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राजराज चोल प्रथम (985-1014 ई.)
चोल राजवंश की महत्ता का वास्तविक संस्थापक परांतक द्वितीय (सुंदर चोल) की वानवन महादेवी से उत्पन्न पुत्र राजकेशरी अरुमोलिवर्मन (अरुलमोझिवर्मन) था, जो 985 ई. के लगभग राजराज उपाधि धारण कर चोल राजगद्दी पर आसीन हुआ। उसका तीसवर्षीय शासनकाल (985-1015 ई.) चोल वंश का सर्वाधिक गौरवशाली युग माना जाता है। अरुमोलिवर्मन् उत्तमचोल के शासनकाल में युवराज पद पर रहते हुए सैन्य-संचालन और प्रशासन का अच्छा अनुभव प्राप्त कर लिया था।
राजराज (अरिमोलिवर्मन) के राज्यग्रहण से चोल राजवंश के वैभव एवं यश का युग आरंभ हुआ। अपने सुदीर्घ शासनकाल में राजराज प्रथम ने छोटे से चोल राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और उसके युद्धास्त्रों की झंकार से समुद्रपार तक के क्षेत्र गुंजरित हो गये। उसके शासन के अंत तक चोल राज्य एक अत्यंत सुगठित, सुसंपन्न, सैनिक दृष्टि से सशक्त और अतिविस्तृत साम्राज्य में परिवर्तित हो गया। शासन-तंत्र, सैन्य-संगठन, कला एवं स्थापत्य, साहित्य एवं धर्म के क्षेत्र में भी इस युग में असाधारण प्रगति हुई। उसका शासनकाल चोल राजवंश के इतिहास में निर्माण का युग माना जाता है।
राजराज प्रथम की सामरिक उपलब्धियाँ
राजराज प्रथम एक महत्त्वाकांक्षी तथा योग्य शासक था। अपनी साम्राज्य-विस्तारवादी नीति को क्रियान्वित करने के लिए उसने सर्वप्रथम सेना के संगठन एवं प्रशासन की ओर ध्यान दिया। इसके बाद उसने दिग्विजय की योजनाएँ कार्यान्वित की। उसके लेखों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि राजराज ने ‘मुम्मडि चोलदेव’ की उपाधि धारण की और अपने शासनकाल के आठ वर्ष बाद अपना प्रथम सैन्याभियान 994 ई. में शुरु किया और 1002 ई. में समाप्त किया थी।
केरल तथा पांड्यों के विरुद्ध अभियान
राजराज की साम्राज्यवादी नीति का पहला शिकार केरल राज्य हुआ। राजराज ने केरल पर आक्रमण कर वहाँ के शासक भाष्कर रविवर्मन् (987-1036 ई.) को त्रिवेंद्रम् में पराजित कर ‘कांडलूरशालै कलमरुत्त’ की उपाधि धारण की। चूंकि यह उपाधि उसके शासनकाल के चौथे वर्ष से मिलने लगती है, इससे लगता है कि यह विजय उस वर्ष के बाद की गई होगी। किंतु उसका कोई लेख आठवें वर्ष के पहले उस प्रदेश से नहीं मिला है।
केरल पर अधिकार स्थापित करने के पश्चात् राजराज ने पांड्य राज्य पर आक्रमण किया और पांड्य शासक अमरभुजंग को पराजित किया। तिरुवालंगाडु ताम्रलेखों ज्ञात होता है कि राजराज ने पांड्यों की राजधानी मदुरा पर विजय प्राप्त की, पांड्य शासक अमरभुजंग को पराजित कर बंदी बना लिया और ऊँची प्राचीर एवं परिखा से युक्त विलिंद के दुर्ग को जीत लिया। पांड्य क्षेत्र से राजराज के लेख इसके शासनकाल के आठवें वर्ष के बाद से मिलने लगते हैं, जिससे लगता है कि उस प्रदेश पर उसने इसके बाद ही अधिकार किया होगा।
राजराज के शासनकाल के बीसवें वर्ष के एक लेख की प्रस्तावना में कहा गया है कि उसने मदुरा नगर को नष्ट किया, कोल्लम्, कोल्लदेश और कोंडुगोलूर के राजाओं को जीता और समुद्र के राजा से सेवा करवाई। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि राजराज ने केरल और पांड्य राज्यों को एक ही अभियान में विजित किया था। किंतु नीलकंठ शास्त्री ने दो आक्रमणों की संभावना पर जोर दिया है। शास्त्री के अनुसार वह युद्ध, जिसमें राजराज ने चेर और पांडयों को मलनाडु में पराजित करने का दावा किया है, स्पष्टतः उस युद्ध से भिन्न है और बाद का है, जिसमें कांदलूर तथा विलिजम् पर आक्रमण किया गया था।
मदुरा पर अधिकार करने के बाद राजराज प्रथम ने कुडमलैनाडु अथवा कुर्ग (पश्चिमी पर्वतीय प्रदेश) पर आक्रमण कर उडगै के दुर्ग पर अधिकार किया। कलिंगत्तुप्पराणि से ज्ञात होता है कि राजराज ने 18 वनों को पार करते हुए उडगै के दुर्ग को भस्मीभूत किया था। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार राजराज के चौदहवें तथा सोलहवें वर्षों के लेखों में कुडमलैनाडु पर आक्रमण की चर्चा है, किंतु उडगै पर किसी आक्रमण का उल्लेख नहीं मिलता है। दूसरी ओर शिलालेखों में कहा गया है कि राजराज ने पांड्यों को उस समय श्रीहीन किया, जब वे अपने पूर्ण वैभव से संपन्न थे। इससे लगता है कि इस दुर्ग पर अधिकार प्रथम युद्ध के दौरान नहीं किया गया था और कोल्लम् (कोइलोन) को उसने अलग आक्रमण में जीता था। इन सफलताओं के फलस्वरूप राजराज का केरल और पांड्य राज्यों पर अधिकार हो गया।
चंगाल्वों पर अधिकार
राजराज के शासनकाल में गंग मंडल के एक सैनिक अधिकारी ने मनिज को युद्ध में वीरता प्रदर्शित करने के लिए गालव्वि कुर्ग नामक ग्राम और ‘क्षत्रियशिखामणिकोंगाल्व’ की उपाधि प्रदान की थी। संभवतः यह युद्ध किसी स्थानीय राजवंश चंगाल्वों के साथ हुआ था, जिसने बाद में राजराज की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
सिंहल पर आक्रमण एवं सफलता
तिरुमंगल की प्रस्तावना और तिरुवलंगाडु ताम्रपत्रों से पता चलता है कि केरल तथा पांड्य राज्यों पर अधिकार करने के बाद राजराज प्रथम ने सिंहल पर आक्रमण किया। दरअसल, सिंहल शासक महिंद (महेंद्र) पंचम केरल तथा पांड्य शासकों का मित्र था और राजराज के केरल अभियानों के विरुद्ध भाष्कर रविवर्मन् की मदद की थी। 981 ई. के लगभग श्रीलंका में एक भयंकर सैनिक क्रांति हुई, जिसके फलस्वरूप राज्य के एक बड़े भूभाग पर केरल तथा कन्नाट के भृत्तिभोगी सैनिकों ने अधिकार कर लिया और महेंद्र को श्रीलंका के दक्षिण-पूर्व स्थित रोहण के पर्वतीय क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी। इस अवसर का लाभ उठाकर राजराज ने एक नौसेना के साथ सिंहल पर आक्रमण किया। तिरुमंगल की प्रस्तावना में काव्यात्मक रूप में कहा गया है कि राजा ने उग्र सिंहलों से ईडमंडलम् अधिकृत कर लिया और आठों दिशाओं में प्रसिद्धि प्राप्त की। राजराज के आक्रमण के प्रसंग में तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में कहा गया है कि, ‘राम ने बंदरों की सहायता से सागर के आर-पार एक पुल बनाया था और बड़ी कठिनाई से तीक्ष्ण बाणों से लंका के राजा का वध किया था। किंतु यह राजा राम से भी अधिक प्रतापी निकला, क्योंकि इसकी शक्तिशाली सेना ने जलपोतों से समुद्र पारकर लंका के यश को जला दिया-
बद्ध्वा जेतुंजलनिधिजले राघवेन्द्रः कपीन्द्रैः,
लंकानाथं कथमपि शरैस्तीक्षणश्रृंगैर्ज्जघान।
नोव जलनिधिमसौ यस्य दण्डः प्रचण्डो,
वो थम् निरदहदतस्तेन रामभिभूतः।।
इस प्रकार राजराज का श्रीलंका के विरुद्ध अभियान पूर्णतया सफल रहा। चोल सैनिकों ने श्रीलंका की राजधानी अनुराधपुर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और पोलोन्नरुव को अपनी नई राजधानी बनाई और उसका नाम जननाथ मंगलम् रखा। उत्तरी सिंहल के इस प्रदेश को मामुंडी शोलमंडलम् नाम दिया गया और नगर को बहुविधि मंदिरों तथा प्रासादों से सजाया गया। चोल देश के एक तालिकुमारम् नामक अधिकारी ने महातिथ्य (मंतोत) में एक राजराजेश्वर नामक मंदिर का निर्माण करवाया और इस स्थान का नाम राजराजपुर रखा। राजराज ने अपने शासन के उन्नीसवें वर्ष में तंजोर के शिवमंदिर को श्रीलंका के कई गाँवों का दान दिया था। राजराज ने सिंहल के उत्तरी प्रदेशों की विजय संभवतः 989-993 ई. के बीच की थी। किंतु महावंश में राजराज के सिंहल अभियान का उल्लेख नहीं है।
पश्चिमी गंगों के विरुद्ध अभियान
सिंहल-विजय के बाद राजराज ने मैसूर क्षेत्र के पश्चिमी गंगों पर आक्रमण किया और गंगावाडि, तडिगैवाडि और नोलंबवाडि के शासकों को पराजित किया, जो पश्चिमी गंगों के राजनीतिक प्रांत थे। उसके शासनकाल के छठे वर्ष का एक लेख कर्नाटक के मैसूर क्षेत्र से मिला है, जिसमें उसे ‘चोल नारायण’ कहा गया है। चोल नारायण को राजराज प्रथम ही माना जाता है। इससे स्पष्ट है कि इस समय (शक 913=990-91 ई.) तक इस प्रदेश पर चोलों का अधिकार हो गया था। कोलार के एक गंग नामक अधिकारी ने राजराज प्रथम के सातवें वर्ष में दक्षिण अर्काट में एक दान दिया था। नोलम्बों तथा गंगों के विरुद्ध युद्ध का उल्लेख राजराज के शासन के आठवें और नवें वर्ष के लेखों में भी मिलता है। संभवतः इन प्रदेशों पर चोल प्रभुत्व 1117 ई. तक बना रहा।
पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध
चोलों और पश्चिमी चालुक्यों के बीच संघर्ष उत्तमचोल के समय से ही आरंभ हो गया था और चालुक्य शासक तैलप द्वितीय ने संभवतः उत्तमचोल को पराजित भी किया था। राजराज के शासनकाल में तैलप द्वितीय की चोलों से पुनः मुठभेड़ हुई। कोगाली लेख (992 ई.) के अनुसार इसमें भी तैलप को सफलता मिली और उसने चोलों के 150 हाथी छीन लिये। चोलों को पराजित करने के बाद चालुक्य तैलप ने रोड्ड (अनंतपुर) में शिविर लगाया था, जिससे पता चलता है कि राजराज प्रथम का संपूर्ण नोलंबवाडि पर अधिकार नहीं हो सका था। नोलंबवाडि की शासन व्यवस्था के लिए तैलप द्वितीय ने अपने पुत्र युवराज सत्याश्रय को नियुक्त किया था।
लेखों से पता चलता है कि जब तैलप द्वितीय के बाद सत्याश्रय ने कल्याणी की राजगद्दी संभाली, तो राजराज ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए चालुक्यों पर आक्रमण किया। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों के अनुसार सत्याश्रय राजराज की सागर जैसी सेना का सामना करने की मुसीबत से बचने के लिए युद्धभूमि से भाग गया और स्वयं को दुखों का घर (कष्टाश्रय) बना लिया-
सत्याश्रयो यत्वबलसिन्धुरोधात् कष्टम परित्यज्य पलायितोपि।
कष्टाश्रयश्चित्रमिदंच चित्रन्तैलप्रभावद्रवणं यदस्य।।
करंदै अनुदानपत्रों में कहा गया है कि राजराज के हाथियों ने तुंगभद्रा के तट पर प्रलय मचा दिया, युद्ध के घोड़े पर बैठकर उसने अकेले ही चालुक्य सेना के प्रवाह को उसी प्रकार अवरुद्ध कर दिया, जिस प्रकार शिव ने अपनी जटा से पृथ्वी पर अवतरित होती हुई गंगा के वेग को रोक दिया था। उसने चालुक्य सेनापति केशव को बंदी बना लिया। वीरराजेंद्र के कन्याकुमारी लेख में भी राजराज द्वारा सत्याश्रय को पराजित करने का उल्लेख मिलता है।
चोल अभिलेखों के साथ-साथ इस चोल-चालुक्य संघर्ष का विवरण चालुक्य अभिलेखों में भी मिलता है। सत्याश्रय के होट्टर अभिलेख (तिथित 1007 ई.) में कहा गया है कि राजराज नित्यविनोद के पुत्र चोलकुल आभूषण नूरमडि चोलराजेंद्र ने नौ लाख सैनिकों सहित तुंगभद्रा के निकट दोनूर (बीजापुर जिला) तक के प्रदेश को रौंद दिया। उसने समस्त प्रदेश को लूट-पाट की, स्त्रियों-बच्चों और ब्राह्मणों की हत्या की, लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार किया और अनेक दुर्गों को नष्ट कर दिया। किंतु बाद में सत्याश्रय ने चोलों को बलपूर्वक पीछे खदेड़ दिया और अपने राज्य पर पुन अधिकार कर लिया। इस सफलता के बाद सत्याश्रय ‘तिगुलमारि’ (तमिलहंता) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
होट्टूर लेख के विवरण की सत्यता जो भी हो, इतना निश्चित है कि चोल आक्रमण से सत्याश्रय को भारी नुकसान हुआ था। संभव है कि बाद में सत्याश्रय अपनी स्थिति सुदृढ़ कर चोलों को वापस खदेड़ने में सफल हो गया हो, क्योंकि रट्टपाडि पर चोलों के अधिकार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। इस प्रकार इस संघर्ष के फलस्वरूप चोलों के साम्राज्य की उत्तरी सीमा तुंगभद्रा तक पहुँच गई और यह नदी दोनों साम्राज्यों के बीच की सीमा रेखा बन गई ।
वेंगी के पूर्वी चालुक्य राज्य में हस्तक्षेप
राजराज ने पूर्वी चालुक्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने का प्रयत्न किया। इस समय वेंगी की राजनीतिक स्थिति संकटपूर्ण थी। जटाचोड भीम ने 973 ई. के लगभग दानार्णव की हत्याकर वेंगी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया और उसके पुत्रों- शक्तिवर्मन तथा विमलादित्य को वेंगी से बहिष्कृत कर दिया था। वेंगी से निष्कासित दोनों राजकुमारों ने पहले पूर्वी गंग शासक कामार्णव के यहाँ शरण लिये। किंतु जब जटाचोड भीम ने 978 ई. में कामार्णव और 981 ई. में उसके भाई विनयादित्य को पराभूत कर कलिंग पर अधिकार कर लिया, तो शक्तिवर्मन और विमलादित्य ने अपनी माता के साथ चोलों के यहाँ शरण लिया। यद्यपि चोल लेखों में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है, किंतु शक्तिवर्मन के लेखों से ज्ञात होता है कि राजराज ने जटाचोड भीम पर आक्रमण किया था।
राजराज प्रथम ने 999 ई. के कुछ पहले जटाचोड भीम पर आक्रमण किया और अपने शरणागत आश्रित शक्तिवर्मन को वेंगी की गद्दी पर बिठाया। शक्तिवर्मन के लेखों के अनुसार उसने भीम के एक वीर नामक योद्धा का वध किया, बद्देम तथा महाराज को मौत के घाट उतारा और अंत में जटाचोड भीम को समूल नष्ट कर दिया।
शक्तिवर्मन से पराजित होकर जटाचोड भीम ने चोलों के प्रतिद्वंदी कल्याणी के चालुक्य शासक सत्याश्रय से सहायता माँगी। फलतः सत्याश्रय के सहयोग से जटाचोड भीम ने वेंगी पर आक्रमण कर शक्तिवर्मन को पदच्युत् कर दिया। राजराज प्रथम ने पुनः भीम को पराजित कर शक्तिवर्मन को वेंगी की गद्दी पर आसीन किया। भीम निराश होकर पुनः सत्याश्रय की शरण में चला गया।
राजराज की सफलता से क्षुब्ध होकर चालुक्य नरेश सत्याश्रय ने वेंगी पर पुनः आक्रमण किया। सेब्रोलु से प्राप्त एक लेख के अनुसार बायलनंबि के नेतृत्व में पश्चिमी चालुक्य सेना ने वेंगी पर आक्रमण कर धरणिकोट तथा यनदमल के दुर्गों को भस्मीभूत कर दिया तथा सेनापति स्वयं 1006 ई. तक सेब्रोलु में रुका रहा। चोल राजराज ने सत्याश्रय के विरुद्ध दो सेनाएँ भेजी। प्रथम सेना का नेतृत्व उसके पुत्र राजेंद्र चोल ने किया और उसने पश्चिमी चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया। इस सेना ने बनवासी पर अधिकार कर लिया और मान्यखेट को ध्वस्त कर दिया। दूसरी चोल सेना ने वेंगी पर आक्रमण किया और कुल्पक के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। सत्याश्रय को विवश होकर वेंगी छोड़ना पड़ा और शक्तिवर्मन चोलों के संरक्षण में वेंगी का निष्कंटक शासक बन गया। अपने संबंध को सुदृढ़ करने के लिए राजराज ने शक्तिवर्मन के छोटे भाई विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री कुंदवैदेवी का विवाह किया।
कलिंग की विजय
वेंगी को संरक्षित करने के बाद राजराज प्रथम ने कलिंग राज्य की विजय की। कलिंग ने संभवतः शक्तिवर्मन के विरुद्ध जटाचोड भीम की सहायता की थी, क्योंकि पूर्वी गंग शासक कार्माणव और उसके पुत्र विनयादित्य जटाचोड भीम के अधीन थे। किंतु राजराज प्रथम की कलिंग विजय का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है।
मालदीव की विजय
अपने शासन के अंत में राजराज ने अपनी शक्तिशाली नौसेना की सहायता से मालदीव की भी विजय की थी। लेखों से पता चलता है कि उसने 12,000 प्राचीन समुद्री द्वीपों मालदीव पर आक्रमण कर उसे विजित किया। यद्यपि इस नौसैनिक विजय का विस्तृत विवरण नहीं मिलता है, किंतु मालदीव की विजय से लगता है कि राजराज की नौसेना सुदृढ़ और सबल थी।
बाणराज एवं भोगदेव के विरुद्ध सफलता
करंदै ताम्रपत्रों के अनुसार राजराज ने एक युद्ध के बाद बाणराज को भगा दिया और किसी भोगदेव का सिर काट लिया था। किंतु इस संबंध में कोई अन्य सूचना नहीं मिलती है। संभवतः जटाचोड भीम का ही दूसरा नाम भोगदेव था।
इस प्रकार राजराज प्रथम का शासनकाल सामरिक उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। राजराज ने पश्चिमी गंगों, वेंगी के पूर्वी चालुक्यों, मदुरा के पांड्यों, कलिंग के गंगों और केरल के चेरों को पराजित कर चोल राज्य को दक्षिण भारत के एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। चोल वंश का यह पहला शासक था, जिसने अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण भारत से लेकर श्रीलंका तक विस्तृत किया, जिसमें मालदीव के भी कुछ क्षेत्र शामिल थे। यही कारण है कि राजराज प्रथम को चोल वंश का सबसे प्रतापी शासक माना जाता है।
राजराज प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
योग्य प्रशासक और निर्माता
राजराज एक महान विजेता होने के साथ-साथ एक योग्य प्रशासक और निर्माता भी था। उसने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक स्थायी सेना का गठित किया, जिसमें सुदृढ़ नौसेना की प्रधानता थी। इस सेना के बल पर ही उसने सिंहल और मालदीव पर अधिकार किया था।
राजराज प्रथम ने केंद्रीय प्रशासन को ठोस आधार प्रदान किया और लोकशासन-प्रणाली तथा स्वायत्त शासन को पूर्णतया विकसित होने का अवसर दिया। उसने 1,000 ई. के लगभग समस्त कृषि भूमि की पैमाइश करवाई, जमीन की किस्म के अनुसार उचित भूमिकर निर्धारित किया और कई प्रकार के स्वर्ण, रजत एवं ताँबे के सिक्के भी चलाये। उसके सिक्कों के मुख भाग पर राजा को खड़े हुए और पृष्ठ भाग पर बैठे हुए दिखाया गया है। उसके चाँदी और सोने के सिक्के ‘मडै’ सिंहल से मिले हैं, जिन पर राजराज लंकेश्वर नाम अंकित है।
राजराज ने 1012 ई. में अपने सुयोग्य पुत्र राजेंद्र को युवराज नियुक्त किया। राजेंद्र ने पहले ही अनेक युद्धों में भाग लेकर अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी थी। इस नियुक्ति की परंपरा ने कालांतर में चोल प्रशासन में बहुत सहयोग किया, क्योंकि इसके अनुसरण पर युवराजों को प्रशासनिक कार्यों में लगाया जाने लगा। इससे न केवल उत्तराधिकार के लिए होने वाले संघर्षों में कमी आई, बल्कि भावी उत्तराधिकारी प्रशासनिक तथा राजनीतिक गतिविधियों से भी भलीभाँति परिचित होने लगे।
राजराज प्रथम के अनेक प्रशासनिक अधिकारियों एवं सामंतों की सूचना है। इनमें एक महादंडनायक पंचवन महाराय था, जिसकी आज्ञा का पालन गंग और वेंगी मंडल में किया जाता था। सेनापति परमन मलपाडियार ने भी कई युद्धों में उसकी मदद की थी। उसके शासनकाल के सोलहवें वर्ष के एक लेख में तिरुवैयन शंकरदेव नामक एक अधिकारी को गंग राजाओं का वंशज बताया गया है। इनके अतिरिक्त, बाण मारवन नरसिंहवर्मन्, श्रीकृष्णरामन, मुम्मुडि शोलपोशन, राजराज महाराजन (उलगलंदान) के नाम भी मिलते हैं।
राजराज प्रथम की उपाधियां
अपनी विजयों के उपलक्ष्य में राजराज ने रविकुलमाणिक्य, मुम्मुडिचोल, चोलमार्तंड, जयनगोंड, पांड्यकुलाशनि, शिंगलांतक, नित्यविनोद, तेलिंगकुलकाल, राजाश्रय, ‘राजमार्तांड’, अरुमोलि, चोलेंद्रसिंह, शिवपादशेखर जैसी उपाधियाँ धारण की थी, जो उसकी महानता का प्रतीक हैं।
धर्म एवं धार्मिक नीति
राजराज यद्यपि परम शैव था और उसने ‘शिवपादशेखर’ की उपाधि धारण की थी, किंतु अन्य अनेक महान शासकों की भाँति सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। उसने तंजोर में प्रसिद्ध शिवमंदिर का निर्माण करवाया और उसे राजराजेश्वर मंदिर नाम दिया, जो तमिल वास्तुकला का सर्वोत्कृष्ट नमूना है। राजराज ने बौद्ध मठों एवं विहारों को भी संरक्षण दिया। उसके अभिलेखों में विष्णु मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है और कुछ सिक्कों पर विष्णुपद चिन्ह तथा कृष्णमुरलीधर की आकृति मिलती है, जो उसकी धार्मिक उदारता का परिचायक है। उसने जैन धर्म को भी प्रोत्साहन दिया और श्रीविजय के शैलेंद्र शासक मारविजयोत्तुंगवर्मन् को नेगपट्टम में चूड़ामणि बौद्ध विहार के निर्माण के लिए प्रेरित किया। इस विहार में स्थापित बुद्ध की प्रतिमा के लिए उसने आनैमंगलम् गाँव दान दिया था, जिसकी अभिपुष्टि बाद में राजेंद्र ने की थी और ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करवाया था।
इस प्रकार राजराज में एक सफल शासक के सभी गुण विद्यमान थे। चोल वंश के इस प्रतापी शासक ने ‘राजराज’ की पदवी को चरितार्थ कर दिया। उसकी महानता का अनुमान तेन्महादेविमंगलम् में एक चट्टान पर उत्कीर्ण एक संस्कृत छंद से किया जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि विष्णु राजराज के रूप में जन्म लेंगे और वाक्पति उसके मंत्री जयंत के रूप में। राजा संसार का सर्वेक्षण करेगा और त्रिशूल नामक पहाड़ी पर अपने नाम से एक नगर की स्थापना करेगा। उस नगर का नाम ‘नविर्मलै’ होगा। राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से राजराज का शासनकाल चोल राजवंश के चर्मोत्कर्ष का काल माना जा सकता है।
अभिलेखों से पता चलता है कि राजराज प्रथम की कम से कम पंद्रह रानियाँ थीं, किंतु उनके विषय में अधिक ज्ञान नहीं है। उनमें लोकमहादेवी (दंतिशक्ति बिटंकि) अग्रमहिषी थी। उसकी एक दूसरी रानी वानवन (त्रिभुवन) महादेवी थी, जिससे उसका एकमात्र पुत्र राजेंद्र पैदा हुआ था। उसके तीन पुत्रियाँ थीं, जिनमें एक कुंदवै का विवाह विमलादित्य (वेंगी के शासक शक्तिवर्मन के भाई) के साथ हुआ था। दूसरी इससे छोटी माडेवडिगल थी। इस प्रकार राजराज एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता, कुशल प्रशासक, निर्माता तथा धर्मसहिष्णु शासक था। राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से उसका शासनकाल चोल राजवंश के चर्मोत्कर्ष का काल माना जा सकता है। राजराज प्रथम ने लगभग 1014 ई. तक शासन किया। उसके बाद उसका पुत्र राजेंद्रचोल प्रथम गद्दी पर आसीन हुआ।
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