1940 से लेकर 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन तक जिन्ना या मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग को कभी स्पष्ट नहीं किया। फिर भी, इस माँग की अस्पष्टता ने 1940 के दशक में लीग को मुस्लिम जनता की लामबंदी के लिए एक उत्तम साधन बना दिया। इस काल में मुस्लिम राजनीति अपने परंपरागत आधार अर्थात भूस्वामी कुलीनों के अलावा मुस्लिम जनता के एक भाग का समर्थन भी पाने लगी थी, खासकर पेशेवर लोगों और व्यापारी समूहों का, जिनके लिए एक अलग पाकिस्तान का अर्थ हिंदुओं से प्रतियोगिता की समाप्ति थी। इसके अलावा उसे अग्रणी उलेमा, पीरों और मौलवियों का भी राजनीतिक समर्थन मिला, जिन्होंने इस अभियान को एक धार्मिक वैधता प्रदान की।
Table of Contents
कैबिनेट मिशन योजना (1946)
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही भारत का राष्ट्रीय आंदोलन अपने निर्णायक चरण में पहुँच गया। जून 1945 के मध्य में जब कांग्रेसी नेता विभिन्न जेलों से बाहर आये तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनके स्वागत के लिए जनता पलक-पाँवड़े बिछाये खड़ी है। उनमें न केवल ब्रिटिश-विरोधी भावना और मजबूत हुई थी, बल्कि वे कुछ कर गुजरने के लिए भी तैयार थे। तीन वर्षों के दमन से सरकार के विरुद्ध तीव्र असंतोष था। राष्ट्रवादी नेताओं की रिहाई से जनता की उम्मीदें बहुत बढ़ गई थीं। अब राष्ट्रवाद की लहर इतनी तेज हो गई थी कि उसकी धारा को रोक पाना ब्रिटिश राज के लिए संभव नहीं रह गया था।
ब्रिटिश सरकार द्वारा चुनावों की घोषणा से जनता जनमत के आधार पर बनी सरकारों की संभावना से उल्लसित थी। अपने चुनाव अभियानों में राष्ट्रवादी नेताओं ने न केवल वोट पाने का प्रयास किये, अपितु लोगों में ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं को और सशक्त बनाने में सफल हुए। चुनाव सभाओं में कांग्रेसी नेताओं और राष्ट्रवादियों ने 1942 के दमन को लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा करना शुरू किया। सरकारी कार्रवाइयों की भर्त्सना और शहीदों की देशभक्ति एवं त्याग का गौरव-गान किया जाने लगा। शहीदों की स्मृति को जिंदा रखने के लिए स्मारक बनाये गये और पीड़ितों को राहत देने के लिए कोष इकट्ठे किये गये। सरकारी दमन की कहानियों को विस्तार से जनता के मध्य सुनाये जाते, दमनकारी नीतियाँ अपनाने वाले अधिकारियों की भर्त्सना की जाती, जाँच कराने का संकल्प प्रकट किया जाता था और सजा देने की धमकियाँ दी जातीं थीं। ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर रोक लगाने में असफल रही जिसका परिणाम यह निकला कि जनता और भयमुक्त हो गई।
यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का सौभाग्य था कि 10 जुलाई 1945 को इंग्लैंड में लेबर पार्टी (मजदूर दल) की सरकार सत्ता में आई और लॉर्ड पैथिक लारेंस, जो भारत के पुराने मित्र थे, भारत-राज्य सचिव बनाये गये। लेबर पार्टी और खासकर नये प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली, नये भारत सचिव लॉर्ड पैथिक लॉरेंस और अब बोर्ड ऑफ ट्रेड के प्रेसीडेंट स्टैफर्ड क्रिप्स लंबे समय से भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध थे। अब हाउस ऑफ कॉमंस में निर्णायक बहुमत पाने के बाद उनके लिए अपने वादे को पूरा करने का समय आ गया था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार लेबर पार्टी की विजय सचमुच सत्ता के शीघ्र हस्तांतरण के लिए जिम्मेदार थी। यही कारण है कि ‘15 अगस्त 1947’ को भारत के लिए लेबर पार्टी का विदाई का उपहार कहा गया है। इसके विपरीत, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भले ही लेबर पार्टी अपने 1935 के चुनाव घोषणापत्र के समय से ही भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध रही हो, किंतु युद्ध के दौरान एटली और क्रिप्स में एक महान वैचारिक परिवर्तन आ चुका था। युद्ध के बाद नई मजदूर सरकार विदेश, प्रतिरक्षा और साम्राज्य नीति के प्रति अपने दृष्टिकोण में अनुदार बन चुकी थी। प्रतिरक्षा और आर्थिक हितों के लिए भारत इतना अधिक महत्त्वपूर्ण था कि उसे तुरंत छोड़ा नहीं जा सकता था। यही कारण है कि लेबर सरकार ने जो प्रस्ताव रखे, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो 1942 के क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव के शायद ही आगे जाता हो। अब भारत के प्रति अंग्रेजों की साम्राज्यिक सोच राष्ट्रमंडल के नये विचार के रूप में सामने आई ताकि वह एशिया और अफ्रीका के दूसरे उपनिवेशों के लिए एक मॉडल का काम कर सके और अंग्रेजों की सत्ता न सही, उनके दीर्घकालिक हितों और प्रभाव को सुरक्षित रख सके।
कैबिनेट मिशन भेजने के कारण
यह सही है कि ब्रिटेन अपने भारतीय उपनिवेश को खोना नहीं चाहता था, किंतु सत्तारूढ़ मजदूर दल भारतीय समस्या का शीघ्र समाधान करना चाहता था। इसी क्रम में वेवेल को विचार-विमर्श के लिए पुनः इंग्लैंड बुलाया गया और कांग्रेस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। अगस्त 1945 को घोषणा की गई कि भारत में केंद्रीय एवं प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं के चुनाव कराये जायेंगे। ब्रिटेन की नई सरकार के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 19 सितंबर 1945 को भारत-संबंधी ब्रिटिश नीतियों की घोषणा की कि चुनावों के तुरंत बाद भारत का संविधान बनाने के लिए भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों की सहायता से एक संविधान सभा गठित की जायेगी और यह आशा व्यक्त की कि नेतागण मंत्रियों का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लेंगे। उसी दिन अंग्रेजी संसद में प्रधानमंत्री एटली ने यह घोषणा की कि 1942 के प्रस्ताव अभी भी विद्यमान हैं और ब्रिटिश सरकार उन्हीं के अनुसार कार्य कर रही है। इसके बाद 4 दिसंबर को लॉर्ड पैथिक लारेंस ने लॉर्ड्स सभा में एक वक्तव्य दिया कि ब्रिटिश सरकार संविधान सभा के गठन को बहुत महत्त्व देती है। उसने भारत में एक संसदीय शिष्टमंडल भेजने का सुझाव दिया और यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस शिष्टमंडल को किसी नीति-विशेष का अनुसरण करने पर बाध्य नहीं किया जायेगा। ब्रिटिश सरकार की नीति में इस मूलगामी परिवर्तन के कई कारण थे-
विश्व-शक्ति-संतुलन में परिवर्तन
विश्व युद्ध के कारण विश्व-शक्ति-संतुलन परिवर्तित हो गया था और ब्रिटेन अब महाशक्ति नहीं रह गया था। युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ, विश्व की दो बड़ी शक्तियों के रूप में उभरे और इन दोनों ने भारत की स्वतंत्रता की माँग का समर्थन किया था। युद्ध के दौरान घोषित 1941 के अटलांटिक चार्टर में राष्ट्रीय स्वतंत्रता, अस्तित्व तथा आत्म-निर्णय के अधिकार को मान्यता दी गई थी और अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने यह पूर्णतः स्पष्ट कर दिया था कि अटलांटिक चार्टर मात्र जर्मनी द्वारा उत्पीड़ित लोगों पर ही नहीं, बल्कि विश्व के सभी लोगों पर लागू होता है। इसके अलावा विश्व युद्ध में शामिल एशियाई व अफ्रीकी लोग सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक हो चुके थे। संपूर्ण यूरोप में इस समय समाजवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के गठन की लहर चल रही थी। दक्षिण-पूर्व एशिया, विशेषकर वियतनाम एवं इंडोनेशिया में साम्राज्यवाद-विरोधी वातावरण फैल गया था।
इंग्लैंड की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति का हृास
उपनिवेशों पर कब्जा बनाये रखने की लागत का भार उठाना उपनिवेशवादी देशों के लिए अब कठिन होता जा रहा था। विश्वयुद्ध के पश्चात् आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका यूरोप अब इतना सक्षम नहीं था कि वह अपने साम्राज्यों में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलनों को बलपूर्वक दबा सके। यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन जीतने वाले पक्ष में था, किंतु उसकी आर्थिक एवं सैनिक शक्ति बिखर चुकी थी। यही नहीं, ब्रिटेन की नई लेबर पार्टी की सरकार के अनेक सदस्य कांग्रेस की माँगों के समर्थक थे और वे भारत की स्वाधीनता के लिए उस पर दबाव डाल रहे थे। यही नहीं, ब्रिटिश सैनिक युद्ध में थक-हार चुके थे। लगभग छः वर्षों तक लड़ने और खून बहाने के बाद अब वे और कई साल घर से दूर नहीं रहना चाहते थे।
श्रमिक और किसान आंदोलन
1945-46 में पूरे देश में आंदोलन, कामबंदियाँ और प्रदर्शन हुए। अगस्त 1946 में दक्षिण भारत में रेल मजदूरों की हड़ताल हुई। किसान आंदोलनों में भी नया उबाल आया। बंगाल के बँटाईदारों का संघर्ष सबसे जुझारू था। जमीनों के लिए और ऊँची लगानों के विरुद्ध हैदराबाद, मलाबार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में जगह-जगह किसानों और मजदूरों ने संघर्ष किये। हैदराबाद, त्रावनकोर, कश्मीर और पटियाला जैसे रियासतों में भी जन-संघर्ष और आंदोलन फैल गयं। यद्यपि इन आंदोलनों के मुद्दे आर्थिक थे और इनका संघर्ष सीधे ब्रिटिश राज के खिलाफ नहीं, बल्कि जमींदारों, धनी किसानों, राजाओं और उद्योगपतियों जैसे स्वदेशी शोषकों के खिलाफ था, फिर भी इन लोगों को लगा कि अंग्रेज जा रहे हैं, तो अब वर्गीय सवालों का निपटारा भी हो जाना चाहिए। आजादी निकट है, इससे लोग नई सामाजिक व्यवस्था में अपने न्यायपूर्ण स्थान की तलाश करने के लिए प्रेरित हुए।
आजाद हिंद फौज के कैदियों के मुकदमे और शाही नौसेना के विद्रोह
नवंबर 1945 में दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले के मुकदमे में आजाद हिंद फौज के तीनों युद्धबंदी अफसरों (प्रेमकुमार सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लों और शाहनवाज खाँ) की रिहाई की माँग को लेकर फैले जन-आंदोलन और इसके बाद 18 फरवरी 1946 को बंबई में शाही नौसेना के जहाजियों के विद्रोह से परिस्थितियाँ ऐसी बनती जा रही थीं कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को और अधिक दिनों तक बनाये रखना असंभव होता जा रहा था।
1946 के चुनाव
1946 के आरंभ में प्रांतीय व केंद्रीय विधान सभाओं के चुनाव हुए। प्रायः सभी प्रांतों में सामान्य सीटों में से अधिकांश सीटें कांग्रेस ने जीतीं और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, संयुक्त प्रांत, बिहार और असम में कुछ मुस्लिम स्थान भी प्राप्त कर लिया। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों में से अधिकांश मुस्लिम लीग को मिलीं, किंतु वह मात्र सिंध और बंगाल में ही मंत्रिमंडल बना सकी। पंजाब में मुस्लिम लीग सबसे बड़े दल के रूप में उभरी, किंतु हिंदू, सिख और यूनियनिस्ट दल के हिंदू और मुसलमान विधायकों ने मलिक खिज्र हयात खाँ के नेतृत्व में एक मिला-जुला मंत्रिमंडल बना लिया। शेष आसाम, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंबई, मद्रास, मध्य प्रांत और उड़ीसा में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनाये गये। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खाँ के नेतृत्व में ख्ुदाई खिदमतगारों ने मंत्रिमंडल बनाया। फिर भी, चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए चौंकाने वाले थे, मुस्लिम लीग न सिमटी थी और न ओझल हुई थी। 1936 में ‘एक ठंडा पड़ चुका उबाल’ कहकर नकार दी गई मुस्लिम लीग की प्रतिष्ठा अब मुसलमानों के बीच वैसी हो चुकी थी, जैसी हिंदुओं के बीच कांग्रेस की थी। इस चुनाव परिणाम के आधार पर लीग अब यह दावा कर सकती थी कि स्वतंत्रता की शर्तों के विचार-विमर्श में उसे कांग्रेस के बराबर का महत्त्व दिया जाये।
कुल मिलाकर, फरवरी 1946 तक साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद के संघर्ष का सैद्धांतिक रूप से समाधान हो गया था और ब्रितानी हुकूमत स्पष्ट रूप से समझ गई थी कि अब पुराने तरीकों से भारत में ब्रिटिश सत्ता ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकती है। अतः ब्रिटिश नीति-निर्माताओं ने फैसला किया कि समझौता-वार्ता करके सम्मानपूर्वक भारत को छोड़ देना ही श्रेयस्कर है।
कैबिनेट मिशन भेजने की घोषणा
ब्रिटेन की मजदूर दल की सरकार के सामने स्पष्ट लक्ष्य था कि भविष्य के अच्छे संबंधों के लिए और संभावित जन-आंदोलन की आशंका को समाप्त करने के लिए समझौते का रास्ता अपनाया जाये। प्रधानमंत्री एटली भी समझ गये थे कि शक्ति के बल पर भारत में ब्रिटिश राज को अधिक समय तक बनाये रखना संभव नहीं है और अंग्रेजों की सम्मानपूर्वक वापसी का एकमात्र उपाय यही है कि भारतीयों से समझौता कर शांतिपूर्ण ढंग से उन्हें सत्ता-हस्तांतरण कर दिया जाये। इसी क्रम में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने 19 फरवरी 1946 को एक कैबिनेट मिशन भारत भेजने की घोषणा की। प्रधानमंत्री एटली ने जिस दिन कैबिनेट मिशन भेजने की घोषणा की, उसी दिन भारत के राज्य सचिव लॉर्ड पैथिक लारेंस ने हाऊस ऑफ लॉर्ड्स में घोषणा की कि संसद का एक शिष्टमंडल, जिसमें वह स्वयं, स्टैफर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष) और ए.वी. अलेक्जेंडर (एडमिरैलिटी के प्रथम लॉर्ड या नौसेना मंत्री) होंगे, भारत भेजा जायेगा, ताकि वायसरॉय की सहायता से भारत के शांतिपूर्ण सत्ता-हस्तांतरण के उपायों और संभावनाओं पर भारतीय नेताओं से बातचीत की जा सके।
संभवतः ब्रिटेन अब भारत को खंडित करने के पक्ष में नहीं था क्योंकि जहाँ वेवेल ने जिन्ना को इस बात की छूट दी थी कि वे सभी मुसलमान नेताओं के नामांकन की जिद करके शिमला सम्मेलन को विफल कर दें, वहीं प्रधानमंत्री एटली ने 15 मार्च 1946 को स्पष्ट कह दिया: ‘‘हम अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति भलीभाँति जागरूक हैं और चाहते हैं कि अल्पसंख्यक बिना किसी भय के रह सकें, किंतु अल्पमत को बहुमत की प्रगति रोकने की छूट नहीं दी जायेगी।’’ इन शब्दों का अर्थ भारत में यह समझा गया कि अब अंग्रेजों की लीग के प्रति परंपरागत नीति में मूलभूत परिवर्तन आ गया था।
ब्रिटिश सरकार की कैबिनेट मिशन भेजने की घोषणा से भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर शुरू हो गया। जहाँ 1940 से पूर्व भारतीय राजनीति मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर आधारित थीं, वहीं अब राष्ट्रीय संघर्ष का स्थान एक नये संघर्ष ने ले लिया, जो कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग की भविष्य की तरह-तरह की कल्पनाओं के बीच था।
कैबिनेट मिशन 24 मार्च 1946 को दिल्ली पहुँचा और 29 जून 1946 तक भारत में रहा। इस बीच उसने भारत के भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों से एक साझी अंतरिम सरकार के गठन पर और एक नये संविधान के निर्माण के लिए आवश्यक सिद्धांतों तथा उपायों पर लंबी बातचीत की। 7-9 अप्रैल 1946 के बीच दिल्ली में मुस्लिम लीग ने एक सम्मेलन में पाकिस्तान की परिभाषा ‘एक प्रभुता-संपन्न राज्य’ के रूप में की, जिसमें पूर्वोत्तर भारत के मुस्लिम-बहुल बंगाल और असम तथा पश्चिमोत्तर में पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान शामिल किये जायें। दूसरी ओर, 15 अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने घोषणा की कि एक अखंड भारत की पूर्ण स्वाधीनता कांग्रेस की माँग है। इस प्रकार भारत के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों- कांग्रेस और मुस्लिम लीग से व्यापक वार्ता के बाद कोई सहमति नहीं बन सकी और दोनों अपने परस्पर-विरोधी राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर और भी अधिक असहिष्णु हो उठे।
कैबिनेट मिशन योजना के प्रमुख प्रस्ताव
संवैधानिक समस्या के समाधान के लिए लॉर्ड वेवल और मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल ने अपनी ओर से 16 मई 1946 को एक विस्तृत योजना प्रकाशित किया। कैबिनेट मिशन ने लंबे समय की योजना के रूप में छः प्रांतोंवाले एक प्रभुता-संपन्न पाकिस्तान के प्रस्ताव को कई कारणों से अव्यावहारिक बताकर खारिज कर दिया। पहला यह कि पाकिस्तान बनने से उन अल्पसंख्यकों की समस्या, जो मुसलमान नहीं हैं, हल नहीं होगी। ऐसे लोग उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में समस्त जनसंख्या का 37.93 प्रतिशत होंगे और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में 48.3 प्रतिशत होंगे। मिशन के अनुसार पंजाब और बंगाल का बँटवारा करके एक छोटा-सा पाकिस्तान बनाने से भी कोई लाभ नहीं होगा और सांप्रदायिक आत्म-निर्णय के सिद्धांत से नई समस्याएँ खड़ी हो सकती थीं, जैसे- पश्चिमी बंगाल में हिंदू बहुसंख्या में थे और पंजाब के जालंधर व अंबाला डिवीजन में हिंदू व सिख बहुसंख्यक थे। वे भी विभाजन की माँग कर सकते थे। कुछ सिख नेता पहले से ही राग अलाप रहे थे कि यदि देश का विभाजन किया गया, तो वे भी पृथक् राज्य की माँग उठायेंगे। दूसरे, भारत की संचार और डाक-तार व्यवस्था को बाँटने का कोई लाभ नहीं होगा। तीसरे, सेना के बँटवारे से बहुत हानि होगी और चौथे, रियासतों का एक अथवा दूसरे संघ में सम्मिलित होना बहुत कठिन होगा। इसके अलावा पाकिस्तान के दो भागों की एक-दूसरे से दूरी 700 मील होगी, जो उसके हित में नहीं होगा और युद्ध तथा शांति की स्थिति में संचार-व्यवस्था भारत के सद्भाव पर निर्भर होगी। इस प्रकार सभी तर्क उचित और बँटवारे के विरुद्ध थे।
- शिष्टमंडल ने भारतीय संघ के लिए एक ढीली-ढाली त्रिस्तरीय संघीय सरकार का सुझाव किया, जिसमें ब्रिटिश भारत और देसी रियासतों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। शीर्ष पर एक संघीय सरकार होगी, जिसके पास केवल प्रतिरक्षा, विदेशी मामले और संचार होंगे तथा उसे इन कार्यों के लिए कर (टैक्स) की वसूली का अधिकार होगा।
- केंद्रीय विषयों (रक्षा, विदेशी मामले और संचार) को छोड़कर सभी अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतीय सरकारों में निहित होंगी जो समूह बनाने के लिए स्वतंत्र होंगी। हर समूह की अपनी कार्यपालिकाएँ और विधायिकाएँ हो सकती थीं तथा वह तय कर सकता था कि किन प्रांतीय विषयों को अपने हाथों में ले।
- कैबिनेट मिशन ने संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा के गठन का प्रस्ताव रखा। इस सभा का चुनाव प्रांतीय विधानसभाओं के सदस्यों तथा प्रांत की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के द्वारा किया जाना था। देसी रजवाड़ों को केंद्रीय संविधान सभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाता। सभा की बैठक पहले संघ के स्तर पर होती और फिर वह तीन समूहों ए, बी और सी में बँट जाती। नागरिकों, अल्पसंख्यकों, जनजातियों तथा अपवर्जित क्षेत्रों के अधिकारों के विषय में एक परामर्शदात्री होनी थी।
- ब्रिटिश भारतीय प्रांत तीन समूहों-ए, बी, और सी में बाँटे जाने थे। समूह ‘ए’ में हिंदू बहुसंख्यक मद्रास, बंबई, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा के छह प्रांत आते। समूह ‘बी’ में मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत पंजाब, उत्तरी-पश्चिम सीमा प्रांत और सिंध तथा समूह ‘सी’ में मुस्लिम बहुल प्रांत बंगाल और असम आते। मुख्य आयुक्त के प्रांत दिल्ली, अजमेर-मारवाड़ और कुर्ग समूह ‘ए’ में तथा बलूचिस्तान समूह ‘बी’ में सम्मिलित होते। गवर्नरों के प्रांतों में भिन्न-भिन्न संप्रदायों के प्रतिनिधि उनकी जनसंख्या के अनुपात में मिलने थे और लगभग 10 लाख लोगों के लिए एक प्रतिनिधि होना था।
- समूह ‘ए’ के प्रांतों में सामान्य को 167 स्थान दिये गये और मुसलमानों को 20 स्थान। समूह ‘बी’ में सामान्य को 9, मुसलमानों को 22 और सिखों को 4 तथा समूह ‘सी’ में सामान्य को 34 और मुसलमानों को 36 स्थान दिये गये थे। कुल 292 सदस्यों में 4 सदस्य चारों आयुक्तों के प्रांतों से आने थे और 93 सदस्य भारतीय रियासतों से। इस प्रकार स्पष्ट था कि वर्ग ‘बी’ और ‘सी’ मुस्लिमों के आधिपत्य में होंगे।
- प्रत्येक समूह के प्रांतों को अपना अलग-अलग संविधान बनाने का अधिकार होगा और फिर तीनों भाग सम्मिलित रूप से संघीय संविधान बनायेंगे। लेकिन संघ, समूह और प्रांत के स्तर पर एक संविधान के तय हो जाने के बाद प्रांतों को संघ से तो नहीं, किंतु किसी विशेष समूह से बाहर निकलने का अधिकार होगा। यही नहीं, समूहों और संघ के संविधान में एक प्रावधान यह भी था कि कोई भी प्रांत 10 वर्ष के बाद संविधान की शर्तों पर पुनर्विचार करने की माँग कर सकता था।
- भारतीय रियासतों के संबंध में मिशन ने कहा कि संविधान के अस्तित्व में आते ही अंग्रेजों की सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी अर्थात् जो भी अधिकार रियासतों ने अंग्रेजों को दिये हैं, वे सभी उन्हें पुनः प्राप्त हो जायेंगे। इसके पश्चात् 552 रियासतें चाहे केंद्र से संघीय संबंध बनायें अथवा प्रांतों से अपने नये संबंध स्थापित करें।
- मिशन का एक प्रस्ताव यह भी था कि जब तक नया संविधान अंतिम रूप नहीं ले लेता, तब तक मुख्य राजनैतिक दलों के समर्थन से एक अंतरिम सरकार बनाई जाय जिसमें गवर्नर-जनरल को छोड़कर सभी सदस्य भारतीय होंगे। इसका अंतिम लक्ष्य भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंदर या बाहर रहने की स्वतंत्रता प्रदान करना था। सत्ता-हस्तांतरण से उत्पन्न विवादों के निराकरण के लिए केंद्रीय संविधान सभा और इंग्लैंड के बीच एक संधि भी की जानी थी।
कैबिनेट मिशन के गुण-दोष
कैबिनेट मिशन की योजना का मुख्य गुण यह था कि इसमें ‘पाकिस्तान’ का विचार छोड़ दिया गया था और लीग की माँगों की गुंजाइश निकालने के लिए प्रांतों की स्वायत्तता और उनके अलग होने के अधिकार को मान लिया गया था। मिशन की कल्पना अब भी एक संयुक्त केंद्र की थी, जो प्रतिरक्षा, विदेश नीति और संचार की देखभाल करती। इस प्रकार कैबिनेट मिशन ने कांग्रेस की अखंड भारत की माँग और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया। गांधीजी के शब्दों में: ‘‘यह योजना उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सबसे उत्कृष्ट योजना थी, उसमें ऐसे बीज थे, जिससे दुःख की मारी भारतभूमि यातना से मुक्त हो सकती थी।’’ योजना का दूसरा मुख्य गुण यह था कि लीग के वीटो के अधिकार को निरस्त कर दिया गया था और पूरे देश के लिए एक संविधान सभा की कल्पना की गई थी, जिसके सभी सदस्य भारतीय होने थे तथा ब्रिटिश सरकार ने संविधान निर्माण प्रक्रिया में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया था। इस योजना के अनुसार संविधान सभा में निर्णय साधारण बहुमत से लिये जाने थे, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय किये गये थे। इस प्रकार कैबिनेट मिशन योजना को भारत की एकता और अखंडता को बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार का अंतिम प्रयास था।
कैबिनेट मिशन योजना में कुछ दोष भी थे, जैसे- मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तो की गई थी, किंतु सिखों के हितों की अनदेखी की गई थी। प्रांतों के समूहीकरण के संबंध में भी मतभेद था। लीग के अनुसार समूह बनाना आवश्यक था, जबकि कांग्रेस इसे वैकल्पिक मानती थी। बड़े-बड़े दलों के बीच पूर्ण सहयोग के बिना संविधान बनाना संभव नहीं था, उसे कार्यरूप देना तो दूर की बात थी। त्रिस्तरीय संविधान बनाने की प्रक्रिया भी बड़ी विचित्र थी। पहले समूह और प्रांतों का संविधान बनना था, फिर केंद्र का संविधान बनाया जाना था।
मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण
यद्यपि कैबिनेट मिशन ने अपनी प्रस्तावना में पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर दिया था, किंतु मुस्लिम लीग ने 6 जून को कैबिनेट मिशन योजना को इस आधार पर स्वीकर कर लिया कि इसमें ‘पाकिस्तान का आधार और उसकी बुनियाद’ निहित थे और इसके कारण अंततः पूर्ण प्रभुता-संपन्न पाकिस्तान की स्थापना संभव होगी। वास्तव में, मिशन की योजना जिन्ना जैसा पाकिस्तान चाहते थे, उसी की ओर एक कदम था। इससे लगता है कि जिन्ना अभी भी पाकिस्तान से कुछ कम स्वीकार करने के लिए तैयार थे।
कांग्रेस का दृष्टिकोण
कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन के दीर्घकालिक प्रस्तावों को सशर्त स्वीकार करने की घोषणा की। 10 जुलाई को एक पत्रकार सम्मेलन में नेहरू ने कहा कि कांग्रेस ने संविधान सभा में भागीदारी के अलावा और किसी बात पर सहमति नहीं दी थी और संभव है कि समूहों की योजना खत्म ही हो जाय, क्योंकि पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत और असम उस पर कभी सहमत नहीं होंगे। किंतु समानता के सवाल पर कांग्रेस और लीग दोनों ने अंतरिम सरकार के गठन की अल्पकालिक योजना को अस्वीकार कर दिया क्योंकि कांग्रेस अपने मनोनीत सदस्यों में एक मुसलमान को भी शामिल करना चाहती थी।
कैबिनेट मिशन 29 जून 1946 को वापस इंग्लैंड चला गया। शिष्टमंडल ने लौटते समय घोषणा की कि उन्हें संतोष है कि संविधान बनाने का कार्य प्रमुख राजनैतिक दलों के सहयोग से चलता रहेगा, किंतु उन्हें खेद था कि कुछ बाधाओं के कारण बहुदलीय अंतरिम सरकार नहीं बन सकी। आशा व्यक्त की गई कि संविधान सभा के चुनावों के बाद ऐसा हो सकेगा।
इस प्रकार कैबिनेट मिशन योजना कांग्रेस और लीग को एकमत नहीं कर सकी। परिणामतः जिन मामलों को यह समझा जाता था कि इस योजना से वे तय हो चुके हैं, वे ही मिशन के तीनों सदस्यों के इंग्लैंड लौटने पर तुरंत फिर उठाये गये। जिन्ना ने मुस्लिम लीग कौंसिल में भाषण देते हुए कहा: ‘‘जब तक हम अपने सारे क्षेत्र को मिलाकर पूर्ण और प्रभुसत्ता संपन्न पाकिस्तान की स्थापना नहीं कर लेंगे, तब तक हम संतुष्ट होकर नहीं बैठेंगे।’’ प्रांतों के समूहीकरण की अस्पष्टता से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मतभेद गहरे हो गये। कांग्रेस प्रांतों के समूहीकरण को वैकल्पिक मानती थी, जबकि लीग के अनुसार यह अनिवार्य था। किन प्रांतों के समूह बनाये जायें और अंतरिम सरकार में किस दल के कितने और कौन लोग होंगे, इन दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर वाद-विवाद की उत्तेजना चरमसीमा पर पहुँच गई।
संविधान सभा के चुनाव
कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत जुलाई 1946 में संविधान सभा के 296 स्थानों के लिए चुनाव हुए। इस चुनाव में कांग्रेस ने 214 सामान्य सीटों में से 201 सीट जीत लिया और 4 सिख सदस्यों का भी उसे समर्थन मिल गया। दूसरी ओर, जिन्ना की मुस्लिम लीग को 78 मुस्लिम स्थानों में से 73 स्थान मिले। जिन्ना ने अनुभव किया कि 296 सदस्यीय संविधान सभा में उनके केवल 73 सदस्य होंगे जो 25 प्रतिशत से भी कम थे। अब लीग ने ब्रिटेन पर विश्वासघात करने का आरोप लगाते हुए 29 जुलाई 1946 को कैबिनेट मिशन की दीर्घकालिक योजना पर अपनी सहमति वापस ले ली। जिन्ना ने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि यदि मुस्लिम हितों को नजरअंदाज करते हुए कांग्रेस के साथ किसी प्रकार के समझौते की कोशिश की गई, तो उसके गंभीर परिणाम होंगे।
यद्यपि कांग्रेस ने अंतरिम सरकार की अल्पकालिक योजना को अस्वीकार दिया था, किंतु 8 अगस्त को कांग्रेस कार्यकारिणी ने अंतरिम सरकार बनाने की योजना को स्वीकार कर लिया। 12 अगस्त 1946 को वायसरॉय वेवेल ने कांग्रेस के प्रधान पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक अंतरिम सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। नेहरू ने 15 अगस्त को जिन्ना से मिलकर लीग को अंतरिम सरकार में शामिल होने का आग्रह किया, किंतु जिन्ना ने नेहरू के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अलग राष्ट्र की माँग को लेकर 16 अगस्त 1946 को ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ (डायरेक्ट एक्शन डे) की घोषणा कर दी। इस प्रकार जीवनभर संवैधानिक राजनीति में विश्वास करनेवाले ‘कायदे आजम’ जिन्ना ने अंततः संवैधानिक तरीकों को अलविदा कह दिया।
प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस
मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग को लेकर 16 अगस्त 1946 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ शुरू कर दिया। उस दिन लीग ने कलकत्ता में ‘लेकर रहेंगे पाकिस्तान, लड़के लेंगे पाकिस्तान’ के नारे के साथ जो सांप्रदायिक उन्माद (ग्रेट कलकत्ता राईट) फैलाया, उसमें पाँच हजार लोग मारे गये और नागरिक व्यवस्था पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई। मौलाना अबुलकलाम आजाद के शब्दों में: ‘16 अगस्त भारत के इतिहास में काला दिन है, क्योंकि इस दिन सामूहिक हिंसा ने कलकत्ता की महानगरी को रक्तपात, हत्या और भय की बाढ़ में डुबो दिया। प्रतिकार में बिहार में मुसलमानों पर भीषण अत्याचार हुआ। बंगाल में नोआखली, टिप्पड़ाह, सिलहट में हिंदुओं पर अत्याचार किये गये।’’ आतंकित ब्रिटिश सरकार लीग को संतुष्ट करने में लग गई। वेवेल विलाप करने लगे कि हमने जिस भस्मासुर को शक्ति प्रदान की, उस पर हमारा ही नियंत्रण नहीं रहा।
अंतरिम सरकार का गठन
हर संभव तरीका आजमाने के बाद वायसरॉय वेवल ने 2 सितंबर 1946 को सिर्फ कांग्रेस के मनोनीत किये हुए सदस्यों को लेकर नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन किया, जिसमें एक सिख, एक ईसाई, एक पारसी, तीन मुसलमान तथा एक अनुसूचित जाति और शेष पाँच सवर्ण हिंदू थे। बाद में, वेवेल के मान-मनौव्वल के बाद जिन्ना ने भी 13 अक्टूबर के प्रस्ताव द्वारा अंतरिम सरकार में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया, यद्यपि उसने कैबिनेट मिशन के किसी भी, अल्पकालीन या दीर्घकालीन, प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था। भारत के राज्य सचिव लॉरेंस ने स्वीकार भी किया कि लीग को सरकार में शामिल नहीं किया जाता, तो ‘गृहयुद्ध अपरिहार्य हो जाता।’ मुसलमानों के हितों की रक्षा के नाम पर 4 मुसलमान और एक अनुसूचित जाति के सदस्य मुस्लिम लीग की ओर से सरकार में शामिल हो गये। दो स्थान पहले से रिक्त थे और कांग्रेस के 3 मनोनीत सदस्यों (2 मुसलमान और 1 सवर्ण) ने त्यागपत्र दे दिया, ताकि लीग के पाँचों सदस्य सरकार में शामिल हो सकें। दसअसल, जिन्ना समझ गये थे कि प्रशासन को कांग्रेस के हाथों में छोड़ देना आत्मघाती होगा; पाकिस्तान के लिए लड़ना है, तो सरकार में हिस्सेदारी जरूरी है।
जिन्ना को सिर्फ ताकत चाहिए थी और वह भी सरकार को तोड़ने के लिए। मुस्लिम लीग के मंत्रियों की सरकार-भंजक कार्यशैली से स्पष्ट हो गया कि उनका उद्देश्य किसी प्रकार का सहयोग करना नहीं, बल्कि अंग्रेजों की सहानुभूति प्राप्त करना और पृथक् पाकिस्तान की माँग को सुदृढ़ करना था। फलतः अंतरिम सरकार में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई। लीग ने कांग्रेस के सदस्यों द्वारा लिये गये निर्णयों तथा नियुक्तियों पर सवाल उठाये। वित्तमंत्री के रूप में लियाकतअली खान मंत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों के कार्य में बाधक बन रहे थे।
लीग ने अंतरिम सरकार में शामिल होकर भी संविधान सभा में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया। लीग के सदस्यों की अनुपस्थिति में संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को दिल्ली में शुरू हुई। दो दिन पश्चात् सभा ने डा. राजेंद्र प्रसाद को अपना स्थायी प्रधान चुन लिया। इसके 2 दिन बाद पंडित नेहरू ने सुप्रसिद्ध उद्देश्यों का प्रस्ताव रखा, जो 22 जनवरी 1947 को लीग की अनुपस्थिति में पारित हो गया, जिसके अनुसार सभा ने दृढ़ और गंभीर निश्चय व्यक्त किया कि भारत को ‘स्वतंत्र प्रभुसत्तापूर्ण गणतंत्र’ बनना है।
जब लीग ने अंतरिम मंत्रिमंडल द्वारा निर्णय लिये जाने के लिए आहूत की गई अनौपचारिक बैठक में भी भाग नहीं लिया, तो नेहरू वेवेल से यह कहने के लिए बाध्य हो गये कि मुस्लिम लीग या तो केबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करे या सरकार से बाहर निकल जाये। फरवरी 1947 में मंत्रिमंडल के नौ कांग्रेस सदस्यों ने भी वायसरॉय को पत्र लिखकर माँग की कि वह लीग के सदस्यों को त्यागपत्र देने के लिए कहें, अन्यथा वे मंत्रिमंडल से अपना नामांकन वापस ले लेंगे। अब लीग ने संविधान सभा को भंग करने की माँग कर दी, जिससे स्थिति और बिगड़ गई। कलकत्ता के बाद नोआखली, अहमदाबाद, बिहार व गढ़मुक्तेश्वर सहित देश के अन्य भागों में दंगे फैल गये और ब्रिटिश नौकरशाही ने दंगों को रोकने की दिशा में कोई प्रयत्न नहीं किया।
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-
भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण
सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी
विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन
प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई.
पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि
द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम
यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1
प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1