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मेटरनिख
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यूरोपीय इतिहास के प्रतिक्रियावादी युग का मुख्य नायक आस्ट्रिया का प्रधानमंत्री मेटरनिख था। मेटरनिख के नेतृत्व में आस्ट्रिया यूरोप का शक्तिशाली और प्रभावशाली राज्य बन गया। 1815 ई. से 1848 ई. तक 33 वर्षों की अवधि में केवल आस्ट्रिया तथा जर्मनी की राजनीति में ही नहीं, वरन समस्त यूरोप के राजनीतिक घटनाक्रम को मेटरनिख ने अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों और अनुदार कार्यों से प्रभावित किया, इसलिए इस अवधि को ‘मेटरनिख युग’ कहते हैं। वास्तव में ‘उन्नीसवीं सदी में जितने भी राजनीतिज्ञ हुए, उनमें मेटरनिख सर्वाधिक प्रख्यात एवं प्रभावशाली था।’
मेटरनिख का आरंभिक जीवन
मेटरनिख का पूरा नाम काउंट क्लीमेंस वान मेटरनिख था। उसका जन्म आस्ट्रिया के कोब्लजे नगर में एक उच्च कुलीन सामंत परिवार में 15 मई 1773 को हुआ था। मेटरनिख के पिता आस्ट्रिया में राजनयिक सेवा में एक ऊँचे पद पर थे। पश्चिमी जर्मनी में राइन नदी के किनारे उनकी एक विशाल जागीर थी। जर्मनी की पुनर्व्यवस्था के समय नेपोलियन ने इस जागीर को जब्त कर लिया था। 1788 में मेटरनिख ने फ्रांस के स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय में कूटनीति का अध्ययन करने के लिए प्रवेश लिया था। 1790 में फ्रांसीसी क्रांति से बचने के लिए वह जर्मनी के मैंज विश्वविद्यालय में चला गया।
प्रारंभ से ही मेटरनिख कई कारणों से क्रांति और नेपोलियन का व्यक्तिगत शत्रु हो गया था। 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के समय मेटरनिख स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। फ्रांस के भागे हुए कुलीनों से फ्रांसीसी क्रांति की हिंसा, आतंक के शासन की बर्बर हत्याओं और अत्याचार, क्रांतिकारी सिद्धांतों के प्रसार और नेपालियन के साम्राज्यवादी आक्रमणों की कहानियाँ सुनकर मेटरनिख क्रांति का घोर शत्रु बन गया था। फ्रांसीसी सेनाओं के आक्रमण के कारण मेटरनिख को अपने पिता की जागीर से पलायन करना पड़ा था। नेपोलियन ने जब उसकी पैतृक जागीर पर कब्जा कर लिया तो वह क्रांति और नेपोलियन दोनों का शत्रु बन गया ।
एक उच्च पदाधिकारी का पुत्र होने के कारण आस्ट्रिया के राजदरबार से मेटरनिख का बड़ा घनिष्ठ संबंध था। युवा मेटरनिख ने 1795 ई. में आस्ट्रिया के तत्कालीन चांसलर कोनिट्ज की पौत्री से विवाह किया, जिससे न केवल मेटरनिख की प्रतिष्ठा बढ़ी, बल्कि शासक वर्ग तक उसकी पहुँच भी हो गई। मेटरनिख की योग्यता से प्रभावित होकर आस्ट्रिया के सम्राट फ्रांसिस प्रथम ने मेटरनिख को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया।
मेटरनिख के राजनीतिक जीवन की शुरूआत
मेटरनिख के राजनीतिक जीवन की शुरूआत 1801 में सैक्सनी में नियुक्ति के साथ हुई। 1801 ई. से 1806 ई. की अवधि में मेटरनिख यूरोप के अनेक देशों- बर्लिन, सेंटपीटर्सबर्ग और पेरिस में आस्ट्रिया का राजदूत रहा। 1809 में मेटरनिख को विदेशी मामलों का मंत्री बनाया गया। इन अवसरों से उसने पूरा लाभ उठाया और धीरे-धीरे वह यूरोप का एक जबरदस्त कूटनीतिज्ञ बन गया। इसी बीच उसे नेपोलियन के पास रहने का अवसर मिला और वह उसके चरित्र का अच्छी तरह अध्ययन कर सका। उसने तालिरां से भी घनिष्ठ संपर्क स्थापित कर लिया।
मेटरनिख की योग्यता और दक्षता से प्रभावित होकर 1809 ई. में फ्रांसिस प्रथम ने उसे आस्ट्रिया का चांसलर ( प्रधानमंत्री) नियुक्त किया। मेटरनिख ने नेपोलियन प्रथम की शादी सम्राट फ्रांसिस प्रथम की पुत्री मेरी लुई से करवाई, जिससे उसे नेपोलियन की विस्तारवादी विजयों से कुछ राहत मिल गया था। मेटरनिख आस्ट्रिया के प्रधानमंत्री पद पर 1809 ई. से 1848 ई. तक अर्थात् 39 वर्षों तक बना रहा। इस पद पर रहकर वह आस्ट्रिया की नीति का सूत्रधार बना रहा।
मेटरनिख ने फ्रांस और नेपोलियन के विरूद्ध युद्ध लड़ने और नेपोलियन की शक्ति और सत्ता का हृास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेपोलियन के पतन के बाद आयोजित वियेना कांग्रेस का वह कर्णधार था और उसके सुझावों, प्रस्तावों और उसकी प्रतिक्रियावादी नीति के अनुरूप ही वियेना में समझौते हुए। वियेना समझौते को लागू करने और यूरोप में शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए मेटरनिख ने संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना की।
मेटरनिख आत्मविश्वास से ओतप्रोत रहता था और अपने-आपको समूचे यूरोप का भाग्य-विधाता समझता था। वह प्रायः कहा करता था कि उसका जन्म पतनोन्मुख यूरोपीय समाज के पुनरूद्धार के लिए हुआ है और समस्त संसार का भार उसके कंधों पर है। उसे यह अहंकार था कि उसने नियम के विरूद्ध कभी कोई आचरण नहीं किया है और न जीवन में उसने कोई भूल ही की है।
यद्यपि मेटरनिख मनुष्य का अच्छा पारखी था, परंतु परिस्थितियों को परखने में वह असफल रहा। वह यह समझ ही नहीं सका कि 1815 का यूरोप 1789 के पहले का यूरोप नहीं है। वह फ्रांस की राज्यक्रांति द्वारा प्रसारित नवीन भावना के महत्त्व और प्रभाव को नहीं समझ सका और उन्हें तुच्छ समझकर जीवन भर उन्हें नष्ट करने के असफल प्रयत्न में लगा रहा।
मेटरनिख की राजनीतिक विचारधारा
मेटरनिख की राजनीतिक विचारधारा मानवीय स्वभाव एवं आधुनिक विचारधाराओं के विपरीत थी। वह परंपरावादी और पुरातन व्यवस्था का समर्थक था। उसे क्रांति और क्रांतिजनित विचारों से सख्त नफरत थी। उसका मानना था कि एक देश या अन्य देशों में होनेवाली घटनाएँ या कार्य अन्य पड़ोसी देशों को भी प्रभावित करती हैं। वह कहा करता था कि क्रांति एक रोग है। क्रांति के सिद्धांत, राष्ट्रवाद और उदारवाद आस्ट्रिया के लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी खतरनाक हैं और उन्हें रोका जाना चाहिए। उसकी धारणा थी कि प्रजातंत्र व्यवस्था रोशनी छोड़कर अंधेरे की ओर ले जाती है। इसलिए केवल आस्ट्रिया में ही नहीं, अपितु किसी भी देश में प्रगतिशील विचारों और प्रजातंत्रीय प्रणालियों का विकास नहीं होना चाहिए।
मेटरनिख का स्पष्ट मानना था कि प्रजातंत्र के ज्वालामुखी की अग्नि को प्रतिक्रियावादी नीतियों और निरंकुश राज्य की स्थापना से ही शांत किया जा सकता है। सौभाग्य से मेटरनिख का सम्राट भी उसी के समान विचारधारावाला था। आस्ट्रियाई सम्राट फ्रांसिस का भी कहना था कि ‘शासन करो, किंतु कोई परिवर्तन न करो।’ इस प्रकार मेटरनिख यूरोप में यथास्थिति को बनाये रखने के लिए निरंकुश शासन का अंधभक्त बना रहा और निरंतर उदारवाद तथा राष्ट्रीयता की भावना को कुचलने का प्रयास करता रहा।
आस्ट्रियन साम्राज्य का स्वरूप
मध्यकाल में आस्ट्रियन साम्राज्य हैब्सबर्ग वंश के अधीन था। नेपोलियन के पतन के बाद वियेना कांग्रेस के निर्णयों के फलस्वरूप आस्ट्रिया का साम्राज्य यूरोप भर में सबसे अधिक विशाल एवं महत्त्वपूर्ण हो गया था। आस्ट्रिया को यह महत्व दिलाने का श्रेय मेटरनिख को ही था। यह साम्राज्य आस्ट्रिया तथा हंगरी दो राज्यों से मिलकर बना था। आस्ट्रिया के विशाल साम्राज्य में कम-से-कम बारह जातियाँ- जर्मनी, मगयार, चेक, स्लोदाक, पोल, रूथेनस, क्रीट, सर्व, स्लोक, इटालियन, रूमानियन और यहूदी निवास करती थीं, जिनके धर्म, संस्कृति और भाषा भी अलग-अलग थे। यही कारण है कि आस्ट्रिया को जातियों का अजायबघर कहा जाता था।
साम्राज्य के पश्चिमी भाग, जो आस्ट्रिया कहलाता था और जिसकी राजधानी वियेना थी, में मुख्यतः जर्मन जाति के लोग निवास करते थे। जर्मन भाषा ही संपूर्ण साम्राज्य की भाषा थी और साम्राज्य में भिन्न-भिन्न जातियों के बसे लोगों को बाध्य होकर जर्मन भाषा का ही प्रयोग करना पडता था।
आस्ट्रिया ही यूरोप का ऐसा देश था जहाँ 1789 की फ्रांसीसी क्रांति का कोई विशेष प्रभाव तो नहीं पड़ा था, लेकिन साम्राज्य की विभिन्न जातियों में स्वतंत्रता की भावनाएँ हिलोरें मारने लगी थीं। हैप्सबर्ग साम्राज्य की शासन-प्रणाली अभी भी मध्यकालीन राजनीतिक और सामाजिक मान्यताओं पर आधारित थी। सामंतवाद के इस प्रबल गढ़ में विशेषाधिकारयुक्त कुलीनों एवं पादरियों का बोलबाला था। शासन पूरी तरह निरंकुश था और सम्राट के अधिकारों पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था। वह राज्य की सभी शक्तियों का स्रोत था और उसकी इच्छा ही कानून थी। सर्वसाधारण को किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी, वे राज्य के कार्य में किसी प्रकार का हिस्सा नहीं बँटा सकते थे और उच्च पदों पर केवल सामंतों की ही नियुक्ति होती थी।
आस्ट्रियन साम्राज्य का आर्थिक आधार कृषि थी। इसलिए मध्यमवर्ग के लोगों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। फ्रांस में जब क्रांति प्रारंभ हुई तो उसके सिद्धांतों को आस्ट्रिया में फैलने से रोकने के लिए तरह-तरह के उपाय किये गये। उदारवादी विचारों के प्रचार को रोकने के लिए स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों आदि पर कड़ा नियंत्रण रखा गया। पूरे साम्राज्य में गुप्तचरों और पुलिस का जाल बिछा दिया गया और सीमाओं पर भी विशेष इंतजाम किये गये, जिससे किसी प्रकार के उदारवादी विचार साम्राज्य के भीतर प्रवेश न कर सकें।
मेटरनिख की पद्धति
मेटरनिख आस्ट्रियन साम्राज्य की सुरक्षा अपना पवित्र कर्त्तव्य समझता था। चूंकि आस्ट्रिया का साम्राज्य अनेक जातियों का जमघट था, इसलिए आस्ट्रिया को क्रांति, उदारवाद, प्रजातंत्र एवं राष्ट्रीयता के आसन्न खतरों से बचाने के लिए मेटरनिख ने जिन प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी नीतियों को अपनाया, उसी को ‘मेटरनिख पद्धति’ कहते हैं।
मेटरनिख पद्धति के अंर्तगत मेटरनिख ने विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थाओं, भाषणों, समाचार-पत्रों और जलसे-जुलुसों पर कठोर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया। उसने स्वेच्छाचारी निरंकुश राजतंत्रों को बनाये रखने के लिए अनेक वैध-अवैध उपायों का सहारा लिया। प्रजातंत्रीय आंदोलनों को कुचलने के लिए मेटरनिख ने निरंकुश राजाओं को संगठित किया। जिन देशों में विद्रोह, क्रांति और प्रजातंत्रीय आंदोलन हो रहे थे, उनमें सैनिक हस्तक्षेप कर उन्हें बड़ी बेरहमी से कुचल दिया।
मेटरनिख की आंतरिक नीति
उदारवादी विचारों का दमन
मेटरनिख ने जीवन भर क्रांतिकारी सिद्धांतों, प्रगतिशील विचारों और राष्ट्रीयता की भावनाओं को कठारेता से कुचलने में लगा रहा। वह जानता था कि आस्ट्रिया साम्राज्य की रक्षा तभी की जा सकती है, जब वहाँ उदारवादी विचारों को फैलने से रोका जाए। मेटरनिख ने गुप्तचरों को आदेश दिया था कि वे नवीनता और परिवर्तन के इच्छुक लोगों का पता लगायें और उन्हें कठोर दंड दें। उसने जनता की भावनाओं को दबाने के लिए प्रेस तथा भाषणों पर प्रतिबंध लगा दिया। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीयता पर चर्चा करने पर भी कठोर दंड दिया जाता था। छात्रों को पढ़ने के लिए दी जानेवाली पुस्तकों की पूरी छानबीन की जाती थी। आस्ट्रिया में बाहर से आनेवाले साहित्य पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। इस प्रकार मेटरनिख ने प्रचार के सभी साधनों पर प्रतिबंध लगाकर आस्ट्रिया में नवीन विचारों को आने से रोकने का पूरा प्रबंध किया था।
यथास्थिति को बनाये रखना
आस्ट्रिया की सामाजिक व्यवस्था सामंतवादी थी। सामंत बड़े-बड़े भूखंडों के स्वामी थे, जिन्हें अपनी जागीर में कर लगाने, न्याय करने और बेगार लेने का अधिकार था। इसके विपरीत किसानों और आम जनता की स्थिति अत्यंत खराब थी। दिन-रात मेहनत करके उगाई गई किसानों की फसल का अधिकांश हिस्सा सामंतों के पास चला जाता था। औद्योगिक क्रांति के कारण मजदूर भी बेरोजगार हो गये थे और मेटरनिख ने मजदूरों की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया।
मेटरनिख की कर-व्यवस्था भी अत्यंत दोषपूर्ण थी। अधिकांश करों का भार साधारण जनता पर था। मेटरनिख ने सीमा-शुल्क को भी बढ़ा दिया, जिससे व्यापार-वाणिज्य के विकास में बाधा पहुँची।
मेटरनिख की गृहनीति के दोष
मेटरनिख की गृह नीति के कारण आस्ट्रिया की जनता में व्यापक असंतोष व्याप्त था। उसकी नीतियों के कारण उद्योग, कृषि और व्यापार पर बुरा असर पड़ा था। मेटरनिख के तमाम प्रतिबंधों के बावजूद विदेशों से क्रांतिकारी साहित्य आस्ट्रिया में आता रहा और जनता को विद्रोह के लिए प्रेरित करता रहा। मेटरनिख ने अपनी संपूर्ण शक्ति प्रजातंत्र के दमन में लगा दिया, इसलिए आस्ट्रिया का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास रुक-सा गया।
मेटरनिख की विदेश नीति
मेटरनिख की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य यूरोप में शांति स्थापित करना और आस्ट्रिया के प्रभुत्व को कायम रखना था। मेटरनिख ने नेपोलियन को पराजित करने में विशेष भूमिका निभाई थी, इसलिए पूरे यूरोप की राजनीति पर उसका प्रभाव था। वह 1815 से 1848 तक यूरोप की राजनीति को अपने इशारों पर नचाता रहा। मेटरनिख को विश्वास था कि आस्ट्रिया ही यूरोप की रक्षा कर सकता है, किंतु इसके लिए उसे यूरोप के अन्य राष्ट्रों के सहयोग की आवश्यकता थी। अपनी विदेश नीति के अंतर्गत मेटरनिख ने निम्नलिखित कार्य किये-
नेपोलियन की पराजय में भूमिका
मेटरनिख ने फ्रांस और नेपोलियन के विरूद्ध युद्ध लड़ने और नेपोलियन की शक्ति और सत्ता का हृास करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने मित्र राष्ट्रों की संयुक्त सेनाओं के साथ नेपोलियन का सामना किया और नेपोलियन के विरूद्ध युद्धों में भाग लेकर उसे पराजित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
वियेना कांग्रेस का सूत्रधार
नेपोलियन के पतन के बाद आयोजित वियेना कांग्रेस का सूत्रधार मेटरनिख ही था। मेटरनिख वियेना कांग्रेस द्वारा स्थापित व्यवस्था को कायम रखना तथा उसके द्वारा यूरोप में शांति बनाये रखना अपना कर्त्तव्य समझता था। वियेना कांग्रेस के प्रायः सभी प्रमुख निर्णय मेटरनिख के सुझावों, प्रस्तावों और उसकी राजनीति के अनुरूप ही लिये गये थे। मेटरनिख की शह पर ही वियेना के समझौते में विभिन्न देशों की सीमाओं में परिवर्तन किया गया और कई पुराने राजवंशों को पुनः स्थापित किया गया था।
संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था
वियेना समझौते को लागू करने और यूरोप में शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए मेटरनिख ने संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना की थी। वह नवीन क्रांतिकारी उदार विचारों, राष्ट्रीयता और प्रजातंत्रीय प्रणाली का एक भयानक रोग मानता था। मेटरनिख की संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था के सदस्य इंग्लैंड, आस्ट्रिया, प्रशा और रूस थे, जिसे ‘चतुर्मखी संघ’ कहा जाता है। बाद में चतुर्मखी संघ में फ्रांस भी शामिल हो गया, जिसके कारण उसे ‘पंचमुखी संघ’ कहा जाने लगा। मेटरनिख ने आस्ट्रिया में ही नहीं, पूरे यूरोप में प्रगतिशील विचारों के प्रसार और राष्ट्रवादी भावनाओं का दमन करने के लिए यूरोपीय व्यवस्था की आड़ लेकर सैनिक हस्तक्षेप किया। इटली तथा स्पेन के विद्रोह को दबाने में संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था से ही मदद ली गई थी।
यह संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था 1815 से 1825 ई. तक कार्य करती रही और बाद में पारस्परिक मतभेद के कारण समाप्त हो गई। संयुक्त यूरोपीय व्यवस्था के कारण आगामी 40 वर्षों तक यूरोप में शांति बनी रही।
मेटरनिख और जर्मनी
नेपोलियन के समय से ही जर्मनी में राष्ट्रवादी भानवनाओं का उभार होने लगा था। मेटरनिख जर्मनी में राष्ट्रवादी भावनाओं को खतरनाक समझता था। वियेना कांग्रेस ने जर्मनी को 39 राज्यों के एक संघ में बदल दिया गया था, जिसका अध्यक्ष आस्ट्रिया को बनाया गया था। जर्मनी में जब कभी राष्ट्रभक्तों ने विद्रोह किया, मेटरनिख ने चतुर्मुख संघ की आड़ लेकर उनका दमन किया।
इसी प्रकार 23 मार्च 1819 ई. को जर्मनी में विद्रोह के दौरान एक पत्रकार कात्सेबू की हत्या हो गई, तो मेटरनिख ने कार्ल्सबाद के आदेश की घोषणा की और छात्र-आंदोलनों, मनोरंजन की संस्थाओं तथा पत्र-पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगा दिया। अपनी कठोर नीति के बल पर मेटरनिख जर्मनी में शांति स्थापित करने का प्रयास करता रहा। किंतु जर्मनी की राष्ट्रवादी भावनाओं को अधिक समय तक दबाये रखना संभव नहीं था।
1830 ई. की क्रांति के बाद जर्मनी के क्रांतिकारी पुनः प्रबल हो उठे, तो मेटरनिख ने कार्ल्सबांड के आदेश को लागू किया, फिर भी विद्रोहों का दमन करना कठिन हो गया। वास्तव में 1818 ई. में जर्मनी में स्थापित जोलवरीन नामक आर्थिक संघ की स्थापना हो चुकी थी, जिससे जर्मनी के सभी राज्य एक-दूसरे से जुड़ गये थे और आर्थिक रूप से संपन्न हो गये थे।
मेटरनिख और इटली
नेपोलियन प्रथम की विजयों ने अनजाने में ही इटली के एकीकरण की शुरूआत कर दी थी। मेटरनिख का उद्देश्य था- यथास्थिति को बनाये रखना और स्वेच्छाचारी निरंकुश राजतंत्रों का समर्थन करना। किंतु 1815 ई. में वियेना कांग्रेस ने इटली के देशभक्तों के मंसूबों पर पानी फेर दिया और इटली को अनेक राज्यों में बाँट दिया। इटली के लोम्बार्डी और वेनेशिया राज्य पर आस्ट्रिया का अधिकार हो गया। शेष इटली पर भी आस्ट्रिया का ही प्रभाव बना हुआ था। मेटरनिख के प्रयास से संपूर्ण इटली में निरंकुश राजतंत्र की स्थापना हो गई थी, जो इटली के देशभक्तों के लिए असहनीय था।
नेपल्स और पीडमांट ने आस्ट्रिया के निरंकुश शासन के विरूद्ध विद्रोह किया, किंतु मेटरनिख ने चतुर्मुख संघ की आड़ में इन विद्रोहों का निर्ममतापूर्वक दमन कर दिया। 1830 ई. की फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित होकर माडेना की जनता ने व्रिदोह किया, किंतु उस विद्रोह को भी दबा दिया गया। 1830 ई. के बाद इटली में ‘यंग इटली’ नामक गुप्त संस्था इटली के देशभक्तों को संगठित करने लगी, फिर भी, इटली आस्ट्रिया के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका।
1830 और 1848 के बीच आस्ट्रिया
मेटरनिख की प्रतिक्रियावादी शासन-व्यवस्था इतनी सफल सिद्ध हुई कि 1830 तक आस्ट्रियन साम्राज्य के किसी भाग में किसी प्रकार का उपद्रव या विद्रोह नहीं हुआ और आस्ट्रिया यूरोप में प्रतिक्रियावाद का जबरदस्त गढ़ बना रहा। इन वर्षों में ऐसा लगा कि आस्ट्रिया में पूर्ण एकता और व्यवस्था है, किंतु असंतोष की भावना धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगी। मेटरनिख पद्धति से दबकर क्रांति की शक्तियाँ छिपी हुई थीं, लेकिन धरातल के नीचे वे धीरे-धीरे निरंतर बल प्राप्त कर रही थीं। औद्योगिक क्रांति की प्रगति के फलस्वरूप आस्ट्रिया के लोग अन्य देशों के संपर्क में आने लगे थे। किसान वर्ग अपनी स्थिति से परेशान थे, वे सामंतों की दासता से मुक्त होना चाहते थे। इसलिए आस्ट्रिया में यदा-कदा किसानों के विद्रोह होते रहते थे।
1848 की क्रांति और मेटरनिख का पतन
मेटरनिख यह भूल गया था कि प्रगतिशील विचारधाराओं पर अधिक दिनों तक रोक नहीं लगाई जा सकती है। आस्ट्रिया की जनता मेटरनिख के प्रतिक्रियावादी शासन से ऊब चुकी थी। आस्ट्रिया में मेटरनिख और उसकी पद्धति के बावजूद प्रगतिशील विचारधाराओं का उत्थान होता रहा, इसलिए जब 1848 ई. में फ्रांस में क्रांतियों की लहर आई तो आस्ट्रिया में विद्रोह ने विकराल रूप धारण कर लिया। वियेना में इस विद्रोह का नेतृत्व विश्वविद्यालयों ने किया।
वियेना की जनता ने 13 मार्च 1848 ई. को मेटरनिख एवं सम्राट के महलों को घेर लिया। उत्तेजित जनता ‘मेटरनिख मुर्दाबाद’ के नारे लगा रही थी। उसके बाद वही हुआ जो इस स्थिति में होता है। पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई जिसमें कुछ लोग मारे गये। इससे उत्तेजना और बढ़ गई तथा जगह-जगह बलवे होने लगे। मेटरनिख समझ गया कि अब उसकी सत्ता के अंत का समय आ गया है। स्थिति की गंभीरता को पहचान कर वह अपने पद से त्यागपत्र देकर वेश बदलकर इंग्लैंड भाग गया। उसकी सारी व्यवस्था मिट्टी में मिल गई। मेटरनिख पुरातन व्यवस्था का अंतिम प्रतीक था और उसके पतन के साथ ही प्रगति का मार्ग विस्तृत हो गया। बाद में 1851 ई. में मेटरनिख आस्ट्रिया वापस आया और आठ साल बाद वियेना में उसकी मृत्यु हो गई।
मेटरनिख के पतन के बाद
मेटरनिख के पतन के बाद सम्राट फर्डीनेंड ने क्रांतिकारियों की सभी माँगों को मान लिया। नागरिक स्वतंत्रताओं पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। कुलीनों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिये गये। एक उदार मत्रिमंडल बनाया गया और विधान-निर्माण का वचन दिया गया। लेकिन क्रांतिकारी इससे संतुष्ट नहीं हुए। वे एक विधान निर्माण सभा चाहते थे। सम्राट को विवश होकर इस प्रकार की सभा बुलानी पड़ी। लेकिन सम्राट इस स्थिति से संतुष्ट नहीं था। मौका पाकर वह क्रांतिकारियों के पंजे से निकलकर वियेना से भाग निकला। इधर विधान सभा राज्य के शासन-विधान पर विचार करने लगी। कुछ लोगों ने गणतंत्र स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। लेकिन यह प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। सम्राट को वैधानिक राजतंत्र स्थापित करने के लिए पुनः बुलाया गया। उसने वापस लौटकर शासन-सूत्र सँभाल लिया।
वियेना के विद्रोह के समाचार से संपूर्ण साम्राज्य में विद्रोह फैल गया। हंगरी, बोहेमिया, इटली सब जगह उदारवादियों ने विद्रोह कर दिया। इन क्रांतियों ने भीषण रूप धारण कर लिया। युद्धमंत्री की हत्या कर दी गई। सम्राट घबड़ाकर एक बार फिर वियेना छोड़कर भाग गया। लेकिन सेना अभी भी राजभक्त थी। सेना ने क्रांतिकारियों पर आक्रमण कर दिया। एक-एक करके क्रांतिकारी बुरी तरह पराजित हो गये। आस्ट्रियन सम्राट पुनः वियेना लौट आया। साम्राज्य के अन्य भागों के विद्रोह भी दब गये। इसके बाद संपूर्ण साम्राज्य में क्रूर प्रतिक्रिया एक बार फिर छा गई। मेटरनिख के पलायन के अतिरिक्त 1848 की क्रांति का कोई नतीजा नहीं निकला। आस्ट्रियन सम्राट का निरंकुश शासन ज्यों-का-त्यों कायम रहा।
मेटरनिख का मूल्यांकन
मेटरनिख का पतन और पलायन 1848 की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था। इसके पतन के साथ यूरोपीय इतिहास का एक युग समाप्त हो गया, जो वियेना कांग्रेस के साथ प्रारंभ हुआ था। यद्यपि मेटरनिख एक योग्य राजनीतिज्ञ था, किंतु समय की गति को पहचानने में एकदम नाकाम रहा। वह फ्रांस की क्रांति के महत्व को नहीं समझ सका और उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को जीवन भर नष्ट करने के असफल प्रयत्न में लगा रहा।
मेटरनिख को बौद्धिक और दार्शनिक बातों की समझ तो नहीं थी, लेकिन वह एक व्यवहार-कुशल और हँसमुख प्रकृति का व्यक्ति था और आचार व्यवहार में पूर्णतः कुशल था। मित्रता करके किसी का विश्वास प्राप्त कर लेने में वह माहिर था। वह नेपोलियन से घृणा करता था और नेपोलियन उसे षड्यंत्रकारी मानता था। यद्यपि मेटरनिख की कार्य-प्रणाली में षड्यंत्र का बहुत बड़ा महत्व था, परंतु स्वयं अपने कार्य को एक अभियान समझता था।
कूटनीति में मेटरनिख नारियों का इस्तेमाल बड़ी खूबी से करता था। नेपोलियन की बहन और जनरल म्यूरा की पत्नी कैरोलिन से दोस्ती गाँठकर वह नेपोलियन के रहस्यों का पता लगाता रहा। वियेना में भी वह नाच पार्टियों के माध्यम से दूसरों की बातें जानता था और अपनी बात स्वीकार कराता था। इसलिए कहते हैं कि वियेना में नाच अधिक, काम कम हुआ।
मेटरनिख की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा आस्ट्रियन साम्राज्य की सुरक्षा तक ही सीमित थी। वह अपनी प्रतिक्रियावादी नीतियों द्वारा आस्ट्रिया में निरंकुश राजतंत्र बनाये रखने में सफल हुआ; लेकिन उसकी यह नीति न आस्ट्रिया के लिए अच्छी हुई और न यूरोप के अन्य निरंकुश शासकों के लिए ही। उसकी नीतियों के परिणामस्वरूप आस्ट्रिया प्रगति के दौड़ में पिछड गया। इसी पिछड़ेपन के कारण आस्ट्रिया को 1866 में प्रशा से हार खानी पड़ी।
वियेना कांग्रेस में पुरातन व्यवस्था स्थापित होने के बाद मेटरनिख ने यूरोपीय व्यवस्था के सहारे हर कहीं परिवर्तन का विरोध किया- विशेष रूप से इटली, जर्मनी और आस्ट्रियाई प्रदेशों में। दमन, कूटनीति, षड्यंत्र और हस्तक्षेप के माध्यम से सारे यूरोप की चौकीदारी करने के बावजूद यूनान और बेल्जियम में राष्ट्रवादियों की विजय इस बात का प्रमाण है कि वह समय का ज्वार नहीं रोक सकता था। सारे यूरोप और आस्ट्रियाई साम्राज्यवाद में भी विद्रोहों का ताँता रुका नहीं।
मेटरनिख प्रायः कहा करता था कि ‘‘मैं इस संसार में या तो बहुत जल्दी या बहुत देर से आया हूँ क्योंकि जब मैं वृद्ध होता जा रहा हूँ तब संसार का यौवन खिलता जा रहा है। यदि मैं कुछ पहले आया होता तो युग का आनंद लेता और यदि देर से आया होता तो इसके निर्माण में सहायक होता।’’ यह कथन बहुत हद तक सही भी है। वह अठारहवीं शताब्दी के लिए ही उपयुक्त था। वह वक्त के साथ बदला नहीं, बल्कि इसके विपरीत वह वक्त को रोकने की कोशिश में लगा रहा। 1848 में जब विद्रोह शुरू हुए तो वह स्तब्ध रह गया। वह अपनी ही नीतियों और अदूरदर्शिता द्वारा छला गया था। परंतु कुछ ही महीनों में सारे यूरोप में क्रांति कुचल दी गई। वियेना में भी पुरानी स्थिति लौट आई, लेकिन मेटरनिख पुनर्स्थापित नहीं हो सका। मेटरनिख के पतन के साथ ही यूरोप के इतिहास का एक युग अंत हो गया।
फिर भी, मेटरनिख आस्ट्रिया का चांसलर था और इसलिए आस्ट्रियन साम्राज्य को सुरक्षित रखना उसका कर्त्तव्य था, किंतु वह साम्राज्य विभिन्न जातियों का अजायबघर था। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता के सिद्धांत को प्रश्रय देने का अर्थ होता आस्ट्रियन-साम्राज्य के विनाश को निमंत्रण देना। वास्तव में आस्ट्रिया के प्रधानमंत्री के रूप में मेटरनिख के लिए कठोर नीति अपनाना आवश्यक था। उदारवादी अथवा क्रांतिकारी विचारों के फैलने पर आस्ट्रिया को एक सूत्र में बाँधकर रख पाना कठिन हो जाता। इसलिए साम्राज्य की सेवा के लिए प्रतिक्रियावादी नीतियों को अपनाना मेटरनिख की मजबूरी थी।
इसके अतिरिक्त, जब नेपोलियन के युद्धों के बाद लहू-लुहान यूरोप को शांति की बड़ी जरूरत थी, तो वह मेटरनिख ही था जो अपनी नीतियों और कार्यों के द्वारा यूरोप में शांति बनाये रखने में कामयाब रहा। हेज ने मेटरनिख युग के विषय में लिखा है: ‘मेटरनिख पुरानी व्यवस्था का अंतिम भाष्यकार था, जिसमें दैवी सिद्धांतों पर आधारित राजतंत्र, विशेषाधिकार संपन्न जमींदार और गिरजाघर तथा अशिक्षित कृषक थे। वास्तव में मेटरनिख यथास्थितिवाद का अंतिम गढ़ और सेनापति था। वह मध्ययुगीन आस्था के साथ सामंती समाज की रक्षा करना चाहता था, लेकिन औद्योगिक क्रांति ने सामंतवाद की नींव पर भी प्रहार किया था और यूरोप में अब सामंतवाद को कोई बचा नहीं सकता था। मेटरनिख ऐसी लड़ाई लड़ रहा था जिसमें पराजय सुनिश्चित थी।
इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि वह एक कुशल सेनानी था और अंतिम क्षण तक अपने लक्ष्य के लिए संघर्षरत रहा। इस प्रकार मेटरनिख उन्नीसवीं शताब्दी का एक प्रतिनिधि यूरोपीय प्रशासक है। जब पुरानी व्यवस्था मरणासन्न थी और नई विकासमान, तो मेटरनिख पुरातन व्यवस्था की बुझती लौ की अंतिम चमक जैसा था।
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