तैमूरलंग का जीवन
तैमूरलंग, जिसे तिमुर (1336–1405 ई.) के नाम से भी जाना जाता है, 14वीं शताब्दी का एक क्रूर और महत्वाकांक्षी सैनिक शासक था, जिसने महान तैमूरी राजवंश की स्थापना की। वह मध्य एशिया से उठकर एक विशाल साम्राज्य का स्वामी बना, लेकिन उसकी विजयों में क्रूरता और विनाश की छाप स्पष्ट थी। 18वीं शताब्दी के प्रसिद्ध इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने तैमूरलंग के बारे में लिखा है कि ‘जिन देशों पर तैमूर ने अपनी विजय-पताका फहराई, वहाँ भी जाने-अनजाने में तैमूरलंग के जन्म, उसके चरित्र, व्यक्तित्व और यहाँ तक कि उसके नाम के बारे में भी झूठी कहानियाँ प्रचारित हुईं।’ गिब्बन ने आगे कहा कि ‘लेकिन वास्तविकता में वह एक योद्धा था, जो एक किसान परिवार से उत्पन्न होकर एशिया के सिंहासन पर बैठा। विकलांगता ने उसके रवैये और हौसले को प्रभावित नहीं किया। उसने अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर ली थी।’
वास्तव में, तैमूर की शारीरिक विकलांगता कभी उसके मार्ग में बाधा नहीं बनी। उसके कट्टर आलोचक भी स्वीकार करते हैं कि तैमूरलंग में ताकत और साहस कूट-कूटकर भरा हुआ था। वह 35 वर्षों तक युद्ध के मैदान में लगातार विजय प्राप्त करता रहा। अपनी शारीरिक दुर्बलताओं से पार पाकर विश्व-विजेता बनने का ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में दुर्लभ है। उसकी जीवनी ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ और समकालीन स्रोत जैसे इब्न अरबशाह तथा क्लेविजो के वृत्तांत इसकी पुष्टि करते हैं। नीचे उसके जीवन, विजयों और भारत आक्रमण को विस्तार से शुद्ध रूप में वर्णित किया गया है, जो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है।
तैमूरलंग का प्रारंभिक जीवन
अमीर तैमूर का जन्म 8 अप्रैल 1336 ई. में ट्रांसऑक्सियाना क्षेत्र के कैश (या ‘शहर-ए-सब्ज’) नामक स्थान पर हुआ था। जन्म के समय उसका नाम तैमूर रखा गया, जिसका अर्थ फारसी में ‘लोहा’ होता है, जो उसके दृढ़ संकल्प का प्रतीक था। उसके पिता अमीर तुरगई बरलास तुर्कों की गुरगन या चगताई शाखा के प्रमुख थे। तैमूर तुर्की मूल का था, लेकिन वह चंगेज खान का वंशज होने का दावा करता था ताकि अपनी वैधता मजबूत कर सके।
आरंभिक जीवन में तैमूर को सैनिक शिक्षा दी गई, जिससे वह युद्ध-कला में निपुण हो गया। उसके पिता ने इस्लाम कबूल कर लिया था, इसलिए तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी बना। भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन बाबर इसी तैमूर का वंशज था, जो उसके वंश की दीर्घकालिक विरासत को दर्शाता है।
तैमूर ने जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की। 15वीं शताब्दी के सीरियाई इतिहासकार इब्न अरबशाह के अनुसार, तैमूर भेड़ चुराते समय एक चरवाहे के तीर से घायल हुआ था। स्पेनिश राजदूत क्लेविजो के वृत्तांत के अनुसार, सिस्तान के घुड़सवारों से संघर्ष में उसका दाहिना पैर घायल हो गया, जिससे वह जीवनभर लंगड़ाता रहा। बाद में उसका दाहिना हाथ भी घायल हुआ। वास्तव में, 1363 ई. में खुरासान में भाड़े के सैनिक के रूप में काम करते समय उसके दाहिने अंग विकलांग हो गए। उसका दाहिना पैर बाएं पैर से छोटा था, और चलते समय उसे घसीटना पड़ता था। इसी कारण फारसी में उसे ‘तैमूर-ए-लंग’ (लंगड़ा तैमूर) कहा जाने लगा, जो बाद में विकृत होकर ‘तैमूरलंग’ बन गया। यह विकलांगता उसके साहस को नहीं रोक सकी; बल्कि उसने इसे अपनी शक्ति का प्रतीक बना लिया।

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Toggleसमरकंद पर अधिकार और साम्राज्य विस्तार
तैमूर एक प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। वह चंगेज खान की तरह विश्व विजय की अभिलाषा रखता था। 1369 ई. में समरकंद के मंगोल शासक की मृत्यु के बाद उसने शहर पर अधिकार कर लिया और अपनी राजधानी बनाई। उसने चंगेज खान की सैन्य पद्धति अपनाई—सेना को दस-दस सैनिकों की इकाइयों में संगठित किया, घुड़सवार सेना पर जोर दिया और क्रूर दंड प्रणाली लागू की।
1370 ई. से उसकी विजय यात्रा शुरू हुई। 1380-1387 ई. के बीच उसने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान, कुर्दिस्तान और मेसोपोटामिया पर विजय प्राप्त की। उसकी सेना में तुर्क, मंगोल और फारसी सैनिक शामिल थे। इन विजयों से उसका साम्राज्य पश्चिमी एशिया से मध्य एशिया तक फैल गया। वह स्वयं को ‘इस्लाम का रक्षक’ घोषित करता था, लेकिन उसकी क्रूरता कुख्यात थी—विजित शहरों में सामूहिक हत्याएं और सिरों की मीनारें बनवाना उसकी विशेषता थी।
भारत आक्रमण का उद्देश्य
1390 के दशक तक तैमूर की नजर भारत पर पड़ी। उसके अमीर और सरदार दूरस्थ भारत पर आक्रमण से हिचकिचा रहे थे, लेकिन तैमूर ने इसे ‘इस्लाम के प्रचार’ और ‘काफिरों के खिलाफ जिहाद’ का नाम दिया। अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ में वह लिखता है: ‘हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा उद्देश्य काफिर हिंदुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है, जिससे इस्लाम की सेना को हिंदुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएं मिल जाएं।’
वास्तविक उद्देश्य धन लूटना था। भारत की समृद्धि की कहानियां (हीरे, जवाहरात, सोना) उसे आकर्षित करती थीं। दिल्ली सल्तनत की आंतरिक कमजोरी—तुगलक वंश का पतन—ने उसे अवसर दिया। मूर्तिपूजा का विध्वंस केवल बहाना था; असल में यह लूट और विस्तार की महत्वाकांक्षा थी।
दिल्ली सल्तनत की स्थिति
आक्रमण के समय (1398 ई.) दिल्ली सल्तनत विघटन की कगार पर थी। फिरोज शाह तुगलक की मृत्यु (1388 ई.) के बाद उत्तराधिकार युद्ध छिड़ गए। 1388-1394 ई. तक तीन कमजोर सुल्तान (गयासुद्दीन तुगलक II, अबू बक्र, नासिरुद्दीन मुहम्मद) आए और गए। सरदारों की स्वार्थ साधना से अराजकता फैली। सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह (1394-1413 ई.) केवल नाममात्र का शासक था, जो अमीर मल्लू इकबाल खान की कठपुतली बना हुआ था। प्रांत स्वतंत्र हो रहे थे—जौनपुर, गुजरात, मालवा आदि। हिंदू राजपूत और जाट सरदार विद्रोह कर रहे थे। यह दुर्बलता तैमूर को आमंत्रण थी।

तैमूर का भारत पर आक्रमण
तैमूरलंग (तिमुर) का भारत पर आक्रमण (1398-1399 ई.) मध्यकालीन भारतीय इतिहास की सबसे विनाशकारी घटनाओं में से एक था। यह आक्रमण दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश को पूर्ण रूप से समाप्त करने वाला सिद्ध हुआ। तैमूर की सेना की क्रूरता, सामूहिक हत्याएं, लूटपाट और धार्मिक उन्माद ने उत्तर भारत को रक्तरंजित कर दिया। यह अभियान लगभग 6 माह चला, जिसमें तैमूर ने सिंध से दिल्ली तक और वापसी में हिमालय की तलहटी तक के क्षेत्रों को तहस-नहस कर दिया। ऐतिहासिक स्रोत जैसे तैमूर की आत्मकथा ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ (या मलफुजात-ए-तैमूरी), शरफुद्दीन यज्दी की ‘जफरनामा’, निजामुद्दीन अहमद की ‘तबकात-ए-अकबरी’ और समकालीन यात्रियों के वृत्तांत इसकी भयावहता की पुष्टि करते हैं। तैमूर ने स्वयं अपनी जीवनी में इन घटनाओं को गर्व से वर्णित किया है, जहां वह इसे ‘इस्लाम की विजय’ बताता है।
आक्रमण की तैयारी और अग्रिम सेना का प्रस्थान (1398 ई. की शुरुआत)
तैमूर ने भारत आक्रमण की योजना 1397 ई. में ही बना ली थी, जब उसकी मध्य एशियाई विजयें पूरी हो चुकी थीं। उसका मुख्य उद्देश्य दिल्ली की प्रसिद्ध धन-संपदा लूटना था, जिसकी कहानियां मध्य एशिया तक पहुंची थीं। धार्मिक जिहाद का बहाना बनाकर उसने अपनी सेना को उत्साहित किया।
पोते पीर मुहम्मद की अग्रिम टुकड़ी: 1398 ई. की शुरुआत में तैमूर ने अपने पोते पीर मुहम्मद जहांगीर को 50,000 सैनिकों की एक अग्रिम सेना के साथ भारत भेजा। यह टुकड़ी काबुल होते हुए सिंधु नदी पार कर भारत में प्रवेश किया। पीर मुहम्मद ने पहले उच्छ (सिंध का एक किला) पर कब्जा किया, जहां स्थानीय सूबेदार ने न्यूनतम प्रतिरोध किया। इसके बाद मुल्तान पर घेराबंदी डाली। मुल्तान एक रणनीतिक शहर था, जो व्यापारिक मार्गों का केंद्र था। घेराबंदी 6 माह तक चली—मार्च से सितंबर 1398 ई. तक। शहर के निवासियों ने भुखमरी और हमलों से त्रस्त होकर आत्मसमर्पण किया। पीर ने शहर को लूटा, मस्जिदों को छोड़कर मंदिर नष्ट किए और हजारों को गुलाम बनाया। यह विजय तैमूर के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाली थी, क्योंकि इससे पंजाब का द्वार खुल गया। तैमूर की मुख्य सेना इसी सफलता की प्रेरणा से आगे बढ़ी। इस चरण में तैमूर की रणनीति स्पष्ट थी: अग्रिम टुकड़ी से क्षेत्र को अस्थिर करना और मुख्य सेना के लिए आधार तैयार करना।
तैमूर की मुख्य सेना का आगमन और प्रारंभिक विजयें (अप्रैल-सितंबर 1398 ई.)
समरकंद से प्रस्थान: अप्रैल 1398 ई. में तैमूर स्वयं समरकंद से रवाना हुआ। उसकी सेना लगभग 90,000-1,00,000 सैनिकों की थी, जिसमें तुर्की घुड़सवार, मंगोल धावक और फारसी तोपची शामिल थे। सेना अच्छी तरह संगठित थी—चंगेज खान की दशमलव प्रणाली (10, 100, 1000 की इकाइयां) पर आधारित। तैमूर ने काबुल, घजनी होते हुए अफगानिस्तान पार किया। सितंबर 1398 ई. में उसने सिंधु नदी पार की, फिर झेलम और रावी नदियां। ये नदियां बाढ़ के मौसम में थीं, लेकिन तैमूर की इंजीनियरिंग कुशलता (पुल बनवाना) से सेना सुरक्षित पार हुई। इस दौरान उसने स्थानीय कबीलों (जाट और अफगान) को कर वसूला या दबाया।
तुलुंबा पर आक्रमण (13 अक्टूबर 1398 ई.): मुल्तान से 70 मील उत्तर-पूर्व में स्थित तुलुंबा (पंजाब का एक नगर) पहला प्रमुख लक्ष्य था। तैमूर यहां पहुंचकर रुका। शहर के निवासी मुख्यतः हिंदू और मुस्लिम व्यापारी थे। तैमूर ने आदेश दिया कि सभी को मार डाला जाए या गुलाम बनाया जाए। शहर लूटा गया, घर जलाए गए और हजारों की हत्या हुई। ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ में तैमूर लिखता है कि ‘काफिरों के रक्त से भूमि रंगीन हो गई।’ यहां से उसने 5,000 बंदी लिए, जिनमें स्त्रियां और बच्चे शामिल थे। यह आक्रमण मनोवैज्ञानिक था—आतंक फैलाकर आगे के शहरों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करना।
भटनेर, सरसुती और मध्यवर्ती क्षेत्रों का संहार (अक्टूबर-नवंबर 1398 ई.)
भटनेर (हिसार-ए-फिरोजा क्षेत्र): दीपालपुर जीतने के बाद तैमूर भटनेर पहुंचा। यहां के राजपूत शासक दुलचंद राठौड़ ने वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया। राजपूतों ने किले की दीवारों से तीर और पत्थर बरसाए। दो दिन की लड़ाई के बाद राजपूतों ने आत्मसमर्पण किया, उम्मीद में कि तैमूर क्षमा करेगा। लेकिन तैमूर ने धोखा दिया—आत्मसमर्पण के तुरंत बाद हमला करवाया। ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ में वह गर्व से लिखता है: ‘थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिए गए। घंटे भर में 10,000 (दस हजार) लोगों के सिर काट दिए गए। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को लूट लिया गया। मकानों में आग लगाकर राख कर दिया गया।’ सिरों की मीनारें बनवाई गईं, जो उसकी क्रूर परंपरा थी। स्त्रियां गुलाम बनीं, संपत्ति सेना में बांटी गई।
सरसुती (सिरसा क्षेत्र): भटनेर के बाद सरसुती पर आक्रमण। यह एक प्राचीन हिंदू तीर्थ था, जहां मंदिर और ब्राह्मण बस्तियां थीं। तैमूर ने सभी हिंदुओं को ‘काफिर’ घोषित कर संहार किया। मंदिर तोड़े गए, मूर्तियां नष्ट की गईं। यज्दी की ‘जफरनामा’ के अनुसार, ‘सभी काफिर हिंदू कत्ल कर दिए गए। उनके स्त्री, बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई।’ हजारों मारे गए, शहर जलाया गया। यह धार्मिक उन्माद का उदाहरण था, जहां तैमूर ने जिहाद का नाम लेकर लूट को वैध ठहराया।
जाट क्षेत्र और अन्य लूट: दिल्ली की ओर बढ़ते हुए जाटों के इलाकों (सिरसा, कैथल) में प्रवेश। जाट किसान योद्धा थे, लेकिन असंगठित। तैमूर ने आदेश दिया: ‘जो भी मिले, कत्ल करो।’ गांव जलाए, पुरुष मारे, स्त्रियां-बच्चे बंदी। कैथल में मंदिर और बाजार नष्ट हुए। इस चरण में लगभग 50,000 लोग मारे गए, जैसा कि समकालीन अनुमानों से लगता है।
दिल्ली पर आक्रमण और संहार (दिसंबर 1398 ई.)
दिल्ली के निकट पहुंच और बंदियों का संहार: दिसंबर प्रथम सप्ताह में दिल्ली के पास पहुंचा। सेना ने रास्ते में 1 लाख हिंदू बंदी बनाए थे (मुख्यतः ग्रामीण)। तैमूर ने आदेश दिया: ‘मुसलमान बंदियों को छोड़कर शेष सभी को मार डालो।’ एक दिन में सामूहिक हत्या हुई—सिर काटे गए, शव नदियों में फेंके। यह सेना की ‘पवित्रता’ बनाए रखने के लिए था, क्योंकि तैमूर को डर था कि बंदी विद्रोह कर सकते हैं।
पानीपत का युद्ध (17 दिसंबर 1398 ई.): सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह ने वजीर मल्लू इकबाल खान के साथ सेना इकट्ठी की—40,000 पैदल, 10,000 घुड़सवार और 120 युद्ध हाथी। पानीपत के मैदान में मुकाबला हुआ। तुगलक सेना के हाथी तैमूर के घुड़सवारों से डर गए, और तीरों की बौछार से अफरा-तफरी मच गई। तुगलक सेना बुरी तरह हारी; सुल्तान गुजरात भाग गया, मल्लू इकबाल बरन छिप गया। तैमूर की जीत उसकी बेहतर घुड़सवार सेना और रणनीति (पार्श्व हमले) से हुई।
दिल्ली में प्रवेश और लूट (18 दिसंबर 1398 ई. onward): 18 दिसंबर को धूमधाम से प्रवेश। शहर में लाखों शरणार्थी थे। तैमूर ने लूट की अनुमति दी—5 दिन तक चला संहार। ‘जफरनामा’ में यज्दी लिखता है: ‘हिंदुओं के सिरों को काटकर ऊंचे ढेर बना दिए गए तथा उनके धड़ों को हिंसक पशुओं और पक्षियों के लिए छोड़ दिया गया।’ घरों में आग, बलात्कार, हत्याएं। अनुमानित 1,00,000-2,00,000 मारे गए। लूट में हीरे (कोहिनूर जैसी अफवाहें), मोती, सोना, रेशम, जवाहरात मिले। शिल्पी (मिस्त्री, सुनार) और सुंदर स्त्रियां गुलाम बनाई गईं—ये बाद में समरकंद में इमारतें बनाने के काम आए। महामारी (प्लेग) फैली, शहर दो माह निर्जन रहा। बदायूनी लिखता है: ‘दो महीनों तक एक पक्षी ने भी पंख नहीं फड़फड़ाया।’ तैमूर 15 दिन रुका, फिर 1 जनवरी 1399 ई. को रवाना हुआ।
वापसी मार्ग का विनाश (जनवरी-मार्च 1399 ई.)
मेरठ और हरिद्वार: 9 जनवरी को मेरठ पर धावा—शहर लूटा, हत्याएं। हरिद्वार क्षेत्र में दो हिंदू सेनाओं (स्थानीय राजाओं की) को हराया, गंगा तट पर संहार। मंदिर नष्ट, तीर्थयात्री मारे गए।
कांगड़ा और जम्मू: 16 जनवरी को कांगड़ा (शिवालिक पहाड़ियां) जीता, लूटा। जम्मू पर चढ़ाई—पहाड़ी राजा ने प्रतिरोध किया, लेकिन हार गए। असंख्य हत्याएं, संपत्ति लूटी।
वापसी और नियुक्ति: खिज्र खान (एक स्थानीय मुस्लिम सरदार) को मुल्तान, लाहौर और दीपालपुर का सूबेदार बनाया। 19 मार्च 1399 ई. को सिंधु पार कर समरकंद लौटा। कुल लूट: अरबों की संपत्ति, 1,00,000+ बंदी।
यह आक्रमण तुगलक वंश का अंतिम कफन सिद्ध हुआ—दिल्ली की सत्ता नाममात्र रह गई, प्रांत स्वतंत्र हुए। आर्थिक विनाश (व्यापार रुकना, जनसंख्या ह्रास) और सामाजिक आघात (धार्मिक तनाव) लंबे समय तक रहा। तैमूर भारत में नहीं रुका, लेकिन उसकी क्रूरता ने मध्य एशिया में उसकी किंवदंती बन गई।
तैमूर के आक्रमण के बाद की विजयें और मृत्यु
भारत से समरकंद लौटने के बाद तैमूर ने अपनी विजय यात्रा जारी रखी। वह कभी विश्राम नहीं करता था और नए क्षेत्रों पर कब्जा करने की महत्वाकांक्षा से भरा रहता था। उसकी सेना अब और मजबूत हो चुकी थी, क्योंकि भारत से प्राप्त लूट (धन, घोड़े, शिल्पी और गुलाम) ने उसके संसाधनों को बढ़ाया था। समकालीन स्रोत जैसे ‘जफरनामा’ और तैमूर की जीवनी इस काल की घटनाओं का वर्णन करती हैं।
- 1400 ई. में अनातोलिया पर आक्रमण: भारत से लौटते ही तैमूर ने पश्चिम की ओर ध्यान दिया। 1400 ई. में उसने अनातोलिया (आधुनिक तुर्की का हिस्सा) पर आक्रमण किया। यह क्षेत्र उस समय बायजीद प्रथम के अधीन ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। तैमूर ने अलेप्पो, दमिश्क और बगदाद जैसे शहरों पर कब्जा किया। दमिश्क में उसने भयानक संहार किया—हजारों नागरिक मारे गए, शहर लूटा गया और आग लगाई गई। इस अभियान में उसने इस्लामिक खलीफा को भी अपदस्थ किया, जो काहिरा में था, और स्वयं को इस्लाम का रक्षक घोषित किया। अनातोलिया विजय ने उसे मध्य पूर्व में सर्वोच्च बना दिया, लेकिन इसकी क्रूरता (जैसे सिरों की मीनारें) ने उसे और बदनाम किया।
- 1402 ई. में अंगोरा का युद्ध: तैमूर की सबसे प्रमुख विजयों में से एक। 20 जुलाई 1402 ई. को अनातोलिया के अंगोरा (आधुनिक अंकारा) के मैदान में ऑटोमन सुल्तान बायजीद प्रथम (जिसे ‘बायजीद यिल्दिरिम’ या बिजली कहा जाता था) की सेना से मुकाबला हुआ। बायजीद की सेना बड़ी थी (लगभग 1,00,000 सैनिक), लेकिन तैमूर की रणनीति श्रेष्ठ थी। उसने जल स्रोतों पर कब्जा कर ऑटोमन सेना को प्यासा रखा, घुड़सवार धावों से हमले किए और बायजीद के कुछ सहयोगियों को अपनी ओर मिला लिया। युद्ध में ऑटोमन सेना पराजित हुई; बायजीद बंदी बना लिया गया और बाद में उसकी मृत्यु हो गई (कुछ स्रोतों के अनुसार आत्महत्या या कैद में)। इस विजय से तैमूर ने ऑटोमन साम्राज्य को कमजोर कर दिया, जो यूरोप तक फैला हुआ था। उसने स्मिर्ना (इजमिर) जैसे शहर भी जीते और ईसाई शक्तियों को हराया। अंगोरा युद्ध ने तैमूर को एशिया से यूरोप की सीमा तक का स्वामी बना दिया।
- मृत्यु (1405 ई.): अपनी अंतिम महत्वाकांक्षी योजना के तहत तैमूर ने चीन पर आक्रमण की तैयारी की। मिंग वंश का चीन उस समय शक्तिशाली था, और तैमूर इसे जीतकर चंगेज खान की विरासत पूरी करना चाहता था। नवंबर 1404 ई. में उसने समरकंद से विशाल सेना (2,00,000 सैनिक) लेकर प्रस्थान किया। फरवरी 1405 ई. में वह ओट्रार (आधुनिक कजाकिस्तान) पहुंचा। कठोर सर्दी, बीमारी और थकान से वह अस्वस्थ हो गया। 18 फरवरी 1405 ई. को 68 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु का कारण बुखार और शराब की अधिकता बताया जाता है। उसका शव समरकंद लाया गया और गुर-ए-अमीर मकबरे में दफनाया गया। मृत्यु के समय उसका साम्राज्य ईरान से भारत की सीमा तक फैला हुआ था, लेकिन उसके पुत्रों और पोतों में बंट गया।
तैमूर की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य ज्यादा दिन नहीं टिका, लेकिन इसने तैमूरी पुनर्जागरण को जन्म दिया, जहां कला और वास्तुकला फली-फूली।
तैमूर के आक्रमण का प्रभाव
तैमूरलंग का भारत आक्रमण (1398-1399 ई.) दिल्ली सल्तनत के लिए घातक सिद्ध हुआ। यह न केवल तुगलक वंश के विघटन को पूरा करने वाला था, बल्कि उत्तर भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना को वर्षों के लिए अस्थिर कर गया। ऐतिहासिक स्रोत जैसे ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ और ‘तबकात-ए-अकबरी’ इस प्रभाव का वर्णन करते हैं। मुख्य प्रभाव निम्नलिखित थे:
तुगलक साम्राज्य का पूर्ण विघटन: आक्रमण ने दिल्ली की केंद्रीय सत्ता को समाप्त कर दिया। तुगलक वंश पहले से कमजोर था, लेकिन तैमूर की लूट और संहार ने इसे अंतिम झटका दिया। दिल्ली की जनसंख्या और अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई—लाखों मारे गए, शहर निर्जन हो गया, व्यापार रुक गया। प्रांतों ने स्वतंत्रता घोषित कर दी, जैसे जौनपुर (शर्की वंश), गुजरात, मालवा और बंगाल पहले से ही अलग हो चुके थे।
राजनीतिक अस्थिरता और उत्तराधिकार संघर्ष: तैमूर के जाने के बाद दिल्ली में अराजकता फैली। नसरत शाह (तुगलक दावेदार), जो दोआब क्षेत्र में छिपा था, ने 1399 ई. में दिल्ली पर कब्जा करने की कोशिश की। लेकिन वजीर मल्लू इकबाल खान ने उसे पराजित कर भगा दिया। मल्लू इकबाल ने फिरोजाबाद पर कब्जा किया। 1401 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद शाह ने धार (या गुजरात) से लौटकर मल्लू को आमंत्रित किया, लेकिन दोनों में संघर्ष जारी रहा। मल्लू इकबाल ने वास्तविक सत्ता संभाली, जबकि सुल्तान नाममात्र का रहा।
मल्लू इकबाल की मृत्यु और अंतिम संघर्ष: 12 नवंबर 1405 ई. (कुछ स्रोतों में 1404 ई.) को मल्लू इकबाल की खिज्र खान (तैमूर द्वारा नियुक्त मुल्तान का सूबेदार) से युद्ध में मृत्यु हो गई। खिज्र खान ने दिल्ली पर दावा किया। दुर्बल सुल्तान महमूद शाह लगभग 20 वर्षों तक (1394-1413 ई.) नाममात्र का शासन करता रहा, अमीरों की कठपुतली बनकर। फरवरी 1413 ई. (या 1414 ई.) में कैथल में उसकी मृत्यु के साथ ही तुगलक वंश का अंत हो गया।
व्यापक प्रभाव:
आर्थिक: दिल्ली का खजाना खाली, कृषि और व्यापार चौपट। लूटा गया धन समरकंद पहुंचा, जहां तैमूर ने भव्य मस्जिदें और महल बनवाए।
सामाजिक और धार्मिक: हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ा, मंदिर नष्ट होने से सांस्कृतिक क्षति। महामारी और अकाल से जनहानि।
राजनीतिक परिवर्तन: तुगलक के बाद सैयद वंश (खिज्र खान द्वारा 1414 ई. में स्थापित) का उदय हुआ, जो तैमूर की विरासत से प्रभावित था। इससे भारत में क्षेत्रीय राज्यों का युग शुरू हुआ, जो मुगल काल तक चला।
कुल मिलाकर, तैमूर का आक्रमण एक विनाशकारी तूफान था, जिसने दिल्ली सल्तनत को इतिहास के पन्नों में समेट दिया और भारत में शक्ति के विकेंद्रीकरण को बढ़ावा दिया।










