महाराजा रणजीतसिंह (Maharaja Ranjit Singh)

महाराजा रणजीत सिंह और सिख साम्राज्य की स्थापना महाराजा रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिम भारत के […]

महाराजा रणजीतसिंह (Maharaja Ranjit Singh)

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महाराजा रणजीत सिंह और सिख साम्राज्य की स्थापना

महाराजा रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिम भारत के पंजाब में बिखरे हुए 11 सिख राज्यों (मिसलों) को न केवल एकजुट किया, बल्कि एक आधुनिक सिख साम्राज्य की स्थापना भी की। पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह (1799-1839 ई.) को ‘शेर-ए-पंजाब’ (पंजाब का शेर) के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने 18वीं शताब्दी के अंत और 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में अफगान आक्रमणों, मुगल साम्राज्य के विघटन और आंतरिक कलह के बीच एक शक्तिशाली सिख राज्य का निर्माण किया, जो अफगानिस्तान से लेकर जम्मू-कश्मीर तक फैला हुआ था। रणजीत सिंह की सैन्य प्रतिभा, कूटनीतिक कुशलता और उदार शासन नीति ने उन्हें भारतीय इतिहास की एक अमर विभूति बना दिया। उनके राज्यकाल में पंजाब ने आर्थिक समृद्धि, सांस्कृतिक पुनरुत्थान और सैन्य आधुनिकीकरण का अनुभव किया, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उदय के दौर में एक स्वतंत्र भारतीय शक्ति का प्रतीक था।

रणजीत सिंह का प्रारंभिक जीवन
महाराजा रणजीतसिंह (Maharaja Ranjit Singh)
महाराजा रणजीतसिंह

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 ई. को गुजरांवाला (वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में) में सुकरचकिया मिसल के एक प्रमुख सिख सरदार परिवार में हुआ था। उनके पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के प्रधान थे और उनका राज्य रावी तथा झेलम नदियों के बीच फैला हुआ था। महासिंह एक वीर और प्रतापी योद्धा थे, जिन्होंने अपने आसपास के भूभागों को जीतकर सुकरचकिया मिसल को अन्य मिसलों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया था। रणजीत सिंह की माता राजकौर जिंद साम्राज्य के राजा गजपत सिंह की पुत्री थीं। रणजीत सिंह के बचपन का नाम बुद्धसिंह था, लेकिन 10 वर्ष की आयु में पिता महासिंह ने एक युद्ध में विजय के उपलक्ष्य में उनका नाम रणजीत सिंह रख दिया। बचपन में ही चेचक के कारण रणजीत सिंह की दाहिनी आँख की रोशनी चली गई थी और उनका चेहरा कुरूप हो गया था। यह बीमारी उनके जीवन में एक स्थायी प्रभाव छोड़ गई, लेकिन इससे उनकी इच्छाशक्ति या नेतृत्व क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ा। 12 वर्ष की आयु में ही उनके पिता महासिंह की मृत्यु हो गई, जिसके बाद रणजीत सिंह ने एक प्रतिनिधि परिषद् के माध्यम से शासन संभाला। इस परिषद् में उनकी माता राजकौर और दीवान लाखपत राय प्रमुख थे। 1792 ई. से 1797 ई. तक रणजीत सिंह ने इस परिषद् के साथ मिलकर राज्य संचालन का अनुभव प्राप्त किया, जो उनके भविष्य के नेतृत्व का आधार बना। 17 वर्ष की अवस्था में 1797 ई. में रणजीत सिंह ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली और अपने मामा दलसिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। उन्होंने जिस समय प्रशासन का कार्यभार संभाला, उस समय उनका राज्य रावी नदी एवं चिनाब नदी के बीच के कुछ जिलों तक ही सीमित था। यद्यपि रणजीत सिंह का राज्य छोटा था और उनके साधन सीमित थे, फिर भी अपने सैनिक गुणों के कारण वे एक विस्तृत राज्य स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने सिख मिसलों को एकजुट करने के लिए कूटनीति का सहारा लिया, जिसमें वैवाहिक गठबंधन प्रमुख थे।

रणजीत सिंह के वैवाहिक संबंध और पुत्र

रणजीत सिंह के वैवाहिक संबंध सिख मिसलों के बीच एकता स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण साधन बने। 15 वर्ष की आयु में रणजीत सिंह का पहला विवाह कन्हैया मिसल के सरदार गुरबख्श सिंह एवं सदाकौर की इकलौती पुत्री महारानी मेहताब कौर से हुआ। यह विवाह राजनीतिक गठबंधन का प्रतीक था। 1798 ई. में उनका दूसरा विवाह नकाई मिसल के सरदार रणसिंह की पुत्री राजकौर (महारानी दातार कौर) से हुआ, जो उनकी सबसे प्रिय पत्नी मानी जाती थीं। गुजरांवाला के साहिबसिंह भंगी की विधवाओं—रानी रतन कौर और रानी दया कौर से भी रणजीत सिंह ने चंदर आगी (एक सिख रिवाज) के माध्यम से विवाह किया। इसके अलावा, मोहन सिंह (मोरन सरकार, 1802 ई.), चंद कौर (1815 ई.), लक्ष्मी देवी (1820 ई.), मेहताब कौर (1822 ई.) तथा समन कौर (1832 ई.) को भी उनकी पत्नियाँ बताया जाता है। रणजीत सिंह का अंतिम विवाह 1835 ई. में जिंदकौर से हुआ, जिसने 6 सितंबर 1838 ई. को दलीप सिंह को जन्म दिया, जो सिख साम्राज्य के अंतिम महाराजा बने। इन विवाहों ने रणजीत सिंह को विभिन्न मिसलों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने में सहायता की, जिससे राजनीतिक एकता मजबूत हुई।

रणजीत सिंह के आठ पुत्र बताए जाते हैं, लेकिन उन्होंने केवल दो को ही आधिकारिक रूप से स्वीकार किया। खड़क सिंह रणजीत सिंह की दूसरी पत्नी राज कौर से सबसे बड़े थे। उनकी पहली पत्नी मेहताब कौर ने ईश्वरसिंह को जन्म दिया, जिनकी दो वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गई और रणजीत सिंह से अलग होने के बाद उन्होंने जुड़वाँ तारा सिंह और शेरसिंह को जन्म दिया। रणजीत सिंह के संरक्षण में हुई दो विधवाओं—रानी रतन कौर और रानी दया कौर ने मुल्तान सिंह, कश्मीरा सिंह और पेशावर सिंह को जन्म दिया था। दलीपसिंह उनकी अंतिम पत्नी जिंदकौर से पैदा हुए थे। रणजीत सिंह ने केवल खड़क सिंह और दलीपसिंह को ही अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया था। अन्य पुत्रों को वैधता न देकर उन्होंने उत्तराधिकार को सीमित रखा।

रणजीत सिंह के समय की राजनीतिक स्थिति

18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में मुगल साम्राज्य के विघटन, अफगानों के आक्रमण तथा स्वतंत्र मिसलों के पारस्परिक संघर्षों के कारण पंजाब में अराजकता फैली हुई थी। अहमद शाह अब्दाली का पौत्र जमान शाह पंजाब पर स्वामित्व का दावा करता था, जबकि 1773 ई. में अहमद शाह अब्दाली की मृत्यु के बाद पंजाब में कई सिख मिसलों के राज्य स्थापित हो गए थे। रावी और व्यास नदी के बीच प्रदेश, जिसमें मुल्तान, लाहौर और अमृतसर थे, भंगी मिसल का राज्य था। अमृतसर के उत्तरी भागों में कन्हैया मिसल का राज्य था। जालंधर दोआब के क्षेत्र अहलूवालिया मिसल के अधीन थे। सतलज नदी के दक्षिण में पटियाला, नाभा और कैथल में फुलकियाँ सरदार राज्य करते थे और यमुना नदी तक इनका प्रभुत्व था। मुल्तान, अटक, पेशावर, बन्नू, डेरा इस्माइल खाँ तथा कश्मीर में भिन्न-भिन्न मुसलमान राज्य कर रहे थे। इस अराजक स्थिति में अफगान आक्रमणकारी पंजाब को लूटते रहते थे और सिख मिसलें आपसी कलह में उलझी रहती थीं।

रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ और विजयें

यद्यपि रणजीत सिंह का राज्य आरंभ में रावी नदी एवं चिनाब नदी के बीच के कुछ जिलों तक ही सीमित था, फिर भी अपने सैनिक गुणों के कारण रणजीत सिंह एक विस्तृत राज्य स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने अफगानिस्तान में फैली अराजकता का लाभ उठाकर बिखरी सिख मिसलों को एक सूत्र में पिरोया और कुछ सिख मिसलों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया।

लाहौर पर अधिकार

अफगान शासक जमान शाह के निरंतर आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता फैली हुई थी। 1798-1799 ई. में अफगानिस्तान के शासक जमान शाह ने पंजाब पर आक्रमण किया। इसी समय काबुल में जमान शाह के भाई महमूद ने विद्रोह कर दिया, जिसका दमन करने के लिए उसे काबुल वापस जाना पड़ा। कहा जाता है कि जमान शाह जब वापस जा रहा था, तो उसकी 20 तोपें झेलम नदी में गिर गईं। रणजीत सिंह ने जमान शाह की तोपों को निकलवाकर वापस जमान शाह के पास भेजवा दिया। इस सेवा के बदले प्रसन्न होकर जमान शाह ने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति दे दी। उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने जुलाई 1799 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया।

महाराजा रणजीतसिंह (Maharaja Ranjit Singh)
लाहौर पर अधिकार

जमान शाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का उपशासक स्वीकार करते हुए उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की, जिससे रणजीत सिंह की प्रतिष्ठा बढ़ गई। 12 अप्रैल 1801 ई. को रणजीत सिंह ने ‘महाराजा’ की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के वंशज बाबा साहिब सिंह बेदी ने उनका राज्याभिषेक किया और लाहौर सिख राज्य की राजधानी बनी। लाहौर पर अधिकार करने से रणजीत सिंह को आर्थिक रूप से मजबूत होने का अवसर मिला, क्योंकि लाहौर एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र था।

अमृतसर पर अधिकार

1802 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने भंगी मिसल के सरदार गुलाब सिंह ढिल्लों की विधवा से अमृतसर छीन लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही रणजीत सिंह के अधीन आ गईं। अमृतसर पर अधिकार से सिखों में उनकी धार्मिक प्रतिष्ठा बढ़ गई, क्योंकि अमृतसर स्वर्ण मंदिर का केंद्र था।

सिख मिसलों पर विजय

लाहौर पर अधिकार हो जाने से रणजीत सिंह की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई, जिससे अन्य सिख मिसलों में भय और ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। अन्य सिख मिसलों ने रणजीत सिंह के विरुद्ध एक संघ का निर्माण किया, जिसमें गुजरांवाला का साहिबसिंह भंगी, वजीराबाद का जोधसिंह तथा जस्सा सिंह रामगढ़िया शामिल थे। रणजीत सिंह ने अपनी विधवा सास सदा कौर की सहायता से अपने विरुद्ध बने सिख मिसलों के संघ की संयुक्त सेनाओं को पराजित कर दिया। अपनी सफलता से उत्साहित रणजीत सिंह ने 1803 ई. में अकालगढ़, 1805 ई. में अमृतसर, 1807 ई. में दलेलवाड़ी, 1809 ई. में गुजरांवाला और 1809 ई. में फेजलपुरिया पर अधिकार कर लिया। कुछ सिख मिसलें सतलज नदी के पूर्व में जाकर अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार किया, लेकिन कन्हैया, रामगढ़िया और अहलूवालिया मिसलें रणजीत सिंह के साथ रहने में गौरव अनुभव करने लगीं। इन विजयों ने सिख मिसलों की आपसी कलह को समाप्त कर एकता का आधार प्रदान किया।

होशियारपुर और कांगड़ा पर अधिकार

जिस समय रणजीत सिंह पंजाब के मैदानों में अपना प्रभाव-विस्तार कर रहे थे, कांगड़ा के डोगरा सरदार राजा संसार चंद कटोच ने बजवाड़ा और होशियारपुर पर आक्रमण कर दिया। 1804 ई. में रणजीत सिंह ने संसार चंद कटोच को हराकर होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चंद ने पुनः कहलूर के राजा पर आक्रमण किया। कहलूर के राजा ने नेपाल के गोरखों से सहायता माँगी और अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का किला घेर लिया। विवश होकर संसार चंद ने रणजीत सिंह से सहायता माँगी और कांगड़ा का दुर्ग देने का वादा किया। दीवान मोहकम चंद के अधीन सिख सेना ने गोरखों को पराजित कर दिया, जिससे कांगड़ा पर सिखों का अधिकार हो गया और संसार चंद उनकी सुरक्षा में आ गया। गोरखों ने अंग्रेजों से सहायता माँगी, लेकिन 1814-1816 ई. तक दोनों के बीच युद्ध हुआ। कांगड़ा विजय ने रणजीत सिंह को पहाड़ी क्षेत्रों में प्रवेश का द्वार खोल दिया।

मालवा अभियान

सतलज नदी के पूर्वी क्षेत्र (सिस-सतलज) को स्थानीय भाषा में ‘मालवा’ कहा जाता था, जिसमें पटियाला, नाभा और जिंद राज्य थे और इन पर फुलकियाँ मिसल का अधिकार था, जो सिंधिया के संरक्षण में थे। रणजीत सिंह की आकांक्षा थी कि वह समस्त सिखों के राजा बनें। इसलिए वह सतलज नदी के पूर्वी तट पर स्थित सिख राज्यों को जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित करना चाहते थे। मालवा को जीतने के लिए रणजीत सिंह ने दो अभियान किए।

पहला मालवा अभियान

रणजीत सिंह ने अपना पहला मालवा अभियान 1806 ई. में किया। इस अभियान का कारण नाभा और पटियाला के राजाओं के बीच दोलाधी नामक कस्बे को लेकर विवाद था। नाभा तथा जिंद के राजाओं ने रणजीत सिंह से सहायता माँगी। रणजीत सिंह ने 20,000 की एक बड़ी सेना के साथ सतलज नदी को पार कर पटियाला के राजा को पराजित किया। इसके बाद पटियाला, नाभा तथा जिंद के राजाओं ने रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। लौटते समय रणजीत सिंह ने अनेक नगरों से कर वसूल किया।

दूसरा मालवा अभियान

1807 ई. में रणजीत सिंह ने दूसरा मालवा अभियान किया। इस दूसरे अभियान का कारण पटियाला की रानी आसकौर का अपने पति पटियाला के राजा साहिब सिंह से कुछ विवाद था। रानी ने विवाद को हल करने के लिए रणजीत सिंह को आमंत्रित किया। रणजीत सिंह ने दूसरी बार सतलज पार कर राजा-रानी के विवाद को हल किया। इस बार रणजीत सिंह ने अंबाला, थानेसर, नारायणगढ़ और फिरोजपुर तक घावा मारा। लौटते हुए रणजीत सिंह ने नारायणगढ़, बढ़नी, जीरा और कोटकपुरा को जीत लिया।

रणजीत सिंह का अंग्रेजों से संबंध

आरंभ में रणजीत सिंह की नीति अंग्रेजों से अलग रहने की रही। रणजीत सिंह का अंग्रेजों से संपर्क पहली बार लाहौर पर अधिकार करने के बाद हुआ। 1800 ई. में अंग्रेज सरकार जमान शाह के आक्रमण को लेकर चिंतित हो गई क्योंकि उसे लगता था कि रणजीत सिंह जमान शाह की सहायता कर सकता है। लॉर्ड वेलेजली ने मुंशी मीर यूसुफ अली नामक व्यक्ति को अपना दूत बनाकर लाहौर भेजा। रणजीत सिंह ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वह अंग्रेजों के प्रति मित्रता भाव रखता है, लेकिन जमान शाह के बारे में महाराजा ने कोई वादा नहीं किया। रणजीत सिंह का अंग्रेजों से दूसरी बार संपर्क 1805 ई. तब हुआ जब अंग्रेजों से पराजित होकर यशवंत राव होल्कर रणजीत सिंह की सहायता प्राप्त करने के लिए अमृतसर पहुँचा। पराजित यशवंत राव होल्कर का पीछा जनरल लेक कर रहा था और व्यास नदी पर रुक गया क्योंकि वह रणजीत सिंह के राज्य में प्रवेश नहीं करना चाहता था। इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिए रणजीत सिंह ने ‘सरबत खालसा’ की बैठक बुलाई, जिसमें सरबत खालसा ने होल्कर की सहायता करने की सिफारिश की। किंतु राजा रणजीत सिंह ने होल्कर को सहायता देने से स्पष्ट इनकार कर दिया क्योंकि रणजीत सिंह को ज्ञात था कि दुर्बल होल्कर को सहायता देने से नवजात सिख राज्य खतरे में पड़ जाएगा।

लाहौर की संधि (जनवरी 1806 ई.)

रणजीत सिंह ने जनरल लेक के पास अपने दूत भेजे, जिसके परिणामस्वरूप रणजीत सिंह और अंग्रेजों के बीच जनवरी 1806 ई. में लाहौर की संधि हो गई। लाहौर की संधि के अनुसार महाराजा ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वह होल्कर को अपने राज्य से निकाल बाहर कर देगा और अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को वचन दिया कि वे सिख राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। इस संधि ने सिख राज्य को स्थिरता प्रदान की और रणजीत सिंह को पूर्वी सीमा पर अंग्रेजों से चिंता मुक्त होने का अवसर दिया।

सतलज के पूर्व में प्रसार

सतलज पार की नाभा और पटियाला जैसी सिख रियासतें पहले दौलतराव सिंधिया के अधिकार में थीं, किंतु 1803 ई. की सुर्जी-अर्जुनगाँव की संधि से चंबल के उत्तर दिल्ली तथा सरहिंद तक अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित हो गया था। आपसी स्थानीय विवादों और जॉर्ज बार्लो की अहस्तक्षेप की नीति के कारण रणजीत सिंह को 1806-07 ई. में सतलज पार की सिख रियासतों पर अधिकार करने का प्रयास किया जो व्यावहारिक रूप से अंग्रेजों के संरक्षण में थीं। 1807 ई. में रणजीत सिंह ने सिख राज्यों पर आक्रमण कर लुधियाना पर कब्जा कर लिया और इसे अपने चाचा भागसिंह को दे दिया। 1807 ई. में जब रणजीत सिंह ने दोबारा सतलज नदी को पार किया तो 1808 ई. में सिख मिसलों के प्रधान दिल्ली में अंग्रेज रेजिडेंट से मिले और अंग्रेजों की सहायता के लिए प्रार्थना की।

लॉर्ड मिंटो की नीति

मिंटो रणजीत सिंह के राज्य-विस्तार को पसंद नहीं करता था, लेकिन राजनीतिक कारणों से लाहौर के स्वामी के साथ खुला संघर्ष भी नहीं चाहता था। मिंटो को तुर्कों और फारसियों के साथ फ्रांसीसियों के आक्रमण का भय था, इसलिए उसने रणजीत सिंह के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा। दरअसल, लॉर्ड मिंटो अपनी कूटनीति के द्वारा एक ओर रणजीत सिंह के राज्य-प्रसार पर रोक लगाना चाहता था और दूसरी ओर फ्रांसीसियों के विरुद्ध रणजीत सिंह की मित्रता भी प्राप्त करना चाहता था। रणजीत सिंह जानते थे कि इस समय अंग्रेजों को उनकी मित्रता की आवश्यकता है, इसलिए उन्होंने सतलज के पूर्व के क्षेत्रों को जीत लिया और अंग्रेजों से यह माँग की कि सभी सिख राज्यों पर उनकी सर्वोच्चता को स्वीकार किया जाए। 1807 ई. में नेपोलियन तथा जार की संधि से फ्रांसीसी आक्रमण की संभावना बढ़ गई, इसलिए 1808 ई. में मिंटो ने चार्ल्स मेटकाफ को रक्षात्मक संधि के लिए लाहौर भेजा। मेटकाफ ने सिख-सतलज रियासतों को सुरक्षा का आश्वासन दिया। रणजीत सिंह अंग्रेजों की नीयत को अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उन्होंने अपने सतलज पार के तीसरे अभियान को रोकने में ही अपनी भलाई समझी क्योंकि आक्ट्रलोनी ने घोषणा कर दी थी कि सिख राज्य के प्रसार को शक्ति के द्वारा रोका जाएगा। एक बार तो ऐसा लगा कि दोनों पक्षों में युद्ध हो जाएगा, किंतु रणजीत सिंह ने अंततः समझौता करना ही श्रेयस्कर समझा। फलस्वरूप दोनों पक्षों के बीच 25 अप्रैल 1809 ई. को अमृतसर की संधि हो गई।

अमृतसर की संधि (25 अप्रैल 1809 ई.)

अमृतसर की संधि की प्रमुख धाराएँ इस प्रकार थीं—

रणजीत सिंह और अंग्रेज दोनों एक-दूसरे से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखेंगे। सतलज नदी को सिख राज्य तथा अंग्रेजी राज्य की सीमा माना गया। सतलज के उत्तर में रणजीत सिंह की सत्ता को स्वीकार कर लिया गया और वचन दिया गया कि वे उसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे। सतलज के दक्षिण में रणजीत सिंह का अधिकार केवल उन क्षेत्रों पर स्वीकार किया गया जो मेटकाफ के आने से पहले रणजीत सिंह के अधिकार में थे। लेकिन इनमें भी सैनिकों की एक सीमित संख्या रखनी थी। अन्य सिख राज्य अंग्रेजों के संरक्षण में माने गए और रणजीत सिंह ने इन राज्यों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। लुधियाना में अंग्रेज अपनी सेना रखेंगे। रणजीत सिंह को स्वतंत्र राजा और अंग्रेजों का मित्र स्वीकार किया गया।

अमृतसर की संधि का परिणाम

अमृतसर की संधि रणजीत सिंह की कूटनीतिक पराजय थी, क्योंकि इस संधि ने सतलज के दक्षिण और पूर्व में उनके राज्य के विस्तार को रोक दिया। इस संधि के अनुसार रणजीत सिंह को फरीदकोट और अंबाला पर से भी अपना अधिकार छोड़ना पड़ा। इसके बाद रणजीत सिंह ने अपने राज्य का विस्तार पश्चिम और उत्तर में किया। यह संधि अंग्रेजों की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता थी क्योंकि बिना किसी युद्ध के उनका राज्य सतलज तक विस्तृत हो गया।

सिस-सतलज पार रियासतों पर अंग्रेजों का संरक्षण

अमृतसर की संधि के पश्चात् 3 मई 1809 ई. को लॉर्ड मिंटो ने घोषणा द्वारा सतलज नदी के इस पार की रियासतों को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। मिंटो की घोषणा में पाँच प्रावधान थे—

  1. मालवा और सरहिंद की रियासतों को रणजीत सिंह की सत्ता और प्रभाव से अंग्रेज रक्षा करेंगे।
  2. संरक्षण में ली गई रियासतें किसी भी प्रकार की भेंट या कर आदि से मुक्त रहेंगी।
  3. इन रियासतों के शासक आंतरिक प्रशासन में पहले की तरह स्वतंत्र रहेंगे।
  4. यदि किसी कारणवश अंग्रेजी सेना को इन रियासतों से होकर जाना पड़े, तो उसके शासक सेना की आवश्यकता की वस्तुओं का प्रबंध करेंगे।
  5. यदि इन रियासतों पर शत्रु आक्रमण करेगा, तो अंग्रेजी सेना के साथ इन रियासतों के शासक भी शत्रु को निकालने में अपनी सेनाओं को अंग्रेजी सेना में शामिल करेंगे।
रणजीत सिंह की पश्चिम में विजय

अमृतसर की संधि के बाद रणजीत सिंह को सतलज के दक्षिण और पूर्व छोड़कर अन्य दिशाओं में राज्य-विस्तार का अवसर मिल गया। 1809-10 ई. में रणजीत सिंह ने गोरखों से कांगड़ा क्षेत्र छीन लिया। जब अंग्रेजों और गोरखों में युद्ध हुआ, तो रणजीत सिंह ने गोरखों की सहायता करने से इनकार कर अंग्रेजों के प्रति मित्रता निभाई। 1802 ई. से 1807 ई. तक मुल्तान विजय के असफल प्रयासों के बाद अप्रैल 1818 ई. में रणजीत सिंह मुल्तान पर सफल रहे।

1813 ई. में कश्मीर पर सेना भेजी गई। काबुल के मंत्री फतेह खाँ के साथ समझौता हुआ, लेकिन हिस्सा न मिलने पर केवल कोहिनूर हीरा मिला। 1819 ई. में खड़क सिंह तथा दीवान मोहकम चंद के नेतृत्व में कश्मीर जीता गया। कश्मीर विजय ने साम्राज्य को हिमालय तक विस्तृत किया।

1813 ई. में अफगानों को हराकर अटक का किला जीता गया। हजारा युद्ध में फतेह खाँ को पराजित किया, जिससे प्रतिष्ठा बढ़ी। 1820 ई. में डेरा गाजी खाँ और 1822 ई. में डेरा इस्माइल खाँ, मनकेरा, टांक, बन्नू तथा कुंडियान जीते गए। ब्रिटिश इतिहासकार जे. टी. व्हीलर के अनुसार अगर वे एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदुस्तान को फतह कर लेते। 1836 ई. में लद्दाख जीता गया। डेराजात विजय ने सिंधु नदी के दक्षिणी तट तक विस्तार किया।

पेशावर पर अधिकार के लिए अफगानों से कई युद्ध लड़े गए। तीन बार पेशावर जीता गया, लेकिन हर बार छोड़ना पड़ा। 1834 ई. में जनरल हरिसिंह नलवा ने पेशावर जीता। 1835 ई. में शाह शुजा से संधि कर सिंध के पश्चिमी तट के प्रदेश मिलाए। काबुल के दोस्त मुहम्मद ने कबाइलियों के साथ आक्रमण किया, लेकिन असफल रहा। 1836 ई. में हरिसिंह नलवा ने जमरूद युद्ध में अफगानों को पराजित कर जमरूद का दुर्ग जीता, लेकिन वे मारे गए। खैबर दर्रे तक प्रदेश अधीन हो गया। मुल्तान, पेशावर और कश्मीर रणजीत सिंह की बड़ी सफलताएँ थीं।

त्रिपक्षीय संधि

ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड ऑकलैंड ने 1838 ई. में काबुल में शाह शुजा को बिठाने के लिए त्रिपक्षीय संधि का प्रस्ताव किया। रणजीत सिंह तैयार न थे, क्योंकि अंग्रेजी प्रभाव सिख राज्य के लिए खतरा था। लेकिन विरोध न कर सहमति दी, शर्त यह कि अंग्रेजी सेना पंजाब से न गुजरे। 1838 ई. में ऑकलैंड से भेंट हुई और आश्वासन मिला। सिख राजा और अंग्रेज संदेह में थे। अंग्रेज सिख को शक्तिशाली न होने देना चाहते थे। 26 जून 1838 ई. को त्रिपक्षीय संधि हुई। ब्रिटिश सेना दक्षिण से अफगानिस्तान गई, जबकि सिख सेना खैबर से काबुल की विजय परेड में शामिल हुई। संधि ने सिख राज्य को अंग्रेजों से अंतिम कूटनीतिक संबंध दिया, लेकिन अफगान अभियान की विफलता ने मृत्यु के बाद पतन का मार्ग प्रशस्त किया।

रणजीत सिंह की मृत्यु

27 जून 1839 ई. को 59 वर्ष की आयु में रणजीत सिंह की लाहौर में मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय उनका साम्राज्य उत्तर में लद्दाख एवं इस्कार्दू तक, उत्तर-पश्चिम में सुलेमान पहाड़ियों तक, दक्षिण-पूर्व में सतलज नदी तक एवं दक्षिण-पश्चिम में शिकारपुर-सिंध तक प्रसारित था। लेकिन इस विस्तृत साम्राज्य में रणजीत सिंह कोई मजबूत शासन व्यवस्था स्थापित नहीं कर सके और न ही सिखों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में पैदा की थी। रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं निर्बल सिद्ध हुए, इसलिए उनकी मृत्यु के 10 वर्ष बाद ही उनके साम्राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिख राज्य में आंतरिक कलह बढ़ गई, जो आंग्ल-सिख युद्धों का कारण बनी।

सैनिक सर्वोच्चता की स्थापना

1824 ई. तक रणजीत सिंह ने पश्चिम और उत्तर में विस्तार पूरा कर लिया था। सिख राज्य का आधार सैनिक शक्ति था। सिख मिसलों के संगठन के स्थान पर सैनिक सर्वोच्चता स्थापित हुई। रणजीत सिंह जानते थे कि विशाल साम्राज्य को सैनिक शक्ति से ही संगठित रखा जा सकता है। इसलिए सैन्य-व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। भारतीय सेना की परंपरागत दुर्बलता से परिचित रणजीत सिंह ने कंपनी की तर्ज पर सेना का आधुनिकीकरण किया। उनकी सेना तीन भागों में विभाजित थी—फौज-ए-आम, फौज-ए-खास और फौज-ए-बेकवायद।

फौज-ए-आम

फौज-ए-आम रणजीत सिंह की नियमित सेना थी, जिसे ‘फौज-ए-कवायद’ भी कहा जाता था। फौज-ए-आम के तीन भाग थे—पदाति, अश्वारोही और तोपखाना। उन्होंने विदेशी कमांडरों, विशेषकर फ्रांसीसी कमांडरों की सहायता से अपनी सेना को प्रशिक्षित करवाने की व्यवस्था की, जिसमें सैनिकों को नियमित ड्रिल और अनुशासन का प्रशिक्षण दिया जाता था।

पदाति सेना

फ्रांसीसी प्रशिक्षकों के प्रभाव के कारण रणजीत सिंह ने अश्वारोही सेना की अपेक्षा पैदल सेना को अधिक महत्व दिया। पैदल सेना बटालियनों में संगठित थी और प्रत्येक बटालियन में 900 सैनिक होते थे, जो छावनी में रहते थे और मासिक वेतन ‘माहदारी’ पाते थे। पैदल सेना की स्थापना ने सिख सेना को आधुनिक बना दिया।

अश्वारोही सेना

रणजीत सिंह की अश्वारोही सेना के तीन भाग थे—नियमित घुड़सवार, अनियमित अश्वारोही या घुड़चेहरा और जागीरदारों के अश्वारोही सैनिक। नियमित घुड़सवार सेना का सेनापति भूतपूर्व फ्रांसीसी सैनिक था। अनियमित में पुराने सिख सरदारों के सदस्य लिए जाते थे, जिन्हें नियमित ड्रिल न दी जाती थी, लेकिन अच्छा वेतन जरूर मिलता था। तीसरी श्रेणी में जागीरदारों की अश्वारोही सेना थी, जिसे ‘मिसलदार’ कहते थे। आरंभ में अश्वारोही सेना में पठान, राजपूत, डोगरे आदि भरती होते थे, लेकिन बाद में यह सेना सिखों में लोकप्रिय हो गई और बड़ी संख्या में सिख इसमें भरती होने लगे। अश्वारोही सेना को रिसालों में विभाजित किया गया था। इनका वेतन पैदल सैनिकों से अधिक होता था।

तोपखाना

रणजीत सिंह ने अनुभव और आवश्यकता के अनुसार अपने तोपखाने का विकास किया। तोपखाने के संगठन का रूप 1814 ई. में निश्चित हुआ और संपूर्ण तोपखाने को तीन भागों में बाँटा गया—तोपखाना-ए-जिंसी, तोपखाना-ए-अस्पी और जंबूरखाना। औसतन 10 तोपों पर 250 लोग नियुक्त किए जाते थे। तोपखाने का संगठन और संचालन यूरोपीय अधिकारी करते थे। तोपें चार प्रकार की थीं—तोपखाना-ए-शुतरी, तोपखाना-ए-फील, तोपखाना-ए-अस्पी और तोपखाना-ए-गावी। यह विभाजन उन पशुओं के आधार पर किया गया था, जो तोपों को ले जाते थे।

फौज-ए-खास

रणजीत सिंह ने 1822 ई. में फ्रांसीसी विशेषज्ञों जनरल वेंचुरा और एलार्ड के द्वारा एक विशेष आदर्श सेना का गठन करवाया, जिसे ‘फौज-ए-खास’ कहा जाता था, जिसमें कुछ चुने हुए श्रेष्ठ सैनिक होते थे। पूर्ण रूप से फ्रांसीसी आधार पर गठित इस सेना का विशेष चिन्ह होता था और ड्रिल आदि के लिए फ्रांसीसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाता था। इसमें चार पैदल बटालियन, तीन घुड़सवार रेजिमेंट और 24 तोपें थीं। वेंचुरा फौज-ए-खास की पैदल सेना का, एलार्ड अश्वारोही सेना का और इलाही बख्श तोपखाने का कार्यवाह था। रणजीत सिंह ने 1827 ई. में जनरल कोर्ट और 1832 ई. में गार्डनर की नियुक्ति कर अपने तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। उन्होंने लाहौर और अमृतसर में तोपें, गोला-बारूद और हथियार बनाने के कारखाने लगाए और सेना की साज-सज्जा और गतिशीलता पर विशेष बल दिया। फौज-ए-खास ने कई महत्वपूर्ण युद्धों में रणजीत सिंह की सफलता सुनिश्चित की।

फौज-ए-बेकवायद

फौज-ए-बेकवायद अनियमित सेना थी जो दो भागों में बँटी थी—घुड़चढ़ा खास और मिसलदार। घुड़चढ़ा खास में भू-स्वामी वर्ग के लोग होते थे, जो हथियार और घोड़े स्वयं लाते थे। राज्य की ओर से उन्हें जागीर या नगद वेतन मिलता था। मिसलदारों में जीते गए छोटे सरदारों के अश्वारोही दल होते थे, जो विभिन्न अश्वारोही दलों का नेतृत्व करते थे। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और नियमित सेना में भी इनकी संख्या अधिक हो गई। यह अनियमित सेना डेरों में विभाजित थी और प्रत्येक डेरे को मिसल कहा जाता था। मिसल का अधिकारी एक उच्च सरदार होता था। 1838 ई. में आकलैंड ने इन घुड़चढ़ों को देखा था और इन्हें संसार की ‘सबसे सुंदर फौज’ कहा था। यद्यपि रणजीत सिंह अपनी सेना को नगद वेतन देते थे, किंतु संभवतः इनका चार महीने का वेतन शेष रहता था।

वेतन-वितरण की दृष्टि से सेना तीन भागों में बँटी थी—फौज-ए-सवारी, फौज-ए-आम और फौज-ए-किलाजात। फौज-ए-सवारी का वेतन दीवान देता था, फौज-ए-आम का वेतन बख्शी देता था, जबकि फौज-ए-किलाजात का वेतन थानेदारों द्वारा दिया जाता था।

रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अधिकारी थे, जिनमें फ्रांसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज, एंग्लो-इंडियन, स्पेनिश आदि थे। ऐसे अधिकारियों में जेम्स, गार्डनर, वेंचुरा, एलार्ड, कोर्ट और एविटेबल प्रमुख थे। इन विदेशी अधिकारियों को न केवल पंजाब में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया, बल्कि कई को सिविल प्रशासन में ऊँचे पद भी प्रदान किए गए जैसे—वेंचुरा कुछ समय के लिए डेराजात का गवर्नर था और एविटेबल को 1837 ई. में पेशावर का गवर्नर बनाया गया था। इन विदेशी सलाहकारों ने सिख सेना को यूरोपीय स्तर का बना दिया।

रणजीत सिंह का प्रशासन

रणजीत सिंह के उदय के पूर्व सिख मिसलों का राज्य संघात्मक था। मिसलों की शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक थी। इन मिसलों की वार्षिक बैठक एक बार अमृतसर में होती थी, जहाँ सभी मिसलों के सरदार एक प्रधान का निर्वाचन करते थे। इसी बैठक में संघ की नीतियों का निर्धारण होता था। बाह्य संकट का सामना प्रायः सभी मिसलें एकजुट होकर करती थीं। यद्यपि प्रशासन की संपूर्ण शक्ति महाराजा में केंद्रित थी, किंतु वे हितकारी स्वेच्छाचारी शासक थे। एक प्रबुद्ध निरंकुश शासक होते हुए रणजीत सिंह ने खालसा के नाम पर शासन किया, इसलिए उनकी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा जी’ कहा जाता था।

यद्यपि शासन का मूलाधार महाराजा थे, किंतु उनकी सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी, जिससे आवश्यक विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था। मंत्रिपरिषद् में पाँच मंत्री होते थे, जैसे मुख्य मंत्री (राजा ध्यान सिंह डोगरा), विदेश मंत्री (फकीर अजीजुद्दीन), रक्षा मंत्री (दीवान मोहकम चंद, दीवान चंद और हरिसिंह नलवा), वित्त मंत्री (भवानी दास), सदर दीवान (जो राजमहल और राज घराने की देखभाल करता था)।

रणजीत सिंह की केंद्रीय सरकार में 12 प्रशासनिक विभाग थे। ‘दफ्तर-ए-असवाब-उल-माल’ राजस्व विभाग था, जो राज्य की आय का विवरण रखता था। यह विभाग दो भागों में बँटा था—’जमा खर्चे तअल्लुका’ और ‘जमा खर्चे सायर’। जमा खर्चे तअल्लुका विभाग भू-राजस्व की आय का विवरण रखता था, जबकि जमा खर्चे सायर विभाग अन्य करों से होने वाली आय का विवरण रखता था।

‘दफ्तर-ए-तौजीहत’ राज्य के व्यय का हिसाब-किताब रखता था। ‘दफ्तर-ए-मवाजिब’ वेतन का विवरण रखता था, जिसमें सैनिकों का वेतन भी शामिल था। ‘दफ्तर-ए-रोजानामचा-ए-खर्च-ए-खास’ महाराजा के व्यय का हिसाब रखता था।

रणजीत सिंह का प्रांतीय प्रशासन

प्रशासनिक सुविधा के लिए रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों (प्रांतों) में बँटा हुआ था—पेशावर, कश्मीर, मुल्तान और लाहौर। प्रत्येक सूबे में कई परगने होते थे और परगनों का विभाजन तालुकों में किया गया था। प्रत्येक तालुके में 50 से 500 गाँव या मौजे होते थे। सूबे का प्रमुख अधिकारी ‘नाजिम’ होता था, जो सूबे में शांति-व्यवस्था बनाए रखने के साथ-साथ दीवानी तथा फौजदारी के न्यायिक कार्य भी करता था। प्रत्येक तालुका में एक कारदार होता था और उसके कार्य भी नाजिम के समान होते थे। स्थानीय प्रशासन के रूप में गाँव में पंचायतें प्रभावशाली ढंग से कार्य करती थीं।

रणजीत सिंह की भू-राजस्व-व्यवस्था

रणजीत सिंह के राजस्व का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था, जिसे बड़ी कठोरता से वसूल किया जाता था। सरकार उपज का 2/5 से 1/3 भाग अर्थात् 33 से 40 प्रतिशत भू-राजस्व के रूप में वसूल करती थी। महाराजा अपने कृषकों से अधिक से अधिक कर प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे, किंतु वे कृषकों के हितों की रक्षा भी करते थे और सैन्य-अभियानों के दौरान सेना को आज्ञा थी कि खेतों को नष्ट न किया जाए। आरंभ में राजस्व संग्रह बँटाई प्रणाली के आधार पर किया जाता था। 1823 ई. में रणजीत सिंह ने कनकूत प्रणाली अपनाई। 1835 ई. में महाराजा ने भू-राजस्व की वसूली का अधिकार ठेके पर नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को देना आरंभ किया था, जो तीन से छह वर्षों के लिए दिए जाते थे।

भू-राजस्व के अलावा अन्य करों से भी राज्य की आय होती थी, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘सायर’ कहा जाता था। इसके अंतर्गत ‘नजराना’, ‘जब्ती’, ‘आबकारी’, ‘वजूहात-ए-मुकर्ररी’ और ‘चौकियात’ वसूल किए जाते थे। महाराजा को विशेष अवसरों पर धनी प्रजा, अधीन सरदारों, पराजित शासकों द्वारा जो उपहार दिया जाता था, उसे ‘नजराना’ कहते थे। भ्रष्ट और लापरवाह अधिकारियों से जुर्माने के रूप में वसूल किए गए धन को ‘जब्ती’ कहा जाता था। कभी-कभी राज्य अपने द्वारा प्रदत्त भूमि को वापस ले लेता था, उसे भी ‘जब्ती’ कहा जाता था। न्यायालयों से जुर्माने या फीस के रूप में होने वाली आय को ‘वजूहात-ए-मुकर्ररी’ कहा जाता था। ‘चौकियात’ के अंतर्गत वे कर आते थे, जो दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर लगाए गए थे। इन करों को 48 मदों में विभाजित किया गया था और इनकी वसूली नगद की जाती थी।

इस प्रकार रणजीत सिंह पंजाब में पिछली अर्धशताब्दी से व्याप्त अराजकता और लूटमार को समाप्त कर एक शांतिपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था देने में सफल रहे। उनकी दूसरी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने सिखों की एक अनियमित संघीय व्यवस्था को एकीकृत राज्य प्रणाली में बदल दिया।

रणजीत सिंह की न्याय-व्यवस्था

रणजीत सिंह की न्याय प्रणाली कठोर, किंतु तत्काल थी। आजकल की तरह न्यायालयों की श्रृंखला नहीं थी। न्याय प्रायः स्थानीय प्रश्न था न कि राज्य का। मुस्लिम प्रकरणों का न्याय काजी करता था। स्थानीय प्रशासक स्थानीय परंपराओं के अनुसार न्यायिक कार्य संपन्न करते थे। तालुकों में कारदार और ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें न्यायिक कार्य करती थीं। राजधानी लाहौर में आधुनिक उच्च न्यायालय के समान एक ‘अदालत-ए-आला’ था, जहाँ संभवतः महाराजा स्वयं विवादों का निपटारा करते थे। यद्यपि अंग-विच्छेदन का दंड कभी-कभार दिया जाता था, लेकिन मृत्युदंड देने की प्रथा नहीं थी। अपराधियों पर बड़े-बड़े जुर्माने लगाए जाते थे, जिससे राज्य को पर्याप्त आय होती थी। न्याय प्रणाली में स्थानीय पंचायतों को प्राथमिकता दी जाती थी, जो विवादों का त्वरित समाधान करती थीं।

रणजीत सिंह की धार्मिक नीति

रणजीत सिंह एक दूरदर्शी और लोकोपकारी शासक थे, जिनकी उदारता और सहिष्णुता की भावना की प्रायः सभी इतिहासकारों ने प्रशंसा की है। रणजीत सिंह ने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सभी जातियों के लोगों को योग्यतानुसार पदों पर नियुक्त किया। उन्होंने सिखों के अलावा, हिंदुओं, डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किए। रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री राजा ध्यान सिंह डोगरा (राजपूत), विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन (मुसलमान) और वित्तमंत्री दीनानाथ (ब्राह्मण) थे। उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर रोक लगाई और कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब गुरुद्वारे का जीर्णोद्धार कर सोना मढ़वाया और उसी समय से उसे ‘स्वर्ण मंदिर’ कहा जाने लगा। रणजीत सिंह ने हिंदू मंदिरों, जैन तीर्थों और मुस्लिम मस्जिदों को भी संरक्षण प्रदान किया, जिससे उनके राज्य में धार्मिक सद्भाव का वातावरण बना। उनकी नीति ‘सर्व धर्म समभाव’ की थी, जो आधुनिक भारत के सिद्धांतों की प्रतीक है।

रणजीत सिंह का मूल्यांकन

रणजीत सिंह में असाधारण सैनिक गुण, नेतृत्व और संगठन की क्षमता विद्यमान थी। अफगानों, अंग्रेजों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने अपनी योग्यता के बल पर एक संगठित सिख राज्य का निर्माण कर खालसा का आदर्श स्थापित किया, जिसके कारण उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान् विभूतियों में की जाती है। एक फ्रांसीसी पर्यटक विक्टर जाकोमॉंट ने महाराजा रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन महान् से की है। बैरन फॉन ह्यूगेल ने लिखा है: ‘‘संभवतः इतना विस्तृत राज्य इतने थोड़े अपराधों से कभी नहीं बना।’’ रणजीत सिंह एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें समय और परिस्थिति की अच्छी समझ थी। रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेजों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अंदर घुसने दिया। रणजीत सिंह के प्रति अंग्रेजों की नीति सदैव आक्रामक और अन्यायपूर्ण रही, यद्यपि वे सदैव मित्रता का ढोंग करते थे। इसके साथ ही वे सदैव रणजीत सिंह को घेरने की चालें चलते रहे। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के साथ अपने किए गए वादों को कभी नहीं निभाया। उन्होंने सतलज के पश्चिम में भी रणजीत सिंह की शक्ति को कम करने का प्रयास किया। रणजीत सिंह ने सदैव संधियों का पालन किया और उन्होंने अंग्रेजों के प्रति अपनी मित्रता की नीति को कभी नहीं त्यागा।

कुछ विद्वान रणजीत सिंह की इस बचाव की नीति को ‘कायरतापूर्ण’ बताते हैं और आरोप लगाते हैं कि रणजीत सिंह ने अपने राज्य की रक्षा करने के स्थान पर ‘घुटने टेकने की नीति’ अपनाई। रणजीत सिंह ने कभी भी अंग्रेजों के विरुद्ध शानदार साहस का प्रदर्शन नहीं किया। वास्तव में, रणजीत सिंह अपनी सामरिक दुर्बलता से परिचित थे और तत्कालीन परिस्थिति में अपने नवगठित सिख राज्य को बचाए रखने के लिए ही अंग्रेजों से सीधे संघर्ष में बचते रहे। उनकी मुख्य सफलता सिख राज्य स्थापित करने में थी, जिसकी वे अपने जीते-जी रक्षा करने में सफल रहे। रणजीत सिंह का राज्यकाल पंजाब के इतिहास में स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, जहाँ सिख संस्कृति, कला और वास्तुकला का पुनरुत्थान हुआ।

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