अकबर का राष्ट्रीय सम्राट के रूप में मूल्यांकन (Akbar’s Assessment as a National Emperor)

अकबर राष्ट्रीय सम्राट के रूप में

अकबर विश्व के महान सम्राटों में से एक है। उसकी दूरदर्शिता तथा विवेकपूर्ण नीतियों की सभी इतिहासकारों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। उसके राज्यारोहण से भारत में एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ क्योंकि जिस समय अकबर ने मुग़ल साम्राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था, उस समय उसके राज्य में विभिन्न धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग रहते थे और उनके बीच में किसी प्रकार की एकता नहीं थी। उसके राज्य का आकार छोटा था, इसलिए अकबर ने भारत के विशाल भूभाग पर अधिकार करके एक सुदृढ़ साम्राज्य की स्थापना की और अपनी समन्वयवादी नीतियों से न केवल अपने साम्राज्य को एकता के सूत्र में आबद्ध किया, बल्कि भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के बीच एकता स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

अकबर का राष्ट्रीय सम्राट के रूप में मूल्यांकन (Akbar's Assessment as a National Emperor)
राष्ट्रीय सम्राट अकबर

वास्तव में अकबर ने राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक तथा कला के क्षेत्र में सामंजस्य और समन्वय की नीति के द्वारा अपने साम्राज्य को न केवल एक राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया, बल्कि एक ऐसी संस्कृति का भी विकास किया, जिसमें सभी वर्गों और धर्मों के लोगों का योगदान था। यही कारण है कि उसे ‘राष्ट्रीय सम्राट’ की संज्ञा दी जाती है। अकबर का कटु आलोचक विंसेंट स्मिथ भी स्वीकार करता है कि, ‘अकबर मनुष्यों का जन्मजात शासक था, इतिहास में ज्ञात सर्वशक्तिशाली सम्राटों में से एक होने का उसका दावा उचित है।’

राज्य का भारतीय स्वरूप

अकबर का प्रथम कार्य मुगलों के विदेशी स्वरूप को समाप्त करना था। मुगलों को विदेशी और आक्रमणकारी माना जाता था और अफगान, राजपूतों ने मिलकर बाबर को भारत से निकालने के लिए खानवा में संयुक्त प्रयत्न किया था।

अकबर ने मुगलों के विदेशीपन को दूर करने के लिए राजपूतों से विवाह संबंध स्थापित करके मुगल राजवंश को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। उसकी राजपूतों से विवाह नीति पूर्ववर्ती मुस्लिम शासकों से पूर्णतः भिन्न थी। इन विवाहों में बल प्रयोग नहीं किया गया था, बल्कि इन्हें स्वेच्छा से समानता के आधार पर किया गया था। इस प्रकार अकबर की राजपूत नीति से, जो समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और सद्भावना पर आधारित थी, मुगल राजवंश को राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हुआ और एक ऐसे शासक वर्ग का निर्माण हुआ जिसमें राजपूत सम्मिलित थे। साम्राज्य की विजयों में मुस्लिम सैनिकों के साथ राजपूत सैनिकों का भी योगदान था, जिससे साम्राज्य के निर्माण में भी राष्ट्रीय भावना उत्पन्न हुई।

राजनीतिक एकता की स्थापना

अकबर का पहला उद्देश्य भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँधकर भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना था। वह जानता था कि राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए राजनीतिक एकता अनिवार्य शर्त है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अकबर ने साम्राज्यवादी नीति अपनाई और अपनी वीरता तथा सूझबूझ से न केवल अपने छोटे से राज्य की अपने शत्रुओं से रक्षा की और संपूर्ण उत्तर भारत को जीतकर उसे एक राजनीतिक सूत्र में पिरोकर अपने साम्राज्य को सुदृढ़ किया, बल्कि बरार तथा खानदेश जैसे दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को जीतकर अपनी शक्ति और प्रभुसत्ता का विस्तार भी किया। उसने राजपूतों और अफगानों की शक्ति को नतमस्तक कर दिया और इसके लिए उसने सैनिक शक्ति के अतिरिक्त कूटनीति का भी सहारा लिया।

अकबर का राष्ट्रीय सम्राट के रूप में मूल्यांकन (Akbar's Assessment as a National Emperor)
1605 ई. में भारत

किंतु अकबर ने अपने युद्धों में न तो कभी ‘धर्म-युद्ध’ का नारा दिया और न ही ‘दार-उल-हर्ब’ को ‘दार-उल-इस्लाम’ बनाने की घोषणा ही की। इस प्रकार अकबर ने अपनी सूझ-बूझ से भारत को न केवल राजनीतिक एकता प्रदान की, बल्कि उसे राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया।

प्रशासनिक एकता की स्थापना

अकबर ने न सिर्फ संपूर्ण भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की, बल्कि उसने पूरे साम्राज्य में एक समान प्रशासनिक व्यवस्था लागू की। उसके प्रशासन का उद्देश्य राजनीति को धर्म से अलग कर साम्राज्य में रहने वाले सभी लोगों का कल्याण करना और उन्हें न्याय तथा समान अवसर प्रदान करना था। उसने तुर्क-अफगानयुगीन धार्मिक कट्टरता की नीति को त्याग कर अपने प्रबलतम राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों- राजपूतों को भी प्रशासन और सेना में प्रमुखता दी। अकबर ने संपूर्ण देश को एक छत्र के अंतर्गत लाने के लिए यथाशक्ति समान शासन प्रणाली, न्याय व्यवस्था तथा मालगुजारी बंदोबस्त लागू किया और व्यापार के विकास के लिए समान सिक्के प्रचलित किये।

अकबर के शासनकाल में सभी प्रांतों, सरकारों और परगनों में एकसमान प्रशासन तंत्र था और बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को एक समान अधिकार और संरक्षण प्राप्त थे। राज्य के नियम सभी व्यक्तियों पर एकसमान रूप से लागू थे। यह इस्लामी राज्य नहीं था, बल्कि प्रशासन के सभी पद योग्यता के आधार पर सभी वर्गों और धर्मों के लिए खुले थे, जिससे पूरे साम्राज्य में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित हुई, जो अकबर की एक महान् उपलब्धि थी।

धार्मिक एकता की स्थापना

राष्ट्रीय एकता स्थापित करने की दिशा में अकबर का साहसिक और मौलिक कार्य धार्मिक क्षेत्र में एकता की स्थापना करना था। उसके पूर्ववर्ती शासकों ने इस्लामी राज्य की अवधारणा के अनुसार शरियत का पालन करते हुए हिंदुओं पर विभेदक कर लगाये थे, जिसके कारण विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के बीच किसी प्रकार की प्रेम और मित्रता की भावना नहीं थी और वे परस्पर एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहते थे। अकबर इस बात को अच्छी तरह समझता था कि इस्लाम धर्म का सहारा लेकर संपूर्ण भारत पर शासन नहीं किया जा सकता। इसलिए अकबर ने विभिन्न धर्मों के बीच प्रेम और एकता की भावना जागृत करने के लिए धार्मिक सहिष्णुता और ‘सुलहकुल’ की नीति का पालन किया। उसने युद्ध-बंदियों को दास बनाने और बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन को समाप्त कर दिया (1562 ई.), तीर्थ-यात्रा कर (1563 ई.) और जजिया को समाप्त (1564 ई.) कर हिंदुओं को भी धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। यही नहीं, उसने सभी धर्मों के लोगों को अपनी इच्छानुसार पूजा करने और अपने पूजा स्थलों के निर्माण की भी छूट दी। उसने राजपूत कन्याओं से विवाह कर उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की और धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया।

धार्मिक सद्भावना तथा समन्वय की दिशा में ‘इबादतखाना’ (पूजाघर) की स्थापना (1575 ई.), इबादतखाने में सभी धर्मों के लोगों के प्रवेश की अनुमति देना (1578), ‘महजरनामा’ की घोषणा (1579 ई.), दीन-ए-इलाही (1582 ई.) की स्थापना और इलाही संवत् की शुरुआत      (1583) आदि अकबर के महत्वपूर्ण कार्य थे। इस प्रकार अकबर ने धार्मिक विद्वेष, वैमनस्य एवं कटुता की भावना को समाप्त कर आपसी सद्भाव, सहयोग, एकता एवं धर्म-सहिष्णुता की भावना जगाई, सभी धर्मों और संप्रदायों के लोगों के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया और एक संगठित राष्ट्र के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। यह धार्मिक स्वतंत्रता अकबर की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी और इसके आधार पर निश्चय ही उसे ‘राष्ट्रीय सम्राट’ कहा जा सकता है।

सामाजिक एकता की स्थापना

राजनीतिक समानता की स्थापना और धार्मिक भेदभाव की समाप्ति कर अकबर ने सामाजिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। अकबर के शासनकाल में पहली बार एक ऐसी भारतीय सामाजिक संस्कृति का निर्माण हुआ, जिसमें हिंदू और मुस्लिम आदर्शों का समन्वय हुआ। तीर्थ यात्रा कर और जजिया को भी ख़त्म कर दिया। अकबर का यह कार्य महत्वपूर्ण था क्योंकि जजिया केवल हिंदुओं से लिया जाता था, जिससे हिंदू खुद को अपमानित महसूस करते थे। जजिया को हटा लिये जाने से हिंदू और मुसलमान प्रशासन की दृष्टि में एक सामान हो गये। इसके अलावा, अकबर ने गौ-वध, सती-प्रथा, कन्या-वध जैसी कुरीतियों को समाप्त करने का प्रयास किया और बाल-विवाह को भी बंद करा दिया। इसी प्रकार मुसलमानों के दाढ़ी रखने, गो-मांस भक्षण, शराबखोरी, रमजान का व्रत रखने एवं हज की यात्रा समाप्त करने का प्रयास किया।

मुगल अमीर वर्ग में हिंदू और मुस्लिम दोनों पदाधिकारी थे। इससे मुगल दरबार में सामाजिक संस्कृति का विकास हुआ। वस्त्र, रहन-सहन, भाषा, शिष्टाचार की एकसमान संस्कृति को मुगल मनसबदारों ने अपनाया। मुगल दरबार में नौरोज का पारसी पर्व, ईद-शबेरात आदि मुस्लिम पर्व तथा दीपावली, दशहरा, रक्षाबंधन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि हिंदू पर्व श्रद्धा और उत्साह से मनाये जाते थे। इन पर्वों को संयुक्त रूप से मनाने से सामाजिक स्तर पर हिंदू-मुस्लिम समाज में निचले स्तरों पर भी समन्वय हुआ और एक सुसंगठित राज्य, समाज और राष्ट्र के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। इस प्रकार हिंदुओं और मुसलमानों के सामाजिक आदर्शों को निकट लाकर सामाजिक एकता स्थापित करने का जैसा प्रयास अकबर ने किया, वैसा उससे पहले किसी शासक ने नहीं किया था।

आर्थिक एकता की स्थापना

अकबर का उद्देश्य लोक-कल्याणकारी राज्य स्थापित करना था, जिसमें उसकी प्रजा के सभी वर्गों की साझेदारी हो। अकबर ने जजिया, तीर्थयात्रा कर आदि समाप्त करके कर प्रणाली को समानता के आधार पर गठित किया। चुंगी के मामले में हिंदुओं को 5 प्रतिशत तथा मुसलमानों पर 2.5 प्रतिशत कर देने की भेदभावपूर्ण प्रणाली थी, जिसे अकबर ने समाप्त कर दिया। उसने भू-राजस्व प्रणाली को पुनर्गठित किया, जिसका लाभ कृषकों को मिला, जो अधिकांश हिंदू थे। अकबर ने व्यवसाय और व्यापार को नियंत्रित कर देश की आर्थिक समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया। अकबर ने अनेक प्रकार की दस्तकारियों को देश में प्रोत्साहन मिला, जिसके फलस्वरूप देश विकास एवं समृद्धि की चरम सीमा पर पहुँच गई। इस प्रकार अकबर ने पूरे साम्राज्य में एक सामान कर व्यवस्था लागू की और आर्थिक क्षेत्र में भी साम्राज्य का राष्ट्रीय स्वरूप स्थापित किया, जिसके कारण अलग-अलग संप्रदाय और धर्म के लोगों के मन में राष्ट्रीयता की भावना का तेजी से विकास हुआ।

सांस्कृतिक एकता की स्थापना

अकबर के प्रयासों से पूरे साम्राज्य में सांस्कृतिक एकता स्थापित हुई और भारतीय-इस्लामिक संस्कृति का विकास हुआ। उसने फारसी को राज्य की भाषा बनाया और एक अनुवाद विभाग की स्थापना की। उसने 1583 ई. में अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना द्वारा न केवल ‘तुज़्क-ए-बाबरी’ का फ़ारसी में अनुवाद करवाया, बल्कि महाभारत (रज़्मनामा), गीता, रामायण, बाइबिल, कुरान, अथर्ववेद, पंचतंत्र इत्यादि का फारसी में और कुछ फारसी ग्रंथों का संस्कृत में भी अनुवाद करवाया। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूँनी ने ‘रामायण’ तथा ‘सिंहासन बत्तीसी’ का, फैजी ने ‘पंचतंत्र’ का और हाजी इब्राहिम सरहिंदी ने ‘अथर्ववेद’ का फारसी भाषा में अनुवाद किया था। ‘राजतरंगिणी’ (राजाओं की नदी) का अनुवाद मौलाना शाह मोहम्मद शाहाबादी ने किया था। कश्मीर के शासक जैनुल आब्दीन ने भी ‘राजतरंगिणी’ को फारसी में अनुवादित करवाया था।

अकबर ने अपने दरबार में अनेक कलाकारों, कवियों, चित्रकारों, संगीतकारों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन भी दिया। उसके काल में ही हिंदी के श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना की गई। अब्दुर्रहीम खानखाना उसके दरबार का श्रेष्ठ हिंदी कवि था, जिसका महाकवि तुलसीदास से घनिष्ठ परिचय था। अकबर के शासनकाल में तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ तथा सूरदास ने कृष्ण भक्ति के अमर गीतों की रचना की। अबुल फ़जल ने ‘आईन-ए-अकबरी’ और ‘अकबरनामा’ की रचना की थी।

कला के क्षेत्र में भारतीय-इस्लामी शैलियों के मिश्रण से एक नवीन शैली का जन्म हुआ। इस राष्ट्रीय शैली के अनुपम उदाहरण फतेहपुर सीकरी में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार चित्रकला और संगीत के क्षेत्र में भी विभिन्न कला-पद्धतियों का समन्वय एवं विकास हुआ और ईरानी, इस्लामी और हिंदू कला एक-दूसरे के निकट आईं। अकबर के दरबार में उत्कृष्ट चित्रकार तथा संगीतकार थे, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही कलाकार थे, जिन्हें अकबर के उदार वातावरण में नवीन शैलियों को विकसित करने का अवसर प्राप्त हुआ था। अकबर के दरबार के प्रसिद्ध चित्रकार अब्दुल समद था। इसके अलावा मीर सैय्यद अली, दसवंत, बसावन, मुकुंद अकबर के दरबार के चित्रकार थे।, बसावन की सर्वोत्कृष्ट कृति है- एक कृशकाय घोड़े के साथ एक मजनूँ को निर्जन क्षेत्र में भटकता हुआ चित्र। हिंदुस्तानी संगीत के जाने-माने गायक तानसेन अकबर के दरबार के प्रसिद्ध संगीतकार थे, जो सूफी संत मोहम्मद गौस के शिष्य थे।

इस प्रकार अकबर की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक एकीकरण तथा समन्वय की नीतियों के कारण उसे राष्ट्रीय सम्राट कहना युक्तिसंगत है। इस राज्य में सभी वर्गों को समानता, धार्मिक स्वतंत्रता, सम्मान प्राप्त था और किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं था। अकबर सभी वर्गों का सम्राट था और सभी वर्गों को समृद्ध तथा सुखी बनाना उसका उद्देश्य था। विभिन्न वर्गों को निकट लाकर एक राष्ट्र के निर्माण का महान कार्य उसने आरंभ किया था। भारतीय इतिहास में उसे इसीलिए महान कहा गया है क्योंकि मध्यकाल में वही एकमात्र सम्राट था, जिसने इस कार्य को किया था। बाद के शासकों में इतनी क्षमता, दूरदर्शिता, शक्ति-संपन्नता नहीं थी कि वे इस कार्य को पूर्णता तक पहुँचाते।

अकबर प्रशंसा का पात्र है क्योंकि उसने इस कार्य को करने का गंभीर प्रयत्न किया था। मालेसन का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि, ‘जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि उसने क्या किया, किस युग में किया तो हम इस बात को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि सम्राट उन महान विभूतियों में से था जिन्हें परमात्मा राष्ट्रीय आपत्ति के समय शांति तथा सहिष्णुता के मार्ग पर चलने के लिए भेजता है, जिससे लाखों लोगों को सुख मिल सके।’ वास्तव में अकबर की महानता इस कारण भी थी कि वह पूर्णतया भारतीय हो गया था।

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