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देवगिरि का यादव (सेउण) राजवंश
दकन में देवगिरि के यादव (सेउण) वंश का राजनीतिक उत्कर्ष बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में हुआ। किंतु इस वंश का अभ्युदय नवीं शती के मध्य में ही नासिक-अहमदाबाद क्षेत्र में हो चुका था। धारवाड़ जिले से प्राप्त कतिपय अभिलेखों से पता चलता है कि आरंभ में इस यादव कुल के पूर्वज दक्कन में एक छोटी-सी रियासत पर राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे। बाद में, राष्ट्रकूटों के अवनतिकाल में उन्होंने कल्याणी के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार ली और पश्चिमी दक्कन पर शासन करने लगे। चालुक्यों के पतन के बाद उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और दक्षिण भारत के एक बड़े हिस्से पर शासन किया। भिल्लम पंचम, जैतुगी, सिंहण, कृष्ण, महादेव और रामचंद्र इस वंश के अन्य महत्त्वपूर्ण शासक थे। सेउण यादवों का राज्य अपने चरमोत्कर्ष काल में तुंगभद्रा से लेकर नर्मदा तक विस्तृत था, जिसमें वर्तमान महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्र सम्मिलित थे। आरंभ में यादवों की राजधानी सिन्नार थी। बाद में, भिल्लम पंचम ने अपने राज्य के केंद्र में स्थित देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद) को सेउण राज्य की राजधानी बनाया। किंतु मुस्लिम आक्रमणों के खतरों की अनदेखी करना देवगिरि के यादवों को बहुत महंगा पड़ा और रामचंद्र को खिलजी सुल्तानों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। अंततः 1318 ई. में कुतबुद्दीन मुबारकशाह खिलजी ने रामचंद्र के दामाद हरपालदेव की हत्याकर यादव राज्य के अस्तित्व को मिटा दिया। सेउण (यादव) संभवतः जैन और वैष्णव धर्मानुयायी थे। उनके राजकीय ध्वज पर गरुड़ की आकृति और कुछ सिक्कों पर गरुड़ तथा हनुमान का अंकन मिलता है।
ऐतिहसिक स्रोत
सेउणदेस और देवगिरि के यादवों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक और पुरातात्त्विक दोनों ही स्रोतों से सहायता मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में रामायण, महाभारत तथा पुराणों के अलावा जैनग्रंथ विविधकल्पतीर्थ, संगीत-रत्नाकर, सूक्तिमुक्तावली, भानुविलास, कीर्तिकौमुदी, हम्मीरमदमर्दन, प्रतापचरित्र आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। किंतु यादवों इतिहास की जानकारी के लिए महादेव के मंत्रिन् हेमाद्रिकृत चतुर्वर्ग चिंतामणि (1260-1270 ई.) महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रंथ में व्रतखंड, दानखंड, तीर्थखंड और मोक्षखंड नामक चार खंड हैं, किंतु इसका एक प्रायश्चित्तखंड नामक पाँचवाँ खंड भी है। चतुर्वर्ग चिंतामणि का व्रतखंड ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक उपयोगी है क्योंकि इसी खंड में आरंभिक यादव शासकों की वंशावली मिलती है। पुरातात्त्विक स्रोतों के रूप में विभिन्न स्थानों से पाये गये अभिलेख, सिक्के, मंदिर आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यादव अभिलेखों में भिल्लम द्वितीय का ग्रामदान से संबंधित संगमनेर दानपत्र इस वंश का पहला अभिलेख है। इसके अलावा, अंजनेरी शिलालेख, गडग शिलालेख, मुतिगि शिलालेख, अंबे शिलालेख, पैठन शिलालेख, पुरुषोत्तमपुरी ताम्रपत्र भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। समकालीन चालुक्यों, होयसलों, काकतीयों, परमारों और अन्य अनेक राजाओं के अभिलेखों से भी यादवों के संबंध में सूचना मिलती है। अल्बरूनी, इसामी, फिरिश्ता, वसाफ जैसे मुस्लिम लेखकों के विवरणों से भी यादवों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है।
यादव वंश की उत्पत्ति और मूल निवास-स्थान
यादवों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक धारणाएँ प्रचलित हैं। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में इनकी उत्पत्ति महाराज ययाति के पुत्र यदु से बताई गई है, जिनके वंशज कालांतर में ‘यादव’ कहे गये। यादव अभिलेखों में इस वंश के शासकों ने स्वयं को ‘यदुवंशी कृष्ण’ का वंशज बताते हुए अपना संबंध द्वारावती अर्थात् द्वारिका से जोड़ा है और अपने आपको ‘द्वारावतीपुरवराधीश्वर’ तथा ‘विष्णुवंशोद्भव’ बताया है। हेमाद्रिकृत ‘चतुर्वर्ग चिंतामणि’ (1260-1270 ई.) के ‘व्रतखंड’ में यादवों को ‘चंद्रवंशी क्षत्रिय’ बताया गया है। इसकी पुष्टि 13वीं शती के मराठी संतकवि ज्ञानेश्वरकृत भगवत्गीता की मराठी टीका से भी होती है, जिसमें यादव शासक रामचंद्र को ‘चंद्रवंशी क्षत्रिय’ घोषित किया गया है। इस परंपरा की पुष्टि जैन अनुश्रुतियों से भी होती है।
आभिलेखिक प्रमाणों से पता चलता है कि नवीं शताब्दी के अंत में यादव महाराष्ट्र के नासिक क्षेत्र में निवास करते थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि यादव महाराष्ट्र के मराठा क्षत्रियों से संबंधित थे। अल्तेकर जैसे इतिहासकार मानते हैं कि यादव लोग मूलतः महाराष्ट्र-कर्नाटक क्षेत्रों के ही निवासी थे। कालांतर में राजसत्ता प्राप्ति के बाद उन्होंने अपने कुल का संबंध मथुरा तथा द्वारिका के प्रसिद्ध यदुवंशी क्षत्रियों से जोड़ लिया। किंतु 1169 ई. के एक लेख से ज्ञात होता है कि यादव वंश का संस्थापक काठियावाड़ से दक्षिणापथ आया था। इस प्रकार यादवों को महाराष्ट्र का मूलनिवासी मानना उचित नहीं है।
पी.बी. देसाई के अनुसार देवगिरि के सेउण (यादव) मूलतः कन्नड़ देश के निवासी थे क्योंकि यादव कुल के अनेक अभिलेख कन्नड़ भाषा में मिलते हैं। अभिलेखों में यादव शासकों की उपाधि ‘कर्णाटराजवंशाभिराम’ मिलती है और इस वंश के प्रारंभिक शासकों के धडियप्प, भिल्लम, राजगि, वड्डिग और वेसुगी जैसे विशिष्ट द्रविड़ कन्नड़ नाम थे, जो उनके कन्नड़ मूल से संबंधित होने की पुष्टि करते हैं। धारवाड़ जिले के कुछ शिलालेखों में भी 9वीं शताब्दी में वहाँ शासन करने वाले कुछ यादव प्रमुखों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। प्रमाणों से लगता है कि दृढ़प्रहार का मूल स्थान न तो काठियावाड़ के द्वारका में था, न ही कर्नाटक के धारवाड़ में, बल्कि महाराष्ट्र में नासिक के आसपास था, जहाँ उसने अपने छोटे राज्य की स्थापना की थी।
किंतु अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि यादव मूलतः उत्तर भारत के निवासी थे। उन्होंने दक्कन की ओर अभिगमन किया और कालांतर में मराठों को जीतकर अपना शासन स्थापित कर लिया। यादव अभिलेखों में इस वंश के शासकों ने स्वयं को यदुवंशी कृष्ण का वंशज बताते हुए अपना संबंध द्वारावती अर्थात् द्वारिका से जोड़ा है और अपने आपको ‘द्वारावतीपुरवराधीश्वर’ कहा है। पौराणिक अनुश्रुतियों से भी पता चलता है कि अपने जीवन के अंतिम भाग में सात्वत (यादव) कृष्ण मथुरा से द्वारिका चले गये थे। संभवतः वहीं से यादवों का एक दल 9वीं शती के मध्य में नासिक-अहमदाबाद क्षेत्र में जाकर बस गया था-
सर्वेऽपि पूर्वमथुराधिनाथाः कृष्णादितो द्वारवतीश्वरास्ते।
सुबाहुसूनोरनुदक्षिणाशाप्रशासिनो यादववंशवीराः।।
हेमाद्रि के ‘चतुर्वर्गचिंतामणि’ में भी यादवों के मथुरा से द्वारिका होते हुए दक्षिणापथ में जाकर बसने का उल्लेख मिलता है। काठियावाड़ के खानदेश जैसे कुछ स्थानों में यादवों के होने के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। 1169 ई. के एक यादव अभिलेख से ज्ञात होता है कि यादवों ने द्वारिका (द्वारावती) से दक्षिणापथ जाकर चंद्रादित्यपुर (चंदौर, नासिक) में अपने राज्य की स्थापना की थी। जिनप्रभासूरिकृत ‘विविधकल्पतीर्थ’ से भी स्पष्ट है कि यादव मूलरूप से उत्तर भारत से संबंधित थे।
यादव वंश का राजनीतिक इतिहास
आरंभिक यादव शासक
कर्नाटक में यादवों का इतिहास नवीं शताब्दी के बाद से मिलता है, जहाँ वे आरंभ में सामंत के रूप में शासन करते थे। परवर्ती यादव शासक महादेव (1260-1270 ई.) के मंत्रिन् रहे हेमाद्रिकृत ‘चतुर्वर्ग चिंतामणि’ के ‘व्रतखंड’ की भूमिका में सुबाहु का उल्लेख मिलता है, जिसकी राजधानी द्वारावती थी और जिसने अपने राज्य को अपने चार पुत्रों में बाँट दिया था। सुबाहु का सार्वभौमिक आधिपत्य स्पष्ट रूप से पौराणिक है, किंतु दृढ़प्रहार की ऐतिहासिकता प्रमाणों से सिद्ध है और संभवतः वही दक्षिण की ओर अभिगमन करने वाला पहला व्यक्ति था।
दृढ़प्रहार (860-880 ई.)
सेउना (यादव) वंश में सबसे पहला नाम दृढ़प्रहार (860-880 ई.) का मिलता है, जो जैन लेखक जिनप्रभासूरि के अनुसार द्वारिका के राजा वज्रकुमार का पुत्र था। जैन ग्रंथ विविधकल्पतीर्थ’ के अनुसार दृढ़प्रहार एक पराक्रमी पुरुष था, जिसने अपने पौरुष के बल पर चोरों और डाकुओं से जनता की रक्षा की थी और जनता ने स्वयं उसे ‘तलरापया’ (गाँव का रक्षक) नियुक्त किया था। संभवतः मान्यखेट के राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम की दुर्बलता तथा प्रतिहार शासक भोज प्रथम के साथ युद्धों में व्यस्तता के कारण नासिक-अहमदाबाद क्षेत्र में अशांति फैल गई थी। दृढ़प्रहार ने 860 ई. के लगभग राष्ट्रकूटों की ओर से काठियावाड़ क्षेत्र में शांति स्थापित की और चंद्रादित्यपुर (आधुनिक चंडोर) की स्थापना कर उसे अपनी शक्ति का केंद्र बनाया। किंतु दृढ़प्रहार एक योद्धा मात्र था और उसे सामंत होने का गौरव नहीं मिल सका था। इस प्रकार दृढ़प्रहार यादव वंश का पहला ऐतिहासिक शासक था, जिसका उल्लेख वसई (बेसिन) और अस्वि शिलालेखों में मिलता है। उसका शासनकाल लगभग 860 ई. से लेकर 880 ई. तक माना जा सकता है।
सेउणचंद्र प्रथम (880-900 ई.)
दृढ़प्रहार के बाद उसका पुत्र सेउणचंद्र प्रथम यादव कुल का उत्तराधिकारी हुआ, जो एक शक्तिशाली शासक था। सेउणचंद्र ने गुर्जर-प्रतिहारों के विरुद्ध राष्ट्रकूटों की सैन्य-सहायता की, जिसके बदले उसे राष्ट्रकूटों ने नासिक में अपना सामंत नियुक्त किया। संगमनेर अभिलेख से ज्ञात होता है कि सेउणचंद्र प्रथम ने नासिक-गोदावरी क्षेत्र में ‘सेउणपुर’ नामक एक नये नगर को अपनी राजधानी बनाया और अपने राज्य को ‘सेउणदेस’ नाम दिया। सेउणपुर की पहचान नासिक जिले के सिन्नार (सेंदिनेरी) से की जाती है। सेउणचंद्र को यादव राजवंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है; क्योंकि यादव अभिलेखों में पहली बार उसकी सामंती उपाधियाँ मिलती हैं। उसका राज्यकाल अनुमानतः 880 ई. से 900 ई. के बीच माना जाता है।
सेउणचंद्र प्रथम के उत्तराधिकारियों में धड़ियप्प प्रथम, भिल्लम प्रथम और राजुगि या श्रीराज का नाम मिलता है, जिनका कार्यकाल 900 ई. से 950 ई. के बीच निर्धारित किया जा सकता है।
वडिग प्रथम (950-970 ई.)
राजुगि का उत्तराधिकारी वडिग प्रथम 950 ई. के आसपास सेउणवंश का उत्तराधिकारी हुआ। वह संभवतः राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय का सामंत था। वडिग का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के छोटे भाई धौरप्प या ध्रुव की पुत्री राजकुमारी वोहियावा से हुआ था, जिससे सेउणदेस के यादव वंश की राजनीतिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई होगी। वडिग प्रथम का शासनकाल 950 ई. से 970 ई. तक माना जा सकता है।
वेडुगी का उत्तराधिकारी धड़ियप्प द्वितीय 970 ई. के लगभग यादव वंश की गद्दी पर बैठा। किंतु धड़ियप्प के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं है। धड़ियप्प ने लगभग 970 ई. से 985 ई. तक शासन किया था।
भिल्लम द्वितीय (985-1005 ई.)
धड़ियप्प द्वितीय के बाद उसका पुत्र भिल्लम द्वितीय यादव वंश का उत्तराधिकारी हुआ। यद्यपि भिल्लम द्वितीय ने लगभग 985 ई. में राष्ट्रकूट सामंत के रूप में उत्तराधिकार ग्रहण किया था और उसका विवाह भी लक्ष्मी नामक एक राष्ट्रकूट राजकुमारी के साथ हुआ था, किंतु जब कल्याणी के चालुक्य तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों को उखाड़ फेंका, तो भिल्लम ने चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली। चालुक्य सामंत के रूप में भिल्लम ने परमारों के विरूद्ध अभियान में तैलप की सैनिक सहायता की। उसने परमार शासक मुंज के विरुद्ध चालुक्य तैलप के उस ऐतिहासिक अभियान में भी सैनिक सहयोग किया था, जिसमें मुंज की हत्या कर दी गई थी। 1000 ई. के संगमनेर अभिलेख में दावा किया गया है कि ‘युद्ध के मैदान में उसने मुंज का पक्ष लेनेवाली श्रीलक्ष्मी को दंडित किया और उसे रणराजरंग (तैलप द्वितीय) के महल में एक आज्ञाकारी पत्नी के रूप में रहने के लिए विवश किया था। संभवतः इस सहायता के बदले तैलप द्वितीय ने उसे अहमदनगर और खानदेश का कुछ क्षेत्र देकर पुरस्कृत किया था, जिससे उसका पैतृक सामंतक्षेत्र और भी विस्तृत हो गया।
भिल्लम द्वितीय की महासामंत, विजयाभरण, कंदुकाचार्य, सेलविडगा, पंचमहाशब्द की उपाधियाँ मिलती हैं। उसने संगमनेर में विजयाभरणेश्वर नामक शिवमंदिर का निर्माण करवाया और मंदिर के व्यय के लिए एक ग्रामदान किया था। भिल्लम ने इस ग्रामदान से संबंधित संगमनेर दानपत्र जारी किया, जो यादववंश का पहला अभिलेख है। भिल्लम द्वितीय का शासनकाल अनुमानतः 985 ई. से 1005 ई. तक माना जा सकता है।
वेसु या वेसुगि प्रथम (1005 ई. से 1025 ई.)
भिल्लम द्वितीय के उपरांत उसका पुत्र वेसु या वेसुगि 1005 ई. में यादव वंश की गद्दी पर बैठा। उसका विवाह गुजरात के चालुक्य सामंत की पुत्री नविल्लादेवी के साथ हुआ था। किंतु वेसुगि के शासन के संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है। वेसुगि ने संभवतः 1005 ई. से 1025 ई. तक शासन किया था।
भिल्लम तृतीय (1025-1040 ई.)
वेसुगि (वेसु) के उत्तराधिकारी भिल्लम तृतीय ने लगभग 1025 ई. में शासन ग्रहण किया। वह कल्याणी के चालुक्य शासक जयसिंह प्रथम का विशेष कृपापात्र था। भिल्लम ने परमार शासक भोज (1010-1055 ई.) के विरूद्ध जयसिंह प्रथम की सैनिक सहायता की। फलतः जयसिंह ने भिल्लम के साथ अपनी पुत्री आवल्लदेवी का विवाह करके उसे अपना महासामंत नियुक्त कर दिया।
सेउणचंद्र द्वितीय के बसई (बेसिन) अभिलेख के अनुसार भिल्लम तृतीय ने कई युद्धों में भाग लिया था और ‘संग्रामराम’ की उपाधि धारण की थी। कलस बुद्रुक दानपत्र में उसकी उपाधि ‘महासामंत’ मिलती है। यादव लेखों में उसे ‘यादवनारायण’ कहा गया है और उसके द्वारा दिये गये ‘कलाग्राम’ (अहमदाबाद) अग्रहारदान की प्रशंसा की गई है। भिल्लम तृतीय ने संभवतः 1025 ई. से 1040 ई. तक शासन किया।
हेमाद्रि की वंशावली के अनुसार भिल्लभ तृतीय के बाद वेसुगी (यदुगी) द्वितीय और भिल्लम चतुर्थ सिंदनगर (सिन्नर) के यादवकुल के उत्तराधिकारी हुए, जिन्होंने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया। किंतु इन सामंत शासकों के संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है।
सेउणचंद्र द्वितीय (1050-1080 ई.)
सेउणचंद्र द्वितीय लगभग 1050 ई. में यादव वंश का उत्तराधिकारी हुआ, जो एक शक्तिशाली शासक था। यद्यपि सेउणचंद्र द्वितीय का अपने पूर्ववर्तियों के साथ संबंध स्पष्ट नहीं है, किंतु अहमदाबाद से प्राप्त शक संवत् 974 (1052 ई.) के एक लेख के अनुसार उसने (सेउणचंद्र) अपने वंश की प्रतिष्ठा का उसी प्रकार उद्धार किया, जिस प्रकार वराहरूपी विष्णु (हरि) ने संपूर्ण पृथ्वी का उद्धार किया था।
सेउणचंद्र द्वितीय एक कुशल राजनीतिज्ञ था। बेसिन ताम्रपत्र (1069 ई.) और हेमाद्रि के विवरण के अनुसार उसने कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यारोहण में उसके प्रतिद्वंद्वी सोमेश्वर द्वितीय के विरूद्ध महत्त्वपूर्ण सहायता की थी। किंतु अस्वि अभिलेख में सेउणचंद्र के पुत्र एरम्मदेव को ‘विक्रमादित्य के भाग्य को चमकानेवाला’ कहा गया है। इससे लगता है कि एरम्मदेव ने अपने पिता की ओर से कल्याणी के उत्तराधिकार युद्ध में विक्रमादित्य षष्ठ की सहायता की थी।
सेउणचंद्र ने ‘महामंडलेश्वर’ की उपाधि धारण की और महाराष्ट्र के अहमदनगर, नासिक तथा खानदेश में अपने राज्य का विस्तार किया। 1069 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि सेउणचंद्र ने अपने मंत्रिमंडल में बड़ी-बड़ी उपाधियों से युक्त सात अधिकारियों को नियुक्त किया था। सेउणचंद्र द्वितीय का शासनकाल लगभग 1050 ई. से 1080 ई. तक माना जाता है।
एरम्मदेव (1080-1105 ई.)
सेउणचंद्र द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र एरम्मदेव हुआ। उसका विवाह योगल्ला नामक राजकुमारी के साथ हुआ था। एरम्मदेव ने कल्याणी के उत्तराधिकार युद्ध में अपने पिता की ओर से विक्रमादित्य षष्ठ की सहायता की थी, इसलिए चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे ‘महामंडलेश्वर’ मनोनीत किया था। एरम्मदेव का शासनकाल अनुमानतः 1080 ई. से लेकर 1105 ई. के बीच माना जाता है।
सिंहराज (1105-1120 ई.)
एरम्मदेव के बाद उसका छोटा भाई सिंहराज 1105 ई. के लगभग यादव वंश का उत्तराधिकारी हुआ। उसने अपने अधिराज चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ के कर्पूरव्रत की समाप्ति के अवसर पर कर्पूरहाथी उपहार में दिया था। 1120 ई. के लगभग सिंहराज की मृत्यु हो गई।
सिंहराज के बाद लगभग 50 वर्षों तक यादवों के इतिहास की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। अंजिनेर अभिलेख से पता चलता है कि 1142 ई. में नासिक क्षेत्र पर सेउणचंद्र नामक एक राजा शासन कर रहा था, जो संभवतः यादव कुल से संबंधित था अथवा यादवों का ही कोई उपसामंत था।
मल्लुगि प्रथम (1145-1160 ई.)
सेउणचंद्र के बाद 1145 ई. के लगभग मल्लुगि प्रथम यादव वंश की गद्दी पर बैठा, जो चालुक्य शासक तैलप तृतीय का सामंत था और जिसने कलचुरि नरेश विज्जण के विरुद्ध तैलप तृतीय की सैनिक सहायता की थी। संभवतः बाद में, मल्लुगि ने चालुक्यों की दुर्बलता का लाभ उठाकर बरार के कुछ चालुक्य क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। मल्लुगि के शासन का अंत 1160 ई. के लगभग हुआ।
मल्लुगि प्रथम के दो पुत्र थे- अमरगांगेय और कर्ण। मल्लुगि प्रथम के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र अमरगांगेय 1160 ई. के लगभग यादव राज्य की गद्दी पर बैठा। संभवतः उसने छोटे भाई कर्ण को अपना उपसामंत नियुक्त किया। अल्पकाल में अमरगांगेय की मृत्यु हो गई। अमरगांगेय के बाद अमरमल्लुगि, गोविंदराज और कालिय बल्लाल का नाम मिलता है, जो दुर्बल और अयोग्य होने के साथ-साथ संभवतः उत्तराधिकार के युद्ध में भी उलझे हुए थे। सिन्नार (सेंदिनेरी) की अराजकता और पारस्परिक संघर्ष से तंग आकर मल्लुगि प्रथम के छोटे पुत्र कर्ण ने अपने पुत्र भिल्लम पंचम के सहयोग से मूल यादव शाखा से इतर एक दूसरे यादव राज्य की स्थापना की। बाद में, भिल्लम पंचम ने सिन्नार के परंपरागत यादव राज्य को भी हस्तगत कर लिया और देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया।
यादव (सेउण) वंश के स्वतंत्र शासक
भिल्लम पंचम (1175-1193 ई.)
सेउण (यादव) वंश की स्वतंत्र सत्ता का संस्थापक भिल्लम पंचम (1175-1193 ई.) था। गडग शिलालेख के अनुसार वह कर्ण का पुत्र और यादव शासक मल्लुगि का पौत्र था। भिल्लम ने सबसे पहले दक्षिण के कुछ क्षेत्रों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया और उसके बाद अपने पैतृक राज्य की अराजकता का लाभ उठाकर सिन्नार के सिंहासन पर अधिकार किया। चालुक्य शक्ति के पतन के बाद भिल्लम ने 1187 ई. के आसपास संप्रभुता की घोषणा की और कर्नाटक में पूर्वी चालुक्य क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए होयसल वीरबल्लाल द्वितीय के साथ युद्ध किया और 1189 ई. में कल्याणी पर अधिकार कर लिया। किंतु दो साल बाद 1191 ई. में वीरबल्लाल ने सोरातुर के युद्ध में उसे पराजित कर दिया।
भिल्लम पंचम की राजनीतिक उपलब्धियाँ
हेमाद्रि से पता चलता है कि भिल्लम ने अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ में सर्वप्रथम कोंकण और मध्य महाराष्ट्र के छोटे-छोटे राजाओं को पराजित कर अनेक पहाड़ी दुर्गों पर अधिकार किया। हेमाद्रिकृत ‘चतुर्वर्ग चिंतामणि’ के ‘व्रतखंड’ के अनुसार उसने सबसे पहले अंतल के शासक से श्रीवर्धन (कोंकण या नागपुर) नामक बंदरगाह छीना, प्रत्यंडक (उस्मानाबाद) के राजा को पराजित किया और मंगलवेष्टक (शोलापुर) के शासक विल्हण का वधकर कल्याण के दुर्ग को जीत लिया। यही नहीं, उसने तत्कालीन होयसल शासक को भी पराजित करके मार डाला था-
यः श्रीवर्धनमाससाद नगरं क्षोणीपतेरन्तलात्।
यः प्रत्यण्डकभूभृतं च समरे दृष्टं व्यजेष्ट क्षणात्।।
यो वा मंगलवेष्टकं क्षितिपतिं श्रीविल्लणं जाध्निवान्।
कल्याणश्रियमप्यवाप्य विदधे यो होसलेशं व्युसम्।।
इस प्रकार इन विजयों के द्वारा भिल्लम ने पूना, शोलापुर और रत्नागिरी जिलों के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद, भिल्लम ने 1183-84 ई. के आसपास कालिय बल्लाल को अपदस्थकर नासिक के अपने पैतृक सेउणदेस पर अधिकार किया। हेमाद्रि के व्रतखंड से भी पता चलता है कि यादवों के परंपरागत राज्य (सेउणदेस) में अराजकता व्याप्त थी और भाग्यश्री ने सेउणदेश के सिन्नार (सेंदिनेरी) राजसिंहासन पर भिल्लम पंचम को आसीन कराकर यादवों के राज्य का स्वामी बनाया था-
महीपतेस्तस्य विहाय पुत्रान् गुणानुरक्ता यदुवंशलक्ष्मी।
श्रीभित्तमं तस्य ततः पितृव्यमव्यात्र राजद्भुजमाजगाम।
संभवतः यही कारण है कि भिल्लम के कुछः अभिलेखों में 1184 ई. को उसके शासनकाल का पहला वर्ष बताया गया है।
भिल्लम पंचम के राज्यारोहण के समय दक्षिणापथ की राजनीतिक परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। एक ओर कल्याणी का चालुक्य शासक सोमेश्वर चतुर्थ कलचुरियों और होयसलों के आक्रमण से त्रस्त था और दूसरी ओर लिंगायत संप्रदाय के अभ्युदय तथा आंतरिक विद्रोहों के कारण कलचुरियों की शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी। इस राजनीतिक अस्थिरता के कारण भिल्लम पंचम को अपनी विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने का अवसर मिल गया।
गुजरात और मालवा की विजय: भिल्लम ने होयसलों और कलचुरियों के परस्पर संघर्ष में न उलझकर लाट (दक्षिणी गुजरात) और मालवा क्षेत्र की विजय के लिए अभियान किया। इस समय उसे दक्षिण की ओर से कोई विशेष खतरा नहीं था क्योंकि कल्याणी के चालुक्य और कलचुरि न केवल परस्पर युद्धरत थे, बल्कि होयसलों के विरुद्ध संघर्ष में भी उलझे हुए थे। गुजरात और मालवा की सामयिक राजनीति भी भिल्लम पंचम के अनुकूल थी, क्योंकि 1176 ई. में गुजरात का तत्कालीन चौलुक्य शासक अजयपाल अपने द्वारपाल द्वारा मार डाला गया था और उसका बड़ा पुत्र मूलराज द्वितीय (1176-78 ई.) बाल्यावस्था में ही राजा हुआ था। यही नहीं, परमार नरेश विंध्यवर्मन् ने चौलुक्यों से मालवा छीन लिया था। चौलुक्य-परमार शत्रुता का लाभ उठाते हुए भिल्लम पंचम ने मालवा और गुजरात पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। 1189 ई. के मुतुगि अभिलेख में दावा किया गया है कि भिल्लम ‘मालवा के लिए प्रचंड सिरदर्द’ और ‘गुर्जररूपी हंसों के समूह के लिए घनगर्जन’ था। इसकी पुष्टि ‘मुक्तमुक्तावली’ से भी होती है-
गुर्जरभूभृत्कटके कंटकविषमेऽतिदुर्गम येन।
भगदत्त कीर्तिभाजा दुष्टगजः स्वेच्छया नीतः।।
भिल्लम पंचम ने अपने मालवा और गुजरात अभियान के दौरान मारवाड़ (राजपूतों) तक के क्षेत्र को रौंद डाला। किंतु लगता है कि नड्डुल (नाडौल) के तत्कालीन चाहमान नरेश केल्हण (1165-1192 ई.) ने यादव सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया था (दक्षिणाधीशोदंचभिल्लम नृपतेर्माहनम्)। भिल्लम पंचम के उत्तर भारतीय अभियान में यादव सेना का नेतृत्व यादव सेनापति जाल्हण ने किया था।
मुतुगी अभिलेख में दावा किया गया है कि भिल्लम ने अंग (भागलपुर), बंग (बंगाल), पंचाल (रोहिलखंड) और नेपाल के राजाओं को हराया था। किंतु यह एक प्रशस्तिमात्र है और अभी उसकी सेनाओं के मालवा के पूर्व या मारवाड़ के उत्तर में जाने का कोई प्रमाण भी नहीं मिला है।
गुजरात, मालवा और मारवाड़ के विरूद्ध किये गये साहसिक अभियानों से भिल्लम पंचम को कोई क्षेत्रीय लाभ तो नहीं हुआ, किंतु इससे उसका आत्म-विश्वास इतना बढ़ गया कि उसने दक्षिण में चालुक्य-होयसल संघर्ष में हस्तक्षेप कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ करने की योजना बनाई।
होयसलों से संघर्ष: भिल्लम के उत्तरी आक्रमणों के तुरंत बाद होयसल शासक वीरबल्लाल ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए कल्याणी के चालुक्य सोमेश्वर चतुर्थ के राज्य पर आक्रमण किया। होयसलों की घुड़सवार सेना ने चालुक्यों की हस्तिसेना को तितर-बितरकर बुरी तरह पराजित कर दिया और चालुक्य सोमेश्वर अपनी राजधानी कल्याणी को छोड़कर जयंतीपुर या बनवासी भाग गया, जहाँ अपने कदंब सामंत कामदेव की सहायता से 1189 ई. तक जीवित रहा।
इसी समय भिल्लम पंचम ने चालुक्य-होयसल संघर्ष में हस्तक्षेप किया और उत्तरी चालुक्य राज्य के दुर्गों- लिंगसुबूर, तरडिगडिनाड, बेलबोला, किसुकाड़नाड को जीत लिया। होयसल वीरबल्लाल के कल्याणी पर अधिकार करने के पहले ही भिल्लम ने चालुक्य राजधानी कल्याणी पर अपना झंडा फहरा दिया। हेमाद्रि के विवरणों से पता चलता है कि उसने होयसल बल्लाल की सेना को खदेड़कर कल्याणी के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और होयसल सेना का मैसूर (कर्णाटक राज्य) के हासन तक पीछा किया। इस प्रकार भिल्लम ने होयसल बल्लाल द्वारा विजित कर्नाटक के दक्षिणी चालुक्य क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। इसकी पुष्टि 1189 ई. के अण्णिगेरे अभिलेख से भी होती है, जिसमें भिल्लम को ‘कर्णाटश्रीवल्लभ’ (कर्नाटक की राजलक्ष्मी का प्रिय) कहा गया है।
हेमाद्रि का यह दावा कि भिल्लम ने होयसल के राजा को मार डाला, निराधार है। संभवतः इस संघर्ष में होयसल राजपरिवार का कोई एक सदस्य मारा गया था। भिल्लम की घुड़सवार सेना के प्रमुख संचालक पेरिय सहन ने इस युद्ध में अग्रणी भूमिका निभाई थी और भिल्लम ने पेरिय सहन को इन नवविजित प्रदेश का प्रशासक नियुक्त कर दिया। भिल्लम के कुछ अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने 1187 ई. में एक नवीन संवत् का प्रवर्तन किया था। संभवतः इसी वर्ष उसने वीरबल्लाल पर विजय और कल्याणी पर अधिकार कर अपनी संप्रभुता का दावा किया था।
कल्याणी होयसल सीमा के बहुत निकट थी, इसलिए भिल्लम ने महाराष्ट्र के मध्य में स्थित देवगिरि को यादव साम्राज्य की नई राजधानी बनाया। हेमाद्रि ने स्पष्ट रूप से भिल्लम को देवगिरि का संस्थापक बताया है और 1196 ई. के एक लेख में इस नये नगर को यादव साम्राज्य की राजधानी के रूप में वर्णित किया गया है।
होयसलों से पराजय: यादवों से पराजित होने के बाद भी होयसल वीरबल्लाल निराश नहीं हुआ। दो वर्ष तक सैनिक तैयारी करने के बाद उसने दक्कन पर आधिपत्य के लिए चालुक्यों के दक्षिणी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया। गडग अभिलेख से ज्ञात होता है कि होयसल सेना जब बनवासी और नोलंबवाडि को जीतते हुए धारवाड़ और बीजापुर की ओर बढ़ी, तो होयसलों का सामना करने के लिए भिल्लम पंचम ने 1191 ई. में धारवाड़ के गडग में अपना स्कंधावार स्थापित किया और वहाँ के त्रिकुटेश्वर शिवमंदिर को दान दिया था।
इसके तुरंत बाद, 1191 ई. के अंत में धारवाड़ के निकट सोरातुर के मैदान में होयसल और यादव सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें भिल्लम पंचम बुरी तरह पराजित हुआ और उसके बहुत से सैनिक मारे गये। उसका सेनापति जैत्रपाल लोक्कीगुंडी (लोककुंडी) के किले की रक्षा करता हुआ मारा गया। हरिहर लेख से पता चलता है कि बल्लाल ने सेउण राजा की 12,000 घुड़सवारों तथा 2 लाख पदाति सैनिकों की विशाल सेना को नष्ट कर दिया था। 1192 ई. के गडग अभिलेख के अनुसार बल्लाल ने त्रिकुटेश्वर के शिवमंदिर को अनुदान दिया था, जो भिल्लम पर उसकी विजय का सूचक है। होयसलों के 1198 ई. के बेलूरलेख में कहा गया है कि बल्लाल द्वितीय ने ‘अपनी तलवार को पांड्य राजा के खून से गीला किया, भिल्लम के सिररूपी सान पर रगड़कर तेज किया और जैतुगि के कमलमुखरूपी म्यान में प्रवेश कराया।’ यदि सोरातुर युद्ध में भिल्लम पंचम मारा गया होता, तो अपने 1192 ई. गडग अभिलेख में वीरबल्लाल भिल्लम की मृत्यु का उल्लेख अवश्य करता। ऐसा लगता है कि सोरातुर युद्ध मारा गया उछंगी का पांड्य शासक कामदेव था और जैतुगी का तात्पर्य भिल्लम के सेनापति जैत्रपाल से है, जो भिल्लम का दाहिना हाथ था।
सोरातुर में भिल्लम पंचम की पराजय के बाद बल्लाल की होयसल सेना ने आगे बढ़कर एरंबर (येलबर्गा), कुररुगोद, गुत्ति तथा हंगल जैसे यादव शासित दुर्गों को जीत लिया और यादव सेना को मालप्रभा तथा कृष्णा नदियों के पार खदेड़ दिया। संभवतः अपनी पराजय से निराश वृद्ध भिल्लम की 1191 ई. के अंत में स्वाभाविक रूप से रूप से मृत्यु हो गई।
चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ में वर्णित एक कहानी से लगता है कि पृथ्वीराज का एक विवाह यादव राजा भानु की पुत्री शशिव्रता से हुआ था। पृथ्वीराज तृतीय भिल्लम के समकालीन थे और देवगिरि के यादव राजा भानु का उल्लेख मिलता है। किंतु प्रमाणों के अभाव में यह निश्चित नहीं है कि भिल्लम पृथ्वीराज के ससुर थे।
भिल्लम पंचम यादव वंश का महान् शासक था। वह एक वीर सैनिक के होने साथ-साथ कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने अपने बाहुबल से दक्षिणी महाराष्ट्र और उत्तरी कोंकण में एक स्वतंत्र यादव राज्य की स्थापना की, जो उत्तर में नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में मालप्रभा नदी तक विस्तृत था और जिसमें महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के साथ-साथ गुजरात और मालवा तक के क्षेत्र सम्मिलित थे। भिल्लम पंचम ने देवगिरि को राजधानी होने का गौरव प्रदान किया (चक्रेपुर देवगिरि गिरीश प्रसाद संसादितदिव्यशक्तिः) और परमेश्वर, महाराजाधिराज तथा परमभट्टारक जैसी उपाधियाँ धारण की।
वस्तुतः भिल्लम पंचम देश, काल और परिस्थिति के आंकलन में निपुण था। उसने सही समय पर दक्कन की सर्वोच्चता के संघर्ष में हस्तक्षेप किया और कल्याणी को जीतने की होयसलों की योजना को विफल कर दिया। उसकी सेनाएँ कुछ समय के लिए रायचुर दोआब पर भी कब्ज़ा करने में सफल रहीं। यद्यपि यादव सेनाएँ सोरतुर में पराजित हो गई थीं, फिर भी, वीरबल्लाल ने कृष्णा नदी को पार करने और कल्याणी या देवगिरि पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया। इस प्रकार भीलम एक कुशल सैनिक और चतुर राजनेता होने के साथ-साथ दूरदर्शी शासक था।
भिल्लम ने प्रसिद्ध विद्वान् भास्कर को संरक्षण दिया था। 1189-90 ई. (शक संवत् 1111) के शिलालेख में भिल्लम द्वारा पंढरपुर के विठ्ठल मंदिर को दान देने का उल्लेख मिलता है, जिसमें भिल्लम को ‘चक्रवर्ती यादव’ कहा गया है। 1191 ई. के एक शिलालेख के अनुसार उसने गडग के त्रिकुटेश्वर शिव मंदिर को भी दान दिया था, जिसे बाद में वीरबल्लाल ने भी अनुदान दिया था।
जैतुगि (जैत्रपाल) (1191-1210 ई.)
1191 ई. के अंतिम दिनों में सोरतुर में भिल्लम पंचम की पराजय और मृत्यु के बाद उसका पुत्र जैतुगि या जैत्रपाल प्रथम 1191 ई. में राजसिंहासन पर आसीन हुआ, किंतु यह जैत्रपाल यादव सेनापति जैत्रपाल से भिन्न है, जो लोक्कीगुंडी (लोक्कुंडी) के युद्ध में मारा गया था।
जैतुगि के राज्यारोहण के समय यादव राज्य की स्थिति ठीक नहीं थी। उसे विरासत में शक्तिशाली होयसलों की शत्रुता मिली थी और आशंका थी कि सोरातुर में अपनी विजय के बाद वीरबल्लाल कल्याणी और देवगिरि पर आक्रमण करेगा। जैतुगि ने यादव सेना का पुनर्गठन कर होयसलों के नोलंब-सामंत को पराजित करके सिरगुप्प तथा बेलारी पर अधिकार कर लिया। किंतु उसकी सुसंगठित सैनिक शक्ति के भय से होयसल वीरबल्लाल कृष्णा नदी को पारकर मुख्य यादव क्षेत्रों पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सका। संभवतः दोनों पक्षों ने मालप्रभा और कृष्णा नदी के उत्तरी तथा दक्षिणी किनारों को अपनी-अपनी सीमा स्वीकार कर लिया था।
तेलंगाना की विजय: होयसलों की ओर से निश्चिंत हो जाने के बाद जैतुगी या जैत्रपाल ने तेलंगाना के काकतीय राज्य पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के मुख्यतया दो कारण थे। एक तो, तेलंगाना के काकतीयों और उसके सामंतों की शक्ति बहुत बढ़ चुकी थी और वे स्वयं को यादवों से श्रेष्ठ मानते थे। दूसरे, यादव शासक अपने को पूर्वी चालुक्यों का वास्तविक उत्तराधिकारी समझते थे और इसलिए चालुक्यों के सामंतों को अपनी प्रभुसत्ता के अधीन मानते थे। यही नहीं, गरवापद शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोरातुर में भिल्लम की हार का लाभ उठाते हुए काकतीय शासक रुद्र का भाई महादेव यादव क्षेत्रों की विजय करता हुआ यादवों की राजधानी देवगिरि तक पहुँच गया था।
जैतुगि ने 1194 ई. के आसपास काकतीय राज्य पर आक्रमण किया और तेलंगाना प्रदेश को रौंद डाला। सिंहण द्वितीय के पैठन लेख से ज्ञात होता है कि इस आक्रमण में काकतीय शासक रुद्र युद्धभूमि में मारा गया था। हेमाद्रि के ‘व्रतखंड’ की यादव प्रशस्ति के अनुसार जैतुगि ने राजा रुद्र की बलि देकर वैदिक पुरुषमेध पूरा किया था-
तिलिंगाधिपतेः यशोर्विशसनं रौद्रस्य रुद्राकृतेः।
कृत्वापुरुषमेध यज्ञविधिना लब्ध्वास्त्रिलोकी जयः।।
काकतीय नरेश की हत्या से उसकी सेना में भगदड़ मच गई और यादव सेना ने रुद्र के भतीजे गणपति को बंदी बना लिया। काकतीयों के पालंपेट लेख से भी ज्ञात होता है कि काकतीय राज्य में अव्यवस्था फैल गई थी। भाई की हत्या और पुत्र के बंदी बनाये जाने के बाद गणपति के पिता महादेव ने 1196 ई. में काकतीयों का नेतृत्व संभाला और कुछ समय तक यादवों का प्रतिरोध किया। किंतु महादेव भी अपने भाई रुद्र के समान युद्धभूमि में ही मार डाला गया। इस प्रकार काकतीय राज्य पर जैतुगि का अधिकार हो गया। 1196 के बीजापुर लेख के अनुसार संकम जैतुगी का महाप्रधान और सेनापति था, जिसके नेतृत्व में यादवों ने काकतीयों पर विजय प्राप्त की थी। इसके बदले उसे तरदावडी की जागीर से पुरस्कृत किया गया था।
जैतुगि ने 1198 ई. के आसपास काकतीय राज्य का शासन गणपति को सौंप दिया। गणपति ने पूर्ण निष्ठा के साथ यादवों के सामंत के रूप में शासन करने का वचन दिया। एक अभिलेख से पता चलता है कि 1203 ई. में गणपति वारंगल में देवगिरि के यादवों की अधीनता में शासन कर रहा था।
जैतुगि के मंगोली (मनागुली) अभिलेख में उसे मालव, पांड्य, चोल, मालव, गुर्जर, लाट, पंचाल, तुरुष्क तथा नेपाल के राजाओं को पराजित करने का श्रेय दिया गया है। यद्यपि इस लेख के दावे पर विश्वास करना कठिन है, किंतु संभव है कि जैतुगी ने मालव, लाट तथा गुर्जर राज्यों की विजय की हो।
जैतुगि न केवल एक वीर योद्धा था, बल्कि एक कुशल राजनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक भी था। जैतुगि ने प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य के पुत्र लक्ष्मीधर को अपने दरबार में राजपंडित नियुक्त किया था। जैतुगि या जैत्रपाल का शासनकाल 1191 ई. से 1210 ई. तक माना जा सकता है।
सिंहण द्वितीय (1210-1246 ई.)
जैतुगि या जैत्रपाल की मृत्यु के बाद उसका प्रतिभाशाली पुत्र सिंहण द्वितीय 1210 ई. के आसपास यादव राजवंश की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म संभवतः पर्णखेत की नरसिंहदेवी के आशीर्वादस्वरूप हुआ था। एक अभिलेख के अनुसार जैतुगि ने सिंहण को 1197 ई. के आसपास औपचारिक रूप से उत्तराधिकारी (युवराज) नियुक्त किया था। उसने अपने पिता के प्रशासन में युवराज के रूप में दस वर्षों से अधिक समय तक मूल्यवान प्रशिक्षण प्राप्त किया था। काकतीयों और होयसलों के विरुद्ध हुए सफल संघर्षों में वह अपने रणकौशल का परिचय दे चुका था। संभवतः युवराज काल में ही उसने होयसलों से बीजापुर छीन लिया था, जहाँ से उसका 1206 ई. का एक अभिलेख मिला है।
राजनीतिक उपलब्धियाँ
सिंहण द्वितीय यादव राजवंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने होयसलों को पराजित कर दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार किया, गुजरात के चौलुक्यों तथा लाट के बघेलों को नियंत्रित किया और मालवा के परमारों, कोल्हापुर के शिलाहारों तथा बेलगाँव के रट्टों को विजित किया। इस प्रकार सिंहण के काल में यादव साम्राज्य की प्रतिष्ठा अपने चरम पर पहुँच गई। अपनी गौरवशाली उपलब्धियों के अनुरूप उसने ‘रायनारायन’ और ‘प्रौढ़प्रतापचक्रवर्ती’ जैसी उपाधियाँ धारण की।
काकतीयों के साथ संबंध : कुछ परवर्ती शिलालेखों में कहा गया है कि सिंहण ने तेलंग के राजा का सिर काटकर एक दूसरे व्यक्ति को सिंहासन पर बैठाया था। इससे लगता है कि उसने अपने पिता जैतुगि के साथ काकतीयों के विरूद्ध अभियान में भाग लिया था, जिसमें काकतीय राजा महादेव मारा गया और बाद में महादेव के पुत्र गणपति को यादव सामंत के रूप में सिंहासन पर स्थापित किया गया था। गणपति ने सिंहण के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाये रखा।
अपने शासनकाल के पहले भाग में गणपति यादवों के प्रति निष्ठावान बना रहा और केवल सामंती प्रमुख की उपाधियाँ धारण की। गणपति के 1228 ई. के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि उसने लाटों को हराया था। इससे पता चलता है कि उसने यादवों के दक्षिणी गुजरात के युद्धों में सहयोग किया था। किंतु लगता है कि उत्तरवर्ती वर्षों में गणपति ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार किया। संभव है कि काकतीय राज्य-विस्तार के कारण सिंहण को काकतीयों के विरूद्ध कोई अभियान करना पड़ा हो, किंतु काकतीयों और यादवों के बीच किसी महत्त्वपूर्ण संघर्ष की सूचना नहीं है। संभवतः कुछ सीमांत झड़पों के बावजूद दोनों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहे।
होयसलों के विरुद्ध अभियान: सिंहण द्वितीय ने सिंहासनारोहण के बाद सर्वप्रथम अपने दादा भिल्लम पंचम की पराजय का बदला लेने के लिए होयसल वीरबल्लाल द्वितीय के विरुद्ध अभियान किया और कृष्णा-मालप्रभा सीमा को पारकर कृशकाड के होयसल सामंत विक्रमादित्य को पराजित कर अपनी ओर मिला लिया। इसी समय हानुंगल के कदंब शासक कामदेव ने भी बल्लाल द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिससे उत्साहित होकर सिंहण ने अपने सेनापति विच्चण के साथ होयसल राज्य को रौंद डाला और वह बनवासी की उत्तरी सीमा तक पहुँच गया।
सिंहण ने आगे बढ़ते हुए होयसलों के सिंदवंशीय सामंतों को अपने अधीन किया और 1212 ई. में विजयसमुद्र की ओर बढ़ते हुए क्रमशः अनंतपुर, बेल्लारी, चित्तलदुर्ग और शिमोगा पर अधिकार कर लिया। होयसल वीरबल्लाल द्वितीय ने बदलिके नामक स्थान पर सिंहण की यादवसेना को रोकने का प्रयास किया, किंतु उसे पराजित होना पड़ा। सिंहण ने 1213 ई. में सांतलिगे तथा बनवासी को जीतकर होयसलों की राजधानी द्वारासुरम (द्वारसमुद्र) को नष्ट कर दिया। आगे बढ़ती हुई यादव सेना कावेरी नदी के तट तक पहुँच गई और श्रीरंगपट्टम के शासक जज्जालदेव को हराया। इस प्रकार लगभग 1215 ई. तक संपूर्ण बनवासी क्षेत्र यादव साम्राज्य का अंग बन गया। 1213 ई. के गडग लेख से सूचित होता है कि धारवाड़ तथा उसके आसपास के क्षेत्र सिंहण के राज्य में सम्मिलित थे। यही नहीं, 1217 ई. के गडग लेख में सिंहण को ‘होयसलरूपी पद्मकुलों को नष्ट करनेवाला मदमत्त हाथी’ कहा गया है। होयसल पर विजय के बाद सिंहण ने ‘शनिवारसिद्धि’ उपाधि धारण की, जिसे पहले होयसल वीरबल्लाल द्वितीय धारण करता था।
इसके बाद होयसल वीरबल्लाल की मृत्यु के बाद सिंहण ने अपने शासनकाल के अंतिम चरण में संभवतः पुनः चालुक्य राज्य आक्रमण किया। इस समय होयसल शासक नरसिंह द्वितीय था। एक होयसल अभिलेख में दावा किया गया है कि ‘नरसिंह ने यादवों के रक्त से तुंगभद्रा के जल को लाल’ कर दिया था। इससे लगता है कि इस बार सेउण सेना को पराजय का सामना करना पड़ा था।
शिलाहार राज्य पर आक्रमण: सिंहण ने 1215 ई. के लगभग कोल्हापुर के शिलाहारवंशी चालुक्य सामंत भोज द्वितीय पर आक्रमण किया। संभवतः होयसल़ों के विरुद्ध अभियान के दौरान भोज ने सिंहण की यादव सेना पर पीछे से आक्रमण किया था। दो वर्ष तक प्रतिरोध करने के बाद अंततः 1217 ई. में भोज पराजित हुआ और कोल्हापुर से भागकर पनलि (पनहाला) के दुर्ग में छिप गया। 1232 ई. के रामचंद्र के पुरुषोत्तमपुरी ताम्रपत्रों के अनुसार सिंहण ने भोज द्वितीय को दुर्ग में बंदी बना लिया था। इसकी पुष्टि धारवाड़ से प्राप्त एक अभिलेख से भी होती है, जिसमें सिंहण को पनलि के शासक ‘भोजरुपीसर्प के लिए गरुड़’ बताया गया है (पन्नालनिलयप्रबल भोजभूपालव्यालविद्रावणविहंगराज)।
इस प्रकार सिंहण ने 1217 ई. के पहले कोल्हापुर की राजधानी सहित शिलाहारशासित समस्त राज्य को यादव साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था, क्योंकि 1217 ई. के शिमोगा शिलालेख में सिंहण को ‘पन्हाला किले के लिए वज्र (वज्र)’ बताया गया है और 1218 ई. के कोल्हापुर लेख से ज्ञात होता है कि सिंहण के एक अधिकारी ने अंबाबाई मंदिर के समक्ष एक द्वार का निर्माण करवाया था। संभवतः इसी समय मल्लट (रायचूर) के हैहय राजा ने भी सिंहण की अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया था।
परमारों के साथ संघर्ष: दक्षिण से निपटने के बाद सिंहण ने उत्तर में गुजरात और मालवा के विरूद्ध अभियान किया। इस समय गुजरात के लाट पर एक चहमानवंशी सामंत राजासिंह का शासन था, जो मालवा के परमार शासक अर्जुनवर्मन् का सामंत था। संभवतः अर्जुनवर्मन ने कुछ शत्रुतापूर्ण कार्रवाई की थी, क्योंकि उसका विवाह एक होयसल राजकुमारी सर्वकला से हुआ था। सिंघण ने 1216 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और हेमाद्रि के अनुसार उसका प्रतिद्वंद्वी अर्जुनवर्मन् युद्ध के मैदान में ही मारा गया-
येन क्षोणीभृदर्जुनोपि बलिना नीतः कथाशेषताम्।
येनोद्दामभुजेन भोजनृपतिः कारा कुटुम्बीकृतः।।
किंतु हेमाद्रि के दावे की सत्यता संदिग्ध है, क्योंकि 1222 ई. के एक शिलालेख में अर्जुनवर्मन् की केवल हार का उल्लेख है, उसकी मृत्यु का नहीं। तिलुवल्ली शिलालेख में भी कहा गया है कि सिंहण ने मालवा के स्वामी को विनम्र किया था।
चौलुक्यों के साथ संघर्ष: परमारों के मान-मर्दन के बाद सिंघण ने दक्षिणी गुजरात में लाट सामंत राजासिंह पर आक्रमण किया। ‘हम्मीरमदमर्दन’ से पता चलता है कि राजासिंह ने भयभीत होकर चौलुक्य भीम के शक्तिशाली मंत्री लवणप्रसाद से सहायता माँगी। ‘कीर्तिकौमुदी’ में कहा गया है कि लवणप्रसाद ने सिंहण को वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। यह स्पष्ट नहीं है कि सिंघण मालवा में शक्ति-प्रदर्शन के बाद लौट गया था या राजासिंह और लवणप्रसाद की संयुक्त सेना ने उसको पीछे हटने के लिए विवश किया था। जो भी हो, सिंघण का यह अभियान 1218 ई. के आसपास समाप्त हो गया था।
सिंहण के सेनापति ब्राह्मण खोलेश्वर ने 1220 ई. में लाट के सामंत राजासिंह पर पुनः आक्रमण किया। इस बार राजासिंह को अकेले ही आक्रमण का सामना करना पड़ा। सोमश्वरकृत ‘कीर्तिकौमुदी’ और हेमाद्रिकृत ‘चतुर्वर्ग चिंतामणि’ के ‘व्रतखंड’ से पता चलता है कि इस युद्ध में राजासिंह अपने भाई सिंधुराज के साथ युद्धभूमि में मारा गया। खोलेश्वर के 1228 ई. के अंबे शिलालेख में उसकी विजय का वर्णन है, और यह भी उल्लेख है कि राजासिंह युद्ध में मारा गया था। सिंधुराज का पुत्र संग्रामसिंह उर्फ शंख को बंदी बना लिया गया और भड़ौच पर सिंहण का अधिकार हो गया। 1228 ई. के एक लेख से भी ज्ञात होता है कि यादव सेना का भड़ौच (भृगुकच्छ) के दुर्ग पर अधिकार था।
कुछ समय बाद यादव सिंहण ने बंदी संग्रामसिंह को मुक्त कर दिया और यादवों के अधीनस्थ सामंत के रूप में भड़ौच पर शासन करने की अनुमति दे दी। संग्रामसिंह सिंहण के प्रति निष्ठावान बना रहा। इस प्रकार सिंघण का यह दूसरा गुजरात अभियान संभवतः सफल रहा।
गुजरात के बघेलों पर आक्रमण: जब संग्रामसिंह के पिता सिंधुराज और चाचा राजासिंह यादव नरेश सिंहण के आक्रमणों से जूझ रहे थे, तो चौलुक्य सामंत बघेल लवणप्रसाद ने लाट राज्य के बंदरगाह कैम्बे पर अधिकार कर लिया और चालुक्य मंत्री वास्तुपाल को 1219 ई. में इसका गवर्नर नियुक्त कर दिया था। लाट राज्य का यादव सामंत नियुक्त होने के बाद संग्रामसिंह या शंख ने कैम्बे वापस लेने के लिए भड़ौच पर आक्रमण किया, किंतु वास्तुपाल ने उसे विफल कर दिया। इसके बाद उसने सिंहण की सहायता से चौलुक्य साम्राज्य पर एक और आक्रमण किया। ‘कीर्तिकौमुदी’ से पता चलता है कि इस आक्रमण के कारण शत्रुराज्य में गंभीर संकट पैदा हो गया और खंभात में अफरा-तफरी मच गई। इस आक्रमण के संबंध में विभिन्न काव्य-कथाओं और किंवदंतियों से पता चलता है कि शंख या संग्रामसिंह ने अपनी कूटनीति के द्वारा सिंहण और मालवा नरेश देवपाल के साथ मिलकर एक सैनिक संघ का निर्माण किया था। इस युद्ध में यादव सेना का नेतृत्व खोलेश्वर ने और लाट राज्य की सेना का नेतृत्व स्वयं संग्रामसिंह ने किया था। स्रोतों से ज्ञात होता है कि लवणप्रसाद ने षड्यंत्र करके सिंहण को विश्वास दिलाया कि शंख और देवपाल उसके विरूद्ध षड्यंत्र रच रहे हैं। इससे ऐसा लगता है कि सिंहण 1232 ई. में लवणप्रसाद से संधि करके पीछे हट गया और चौलुक्य-यादव संघर्ष लगभग समाप्त हो गया। किंतु ‘हम्मीरमदमर्दन’ से संकेत मिलता है कि उत्तर से होने वाले आक्रमणों से त्रस्त होकर लवणप्रसाद ने स्वयं सिंहण से संधि की थी। 15वीं शती के एक ग्रंथ ‘लेखपद्धति’ में लवणप्रसाद और सिंहण के बीच हुई संधि का विवरण मिलता है। शांति-संधि के बावजूद सिंहण को भरपूर आर्थिक लाभ हुआ और भड़ौच पर उसके अधिकार को मान्यता मिल गई। संभवतः यादव राज्य पर काकतीयों के आक्रमण के कारण सिंहण अपनी राजधानी देवगिरि लौट आया।
कुछ समय बाद संभवतः 1239 ई. में सिंहण ने पुनः गुजरात पर आक्रमण किया। खोलेश्वर की मृत्यु हो हो जाने के कारण यादव सेना का नेतृत्व उसके पुत्र राम ने किया। किंतु लवणप्रसाद के उत्तराधिकारी विशालदेव ने यादव सेना का बड़ी वीरता से सामना किया । इस युद्ध में यादव सेनापति राम मारा गया, जिसके कारण सिंहण की सेनाओं को पीछे हटना पड़ा। इस प्रकार लगता है कि युद्ध में गुर्जरराज की विजय हुई थी।
दक्षिणी सामंत-राज्यों का विलय: सिंहण ने पश्चिमी समुद्र के राजाओं को भी पराजित किया, क्योंकि इन क्षेत्रों के स्थानीय शासक होयसलों और यादवों के बीच अपनी निष्ठा बदलते रहते थे और अवसर मिलते ही स्वतंत्र होने का प्रयास करते थे। अपने अभियान में सिंहण ने बेलगाँव के रट्टशासक कार्तवीर्य चतुर्थ और कदंब नरेश त्रिभुवनमल्ल को अपने अधीन किया। अल्तेकर के अनुसार 1238 ई. या इसके कुछ वर्ष पूर्व यादव सेनापति विच्चण ने तत्कालीन रट्ठनरेश लक्ष्मीदेव से उसका राज्य छीनकर यादव साम्राज्य में मिला लिया था। बिच्चण ने धारवाड़ के गुत्तों, हंगल और गोवा के कदंबों को भी अपने अधीन किया और इनके शासकों को अवज्ञा के लिए दंडित किया।
अन्य विजयें: 1206 ई. के पाटन शिलालेख में सिंहण को वाराणसी और मथुरा तक की विजय का श्रेय दिया गया है। अंबे शिलालेख में कहा गया है कि सिंहण ने वाराणसी के राजा रामपाल को हराया था। किंतु इन दावों की प्रमाणिकता संदिग्ध है, क्योंकि सिंहण के शासनकाल में वाराणसी पर किसी रामपाल नामक राजा के शासन का प्रमाण नहीं मिलता है। संभव है कि सिंहण ने कुछ स्थानीय सामंतों को हराया हो, जो मथुरा और वाराणसी के पूर्व शासकों के वंशज होने का दावा करते थे। 1206 ई. के पाटन शिलालेख का यह दावा भी संदिग्ध है कि सिंहण के एक सेनापति ने एक मुस्लिम शासक को हराया था। हो सकता है कि मालवा या गुजरात अभियान के दौरान यादव सेना की मुस्लिम सेना के साथ कोई झड़प हुई रही हो।
कुछ यादव अभिलेखों का दावा किया गया है कि सिंघण और उसके सेनापतियों ने सिंध, पंचाल, बंगाल, बिहार, केरल और पाड्य के राजाओं को हराया था। किंतु ठोस प्रमाणों के अभाव में इन काव्यात्मक दावों की सत्यता संदिग्ध है। जो भी हो, यादव अभिलेखों के प्राप्ति-स्थानों से अनुमान किया जाता है कि सिंहण के साम्राज्य में कम से कम कोंकण, लाट, विदर्भ, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र राज्य के भू-क्षेत्र सम्मिलित थे। इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तर में नर्मदा से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक और पश्चिम में कुरनूल से लेकर पूरब में अरब सागर तक विस्तृत था। सिंहण के शिलालेख वर्तमान अनंतपुर और कुरनूल जिलों से पाये गये हैं।
सिंघण को अपने विजय-अभियानों में दो सेनापतियों- खोलेश्वर और विच्चण से बहुमूल्य सहायता मिली थी। खोलेश्वर ब्राह्मण था, किंतु उसने एक योद्धा की भूमिका निभाई। वह सिंहण के उत्तरी अभियानों में उसका दाहिना हाथ था और खानदेश तथा विदर्भ के प्रशासक के रूप में उसने कई अग्रहारों (ब्राह्मण बस्तियों) की स्थापना की थी। उसका दूसरा सेनापति विच्चण एक वैश्य परिवार में पैदा हुआ था, जिसने होयसल विरोधी अभियानों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह यादव साम्राज्य के दक्षिणी कर्नाटक क्षेत्र का प्रशासक था। विच्चण की तुलना ‘विनाश में यम और राजनीतिक बुद्धिमत्ता में विष्णुगुप्त (चाणक्य)’ से की गई है। एक शिलालेख के अनुसार उसने कावेरी नदी के किनारे पर एक कीर्ति-स्तंभ स्थापित किया था।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
सिंहण एक महान् विजेता, साम्राज्य-निर्माता और सुसंस्कृत शासक होने के साथ-साथ संगीत, साहित्य और कला का संरक्षक भी था। उसके दरबारी कवि सारंगदेव ने संगीत पर एक कृति ‘संगीत-रत्नाकर’ की रचना की थी। संभवतः सिंहण ने स्वयं इस ग्रंथ पर एक टीका लिखी थी। चांगदेव और अनंतदेव जैसे दो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री उसके दरबार की शोभा थे। चांगदेव ‘सिद्धांत-शिरोमणि’ के लेखक भास्कराचार्य का पौत्र था। उसने अपने पितामह की स्मृति में गुजरात के पाटनतीर्थ में एक ज्योतिष महाविद्यालय की स्थापना की थी। इसी प्रकार अनंतदेव ने वराहमिहिर के ग्रंथ ‘वृहज्जातक’ तथा ब्रह्मगुप्तकृत ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ पर अलग-अलग टीकाओं की रचना की थी। इस धर्मनिष्ठ शासक ने सोमनाथ मंदिर का पुनरूद्धार करवाया था
यद्यपि सिंहण एक योग्य और महान योद्धा था, किंतु अदूरदर्शी होने के कारण उसने अपनी और अपने पड़ोसियों की शक्ति को नष्ट करके भयंकर राजनीतिक भूल की, जिसका लाभ मुस्लिम आक्रमणकारियों ने उठाया। सिंहण ने संभवतः 1246 ई. के अंत तक शासन किया था।
कृष्ण (1246-1260 ई.)
सिंहण की मृत्यु के बाद उसका पौत्र कृष्ण 1246 ई. में यादव वंश की गद्दी पर बैठा, क्योंकि उसके युवराज पुत्र जैतुगी द्वितीय की अपने पिता के काल में ही मृत्यु हो गई थी। कृष्ण ने अपने पितामह से उत्तराधिकार में प्राप्त यादव साम्राज्य को न केवल सुरक्षित रखा, बल्कि उसका विस्तार करने में भी कुछ सफलता प्राप्त की। यादव अभिलेखों में उसकी कुछ विजयों का विवरण मिलता है।
राजनीतिक उपलब्धियाँ
मालवा के परमारों पर आक्रमण: राज्यारोहण के उपरांत कृष्ण ने मालवा के परमारों पर आक्रमण किया, जिनकी शक्ति और प्रतिष्ठा मुस्लिम आक्रमणों के कारण क्षीण हो गई थी। यादव अभिलेखों से पता चलता है कि कृष्ण ने 1250 ई. के लगभग परमार शासक जैतुगीदेव को पराजित करके मार डाला और मालवा को जीत लिया। शक संवत् 1172 के मनोली शिलालेख में कृष्ण को ‘मालवराजरूपीमदन के लिए शिव’ कहा गया है।
गुजरात के बघेलों पर आक्रमण: कृष्ण ने दूसरा अभियान दक्षिण गुजरात के बघेलों के विरुद्ध किया। इस समय वीरधवल का पुत्र वीसलदेव गुजरात का सामंत था। युद्ध का कारण दोनों राजवंशों की पुरानी शत्रुता तो थी ही, संभवतः होयसल राजकुमारी का वीसलदेव के साथ विवाह भी युद्ध का एक प्रमुख कारण था। नर्मदा के तट पर वीसलदेव और कृष्ण की यादव सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ। हेमाद्रि के विवरण के अनुसार कृष्ण ने बघेल शासक वीसलदेव को पराजित किया था। किंतु गुजरात से प्राप्त वीसलदेव के एक अभिलेख में उसे ‘यादवसेनारूपी समुद्र के तल में जाज्वल्यमान बड़वानल के समान’ बताया गया है। इससे लगता है कि इस युद्ध में किसी भी पक्ष को निर्णायक सफलता नहीं मिली थी।
होयसलों और शिलाहारों से संघर्ष: कृष्ण के सेनापति चामुंड ने होयसल शासक सोमेश्वर के विरुद्ध भी अभियान किया। एक यादव अभिलेख से पता चलता है कि चामुंड ने होयसल नरेश के दर्प का मर्दन किया और कोंगली तथा देवनगरी पर अधिकार कर लिया था। इतिहासकारों का अनुमान है कि यादव सेना ने होयसल क्षेत्र के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया था क्योंकि चित्रदुर्ग से कृष्ण के शिलालेख मिले हैं। यही नहीं, कृष्ण की यादव सेना ने शिलाहार (उत्तरी कोंकण) के राजा मल्ल को पराजित कर रत्नगिरि तथा सूरत पर भी अधिकार कर लिया।
पांड्यों से संघर्ष: कृष्ण के समय दक्षिणी भारत में जटावर्मन् सुंदरपांड्य के नेतृत्व में पांड्य राज्य अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था। सुंदरपांड्य ने अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत यादवों के महामंडलेश्वर काकतीय गणपतिदेव पर आक्रमण किया। गणपतिदेव के अनुरोध पर कृष्ण ने काकतीयों की मदद के लिए विच्चण को भेजा। 1253 ई. के एक यादव अभिलेख से पता चलता है कि कृष्ण के सेनापति विच्चण ने पांड्यों के विरूद्ध अभियान में सफलता प्राप्त की थी।
त्रिपुरी तथा दक्षिण कोसल की विजय: कृष्ण ने त्रिपुरी तथा दक्षिण कोसल (रायपुर एवं बिलासपुर जनपद) राज्यों के विरुद्ध भी अभियान किया। कलुचुरियों के पतनोपरांत इन राज्यों की शक्ति क्षीण हो गई थी और संपूर्ण डहल क्षेत्र अराजकता का शिकार था। फलतः कृष्ण ने बड़ी सरलता से कलचुरि राज्यों को अपने अधीन कर लिया। मनौली लेख में कृष्ण को ‘त्रिपुर की सेनाओं के लिए त्रिनेत्र (शिव) के समान’ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि संभवतः कृष्ण ने कलचुरी राजधानी त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया था। पुरुषोत्तमपुरी ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इसी अभियान के दौरान कृष्ण ने दक्षिण कोसल को भी विजित किया था।
कदंबों से संघर्ष: कृष्ण का समकालीन कदंब शासक षष्ठदेव तृतीय था। कृष्ण के सेनापति ने कदंब शासक को पराजित कर उसे यादव शासन के अधीन कर लिया था।
यादवों के पुरुषोत्तमपुरी ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कृष्ण ने चोलों को भी परास्त किया था। मनौली अभिलेख में भी उसे ‘चोलराज्य का अधिपति’ बताया गया है। यही नहीं, कृष्ण को चित्तलदुर्ग पर भी अधिकार का श्रेय दिया गया है। किंतु अधिकांश इतिहासकार इन दावों को संदिग्ध मानते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कृष्ण ने अपने बाहुबल से न केवल उत्तराधिकार में प्राप्त यादव साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा, बल्कि उसका विस्तार भी किया। उसके साम्राज्य में शिमोगा, चित्तलदुर्ग, रायचूर, बिलासपुर, बेल्लारी, बेलगाँव, धारवाड़, सतारा, पश्चिमी खानदेश तथा विदर्भ आदि के क्षेत्र सम्मिलित थे। अपने विशाल साम्राज्य को संगठित करने के लिए उसने कंधारपुर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया था।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
कृष्ण एक विजेता और साम्राज्य-निर्माता होने के साथ-साथ धर्म, कला और साहित्य का संरक्षक भी था। कृष्ण के एक शिलालेख में उसे ‘वेदोधारा’ (वेदों के धारक) के रूप में वर्णित किया गया है। ‘लीलाचरित’ के अनुसार कृष्ण महानुभाव संतों का बहुत सम्मान करता था और उसने लोनार में इस संप्रदाय के संस्थापक चक्रधर से भेंट की थी। संभवतः उसने संस्कृत के श्रेष्ठ श्लोक-पंक्तियों का संकलन करके ‘सूक्तिमुक्तावली’ नामक पद्य-संग्रह तैयार किया था। यद्यपि कुछ इतिहासकार इसका श्रेय उसकी हस्तिसेना के नायक जाल्हण को देते हैं। कृष्ण के शासनकाल में शंकराचार्य के ‘वेदांतसूत्रभाष्य’ की ‘भामती’ नामक टीका पर, जिसकी रचना वाचस्पति मिश्र ने अपनी पत्नी भामती के नाम पर की थी, अमलानंद ने ‘वेदांतकल्पतरु’ नामक शास्त्रीय टीका लिखी।
कृष्ण ने 1260 ई. में अपनी मृत्यु के समय अपने छोटे भाई महादेव को अपना युवराज और उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। संभवतः अभी उसके पुत्र रामचंद्र का जन्म नहीं हुआ था या उसकी आयु इतनी नहीं थी कि वह युवराज के रूप में कार्य कर सके।
महादेव (1260-1270 ई.)
कृष्ण की मृत्यु के बाद उसका अनुज और युवराज महादेव 1260 ई. के लगभग दक्कन क्षेत्र के सेउण (यादव) राजवंश के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। एक शिलालेख और ‘वेदांतकल्पतरु’ से स्पष्ट है कि महादेव ने प्रशासन में अपने भाई की सहायता की थी। वास्तव में, कृष्ण ने महादेव को कम से कम 1250 ई. में अपना उत्तराधिकारी और युवराज नियुक्त कर दिया था।
महादेव की उपलब्धियाँ
महादेव के शासनकाल में यादव साम्राज्य ने महत्त्वपूर्ण राजनीतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों का साक्षात्कार किया। महादेव ने कोल्हापुर के शिलाहारों को पराजित किया और कदंब सामंतों के विद्रोह का दमन किया। उसने पड़ोसी राज्यों पर भी आक्रमण किया, किंतु काकतीय रानी रुद्रमा और होयसल राजा नरसिंह द्वितीय ने उसे पीछे हटने पर विवश कर दिया था। यादव अभिलेखों उसे अनेक सैन्य-सफलताओं का श्रेय दिया गया है, किंतु इन दावों की सत्यता संदिग्ध है।
शिलाहार राज्य का विलय: कोंकण क्षेत्र के कोल्हापुर और थाना में दो शिलाहारवंशीय सामंत यादवों की अधीनता में शासन कर रहे थे, जो आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थे। सिंहण ने 1215 ई. के आसपास कोल्हापुर के शिलाहारों को अपने अधीन किया था। शिलाहार शासक अकसर अपनी स्वतंत्रता का दावा करने के लिए यादवों के साथ लड़ते थे, और ऐसा ही संघर्ष महादेव के शासनकाल की शुरुआत में हुआ। थाना के शिलाहार सोमेश्वर के पिता केशिराज के समय तक यादवों की अधीनता स्वीकार करते रहे। किंतु जब केशिराज का पुत्र सोमेश्वर गद्दी पर बैठा, तो उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। फलतः महादेव ने सोमेश्वर पराजित कर उसे अपने अधीन कर लिया। हेमादिकृत ‘व्रतखंड’ की भूमिका से पता चलता है कि सोमेश्वर महादेव से डरकर समुद्र की ओर भागा और जब महादेव ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, तो उसने अपने को समुद्र में ही डुबो लिया-
यदीयगन्धद्विपगण्डपाली निष्ठूयतदानाम्बु तरिंगिणीषु।
सोमः समुद्रप्लवयेशलोपि ममज्ज सैन्येः सह कुंकुणेशः।।
प्रायः माना जाता है कि कोंकण के इस शिलाहार राज्य को महादेव ने अपने साम्राज्य में मिला लिया था। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 1273 ई. में थाना पर महादेव का शासन था। किंतु 1266 ई. के एक अभिलेख के अनुसार 1266 ई. में उत्तरी कोंकण पर महाराजाधिराज कोंकणचक्रवर्ती जैतुगिदेव शासन था। कुछ इतिहासकार जैतुगिदेव को शिलाहारवंशीय शासक मानते हैं और थाना पर यादवों के अधिकार को संदिग्ध मानते हैं। किंतु जैतुगी संभवतः यादव राज्यपरिवार का ही कोई सदस्य था।
काकतीय राज्य पर आक्रमण: आंध्र प्रदेश के काकतीय शासक गणपति की 1261 ई. में मृत्यु के बाद उसकी पुत्री रुद्रमा वारंगल की गद्दी पर बैठी थी। रुद्रमा के स्त्री होने के कारण उसके सामंतों ने विद्रोह कर दिया, जिससे काकतीय राज्य आंतरिक अशांति का शिकार हो गया। इस अशांति का लाभ उठाते हुए महादेव ने आंध्र प्रदेश के काकतीय राज्य पर आक्रमण किया। यादव शिलालेखों और यादवों के दरबारी कवि हेमाद्रि के विवरणों से ज्ञात होता है कि इस अभियान में महादेव ने रुद्रमा को पराजितकर उसके हाथियों और वाद्ययंत्रों को छीन लिया था। किंतु इसके विपरीत, ‘प्रतापचरित्र’ से पता चलता है कि रुद्रमा ने महादेव को पराजित कर देवगिरि तक उसका पीछा किया और अंततः महादेव को एक करोड़ स्वर्णमुद्रा देकर रुद्रमा से संधि करनी पड़ी थी। इस विजय के उपलक्ष्य में रुद्रमा ने वारंगल में एक विजय-स्तंभ स्थापित किया था। यद्यपि ‘प्रतापचरित्र’ के वृत्तांत को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता हैं, किंतु इसे पूर्णतः अस्वीकार करना कठिन है। यह युद्ध संभवतः 1265 ई. के बाद 1267 ई. तथा 1270 ई. के बीच हुआ था।
होयसलों के विरूद्ध अभियान: यादव राज्य के दक्षिण-पश्चिम में होयसलों का राज्य था, जो दो भागों में विभाजित था। उत्तरी होयसल राज्य पर युवा नरसिंह द्वितीय का शासन था। महादेव ने 1266 ई. के आसपास किसी समय नरसिंह द्वितीय के राज्य पर आक्रमण किया। यादव लेखों में महादेव को ‘होयसलरायकोलाहल’ कहा गया है, किंतु दो होयसल लेखों से पता चलता है कि ‘महादेव ने नरसिंह की शक्ति को कम आंका और अपने हाथी पर बैठकर युद्ध के मैदान में प्रवेश किया; यद्यपि वह हार गया और रात में अपने घोड़े पर बैठकर भाग गया।’ इससे लगता है कि महादेव को होयसलों के विरूद्ध कोई सफलता नहीं मिली थी।
कदंबों के विद्रोह का दमन: होयसलों के विरूद्ध यादवों की असफलता से उत्साहित होकर कदंबों ने महादेव के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। किंतु महादेव के सेनापति बलदेव ने 1268 ई. के लगभग कदंबों के विद्रोह का दमन कर दिया।
उत्तरी शक्तियों के साथ संबंध : पैठण दानपत्र और हेमाद्रि के विवरणों से पता चलता है कि महादेव ने गुजरात के बघेल शासक वीसलदेव को हराया था। महादेव 1261 ई. में सिंहासन पर बैठा और 1262 ई. में विशालदेव की मृत्यु हुई थी। महादेव ने संभवतः राज्यारोहण के तुरंत बाद विशाल को हराया होगा या फिर कृष्ण के शासनकाल में युवराज के रूप में उसे पराजित किया रहा होगा। हरिहर शिलालेख में दावा किया गया है कि गौड़ महादेव से डरकर भाग गया और उत्कल भय से काँपता था। किंतु यह दावा पूर्णतः काल्पनिक और प्रशस्तिमात्र है।
महादेव का प्रशासन : महादेव के शासनकाल में भी सेउण प्रदेश और राजधानी देवगिरि की प्रतिष्ठा पूर्ववत् बनी रही। हेमाद्रि ने देवगिरि को ‘त्रैलोक्य सारथी’ कहा है। महादेव का प्रधान मंत्री (सर्वाधिकारिन्) महाराज तप्परस था, जो 1275 ई. तक इस पद पर बना रहा। महादेव के शासन में ‘चतुर्वर्ग चिंतामणि’ के लेखक हेमाद्रि को ‘मंत्रिन्’ की उपाधि प्राप्त थी, जो सचिवालय तथा हस्तिदल का महामंत्री था। चट्टराज और कुचराज नामक दो ब्राह्मण भाई नोलंबवाडी (आधुनिक शिमोगा) पर बेलूर से शासन करते थे। दक्षिणी प्रांतों में एक अधिकारी देवराज था, जबकि सामंत मयिदेव कोल्हापुर क्षेत्र का प्रशासक था। महादेव की रानी वैजयई ने पैठण में वैजनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। महादेव का शासनकाल अनुमानतः 1260 ई. से 1270 ई. के अंत तक माना जाता है।
अम्मण (1270-1271 ई.)
1270 ई. में महादेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अम्मण देवगिरि के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। किंतु कृष्ण के पुत्र रामचंद्र ने अम्मण के राज्याधिकार का विरोध किया। वास्तव में, अपने पुत्र रामचंद्र के नाबालिग होने के कारण ही कृष्ण ने 1260 ई. के लगभग महादेव को अपना उत्तराधिकारी बनाया था और महादेव ने रामचंद्र के पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने का वचन दिया था। किंतु जब महादेव ने रामचंद्र के बजाय अपने पुत्र अम्मण को उत्तराधिकार सौंप दिया, तो राज्य के हेमाद्रि तथा टिक्कम जैसे उच्चाधिकारी, मंत्री और प्रांतपति सभी अम्मण के विरोधी और रामचंद्र के साथ हो गये। रामचंद्र के पुरूषोत्तमपुरी ताम्रपत्र शिलालेख में अम्मण की कुछ सैन्य-उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है, किंतु इस विवरण की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
अम्मण एक विलासी शासक था, जो नृत्य और संगीत का शौकीन था। रामचंद्र के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि 1271 ई. के उत्तरार्ध में रामचंद्र ने अम्मण को अपदस्थकर बंदी बना लिया और उसे अंधा करके कारागार में डाल दिया। इसकी पुष्टि ‘भानुविलास’ और परशुराम व्यास के ‘नागदेवचरित्र’ जैसे साहित्यिक ग्रंथों से होती है। इस प्रकार अम्मण 1270 ई. से लेकर 1271 ई. के बीच मात्र कुछ महीने ही शासन कर सका।
रामचंद्र (1271-1311 ई.)
कृष्ण का पुत्र रामचंद्रदेव 1271 ई. के उत्तरार्द्ध में अम्मण को अपदस्थकर देवगिरि के राजसिंहासन पर बैठा। यद्यपि रामचंद्र एक शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी शासक था, किंतु तत्कालीन मुस्लिम संकट की अनदेखी कर उसने परमारों, बघेलों, होयसलों और काकतीयों के प्रति साम्राज्यवादी नीति अपनाई और अपने राज्य का विस्तार किया। अंततः 1296 ई. में रामचंद्र को दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम आक्रमण का सामना करना पड़ा और खिलजियों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
समकालीन शक्तियों के विरूद्ध अभियान
मालवा के विरुद्ध अभियान: रामचंद्र ने अपनी विस्तारवादी नीति का श्रीगणेश मालवा के परमारों के विरूद्ध अभियान से किया, जो यादव साम्राज्य के उत्तर में स्थित था। इस समय तक परमारों की शक्ति बहुत क्षीण हो गई थी और 1270 ई. के आसपास परमार राज्य राजा अर्जुनवर्मन् द्वितीय और उसके मंत्री के बीच विभाजित हो गया था। परमार राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर रामचंद्र ने मालवा पर आक्रमण करके मालव सेना को आसानी से पराजित कर दिया। रामचंद्र के थाना दानपत्र में (1272 ई.) में उसे ‘मालवदीपपुंजों को बुझानेवाला प्रलयवायु’ (मालवप्रदीपशमनप्रलयानिलः) कहा गया है। इसकी पुष्टि 1276 ई. के उडारी शिलालेख से भी होती है, जिसमें रामचंद्र को ‘अर्जुन के उत्पाती हाथियों की भीड़ को नष्ट करने वाले एक सिंह’ के रूप में वर्णित किया गया है।
गुर्जरों के विरुद्ध अभियान: रामचंद्र ने मालवा-अभियान के क्रम में ही संभवतः गुजरात के गुर्जर राज्य पर आक्रमण किया था। रामचंद्र का समकालीन गुजरात का शासक बघेल अर्जुनदेव था। दोनों राजवंशों के शिलालेखों में अपनी-अपनी जीत का दावा किया गया है। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस संघर्ष में संभवतः किसी को सफलता नहीं मिली थी।
होयसलों से युद्ध: रामचंद्र के चाचा महादेव को अपने दक्षिणी पड़ोसी होयसलों पराजित होना पड़ा था। रामचंद्र ने चाचा महादेव की पराजय का बदला लेने के लिए होयसलों पर आक्रमण करने की योजना बनाई। रामचंद्र का समकालीन होयसल शासक नरसिंह तृतीय था। 1275 ई. में रामचंद्र की यादव सेना ने टिक्कम के नेतृत्व में बनवासी तथा नोलंबवाड़ी से होते हुए होयसल राज्य पर आक्रमण किया और 1276 ई. में उसकी राजधानी द्वारसमुद्र को घेर लिया। किंतु 1276 ई. में होयसल सेनापति अंकेय ने निर्णायक युद्ध किया और यादव सेना को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया। इसकी पुष्टि एक होयसल अभिलेख से भी होती है। यद्यपि टिक्कम होयसल राजधानी को जीतने में असमर्थ रहा, फिर भी उसे बड़ी संख्या में हाथियों और घोड़ों को लूटने में सफलता मिली थी।
काकतीयों के विरुद्ध अभियान: रामचंद्र के चाचा महादेव को अपने पूर्वी पड़ोसियों काकतीयओं के विरुद्ध भी हार का सामना करना पड़ा था। ऐसा लगता है कि रामचंद्र ने वारंगल के काकतीयों के प्रति कूटनीतिक रणनीति अपनाई, रुद्रमा के असंतुष्ट सरदारों के समर्थन किया और काकतीय राज्य पर आक्रमण कर दिया। किंतु रूद्रमा ने रामचंद्र को उसी की भाषा में उत्तर दिया और उसके सेनापति विट्ठलदेव ने कुछ यादव क्षेत्रों को जीत लिया। पता चलता है कि काकतीय सेनापति ने 1294 ई. में यादव-शासित क्षेत्र रायचूर में अपना दुर्ग स्थापित किया था। इस प्रकार काकतीयों ने यादवों से रायचूर के कुछ क्षेत्रों को छीन लिया था।
पूर्वोत्तर अभियान: रामचंद्र के पुरुषोत्तमपुरी शिलालेख से पता चलता है कि उसने उत्तर-पूर्वी सीमा पर यादव प्रभुत्व का विस्तार किया था। इस क्रम में रामचंद्र ने सबसे पहले वज्राकर (संभवतः वैरागढ़) और भंडागार (भंडारा) के राजाओं को अपने अधीन किया। इसके बाद उसने कलचुरि साम्राज्य पर आक्रमण कर पूर्व कलचुरि राजधानी त्रिपुरी (जबलपुर) पर अधिकार कर लिया। पुरुषोत्तमपुरी ताम्रपत्र के अनुसार रामचंद्र ने काशी की ओर मार्च किया और वाराणसी में तुर्क सेना को पराजित कर संपूर्ण नगर पर अधिकार कर लिया। वाराणसी में उसने शारंगधरदेव (विष्णु) का एक मंदिर बनवाया और संभवतः 1290-91 ई. तक अपनी प्रभुता को बनाये रखा। रामचंद्र के शिलालेखों में उसे ‘तुर्कों के उत्पीड़न से पृथ्वी की रक्षा करने वाला महान् वराह’ कहा गया है। इससे लगता है कि उसने बलबन की मृत्यु (1286 ई.) के बाद बनारस पर अधिकार कर कुछ मुस्लिम अधिकारियों को दंडित किया था। बाद में, 1291 ई. में कड़ा-मानिकपुर (इलाहाबाद) के सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी ने रामचंद्र की यादव सेना को बनारस से खदेड़ दिया।
पुरुषोत्तमपुरी दानपत्र में रामचंद्र को कान्यकुब्ज और कैलासपर्वत तक की विजय का श्रेय दिया गया है, किंतु यह काव्यात्मक विवरण मात्र है, वास्तविक नहीं।
कोंकण तथा माहिम के सामंतों के विद्रोहों का दमन: रामचंद्र की उत्तर-पूर्वी भारत में व्यस्तता का लाभ उठाकर कोंकण में संगमेश्वर और माहिम राज्य के सामंतों ने विद्रोह कर दिया। किंतु रामचंद्र के पुत्र सिंहण तृतीय (शंकरदेव) ने इन विद्रोही सामंतों का दमन कर दिया।
रामचंद्र की सफलताओं के परिणामस्वरूप 1291 ई. तक यादव साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में कर्नाटक में लेकर उत्तर में मालवा तक और पश्चिम में पश्चिमी समुद्रतट के कोंकण से लेकर पूर्व में विदर्भ तक हो गया था।
पहला मुस्लिम आक्रमण: दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी के काल में कड़ा-मानिकपुर (इलाहाबाद) के सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी ने 1294 ई. में देवगिरि के यादव राज्य पर अचानक धावा बोल दिया। रामचंद्र के बनारस आदि नगरों पर आक्रमण से अलाउद्दीन अप्रसन्न था और दक्षिण की धन-संपदा को लूटकर दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनना चाहता था।
अलाउद्दीन खिलजी के देवगिरि पर आक्रमण के समय उसका रामचंद्रदेव का पुत्र युवराज सिंहण तृतीय (शंकरदेव) मुख्य यादव सेना के साथ सुदूर दक्षिण में सैनिक अभियानों में व्यस्त था और देवगिरि के किले की व्यवस्था भी सुदृढ़ नहीं थी। अलाउद्दीन की सेना में लगभग 8,000 अश्वारोही थे, जबकि रामचंद्र के पास मात्र 4,000 पैदल सैनिक थे। रामचंद्र ने पराजित होकर देवगिरि के किले में शरण ली। कुछ समय बाद विवश होकर उसने अलाउद्दीन को भारी धनराशि और बहुमूल्य उपहार देने का वादा करके शांति-संधि के लिए राजी किया। किंतु संधि होने के पहले ही रामचंद्र का पुत्र सिंहण तृतीय राजधानी वापस आ गया। फरिश्ता के अनुसार अपने पिता के मना करने के बावजूद सिंहण (शंकरदेव) ने अलाउद्दीन से युद्ध किया, जिसमें वह पराजित हुआ और संधि की शर्तें और कठोर हो गईं। संधि के अनुसार रामचंद्र ने अलाउद्दीन को लगभग 1,500 पौंड (लगभग 7 क्विंटल) सोना, 40 हाथी, बड़ी मात्रा में मोती और अन्य रत्न दिया। इसके साथ ही, उसने अलाउद्दीन को एलिचपुर की वार्षिक आय के बराबर धनराशि प्रतिवर्ष खिराज के रूप में देने का वचन दिया।
अलाउद्दीन खिलजी से पराजय और संधि के कारण यादवों की प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुँचा, जिसका लाभ उठाकर काकतीय शासक प्रतापरुद्र ने यादव राज्य के पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। होयसल शासक बल्लाल तृतीय ने भी बनवासी नगर सहित उन सभी क्षेत्रों को पुनः हथिया लिया, जिन्हें पिछले वर्षों में यादवों ने होयसलों से छीन लिया था।
मलिक काफूर का आक्रमण: अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 ई. में अपने चाचा और ससुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्याकर दिल्ली सल्तनत पर अधिकार कर लिया। रामचंद्र 1304 ई. तक संधि की शर्तों का पालन करता रहा और अलाउद्दीन को वार्षिक खिराज भेजता देता रहा। किंतु 1304 ई. के बाद उसने अलाउद्दीन को नजराना भेजना बंद कर दिया। इसामी के अनुसार रामचंद्र ने गुप्तरूप से सुल्तान अलाउद्दीन को सूचित किया कि वह स्वयं विद्रोह नहीं करना चाहता, किंतु उसका पुत्र सल्तनत-विरोधी गतिविधियों में लिप्त है, जिसके कारण प्रतिवर्ष दिल्ली भेजी जाने वाली भेंट नहीं भेजी जा सकी है।
अलाउद्दीन खिलजी के आदेश पर मलिक काफूर ने 1308 ई. के आसपास देवगिरि को पुनः आक्रांत किया किया और यादव सेना को पराजित कर रामचंद्र को दिल्ली ले आया। अमीर खुसरो के अनुसार अलाउद्दीन ने अपनी सेना को आक्रमण के दौरान रामचंद्र और उनके परिवार को नुकसान न पहुँचाने का आदेश दिया था। दिल्ली में अलाउद्दीन ने रामचंद्र के साथ अच्छा व्यवहार किया और उसे मुक्त करके बहुमूल्य उपहारों के साथ न केवल उसका राज्य वापस कर दिया, बल्कि उसे ‘रायरायान’ (राजाओं का राजा) की उपाधि देकर गुजरात में नवसारी की जागीर भी प्रदान की। मुस्लिम इतिहासकारों- इसामी और वासफ के अनुसार रामचंद्र ने अपनी पुत्री झत्यपालि (जेठापाली या क्षेत्रपाली) का विवाह अलाउद्दीन से किया था। इसके बाद, रामचंद्र अपनी मृत्यु तक अलाउद्दीन खिलजी के प्रति निष्ठावान बना रहा और काकतीयों तथा होयसलों के विरूद्ध मलिक काफूर के अभियानों में हरसंभव सहयोग प्रदान किया।
यादव अभिलेखों में रामचंद्र को शिव का महान भक्त बताया गया है और उसकी तुलना विष्णु और उनके विभिन्न अवतारों से की गई है। महादेवकालीन हेमाद्रि ने रामचंद्र के अधीन भी कार्य किया और ‘चतर्वर्ग चिंतामणि’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा। ज्ञानेश्वर ने 1290 ई. में ही गीता पर अपनी मराठी टीका लिखी। चक्रधरस्वामी द्वारा प्रवर्तित महानुभाव संप्रदाय के संतों और लेखकों ने मराठी भाषा में अनेक रचनाएँ की। रामचंद्र का अंतिम अभिलेख 1311 ई. का नल अभिलेख है, जिससे लगता है कि उसकी मृत्यु 1311 ई. के आसपास हुई थी।
यादव राज्य का अंत
सिंहण तृतीय (1311-1313 ई.)
रामचंद्र की मृत्यु (1311 ई.) के बाद उसका बड़ा पुत्र युवराज सिंहण तृतीय (1311-1313 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। किंतु इस साहसी युवक ने शासन सँभालते ही अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। फलतः 1313 ई. में अलाउद्दीन के आदेश पर सेनापति मलिक काफूर ने देवगिरि पर पुनः आक्रमण किया और सिंहण तृतीय (शंकरदेव) को पराजित करके मार डाला। देवगिरि को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया और मलिक काफूर देवगिरि का प्रशासक बन गया।
हरपालदेव (1315-1318 ई.)
1315 ई. में अलाउद्दीन की अस्वस्थता के कारण मलिक काफूर देवगिरि का प्रशासन ऐनुलमुल्क को सौंपकर दिल्ली लौट आया। कुछ ही समय बाद ऐनुलमुल्क को भी दिल्ली लौटना पड़ा। इसका लाभ उठाकर रामचंद्र के दामाद हरपालदेव (1315-1318 ई.) ने देवगिरि पर अधिकार कर लिया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। 1318 ई. में सुल्तान कुतबुद्दीन मुबारकशाह खिलजी ने देवगिरि पर आक्रमण किया और यादव शासक हरपाल और उसके मंत्री राघव की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। इस प्रकार 1318 ई. में हरपालदेव की मृत्यु के साथ ही महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सेउण (यादव) राजवंश का अंत हो गया।
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