कल्याणी का चालुक्य राजवंश या पश्चिमी चालुक्य (Chalukya Dynasty of Kalyani or Western Chalukya)

कल्याणी का पश्चिमी चालुक्य राजवंश (Western Chalukya Dynasty of Kalyani )

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कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य

10वीं शताब्दी के अंतिम चरण में कल्याणी या कल्याण में भी चालुक्यों की एक शाखा का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ। उस समय दक्षिणापथ की राजनैतिक स्थिति निरंतर परिवर्तनशील थी। मालवा के परमार शासकों के निरंतर आक्रमणों के कारण राष्ट्रकूट साम्राज्य जर्जर हो गया था और कृष्ण तृतीय के दुर्बल उत्तराधिकारी- खोट्टिग और कर्क द्वितीय इसकी सुरक्षा करने में सक्षम नहीं थे। अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय के समय उसका सामंत चालुक्यवंशीय तैलप द्वितीय बहुत शक्तिशाली हो गया। 973-74 ई. में तैलप द्वितीय ने अपनी शक्ति और कूटनीति से राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट पर अधिकार कर लिया और एक नये राजवंश की स्थापना की, जो कल्याणी के चालुक्य राजवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन्हें पश्चिमी चालुक्य के नाम से भी जाना जाता है।

कल्याणी का चालुक्य राजवंश या पश्चिमी चालुक्य (Chalukya Dynasty of Kalyani or Western Chalukya)
कल्याणी का चालुक्य राजवंश या पश्चिमी चालुक्य

कल्याणी के चालुक्यों की उत्पत्ति

कल्याणी के चालुक्यों की उत्पत्ति से संबधित विवरण सर्वप्रथम 11वीं शताब्दी तथा इसके बाद के वेंगी एवं कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों, रन्न कवि के कन्नड़ काव्य ‘गदायुद्ध’ तथा बिल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ आदि साक्ष्यों में मिलते हैं। इन साक्ष्यों में उन्हें न केवल वातापी के चालुक्यों का वंशज कहा गया है, वरन् उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी अयोध्या का मूलनिवासी भी बताया गया है। इसके अनुसार ये चालुक्यवंशीय विक्रमादित्य के भाई, जिसके नाम का तो पता नहीं है, किंतु जिसकी उपाधि भीमपराक्रम थी, के वंशज थे। विक्रमादित्य षष्ठ के कौथेम अभिलेख के अनुसार 59 चालुक्य राजाओं ने अयोध्या में शासन किया। तदंतर वे दक्षिणापथ चले गये, जहाँ 16 शासकों ने राज्य किया। इसके बाद की कुछ पीढ़ियों का इतिहास धूमिल है। फिर जयसिंहवल्लभ नामक राजा ने राष्ट्रकूटों को पराजित किया और अपने वंश का उद्धार किया था। इसके विपरीत रन्न विरचित ‘गदायुद्ध’ में सत्याश्रय तथा जयसिंह (विष्णुवर्धन) को अयोध्यापुरी का राजा बताया गया है और कहा गया है कि जयसिह ने राष्ट्रकूटों को पराजित कर दक्षिणापथ में चालुक्य राजवंश को स्थापित किया था।

बिल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ के अनुसार इंद्र के अनुरोध करने पर दुष्टों का दमन करने और नास्तिकता को समाप्त करने के लिए ब्रह्मा ने अपने चुलुक (चुल्लू) से एक वीर पुरुष को जन्म दिया और उसी वीर पुरुष के नाम पर यह वंश चालुक्य वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1025-26 ई. के कल्याण अभिलेख में भी ब्रह्मा को चालुक्यों का आदिपूर्वज बताया गया है।

वेंगी तथा कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों में प्रयुक्त चलुकि, चलुक्य, चालुक्य तथा सलुविक आदि नाम चालुक्यों का संबंध कर्नाटक से दर्शाते हैं। किंतु जे.एफ. फ्लीट तथा डी.आर. भंडारकर के अनुसार कल्याणी के चालुक्य वातापी के चालुक्यों के वंशज नहीं थे, क्योंकि कल्याणी के चालुक्य अपने को सत्याश्रय का वंशज मानते हैं, जबकि वातापी के चालुक्य हारीति ऋषि से संबंधित तथा मानव्यगोत्रीय बताये गये हैं। इसके अतिरिक्त, कल्याणी के चालुक्य शासकों ने जगदैकमल्ल एवं त्रिभुवनमल्ल आदि उपाथियाँ धारण की, परंतु वातापी के चालुक्यों ने अंत में मल्ल शब्द आने वाले विरुदों का प्रयोग नहीं किया है। फिर भी, समस्त साक्ष्यों के विवेचन से लगता है कि चालुक्य कन्नड़ देश के मूलनिवासी थे और कल्याणी के चालुक्य, वातापी के चालुक्यों के वंशज थे।

कल्याणी के चालुक्य शासक

कौथेम, येवूर, निलगुंड तथा मीरज अनुदानपत्रों के अनुसार कल्याणी के चालुक्य राजवंश का प्रथम ज्ञात शासक भीम था, जो वातापी के चालुक्य शासक विजयादित्य (696-733 ई.) का पुत्र एवं विक्रमादित्य का भाई बताया गया है। निलगुंड प्रशस्ति के अनुसार भीम पराक्रम के पश्चात् क्रमशः कीर्तिवर्मन तृतीय, तैलप प्रथम, विक्रमादित्य तृतीय, भीमराज द्वितीय, अय्यण प्रथम तथा विक्रमादित्य चतुर्थ ने राज्य किया-

विक्रमादित्य-भूपाल-भ्राता भीम पराक्रमः।

तत्सूनुः कीर्तिवर्माभून्मृत्प्रासार्दिद्त दुर्जनः।।

तैल-भूपस्ततो जातो विक्रमादित्य भूपतिः।

तस्तूनुरभवत्तस्माद्भीमराजोऽरि भकरः।।

अय्यणार्यस्ततो जज्ञे यद्वंशस्य श्रियं स्वकां।

प्रापयन्निव वंशं स्वं स वव्रे कृष्ण नन्दनां।।

किंतु इनमें मात्र तैलप प्रथम, अय्यण प्रथम एवं उसके पुत्र विक्रमादित्य चतुर्थ के अतिरिक्त अन्य शासकों के विषय में कोई उल्लेखनीय सूचना नहीं मिलती। पट्टदकल से प्राप्त एक खंडित अभिलेख में तैलप महाराजाधिराजदेव के लिए पेगडे महारजन नाम प्रयुक्त किया गया है, जिसे कुछ इतिहासकार तैलप प्रथम मानते हैं। किंतु तैलप एक साधारण सामंत शासक था, इसलिए यह समीकरण संदिग्ध लगता है। वस्तुतः तैलप प्रथम के बाद भी कई पीढ़ियों तक चालुक्य स्वतंत्र नहीं हो सके थे। इसके अतिरिक्त, तैलप को किसी अन्य साक्ष्य में पेगडे नहीं कहा गया है।

निलगुंड लेख से पता चलता है कि अय्यण ने राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की पुत्री के साथ विवाह किया और उसे अपने श्वसुर से काफी धन-संपत्ति प्राप्त हुई थी। इसी राष्ट्रकूट राजकुमारी से अय्यण का पुत्र विक्रमादित्य चतुर्थ उत्पन्न हुआ था। विक्रमादित्य ने कलचुरि लक्ष्मणसेन की पुत्री बोन्थादेवी के साथ विवाह किया, जिससे तैलप द्वितीय का जन्म हुआ। यह कलचुरि नरेश राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय का मित्र था। किंतु कृष्ण तृतीय के दक्षिण भारतीय अभियानों में उलझे होने का लाभ उठाकर कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य ने कलचुरियों से संबंध स्थापित कर राष्ट्रकूटों के विरूद्ध एक सशक्त गठबंधन बनाया, जिससे राष्ट्रकूटों के पतन और चालुक्यों के अभ्युत्थान की पृष्ठभूमि बनी।

यद्यपि आरंभिक चालुक्य शासकों के प्रशासित क्षेत्र और उसके केंद्र के संबंध में स्पष्ट सूचना नहीं है, किंतु लगता है कि वे कर्नाटक के बीजापुर जिले तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में शासन करते रहे होंगे। संभव है कि वे राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में शासन करते थे। जो भी हो, इतना अवश्य है कि विक्रमादित्य चतुर्थ के पुत्र एवं उत्तराधिकारी तैलप द्वितीय के राज्यारोहण से कल्याणी के चालुक्य राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास मिलने लगता है और इस राजवंश की महानता एवं गरिमा के युग का समारंभ होता है।

तैलप द्वितीय (973-997 ई.)

तैलप द्वितीय कलचुरि राजकुमारी बोन्थादेवी से उत्पत्र विक्रमादित्य चतुर्थ का पुत्र था। वह चालुक्य वंश का प्रथम शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी शासक था। 957 ई. के एक अभिलेख में तैलप द्वितीय को नाड का सामंत तथा 965 ई. के दूसरे अभिलेख में महासामंताधिपति आहवमल्ल तैलपरस कहा गया है। इसके अतिरिक्त, उसने महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक, समस्तभुवनाश्रय, सत्याश्रयकुलतिलक तथा चालुक्याभरण नामक उपाधियाँ भी धारण की थी।

प्रारंभ में तैलप द्वितीय राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय (कन्नरदेव) के अधीन तर्डवाड़ी में शासन कर रहा था। उसने राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री से विवाह किया था, जिसे जाकव्वे, जाक्कलादेवी या जवकलमहादेवी कहा गया है। मीरज ताम्रपत्रों के अनुसार संभवतः भामह अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय का ही दूसरा नाम था।

तैलप ने राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के काल में अपनी शक्ति में काफी अभिवृद्धि की, किंतु कृष्ण तृतीय के समय तक राष्ट्रकूटों की कोई क्षति नहीं हुई। कृष्ण तृतीय के उत्तराधिकारियों- खोट्टिग तथा कर्क द्वितीय के काल में राष्ट्रकूट वंश अत्यंत निर्बल हो गया। फलतः 973-74 ई. में तैलप द्वितीय ने अपने अधिराज कर्क द्वितीय को पराजित कर मान्यखेट पर अधिकार कर लिया और राष्ट्रकूट साम्राज्य का अधिपति बन गया। उसकी इस सफलता का उल्लेख खारोगटन अभिलेख में मिलता है।

तैलप द्वितीय की उपलब्धियाँ
राष्ट्रकूट सामंतों की विजय

सिंहासनारूढ़ होने के बाद तैलप द्वितीय ने सबसे पहले राष्ट्रकूट सामंतों को अपने अधीन करने के लिए अभियान किया। इस क्रम में शिमोगा (कर्नाटक) जिले के सोराव तालुक के सामंत शांतिवर्मा, जो पहले राष्ट्रकूट नरेश कर्क के अधीन था, ने तैलप की अधीनता स्वीकार कर ली।

किंतु तैलप के प्रमुख प्रतिद्वंदी गंग थे, जो राष्ट्रकूटों के सामंत थे। मारसिंह की मृत्यु के उपरांत गंग राज्य में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमें पांचालदेव अपने प्रतिद्वंद्वी मारसिंह द्वितीय को पराजित कर विजयी हुआ और कृष्णा नदी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। पांचालदेव की वर्धमान शक्ति तैलप की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा में बाधक थी। अतएव उस पर नियंत्रण करना तैलप के लिए अनिवार्य हो गया।

प्रारंभ में तैलप को पांचाल के विरुद्ध सफलता नहीं मिली। परंतु बाद में उसने बेल्लारी के सामंत गंग भूतिगदेव की सहायता से पांचालदेव को पराजित कर मार डाला और पांचालमर्दनपंचानन (पांचालदेव को मर्दन करने में सिंह) की उपाधि धारण की। यह घटना संभवतः 977 ई. के आसपास की होगी। भूतिगदेव की सहायता से प्रसन्न होकर तैलप ने उसे आहवमल्ल के विरुद से सम्मानित किया और तोरगले (धारवाड़ जिले के सीमांत पर स्थित वर्तमान तोरगल) का शासक भी बना दिया।

पांचालदेव पर विजय प्राप्त करने के कारण चालुक्य राज्य का विस्तार उत्तरी कर्नाटक तक हो गया। इसके बाद तैलप ने 977 ई. के आसपास ही मध्य और दक्षिणी मैसूर पर गंग वंश की दूसरी शाखा के शासक रणस्तंभ को पराजित कर मार डाला, जो कर्क द्वितीय का मित्र था।

बेल्लारी जिले से प्राप्त लेखों से पता चलता है कि 976 ई. के पहले ही तैलप द्वितीय ने सम्राट की उपाधियाँ धारण की थी, जो नोलंब पर उसके आधिपत्य का सूचक है। 981 ई. में उसने नोलंबरानी रेवलदेवी द्वारा पूर्व प्रदत्त दान की पुष्टि की थी। बनवासी क्षेत्र में सर्वप्रथम कन्नप तथा फिर उसके उत्तराधिकारी भाई सोभनरस ने तैलप की अधीनता स्वीकार की। सोभनरस की स्वामिभक्त और निष्ठा से प्रभावित होकर तैलप ने उसे गिरिदुर्गमल्ल तथा सामंतचूड़ामणि की उपाधियाँ प्रदान की थीं। बेलगाँव जिले में सौदंति के रट्टों ने भी उसकी अधीनता मान ली थी, जिसकी पुष्टि 980 ई. के सोगल एवं सौदंति से मिले अभिलेखों से होती है।

तैलप ने कोंकण प्रदेश को भी अपने अधीन किया। पश्चिमी घाट से समुद्र तक तथा पूर्ण नदी से गौना तक के बीच का क्षेत्र कोंकण कहलाता था। कोंकण प्रदेश दो भागों में विभाजित था-दक्षिणी कोंकण और उत्तरी कोंकण। दक्षिणी कोंकण के शिलाहारवंशी राष्ट्रकूटों के पारिवारिक सामंत थे। तैलप ने शिलाहार शासक अवसर तृतीय या उसके पुत्र रट्टराज को पराजित कर दक्षिणी कोंकण को अपने अधीन कर लिया।

सेउण (दौलताबाद) देश के यादववंशी राजा भिल्लम द्वितीय ने बिना युद्ध किये ही तैलप की अधीनता स्वीकार कर ली। तदंतर तैलप ने लाट (दक्षिणी गुजरात) को अधिकृत कर अपने सेनापति बाडप्प को इस प्रांत का शासक नियुक्त किया। बाडप्प ने चालुक्य मूलराज प्रथम के विरुद्ध सफलता प्राप्त की, किंतु चाहमान विग्रहराज ने गुर्जर राज्य को आक्रांत कर लाट को कुछ समय के लिए अपने अधीन कर लिया। तैलप ने अपने पुत्र सत्याश्रय को युवराज नियुक्त किया था, जिसने शिलाहारों एवं गुर्जरों से हुए युद्धों में सक्रिय भाग लिया था। इस प्रकार तैलप ने गुजरात के अतिरिक्त उन सभी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया जो पहले राष्ट्रकूटों के अधिकार में थे। राष्ट्रकूट प्रदेशों पर अधिकार करने के उपरांत तैलप को अपने पुराने शत्रुओं चोलों तथा परमारों से संघर्ष करना पड़ा।

चोलों से संघर्ष

तैलप द्वितीय को राष्ट्रकूटों के परंपरागत शत्रु चोलों से भी संघर्ष करना पड़ा। 980 ई. के एक लेख में तैलप को ‘चोलरूपी शैल के लिए इंद्र के वज्र के समान’ बताया गया है। कृष्ण तृतीय के समय से ही दक्षिण पर राजनीतिक प्रभुत्व को लेकर राष्ट्रकूटों और चोलों के बीच गहरी शत्रुता चली आ रही थी। संभवतः तैलप भी राष्ट्रकूट सामंत के रूप में चोलों के विरुद्ध लड़ चुका था। इसलिए स्वतंत्र राजा होने के बाद वह चोलों का स्वाभाविक शत्रु बन गया। पता चलता है कि 980 ई. से कुछ पहले तैलप ने उत्तमचोल को युद्ध में पराजित किया था।

उत्तम चोल के बाद शक्तिशाली राजराज प्रथम ने अपनी विस्तारवादी नीति के अंतर्गत 993 ई. में गंगावाडि तथा नोलंवाडि को जीत लिया, जो पहले राष्ट्रकूटों के अधिकार में थे। राजराज प्रथम की इस प्रसारवादी नीति के कारण तैलप द्वितीय से उसका संघर्ष होना स्वाभाविक था क्योंकि तैलप राष्ट्रकूट क्षेत्रों पर अपना पैतृक अधिकार समझता था।

992 ई. के कोग्गलि लेख (बेल्लारी जिले में स्थित) से पता चलता है कि आहवमल्ल ने चोलराज को युद्ध में पराजित कर उसके 150 हाथियों को छीन लिया था। इससे लगता है कि तैलप ने राजराज को किसी युद्ध में पराजित किया था।

परमारों में संघर्ष

तैलप द्वितीय का मालवा के परमार वंश से दीर्घकालीन संघर्ष चला। इस समय परमार शासक मुंज था। तैलप और मंजु की शत्रुता का मुख्य करण राष्ट्रकूट साम्राज्य का उत्तर पश्चिमी क्षेत्र था, जिसे तैलप और मंजु दोनों अपना मानते थे। तैलप ने मुंज के ऊपर छः बार आक्रमण किया, किंतु प्रत्येक बार उसे पराजित होना पड़ा। अंततः अपने मंत्री रुद्रादित्य की सलाह को ठुकराकर परमार मुंज ने गोदावरी पार कर चालुक्यों पर आक्रमण कर दिया। इस बार मुंज पराजित हुआ और बंदी बना लिया गया। 1003 ई. के कौथेम ताम्रपत्रों से भी पता चलता है कि तैलप द्वितीय ने उत्पल (मुंज) को, जिसने हूणों, मारवों तथा चेदियों के साथ युद्धों में वीरता प्रदर्शित की थी, पराजित करने के बाद बंदी बना लिया। विक्रमादित्य के गडक लेख में बताया गया है कि तैलप ने वीर मुंज का वध किया था। भिल्लम द्वितीय के सामगनेर दानपत्र (लगभग 1000 ई.) के अनुसार भिल्लम ने मुंज का साथ देने के कारण लक्ष्मी को दंडित किया और उसे रणरंगभीम की साध्वी पत्नी बनने को बाध्य किया। रणरंगभीम तैलप द्वितीय का ही दूसरा नाम था।

इस युद्ध का रोचक विवरण मेरुतुंग के प्रबंधचिंतामणि में भी मिलता है। इस ग्रंथ के अनुसार तैलप द्वितीय ने मान्यखेट के कारागार में मुंज की देखरेख के लिए अपनी विधवा बहिन मृणालवती को नियुक्त किया था। किंतु वह मुंज के प्रेमपाश में फंस गई और एक दिन परमार शासक ने उसे बताया कि वह जेल से निकल भागने की योजना बना रहा है। मृणालवती ने इसकी सूचना तैलप को दे दी। इसके बाद तैलप ने मुंज को विविध प्रकार से प्रताड़ित किया और अंततः 995 ई. के आस-पास उसका वध कर दिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि तैलप ने परमार नरेश को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और वह मालवा के दक्षिणी क्षेत्र का भी शासक बन गया।

परवर्ती लेखों में तैलप द्वितीय को चोल, चेदि, कुंतल एवं नेपाल तक की विजय का श्रेय दिया गया है। कुल मिलाकर उसका साम्राज्य उत्तर में गोदावरी या नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में शिमोगा, चित्तलदुर्ग और संभवतः बेल्लारी जिलों तक, और पश्चिम में दक्षिणी कोंकण तक विस्तृत था। संभवतः उत्तरी कोंकण का भी कुछ क्षेत्र उसके अधीन था।

इस प्रकार तैलप एक महान शक्तिशाली शासक था, जिसने अनेक आक्रमणात्मक एवं सुरक्षात्मक युद्धों में सफलता प्राप्त की और अपने साम्राज्य का चतुर्दिक विस्तार किया। विक्रमादित्य षष्ठ के गडक लेख के अनुसार उसने चालुक्य वंश की प्रतिष्ठा को पुनःप्रतिष्ठित किया और पच्चीस वर्षों तक पृथ्वी का सुख एवं शांतिपूर्वक भोग किया।

तैलप द्वितीय विजेता एवं साम्राज्य-निर्माता होने के साथ ही साथ विद्वानों का संरक्षक भी था। उसके साम्राज्य में कन्नड़ भाषा को फलने-फूलने का अवसर मिला। उसने अजितपुराण के लेखक को चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की थी।

तैलप द्वितीय ने रट्ट शासक भामह की पुत्री जाकव्वे के साथ विवाह किया था। इस रानी से उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए- सत्याश्रय और दशवर्मन या यशोवर्मन। दशवर्मन को तैलप द्वितीय ने गवर्नर नियुक्त किया था। तैलप की अंतिम ज्ञात तिथि 996 ई. है। संभवतः उसने 997 ई. तक शासन किया।

सत्याश्रय (997-1008 ई.)

तैलप द्वितीय के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र सत्याश्रय 997 ई. में राजा हुआ। उसने आहवमल्ल, अकलंकचरित्र तथा इरिवबेडंग (शत्रुओं का भेदन करने में अद्वितीय) जैसी उपाधियाँ धारण की थी। वह सत्तिग तथा सत्तिम के नाम से भी जाना जाता है।

विजयें और उपलब्धियाँ

राजा बनने के बाद सत्याश्रय ने अपना विजय-अभियान प्रारंभ किया। सर्वप्रथम उसने उत्तरी कोंकण के शिलाहारवंशी शासक अपराजित मृगांक को पराजित कर उसे सामुद्रिक क्षेत्र में शरण लेने के लिए विवश कर दिया, अंशुनगर को जला दिया और शिलाहार सेना के 21 हाथियों को अपहृत कर लिया। इसके बाद उसने गुर्जरनरेश की ओर ध्यान दिया। उसका समकालीन गुर्जरराज मूलराज का पुत्र चामुंडराज (997-1006 ई.) था। 1007 ई. के लक्कुडि लेख तथा रन्न के गदायुद्ध से पता चलता है कि सत्याश्रय ने गुर्जर राज्य को आक्रांत कर चालुक्य चामुंडराज को पराभूत किया। इन विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रपर्यंत समस्त भू-भाग चालुक्य साम्राज्य में सम्मिलित हो गया और शिलाहार शासक चालुक्यों के सामंत बन गये।

चोलों से संघर्ष

सत्याश्रय को चोल शासक राजराज प्रथम के भयंकर आक्रमण का सामना करना पड़ा। चोल नरेश राजराज ने संपूर्ण दकन तथा लंका पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद गंगवाडि, नोलंबवाडि पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दक्षिण में राजराज और उत्तर में सत्याश्रय दोनों अपनी-अपनी शक्ति के विस्तार में संलग्न थे। इसलिए दोनों के बीच संघर्ष होना अनिवार्य था। वास्तव में, दोनों के बीच कटुता का मुख्य कारण वेंगी का राज्य था क्योंकि दोनों ही आंध्र क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे। इस समय दानार्णव के दोनों पुत्र-शक्तिवर्मा तथा विमलादित्य वेंगी से निष्कासित होकर चोल नरेश राजराज के यहाँ शरणार्थी थे। अंततः 999-1000 ई. में राजराज ने वेंगी पर आक्रमण कर जयचोड भीम को अपदस्थ कर शक्तिवर्मा को वेंगी की गद्दी पर बैठाया। एक तमिल शक्ति द्वारा दक्षिण तथा पूरब से कर्णाटक राज्य को घेरने की कोशिश से सत्याश्रय का क्रोधित होना स्वाभाविक था और उसने वेंगी पर आक्रमण कर दिया।

वेंगी पर सत्याश्रय के आक्रमण की प्रतिक्रिया में चोल शासक राजराज ने अपने पुत्र युवराज राजेंद्र के नेतृत्व में एक विशाल सेना चालुक्य प्रदेशों पर आक्रमण करने के लिए भेजी। 1007-008 ई. के होट्टूर लेख से ज्ञात होता है कि युवराज राजेंद्र ने 9 लाख सैनिकों की विशाल सेना के साथ चालुक्य राज्य के दक्षिणी प्रदेशों को जीता, ऊकल्लु (धारवाड़ जिले में उंकल) के दुर्ग को अधिकृत किया और दोनवुर (बीजापुर जिले में आधुनिक दोनूर) में सैनिक शिविर लगाया। उसने चालुक्य नरेश को पराजित कर न केवल उसकी अतुल धन-संपत्ति लूटी, वरन् स्त्रियों, बालकों एवं ब्राह्मणों आदि की निर्मम हत्या की और स्त्रियों को बंदी बनाकर उनका सतीत्व भंग किया। इसकी पुष्टि राजराज के तंजौर लेख तथा राजेंद्र के लेखों से भी होती है।

तंजौर लेख में कहा गया है कि चालुक्यों से अपहृत की गई संपत्ति तंजौर के मंदिर को समर्पित कर दी गई। राजेंद्र के आरंभिक लेखों में भी कहा गया है कि उसने अपनी विशाल सेना की सहायता से इदितुरै-नाडु (रायचूर दोआब), बनवासी (कदंबों की राजधानी), कोल्लिपाके (आधुनिक हैदराबाद के उत्तर में स्थित कुलपक) तथा मण्णैक्कडक्कम् (मान्यखेट) पर अधिकार कर लिया। इस तथ्य का आंशिक समर्थन एक चालुक्य अभिलेख से भी होता है, जिसके अनुसार चोल विशाल सेना के साथ चालुक्य के राज्य के हृदय प्रदेश तक बढ़ आये और उसकी प्रजा को प्रताड़ित किये। यह निर्णायक संघर्ष संभवतः तावरेयघट्ट नामक स्थान पर हुआ था। इस प्रकार सत्याश्रय की इस पराजय के परिणामस्वरूप चालुक्यों के कई नगर, जिनमें उनकी राजधानी मान्यखेट भी थी, चोलों के अधिकार में आ गये।

किंतु सत्याश्रय अपनी पराजय से निराश नहीं हुआ। उसने शक्ति-संचय कर एक बार पुनः चोलों के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया और चोल सेनापति चंदरिन को युद्ध में मार डाला। उसने चोल राजराज को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया और चोलों की संपत्ति अपहृत कर ली। इसके बाद सत्याश्रय ने अपने दक्षिण पड़ोसियों के विरूद्ध सैन्याभियान किया और आंध्र राज्य के आधुनिक करनूल तथा गुंटूर जिले तक अपने राज्य का विस्तार किया। इसकी पुष्टि 1006 ई. के बपतल लेख से होती है।

परमार और कलचुरियों से संघर्ष

चोलों के साथ-साथ सत्याश्रय को परमार शासक सिंधुराज तथा कलचुरि कोकल्ल से भी पराजित होना पड़ा। तैलप द्वितीय ने परमार मुंज को पराजित कर परमारों के कई प्रदेशों को जीत लिया था। मुंज के बाद उसके छोटे भाई सिंधुराज ने अवसर मिलते ही सत्याश्रय पर आक्रमण कर तैलप द्वारा अपहत किये गये प्रदेशों को पुनः अधिकृत कर लिया। संभवतः दक्षिण में व्यस्त होने के कारण सत्याश्रश्रय इस ओर ध्यान नहीं दे सका।

त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल द्वितीय ने भी दावा किया है कि उसने प्रतिहार राज्यपाल, गौड़ महीपाल तथा कुंतलाधिपति को पराजित किया था और कुंतल के राजा को बनवास के लिए बाध्य कर दिया था। ‘बनवास’ से तात्पर्य बनवासी से है, जो चालुक्य राज्य में स्थित था और कुंतलाधिपति संभवतः सत्याश्रय ही था। इस प्रकार सत्याश्रय को कलचुरियों से भी पराजित होना पड़ा था।

सत्याश्रय के सामंत

सत्याश्रय के सामंतों में बनवासी के शासक भीमरस, बेलवोला, कुंडूर तथा पुरिगिरे के शासक शोभनरस, कुंदमरस तथा कोंकण के शिलाहारवंशीय शासक रट्टराज के नाम मिलते हैं। इनमें कुंदमरस सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली था। कुछ इतिहासकार इसे सत्याश्रय का पुत्र मानते हैं, जिसे अपदस्थ कर विक्रमादित्य पंचम् ने सत्ता प्राप्त की थी। किंतु यह मत स्वीकार्य नहीं है। सत्याश्रय की पुत्री महादेवी का विवाह नोलंब के पल्लव शासक इरिवनो लंबाधिराज के साथ हुआ था। महादेवी को विक्रमादित्य के अलूर लेख में तैलप की पौत्री, सत्याश्रय की पुत्री तथा विक्रमादित्य की भगिनी (तग्मे) कहा गया है।

सत्याश्रय जैन धर्म का अनुयायी था तथा उसका गुरु विमलचंद्र जैन दर्शन का प्रसिद्ध विद्वान था। वह विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। कन्नड़ काव्य गदायुद्ध के लेखक रन्न उसके आश्रित थे। सत्याश्रय ने लगभग 1008 ई. तक राज्य किया।

विक्रमादित्य पंचम (1008-1015 ई.)

सत्याश्रय की मृत्यु के पश्चात् उसके भाई दशवर्मा का ज्येष्ठ पुत्र (भतीजा) विक्रमादित्य पंचम 1008 ई. में चालुक्य राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित हुआ। दशवर्मा के दो अन्य पुत्र अय्यण द्वितीय और जयसिंह द्वितीय थे। यह मानना सही नहीं है कि विक्रमादित्य पंचम ने सत्याश्रय के पुत्र कंदमरस को अपदस्थ कर सिंहासन प्राप्त किया था क्योंकि कंदमरस के सत्याश्रय के पुत्र होने की बात संदिग्ध है। जो भी हो, विक्रमादित्य पंचम ने मात्र छः या सात वर्ष ही शासन किया और त्रिभुवनमल्ल तथा वल्लभनरेंद्र की उपाधियाँ धारण की।

कौथेम लेख विक्रमादित्य के शासनकाल का पहला लेख है, जिसमें उसे यशस्वी और दानशील शासक बताया गया है। यद्यपि उसकी किसी विशेष उपलब्धि का ज्ञान नहीं है, किंतु उसके सेनानायक केशवजिय ने कोशल (दक्षिण कोशल) पर विजय प्राप्त करने का दावा किया है। कोशल का शासक संभवतः सोमवंशीय भीमरथ महाभवगुप्त द्वितीय रहा होगा।

विक्रमादित्य के समय में कुंदमरस बनवासी एवं शांतिलगे का उपराजा था, जबकि दंडनायक बेलवोल तथा पुरिगिरे का सामंत था। 1010 ई. के एक अभिलेख के अनुसार उसकी बहिन अक्कादेवी, किसुकाड पर शासन कर रही थी। अक्कादेवी को लक्ष्मी का अवतार कहा गया है, जिसने अनेक पुण्य अवसरों पर बाह्मणों को दान दिया था। विक्रमादित्य ने 1015 ई. तक शासन किया।

अय्यण द्वितीय (1015 ई.)

विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के बाद 1015 ई. में उसका अनुज अय्यण द्वितीय चालुक्य सिंहासन पर बैठा। उसने मात्र एक या दो महीने तक ही शासन किया। अभी तक उसका कोई लेख नहीं मिला है। जयसिंह द्वितीय के लेखों में उसकी प्रारंभिक तिथि 1015 ई. ही ज्ञात होती है।

जयसिंह द्वितीय (1015-1042 ई.)

अय्यण द्वितीय के अल्पकालीन शासन के बाद विक्रमादित्य का भाई जयसिंह द्वितीय (सिंहदेव) 1015 ई. में चालुक्य सिंहासन पर बैठा। उसने सिंगदेव, जगदेकमल्ल, त्रैलोकमल्ल, मल्लिकामोद तथा विक्रमसिंह आदि उपाधियाँ धारण की थी।

विजयें और उपलब्धियाँ

जयसिंह को अपने शासनकाल में निरंतर संघर्षों में व्यस्त रहना पड़ा। उसके राज्यारोहण के कुछ वर्ष बाद ही परमार भोज, कलचुरि गांगेयदेव तथा चोल राजेंद्र ने एक संघ बनाकर जयसिंह के विरूद्ध विभिन्न दिशाओं से अभियान शुरू किया। जयसिंह ने इन सभी शत्रुओं को पराजित कर अपने राज्य से खदेड़ने का दावा किया है।

परमारों का आक्रमण

तैलप द्वितीय के समय से ही परमारों की चालुक्यों से शत्रुता चली आ रही थी। पता चलता है कि 1020 ई. के आसपास परमार शासक भोज ने चालुक्यों के कुछ उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और उत्तरी कोंकण को विजित करने के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। भोज के सामंत यशोवर्मा के कुलवन ताम्रपत्रों तथा भोजचरित से भी पता चलता है कि भोज ने कर्णाट, लाट और कोंकण की विजय की थी। 1020 ई. या उसके बाद के भोज के लेखों से पता चलता है कि उसने बादामी तथा मान्यखेट से आये बाह्मणों को दान दिया था। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि परमार भोज ने चालुक्य जयसिंह को पराजित कर चालुक्य राज्य के उत्तरी भागों पर अधिकार कर लिया था।

किंतु भोज की यह सफलता स्थायी न रह सकी। 1019 ई. के बेलगाँव अनुदानपत्र में जयसिंह की उपाधि नृपतिभोजकमलचंद्र मिलती है और उसे सप्तमालवों का विजेता तथा उनके अभिमान को नष्ट करनेवाला कहा गया है। 1024 ई. के मीरज ताम्रपत्रों के अनुसार जयसिंह द्वितीय ने परमार भोज को पराजित किया और कोंकण राज्य पर अधिकार कर कोल्हापुर के निकट अपना सैनिक शिविर लगाया था। उसके सहयोगी कदंबवंशीय चट्टगि (चट्ट) ने मालवा शासक को भगा दिया और गौतम गंगे (गोदावरी) जल में स्नान किया। चट्टगि की सेवाओं से प्रसन्न होकर जयसिंह ने उसे अधीत्यकापाल की उपाधि से विभूषित किया। जयसिंह के दूसरे सेनानायक कुंदमरस के बारे में भी कहा गया है कि उसने भोज के हाथियों को कुचल दिया। इस प्रकार चालुक्य जयसिंह शीघ्र ही अपने सामंतों की सहायता से भोज द्वारा अधिकृत चालुक्य प्रदेशों को मुक्त कराने में सफल रहा।

चोलों के साथ युद्ध

जयसिंह द्वितीय का सबसे बड़ा शत्रु राजेंद्र चोल था। इस चालुक्य-चोल संघर्ष के कई कारण थे। एक तो, जयसिंह ने अपने राज्यारोहण के बाद उन प्रांतों पर अधिकार करने का प्रयास किया, जो सत्याश्रय के समय में चोलों के अधिकार में चले गये थे। दूसरे, वेंगी के सिंहासन के लिए विमलादित्य के चोल राजकुमारी कुंदवैदेवी से उत्पन्न पुत्र राजराज नरेंद्र और सौतेले पुत्र विजयादित्य सप्तम के बीच चलने वाला सत्ता-संघर्ष था। चालुक्य-चोल दोनों ही वेंगी के बहाने आंध्र में अपना प्रभाव-विस्तार करना चाहते थे।

संघर्ष की शुरूआत उस समय हुई जब जयसिंह ने राजेंद्र चोल की दक्षिण में व्यस्तता का लाभ उठाकर विजयादित्य सप्तम की सहायता के बहाने न केवल रायचूर दोआब वापस ले लिया, बल्कि तुंगभद्रा पारकर दक्षिण में बेलारी तक और संभवतः गंगावाडि में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अपदस्थ राजराज नरेंद्र ने भागकर चोलों से सहायता की याचना की।

दक्षिण से निपटने के बाद राजेंद्र चोल ने दो सेनाएँ भेजी-एक सेना गंगावाडि, नोलंबवाडि तथा इडैतुरैवाडु (रायचूर दोआब) की ओर बढ़ी और दूसरी राजराज की सहायता के लिए वेंगी गई। राजेंद्रचोल की 1021 ई. राजकीय तमिल प्रशस्ति में कहा गया है कि उसने मुशंकि (मास्की) के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर तुंगभद्रा के उत्तर में भगा दिया, उसके साढ़े सात लाख के कोष को अपहृत कर लिया और पट्टपाडि पर अधिकार कर लिया। तिरूवालंगाडु लेख में भी राजेंद्र प्रथम को तैल वंश का विनाशक कहा गया है। अनंतपुर जिले के कोट्शिवरम् से प्राप्त 1022 ई. के कई तमिल और कन्नड़ लेखों में एक चोल सेनापति को जयसिंहकुलकाल कहा गया है। इन स्रोतों से लगता है कि चालुक्यों तथा चोलों में मुशंगी, गंग तथा वेंगी प्रदेशों में कई युद्ध हुए, जिसमें जयसिंह को पराजित होकर भागना पड़ा और राजराज नरेंद्र को वेंगी की गद्दी मिल गई।

किंतु मीरज ताम्रपत्रों से पता चलता है कि 1024 ई. के पहले चालुक्य जयसिंह ने न केवल चोलों को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया, बल्कि राजेंद्र चोल का गंगावाडि तथा चेर राज्य तक पीछा भी किया। बेलगाँव लेख में जयसिंह को राजेंद्रचोलरूपी राज के लिए सिंह के समान कहा गया है। चालुक्यराज जयसिंह के सेनापति चावनरस को वलेयपत्तन विनाशक और विजेवाड़ के दुर्ग के गर्व को तोड़नेवाला बताया गया है।

1031 ई. में विजयादित्य ने चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय की सहायता से राजराज को अपदस्थ करके वेंगी की राजगद्दी स्वयं हथिया ली और विष्णुवर्धन विजयादित्य सप्तम की उपाधि धारण की। परंतु 4 वर्ष बाद चोलनरेश राजेंद्र प्रथम की सहायता से राजराज ने विजयादित्य को पराजित करके वेंगी का राजसिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया। इस पराजय से भागकर विजयादित्य ने चालुक्य-दरबार में शरण ले ली, जहाँ उसके साथ राजोचित व्यवहार किया गया। लगता है कि बाद में चालुक्यों और चोलों ने आपसी सहमति से तुंगभद्रा नदी को सीमा-रेखा मान लिया।

1023 ई. के बाद जयसिंह ने यद्यपि लगभग 20 वर्षों तक शासन किया, किंतु इस शासनावधि में किसी विशेष घटना की जानकारी नहीं है। जयसिंह का शक्तिशाली सामंत बिज्जरस सांतलिगे में शासन कर रहा था। बिज्जरस को सेउण के यादव भिल्लम तृतीय, चट्टुग की पराजय, भट्ट के अधिग्रहण तथा पट्ठरालि एवं तोरगले की विजय का श्रेय दिया गया है।

जयसिंह द्वितीय की पुत्री हम्मा अथवा आवल्लदेवी का विवाह भिल्लम तृतीय के साथ हुआ था। भिल्लम तृतीय 1025 ई. में अपने पैतृक राज्य पर शासन कर रहा था। इसकी राजधानी सिंदिनगर (सिन्नार) थी। जयसिंह की बहिन अक्कादेवी अपने पति मयूरवर्मादेव के साथ बनवासी, बेलवोल तथा पेलिगिरे में शासन कर रही थी। वह युद्ध में भैरवी के समान शौर्य प्रदर्शित करती थी।

इस प्रकार जयसिंह द्वितीय के समय चालुक्य साम्राज्य में दक्षिण में वर्तमान शिमोगा, तंगपुर, अनंतपुर तथा कडप्पा शामिल थे। इसकी पूर्वी सीमा का विस्तार हैदराबाद के उत्तर-पश्चिम कुलपक तक हो गया था। 1028 ई. तथा इसके बाद के अनेक लेखों से पता चलता है कि चालुक्यों की राजधानी अभी मान्यखेट ही थी क्योंकि चोल लेखों में मान्यखेट का उल्लेख तो है, किंतु कल्याणी का कोई संकेत नहीं मिलता है।

जयसिंह की दो रानियों का उल्लेख मिलता है- सुग्गलदेवी और देवलदेवी। संभवतः सुग्गलदेवी ने 1029 ई. के एक लेख में पाशुपताचार्य ब्रह्मर्षि पंडित को दान दिया था। बासव पुराण के अनुसार सुग्गलदेवी के करण ही जयसिंह ने जैनधर्म छोड़कर शैवधर्म अपना लिया था। उसकी दूसरी पत्नी देवलदेवी नोलंब राजकुमारी थी। जयसिंह द्वितीय ने 1042 ई. तक शासन किया।

सोमेश्वर प्रथम (1042-1068 ई.)

जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम 1042 ई. में राजगद्दी पर बैठा। सोमेश्वर प्रथम ने मान्यखेट के स्थान पर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। बिल्हण के अनुसार उसने अपने शासनकाल में नवोदित राजधानी कल्याणी को विभिन्न सुंदर भवनों एवं मंदिरों से अलंकृत कर विश्व का श्रेष्ठ नगर बना दिया। सोमेश्वर प्रथम ने त्रैलोक्यमल्ल, वीरमार्तंड, राजनारायण, ‘सेवणदिशपट्ट’, विंध्याधिपमल्लशिरच्छेदन आदि उपाधियाँ धारण की थी।

विजयें और उपलब्धियाँ

अपने दीर्घकालीन शासनकाल में सोमेश्वर प्रथम विभिन्न युद्धों में व्यस्त रहा, लेकिन उसके सामरिक अभियानों का क्रम सुनिश्चित करना कठिन है। उसने दक्षिण भारत के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण राजाओं से शक्ति-संतुलन करने के अतिरिक्त उत्तर भारत के परमारों तथा संभवतः प्रतिहारों को भी पराजित किया था।

नांदेर अभिलेख में कहा गया है कि सोमेश्वर प्रथम ने मगध, अंग एवं कलिंग के शासकों की शक्ति का विनाश किया, कोंकण को आक्रांत कर वहाँ के शासक को अपनी चरण-वंदना के लिए विवश किया, मालवराज ने अपनी राजधानी धारा में उसकी अनुकंपा की याचना की, उसने चोल राजा को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी एवं कलिंग के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया। शाके 966 (1045 ई.) के नरेमंगल अभिलेख में महामंडलेश्वर सोभनरस को वेंगिपति कहा गया है। नांदेर लेख में ही सोमेश्वर के एक ब्राह्मण सेनापति नागवर्मा का उल्लेख है, जिसे सोमेश्वर की दक्षिणभुजा कहा गया है, जिसने धारावर्षोत्पाटन एवं चौक्रकूट-कालकूट की उपाधि धारण की थी।

1050 ई. के बाद के सोमेश्वर प्रथम के कुछ अभिलेखों में उसे बंग, मगध, नेपाल, कान्यकुब्ज तथा पंचाल के अतिरिक्त कुरु, खस एवं आभीर राज्यों की विजयों का श्रेय दिया गया है। बिल्हण के अनुसार युवराज विक्रमादित्य षष्ठ ने गौड़, कामरूप, पांड्य तथा सिंहल के विरुद्ध सामरिक अभियानों का नेतृत्व किया था। इनमें कम से कम मगध, अंग, कुरु, खस, आभीर तथा नेपाल की विजयों का विवरण अप्रामाणिक लगता है।

चोलों के साथ संघर्ष

अपने शासन के प्रारंभ से लेकर अंत तक सोमेश्वर प्रथम चोलों से संघर्ष करता रहा। किंतु इन युद्धों के क्रम के विषय में मत-भिन्नता एवं अनिश्चितता है। दरअसल वेंगी राज्य को अपहृत कर उस पर अधिकार स्थापन के लिए पश्चिमी चालुक्यों एवं चोलों के बीच परंपरागत शत्रुता चली आ रही थी और वेंगी को लेकर राजराज और उसके सौतेले भाई विजयादित्य के बीच सिंहासन को लेकर गृहयुद्ध चल रहा था। इस गृहयुद्ध में चालुक्य नरेश विजयादित्य का समर्थक था, जबकि वेंगी के सिंहासन पर विराजमान राजराज को चोलों का समर्थन प्राप्त था।

राज्यारोहण के कुछ ही समय के बाद सोमेश्वर प्रथम ने विजयादित्य की सहायता के लिए वेंगी पर आक्रमण करने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इसकी सूचना पाकर राजेंद्र चोल ने भी अपने संरक्षित राज्य की सहायता के लिए सेना भेजी। सोमेश्वर प्रथम और राजाधिराज के बीच कालिदिडि क्षेत्र में एक अनिर्णायक युद्ध हुआ।

इसके बाद धान्यकटक (वर्तमान गंटूर जिले में स्थित धरणीकोट) में चालुक्यों एवं चोलों के मध्य भयंकर संग्राम हुआ। चोल अभिलेखों के अनुसार चालुक्य सोमेश्वर, जो इस युद्ध के समय उपस्थित भी नहीं था, युद्ध के समाचार से भयभीत हो गया और विक्कि (युवराज विक्रमादित्य षष्ठ) तथा विजयादित्य (राजराज नरेंद्र का सौतेला भाई) युद्ध के मैदान से भाग गये। राजाधिराज ने सोमेश्वर की सेना को वेंगी से पश्चिम की ओर खदेड़ दिया और वेंगी पर अधिकार कर लिया।

धान्यकटक में चालुक्यों को पराजित कर राजाधिराज अपनी सेनाओं के साथ कोल्लिप्पाकै (नलगोंडा जिले में कुलपक) तक पहुँच गया। किंतु कोल्लिप्पाकै में चालुक्यों ने चोलों का कड़ा प्रतिरोध किया। एक कन्नड़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर के एक सामंत सिगनदेव, जो बनवासी तथा संतलिगे का शासक था, ने शत्रुओं से कोल्लिप्पाकै की रक्षा की थी।

चोल-चालुक्य संघर्ष के अगले चरण का उल्लेख राजाधिराज के शासनकाल के उन्नीसवें तथा तीसवें वर्ष (1047-1048 ई.) के लेखों में मिलता है। इस अभियान का नेतृत्व स्वयं राजाधिराज ने किया था। उसने विक्रमनारायण (विक्रमादित्य षष्ठ) की सेना को पराजित कर नारायण, गंडरदिनकर (गंडरादित्य), गणपति, मधुसूदन एवं गंगाधर आदि सेनापतियों को पराजित कर या मारकर चालुक्य सेना के बहुत से हाथी, अश्व एवं युद्धास्त्र छीन लिये तथा कम्पिलि के राजप्रासाद को ध्वस्त कर दिया।

इसके बाद चोल-चालुक्यों की अगली मुठभेड़ कृष्णा नदी के बांयें पर स्थित कड़कमार नगर (छावनी) पुंडर में हुई। इसमें चालुक्यों की ओर से तेलगु राजा बिच्चय ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किंतु इस युद्ध में भी चालुक्य बुरी तरह पराजित हुए। पुंडर नगर को भूमिसात कर उसके ध्वंसावशेषों को गधों से जुतवाकर उसमें वाराटिकै नामक अनाज बो दिया गया। चोल आक्रांताओं ने मणंदिप्पै (मुणिन्दिध) नगर को जलाकर राख कर दिया। जब भयभीत आहवमल्ल ने दया-याचना के साथ संधि का प्रस्ताव लेकर अपना दूत भेजा चोलराज के स्कंधावार में भेजा, तो चोल शासक ने न केवल दूत का अपमान किया, बल्कि उसके शरीर पर ‘आहवमल्ल घृणित एवं कायर है’ लिखवाकर सोमेश्वर के संधि-प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

चोल अभिलेखों के अनुसार चोल राजा अपने हाथियों के साथ आगे बढ़ता गया। उसके हाथियों ने शिरूतरै, पेरूवरै तथा दैवभीमकशी के घाट का पानी पिया। इसके बाद चोलों ने येतगिरि में अपना सिंहयुक्त विजय-स्तंभ स्थापित किया, आनंदोत्सव मनाया और अधीनता स्वीकार करने वाले राजाओं को पुरस्कार दिया।

इसी समय चालुक्यों ने पुनः संघर्ष आरंभ कर दिया। इस बार चोलों ने चालुक्यों के कई सेनापतियों के सिर काट लिये। सोमेश्वर ने विवश होकर पुनः अपने एक अधिकारी एवं दो नायकों को संधि-प्रस्ताव के साथ चोलराज के पास भेजा, किंतु चोल नरेश ने दूतों को अपमानित कर वापस कर दिया।

इसके बाद चोल राजाधिराज ने चालुक्यों की राजधानी कल्याणी पर आक्रमण कर लूट-पाट किया और राजमहल को ध्वस्त कर दिया। राजाधिराज ने इस विजय के उपलक्ष्य में अपना वीराभिषेक कराया और विजयराजेंद्र की उपाधि धारण की। तंजौर जिले में दारसुरम (दारासुरम) नामक स्थान पर चालुक्य शैली में एक द्वारपालक की मूर्ति आज भी है, जिस पर तमिल भाषा में इस आशय का लेख ‘उडैयर श्री विजयेंद्र राजेंद्रदेव द्वारा कल्याणपुर को भस्म कर लाया गया द्वारपाल’ अंकित है। इससे राजाधिराज द्वारा चालुक्यों की पराजय तथा कल्याणपुर के भस्मसात् करने की पुष्टि होती है।

चोल-चालुक्य संघर्ष का विवरण मुख्यतया चोलों के अभिलेखों पर आधारित है, जबकि चालुक्य लेखों में इस संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है। यह सही है कि चोलों ने चालुक्यों को बहुत हानि पहुँचाई थी, किंतु 1047 ई. के बाद चालुक्य सोमेश्वर ने उन्हें अपने प्रदेशों से खदेड़ दिया था। सोमेश्वर प्रथम के 1047 ई. के एक लेख में उसे अन्य देशों के साथ चोल-विजय का भी श्रेय दिया गया है। 1049 ई. के एक लेख से पता चलता है कि सोमेश्वर पल्लव दिग्विजय के बाद करहाडनाडु के बग्घापुर नामक स्थान पर एक नेलेवीडु में था। नागै अभिलेख में भी सोमेश्वर को काँची विजय का श्रेय दिया गया है। लगता है कि चोलों से कई बार पराजित होने के बावजूद उसके सेनानायक चामुंडराज ने 1047 ई. के पहले चोलों को खदेड़ दिया था और सोमेश्वर कुछ समय के लिए वेंगी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो गया था। 1053 ई. के मुलगुंड अभिलेख में सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र सोमेश्वर द्वितीय को वेंगीपुरवरेश्वर की उपाधि दी है।

चोल-चालुक्य संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था। राजाधिराज के शासन के अंतिम वर्षों में चोलों ने नये सिरे से चालुक्यों पर आक्रमण किया। इस बार राजाधिराज के साथ उसका पुत्र राजेंद्र भी था, जिसे जिसे राजाधिराज ने अन्य पुत्रों की उपेक्षा कर युवराज बना दिया था। राजेंद्र चोल के चौथे वर्ष के मणिमंगलम् लेख से पता चलता है कि राजाधिराज रट्टमंडल को आक्रांत करता हुआ कोप्पम नगर तक पहुँच गया। उसके इस दुस्साहस सें क्रुद्ध होकर आहवमल्ल ने अपनी सेना के साथ कोप्पम (कृष्णा नदी के तट पर स्थित कोम्बाल) नामक स्थान पर चोल सेना का सामना किया। युद्ध में राजाधिराज मारा गया, किंतु उसके पुत्र राजेंद्र चोल ने स्थिति पर नियंत्रण स्थापित कर अनके चालुक्य सेनापतियों को मौत के घाट उतार दिया। अंततः सोमेश्वर पराजित होकर भाग गया और चोलुक्यों की बहुत-सी संपत्ति चोलों के हाथ लगीं। राजेंद्र द्वितीय ने युद्ध क्षेत्र में ही अपना राज्यारोहण संपन्न किया तथा कोल्हापुर में जयस्तंभ स्थापित किया। इस प्रकार कोप्पम युद्ध में भी सोमेश्वर प्रथम को पराजित होना पड़ा।

किंतु चालुक्य अधिक समय तक कोप्पम की पराजय को स्वीकार नहीं कर सके। चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने कोप्पम का प्रतिशोध लेने के लिए दंडनायक बालादेव (बालादित्य) एवं अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में एक बड़ी सेना चोलों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस बार चालुक्य-चोल संघर्ष मुडक्कारु के तट पर हुआ। इस युद्ध में राजेंद्रदेव, उसके पुत्र राजमहेंद्र तथा भाई वीरराजेंद्र भी सम्मिलित हुए। राजमहेंद्र के लेखों में मुडक्कारू के युद्ध का वर्णन मिलता है, जिसमें आहवमल्ल पराजित हुआ था।

इसके बाद सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा परमार नरेश जयसिंह को चालुक्य सेना के साथ चोलशासित प्रदेश गंगवाडि पर आक्रमण करने के लिए भेजा। किंतु चोल नरेश राजेंद्र द्वितीय ने अपने पुत्र वीरराजेंद्र के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजकर गंगवाडि से आक्रांताओं को भगा दिया। वीरराजेंद्र के आरंभिक शिलालेखों से पता चलता है कि उसने महादंडनायक चामुंडराज से युद्ध किया और उसका सिर काट लिया। इससे लगता है कि चोलों ने वेंगी में भी चालुक्यों की सेना को पराजित किया था। 1064 ई. में चोल नरेश राजेंद्र द्वितीय की मृत्यु के बाद वीर राजेंद्र को वापस लौटना पड़ा।

वीरराजेंद्र के शासन के पाँचवें वर्ष के लेखों से ज्ञात होता है कि भयभीत आहवमल्ल ने पुनः वेंगी को अधिकृत कर लिया। लेकिन वीरराजेंद्र ने कर्नाटक के तुंग एवं भद्रा नदियों के संगम-स्थल कुडलसंगम के युद्ध में चालुक्यों को पराजित किया।

चोल लेखों में कूडलसंगम के द्वितीय युद्ध का भी उल्लेख मिलता है। मणिमंगलम् लेख से पता चलता है कि वेंगनाडु की पराजय और अपमान का बदला चुकाने के लिए सोमेश्वर ने वीरराजेंद्र को कुडलसंगम के मैदान में पुनः युद्ध करने की चुनौती दी। वीरराजेंद्र तत्काल अपनी सेना के साथ मैदान में युद्ध के लिए पहुँच गया। चालुक्य सेना भी वहाँ पहुँच गई और लगभग एक माह तक अपने राजा की प्रतीक्षा करती रही। एक महीने की प्रतीक्षा के बाद वीरराजेंद्र ने क्रुद्ध होकर संपूर्ण रट्टपाडि को रौंद डाला और तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। इसके बाद उसने वेंगी और कलिंग तक विजय प्राप्त किया।

वस्तुतः पश्चिमी चालुक्य तथा चोल, दोनों ही वेंगी को अपने अधीन रखना चाहते थे। इसलिए इन प्रतिद्वंद्वी राजवंशों में अनेक संघर्ष हुए। शासन के अधिकांश भाग में सोमेश्वर प्रथम वेंगी को अपने अधीन रखने में सफल रहा। 1044 ई. के नरेयंगल अभिलेख में उसके सामंत महामंडलेश्वर शोभनरस को वेंगीपति कहा गया है। 1049 ई. से पहले किसी समय सोमेश्वर ने वेंगी के शासक राजराज को अपना अधीनस्थ बना लिया था और 1049 ई. तथा 1053 ई. के बीच के अंतराल में उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने वेंगीपुरवरेश्वर की उपाधि धारण की थी। सोमेश्वर प्रथम का 1057 ई. का एक अभिलेख आंध्र राज्य के गोदावरी जिले से प्राप्त हुआ है।

परंतु समय-समय पर पश्चिमी चालुक्यों को पराजित कर चोल भी वेंगी में अपना प्रभुत्व स्थापित करते रहे और सोमेश्वर के शासन के अंतिम भाग में यह राज्य संभवतः चोलों के अधीन हो गया था, क्योंकि 1066-67 ई. के वीरराजेंद्र के पाँच अभिलेखों में वर्णित है कि वेंगीनाडु पर अधिकार कर उसने अपने बड़े भाई की प्रतिज्ञा पूरी की थी।

शिलाहार राज्य की विजय

यद्यपि सोमेश्वर प्रथम अधिकांश समय तक चोलों के साथ संघर्ष में व्यस्त रहा, लेकिन बीच-बीच में उसे उत्तर तथा पश्चिम की अन्य कई शक्तियों से भी निपटना पड़ा।

सोमेश्वर ने उत्तरी तथा दक्षिणी कोंकण तथा कोल्हापुर में शासन करने वाले शिलाहारों को पराजित कर अपने अधीन किया। इसकी पुष्टि नागै अभिलेख, खेंभावी अभिलेख और भरंगी लेख से होती है। कोलानुपाक अभिलेख से भी विदित होता है कि 1050-51 ई. में सोमेश्वर नेलेविडु से शासन कर रहा था, जो शिलाहार राज्य में था।

बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य षष्ठ की रानी चंद्रलेखा (चंदलादेवी) करहाट के राजा विद्याधर की पुत्री थी। इस आधार माना जाता है कि संभवतः बाद में कोल्हापुर के शिलाहार शासक ने चालुक्य राज से मैत्री कर अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य षष्ठ के साथ कर दिया था।

मालवा पर आक्रमण

सोमेश्वर ने कल्याणी की गद्दी पर बैठते ही मालवा पर आक्रमण किया। सोमेश्वर का समकालीन मालवा का शासक भोज था। नागै लेख के अनुसार चालुक्यों ने धारा नगरी में आग लगा दी तथा मांडव पर अधिकार कर लिया। यद्यपि नांदेर लेख में कहा गया है कि भोज ने धारा में ही आत्मसमर्पण कर दिया था। किंतु विक्रमादित्य षष्ठ के येवूर अभिलेख के अनुसार मालवा के राजा ने कई बार मांडव में शरण ली थी। विक्रमांकदेवचरित से भी पता चलता है कि जब सोमेश्वर ने धारा को आक्रांत किया, तो भोज अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया। मालवा के विरूद्ध इस अभियान में सोमेश्वर को अपने कई सामंतों एवं सेनापतियों से सहायता मिली थी। 1066 ई. के होट्टूर अभिलेख में सोमेश्वर के महामंडलेश्वर जेमरस को ‘भोज के लिए कालाग्नि’ कहा गया है। इससे पता चलता है कि जेमरस की उपाधि सोमेश्वर ने भोज के विरूद्ध उसकी सहायता के कारण दी थी। स्रोतों से पता चलता है कि भोज की मृत्यु के बाद जब मालवा में जयसिंह तथा उदयादित्य के बीच गद्दी के लिए संघर्ष हुआ, तो सोमेश्वर ने जयसिंह की सहायता की थी। इसकी पुष्टि बिल्हण के विवरणों से भी होती है। संभवतः इस संघर्ष में सोमेश्वर को कलचुरियों और लाट के चालुक्यों के विरोध का सामना करना पड़ा था।

कलचुरियों तथा चालुक्यों के विरूद्ध अभियान

कश्मीरी कवि बिल्हण के अनुसार सोमेश्वर प्रथम का गुजरात तथा लाट के चालुक्यों तथा कलचुरियों से भी संघर्ष हुआ। संभवतः भोज के विरूद्ध चालुक्य भीम प्रथम और कलचुरि शासक कर्ण ने सोमेश्वर के साथ मिलकर एक संघ बनाया था, किंतु लगता है कि भोज की पराजय के बाद राजनीतिक कारणों से यह संघ भंग हो गया और शक्ति संतुलन के लिए सोमेश्वर को कलचुरियों एवं चालुक्यों के विरूद्ध अभियान करना पड़ा। सूडी अभिलेख में दंडनायक नागदेव को गुर्जरराज का विजेता कहा गया है। हीरहडगल्लि लेख के अनुसार विक्रमादित्य षष्ठ को देखकर गुर्जरराज किसी छिद्र में छिप गया था। इतिहासकारों के अनुसार लाट का चालुक्य शासक, जिसे सोमेश्वर ने पराजित किया था, या तो वत्सराज था या त्रिलोचनपाल।

सोमेश्वर ने कलचुरि कर्ण को भी पराजित किया था। बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने दाहल के राजा कर्ण की शक्ति चूर-चूर कर दी थी। उसके महामंडलेश्वर संकरस ने गांगेय (कर्ण) को पराजित करने का दावा किया है। इतिहासकारों का विचार है कि परमार जयसिंह को मालवा की गद्दी पर आसीन करने के बाद ही सोमेश्वर ने कलचुरि कर्ण को पराजित किया था।

चक्रकूट के विरूद्ध अभियान

मध्यप्रदेश के आधुनिक बस्तर के आसपास नागवंशियों का शासन था, जिनकी राजधानी चक्रकूट थी। नांदेर लेख में सोमेश्वर प्रथम के सेनापति नागवर्मा को चक्रकूट कालकूट की उपाधि दी गई है। इससे लगता है कि सोमेश्वर प्रथम ने नागवर्मा के नेतृत्व में नागों को पराजित किया था।

मारसिंह के विरूद्ध अभियान

नांदेर लेख में नागवर्मा को ‘मारसिंहमदमर्दन’ की उपाधि दी गई है। इससे स्पष्ट है कि उसने मारसिंह नामक किसी शासक को पराजित किया था। नांदेर लेख के लगभग एक वर्ष बाद जारी किये गये एक लेख से ज्ञात होता है कि किसी रट्ट सामंत अंक ने मारसिंह को पराजित किया था। मारसिंह नामक एक शासक के लेखों से पता चलता है कि वह सोमेश्वर की पत्नी लीलावती का पिता था। अनुमान किया जाता है कि इसी मारसिंह प्रभु को नागवर्मा और अंक ने पराजित किया था, जो किसी कारण से सोमेश्वर का विरोधी हो गया था।

काकतीय

साक्ष्यों से पता चलता है कि काकतीय प्रोल प्रथम ने सोमेश्वर के चक्रकूट तथा अन्य सैन्य-अभियानों में सहयोग किया था और इसके बदले उसे वारंगल प्रदेश के आसपास का शासक नियुक्त किया गया था। 1090 ई. के काजीपेट अभिलेख से भी पता चलता है कि प्रोल प्रथम की सेवाओं के कारण त्रैलोक्यमल्ल ने उसे अन्मकोंड विषय पुरस्कार के रूप में दिया था। इसी अभिलेख में प्रोल के पुत्र बेट को मालव तथा चोलरूपी हाथियों के लिए सिंह के समान कहा गया है। पलंपट लेख में भी सोमेश्वर को काकतीयवल्लभ की उपाधि दी गई है। इससे स्पष्ट होता है कि काकतीय सोमेश्वर के अधीनस्थ सामंत थे।

केरल के विरूद्ध अभियान

सोमेश्वर प्रथम ने अपने सामरिक अभियानों में अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा सामंतराज की सहायता से केरल तथा मलाबार के शासक पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक को मार डाला।

मल्ल तथा सेउण के विरूद्ध सफलता

1047 ई. के ताडखेड़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके सेनापति नागवर्मा ने मल्ल तथा सेउण का भी दमन किया था। यद्यपि मल्ल की पहचान करना कठिन है, किंतु नागवर्मा की ‘विंध्यधिपति’ की उपाधि से लगता है कि मल्ल विंध्य के आसपास का शासक था। सेउण की पहचान भिल्लम तृतीय से की जाती है, जिसे जयसिंह के शासन में विज्जुरस ने उन्मूलित किया था। लगता है कि सोमेश्वर के काल में इसने विद्रोह कर दिया, जिसका दमन सामंत नागवर्मा ने किया था। बाद में, दोनों में मधुर संबंध हो गया क्योंकि क्योंकि देवली अनुदानपत्र से पता चलता है कि विज्जुरस ने सोमेश्वर की ओर से उसके शत्रुओं को अपदस्थ किया था।

कलिंग तथा कोशल

सोमेश्वर ने कलिंग के गंग शासक वज्रहस्त पंचम पर भी विजय प्राप्त की और दक्षिण कोशल में अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

आलुपों पर अधिकार

सोमेश्वर प्रथम के सामंत कदंब जयकेशिस प्रथम ने आलुप तथा कपर्दिक द्वीप के शासक पर भी विजय प्राप्त की और कामदेव को अपदस्थ किया था।

इसके अतिरिक्त, सोमेश्वर प्रथम को चालुक्य-अभिलेखों में मगध, बंग, कन्नौज, पांचाल, खस, कुरु, आभीर एवं नेपाल आदि प्रदेशों का विजेता कहा गया है। बिल्हण ने सोमेश्वर के कनिष्ठ पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ द्वारा दक्षिण में पांड्य एवं लंका पर तथा पूर्वी भारत में गौड़ तथा कामरूप जैसे दूरस्थ प्रदेशों पर किये गये आक्रमणों का उल्लेख किया है। किंतु ये सभी विवरण अतिरंजनापूर्ण प्रतीत होते हैं।

इस प्रकार अपने राज्यारोहण के समय से लेकर अंतिम समय तक सोमेश्वर प्रथम युद्धों में व्यस्त रहा। चोलों के विरुद्ध होने वाले दीर्घकालीन युद्धों में यद्यपि उसे अनेक बार पराजय मिली, तथापि उसने अपने साहस एवं धैर्य का कभी परित्याग नहीं किया। इससे उसके युद्ध-प्रेम तथा अनुपम शौर्य का प्रमाण मिलता है।

सोमेश्वर प्रथम का साम्राज्य उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक के अधिकांश भू-भाग में व्याप्त था। पूरब में यह आधुनिक मध्य प्रदेश के दक्षिणी जिलों से लेकर कलिंग और कोशल तक विस्तृत था। कुछ समय तक परमार एवं प्रतीहार भी उसके अधीन रहे थे।

अभिलेखों में सोमेश्वर प्रथम की तमाम रानियों के नाम वर्णित हैं- चंदलकव्वे (चंद्रिकादेवी), मैलालदेवी, होयसलदेवी, केतलदेवी, वच्छलदेवी, चामलदेवी, लीलादेवी (शिरपुर लेख), लाच्छलदेवी (बेलवट्टि अनुदानपत्र) आदि। इनमें मैलालदेवी 1053-54 ई. में बनवासी में और केतलदेवी 1054 ई. में पेनवाड अग्रहार में शासन कर रही थी। मैलालदेवी संभवतः अग्रमहिषी थी।

सोमेश्वर प्रथम के कम से कम चार पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है- सोमेश्वर द्वितीय, विक्रमादित्य षष्ठ, विजयादित्य और जयसिंह। अपने शासन के अंतिम दिनों में उसने अपने दो पुत्रों- सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ को युवराज नियुक्त किया था। सोमेश्वर द्वितीय 1053-54 ई. में बेलवोला तथा पुरिगेरे में शासन कर रहा था। विक्रमादित्य षष्ठ के संबंध में पता चलता है कि उसने 1055-65 ई. के बीच बनवासी, संतलिगे तथा गंगवाड़ी में अलग-अलग समयों में शासन किया था। अपनी लंबी बीमारी और चोलों के आक्रमणों से भयभीत होकर सोमेश्वर प्रथम ने 29 मार्च, 1068 ई. में कुरवत्ति नामक स्थान पर तुंगभद्रा नदी में जल-समाधि ले ली।

सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076 ई.)

सोमेश्वर प्रथम के पश्चात् उसका जयेष्ठ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल 1068 ई. में राजा हुआ। उसने अपने अनुज विक्रमादित्य षष्ठ को गृहयुद्ध की विभीषिका से राज्य को सुरक्षित रखने के लिए गंगवाडि प्रदेश का शासक दिया। वह 1071 तथा 1074 ई. के मध्य विक्रमादित्य कर्नाटक के आधुनिक बेल्लारी, चित्तलदुर्ग, अनंतपुर तथा धारवाड़ जिलों में शासन कर रहा था, और उसकी राजधानी गोविंदवाड़ी थी। उसका विवाह चोल वीरराजेंद्र की पुत्री से हुआ था, जिसके कारण चोलों से उसके मधुर संबंध थे।

चोलों से युद्ध

1068-69 ई. में सोमेश्वर को विक्रमादित्य तथा उसके संबंधी एवं सहायक चोलों से युद्ध करना पड़ा। चोल वीरराजेंद्र ने अपने दामाद की महत्त्वाकांक्षा की तुष्टि के लिए गंगवाडि की चालुक्यसेना के साथ कल्याणी-नरेश सोमेश्वर द्वितीय पर आक्रमण कर दिया और गुत्ति (गूटी) को घेर लिया। इसके पश्चात् कम्पिलनगर को नष्ट-भ्रष्ट कर चोल सेना ने आगे बढ़कर करदिकल (आधुनिक करदी) में अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। कर्नाटक प्रदेश को जीतकर वीरराजेंद्र ने विक्रमादित्य को रट्टपाडि का राजा घोषित कर दिया। 1071 ई. के अभिलेखों के अनुसार विक्रमादित्य ने ‘त्रिभुवनमल्ल’ का विरुद धारण किया।

परंतु वीरराजेंद्र का यह राजनीतिक दबाव सोमेश्वर के राज्य पर अधिक समय तक नहीं रह सका। शीघ्र ही सोमेश्वर द्वितीय की शक्तिशाली अश्व-सेना ने वीरराजेंद्र को पराजित कर चोल सेना को दक्षिणी कर्नाटक से बाहर खदेड़ करके अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त कर लिया। चालुक्य सेनापति दंडनायक लक्ष्मण ने कल्याणी के सिंहासन को सुरक्षित रखने में विशेष योगदान दिया।

चोलों पर विजय प्राप्त करने के उपरांत सोमेश्वर द्वितीय ने गुजरात के चालुक्य शासक कर्ण के साथ संधि की और उसकी सहायता से परमार जयसिंह को पराजित कर मालवा को अधिकृत कर लिया। परंतु इस सफलता के कुछ ही समय के बाद परमार उदयादित्य ने चहमानों के सहयोग से सोमेश्वर को मालवा प्रदेश से खदेड़ दिया।

यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ युवराज के रूप में शासन कर रहा था, लेकिन वह आंतरिक रूप से सोमेश्वर द्वितीय के राजा बनने के विरूद्ध था। पिता की मृत्यु के समय वह दिग्विजय के निकला था। कल्याणी वापस आने पर उसने लूट की समस्त संपत्ति सोमेश्वर के चरणों में समर्पित कर दी। 1074 ई. के एक अभिलेख से प्रमाणित होता है कि इस तिथि तक विक्रमादित्य सोमेश्वर के अधीन बंकापुर में शासन कर रहा था।

बिल्हण के विवरण से पता चलता है कि सोमेश्वर द्वितीय गलत आदतों से ग्रसित हो गया। उसके निष्ठुर और विलासी प्रवृत्ति के कारण सभी उससे असंतुष्ट हो गये। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु जब सोमेश्वर द्वितीय विक्रमादित्य षष्ठ पर संदेह करने लगा, तो विक्रमादित्य और उसके छोटे भाई जयसिंह ने राजधानी को त्यागकर तुंगभद्रा के तट पर एक लघु राज्य की स्थापना की।

विक्रमांकदेवचरित के अनुसार विक्रमादित्य का चोल वीरराजेंद्र से मधुर संबंध था, जिसके कारण उसकी शक्ति एवं महत्त्वाकांक्षा में काफी वृद्धि हो गई थी। विक्रमादित्य षष्ठ ने कदंबवंशीय जयकेशि एवं विजयादित्य, उच्छंगि के पांड्य शासक तथा संभवतः होयसल बिट्टिग विष्णुवर्धन एवं उसके पुत्र इरेयंग की सहायता से कल्याणी के सिंहासन पर अधिकर करने का प्रयास किया। फलतः 1075 ई. में सोमेश्वर द्वितीय ने वेंगीनरेश कुलोत्तुंग की सहायता से विद्रोही विक्रमादित्य षष्ठ और उसके समर्थक सामंतों को कुचलने की योजना बनाई।

1076 ई. में कर्नाटक (कोलार जनपद) के नांगिली नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ। यद्यपि वेंगी नरेश कुलोत्तुंग ने विक्रमादित्य की राजधानी गंगवाडि पर अधिकार कर लिया, किंतु विक्रमादित्य की सेना ने चालुक्यनरेश सोमेश्वर द्वितीय को बंदी बना लिया। इसकी पुष्टि विक्रमादित्य षष्ठ के 1099 ई. के गडक अभिलेख तथा विक्रमांकदेवचरित से होती है।

विक्रमादित्य के अन्य कई अभिलेखों में भी वर्णित है कि उसने होयसल इरेयंग एवं चोडपांड्य की सहायता से दुर्व्यसनी सोमेश्वर द्वितीय को पराभूत कर बंदी बना लिया था और 1076 ई. में कल्याणी के चालुक्य राज पर अधिकार कर लिया।

लेखों में सोमेश्वर द्वितीय की दो पत्नियों- कचलदेवी और मैललदेवी का नाम मिलता है। उसकी एक बहन सुग्गलदेवी 1069 ई. तथा 1075 ई. में किसुकाड में शासन कर रही थी। उसका सामंत और सेनानायक लक्ष्मण दंडनायक बनवासी का शासक था। बिल्हण के विवरण में सोमेश्वर द्वितीय को एक अत्याचारी एवं विलासी शासक बताया गया है, किंतु सोमेश्वर के लेखों में इसकी पूर्ण प्रशस्ति प्राप्त होती है।

विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.)

विक्रमादित्य षष्ठ को स्वाभाविक उत्तराधिकार में राजसिंहासन नहीं मिला था, बल्कि अपने अग्रज सोमेश्वर द्वितीय से इसे बलपूर्वक अपहृत कर वह 1076 ई. में राजा हुआ था (सोमेश्वरात्बाहुबलेन राज्यंग्रहीतवानार्जित कीर्तिलक्ष्मीः)। विक्रमादित्य सोमेश्वर द्वितीय के शासनकाल में भी लगभग स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य कर रहा था। अपने पिता सोमेश्वर प्रथम के शासनकाल में विक्रमादित्य षष्ठ ने चोलों को कई बार पराजित किया था, काँची नगर में लूटमार की थी, मालवा के राजा की सहायता की थी, कलचुरियों को हराया था और सुदूरस्थ बंगाल तथा असम तक के राज्यों की विजयें की

अपने राज्यारोहण के अवसर पर विक्रमादित्य षष्ठ ने एक नवीन संवत चालुक्य विक्रम संवत का प्रवर्तन किया, जो उसके काल में नियमित रूप से प्रयोग होता रहा। यह विक्रम चालुक्य संवत संभवतः 1076 ई. में शुरू हुआ था और इसी वर्ष उसका अभिषेक भी हुआ था। विक्रमादित्य षष्ठ ने पेरमाडिदेव, कविविक्रम तथा त्रिभुवनमल्ल जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

विक्रमादित्य षष्ठ की उपलब्धियाँ
लंका से दौत्य-संबंध

जिस समय विक्रमादित्य षष्ठ ने कुलोत्तुंग के विरूद्ध सफलता प्रापत कर कल्याणी का सिंहासन प्राप्त किया था, उसी समय महावंश के अनुसार श्रीलंका में विजयबाहु ने भी चोल कुलोतुंग की सेना को खदेड़कर 1076-77 ई. में अपना अभिषेक कराया था। इस अवसर पर विक्रमादित्य ने अपना दूत भेजकर विजयबाहु का अभिनंदन किया और उसे उपहार भेंट किया था। इससे स्पष्ट है कि विक्रमादित्य षष्ठ उन सभी शक्तियों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने का प्रयास कर रहा था, जो चोल शासक कुलोतुंग प्रथम के विरोधी थे।

जयसिंह का विद्रोह

जयसिंह विक्रमादित्य का छोटा भाई था। प्रारंभ में दोनों के संबंध अच्छे थे और सोमेश्वर द्वितीय के साथ युद्धों में जयसिंह ने विक्रमादित्य षष्ठ का साथ दिया था। विक्रमादित्य ने अपने राज्यारोहण के बाद 1077 ई. में उसे उसे बेलवोला तथा पुलिगेरे का शासक नियुक्त कर दिया। एक अभिलेख में उसे युवराज के रूप में कंदूर का राजा तथा अण्णम अंककार (अपने बड़े भाई का रक्षक) कहा गया है। इसी अभिलेख में बतलाया गया है कि उसने एतगिरि के स्कंधावार में हिरण्यगर्भ एवं तुलापुरुष नामक दान दिये थे।

किंतु ऐसा लगता है कि जयसिंह अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं और सम्राट बनने की योजना बनाने लगा। विक्रमांकदेवचरित से भी पता चलता है कि सिंहासन पर अधिकार करने के उद्देश्य से जयसिंह अपनी सैनिक शक्ति और अन्य संसाधन बढ़ाने लगा था। उसने चोल सम्राट कुलोतुंग से भी सहायता माँगी। जब विक्रमादित्य को जयसिंह की विद्रोही गतिविधियों की सूचना मिली, तो उसने जयसिंह को मनाने का बहुत प्रयास किया। किंतु जयसिंह पर विक्रमादित्य के समझाने का कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह एक बड़ी सेना लेकर कृष्णा नदी के तट पर पहुँच गया, जहाँ अनेक मांडलिक (सामंत) भी उसके साथ मिल गये। उसकी सेना जनता को आतंकित कर लूटने और बंदी बनाने लगी, जिससे राज्य में अराजकता फैल गई। अब विक्रमादित्य प्रतिरक्षा में हथियार उठाने के लिए विवश हो गया। दोनों पक्षों की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। प्रारंभ में जयसिंह की हस्तिसेना को कुछ सफलता मिली, किंतु अंततः जयसिंह पराजित हुआ और भाग गया। बाद में जयसिंह को बंदी बनाकर विक्रमादित्य के समक्ष लाया गया। बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने उसके प्रति उदारता का व्यवहार किया और स्वतंत्र कर दिया।

मालवा के विरुद्ध अभियान

विक्रमादित्य को मालवा के परमारों के विरुद्ध कई बार अभियान करना पड़ा। उसके राज्यारोहण के पहले ही उत्तराधिकार के युद्ध तथा गुजरात के चालुक्यों और मध्य भारत के चेदियों के आक्रमण के कारण मालवा में अराजकता फैली हुई थी। भोज की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य ने अपने पिता सोमेश्वर प्रथम के कहने पर उसके पुत्र जयसिंह को मालवा राजा बनाया था।

विक्रमादित्य का समकालीन मालवा का शासक जयसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी उदयादित्य था। पहले विक्रमादित्य से उसके संबंध अच्छे थे, किंतु बाद में किन्हीं कारणों से दोनों के आपसी संबंध बिगड़ गये और विक्रमादित्य ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। रायबाग लेख से पता चलता है कि विक्रमादित्य ने न केवल उदयादित्य को पराजित कर मार डाला, बल्कि धारा नगरी को जला दिया और वहाँ अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया।

उदयादित्य के तीन पुत्र थे- लक्ष्मणसेन, नरवर्मा तथा जगदेव। उदयादित्य के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया। संभवतः लक्ष्मणसेन ने कुछ दिन शासन करने के बाद राजगद्दी , नरवर्मा को दे दी। जब जगदेव ने राजगद्दी प्राप्त करने के लिए चालुक्य नरेश से सहायता की याचना की, तो विक्रमादित्य षष्ठ ने 1097 ई. में पुनः मालवा में हस्तक्षेप किया और नरवर्मा को हटाकर जगदेव को मालवा का राजा बनवा दिया। बाद में, दोनों के संबंध अत्यंत सौहार्द्रपूर्ण हो गये, जिसके फलस्वरूप विक्रमादित्य ने जगदेव को चालुक्य दरबार में बुलवा लिया और नरवर्मा को मालवा का शासक बना दिया। जगदेव के जयनाद अभिलेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे आंध्रप्रदेश में जनपदीय क्षेत्र का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार विक्रमादित्य षष्ठ ने नर्मदा के दक्षिण स्थित समस्त भू-भाग पर अधिकार कर लिया था।

विक्रमादित्य और वेंगी

पश्चिमी चालुक्यों के लिए वेंगी सदैव प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा। विजयादित्य की मृत्यु के कई वर्षों बाद तक कुलोत्तुंग के पुत्रों ने वेंगी पर उपराजाओं के रूप में शासन किया। 1092-93 ई. में विक्रमचोल ने वेंगी की गद्दी सँभाली। इसके बाद कोलनु (कोलोर झील) के सामंत की सहायता से दक्षिण कलिंग का शासक, जो वेंगी के अधीन था, ने विद्रोह कर दिया। यद्यपि विक्रमचोल इस विद्रोह को कुचलने में सफल रहा, तथापि उसके राज्य में अशांति फैल गई। संभवतः इस अशांति के पीछे विक्रमादित्य का ही हाथ था, किंतु इन दोनों के बीच किसी युद्ध की सूचना नहीं है।

1118 ई. में कुलोत्तुंग ने वेंगी से अपने शासक विक्रमचोल को वापस बुला लिया, जिसके कारण वेंगी में अराजकता फैल गई। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए 1118 ई. में विक्रमादित्य षष्ठ ने अपनी सैनिक शक्ति का प्रयोग कर वेंगी को अधिकृत कर लिया और अपने सेनापति अनंतपाल को वहाँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया। पता चलता है कि विक्रमादित्य षष्ठ के अधीनस्थ होयसल इरेयंग ने चोल शासक को पत्तों के वस्त्र पहनने के लिए बाध्य कर दिया था (चोलिकर-अण्णलेयम् तलिरनुडिसि)। इस युद्ध में उच्छंगि का पांड्य शासक भी विक्रमादित्य की ओर से कुलोत्तुंग प्रथम के विरूद्ध लड़ा था और विक्रमादित्य ने उसे (पांड्य राजा को) राजिगचोलमनोभंग की उपाधि दी थी। वेंगी पर विक्रमादित्य के अधिकार की पुष्टि द्राक्षाराम तथा अन्य तेलुगु प्रदेशों से मिले चालुक्य संवत की तिथि वाले लेखों से भी होती है। साक्ष्यों से पता चलता है कि 1127 ई. में कोंडपल्लि में अनंतपाल का भतीजा गोविंद दंडनायक शासन कर रहा था।

विक्रमादित्य और होयसल

विक्रमादित्य को होयसलों के संकट का सामना करना पङा। विक्रमादित्य के समकालीन होयसल वंश के शासक विनयादित्य, उसका पुत्र एरेयंग तथा एरियंग के पुत्र बल्लाल प्रथम और विष्णुवर्धन थे। विनयादित्य तथा उसके पुत्र एरेयंग ने चोलों के विरुद्ध युद्ध में विक्रमादित्य की सहयता की थी। यद्यपि होयसल धीरे-धीरे अपनी शक्ति का विस्तार कर रहे थे और बल्लाल प्रथम के समय तक उनका राज्य काफी बढ गया था, किंतु अब भी होयसल चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करते थे। बल्लाल की त्रिभुवनमल्ल’ उपाधि से पता चलता है कि वह विक्रमादित्य का सामंत था। 1101 ई. के बाद के होयसल अभिलेखों से भी पता चलता है कि द्वारसमुद्र के होयसल विक्रमादित्य षष्ठ के सामंत थे।

किंतु लगता है कि बल्लाल प्रथम के छोटे भाई बिट्टिग (विष्णुवर्धन) ने अपनी वर्धमान शक्ति से प्रोत्साहित होकर चालुक्यों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और 1116 ई. में पांड्यों तथा कदंबों का सहयोग से उत्तर में कृष्णा नदी तक के चालुक्य प्रांत पर अपना अधिकार कर लिया। विष्णुवर्धन के अभिलेखों में दावा किया गया है कि उसने बेलवोला, हानुंगल, बनवासी तथा नोलम्बवाड़ी पर विजयें प्राप्त की थीं और उसके घोड़ों ने कृष्णा नदी में स्नान किया था।

विक्रमादित्य ने विष्णुवर्धन का सामना करने के लिए अपने सेनापति जगद्देव (जो मालव नरेश उदयादित्य का पुत्र था) के नेतृत्व में एक सेना भेजी। 1118 ई. के श्रवणवेलगोला से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने विक्रमादित्य की सेनाओं पर, जिसका नेतृत्व बारह सामंत कर रहे थे, कण्णेगल में रात्रि के समय जोरदार आक्रमण कर पराजित कर दिया। इस प्रकार प्रारंभ में होयसलों को चालुक्यों के विरूद्ध सफलता मिली, जिससे उनका उत्साह और बढ गया।

किंतु होयसलों की यह सफलता क्षणिक सिद्ध हुई। विक्रमादित्य षष्ठ ने मालवा के परमार जगदेव तथा सिंदशासक आचुगि द्वितीय जैसे सामंत शासकों की सहायता से होयसल विष्णुवर्धन को परास्त कर अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। इसके बाद उसने विष्णुवर्धन के सहायकों को भी दंडित किया। सिंद लेखों के अनुसार सम्राट विक्रम (विक्रमादित्य षष्ठ) के आदेश से रणसिंह आचुगि द्वितीय ने होयसलों को पीछे खदेड़कर गोवा पर अधिकार कर लिया, लक्ष्मण को युद्ध में मार डाला, पांड्यों का वीरता के साथ पीछा किया, मेलपों को तितर-बितर कर दिया और कोंकण को घेर लिया। आचुगि के पुत्र पेरमादिदेव के विषय में भी कहा गया है कि उसने पृथ्वी के सबसे भयंकर होयसल राजा विष्णुवर्धन को पराजित कर भगा दिया और (उसकी राजधानी) द्वारसमुद्र को घेर लिया था। 1122 ई. में हसलूर नामक स्थान पर भी चालुक्य-होयसल सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें गंगनरेश चालुक्यों की ओर से लङता हुआ मारा गया।

इसी प्रकार होसवीडु नामक स्थान पर हुए एक अन्य युद्ध में भी होयसलों के विरूद्ध चालुक्यों को विजय मिली। 1122-23 ई. में विक्रमादित्य बनवासी के जयंतीपुर नामक स्थान पर ठहरा था। इस प्रकार विष्णुवर्धन की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया तथा विक्रमादित्य के जीवनकाल तक वह उसकी अधीनता में रहने को विवश हुआ। होयसलों के ऊपर अपनी विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य ने ‘विष्णुवर्धन’ की उपाधि धारण की।

शिलाहारों के विरूद्ध अभियान

सतारा में करहाटक या करहाट में 10वीं शताब्दी ई. से ही शिलाहारों की एक शाखा शासन कर रही थी। जयसिंह द्वितीय ने शिलाहारों को चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया था। विक्रमादित्य षष्ठ ने शिलाहार नरेश मारसिंह की पुत्री चंद्रलेखा से विवाह किया था। मारसिंह के पाँच पुत्र थे-गुवल द्वितीय, गंगदेव, बल्लाल, भोज और गंडरादित्य।

भोज ने 1086 ई. में शासन ग्रहण किया और चालुक्य सत्ता के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। विक्रमादित्य षष्ठ ने 1100 ई. के आसपास विद्रोही शासक भोज पर आक्रमण करने के लिए भीमरथी नदी के तट पर स्थित उप्पयनदकुप्प नामक स्थान पर अपना सैनिक शिविर लगाया। परंतु इसमें उसे पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी क्योंकि 1108 ई. में भोज एक शक्तिशाली शासक के रूप में शासन कर रहा था।

यादव एवं काकतीय

नासिक के यादव और अनुमकोंड के काकतीय भी विक्रमादित्य के अधीन थे। यादवों का राज्य अहमद नगर से नर्मदा तक के प्रदेश में फैला हुआ था। हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिंतामणि के व्रतखंड के अनुसार यादव सेउणचंद्र ने विक्रमादित्य षष्ठ की उसके शत्रुओं से रक्षा की थी और उसके पुत्र एरमदेव ने विक्रमादित्य षष्ठ की अधीनता में अनेक युद्धों में भाग लिया था। 1100 ई. के एक अभिलेख में भी पता चलता है कि सेउणचंद्र का पुत्र इरमदेव चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार करता था।

किंतु ऐसा लगता है कि बाद में यादवों ने विक्रमादित्य षष्ठ के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। विक्रमादित्य ने न केवल यादवों के विद्रोह का दमन किया, बल्कि इरमदेव को पराजित कर सामंत रहने के लिए बाध्य किया।

काकतीय शासक प्रोल के अनुमकोंड लेख (1117 ई.) से ज्ञात होता है कि उसके पिता बेट ने विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इससे स्पष्ट है कि बेट उसकी अधीनता पहले ही स्वीकर कर रहा था। संभवतः बेट ने चोलों के प्रभाव में आकर चालुक्यों का विरोध किया था, लेकिन चोल कुलोत्तुंग की मृत्यु के बाद उसने विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार कर ली।

कोंकण की विजय

विक्रमादित्य षष्ठ ने कोंकण की भी विजय की थी। 1078 ई. के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि सप्तकोंकण क्षेत्र विक्रमादित्य षष्ठ के लिए वलय (कंकण) बन गये थे। किंतु 1113 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि पांड्य सामंत कामदेव विक्रमादित्य षष्ठ के सामंत के रूप में कोंकण राष्ट्र पर शासन कर रहा था।

अन्य उपलब्धियाँ

बिलहण ने अपने आश्रयदाता विक्रमादित्य षष्ठ को चक्रवर्ती सम्राट के रूप में चित्रित किया है। कहा गया है कि सिंहासनारोहण के बाद विक्रमादित्य ने करहाट की राजकुमारी चंद्रलेखा के अप्रतिम सांदर्य को सुनकर उसके स्वयंवर में उपस्थित हुआ, जहाँ राजकुमारी ने अयोध्या, चेदि कान्यकुबज, कालिंजर, ग्वालियर, मालवा, गर्जुर, पांड्य चोल आदि राजाओं की उपस्थिति में उसका वरण किया।

इसके बाद चालुक्य नरेश पश्चिमी तट पर पहुँचा और उसकी हस्तिसेना ने मलय पर्वत के चंदन वन को विजित किया, चोल नरेश को पराजित किया, परमार शासक को अपने अधीन किया, पूर्वी पर्वत की सुंदरियों ने इसके गौड़ एवं कामरूप विजय का यशोगान किया तथा केरल, काँची, वेंगी एवं चक्रकूट के शासकों को पराजित किया। 1077 ई. के बाद के विक्रमादित्य के कई अभिलेखों में भी उसे गुर्जर, आभीर, कश्मीर, नेपाल, सिंध, बर्बर, तुरुष्क, दहाल, मरु, वंग, विदर्भ, कोंकण तथा नल्लूर का विजेता कहा गया है। यद्यपि इन अतिशयोक्तिपूर्ण विवरणों को पूरी तरह स्वीकार करना कठिन है, फिर भी संभव है कि इनमें से कुछ राज्यों पर विक्रमादित्य ने विजय प्राप्त की थी।

याज्ञवल्क्यस्मृति की टीका में विज्ञानेश्वर ने पारंपरिक प्रशंसात्मक शैली में लिखा है कि विक्रमादित्य षष्ठ हिमालय से लेकर रामेश्वरम् तक और बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक विस्तृत संपूर्ण देश का चक्रवर्ती सम्राट था। परंतु उसके साम्राज्य की वास्तविक सीमाएँ उत्तर में नर्मदा नदी और दक्षिण में वर्तमान हसन तथा कुडप्पा जिले तक ही सीमित थीं।

विक्रमादित्य की अनेक रानियाँ थीं- चंद्रलेखा (चंदलादेवी), लक्ष्मीदेवी, केतलादेवी, अव्वलदेवी, मल्लिनीदेवी, चंदनदेवी, जक्कलदेवी, पट्टमहादेवी, मैललमहादेवी, भागलदेवी, सावलदेवी, पद्मलदेवी तथा यलवट्टि आदि। विक्रमांकदेवचरित के अनुसार विक्रमादित्य ने शिलाहार राजकुमारी चंद्रलेखा के साथ स्वयंवर-विवाह किया था। लक्ष्मीदेवी को पियरसि (प्रियरानी) और चंदलादेवी को पियरसि के अतिरक्त अग्रमहामहिषी कहा गया है। उसकी कुछ रानियाँ प्रशासन कार्य से सक्रिय रूप से संबद्ध थीं। चंदनदेवी ने शिक्षा के विकास के लिए प्रचुर दान दिया था। सांवलदेवी, जो महामंडलेश्वर जागमरस की पुत्री थी, 1077-78 ई. में नरेयंगल अग्रहार की प्रशासिका थी। लक्ष्मीमहादेवी पाँचवें वर्ष में द्रोणपुर में और 1109-10 ई. में निट्टसिंगि नामक ग्राम में शासन कर रही थीं। मलयमतिदेवी 1094-95 ई. में किरियकरेयूर के अग्रहार का प्रशासन देख रही थी। केतलादेवी बेल्लारी जिले में, लक्ष्मीमहादेवी द्रोणपुर (धारवाड़ जिले में), जक्कलदेवी 1093-94 ई. इंगुड़िगे ग्राम में तथा मैललमहादेवी 1095 ई. में कण्णवल्ले में शासन कर रही थीं।

विक्रमादित्य षष्ठ के चार पुत्रों- मल्लिकार्जुन, जयकर्ण, सोमेश्वर (तृतीय) तथा तैलप और एक पुत्री मैललदेवी के बारे में सूचना मिलती है। मल्लिकार्जुन लक्ष्मीदेवी का पुत्र था, जबकि जयकर्ण, सोमेश्वर (तृतीय) तथा तैलप चंदलदेवी से उत्पन्न हुए थे। विक्रादित्य के बाद सोमेश्वर (तृतीय) ही उसका उत्तराधिकारी हुआ था।

विक्रमादित्य षष्ठ की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

विक्रमादित्य षष्ठ की महानता का कारण उसकी सैनिक शक्ति, विजयें अथवा सैनिक उपलब्धियाँ नहीं थी। उसकी महानता का मूल कारण थीं- उसकी शांतिकालीन उपलब्धियाँ। विक्रमादित्य षष्ठ ने चालुक्य साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ एक कुशल प्रशासन की स्थापना की, कला, साहित्य एवं विद्या के विकास को प्रोत्साहन दिया, विभिन्न देशों के विद्वानों और ब्राह्मणों को चालुक्य साम्राज्य में आमंत्रित कर उन्हें अग्रहार दान दिया और भारतीय संस्कृति के उन्नयन का प्रयास किया। विक्रमादित्य पष्ठ ने अपने नाम पर विक्रमपुर नगर की स्थापना की थी, जिसकी पहचान बीजापुर जिले के अरसिबीडि नामक स्थान से की जाती है। उसने विष्णु के एक मंदिर (विष्णुकमलविलासि) तथा एक विशाल झील का भी निर्माण करवाया था।

विक्रमादित्य षष्ठ विद्वानों का उत्साही संरक्षक भी था। उसने कश्मीरी कवि बिल्हण को अपना विद्यापति (प्रमुख राजपंडित) नियुक्त किया, जिसने 1085 ई. के आस-पास विक्रमांकदेवचरित नामक काव्य की रचना की थी, जिसका नायक स्वयं विक्रमादित्य षष्ठ ही था। याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिताक्षरा नामक टीका लिखने वाला विज्ञानेश्वर उसका मंत्री था। मिताक्षरा में विज्ञानेश्वर ने लिखा है : ‘कल्याण जैसा भव्य नगर, विक्रमादित्य जैसा महान सम्राट और विज्ञानेश्वर के समान प्रकांड विद्वान न तो कभी हुए और न ही भविष्य में होंगे।‘ कल्याणी के इस महान शासक के लगभग 51 वर्ष तक राज्य किया। उसकी अंतिम ज्ञात तिथि 1126 ई. है।

सोमेश्वर तृतीय (1126-1138 ई.)

विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर तृतीय 1126 ई. में कल्याणी का राजा हुआ। उसने भूलोकमल्ल तथा सर्वज्ञचक्रवर्ती की उपाधियाँ धारण कीं। सोमेश्वर तृतीय ने भी भूलोकमल्लवर्ष नामक नवीन संवत का प्रवर्तन किया, परंतु उसके कुछ अभिलेखों में विक्रम संवत का भी प्रयोग मिलता है।

सोमेश्वर के समय में पश्चिमी चालुक्यों की शक्ति का हृास होने लगा था। द्राक्षाराम से प्राप्त एक बिना तिथि के एक लेख के अनुसार गोदावरी तट पर वेलेंचाटि चोड गोंक द्वितीय ने एक युद्ध में पश्चिमी चालुक्यों की सेना को भगा दिया था। यह युद्ध लगभग 1135 ई. में हुआ था। इस युद्ध में सोमेश्वर स्वयं उपस्थित था।

सोमेश्वर तृतीय का होयसल शासक विष्णुवर्धन से भी संघर्ष हुआ था। लगता है कि होयसल नरेश विष्णुवर्धन कुछ समय तक सोमेश्वर की अधीनता मानता रहा क्योंकि 1137 ई. के सिंदिगेरे के एक लेख में विष्णुवर्धन को चालुक्यमणिमांडलिकचूडा़मणि कहा गया है। किंतु सोमेश्वर के 13वें वर्ष (1139 ई.) के एक लेख से ज्ञात होता है कि महामंडलेश्वर होयसलदेव ने गंगवाडि, नोलंबवाडि तथा बनवासी को छीन लिया, उच्छंगि के दुर्ग पर प्रहार किया और कदंब शासक पांनुगल (हानुंगल) को घेर लिया। किंतु बाद में सोमेश्वर ने उसे पराजित कर उसके विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया।

कर्नाटक के शिमोगा जिले के बेलगाँव लेख से ज्ञात होता है कि अपने शासन के तीसरे वर्ष (1129 ई.) सोमेश्वर ने दिग्विजय के लिए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया था और हुल्लुरि तीर्थ में अपना सैनिक शिविर लगाया था। किंतु लगता है कि इस दिग्विजय का उद्देश्य शौर्य प्रदर्शन मात्र था।

सोमेश्वर तृतीय को आंध्र, द्रामिल, मगध तथा नेपाल का विजेता कहा गया है। परंतु 1134 ई. से कुछ पहले चोल कुलोत्तुंग द्वितीय ने आंध्र राज्य पर अधिकार कर लिया। वस्तुतः आंध्र में चालुक्यों की शक्ति सोमेश्वर तृतीय के शासनकाल के समय में ही कमजोर हो गई थी और विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद वेंगी राज्य के दक्षिणी क्षेत्रों पर चोलों ने अधिकार कर लिया था। सोमेश्वर द्वारा मगध और नेपाल की विजय का विवरण अप्रामाणिक लगता है।

सोमेश्वर धार्मिक कृत्यों एवं साहित्य में विशेष रूचि लेता था। उसके दूसरे वर्ष के लेख से ज्ञात होता है कि वह बीजापुर जिले में कर्णलेवाद या कडलेवड (दक्षिण वाराणसी) के स्वयंभू सोमनाथदेव के मंदिर में दर्शन के लिए गया था। वहाँ उसने 16 महादान संपन्न किया और मंदिर को प्रभूत दान दिया। उसकी साहित्यिक अभिरूचि और विद्वता का ज्वलंत प्रमाण मानसोल्लास (अभिलाषितार्थचिंतामणि) नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसकी रचना उसने स्वयं की थी। कहा जाता है कि उसने विक्रमादित्य षष्ठ की प्रशंसा में विक्रमांकाभ्युदय नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की थी।

सोमेश्वर तृतीय की दो रानियों के संबंध में सूचना मिलती है- वर्मलदेवी (बम्मलदेवी) और राजलदेवी। वर्मलदेवी का उल्लेख 1134 ई. के एक अभिलेख में मिलता है, जबकि राजलदेवी ने माविकेश्वरदेव के लिए दान किया था। सोमेश्वर के दो पुत्र थे- जगदेकमल्ल द्वितीय और तैलप तृतीय। दोनों अपने पितामह विक्रमादित्य षष्ठ के समय से ही प्रशासन की जिम्मेदारी का वहन कर रहे थे। सोमेश्वर तृतीय की अंतिम ज्ञात तिथि 1138 ई. है।

जगदेकमल्ल द्वितीय (1138-1151 ई.)

सोमेश्वर तृतीय के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय 1138 ई. में गद्दी पर बैठा। अंदूर लेख के अनुसार अपने शासन-ग्रहण के प्रथम वर्ष 1138 ई. में ही जगदेकमल्ल ने महाभैरव मैलारदेव का दर्शन किया और नरनरेश्वर मंदिर के कलश का निर्माण करवाया। अपने दो पूर्ववर्ती शासकों की भाँति उसने भी अपने राज्यारोहण के समय एक नवीन संवत का प्रवर्तन किया था। लेखों में जगदेकमल्ल द्वितीय के लिए त्रिभुवनमल्ल, त्रिभुवनमल्ल पेरिमाडिदेव तथा प्रतापचक्रवर्ती आदि नामों का प्रयोग किया गया है। उसका सबसे प्राचीन उल्लेख चित्तलदुर्ग के 1124 ई. के एक अभिलेख में मिलता है, जब वह अपने पितामह विक्रमादित्य षष्ठ के अधीन शासन कर रहा था।

सोमेश्वर तृतीय के काल में ही होयसल शासक विष्णुवर्धन ने अपना शक्ति-विस्तार प्रारंभ कर दिया था। वह 1149 ई. में बंकापुर को केंद्र मानकर गंगवाड़ी, बनवासी, हंगल और कृष्णा नदी तक हुलगिरे पर शासन कर रहा था। इससे लगता है कि इस समय चालुक्य साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया था, यद्यपि जगदेकमल्ल के समय तक चालुक्य साम्राज्य अक्षुण्ण बना रहा और होयसल उसकी अधीनता मानते रहे।

1143 ई. के चित्तलदुर्ग के अनुसार जगदेकमल्ल द्वितीय को चोलों तथा होयसलों के विरुद्ध सफलता मिली थी। 1147 ई. के मुचुगे अभिलेख के अनुसार उसके आदेश से बर्म दंडाधिप ने होयसल शासक पर भयंकर आक्रमण किया था और कलिंग तथा चोल राज्यों के शासकों से कर वसूल किया था। जगदेकमल्ल को चोल, लाट तथा गुर्जर राज्यों के शासकों को खदेड़ने वाला और चालुक्य वंश का प्रतिस्थापक भी कहा गया है। पेरमाडिदेव के एक अभिलेख में कहा गया है कि उसने जगदेकमल्ल के राज्यकाल में कुलशेखनांक को पराजित किया, चट्ट का सिर काट दिया, जयकेशिन का पीछा किया और विष्णुवर्धन को बेलुपुर तक खदेड़कर उस नगर को अधिकृत कर लिया। इस प्रकार स्पष्ट है कि होयसलों ने चालुक्यों से स्वतंत्र होने का पूरा प्रयास किया था, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल सकी और वे चालुक्यों के अधीन बने रहे।

1143 ई. के लगभग जगदेकमल्ल ने होयसल नरसिंह के साथ मालवा पर आक्रमण किया; परमार शासक जयवर्मा को अपदस्थ कर उसके स्थान पर बल्लाल को प्रतिष्ठित कर दिया। संभवतः इसी अभियान के दौरान उसने लाट को भी लूटा और गुर्जर शासक कुमारपाल को पराजित किया होगा।

दक्षिण में जगदेकमल्ल ने चोल शासक कुलात्तुंग द्वितीय तथा कलिंग के अनंतवर्मा चोडगंग को पराजित किया तथा नोलंब पल्लव के विद्रोह का भी दमन किया। होयसलों की भाँति कलचुरि तथा काकतीय भी जगदेकमल्ल का नाममात्र का आधिपत्य मानते रहे।

जगदेकमल्ल द्वितीय के कई सामंतों एवं अधिकारियों की सूचना मिलती है। नोलुंबवाड़ी के पांड्य, बनवासी का रेचरस, अनंतपुर का शासक इरुंगुलचोल (इरुंगोलरस), सांतरवंशीय जगदेव, सिंदराचमल्ल तथा पेरमाडिदेवरस और गंग मारसिंह का पुत्र एक्कल आदि सोमेश्वर तृतीय के सामंत थे। जगदेकमल्ल की अंतिम ज्ञात तिथि 1151 ई. है।

तैलप तृतीय (1151-1162 ई.)

जगदेकमल्ल द्वितीय के पश्चात् उसका छोटा भाई तैलप तृतीय कल्याणी के चालुक्य राजसिंहासन पर बैठा। तैलप तृतीय की प्रथम ज्ञात तिथि 1151 ई. (कुलूर लेख) है, इसलिए उसके राज्यारोहण की भी यही तिथि होगी। बीजापुर से प्राप्त 1151 ई. के एक लेख को इसके शासन के तीसरे वर्ष का बताया जाता है, इसलिए कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने 1149-50 ई. में अपने शासन का आरंभ किया था। तैलप तृतीय के लिए  लेखों में त्रिभुवनमल्ल, त्रैलोक्यमल्ल, त्रिभुसवनमलल, वीरगंगि, रक्कसगंग, तथा चालुक्य चक्रवर्ती-विक्रम आदि नामों एवं उपाधियों का प्रयोग किया गया है।

यद्यपि तैलप तृतीय ने आरंभ में चालुक्य कुमारपाल तथा चोल कुलोत्तुंग के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया, किंतु उसके राज्यकाल में काकतीयों, होयसलों तथा यादवों के आंतरिक विद्रोहों से चालुक्य साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तीव्र हो गई।

अम्मकोंड के एक अभिलेख के अनुसार काकतीय शासक प्रोल प्रथम ने हाथी पर सवार तैलप को बंदी बना लिया। लेकिन बाद में काकतीय प्रोल ने तैलप को मुक्त कर दिया। इसके बाद अपमानित तैलप तृतीय कल्याणी छोड़कर अण्णिगेरे (धारवाड़ जिले में) चला गया और उसे राजधानी बनाकर कुछ समय तक शासन करता रहा। लेखों से शिमोगा, कुडप्पा तथा कर्नूल जिलों पर इसका प्रभुत्व प्रमाणित होता है। 1163 ई. अतिसार से तैलप की मृत्यु हो गई।

कलचुरियों का कल्याणी पर प्रभुत्व

तैलप तृतीय की दुर्बलता और काकतीयों की सफलता से प्रेरित होकर होयसल और कलचुरि कल्याणी पर अधिकार करने का षड्यंत्र करने लगे। अभिलेखों से पता चलता है कि तर्दवाड़ी का कलचुरि शासक बिज्जल तैलप तृतीय का महामंडलेश्वर था। किंतु 1157 ई. के अंतिम लेखों में बिज्जल की उपाधि महाराजाधिराज भुजबलचक्रवर्ती मिलती है। वास्तव में, काकतीय प्रोल प्रथम के विद्रोह से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर बिज्जल अपनी शक्ति बढ़ाता गया और महामंडलेश्वर के स्थान पर उसने दंडनायक, महाप्रधान, भुवनैकवीर, महाराजाधिराज, भुजबलचक्रवर्ती तथा कलचुर्यकुलकमलमार्तण्ड जैसी उपाधियाँ धारण की।

यद्यपि 1161 ई. तक बिज्जल तैलप तृतीय की अधीनता का ढ़ोंग करता रहा, लेकिन 1162 ई. के आस-पास उसने स्वयं को कल्याण का शासक घोषित कर दिया और स्वतंत्र कलचुरि साम्राज्य की स्थापना की। इस उपलक्ष्य में उसने एक नये संवत का प्रवर्तन किया और त्रिभुवनमल्ल की उपाधि धारण की।

यद्यपि बिज्जल ने संपूर्ण चालुक्य साम्राज्य पर अधिकार करने का दावा किया है, किंतु चालुक्य राज्य के दक्षिणी प्रदेश कभी उसके अधीन नहीं रहे। बिज्जल के सोमेश्वर, संकम, आहवमल्ल तथा सिंहल नामक चार पुत्र और सिरियदेवी नामक एक पुत्री थी।

संभवतः 1168 ई. में बिज्जल ने अपने पुत्र सोमेश्वर के पक्ष के पक्ष में सिंहासन का त्याग कर दिया। कलचुरि सोमेश्वर की अंतिम ज्ञात तिथि 1177 ई. मिलती  है। इसके बाद उसके छोटे भाई संकम द्वितीय ने शासन ग्रहण किया। किंतु चालुक्य सोमेश्वर चतुर्थ ने 1181 ई. के आसपास कल्याणी पर पुनः अधिकार कर लिया और संकम के उत्तराधिकारी आहवमल्ल को 1181 से 1183 ई. तक बनवासी और बेलवोला प्रदेशों से ही संतुष्ट रहना पड़़ा। 1183 ई. में बिज्जल के छोटे पुत्र सिंहण (सिंहभूपाल) ने उत्तराधिकार प्राप्त किया, किंतु 1183-84 ई. में सोमेश्वर चतुर्थ ने बनवासी एवं बेलवोला के क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। 1184 ई. के बाद कल्याणी में कलचुरियों के शासन का कोई प्रमाण नहीं मिलता।

यद्यपि कलचुरियों ने कल्याणी पर मात्र 26 वर्ष तक ही शासन किया, किंतु इस दौरान उन्होंने जो राजनैतिक अस्थिरता उत्पन्न की, उससे न केवल चालुक्यों का उत्थान बाधित हुआ, बल्कि होयसलों एवं यादवों के अभ्युदय की प्रक्रिया भी तीव्र हो गई।

सोमेश्वर चतुर्थ (1162-1298 ई.)

चालुक्य राज्य पर कलचुरियों की अधिसत्ता स्थापित हो जाने से वहाँ राजनैतिक अव्यवस्था व्याप्त हो गई। संभवतः तैलप ने 1162 ई. में ही अपने पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। लेखों से पता चलता है कि सोमेश्वर चतुर्थ ने 1182 ई. के पहले अपने सेनापति ब्रह्म के सक्रिय सहयोग से अपनी राजधानी कल्याण को कलचुरियों से मुक्त कराने का प्रयास आरंभ किया। अंततः 1184 ई. में सोमेश्वर चतुर्थ ने कलचुरि आहवमल्ल को पराजित कर बनवासी एवं बेलवोला सहित अपने पैतृक राज्य के अधिकांश प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया। 1184 ई. के एक अभिलेख में सोमेश्वर को चालुक्याभरण श्रीमत त्रैलोक्यमल्ल भुजबलवीर तथा 1185 ई. के एक अभिलेख में कलचूर्यकुलनिर्मूलना कहा गया है। इस प्रकार सोमेश्वर चतुर्थ को अपने वंश की प्रतिष्ठा का उद्धारक बताया गया है।

1184 ई. के एक लेख में सोमेश्वर को चोल, लाट, मलेयाल, तेलिंग, कलिंग, वंग, पांचाल, तुरूष्क, गुर्जर, मालवा तथा कोंकण राज्यों की विजय का श्रेय दिया गया है, जो निश्चित रूप से अतिरंजित है। सोमेश्वर के अभिलेख कर्नाटक राज्य के शिमोगा, बेल्लारी, बीजापुर तथा चित्तलदुर्ग जिलों पर उसके अधिकार को प्रमाणित करते हैं। बनवासी तथा हानुंगल का शासक होयसल बल्लाल द्वितीय, नोलंबवाड़ी का विजय पांड्य और सिंद मल्लदेव उसके  सामंत थे। उसने त्रिभुवनमल्ल, वीरनारायण तथा रायमुरारि की उपाधि धारण किया था।

कल्याणी के चालुक्य वंश का पतन

सोमेश्वर चतुर्थ के काल में राजनीतिक स्थिति एकदम बदल चुकी थी। उसके अनेक सामंत कल्याणी को अधिकृत करने के लिए प्रयत्नशील थे। उनमें देवगिरि के यादव तथा द्वारसमुद्र के होयसल सर्वाधिक घातक साबित हुए। 1188 ई. में देवगिरि के यादव भिल्लम पंचम ने कल्याणी पर अधिकार कर लिया। 1189 ई. के एक अभिलेख में यादव भिल्लम को कर्नाटश्रीवल्लभ (कर्नाटक की राजलक्ष्मी का प्रिय) कहा गया है। यादवों से भयभीत होकर सोमेश्वर ने अपने कदंब सामंत जयकेशिन तृतीय के बनवासी (जयंतीपुर) में शरण ली। 1192 ई. के आसपास चालुक्य साम्राज्य मुख्यतः होयसलों एवं यादवों के मध्य विभाजित हो गया, किंतु जयकेशिन कम से कम 1198 ई. तक सोमेश्वर चतुर्थ का आधिपत्य मानता रहा। सोमेश्वर का अंतिम ज्ञात अभिलेख 1200 ई. का है, जो चित्तलदुर्ग जिले से प्राप्त हुआ है। इस तिथि के बाद सोमेश्वर चतुर्थ या कल्याणी के चालुक्य राजवंश के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती है। इस प्रकार काकतीयों, यादवों और होयसलों की बढ़ती हुई शक्ति के परिणामस्वरूप कल्याणी के चालुक्य वंश का पतन हो गया।

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