यय करने का अधिकार सपरिषद गवर्नर जनरल को सौंपा गया, जिससे प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियाँ केंद्रीकृत हो गईं।

कानून बनाने की शक्ति का केंद्रीकरण:

सपरिषद गवर्नर जनरल को भारत के लिए कानून बनाने का एकमात्र अधिकार दिया गया। बंबई और मद्रास की परिषदों से कानून बनाने का अधिकार छीन लिया गया। गवर्नर जनरल सभी विषयों, स्थानों और लोगों के लिए कानून बना सकता था, और उसके कानून सभी न्यायालयों में लागू होते थे। कुछ मामलों में उसकी कानून बनाने की शक्ति पर प्रतिबंध थे, जैसे वह कंपनी के संविधान, चार्टर एक्ट, सम्राट के विशेषाधिकार, संसद द्वारा बनाए गए कानून, या विद्रोह अधिनियम में बदलाव नहीं कर सकता था।

विधान-निर्माण के लिए कानूनी सदस्य:

विधान-निर्माण में सहायता के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में एक चौथा सदस्य (कानूनी सदस्य या लॉ मेंबर) जोड़ा गया। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी, और वह कंपनी का कर्मचारी नहीं होता था। सिद्धांततः कानूनी सदस्य केवल विधान-निर्माण संबंधी बैठकों में भाग ले सकता था, लेकिन प्रथम कानूनी सदस्य लॉर्ड मैकाले को निदेशकों के निर्देश पर सभी बैठकों में शामिल किया गया।

विधि आयोग की स्थापना:

भारत में प्रचलित विभिन्न कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद गवर्नर जनरल को विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों और पुलिस कर्मचारियों के अधिकार-क्षेत्र, शक्तियों और सभी प्रकार की न्याय-विधियों की जाँच करना था। आयोग की सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार की गई भारतीय दंड संहिता (इंडियन पेनल कोड) थी, जिसे 1837 में प्रारूपित किया गया और 1860 में कानून का रूप दिया गया।

प्रांतीय सरकारों की व्यवस्था

प्रांतीय सरकारों के लिए गवर्नर और परिषद की पूर्ववर्ती व्यवस्था बरकरार रखी गई। प्रांतीय सरकारों को आवश्यक कानूनों के प्रारूप सपरिषद गवर्नर जनरल के समक्ष प्रस्तुत करने की शक्ति दी गई, जिस पर विचार-विमर्श के बाद संबंधित प्रेसीडेंसी को सूचित किया जाता था। प्रांतीय सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों और निर्देशों का पालन अनिवार्य था। उन्हें सभी आदेशों और अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ गवर्नर जनरल को भेजनी होती थीं। प्रांतीय सरकारें संचालक मंडल से सीधा पत्र-व्यवहार कर सकती थीं, लेकिन पत्रों की एक प्रति गवर्नर जनरल को भेजना अनिवार्य था।

वित्तीय नियंत्रण

वित्तीय मामलों में प्रांतीय सरकारों को केंद्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बिना कोई प्रांतीय गवर्नर नए पदों की व्यवस्था या वेतन-भत्तों की स्वीकृति नहीं दे सकता था।

बंगाल का प्रशासन

गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य करना पड़ता था। इसके लिए उसने अपनी परिषद के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।

बंगाल को दो प्रांतों—बंगाल और आगरा—में विभाजित करने की योजना बनाई गई, लेकिन यह कभी लागू नहीं हुई।

अंग्रेजों के लिए लाइसेंस प्रतिबंध हटाना

1833 के एक्ट ने अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों के लिए भारत आने के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी। अंग्रेजों को भारत के किसी भी हिस्से में बसने, भूमि खरीदने और निवास स्थान बनाने का अधिकार दिया गया। ईसाई धर्म के प्रचार के लिए बंगाल, बंबई और मद्रास में बिशपों की नियुक्ति की गई, और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बनाया गया।

धारा 87 और भेदभाव पर प्रतिबंध

अधिनियम की धारा 87 में कहा गया कि किसी भी भारतीय या सम्राट की देशज प्रजा को धर्म, जन्मस्थान, वंश, वर्ग या अन्य किसी कारण से कंपनी की सेवाओं में किसी पद या स्थान के लिए अयोग्य नहीं माना जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की उदारता का प्रतीक थी और सरकारी सेवाओं में भेदभाव को समाप्त करने का आश्वासन देती थी।

लोकसेवकों का प्रशिक्षण

कंपनी के लोकसेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेलीवरी कॉलेज में व्यवस्था की गई, और प्रवेश के लिए नियम बनाए गए। कंपनी का नाम ‘द यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू द ईस्ट इंडीज’ से बदलकर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ कर दिया गया।

दास प्रथा की समाप्ति

इस अधिनियम ने भारत में दास प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद की सहायता से दासों की स्थिति सुधारने और अंततः दास प्रथा समाप्त करने के लिए नियम बनाने का निर्देश दिया गया। 1843 में भारत में दास प्रथा की समाप्ति की औपचारिक घोषणा की गई।

1833 के चार्टर एक्ट का मूल्यांकन

1833 का चार्टर एक्ट उन्नीसवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम था। इसने न केवल भारतीय प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए, बल्कि मानवतावादी सिद्धांतों को अपनाकर उदार नीतियों को प्रोत्साहित किया।

व्यापारिक एकाधिकार की समाप्ति: इस एक्ट ने कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया, जिससे कंपनी केवल एक शासकीय संस्था बन गई। यह ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण की ओर एक कदम था, जो 1858 में कंपनी के शासन के अंत के साथ पूर्ण हुआ।

प्रशासनिक केंद्रीकरण: समस्त शक्तियों को गवर्नर जनरल के हाथों में केंद्रित करके प्रशासनिक और वैधानिक एकरूपता स्थापित की गई। यह देश की एकता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

विधि आयोग और कानूनी सुधार: विधि आयोग की स्थापना और भारतीय दंड संहिता का प्रारूप तैयार करना इस एक्ट की प्रमुख उपलब्धियाँ थीं। इससे कानूनों में एकरूपता आई और केंद्रीय सरकार की नीतियों को बल मिला।

धारा 87 की उदार घोषणा: धारा 87 ने भारतीयों को सरकारी सेवाओं में भेदभाव के बिना नियुक्ति का अधिकार दिया। यद्यपि व्यावहारिक रूप से इसका लाभ सीमित रहा, यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की उदार नीति का प्रतीक थी।

दास प्रथा की समाप्ति: दास प्रथा को समाप्त करने का प्रावधान मानवतावादी दृष्टिकोण को दर्शाता था।

हालांकि, धारा 87 के बावजूद भारतीयों को 1858 तक उच्च पदों पर नियुक्तियाँ नहीं मिलीं, जिससे इसकी व्यावहारिक प्रभावशीलता सीमित रही। फिर भी, इस एक्ट ने भारतीय प्रशासन को आधुनिक बनाने और ब्रिटिश सरकार की सर्वोच्चता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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