सिंध का विलय  (Annexation of Sindh)

सिंध का विलय

सिंधु नदी की निचली घाटी में समुद्र तक विस्तृत सिंध प्रदेश है। सिंध के राज्य का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। उसकी समृद्धि सदैव आक्रमणकारियों को आकर्षित करती रही है। उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक से ही यूरोप और एशिया में अंग्रेजों के साथ फ्रांसीसियों और रूसियों की शत्रुता बढ़ रही थी और अंग्रेजों को भय था कि वे अफगानिस्तान या फारस के रास्ते भारत पर आक्रमण कर सकते हैं। सिंध का विलय इसी भय का परिणाम था। फ्रांसीसी आक्रमण का खतरा तो नेपालियन बोनापार्ट के साथ ही समाप्त हो गया, लेकिन रूस की विस्तारवादी नीति और फारस में उसके बढ़ते प्रभाव ने ब्रिटिश नीति-निर्माताओं की नींद हराम कर दी। अंततः भारत पर रूसी आक्रमण को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने अफगानिस्तान और फारस में अपना प्रभाव बढ़ाने का निर्णय किया। लेकिन उन्होंने यह भी अनुभव किया कि यह नीति तभी सफल हो सकेगी, जब सिंध को ब्रिटिश नियंत्रण में लाया जाये। सिंध के व्यापारिक उपयोग की संभावनाएँ भी इस लालच का एक कारण थीं।

सिंध का विलय (Annexation of Sindh)
सिंध की स्थिति

सिंध की राजनीतिक स्थिति

सिंध पर 1701 में कल्होरा वंश का शासन शुरू हुआ था, जब एक मुगल शाही फरमान द्वारा अरब मूल के सुन्नी मुसलमान मियाँ यार मुहम्मद कल्होरा को ‘खुदा यार खान’ की उपाधि देकर ऊपरी सिंध का गवर्नर बनाया गया था।मुगल सम्राट इन्हें ‘कल्होरा नवाब’ कहते थे। नादिरशाह के आक्रमण (1739) के बाद इस प्रदेश का संबंध मुगल साम्राज्य से टूट गया।

नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली के समय में भी सिंध पर कल्होरा सरदारों का शासन था। वे अफगानिस्तान को खिराज (भूमिकर) देते थे, जो अकसर बकाया रह जाती थी। कल्होरों ने अपनी सेना में बड़ी संख्या में बलूचियों की भरती की थी। आरंभिक कल्होरों की राजधानी खुदाबाद थी, लेकिन 1768 में उन्होंने अपनी राजधानी हैदराबाद (सिंध) स्थानांतरित कर ली थी।

तालपुर के अमीरों का उदय

अठारहवीं सदी के मध्य में तालपुर की एक बलूच जनजाति पहाड़ों से उतर कर सिंध के मैदानों में आकर बस गई, जो मीर सुलेमान काको के वंशज थे। वे बलूच उत्कृष्ट सिपाही होने के साथ-साथ प्रतिकूल जीवन दशाओं से भी अभ्यस्त थे। प्रारंभिक कल्होरों ने बलूचियों को सिंध में बसने के लिए प्रोत्साहित किया, उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त कर जागीरें दी और बड़ी संख्या में अपनी सेना में भर्ती किया। धीरे-धीरे तालपुर के बलूचों की शक्ति काफी बढ़ गई, जिससे भयभीत होकर कल्होरा सरदार सरफराज ने 1774 में सरदार बहराम खाँ तालपुर की हत्या करवा दी, जिससे कल्होरों और तालपुरों के बीच शत्रुता आरंभ हो गई। 1783 में सरफराज के पुत्र और उत्तराधिकारी अब्दुल नबी ने बहराम खाँ के पुत्र और पौत्र को भी मरवा दिया। इसके प्रतिशोध में तालपुरों ने अपने सरदार मीर फतेहअली खान के नेतृत्व में हलानी की लड़ाई (1783) में कल्होरा राजकुमार अब्दुल नबी को पराजित कर देश (सिंध) से निर्वासित कर दिया। इस प्रकार मीर फतेहअली खान ने 1783 में सिंध में तालपुर वंश की स्थापना की और स्वयं को सिंध का पहला ‘अमीर’ या ‘सिंध का लॉर्ड’ घोषित किया था।

अफगानिस्तान के तत्कालीन दुर्रानी शासक तैमूरशाह ने, जिसकी सिंध पर नाममात्र की सत्ता थी, तालपुर के अमीरों को सिंध के शासक के रूप में मान्यता दे दी। फतेहअली खान ने अपने भाइयों- मीर गुलाम, मीर करम और मीर मुराद (मीर बंधु, जो ‘चार यार’ के नाम से प्रसिद्ध थे) के साथ सिंध का प्रशासन सँभाला, जिसे ‘प्रथम चौयारी’ या ‘चार यार का शासन’ कहा जाता है। आरंभ में तालपुरों ने हैदराबाद को राजधानी घोषित किया, जो पराजित कल्होरों की राजधानी थी।

तालपुर अमीरों ने अपनी चार शाखाओं के द्वारा सिंध पर शासन किया। ‘चार यार’ में सबसे वरिष्ठ फतेहअली खान ने सिंध के निचले भाग पर हैदराबाद से शासन किया; उसके भतीजे सोहराब खाँ ने सिंध के ऊपरी भाग में खैरपुर में एक शाखा की स्थापना की; एक अन्य संबंधी मीर थारा खान ने सिंध के दक्षिण-पूर्व में मीरपुर खास में मनकानी शाखा की स्थापना की और तालपुर की चौथी शाखा टांडो मुहम्मद खान में स्थित थी।

तालपुर अमीरों की चारों शाखाओं ने अपने अधीन क्षेत्र का सभी दिशाओं में विस्तार किया और अमरकोट के राजा से जोधपुर, लुज के सरदार से करांची और अफगानों से शिकारपुर तथा भक्खर को जीत लिया।

सिंध में अंग्रेजों का प्रवेश

पुर्तगालियों की सिंध में कोई रुचि नहीं थी क्योंकि गुजरात तथा मलाबार तट की तरह सिंध में कोई व्यापारिक केंद्र नहीं था। सिंध के शासक के बुलावे पर 1555 में पुर्तगाली गवर्नर बेरेट्टो एक जहाजी बेड़े के साथ सिंध गया था। युद्ध तो नहीं हुआ, लेकिन बेरेट्टो ने लूटमार करके काफी धन प्राप्त कर लिया।

पश्चिम से स्थल मार्ग से व्यापार करने के लिए सिंध के नगर महत्वपूर्ण थे, लेकिन आरंभ में अंग्रेजों ने अपना व्यापारिक केंद्र सूरत बनाया और सिंध को महत्व नहीं दिया।

अंग्रेजों का सिंध से संपर्क 16वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ। सर टामस रो जब अजमेर में जहाँगीर से मिला था, उस समय उसने बंगाल के साथ-साथ सिंध में भी व्यापार करने की अनुमति माँगी थी।

1635 में पुर्तगालियों से संधि करने के बाद इसी वर्ष एक ब्रिटिश व्यापारिक जहाजी बेड़ा पहली बार थट्टा गया था। कल्होरा राजकुमार गुलामशाह द्वारा प्रदत्त परवाना के कारण अंग्रेजों ने 1758 में थट्टा में पहली व्यापारिक कोठी (फैक्टरी) खोली थी। 1761 में गुलामशाह ने अंग्रेज रेजीडेंट की प्रार्थना पर न केवल पूर्व की संधि की पुष्टि की, बल्कि वहाँ व्यापार करने वाले अन्य यूरोपीयों को बाहर कर दिया।

बाद में, कर्नाटक और बंगाल की घटनाओं के कारण जब कल्होरा सरदार सरफराज खाँ को अंग्रेजी खतरे का आभास हुआ, तो उसने अंग्रेजों को सिंध से बाहर करने का प्रयास किया। परिणामतः 1775 में कंपनी को सिंध में व्यापार बंद करना पड़ा। इसके बाद 1783 में कल्होरों को हटाकर तालपुर अमीरों ने सिंध पर अधिकार कर लिया।

सिंध के प्रति ब्रिटिश नीति, 1799-1820

18वीं शताब्दी के अंत में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने पंजाब पर आक्रमण आरंभ किया। इससे अंग्रेजों को लगा कि नेपोलियन, काबुल के राजा जामनशाह और टीपू सुल्तान के साथ मिलकर भारत पर आक्रमण करने का षड्यंत्र कर रहा है।

फ्रांसीसी आक्रमण से भयभीत अंग्रेजों ने तालपुर के अमीरों को शाह के विरुद्ध भड़काना शुरू किया। लॉर्ड वेलेजली ने 1799 में अपने दूत क्रो को तालपुर अमीरों से वार्ता करने के लिए सिंध भेजा। लेकिन काबुल के शाह और स्थानीय व्यापारियों के दबाव में सिंध के अमीर फतेहअली तालपुर ने अक्टूबर, 1800 में अंग्रेज एजेंट क्रो को सिंध छोड़ने का आदेश दे दिया। अपमानित होकर ब्रिटिश एजेंट (क्रो) ने सिंध छोड़ दिया और कंपनी खून का घूँट पीकर रह गई।

शाश्वत मित्रता की संधि, 1809 : जून 1807 में, रूस के अलेक्जेंडर प्रथम और नेपालियन बोनपार्ट के बीच तिलसिट की संधि हुई, जिससे अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य पर फ्रांसीसी आक्रमण का संकट फिर मँडराने लगा। फ्रांसीसी डर के कारण गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो ने मेटकॉफ को लाहौर (पंजाब), एल्फिंस्टन को काबुल (अफगानिस्तान), मेलकॉम को तेहरान (फारस) और निकोलस हेंके स्मिथ को सिंध भेजा। निकोलस हेंके स्मिथ 1809 में सिंध के तालपुर अमीरों के साथ ‘शाश्वत मित्रता की संधि’ करने में सफल हो गया, जिसके अनुसार दोनों पक्ष सिंध से फ्रांसीसियों को बाहर करने और एक-दूसरे के दरबार में एजेंट भेजने पर सहमत हो गये। इस संधि से कच्छ में जहाँ कंपनी और सिंध की सीमाएँ मिलती थीं, सीमाएँ निश्चित की गईं।

संधि का नवीनीकरण, 1820 : 1818 में मराठा राज्यसंघ की अंतिम हार के पश्चात् कच्छ और राजस्थान के क्षेत्र अंग्रेजों के संरक्षण में आ गये, जो सिंध की सीमा पर थे, और अकसर सिंध के बलूची लुटेरों का शिकार होते रहते थे। बलूची लुटेरों को रोकने के लिए 1820 में अंग्रेजों ने 1809 की संधि में एक अनुच्छेद जोड़कर उसका नवीनीकरण किया। इसमें कहा गया था कि सिंध में किसी प्रकार की यूरोपियन या अमेरिकन बस्ती नहीं बनाने दी जायेगी और अंग्रेजों या उनके सीमावर्ती मित्र राज्यों में लूटमार नहीं होगी। कच्छ और सिंध की सीमा निश्चित कर दी गई।

ब्रिटिश नीति में परिवर्तन

अभी तक अंग्रेजो की सिंध में कोई विशेष व्यापारिक या सैनिक दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन 1825 के बाद इस दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया। इसका कारण यह था कि 1820 की संधि के बाद डॉ. जेम्स, जो बंबई की सेना में डॉक्टर था, अमीर मुरादअली तालपुर की चिकित्सा के लिए हैदराबाद गया। बाद में, उसकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिससे पता चला कि सिंध बंजर नहीं है, बल्कि उसकी भूमि बहुत उपजाऊ है और सिंध नदी से व्यापार किया जा सकता था। इससे सिंध के बारे में अंग्रेजों की उत्सुकता बढ़ गई।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक और सिंध
एलेक्जेंडर बर्न्स की यात्रा

लॉर्ड बैंटिंक ने सिंध के व्यापारिक और नौगम्यता के महत्व को देखते हुए 1831 में एलेक्जेंडर बर्न्स को, जो उस समय बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रधान थे, सिंधु नदी के रास्ते की खोज के लिए पंजाब भेजा। बहाना बनाया गया कि वह महाराजा रणजीत सिंह के लिए उपहार ले जा रहा है।

इंग्लैंड के राजा जार्ज चतुर्थ ने रणजीतसिंह को उपहार में कुछ घोड़े भेजे थे, जो बंबई आ गये थे। बैंटिंक ने उन घोड़ों को सिंधु नदी मार्ग से भेजने के लिए सिंध के अमीरों से अनुमति माँगी। अमीर रणजीतसिंह से डरते थे और अंग्रेजों की कुटिलता से अनभिज्ञ थे, इसलिए उन्होंने अनुमति दे दी।

वास्तव में, बर्न्स का सिंधु मार्ग से पंजाब जाने का मुख्य उद्देश्य यह पता लगाना था कि सिंधु नदी जहाजों के यातायात के लिए कितनी उपयुक्त थी। बलूचियों ने अंग्रेजों के इस झूठ को समझ लिया था। कहते हैं कि एक सैयद ने बर्न्स की अंग्रेज़ी नौकाओं को देखकर कहा था: ‘बड़े दुर्भाग्य की बात है। सिंध अब गया, क्योंकि अंग्रेज़ों ने सिंधु नदी को, जो विजय का मार्ग है, देख लिया है।’ बर्न्स ने लौटकर बैंटिंक को बताया कि सिंधु नदी में स्टीमरों और छोटे जहाजों को आसानी से चलाया जा सकता है।

महाराजा रणजीतसिंह ने 1831 में रोपड़ में विलियम बैंटिंक से भेंट के समय यह प्रस्ताव किया था कि ‘आओ सिंध को जीत लें और आधा-आधा बाँट लें’। किंतु बैंटिंक ने इस प्रस्ताव पर बातचीत करना स्वीकार नहीं किया। रणजीतसिंह के इस प्रस्ताव के बाद 1832 में बैंटिंक ने कर्नल पोटिंगर को सिंध भेजा, ताकि तालपुर अमीरों के साथ नई व्यापारिक संधि की जा सके।

1832 की संधि

सिंध पहुँच कर कर्नल पोटिंगर ने हैदराबाद के अमीर मुरादअली से 20 अप्रैल, 1832 को एक संधि की, जिसे बाद में मीरपुर और खैरपुर के अमीरों ने भी स्वीकार कर लिया। इस संधि में प्रावधान किया गया था कि-

  1. अंग्रेज व्यापारियों एवं यात्रियों को सिंध में निःशुल्क आने-जाने की अनुमति होगी और सिंधु नदी ब्रिटिश व्यापार के लिए खुली रहेगी, लेकिन कोई युद्धपोत इस नदी द्वारा नहीं गुजरेंगे और न ही कोई युद्ध-सामग्री इस नदी अथवा सिंध प्रदेश द्वारा इधर-उधर भेजी जायेगी।
  2. किसी अंग्रेज़ व्यापारी को सिंध में बसने की अनुमति नहीं होगी और अन्य पर्यटकों और दर्शकों को पासपोर्ट रखने होंगे।
  3. आयात और निर्यात करों की दरें प्रकाशित की जायेंगी और सिंध से किसी प्रकार के सैन्य-अधिभार या टोल की माँग नहीं की जायेगी। यदि आयात-निर्यात कर बहुत ऊँचे होंगें, तो अमीर उनमें परिवर्तन कर सकेंगे।
  4. तालपुर अमीर कच्छ के लुटेरों का दमन करने के लिए जोधपुर के राजा के साथ मिलकर कार्य करेंगे।
  5. पुरानी मित्रता की संधियों की पुनः पुष्टि की गई और दोनों पक्षों ने वादा किया कि वे एक-दूसरे के क्षेत्रों पर बुरी नजर नहीं डालेंगे।

आयात-निर्यात की दरें 1834 में एक पूरक व्यापारिक संधि द्वारा निश्चित कर दी गईं और कर्नल पोटिंगर सिंध में राजनीतिक एजेंट के रूप में नियुक्त कर दिया गया। इसके पश्चात् शीघ्र ही कंपनी ने सिंधु नदी के मुहाने पर लगाये मार्ग कर (टोल टैक्स) में भी अपना हिस्सा माँगना शुरू कर दिया।

लॉर्ड ऑकलैंड और सिंध

लॉर्ड ऑकलैंड 1836 में भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। एशिया में रूस के निरंतर प्रभाव-विस्तार से अंग्रेज भयभीत थे। ऑकलैंड ने सिंध के प्रश्न को रूसी संकट से जोड़ दिया और भारत को रूसी आक्रमण से बचाने के लिए अफगानिस्तान को ब्रिटिश नियंत्रण में लाने की योजना बनाई।

रणजीतसिंह जैसा शक्तिशाली राजा अंग्रेजों की योजना में भागीदार नहीं बन सकता था, लेकिन सिंध के निःशक्त अमीरों को योजना में शामिल करना कठिन नहीं था। इसलिए अफगानिस्तान को अपने प्रभाव में लाने के पहले सिंघ में प्रभाव बढ़ाना आवश्यक था।

1838 की संधि

जब रणजीतसिंह ने सिंध पर आक्रमण करने की सोची थी, तो उसने सिंघ की सीमा पर स्थिति रोझन नामक एक नगर पर कब्जा कर लिया था। कंपनी के आदेश पर पोटिंगर हैदराबाद (सिंध) गया और उसने अमीरों के समक्ष एक संधि-प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि रणजीतसिंह के विरुद्ध अमीरों की रक्षा के लिए एक सहायक सेना सिंध में रहेगी; अनुरूप सुविधाओं के बदले अंग्रेज रणजीतसिंह के साथ होने वाले विवादों में मध्यस्थता करेंगे और सिंध में एक अंग्रेज रेजीडेंट रहेगा, जिसे संपूर्ण सिंध में जाने-आने की स्वतंत्रता होगी।

तालपुर अमीरों ने कभी विदेशी सहायता की आशा या माँग नहीं की थी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि, ‘हमने सिखों को पहले भी पराजित किया है और फिर पराजित करेंगे।’ जब अमीरों ने संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, तो पोटिंगर ने धमकी दी कि हम रणजीतसिंह को समर्थन देंगे अथवा उसको आक्रमण करने के लिए प्रेरित करेंगे। अंग्रेजों की धमकी के कारण अनिच्छा से अमीरों ने 1838 में संधि पर हस्ताक्षर कर दिया।

इस संधि से अमीरों ने सिखों और उनके बीच झगड़े में कंपनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली और हैदराबाद में एक अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार कर लिया, जो अंग्रेज सैनिकों के संरक्षण में सिंध में कहीं भी आ-जा सकता था। इस प्रकार अमीर लगभग अंग्रेजों के संरक्षण में आ गये।

चार्ल्स नेपियर ने स्वीकार किया था कि यह सरासर अन्याय था। वास्तव में, सिंध के साथ जो व्यवहार किया गया, वह राजनीतिक दृष्टि से चाहे जितना आवश्यक रहा हो, नैतिक दृष्टि से उचित कतई नहीं था।

त्रिदलीय संधि 1838

अफ़ग़ान समस्या के समाधान के लिए कंपनी ने जून, 1838 में रणजीतसिंह और शाहशुजा से त्रिदलीय संधि की। इस संधि से रणजीतसिंह ने सिंध के अमीरों से अपने झगड़े में कंपनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली और शाहशुजा भी अमीरों से धन मिलने पर (जो अंग्रेज निश्चित करेंगे) सिंध पर अपने सर्वश्रेष्ठता के अधिकार को छोड़ने के लिए सहमत हो गया।

दरअसल यह सब ढोंग काबुल के अभियान के लिए तालपुर अमीरों से धन ऐंठने के लिए किया गया था। अंग्रेजों का दूसरा उद्देश्य यह भी था कि अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए सिंध का संभरण पंक्ति (सप्लाई लाईन) के रूप में प्रयोग किया जाए, क्योंकि रणजीतसिंह ने अंग्रेज़ी सेनाओं को पंजाब से गुजरने की अनुमति नहीं दी थी।

सहायक संधि, 1839

कर्नल पोटिंगर को संधि के मसविदे के साथ अमीरों के पास भेजा गया। उसे आदेश दिया गया था कि अमीरों को धन देने के लिए बाध्य किया जाए और 1832 की संधि के उस अनुच्छेद का उन्मूलन किया जाए, जो सिंधु नदी से सैनिकों के आवागमन का निषेध करता था। पोटिंगर ने तालपुर अमीरों के समक्ष जो मसविदा रखा, उसकी प्रमुख शर्तें इस प्रकार थीं-

एक, शिकारपुर और भक्खर में ब्रिटिश सहायक सेना तैनात की जायेगी और उसके भरण-पोषण तथा प्रबंधन के लिए सिंध के अमीर तीन लाख रुपया प्रति वर्ष देंगे;

दूसरे, कंपनी के संज्ञान में लाये बिना अमीर किसी अन्य राज्य से कोई संबंध नहीं रखेंगे;

तीसरे, तालपुर अमीर ब्रिटिश सेना की आपूर्ति के लिए कराची में भंडारण-कक्ष (गोदाम) देंगे और सिंध नदी पर सभी यातायात कर (टोल टैक्स) समाप्त कर दिये जायेंगे।

इसके साथ ही, आवश्यकता पड़ने पर अमीर अंग्रेजों को सैनिक सहायता भी देंगे। इसके बदले में कंपनी अमीरों के आंतरिक प्रशासन में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी और बाहरी आक्रमण से उनकी रक्षा करेगी। अभी संधि के मसविदे पर बातचीत चल ही रही थी कि अंग्रेजी सेना ने कराची पर अधिकार कर लिया।

सिंघ के अमीरों ने कहा कि शाहशुजा की धन की माँग तो उपहास मात्र है। उन्होंने एक घोषणा-पत्र दिखाया, जिसके अनुसार शाहशुजा ने 1833 के बाद सिंघ के अमीरों पर अपने सभी अधिकार स्वयं त्याग दिये थे। किंतु सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह दिया गया कि, ‘जिस राजा को आप पिछले 25 वर्ष से रोटी दे रहे हैं, उसकी ओर से जो भी माँग है, वह आपकी माँग है, शाह की नहीं’।

कर्नल पोटिंगर ने अमीरों पर दबाव बनाने के लिए उन पर फारस के शाह से साँठ-गाँठ करने का आरोप लगाया और धमकी दी कि अंग्रेज़ों के पास उन्हें पूर्णतया समाप्त कर देने की ताकत है। अंततः विवश होकर अमीरों ने फरवरी, 1839 में नई संधि पर हस्ताक्षर कर दिये।

इस सहायक संधि से अमीरों की स्वतंत्रता पूर्ण रूप से समाप्त हो गई और व्यावहारिक रूप से सिंध ब्रिटिश साम्राज्य का एक प्रांत बन गया। इसके संबंध में ऑकलैंड ने लिखा था कि, ‘सिंध अब औपचारिक रूप से हमारे नियंत्रण में है और हमारे भारतीय संबंधों के वृत्त के अंतर्गत है।’

अफगान युद्ध (1839-42)

प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध सिंध की भूमि पर लड़ा गया और युद्ध के दौरान अमीरों को अंग्रेजी सेना की सहायता का पूरा भार उठाना पड़ा। उनके कुछ क्षेत्र उनसे सपष्टतः सदैव के लिए ले लिये गये थे, पुराने कर के स्थान पर उन्हें बहुत सारा धन देना पड़ा, और उनकी स्वाधीन स्थिति सदैव के लिए समाप्त हो गई।

इतना होने पर भी, तालपुर अमीरों ने संधि का अक्षरशः पालन किया और जब अफगानिस्तान में अंग्रेजी सेना पर विपत्ति आई, उस समय उन्होंने अंग्रेजों के साथ कोई विश्वासघात नहीं किया। किंतु इस निष्ठा के बदले उनकी प्रशंसा करने के बजाय उन पर आधारहीन आरोप लगाये गये कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया और उसके प्रति घृणा फैलाई।

लॉर्ड एलनबरो और सिंध का विलय

अफगान युद्ध समाप्त होने के पूर्व ही 1842 में ऑकलैंड के स्थान पर लॉर्ड एलनबरो गवर्नर जनरल के रूप में भारत आया। लॉर्ड एलनबरो आरंभ से ही सिंध के अमीरों के विरुद्ध था और उन्हें अंग्रेजों का कट्टर शत्रु समझता था। सिंध के अमीरों के साथ व्यवहार में वह ऑकलैंड से भी अधिक धूर्त और कपटी सिद्ध हुआ। वी.ए. स्मिथ के कथनानुसार ‘एलनबरो उस प्रदेश को सम्मिलित करने के लिए बहाना खोज रहा था और शीघ्र ही उसे सफलता मिली; उसने जानबूझ कर युद्ध आरंभ किया ताकि वह प्रांत को जीत सके।’

ऐसा लगता है कि लॉर्ड ऑकलैंड और लॉर्ड एलनबरो के काल में उस महान जल मार्ग को नियंत्रित करना ही विलय करने वालों की नीति का मुख्य उद्देश्य था। दूसरा, लॉर्ड एलनबरो ने अफ़ग़ान युद्ध में खोई हुई अंग्रेज़ी प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए बहुत कठिन परिश्रम किया। उसने आउट्रम को, जो उस समय हैदराबाद में ब्रिटिश रेजीडेंट था, लिखा था कि, ‘अफगान युद्ध में सफलता प्राप्त होने से अमीरों को मालूम हो गया होगा कि अंग्रेज इतने कमजोर नहीं थे जितना वे समझते थे।’

सिंध का विलय (Annexation of Sindh)
सर चार्ल्स नेपियर

एलनबरो सिंध को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का संकल्प कर चुका था। सितंबर, 1842 में सर चार्ल्स नेपियर को सिंध में कंपनी का रेजीडेंट बनाकर भेजा गया, जो उदंड और क्रोधी था। रेजीडेंट मेजर आउट्रम को वापस बुला लिया गया, क्योंकि वह ईमानदार था और नेपियर की उद्दंडता का विरोधी था।

नेपियर को पूर्ण असैनिक और सैनिक अधिकार दिये गये और उत्तरी तथा दक्षिणी सिंध की सेनाएँ उसके अधीन कर दी गईं। नेपियर ने सिंध पर अधिकार करने का निश्चय कर लिया था, इसलिए उसने आक्रमक नीति अपनाई। उसे विश्वास था कि भारत सरकार संधियों की उपेक्षा करके जो चाहे कर सकती है। वास्तव में नेपियर युद्ध के लिए बुरी तरह व्याकुल था।

सिंध-विलय के कारण

सिंध पर अधिकार करने के लिए एलनबरो ने जो कार्यवाही की, उसके कई कारण थे- पहला, सिंध सामरिक दुष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। अफगानिस्तान के लिए मार्ग सिंध से होकर ही जाता था। अफगानिस्तान में असफल होने के बाद अंग्रेज चाहते थे कि इस मार्ग पर उनका अधिकार बना रहे।

दूसरा, उत्तर-पश्चिम के देशों से व्यापार करने के लिए भी सिंध पर अधिकार करना आवश्यक था।

तीसरा, अफगानिस्तान में भयानक पराजय के बाद अंग्रेजों के लिए आवश्यक था कि वे अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन करें और विजय करें। इसके लिए सिंध सबसे उपयुक्त क्षेत्र था।

चौथा, सिंध के अमीरों पर अंग्रेजों ने जो अनैतिक अत्याचार किये थे, उनके कारण भी एलनबरो सिंध के अमीरों से आशंकित था। उसे लगता था कि अमीर कभी भी प्रतिशोध के लिए अंग्रेज-विरोधी कार्य कर सकते थे।

पाँचवाँ, सिंध को पूर्णतया अधीन करने के लिए एक नई संधि की आवश्यकता थी, जो अमीरों पर दबाव डालकर ही की जा सकती थी। इसलिए अमीरों के विश्वासघात और शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों का दुष्प्रचार किया गया।

इसके अलावा, सिंध-विलय का एक कारण सेनापति नेपियर स्वयं था, जो प्रारंभ से ही सिंध पर अधिकार करने के लिए परेशान था।

अफगान युद्ध के बाद एलनबरो ने निश्चय कर लिया था कि सिंधु नदी पर अंग्रेजों का नियंत्रण होना चाहिए। इसके अलावा, कराची, भक्खर और सक्खर में स्थायी रूप से सेनाएँ रखना भी आवश्यक था। उसने यह निश्चय कर लिया था कि अगर तालपुर अमीर नवीन संधि स्वीकार नहीं करेंगे, तो वह सिंध को अंग्रेजी राज्य में मिला लेगा।

अमीरों पर आरोप

तालपुर अमीरों के विरुद्ध कार्यवाही को उचित साबित करने के लिए उन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गये। खैरपुर के अमीर रुस्तम पर आरोप लगाया गया कि उसने संधि की धाराओं के विरुद्ध विदेशी शक्तियों से बात की है; ब्रिटिश पदाधिकारियों के साथ दुर्व्यहार किया है; सिंध नदी में आने-जाने में बाधा डाली है, और ब्रिटिश प्रजा को अवैधानिक रूप से बंदी बनाया है।

हैदराबाद के के नासिर खाँ के विरुद्ध यह आरोप था कि उसने मीरपुर के शेर मुहम्मद के साथ सीमा-विवाद के मामले में, जो अंग्रेजों की मध्यस्थता के अधीन था, सेना एकत्र की है। दूसरे, जब उसे अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेजों की हार का समाचार मिला, तो उसने शिकारपुर के हस्तांतरण में देर की; अग्रेजों को धोखा देने की नीयत से उसने कर का धन देने के लिए खोटे सिक्के ढाले; अवैध मार्ग-कर लिया और सिंध नदी से आने-जाने में बाधा डाली; अपनी प्रजा को कराची में स्थित ब्रिटिश छावनी में बसने और व्यापार करने पर रोक लगाई इत्यादि। सबसे प्रमुख आरोप यह था कि दोनों अमीर संधि का उल्लंघन करके विदेशी शक्तियों से कंपनी के विरुद्ध रक्षात्मक और आक्रमणात्मक संधियाँ कर रहे थे। इस संबंध में अमीरों के कुछ पत्र भी मिले थे। इनमें से एक पत्र हैदराबाद के अमीर नसीर खाँ ने मुल्तान के गवर्नर सांवलदास को लिखा था। दूसरा पत्र खैरपुर के अमीर रुस्तम खाँ ने महाराज शेरसिंह को लिखा था। यद्यपि इन पत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध कोई बात नहीं थी, फिर भी, उन्हें अंग्रेज-विरोधी माना गया।

नवीन प्रस्तावित संधि

लॉर्ड एलनबरो ने सिंध के अमीरों के साथ एक नई संधि करने के लिए आउट्रम को सिंध भेजा। नई संधि में अमीरों से भविष्य के लिए अधिक धन की माँग की गई थी और अतीत में की गई भूलों के लिए दंड के रूप में कुछ महत्वपूर्ण प्रदेश छोड़ने को कहा गया था। सिंधु नदी में चलने वाले कंपनी के स्टीमर्स (जहाजों) के ईंधन का खर्च और कोयला आदि अमीरों को देना था।

इसके अलावा, अमीरों को अपना सिक्के ढालने का अधिकार कंपनी को देना था। कहा गया था कि 1845 के बाद कंपनी सिंध के जो नये सिक्के ढालेगी, उन पर एक ओर इंग्लैंड की सम्राज्ञी की प्रतिमा होगी। अमीरों को इस संधि पर 20 जनवरी, 1843 तक हस्ताक्षर करने का समय दिया गया।

दरअसल संधि का प्रस्ताव दिखावा था और नेपियर को सिंध पर अधिकार करने का बहाना चाहिए था। इसी समय हैदराबाद और खैरपुर में उत्तराधिकार की समस्या उठ खड़ी हुई, जिससे नेपियर को युद्ध का बहाना भी मिल गया।

उत्तराधिकार की समस्या

हैदराबाद में अमीर पद के दो उम्मीदवार थे- नासिर खाँ और सोबदार खाँ। खैरपुर का अमीर रुस्तम खाँ बहुत बूढ़ा था और उसका छोटा भाई अलीमुराद स्वयं अमीर बनना चाहता था, लेकिन रुस्तम अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सोबदार खाँ और अलीमुराद अंग्रेजों से मिल गये, जिससे नेपियर को तालपुरों के उत्तराधिकार-विवाद में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया।

युद्ध का आरंभ

नेपियर ने खैरपुर के बूढ़े अमीर रुस्तम खाँ के पुत्र का समर्थन न करके उसके भाई अलीमुराद का समर्थन किया। नेपियर चाहता था कि प्रत्येक प्रांत में केवल एक ही अमीर हो, ताकि कंपनी को कई अमीरों की जगह एक ही अमीर से बातचीत करनी पड़े।

मीर रुस्तम खाँ अपने पुत्र को सिंहासन सौंप कर भाग गया और ऊपरी सिंध के अमीर हैदराबाद चले गये, ताकि समय आने पर संगठित प्रतिरोध किया जा सके। अमीरों को आतंकित करने के लिए नेपियर ने 11 जनवरी, 1843 को इमामगढ़ के किले को बारूद से उड़ा दिया। इसके बाद, नेपियर हैदराबाद गया, जहाँ रेजीडेंट आउट्रम अमीरों से संधि की वार्ता कर रहा था। अमीरों ने आउट्रम पर विश्वास करके अनमने भाव से 12 फरवरी, 1843 को नई संधि पर हस्ताक्षर कर दिये।

सिंध का विलय (Annexation of Sindh)
मियानी का युद्ध
युद्ध की घटनाएँ

अमीरों द्वारा संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद भी युद्ध नहीं रुका। बलूच अमीरों ने आउट्रम से माँग की कि रुस्तम को खैरपुर के अमीर पद पर बना रहने दिया जाए या अलीमुराद से उन्हें विवाद हल कर लेने दिया जाए, लेकिन आउट्रम ने इस संबंध में अपनी असमर्थता प्रकट की। फलतः नेपियर की आक्रामक कार्यवाही से आक्रोशित तालपुर अमीरों ने 15 फरवरी, 1843 को हैदराबाद स्थित ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण कर दिया और सर जेम्स आउट्रम (1803-1863) को भागकर सिंधु नदी के नीचे स्टीमर पर शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार नियमित युद्ध आरंभ हो गया।

सिंध का विलय (Annexation of Sindh)
सर जेम्स आउट्रम

मेजर जनरल नेपियर ने 17 फरवरी, 1843 को केवल 3,000 सैनिकों की सहायता से मियानी के युद्ध में सिंध के 30,000 बलूच सैनिकों को निर्णायक रूप से हरा दिया। मियानी में जीत के बाद नेपियर ने हैदराबाद पर अधिकार कर लिया और नगर को बुरी तरह लूटा। एक माह बाद उसने खैरफा की सेना को दुब्बा नामक स्थान पर पराजित किया।

5 मार्च को लॉर्ड एलनबोरो ने घोषणा की कि सुकुर से समुद्र तक का क्षेत्र अंग्रेजों का है। 13 मार्च, 1843 को लॉर्ड एलनबरो ने मेजर जनरल नेपियर को सिंध का गवर्नर नियुक्त कर दिया, जो अगले चार वर्षों (1847) तक अपने पद पर बना रहा।

अंतिम युद्ध 24 मार्च, 1843 को हुआ, जिसमें मीरपुर का अमीर पराजित हुआ और मीरपुर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

मीरपुर की विजय के बाद नेपियर ने एलनबरो को संदेश भेजा- ‘पक्कावी’, जिसका विशिष्ट अर्थ होता है, ‘मैंने पाप किया है।’ किंतु यहाँ उसका अभिप्राय था- ‘मैंने सिंध पर अधिकार कर लिया है।’ इंग्लैंड में ‘पंच पत्रिका’ ने इस पर निंदात्मक कार्टून प्रकाशित किया।

अगस्त, 1843 तक समस्त सिंध अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। सभी अमीर बंदी बना लिये गये और उन्हें सिंध से निकाल दिया गया। नेपियर ने अपनी डायरी में लिखा था : ‘हमें सिंध पर अधिकार करने का कोई अधिकार नहीं है, फिर भी हम ऐसा करेंगे और यह एक बहुत लाभदायक, लेकिन मानवीय दुष्टता का कार्य होगा।’ सिंध विजय के पश्चात् नेपियर को लूट में 70,000 पौंड मिले, जबकि आउट्रम का हिस्सा 3,000 पौंड था, जिसे उसने विरोधस्वरूप दान कर दिया।

1857 में लेफ्टिनेंट जनरल सर डब्ल्यू.एफ.पी. नेपियर ने सर चार्ल्स नेपियर की इन शब्दों में प्रशंसा की थी: ‘उसने इस प्रकार हमारे ऐंग्लो-इंडियन साम्राज्य को पश्चिम में एक अधिक छोटी एवं सुरक्षित सीमा प्रदान की और सिंघ नदी पर अधिकार दिलाया, मध्य एशिया के लिए सीधा व्यापारिक मार्ग खोल दिया और एक बड़े प्रदेश में अंग्रेज़ी शक्ति की धाक जमा दी।’ उसने आगे लिखा : ‘ऐसे दुष्ट विश्वासघाती निष्ठुर शासकों को हटा देना इंग्लैंड की महत्ता के सर्वथा अनुकूल ही था। इस उपलब्धि की महत्ता न्याय की वेदी पर प्रज्वलित की गई एक शुद्ध ज्वाला है।’ लार्ड एलनबरो ने नेपियर की बड़ी प्रशंसा की कि उसने मिस्र जितना बड़ा और उर्वर प्रदेश अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।

सिंध-विजय की आलोचना

सिंध-विजय एक घोर अनैतिक कार्य था और प्रायः सभी इतिहासकारों ने सिंध-विजय की कड़ी शब्दों में निंदा की है। आउट्रम स्वयं नेपियर की नीति से सहमत नहीं था। उसने एलनबरो को लिखा था: ‘मैं इस नीति से हैरान हूँ। मैं यह नहीं कह सकता कि आपकी नीति सबसे अच्छी है, लेकिन निःसंदेह तलवार की नीति संक्षिप्तम् होती है। मेरी कामना थी कि आप उसका प्रयोग अच्छे कार्य के लिए करते।’

हेनरी पोटिंगर ने स्वयं लिखा है: ‘मेरे विचार में, हम चाहे जितने तर्क क्यों न दें, सिंध के अमीरों के साथ हमारे व्यवहार से जो कलंक हमारी ईमानदारी और प्रतिष्ठा पर लगा है, उसको किसी प्रकार साफ नहीं किया जा सकता है।’

वास्तव में, सिंध को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की स्थितियों एवं कारणों को जानबूझ कर तैयार किया गया था और इसके लिए अमीरों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों को किसी प्रकार से हानि नहीं पहुँचाई थी।

अंग्रेजों का व्यवहार पूर्णतया मनमाना और स्वेच्छाचारी था और उन्होंने ही संधियों का उल्लंघन किया। उन्होंने भारतीय राज्यों की तरह मनमाने तरीके से अमीरों पर दासता की शर्तें थोपीं, जो घोर अनैतिक और अवांछनीय था।

सच तो यह है कि सिंध के अधिग्रहण की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। 1832 में बैंटिंक ने अमीरों से स्पष्ट वादा किया था कि अंग्रेज सिंध की ओर नजर नहीं उठायेंगे और सिंध के रास्ते सेना या सैनिक सामग्री नहीं ले जायेंगे, लेकिन अंग्रेजों ने इन शर्तों का कभी पालन नहीं किया।

सिंध के अमीरों से खिराज माँगना भी अनुचित था और अमीरों पर विद्रोह के आरोप भी निराधार थे। अमीरों ने सदैव संधियों का पालन किया था और अंग्रेजों का कभी विरोध नहीं किया।

नेपियर का व्यवहार असभ्य और बर्बर था। अमीरों ने उसकी सभी शर्तों को मान लिया था, फिर भी, उसने सिंध पर अधिकार करने के लिए जानबूझकर उत्तेजनात्मक कार्यवाही की, जिससे अमीरों का संचित आक्रोश फूट पड़ा।

दरअसल, प्रथम अफगान युद्ध के कारण अंग्रेजों के सम्मान और प्रतिष्ठा को गंभीर क्षति पहुँची थी, जिससे अंग्रेज बुरी तरह भयभीत और अपमानित थे। इसी अपमान का बदला लेने और खोये सम्मान की भरपाई के लिए उन्होंने तालपुर अमीरों के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही की और सिंध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया।

संचालक मंडल ने भी सिंध को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की निंदा की, लेकिन उसने भी गलती को सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रॉबर्ट पोल ने भी इसको उचित नहीं माना, परंतु इतना होते हुए भी उसने भारत सरकार के इस निर्णय को नहीं बदला। ग्लैडस्टन ने भी कहा था कि सिंध को जीतना तो बुरा था ही, परंतु छोड़ना उससे भी अधिक बुरा होता

अफगान युद्ध का परिणाम

कहा जाता है कि सिंध का विलय अफगान युद्ध का परिणाम था। पी.ई. राबर्ट्स का कहना है कि सिंध-विजय अफगान युद्ध के पश्चात हुआ और नैतिक एवं राजनैतिक रूप से उसी का परिणाम थी। नेपियर ने भी स्वीकार किया था कि, ‘यह अफगान तूफान की पूँछ थी।’ सच तो यह है कि अफगानिस्तान की पराजय और अपमान से अंग्रेज बुरी तरह तिलमिलाये हुए थे। अत: दुर्बल सिंध को हड़प कर वे अपने कलंक को धोना चाहते थे। इस प्रकार सिंध-विजय अफगान युद्ध का स्वाभाविक परिणाम थी।

एच.एच. डॉडवैल के अनुसार, ‘यदि हम विस्तृत दृष्टि से देखें, तो सिंध को सम्मिलित करना कर्नाटक को जीतने के समान ही है। दोनों मामलों में मूर्ख और विपरीत व्यवहार का लाभ उठाकर पर्याप्त राजनैतिक लाभ प्राप्त किया गया। एलनबरो, वेलेजली की भाँति ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति को सुदृढ़ करने में अधिक तत्पर था।’

संचालक मंडल एलनबरो की नीतियों से असंतुष्ट था और सिंध-विजय को अनुचित मानता था। अतः 1844 में संचालकों ने उसे वापस बुलाया। एलनबरो ने त्यागपत्र देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे बोर्ड ऑफ कंट्रोल का समर्थन प्राप्त था। अंततः, संचालक मंडल को एक मत से प्रस्ताव पारित करके उसे वापस बुलाना पड़ा।
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