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हैदरअली और आंग्ल-मैसूर संबंध
दक्षिण भारत में हैदराबाद के पास हैदरअली के अधीन मैसूर में एक महत्त्वपूर्ण सत्ता का उदय हुआ था। 1565 ई. में तालीकोटा युद्ध में विजयनगर साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने के समय से ही मैसूर राज्य ने अपनी कमजोर स्वाधीनता को बनाये रखा और नाममात्र के लिए यह मुगल साम्राज्य का अंग था। 1612 ई. में विजयनगर के राजा वेंकेट द्वितीय ने एक राजा वाडियार को मैसूर के ‘राजा’ की उपाधि दी थी। 17वीं शताब्दी में वाडियार वंश ने अपने राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। 1732 ई. में जब मैसूर की गद्दी पर एक अल्पवयस्क राजकुमार इम्मदी कृष्णराज बैठा, तो दुलवई (मुख्य सेनापति) देवराज तथा सर्वाधिकारी (राजस्व तथा वित्त अधीक्षक) नंजराज नामक दो मंत्रियों ने मैसूर राज्य की शक्ति अपने हाथ में केंद्रित कर ली। उन्होंने वहाँ के राजा चिक्का कृष्णराज को कठपुतली में बदल दिया था।
हैदरअली का आरंभिक जीवन
हैदरअली 18वीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत का एक महान योद्धा था, जो अपने परिश्रम, लगन और क़ाबलियत के बल पर मैसूर का शासक बना और आज भारतीय इतिहास में एक कुशल राजनीतिज्ञ और उच्चकोटि के सेनानायक के रूप में समादृत है।
हैदर का जन्म 1721 ई. में बुदीकोट, मैसूर के एक अत्यंत साधारण परिवार में हुआ था। उसका परदादा वली अहमद दिल्ली से गुलबर्गा आया था। हैदरअली का पिता फतेह मुहम्मद अपनी सैनिक प्रतिभा के बल पर मैसूर के सेनापति के पद तक पहुँचा था। 1728 ई. में फतेह मुहम्मद की एक युद्ध में मृत्यु के कारण हैदरअली को उचित शिक्षा नहीं मिल सकी, लेकिन कठिनाइयों के कारण उसमें दृढ़-निश्चय, आत्म-विश्वास, साहस आदि गुणों का विकास हुआ।
यद्यपि हैदर शिक्षित नहीं था, किंतु वह कुशाग्र बुद्धि का प्रतिभावान सैनिक था। उसका बड़ा भाई शाहबाज मैसूर की सेना में नौकरी करता था। 1738 ई. में 16 वर्ष की अवस्था में हैदर भी मैसूर की सेना में एक घुड़सवार के रूप में भर्ती हो गया।
हैदरअली के उदय के कारण
हैदरअली में एक प्रतिभाशाली सेनानायक तो था ही, उसमें एक चालाक राजनीतिज्ञ के सभी गुण भी मौजूद थे। अपनी प्रतिभा से धीरे-धीरे उन्नति करके हैदरअली मैसूर की सेना में एक ऊँचे पद पर पहुँच गया। 1749 ई. में उसे मैसूर में स्वतंत्र कमान प्राप्त हुई। इस समय मैसूर राज्य निजाम, मराठों, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच चलने वाले चतुष्कोणीय संघर्ष में उलझा हुआ था। हैदर ने राज्य की अराजक स्थिति का भरपूर फायदा उठाया और अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लगा रहा। उसने यूरोपीय सैनिकों के अनुशासन और सैन्य-कौशल से प्रभावित होकर फ्रांसीसी युद्ध प्रणाली का गहन अध्ययन किया। जब मराठों ने 1753, 1754, 1757 तथा 1759 ई. में मैसूर पर आक्रमण किये तो संकट के इस दौर में हैदरअली का तेजी से उत्थान हुआ। उसकी शक्ति और योग्यता से प्रभावित होकर नंजराज ने उसे 1755 ई. में डिंडिगल का फौजदार और फिर मैसूर सेनापति नियुक्त कर दिया। अंततः 1761 ई. में प्रधानमंत्री नंजराज को सत्ता से हटाकर हैदर स्वयं मैसूर का वास्तविक शासक बन बैठा। शीघ्र ही हैदर जोड-तोड़ में सिद्धहस्त हो गया और अपनी सैन्य-प्रतिभा के बल पर योद्धाओं, सरदारों और जमींदारों के विद्रोहों को नियंत्रित करने में कामयाब हो गया।
हैदरअली की राजनीतिमत्ता
निरक्षर होने के बावजूद हैदरअली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ्रांसीसियों से बहुत अच्छे संबंध थे। उसने 1755 ई. में डिंडीगुल में फ्रांसीसियों की सहायता से एक आधुनिक शस्त्रागार स्थापित किया था और मैसूर की सेना को आधुनिक तौर-तरीकों से प्रशिक्षण दिलवाने का प्रबंध किया था। मैसूर के सेनापति और शासक के रूप में उसने अनुभव किया कि एक सुसंगठित सेना समय की माँग है। मराठों के आक्रमणों का सामना करने के लिए एक तीव्रगामी और शक्तिशाली घुड़सवार सेना चाहिए तथा निजाम की फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित सेना से निपटने के लिए एक अच्छा तोपखाना चाहिए। पहली बार हैदर ने बंदूकों और संगीनों से लैस नियंत्रित सिपाहियों की एक टुकड़ी का गठन किया, जिसके पीछे ऐसे तोपखाने की शक्ति थी, जिसके तोपची यूरोपीय थे।
अनुकूल राजनीतिक स्थिति
1761 ई. की परिस्थितियाँ हैदरअली के उत्कर्ष में सबसे अधिक सहायक हुईं। अग्रेजों और फ्रांसीसियों के संघर्ष के कारण कर्नाटक आर्थिक रूप से विपन्न हो चुका था। निजाम पहले फ्रांसीसियों तथा बाद में अंग्रेजों के प्रभाव में था और उसकी स्थिति दुर्बल थी। पानीपत के युद्ध में पराजित होने के कारण मराठे भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं थे और दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित करने में असमर्थ थे। अतः हैदरअली ने सत्ता पर अधिकार करने के बाद अपने राज्य का विस्तार करना आरंभ किया और शीघ्र ही बदनौर, कनारा तथा दक्षिण भारत की छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। किंतु हैदर की योग्यता और उसकी विस्तारवादी नीति से मराठे, हैदराबाद का निजाम एवं अंग्रेज सभी सशंकित रहते थे। अपनी सत्ता के लगभग आरंभ से ही उसे मराठा सरदारों, निजाम और अंग्रेजों के साथ लड़ाई में लगा रहना पड़ा।
हैदरअली की उपलब्धियां
बेदनूर पर आक्रमण
1763 ई. में बेदनूर के राजा की मृत्यु हो गई और उसके दो उत्तराधिकारियों में गद्दी के लिए विवाद हो गया। हैदरअली ने एक पक्ष का समर्थन किया, किंतु वास्तव में वह बेदनूर को हड़पना चाहता था। इसलिए उसने दोनों दावेदारों की हत्या करा दी और बेदनूर पर अधिकार कर लिया। उसने बेदनूर का नाम बदलकर ‘हैदराबाद’ कर दिया।
मालाबार की विजय
बेदनूर के बाद हैदरअली ने मालाबार की विजय की। उसने कोचीन, पालघाट, कालीकट तथा दक्षिण कन्नड़ के राजाओं को पराजित किया और दक्षिण भारत के पोलीगरों को अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। हैदर ने सुंडा, सीरी और गूटी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
मराठों से संघर्ष
हैदरअली मराठों के विरुद्ध अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर ही रहा था कि 1764 ई. में पेशवा माधवराव ने उस पर आक्रमण कर दिया। मराठों ने हैदर के सेनापति फजलअली खाँ को हराकर धारवाड़ का किला छीन लिया। इस युद्ध में हैदर पराजित हुआ और उसे मराठों को गूटी तथा बानूर के जिले तथा 32 लाख रुपया देना पड़ा।
आंग्ल-मैसूर संबंध
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69 ई.)
हैदरअली और अंग्रेजों के मध्य पहला युद्ध 1767 ई. में हुआ। वस्तुतः हैदरअली के उत्कर्ष और उसकी विस्तारवादी नीति से भयभीत होकर मराठे, निजाम तथा अंग्रेज उसकी नकेल कसने की सोचने लगे थे। निजाम उसे निम्न-जन्मना कहकर उससे घृणा करता था। मराठे उसकी विस्तारवादी नीति को रोकना चाहते थे। अंग्रेज उससे इसलिए नाराज थे क्योंकि उसके दरबार में फ्रांसीसियों का प्रभाव था और फ्रांसीसी उसकी सेना को सैनिक प्रशिक्षण प्रदान करते थे। इसके अलावा, अंग्रेजों को भय था कि हैदरअली कर्नाटक को जीतना चाहता था क्योंकि उसने अर्काट के नवाब मुहम्मदअली के बड़े भाई महफूजअली को शरण दी थी। अतः अंग्रेजों तथा हैदरअली का संघर्ष अनिवार्य हो गया था।
त्रिगुट का निर्माण
हैदरअली की शक्ति और महत्वाकांक्षा से सशंकित होकर अंग्रेजों ने सबसे पहले 1766 ई. में कूटनीतिक रूप से निजाम से संधि कर ली। कंपनी ने उत्तरी सरकारों के बदले निजाम को हैदरअली के विरुद्ध सहायता देने का वचन दिया। इसके साथ ही हैदर की नजर निजाम के बालाघाट क्षेत्र पर थी जिससे निजाम भयभीत था। मराठा पेशवा माधवराव भी हैदरअली से नाराज था क्योंकि हैदरअली ने मराठा क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था और वह उसके चाचा रघुनाथराव से के साथ गुपचुप वार्ता कर रहा था। इसलिए पेशवा ने निजाम से मित्रता करके हैदरअली के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय किया। इस प्रकार अंग्रेजों, निजाम और मराठों ने हैदरअली के विरुद्ध एक गुट का निर्माण कर लिया। इसके बाद अंग्रेजों ने 1667 ई. में मैसूर पर आक्रमण कर दिया।
हैदर की कूटनीति
हैदरअली शिक्षित तो नहीं था, लेकिन वह कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसने बिना घबराये कूटनीति से काम लेते हुए पेशवा को 35 लाख रुपये चौथ देने तथा छीने हुए मराठा प्रदेशों को वापस करने का वादा करके त्रिगुट से अलग कर दिया। इसी प्रकार कूटनीतिक उपाय से उसने निजाम को भी त्रिगुट से अलग कर दिया। उसने निजाम को आश्वासन दिया कि वह अंग्रेजों से उत्तरी सरकार के जिले वापस लेने में उसकी सहायता करेगा।
निजाम का विश्वासघात
इसके बाद हैदरअली और निजाम की सेनाओं ने कर्नाटक पर आक्रमण किया। लेकिन स्मिथ के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने चंगामाघाट तथा त्रिनोमली के युद्ध में निजाम और हैदरअली की संयुक्त सेनाओं को पराजित कर दिया। इसके बाद निजाम ने हैदरअली का साथ छोड़ दिया और वह अंग्रेजों के साथ हो गया।
निजाम के विश्वासघात से हैदरअली विचलित नहीं हुआ। उसने अपूर्व शौर्य और साहस के साथ अंग्रेजी सेना का सामना किया। उसने बंबई की अंग्रेजी फौजों को बार-बार हराया और भयंकर विनाश करता हुआ वह मद्रास के पास तक पहुँच गया जिससे मद्रास सरकार भयभीत हो गई।
मद्रास की संधि (अप्रैल, 1769)
हैदरअली ने 4 अप्रैल 1769 ई. में अंग्रेजों को मद्रास की संधि करने पर बाध्य कर दिया। अंग्रेजों ने हैदरअली के जीते प्रदेशों पर उसके आधिपत्य को स्वीकार किया और यह वादा किया कि अगर कोई शक्ति मैसूर पर आक्रमण करेगी तो अंग्रेज हैदर की सहायता करेंगे। अंग्रेजों ने कर्नाटक को मैसूर का करद राज्य स्वीकार कर लिया। इस प्रकार प्रथम मैसूर युद्ध, जो लगभग दो वर्ष लड़ा गया, मैसूर के लिए अत्यंत लाभप्रद रहा तथा अंग्रेजों के लिए घातक सिद्ध हुआ। इससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा क्योंकि एक भारतीय शक्ति ने अंग्रेजों को अपनी शर्तों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया था।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784 ई.)
1769 ई. की मद्रास संधि, संधि न होकर युद्ध-विराम मात्र थी। यद्यपि इस संधि के पश्चात् दस वर्षों तक अंग्रेजों तथा हैदरअली के बीच शांति बनी रही, लेकिन 1771 ई. से ही अंग्रेजों और मैसूर के संबंधों में कटुता आने लगी थी। 1771 ई. में पेशवा माधवराव ने मैसूर पर आक्रमण कर दिया। इसके मुख्यतः दो कारण थे- एक तो हैदरअली ने पेशवा को कर देना बंद कर दिया था और दूसरे, मराठों के आंतरिक विवादों का लाभ उठाकर उसने मराठों को लौटाये गये प्रदेशों पर पुनः आक्रमण कर दिया था।
हैदरअली ने मराठों के विरूद्ध अंग्रेजों से सहायता माँगी, क्योंकि प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद 1769 ई. में अंग्रेजों ने हैदर को वचन दिया था कि यदि कोई तीसरी शक्ति मैसूर पर आक्रमण करेगी, तो अंग्रेज उसकी सहायता करेंगे। लेकिन 1771 ई. में मराठा आक्रमण के विरूद्ध अंग्रेजों ने हैदर की कोई सहायता नहीं की। इससे हैदरअली अंग्रेजों से बहुत रूष्ट हो गया। इसके अलावा, अंग्रेजी सरकार ने 1770 ई. में हैदरअली को गोला-बारूद की पूर्ति का आश्वासन दिया था, उसे भी पूरा नहीं किया था। हैदर के सैनिकों के लिए बंदूकों, तोपों, शोरे तथा गोले-बारुद की आवश्यकता की पूर्ति मलाबार तट पर स्थित फ्रांसीसी बंदरगाह माही से होती थी। हैदरअली भाड़े के फ्रांसीसी और यूरोपीय सैनिकों की मदद से अपनी सेना को संगठित और प्रशिक्षित कर रहा था। अंग्रेज इस मैसूर-फ्रांसीसी संबंध को संदेह की दृष्टि से देखता था।
जब 1772 ई. में हैदरअली ने कुर्ग और मालाबार पर अधिकार कर लिया, तो बंबई के अंग्रेज सशंकित हो गये। 1775 ई. में अंग्रेजों ने गुंटूर पर अधिकार कर लिया, इससे हैदरअली और भी नाराज हो गया क्योंकि वह स्वयं गुंटूर पर अधिकार करना चाहता था। 1775 ई. में अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम भी आरंभ हो गया था, जिसमें फ्रांस अमेरिकन उपनिवेशों की सहायता कर रहा था। अंग्रेजों ने भारत में फ्रांसीसी बस्तियों पर अधिकार करने के क्रम में जब अंग्रेजों ने हैदरअली के इलाके में अवस्थित माही के फ्रांसीसी उपनिवेश पर अधिकार कर लिया, तो हैदर की नाराजगी बढ़ गई। हैदर माही को अपने संरक्षण में समझता था। अतः अंग्रेजों की कार्यवाही को उसने युद्ध की घोषणा माना। दक्षिण भारत के शासक अपने बीच अंग्रेजों की उपस्थिति से बहुत दिनों से चिढ़े हुए थे। इसका फायदा उठाकर हैदरअली ने 1778 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध निजाम तथा मराठों से समझौता कर लिया।
जुलाई, 1780 ई. में हैदरअली ने एक शक्तिशाली सेना और 100 तोपों के साथ कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया और कर्नल बेली के अधीन 2,800 सैनिकों की अंग्रेजों टुकड़ी को तहस-नहस कर अर्काट पर अधिकार कर लिया। जल्द ही लगभग पूरा कर्नाटक उसके कब्जे में आ गया। लेकिन अंग्रेजों की शक्ति और वारेन हेस्टिंग्स की कूटनीति ने एक बार फिर उन्हें बचा लिया। वारेन हेस्टिंग्स ने निजाम को गुंटूर का जिला देकर तोड़ लिया और उसे ब्रिटिश-विरोधी गठजोड़ से अलग करा दिया। 1781-82 ई. में उसने मराठों से शांति-समझौता कर लिया और इस तरह उसकी सेना का एक बड़ा भाग मैसूर के साथ युद्ध से मुक्त हो गया।
वारेन हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ
हैदरअली ने दृढ़तापूर्वक अकेले ही स्थिति का सामना किया। जुलाई, 1781 ई. में आयरकूट की कमान में ब्रिटिश सेना ने पोर्टोनोवो के युद्ध में हैदर को हराकर मद्रास को बचा लिया। इस युद्ध में हैदरअली के 10,000 से अधिक सैनिक मारे गये। सितंबर 1781 में अंग्रेजों ने शोलिंगर के युद्ध में हैदर को हराया। अगले वर्ष हैदर ने युद्ध का पासा पलटते हुए कर्नल ब्रेथवेट के अधीन अंग्रेजी सेना को बुरी तरह पराजित किया और ब्रेथवेट को बंदी बना लिया। इस बीच एक फ्रांसीसी जहाजी बेड़ा एडमिरल सफरन की अध्यक्षता में हैदरअली की सहायता के लिए आ गया। फलतः आयरकूट हैदर के सैनिक-केंद्र अरनी पर अधिकार करने में असफल रहा।
अभी युद्ध समाप्त नहीं हुआ था कि कि तभी अंग्रेजों के सौभाग्य से 7 दिसंबर, 1782 ई. को हैदर की कैंसर से मृत्यु हो गई। हैदर के बहादुर पुत्र टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा। उसने 400 फ्रांसीसी सैनिकों के सहयोग से बंबई से आने वाली सेना को पराजित करके सेनापति मेथ्यूज को बंदी बना लिया। लेकिन इसी समय यूरोप में फ्रांस तथा इंग्लैंड के मध्य युद्ध बंद हो गया। इसलिए टीपू का साथ छोड़कर फ्रांसीसी युद्ध से अलग हो गये।
मंगलौर की संधि (मार्च, 1784)
अंग्रेज और टीपू भी युद्ध से थक चुके थे, इसलिए दोनों पक्षों में मार्च, 1784 में मंगलौर की संधि हो गई और एक-दूसरे के जीते हुए सारे प्रदेश लौटा दिये गये। अंग्रेजों ने संकट के समय मैसूर को सहायता देने का वचन दिया। वास्तव में यह संधि टीपू के लिए उत्कृष्ट कूटनीतिक सफलता थी। इस तरह यह सिद्ध हो गया कि अंग्रेज अभी इतने कमजोर हैं कि मराठों या मैसूर को नहीं हरा सकते। किंतु भारत में अपने बल-बूते पर खड़े होने की योग्यता, उन्होंने निश्चित ही दिखा दी थी। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स इस संधि को अपमानजनक मानता था, हालांकि उसे विवश होकर इस संधि को स्वीकार करना पड़ा था।
हैदरअली का मूल्यांकन
हैदरअली दक्षिण भारत का एक कुशल राजनीतिज्ञ और महान योद्धा था। यद्यपि अंग्रेज, मराठे और निजाम उसके शत्रु बने रहे और उसे मित्रता के बाद धोखा ही मिला। फिर भी, उसने साहस और धैर्य के साथ अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया। उसने धार्मिक पक्षपात से मुक्त होकर प्रजाहित के अनेक कार्य किये। उसका मंत्री पूर्णिया ब्राह्मण था, जो उसका बड़ा ही विश्वासपात्र था। उसने राज्य के प्रायः सभी बड़े पदों पर हिंदुओं की नियुक्ति की थी। भारतीय शासकों में वह पहला था जिसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से सुसज्जित और प्रशिक्षित करने का प्रयास किया था।
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