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अमोघवर्ष’ प्रथम (814 ई.-878 ई.)
गोविंद तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका अल्पवयस्क पुत्र शर्व ‘अमोघवर्ष’ प्रथम 814 ई. में राष्ट्रकूट राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। राज्यारोहण के समय उसकी उम्र केवल 6 वर्ष थी, जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार वह 16 वर्ष का आयु में राजा हुआ था। अपनी अल्पवयस्कता के कारण उसने कई वर्षों तक मालवा एवं गुजरात के प्रशासक कर्क के संरक्षण में शासन का संचालन किया।
अमोघवर्ष का वास्तविक नाम शर्व था और अमोघवर्ष उसकी सबसे प्रसिद्ध उपाधि थी। उसने महाराजाधिराज, भट्टारक, रट्टमार्तंड, नृपतुंग, महाराजशंड, वीरनारायण, असितधवल, पृथ्वीवल्लभ, लक्ष्मीवल्लभ, प्रभूतवर्ष तथा जगतुंग आदि विरुद भी धारण किया था। असगव्वे नामक उसकी एक रानी का उल्लेख मिलता है।
अमोघवर्ष की प्रारंभिक कठिनाइयाँ
816 ई. के कर्क के नौसारी दानपत्र से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष के शासन के प्रारंभिक वर्ष तो शांतिपूर्ण व्यतीत हुए, किंतु 817 ई. के आसपास उसे एक भयंकर विद्रोह का सामना करना पड़ा। संजन ताम्रपत्रों से भी पता चलता है कि कलि के प्रभाव के कारण (शनि की भूकुटिभंग मात्र से) मंत्रियों, सामंतों, राजकीय पदाधिकारियों तथा और संबंधियों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसमें हजारों आज्ञाकारी अधिकारी मार डाले गये। इस अराजकता एवं अव्यवस्था की स्थिति में जन-जीवन पूर्णतया असुरक्षित हो गया और अमोघवर्ष को राजसिंहासन का परित्याग करना पड़ा। चूंकि अमोघवर्ष के शत्रुओं को राष्ट्रकूट कहा गया है। इससे ऐसा लगता है कि विद्रोहियों में संभवतः उसके पारिवारिक प्रतिद्वंद्वी ही प्रमुख रूप से सम्मिलित थे।
अमोघवर्ष की राजनैतिक उपलब्धियाँ
किंतु कई राष्ट्रकूटों लेखों से पता चलता है कि अमोघवर्ष के संरक्षक कर्क ने बड़ी दृढ़ता से विद्रोहों का दमन किया और अमोघवर्ष को पुनः राष्ट्रकूट राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। इस प्रकार अपनी विपत्तियों पर विजय प्राप्त कर देदीप्यमान सूर्य की भाँति उसका पुनः अभ्युदय हुआ। उसने धीरे-धीरे राज्य में शांति और व्यवस्था की स्थिति को बहाल कर लिया। चूंकि 816 ई. के नौसारी ताम्रपत्रों में अमोघवर्ष के विरुद्ध विद्रोह का उल्लेख नहीं हुआ है, जबकि गुजरात के शासक कर्क के 821 ई. से सूरत ताम्रपत्रों में अमोघवर्ष प्रथम के पुनः सिंहासनारूढ़ होने का वर्णना मिलता है। इसलिए यह विद्रोह 816 एवं 821 ई. के बीच किसी समय हुआ होगा।
वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष
गोविंद तृतीय ने वेंगी के विजयादित्य को अपदस्थ कर उसके भाई भीमसलुकि को वेंगी के राजसिंहासन पर आसीन किया था। यद्यपि गोविंद के समय में विजयादित्य राष्ट्रकूटों के विरोध का साहस नहीं कर सका, लेकिन अमोघवर्ष के राज्यकाल में उसने न केवल भीमसलुकि को अपदस्थ कर स्वयं राजा बन बैठा, बल्कि अपनी स्वतंत्रता भी घोषित कर दी। यही नहीं, उसने अमोघवर्ष के विरूद्ध विद्रोह में सक्रिय भूमिका भी निभाई थी।
अपनी प्रारंभिक कठिनाइयों से निपटने के बाद अमोघवर्ष ने अपने इस पुराने शत्रु के विरूद्ध अभियान किया और 830 ई. के आसपास वेंगी पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। किंतु वेंगी के चालुक्य अम्म प्रथम के इडर लेखों के अनुसार विजयादित्य द्वितीय 12 वर्ष तक राष्ट्रकूटों एवं गंगों से संघर्ष करता रहा और इस अंतराल में उसने 108 युद्धों में राष्ट्रकूटों को पराजित किया था-
गंगारट्टबलैः सार्ध द्वादशाब्दानहर्निशम्,
भुजार्जितबलः खड्मसहायो नवविक्रमैः।
अष्टोत्तरं युद्धशतं युद्धवा शम्भोर्महालयम्,
तत्संख्यमकरोद् धीरो विजयादित्य-भूपतिः।।
यद्यपि यह विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु इससे यह प्रमाणित होता है कि पूर्वी चालुक्यों ने अमोघवर्ष को कई बार पराजित किया।
गोविंद चतुर्थ के 933 ई. के सांगली लेख से पता चलता है कि अमोघवर्ष ने विंगवल्ली (स्तंभपुरी के पास) के युद्ध में चालुक्यों को बुरी तरह परास्त कर यमराज को राजसी भोज दिया था। इंद्र तृतीय के बेगुम्रा ताम्रपत्रों में भी कहा गया है कि अमोघवर्ष ने चालुक्यरूपी समुद्र में समाई अपने राजवंश की प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार किया-
निमग्नां यश्चुलुक्याब्धौ रट्टराज्यश्रियं पुनः।
पृथ्वीमिवोद्धरन धीरो वीरनारायणोऽभवत्।।
866 ई. के सिरूर ताम्रपत्रों से भी पता चलता है कि वेंगी का शासक अमोघवर्ष की वंदना करता था। इस प्रकार अमोघवर्ष ने 830 ई. के लगभग विजयादित्य द्वितीय को विंगवल्ली के युद्ध में पराजित किया और वीरनारायण की उपाधि धारण की।
किंतु वेंगी पर अमोघवर्ष का अधिकार अधिक समय तक नहीं रह सका, क्योंकि चालुक्य लेखों में कहा गया है कि 844 ई. में विजयादित्य के पौत्र गुणग-विजयादित्य ने वेंगी का पुनः उद्धार किया। विजयादित्य तृतीय के सेनानायक पांडुरंग ने भी दावा किया है कि उसने 845-46 ई. में अमोघवर्ष प्रथम से वेंगी को वापस ले लिया। संभवतः अमोघवर्ष इस समय गुजरात के राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध में उलझा हुआ था, इसलिए उसने वेंगी की ओर ध्यान नहीं दे सका।
गंगों से संघर्ष
अमोघवर्ष को अपने शासन के आरंभ में लगभग बीस वर्षों तक गंगों से संघर्ष करना पड़ा। गोविंद तृतीय ने गंगों को पराजित करने के बाद शिवमार द्वितीय को अपनी अधीनता में गंग-सिंहासन पर बैठाया था। कुछ समय तक शिवमार द्वितीय अमोघवर्ष की अधीनता स्वीकार करता रहा, किंतु 816 ई. के आसपास उसने अमोघवर्ष के विरुद्ध विद्रोह में सक्रिय रूप से भाग लिया था। कहा जाता है कि स्थानीय राष्ट्रकूट सामंतों ने तुक्कुरु जिले के केगिमोगेयुर नामक स्थान पर हुए एक युद्ध में शिवमार को पराजित कर मार डाला।
शिवमार के बाद उसके भतीजे राजमल्ल ने गंगवाड़ी का शासन सँभाला। उसने अपने राज्य को राष्ट्रकूटों की अधीनता से मुक्त करने का प्रयास किया। किंतु राष्ट्रकूटों के योग्य सेनानायक बंकेय ने गंगवाड़ी के उत्तरी भाग को जीत लिया और राजमल्ल को पराजित कर कावेरी नदी के आगे खदेड़ दिया।
कन्नूर लेख से पता चलता है कि इसी समय राजधानी में विद्रोह हो गया और अमोघवर्ष ने बंकेय को गंगवाड़ी से वापस बुला लिया। बंकेय की वापसी के पश्चात् राजमल्ल ने पुनः अपने पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया। अभिलेखों में कहा गया है कि उसने राष्टकूटों से अपने देश का उसी प्रकार उद्धार किया, जिस प्रकार विष्णु ने वराह के के रूप में नरक से पृथ्वी का उद्धार किया था। इन घटनाओं को 830-835 ई. के बीच रखा जा सकता है।
राजमल्ल के बाद उसका पुत्र एरेयंग, जिसे नीतिमार्ग और रणविक्रम के नाम से भी जाना जाता है, 843 ई. के लगभग राजा हुआ। उसने बंकेय की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर अपने मित्र नोलंबवंशीय मंगि के सहयोग से गंगवाड़ी के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया।
इस बार अमोघवर्ष ने नीतिमार्ग को दंडित करने का कार्य अपने अधीनस्थ पूर्वी चालुक्य शासक गुणग-विजयादित्य को सौंपा। गुणग ने पहले एरेयंग के नोलंबवंशीय मित्र मंगि को पराजित किया और उसे मौत के घाट उतार दिया। अपने मित्र मंगि की दुर्दशा देखकर नीतिमार्ग ने विजयादित्य के सामने संधि का प्रस्ताव रखा, जिसे अमोघवर्ष ने भी स्वीकार कर लिया। 850 ई. के लगभग दोनों राजवंशों में संधि हो गई। इस संधि की संपुष्टि के लिए अमोघवर्ष ने अपनी पुत्रियों- रेवकनिम्मडि तथा चंद्रोवलब्वा (चंद्रवल्लभा) का विवाह क्रमशः एरेयंग नीतिमार्ग तथा उसके पुत्र गुणदत्तरंग बुतुग प्रथम के साथ कर दिया, जिससे दोनों राजवंशों में मधुर संबंध स्थापित हो गया। रेवकनिम्मडि रायचुर दोआब के प्रशासन की देखभाल करती थी।
लाट के राष्ट्रकूटों से संघर्ष
अमोघवर्ष प्रथम को गुजरात की राष्ट्रकूट शाखा के साथ भी एक दीर्घकालीन संघर्ष में उलझना पड़ा, जो लगभग 25 वर्षों तक चलता रहा। संभवतः 824 ई. में कर्क की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र ध्रुव प्रथम गुजरात का शासक हुआ था। लगभग 835 ई. तक ध्रुव प्रथम अमोघवर्ष के प्रति निष्ठावान बना रहा। किंतु लगता है कि बाद में अमोघवर्ष की गंगवाड़ी में व्यस्तता का लाभ उठाकर उसने अमोघवर्ष के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। राष्ट्रकूट अभिलेखों से पता चलता है कि ध्रुव का ‘वल्लभ’ नामक राजा से दो पीढ़ियों तक संघर्ष चला और अंत में ध्रुव मारा गया। ध्रुव की इस पराजय का उल्लेख 867 ई. के बेग्रुमा दानपत्रों में मिलता है। यद्यपि किसी समकालीन लेख में ‘वल्लभ’ का व्यक्तिगत नाम नहीं मिलता है, लेकिन अल्तेकर ने वल्लभ की पहचान अमोघवर्ष से की है। कन्नूर लेख के अनुसार अमोघवर्ष प्रथम ने अपने संबंधी सामंत के विद्रोह को दबाने के लिए ही बंकेय को गंगवाड़ी से बुलाया था। यह विद्रोह गुजरात के राष्ट्रकूटों का ही प्रतीत होता है।
ध्रुव प्रथम के उत्तराधिकारी अकालवर्ष के समय में भी गुजरात के राष्ट्रकूटों का अमोघवर्ष से संघर्ष चलता रहा। अकालवर्ष के बाद उसका उत्तराधिकारी ध्रुव द्वितीय बड़ी कठिनाई से लाट प्रदेश का शासक बना। 860 ई. के आसपास ध्रुव और अमोघवर्ष के बीच संधि हो गई, क्योंकि प्रतिहार शासक मिहिरभोज की बढ़ती शक्ति से दोनों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया था।
प्रतिहारों से संघर्ष
संभवतः मिहिरभोज ने नागभट्ट द्वितीय की पराजय का बदला लेने के लिए राष्ट्रकूट साम्राज्य के उत्तरी भागों पर आक्रमण किया। बेगुम्रा ताम्रपत्रों में ध्रुव ने दावा किया है कि उसने 867 ई. के पहले अकेले ही मिहिरभोज को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया था-
गुर्जरबलमतिवलवत् समुद्यतं बृं हित च कुल्येन।
एकाकिनैव विहितं परांमुखं लीलया येन।।
किंतु लेख का यह कथन विश्वसनीय नहीं है। ध्रुव द्वितीय अकेले मिहिरभोज का सामना करने की स्थिति में नहीं था। वैसे भी मिहिरभोज की वास्तविक शत्रुता अमोघवर्ष प्रथम से थी। ध्रुव द्वितीय को अमोघवर्ष की सहायता से ही मिहिरभोज को रोकने में सफलता मिली होगी। प्रतिहार शासक संभवतः गुजरात तथा काठियावाड़ के कुछ प्रदेशों पर अधिकार करके ही संतुष्ट हो गया और पुनः अमोघवर्ष प्रथम के काल में राष्ट्रकूट-प्रतिहार संघर्ष का कोई विवरण नहीं मिलता है।
पालों से संबंध
अमोघवर्ष के नीलगुंड तथा सिरुर के लेखों से पता चलता है कि अंग, बंग एवं मगध के शासक उसकी वंदना करते थे। अंग, बंग तथा मगध बंगाल के पाल शासकों के अधीन थे।
नारायणपाल के बादल स्तंभ लेख में पालों द्वारा एक द्रविड़ राजा को पराजित करने का दावा किया गया है। डॉ. अल्तेकर ने इस पराजित द्रविड़ शासक की पहचान अमोघवर्ष से की है। एच.सी. रायचौधरी द्रविड़ों को राष्ट्रकूटों से भिन्न मानते हैं, क्योंकि राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय को भी ‘द्रविड़ों का विजेता’ कहा गया है। रायचौधरी के अनुसार द्रविड़ों का तात्पर्य पांड्यों से है। बी.पी. सिन्हा मुंगेर लेख के आधार पर द्रविड़ों की पहचान पल्लवों से करते हैं। किंतु इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अमोघवर्ष ने कभी पाल शासकों के क्षेत्रों में सैनिक अभियान किया था। यदि नारायणपाल के समय में अमोघवर्ष प्रथम ने कलिंग होते हुए उत्तर की ओर अभियान किया भी होगा, तो भी किसी को निर्णायक सफलता नहीं मिली होगी।
अमोघवर्ष की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
अमोघवर्ष प्रथम का शासनकाल सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से एक समृद्ध युग था। वर्धा ताम्रपत्रों के अनुसार अमोघवर्ष प्रथम ने मान्यखेट नगर (कर्नाटक के गुलबर्गा का माल्खेद) की स्थापना की और इसे अपनी राजधानी बनाया। वैभव में यह नगर इंद्रपुरी से भी बढ़कर था।
अमोघवर्ष शांत प्रकृति का था और उसकी रुचि युद्ध की अपेक्षा धर्म, विद्या, साहित्य और कला में अधिक थी। वह स्वयं कन्नड़ और संस्कृत भाषाओं का ज्ञाता था। उसने स्वयं कन्नड़ भाषा में ‘कविराजमार्ग’ रचना की, जो कन्नड़ कविता के क्षेत्र एक मील का पत्थर है। संस्कृत में ‘प्रश्नोत्तररत्नमालिका’ की रचना अमोघवर्ष की लेखन-क्षमता का प्रमाण है, जिसका बाद में तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया।
अमोघवर्ष ने अपनी राजसभा में अनेक विद्वानों और लेखकों को आश्रय प्रदान किया। इनमें ‘आदिपुराण’ (हरिवंशपुराण) तथा ‘पार्वाभ्युदय’ के लेखक जिनसेन, ‘गणितसारसंग्रह’ के लेखक महावीराचार्य एवं ‘अमोघवृत्ति’ के लेखक शकटायन विशेष महत्वपूर्ण हैं। जिनसेन की गणना अमोघवर्ष के धार्मिक गुरु के रूप की गई है।
अमोघवर्ष जैन मत का अनुयायी था। गुणभद्र सूरि के ‘उत्तरपुराण’ के अनुसार अमोघवर्ष, जिनसेन का शिष्य और दिगंबर संप्रदाय का अनुयायी था। महावीराचार्य ने अपनी रचना ‘गणितसारसंग्रह’ की भूमिका में भी बताया गया है कि अमोघवर्ष जैन धर्म में अनुरक्त था। शक संवत् 782 ई. के कोन्नूर अभिलेख के अनुसार उसने मान्यखेट में जैन देवेंद्र को तथा बंकेय द्वारा निर्मित एक जैन-मंदिर को भूमिदान दिया था।
जैन मत का अनुयायी होने के बावजूद अमोघवर्ष ब्राह्मण धर्म के प्रति भी श्रद्धावान् था। भट्ट अकलंक के ‘कर्नाटकशब्दानुशासन’ में अमोघवर्ष की तुलना शिवि एवं दधीचि जैसे पौराणिक महापुरुषों से की गई है, जिसने जनकल्याण के लिए अपने मांस और अस्थि का दान कर दिया था। संजन ताम्रलेख के अनुसार अमोघवर्ष ने प्रजा के कल्याण के लिए वामहस्त की एक अंगुली काटकर महालक्ष्मी को अर्पित किया था।
अमोघवर्ष का मूल्यांकन
अमोघवर्ष प्रथम का दीर्घकालीन शासन राजनीतिक उपलब्धियों की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। उसके शासनकाल में मालवा राष्ट्रकूटों के प्रभुत्व से निकल गया और वेंगी के चालुक्यों ने भी राष्ट्रकूटों को भारी क्षति पहुँचाई। लाट जैसे छोटे प्रदेश के सामंतों ने भी उसे लंबे समय तक संघर्ष में उलझाये रखा। उसमें इतनी सैनिक शक्ति या प्रशासकीय क्षमता नहीं थी कि वह ध्रुव अथवा गोविंद तृतीय की भाँति उत्तर भारत को आक्रांत करता। संभव है कि कोशल अथवा उड़ीसा में उसका पालों के साथ छिट-पुट संघर्ष हुआ हो, लेकिन इन संघर्षों में किसी को निर्णायक सफलता नहीं मिल सकी।
यह सही है कि अमोघवर्ष प्रथम के शासनकाल में राष्ट्रकूट साम्राज्य का न तो विस्तार हुआ और न ही राष्ट्रकूटों ने कोई महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की। फिर भी, एक शासक के रूप में राष्ट्रकूट वंश में इतिहास में अमोघवर्ष विशिष्ट स्थान का भागी है। इसने अपने राज्य में शांति और व्यवस्था बनाये रखी तथा आक्रमणकारियों से अपने देश को सुरक्षित रखा। इसने सभी धर्मों में समन्वय लाने का प्रयास किया, सभी के प्रति समान सम्मान-भाव रखा और मान्यखेट जैसे नगर को अपनी राजधानी बनाया, जो साम्राज्य के अंत तक राष्ट्रकूटों की राजधानी बना रहा। उसके धार्मिक स्वभाव, कला और साहित्य में उनकी रुचि तथा उसकी शांतिप्रियता के कारण उसकी तुलना सम्राट अशोक से की गई है और उसे ‘दक्षिण का अशोक’ कहा जाता है।
संजन ताम्रलेख में अमोघवर्ष को गुप्त सम्राट ‘साहसांक’ (चंद्रगुप्त द्वितीय) से भी महान् बताया गया है। कहा गया है कि ‘विद्या, दान तथा पुरस्कार देने में वह चंद्रगुप्त से भी बढ़कर था, किंतु चंद्रगुप्त के चारित्रिक दोष उसमें नहीं थे।’
एक जैनग्रंथ के आधार पर दिगंबर जैनियों की मान्यता है कि उसने वृद्धावस्था में राज्य का परित्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था। किंतु अमोघवर्ष की अंतिम ज्ञात तिथि 878 ई. और इसके पुत्र की प्रथम ज्ञात तिथि 783 ई. है। इससे लगता है कि उसकी मृत्यु 880 ई. के आस-पास हुई होगी।
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