राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय (Rashtrakuta Ruler Indra III, 914-928 AD)

राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय (Rashtrakuta Ruler Indra III, 914-929 AD)

इंद्र तृतीय

कृष्ण द्वितीय के पश्चात् उसका पौत्र इंद्र तृतीय (914-929 ई.) राजा बना, क्योंकि उसके करहद एवं देवली ताम्रपत्रों से पता चलता है कि उसके पुत्र जगत्तुंग की मृत्यु उसके जीवनकाल में ही हो गई थी। यद्यपि इंद्र तृतीय का औपचारिक राज्याभिषेक फरवरी, 915 ई. में कुरुंदक तीर्थ में कराया गया, किंतु संभवतः इसके पहले 914 ई. के उत्तरार्द्ध में ही वह राष्ट्रकूट सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो चुका था। इंद्र तृतीय ने राजमार्तंड (राजाओं में सूर्य), रट्टकंदप (राष्ट्रकूटों में कामदेव के समान सुंदर), नित्यवर्ष तथा कीर्तिनारायण जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

इंद्र तृतीय की उपलब्धियाँ

गोवर्द्धन का उद्धार

कहा जाता है कि राज्यारोहण के ठीक बाद अपने पट्टबंधोत्सव के पूर्व ही इंद्र ने मेरु को ध्वस्त कर दिया और गोवर्धन (नासिक जिले में) को जीतने वाले उपेंद्र नामक शासक को पराजित कर गोवर्द्धन का उद्धार किया था-

कृतगोवधनोद्धारं हेलोन्मूलितमेरुणा।

उपेन्द्रमिन्द्रराजेन जित्वा येन च विस्मितम्।।

मेरु तथा उपेंद्र की पहचान के संबंध में विवाद है। कीलहर्न और विश्वनाथ रेउ ने मेरु की पहचान कन्नौज से की है, जबकि डी.आर. भंडारकर के अनुसार उपेंद्र प्रतिहार शासक महीपाल का दूसरा नाम था। ए.एस. अल्तेकर ने उपेंद्र की पहचान प्रतिहारों के सामंत परमार कृष्णराज से की है, क्योंकि उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार कृष्णराज का दूसरा नाम उपेंद्रराज था।

मेरु का कन्नौज से समीकरण तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि राज्यारोहण के तुरंत बाद दूरस्थ प्रतिहार राजधानी पर आक्रमण करना इंद्र तृतीय के लिए संभव नहीं था। अल्तेकर का मानना है कि प्रारंभ में परमार संभवतः प्रतिहारों के सामंत थे और उन्हीं के आदेश पर परमार कृष्णराज (उपेंद्रराज) ने नासिक पर आक्रमण कर गोवर्द्धन को घेर लिया था।

जो भी हो, इंद्र तृतीय ने उपेंद्र को पराजित कर गोवर्द्धन पर अधिकार कर लिया और उपेंद्र को अपना प्रभुत्व मानने के लिए बाध्य किया। हरसोला अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि परमारों ने राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

उत्तर भारतीय अभियान

उपेंद्रराज की पराजय और अधीनता ने इंद्र तृतीय के उत्तर भारत पर आक्रमण के लिए मार्ग प्रशस्त किया। संयोगवश 908 ई. में प्रतिहार शासक महेंद्रपाल प्रथम की मृत्यु के बाद भोज द्वितीय और महीपाल के बीच उत्तराधिकार के लिए गृहयुद्ध आरंभ हो गया। पहले चेदि शासक कोक्कल की सहायता से भोज ने कुछ समय के लिए गद्दी प्राप्त कर ली, किंतु बाद में महीपाल चंदेल शासक हर्ष की सहायता से भोज को अपदस्थ कर राजसिंहासन पर अधिकार करने में सफल हो गया।

इस अनुकूल राजनैतिक परिस्थिति में इंद्र तृतीय ने 916 ई. की हेमंत ऋतु में उत्तर भारत की ओर प्रस्थान किया। कैम्बे ताम्रपत्रों के अनुसार उसने सर्वप्रथम उज्जयिनी पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद उसकी सेना संभवतः झाँसी तथा भोपाल होती हुई कालपी पहुँची, जहाँ उसने यमुना नदी को पार किया और गंगा-यमुना नदियों के दोआब क्षेत्र पर आक्रमण किया। प्रतिहार शासक महीपाल राजधानी छोड़कर संभवतः महोबा भाग गया और इंद्र ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया-

यन्माद्यद्विपदन्तघातविषमं कालप्रिय प्रांगणम्।

तीर्णा यत्तुरगैरगाधयमुना सिंधुप्रतिस्पर्धिनी।

येनेदं हि महोदयारिनगरं निर्मूलमुन्मीलितम्।

नाम्नाद्यापि जनैः कुशस्थलमिति ख्याति परां नीयते।।

कन्नौज पर अधिकार करने के बाद इंद्र तृतीय ने अपने वेमुलवाडवंशीय सामंत नरसिंह द्वितीय को महीपाल के पीछे लगा दिया। नरसिंह के पुत्र अरिकेशरि के आश्रित कवि पम्प ने अपने कन्नड़ काव्य ‘पम्पभारत’ में कहा है कि नरसिंह ने प्रतिहार राजा की राजलक्ष्मी का अपहरण कर लिया, उसका पीछा करते हुए उसने अपने घोड़ों को गंगा के संगम में स्नान कराया और अपने यश की स्थापना की। इस विवरण से लगता है कि महीपाल को संभवतः प्रयाग तक खदेड़ा गया था।

कन्नौज पर अधिकार करना इंद्र की महानतम् सैनिक उपलब्धि थी। यद्यपि उसके पहले ध्रुव तथा गोविंद ने भी प्रतिहार शासकों को पराजित किया था, किंतु वे कन्नौज पर अपना झंडा नहीं फहरा सके थे। इस प्रकार इंद्र की इस विजय से राष्ट्रकूटों की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई, लेकिन इस विजय से भी राष्ट्रकूटों को क्षेत्रीय अथवा कोई अन्य लाभ नहीं हुआ।

वास्तव में इंद्र तृतीय का उत्तर भारतीय अभियान आश्चर्यजनक होते हुए भी एक धावा मात्र था। अल्तेकर के अनुसार वह नरसिंह के साथ प्रयाग तथा काशी तक आया, उसके बाद वह 916 ई. की ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में स्वदेश लौट गया। संभवतः इंद्र तृतीय के वापस जाने के बाद महीपाल ने कन्नौज पर पुनः अधिकार कर लिया। खजुराहो से प्राप्त एक लेख में कहा गया है कि सम्राट हर्ष (चंदेल) ने क्षितिपाल ((महेंद्रपाल) को कन्नौज के सिंहासन पर आसीन किया था। 915-16 ई. में भारत की यात्रा करने वाले अलमसूदी ने भी प्रतिहार शासक की शक्ति एवं समृद्धि की बड़ी प्रशंसा की है। इससे स्पष्ट है कि 917 ई. तक महीपाल कन्नौज पर पूरी तरह प्रतिष्ठित हो चुका था।

वेंगी पर अधिकार

कृष्ण तृतीय के शासन के अंतिम दिनों में वेंगी के चालुक्य शासक भीम ने राष्ट्रकूट सेनाओं को अपने राज्य से बहिष्कृत कर दिया था। इंद्र के समय भीम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र और उत्तराधिकारी विजयादित्य चतुर्थ वेंगी पर शासन कर रहा था।

उत्तर भारत की विजय करने के बाद इंद्र तृतीय ने वेंगी पर आक्रमण किया। चालुक्य अभिलेखों के अनुसार विरजापुरी (कृष्णा के दक्षिण) के युद्ध में विजयादित्य चतुर्थ को सफलता तो मिली, लेकिन अंततः वह स्वयं मारा गया। पराजित होने के बावजूद राष्ट्रकूटों ने वेंगी के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया

विजयादित्य चतुर्थ के बाद अम्म प्रथम ने लगभग 925 ई. तक वेंगी पर निर्विघ्न शासन किया। लेकिन अम्म प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी विजयादित्य पंचम् को युद्धमल्ल के पुत्र ताडप ने अपदस्थ कर दिया। संभवतः उसे राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय से सहायता मिली थी।

किंतु कुछ ही समय बाद ताडप को भी राजगद्दी के एक अन्य दावेदार भीम प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य (भीम द्वितीय) ने अपदस्थ कर मार डाला। इसके बाद इंद्र तृतीय की सहायता से ताडप के पुत्र मल्ल द्वितीय ने भीम द्वितीय को अपदस्थ करके मौत के घाट उतार दिया और चालुक्य सिंहासन पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रकूटों की सहायता से मल्ल द्वितीय 934 ई. तक वेंगी पर शासन करता रहा।

इसके अलावा, इंद्र तृतीय के शासनकाल की अन्य किसी महत्वपूर्ण घटना की सूचना नहीं है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब इंद्र तृतीय उत्तरी भारत के अभियान में व्यस्त था, उसी दौरान उसके सेनानायक जैन श्रीविजय ने दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटों के शत्रुओं को पराजित किया था। किंतु इसका विस्तृत विवरण नहीं मिलता है।

इंद्र ने कलचुरि शासक अम्मणदेव (अनंगदेव) की पुत्री बीजाम्बा से विवाह किया था। दमयंतीकथा तथा मदालसा नामक चंपू का लेखक त्रिविक्रमभट्ट इंद्र का समकालीन था और इसी ने शक संवत् 836 के कुरुंधक अभिलेख की रचना की थी।

पहले माना जाता था कि इंद्र तृतीय ने केवल तीन वर्ष तक शासन किया था, किंतु बाद में लेखों से पता चला कि उसने कम से कम दिसंबर 927 ई. तक शासन किया था। उसकी मृत्यु अनुमानतः 928-29 ई. के आसपास हुई थी।

इंद्र तृतीय के दो पुत्र थे-अमोघवर्ष द्वितीय और गोविंद चतुर्थ। 929 ई. में इंद्र तृतीय की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र अमोघवर्ष द्वितीय राष्ट्रकूट राजवंश का उत्तराधिकारी हुआ।

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