उत्तरगुप्त राजवंश (कृष्णगुप्त राजवंश) ( Post-Gupta Dynasty, Krishnagupta Dynasty)

उत्तरगुप्त राजवंश (कृष्णगुप्त राजवंश) (Post-Gupta Dynasty, Krishnagupta Dynasty)

उत्तरगुप्त राजवंश

सम्राट गुप्तवंश के अवनति काल में उनके अधीन उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन करनेवाले अनेक स्थानीय राजवंश गुप्तों का स्थान लेने के लिए अपनी शक्ति के संवर्धन में लग गये। कुछ सामंत राजवंश मगध और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का स्वप्न देखने लगे। ऐसे सामंतों में मगध एवं मालवा का उत्तर-गुप्त वंश भी था।

ऐतिहासिक स्रोत

छठीं शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में उत्तर भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभानेवाले उत्तर-गुप्त वंश के शासकों के अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनके आधार पर उनके इतिहास का निर्माण किया जा सकता है।

अफसढ़ अभिलेख

उत्तर-गुप्त राजवंश के इतिहास को प्रकाशित करनेवाले अभिलेखों में आदित्यसेन का अफसढ़ अभिलेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह लेख बिहार के गया जिले में स्थित अफसढ़ नामक स्थान से मिला है। इसमें इस वंश के प्रथम शासक कृष्णगुप्त से लेकर आदित्यसेन के काल तक के आठ शासकों के राज्यकाल की ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन मिलता है, जैसे- कृष्णगुप्त, हर्षगुप्त, जीवितगुप्त प्रथम, कुमारगुप्त, दामोदरगुप्त, महासेनगुप्त, माधवगुप्त तथा आदित्यसेन। इस प्रकार इस लेख से आदित्यसेन तक उत्तर-गुप्त शासकों की वंशावली का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही इससे उत्तरगुप्त-मौखरि संबंध पर भी प्रकाश पड़ता है।

शाहपुर और मंदर का अभिलेख

आदित्यसेन के काल का एक लेख पटना जिले के शाहपुर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इस लेख की तिथि हर्ष संवत् 66 (672 ई.) है। इस लेख से परवर्ती गुप्तोें के तिथि-निर्धारण में सहायता मिलती है। बिहार प्रांत के ही भागलपुर जिले के मंदर से भी आदित्यसेन का एक लेख मिला है। इस लेख से पता चलता है कि उसकी महादेवी कोणदेवी ने प्रजा के कल्याण के लिए एक तालाब का निर्माण करवाया था।

मँगराव अभिलेख

यह लेख इस राजवंश के दसवें शासक विष्णुगुप्त के काल का है जिसमें उसकी उपाधि ‘महाराजाधिराज’ एवं ‘परमेश्वर’ मिलती है। इस लेख का रचयिता देवदत्त नामक व्यक्ति था जिसे सूत्रधार कुलादित्य ने उत्कीर्ण कराया था।

देववर्णार्क अभिलेख

जीवितगुप्त द्वितीय के काल कोयह अभिलेख बिहार प्रांत के शाहाबाद (आरा) जिले के देववर्णार्क नामक स्थान से मिला है। इस अभिलेख को 1880 ई. में प्रकाश में लाने का श्रेय कनिंघम महोदय को है। इस अभिलेख से उत्तर-गुप्त राजवंश के अंतिम तीन शासकों- देवगुप्त, विष्णुगुप्त एवं जीवितगुप्त द्वितीय के काल के इतिहास के संबंध में सूचनाएँ मिलती हैं।

वैद्यनाथ धाम के मंदिर का लेख

आदित्यसेन के समय का यह लेख भागलपुर जिले के मंदर पर्वत के किसी मंदिर से लाया गया था। पहले इस मंदिर में भगवान् नृहरि की प्रतिमा स्थापित की गई थी, किंतु बाद में बलभद्र नामक व्यक्ति ने इस मंदिर में वराह की मूर्ति स्थापित करवा दिया। इस लेख में आदित्यसेन को ‘समुद्रपर्यंत पृथ्वी का शासक’ कहा गया है जिसने अश्वमेध एवं अन्य कई यज्ञों का अनुष्ठान किया था।

इस प्रकार अफसढ़ एवं देववर्णार्क अभिलेखों के संयुक्त अवलोकन से इस वंश के ग्यारह शासकों के अविच्छिन्न इतिहास का ज्ञान हो जाता है। चूँकि कृष्णगुप्त इस वंश का प्रथम तथा जीवितगुप्त द्वितीय अंतिम शासक था, इसलिए इस राजवंश का संपूर्ण इतिहास न्यूनाधिक रूप से ज्ञात है, यद्यपि इस वंश के संबंध में अभी भी अनेक ऐसी सूचनाएँ हैं, जो विवादस्पद बनी हुई हैं।

उत्तर-गुप्त वंश की उत्पत्ति

इस वंश के अधिकांश शासकों के नाम के साथ ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा हुआ है। इस आधार पर कतिपय विद्वानों ने यह संभावना व्यक्त की है कि ये चक्रवर्ती गुप्त राजवंश से संबंधित रहे होंगे। किंतु ऐसी संभावना नहीं लगती क्योंकि यदि वे चक्रवर्ती गुप्तों से संबद्ध होते, तो अपने लेखों में इसका उल्लेख अवश्य करते। पुनः इस वंश के सभी राजाओं के नाम के अंत में ‘गुप्त’ शब्द भी नहीं मिलता, जैसे- आदित्यसेन।

उत्तर-गुप्तवंश के संस्थापक कृष्णगुप्त को अफसढ़ अभिलेख में ‘सद्वंशः’ बताया गया है। इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह किसी उच्चकुल से संबद्ध था। इससे अधिक उत्तर-गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती।

इतिहासकारों ने चक्रवर्ती गुप्तों से पृथक् करने के लिए इस वंश को परवर्ती गुप्तवंश अथवा उत्तर-गुप्तवंश कहकर संबोधित किया है। कुछ इतिहासकारों को इस नामकरण पर भी आपत्ति है। सुधाकर चट्टोपाध्याय के अनुसार इस वंश के संस्थापक कृष्णगुप्त के नाम पर इस वंश को ‘कृष्णगुप्त वंश’ कहा जाना चाहिए, किंतु इस वंश के लिए उत्तर-गुप्त राजवंश अब इतिहासकारों के बीच अधिक स्वीकृत और मान्य है।

वस्तुतः उत्तर-गुप्तवंश, सम्राट गुप्तों के अधीन शासन करनवाला एक सामंत वंश था, क्योंकि इस वंश के प्रथम शासक कृष्णगुप्त को केवल ‘नृप’ उपाधि प्रदान की गई है तथा इसके उत्तराधिकारी हर्षगुप्त के नाम के साथ केवल आदरसूचक ‘श्री’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक आदित्यसेन था।

उत्तर-गुप्त वंश का मूल स्थान

उत्तर-गुप्तों का आदि-स्थान कहाँ था? यह विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस वंश के परवर्ती शासकों आदित्यसेन, विष्णुगुप्त एवं जीवितगुप्त द्वितीय के अभिलेख मगध क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर फ्लीट, राखालदास बनर्जी एवं बी.पी. सिन्हा जैसे इतिहासकारों का विचार है कि इस राजवंश का आदि-स्थान भी मगध ही रहा होगा।

इसके विपरीत डी.सी. गांगुली, आर.के. मुकर्जी, सी.वी. वैद्य, हार्नले एवं रायचौधरी जैसे अनेक विद्वानों का मानना है कि इस वंश के लोग मूलतः मालवा के निवासी थे जो हर्षोत्तर काल में मगध के शासक बने। मालवा को उत्तर-गुप्तों का आदि-स्थान माननेवाले विद्वानों का तर्क है कि हर्षचरित में माधवगुप्त का उल्लेख मालवराज पुत्र (मालवराजपुत्रौ) के रूप में हुआ है, जबकि अफसढ़ अभिलेख में माधवगुप्त को महासेनगुप्त का पुत्र कहा गया है। दोनों स्रोतों में माधवगुप्त को हर्ष का मित्र बताया गया है। हर्षचरित के अनुसार वह हर्ष का बालसखा था, जबकि अफसढ़ अभिलेख के अनुसार वह हर्षदेव के निरंतर साह्चर्य का आकांक्षी था। इन दोनों स्रोतों को एक साथ देखने से हर्षचरित के मालवराज और आदित्यसेन के पितामह महासेनगुप्त की एकरूपता प्रमाणित होती है। उल्लेखनीय है कि जीवितगुप्त द्वितीय के देववर्णार्क अभिलेख के अनुसार मगध पर पहले मौखरि नरेश शर्ववर्मा और अवंतिवर्मा का अधिकार था, जो उत्तर-गुप्तवंश के शासक दामोदरगुप्त और महासेनगुप्त के समकालीन थे।

एक संभावना यह भी है कि मगध का क्षेत्र शर्ववर्मा के पिता ईशानवर्मा के भी अधीन रहा हो, जो उत्तर-गुप्तवंशी शासक कुमारगुप्त का समकालीन था क्योंकि ईशानवर्मा के हरहा अभिलेख में ईशानवर्मा को आंध्रों, शूलिकों तथा गौड़ों का विजेता कहा गया है। गौड़ की विजय मगध क्षेत्र पर अधिकार के बिना संभव नहीं है। इस प्रकार पूर्वी मालवा का क्षेत्र ही उत्तर-गुप्तों का आदि-स्थान मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है।

उत्तर-गुप्त वंश का राजनीतिक इतिहास

रमेशचंद्र मजूमदार के अनुसार मौखरियों एवं उत्तर गुप्तों का इतिहास बहुत कुछ अंशों में समान है। दोनों का इतिहास लगभग एक समय से प्रारंभ होता है। दोनों लगभग 550 ई. तक सम्राट गुप्तों के सामंत थे और उनका अधःपतन होते ही दोनों स्वतंत्र हो गये।

कृष्णगुप्त

असफढ़ अभिलेख के अनुसार उत्तर-गुप्तवंश का प्रथम शासक कृष्णगुप्त (480-500 ई.) था। अभिलेख के अतैथिक होने के कारण कृष्णगुप्त का शासनकाल निश्चित रूप से निर्धारित करना कठिन है, फिर भी, इस संबंध में ईशानवर्मा के 554 ई. के हरहा अभिलेख से कुछ सहायता मिलती है। ईशानवर्मा उत्तर-गुप्तवंशी नरेश कुमारगुप्त का का समकालीन था। उसका शासनकाल स्थूलतः 540 ई. और 560 ई. के बीच निर्धारित किया जा सकता है। चूंकि कुमारगुप्त के पूर्व जीवितगुप्त प्रथम, हर्षगुप्त और कृष्णगुप्त इन तीन शासकों ने राज्य किया और यदि प्रत्येक शासक के लिए औसत बीस वर्ष का शासनकाल निर्धारित किया जाये, तो कृष्णगुप्त का शासनकाल लगभग 480 ई. से 500 ई. के बीच रखा जा सकता है।

अफसढ़ अभिलेख में कृष्णगुप्त को ‘नृप’ उपाधि से विभूषित किया गया है (सदृशः स्थिर उन्नतो गिरिरिव श्रीकृष्णगुप्तो नृपः)। इस समय गुप्त साम्राट बुधगुप्त शासन कर रहा था, जिसका राजनैतिक प्रभाव मालवा क्षेत्र तक निश्चित रूप से व्याप्त था। बुधगुप्त के शासनकाल में ही हूण नरेश तोरमाण ने पश्चिमी भारत पर आक्रमण किया था। तोरमाण के शासन के प्रथमवर्ष का अभिलेख एरण से प्राप्त हुआ है। इससे लगता है कि 490 ई. और 510 ई. के बीच किसी समय तोरमाण ने मालवा क्षेत्र पर अधिकार किया। उसने बुधगुप्त के एरण क्षेत्र पर शासन करनेवाले सामंत मातृविष्णु के अनुज धान्यविष्णु को अपनी ओर से इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया, किंतु मालवा क्षेत्र में हूणों की यह सत्ता निर्विघ्न नहीं रही, क्योंकि एरण से ही प्राप्त 510 ई. के भानुगुप्त के अभिलेख से ज्ञात होता है कि महान् योद्धा भानुगुप्त ने एरण में एक भीषण युद्ध किया, जिसमें उसका मित्र गोपराज वीरगति को प्राप्त हुआ था और उसकी पत्नी अपने पति के शव के साथ सती हो गई थी। संभवतः भानुगुप्त और गोपराज ने यह युद्ध हूण नरेश तोरमाण के विरुद्ध ही किया था।

स्पष्टतः मालवा क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य में तेजी के साथ परिवर्तन हो रहा था, जिससे मध्य भारत के परिव्राजक, उच्चकल्प तथा एरण क्षेत्र के धान्यविष्णु जैसे सामंत कुलों की गुप्त सम्राटों के प्रति स्वामिभक्ति शिथिल और संदिग्ध होती जा रही थी। संभव है कि इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए कृष्णगुप्त ने पूर्वी मालवा में अपना छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया हो। रायचौधरी के अनुसार उसने यशोधर्मन् के विरुद्ध भी युद्ध किया था, किंतु यह संदिग्ध है।

अफसढ़ लेख में कहा गया है कि उसकी सेना में सहस्रों की संख्या में हाथी थे (आसीद्दन्ति सहस्रगाढकटको), वह असंख्य शत्रुओं का विजेता था (असंख्यरिपु प्रतापजयिना) तथा विद्वानों से सदैव वह घिरा रहता था (विद्याधराध्यासितः), किंतु इसे औपचारिक प्रशंसा-मात्र ही समझा जाना चाहिए।

हर्षगुप्त

कृष्णगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हर्षगुप्त (500-520 ई.) हुआ, जो उत्तर-गुप्त वंश का दूसरा शासक था। अफसढ़ अभिलेख के अनुसार ‘वह भयंकर युद्धों का विजेता’ (घेराणामाहवानां लिखितमिव जयं श्लाध्यमाविर्दधानो), ‘कलंकरहित तथा अंधकार को दूर करने वाला था’ (सकलः कलंकरहितः क्षतितिमिरस्तोयधेः)। इस समय गुप्त सम्राट नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य’ हूणों के साथ संघर्ष में उलझा हुआ था।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि नरसिंहगुप्त का शासन मगध क्षेत्र में ही सीमित था, जबकि बंगाल के क्षेत्र में कदाचित् वैन्यगुप्त ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था तथा एरण क्षेत्र में संभवतः भानुगुप्त हूणों के विरुद्ध संघर्षरत था।

हर्षगुप्त सामंत स्थिति का शासक प्रतीत होता है, किंतु यह कहना कठिन है कि वह तत्कालीन गुप्त सम्राट नरसिंहगुप्त अथवा भानुगुप्त के अधीन शासन कर रहा था या उसने हूणों की अधिसत्ता स्वीकार कर ली थी। संभवतः वह मालवा के यशोधर्मन् का भी समकालीन था, किंतु दोनों के पारस्परिक संबंध के विषय में कोई सूचना नहीं है।

हर्षगुप्त की बहन हर्षगुप्ता का विवाह मौखरि वंश के द्वितीय शासक आदित्यवर्मा के साथ हुआ था। इससे स्पष्ट है कि हर्षगुप्त के शासनकाल में उत्तरगुप्त एवं मौखरि राजकुलों के बीच मित्रतापूर्ण संबंध बना हुआ था। वस्तुतः ये दोनों ही राजकुल विकासोन्मुख थे। उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु मैत्री-संबंध को सुदृढ़ करने के लिए परस्पर वैवाहिक संबंध का आश्रय लिया।

जीवितगुप्त प्रथम

हर्षगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जीवितगुप्त प्रथम (520-550 ई.) हुआ, जो उत्तर गुप्तवंश का तीसरा शासक था। अफसढ़ अभिलेख में उसे ‘क्षितीशचूड़ामणि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। लेख के अनुसार ‘वह समुद्र तटवर्ती हरित प्रदेश तथा हिमालय के पार्श्ववर्ती शीतप्रदेश के शत्रुओं के लिए दाहक ज्वर के समान था।’

ऐसा लगता है कि गुप्त-साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण एवं मालवा शासक यशोधर्मन् के दिग्विजय के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में राजनीतिक अराजकता व्याप्त थी। गुप्त सम्राटों का प्रतापी सूर्य अस्त हो रहा था और हिमालय के सीमावर्ती क्षेत्रों सहित उत्तरी बंगाल के क्षेत्रों से गुप्त सत्ता का प्रभाव समाप्त हो रहा था। लगता है कि जीवितगुप्त प्रथम ने समकालीन गुप्त सम्राट, जो संभवतः विष्णुगुप्त था, के सामंत के रूप में हिमालय तथा बंगाल के समुद्रतटवाले विद्रोहों के विरुद्ध अभियान में भाग लिया था। संभावना यह भी है कि इस अभियान में समकालीन मौखरि नरेश ईश्वरवर्मा ने भी उसका सहयोग किया था, क्योंकि जौनपुर शिलालेख में कहा गया है कि ईश्वरवर्मा ने उत्तर की दिशा में हिमालय तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी। इन विजयों के परिणामस्वरूप जीवितगुप्त के शासनकाल में उत्तर-गुप्तों के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि हुई। अफसढ़ अभिलेख में कहा गया है कि ‘उसका पराक्रम पवनपुत्र हनुमान द्वारा समुद्र-लंघन के समान अलौकिक था।

जीवितगुप्त की बहन उपगुप्ता का विवाह मौखरि नरेश ईश्वरवर्मा के साथ हुआ था, जिससे दोनों राजवंशों के बीच मधुर मैत्री-संबंधों की पुष्टि होती है।

कुमारगुप्त

जीवितगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त (550-555 ई.) हुआ। इसके शासन के प्रायः मध्यकाल में अंतिम गुप्त सम्राट विष्णुगुप्त की मृत्यु हुई और सम्राट गुप्तवंश का पूर्णतः अंत हो गया। गुप्तवंश के पतन का लाभ उठाने के लिए उत्तर-गुप्त और मौखरि दोनों ही राजवंश सक्रिय हो उठे, जिसके परिणामस्वरूप इन दोनों राजकुलों का पारस्परिक मैत्री-संबंध टूट गया। अफसढ़ अभिलेख से दोनों कुलों के बीच शत्रुता एवं संघर्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इस लेख के अनुसार कुमारगुप्त एवं उसके समकालीन मौखरि नरेश ईशानवर्मा के बीच भीषण संघर्ष हुआ। गुप्त साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर खड़े होकर मौखरि नरेश ईशानवर्मा ने स्वयं को ‘महाराजाधिराज’ घोषित किया, तो उत्तर-गुप्तों ने भी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करनी चाही। संभवतः इस संघर्ष का उद्देश्य मगध के क्षेत्र पर, जो साम्राज्य-सत्ता का प्रतीक था, अधिकार स्थापित करना था।

कुमारगुप्त एवं ईशानवर्मा के बीच संघर्ष के संबंध में अफसढ़ अभिलेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त ने राजाओं में चंद्रमा के समान शक्तिशाली ईशानवर्मा के सेनारूपी क्षीरसागर का, जो लक्ष्मी की संप्राप्ति का साधन था, मंदराचल पर्वत की भाँति मंथन किया-

भीमः श्रीशानवर्मक्षितिपतिशशिनः सैन्यदुग्धोद्सिंधु।

लक्ष्मी संप्राप्तिहेतुः सपदिविमिथितो मंदरीभूय येन।।

इस श्लोक के अर्थ को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। रायचौधरी का मत है कि इस युद्ध में कुमारगुप्त की विजय हुई तथा ईशानवर्मा पराजित हुआ क्योंकि मौखरियों द्वारा इस युद्ध में विजय का कोई दावा नहीं किया गया है।

चूंकि ईशानवर्मा के 554 ई. के हरहा लेख में इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं है, इससे लगता है कि यह युद्ध 554 ई. के बाद किसी समय हुआ रहा होगा। अफसढ़ अभिलेख में आगे एक श्लोक में यह कहा गया है कि इस युद्ध के बाद कुमारगुप्त ने प्रयाग में अग्नि में प्रवेशकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली। निहाररंजन राय और राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वानों का मत है कि इस युद्ध में कुमारगुप्त पराजित हुआ था और पराजयजनित् ग्लानि के कारण उसने प्रयाग में आत्महत्या कर ली थी।

दामोदरगुप्त

कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र दामोदरगुप्त (555- 582 ई.) हुआ, जो इस वंश का पाँचवाँ शासक था। अफसढ़ लेख के अनुसार उसने अपने शत्रुओं का उसी प्रकार संहार किया, जिस प्रकार नारायण ने दैत्यों का विनाश किया था-

श्रीदामोदरगुप्तोऽभूत्तनयः तस्य भूपतेः।

येन दामोदरेणेय दैत्या इव हता द्विशः।।

अफसढ़ लेख में कहा गया है कि दामोदरगुप्त ने युद्धक्षेत्र में हूणों को पराजित करनेवाली मौखरि नरेश की सेना के गर्वपूर्वक कदम बढ़ाने वाले हाथियों की घटा को विघटित कर दिया था। दामोदरगुप्त युद्धक्षेत्र में मूर्च्छित हो उठा तथा फिर सुरवधुओं के पाणिपंकज के स्पर्श से जाग उठा और उन्होंने पतिरूप में उसका वरण किया था-

यो मौखरेः समितिशूद्धतहूण-सैन्या, वल्गद्घटा-विघटयन्नुरुवारणानाम्।

संमूर्च्छितः सुरवधूर्वरयन्ममेति, तत्पाणि-पंकजसुखस्पर्शाद्विबुद्धः।।

सुर-वधुओं द्वारा वरण के आधार पर फ्लीट जैसे इतिहासकारों का विचार है कि वह युद्धक्षेत्र में मारा गया। किंतु क्षेत्रेशचंद्र चट्टोपाध्याय एवं डी.आर. भंडारकर ने उसकी मूर्च्छा को भ्रांतिमूलक माना है, जिससे लगता है कि युद्धक्षेत्र में दामोदरगुप्त मारा नहीं गया। इसी लेख के बारहवें श्लोक में कहा गया है कि दामोदरगुप्त ने मूर्च्छित एवं तदंतर जागरूक होने पर गुणवती तथा आभूषण एवं यौवन से संपन्न ब्राह्मण-कन्याओं का पाणि-ग्रहण संस्कार संपन्न कराया और सैकड़ों गाँवों को दान में दिया-

गुणवद्विजकन्यानां नानालंकार यौवनवतीनाम्।

परिणायितवान्स नृपः शतं निसृष्टाग्रहाराणाम्।

इतिहासकारों का मानना है कि देवांगनाओं द्वारा दामोदरगुप्त के वरण का स्पष्ट आशय यह है कि वह युद्ध में मारा गया। दामोदरगुप्त का यह मौखरि प्रतिद्वंद्वी शर्ववर्मा था, क्योंकि असीरगढ़ लेख में उसे ‘शर्ववर्मा मौखरिः’ कहा गया है और अफसढ़ लेख में भी दामोदरगुप्त के प्रतिद्वंद्वी को मौखरि (मौखरेः) कहा गया है। इस प्रकार लगता है कि शर्ववर्मा ने दामोदरगुप्त को पराजितकर उसके पिता कुमारगुप्त द्वारा अपने पिता ईशानवर्मा की पराजय का बदला ले लिया।

युद्ध में दामोदरगुप्त की पराजय का समर्थन देववर्णार्क लेख से भी होता है जिसके अनुसार शर्ववर्मा ने वारुणीक नामक ग्राम दान में दिया था। वारुणीक की पहचान देववर्णार्क से की जाती है। शर्ववर्मा द्वारा इसका दान दिया जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मगध उसके साम्राज्य में सम्मिलित था।

महासेनगुप्त

दामोदरगुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महासेनगुप्त (582-595 ई.) हुआ। अफसढ़ लेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह वीरों में अग्रणी था। लेख के अनुसार उसने सुस्थितवर्मा को लोहित्य नदी के तट पर पराजित किया था। यह असम नरेश संभवतः हर्ष के समकालीन भाष्करवर्मा का पूर्वज (पिता) था।

मौखरियों ने दामोदरगुप्त से मगध छीन लिया था। मगध के हाथ से निकल जाने के कारण उत्तर-गुप्तों का राज्य अब केवल मालवा तक ही सीमित था। यही कारण है कि हर्षचरित में दामोदरगुप्त के पुत्र महासेनगुप्त को ‘मालवराज’ कहा गया है। मौखरियों की शक्ति से भयभीत होकर ही महासेनगुप्त ने अपनी बहन महासेनगुप्ता का विवाह पुष्यभूति वंश में किया था। हेमचंद्र रायचौधरी का विचार है कि महासेनगुप्त का राज्य केवल पूर्वी मालवा तक सीमित था। पश्चिम मालवा में (जिसमें उज्जैन पड़ता था) पहले कलुचुरि शासन करते थे और उसके पश्चात् वहाँ मैत्रकों का राज्य स्थापित हुआ।

किंतु इस मत के स्वीकार करना कठिन है, क्योंकि महासेनगुप्त 582 ई. में मगध छिन जाने के बाद मालवा आ गया था और केवल पूर्वी मालवा ही नहीं, वरन् पश्चिमी मालवा पर भी उसने अधिकार कर लिया था जिसमें उज्जैनी नगर स्थित था। कलुचुरियों ने 595 ई. में पश्चिमी मालवा में शासन आरंभ किया। अमोना लेख के अनुसार कलुचुरि संवत् 347 (595 ई.) में इस वंश के नरेश शंकरगण ने पश्चिमी मालवा (उज्जैन) को विजित किया था और उज्जैन में उसका प्रतिद्वंद्वी उत्तर-गुप्त नरेश महासेनगुप्त रहा होगा। संभवतः इसी कलुचुरि युद्ध में ही महासेनगुप्त मार डाला गया।

देवगुप्त प्रथम

मालवा के ऊपर कलचुरि शासन स्थायी नहीं रहा। कलचुरि-चालुक्य संघर्ष का लाभ उठाकर देवगुप्त ने (595 ई.) मालवा में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। हर्षचरित से पता चलता है कि महासेनगुप्त की मृत्यु के बाद देवगुप्त नामक एक उत्तर-गुप्तवंशी मालवा के किसी भाग पर शासन कर रहा था, जो संभवतः महासेनगुप्त का भतीजा या पहली पत्नी से उत्पन्न बड़ा पुत्र था। इसका नामोल्लेख मधुबन तथा बाँसखेड़ा के लेखों में मिलता है। वह महासेनगुप्त की वृद्धावस्था का लाभ उठाकर मालवा पर अधिकार करना चाहता था। महासेन की दूसरी पत्नी से उत्पन्न दोनों पुत्र कुमारगुप्त तथा माधवगुप्त छोटे थे, इसलिए महासेनगुप्त ने उन्हें प्रभाकरवर्धन के पास भेज दिया था। महासेनगुप्त के मरते ही देवगुप्त ने मालवा पर अधिकार कर लिया।

माधवगुप्त का प्रतिद्वंद्वी होने के कारण देवगुप्त वर्धनों और मौखरियों से द्वेष रखता था। हर्षचरित के अनुसार प्रभाकरवर्धन के मरते ही देवगुप्त ने गौड़ाधिपति शशांक की सहायता से कान्यकुब्ज पर आक्रमणकर ग्रहवर्मा को मार डाला, इसीलिए देवगुप्त को ‘मालवा का दुष्ट शासक’ कहा गया है (दुरात्मना मालवराजेन)। राज्यवर्धन ने अपने बहनोई की हत्या का बदला लेने के लिए देवगुप्त का दमन किया।

माधवगुप्त

महासेनगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मालवा से संबंध छूट जाने के कारण उसके दोनों पुत्र कुमारगुप्त और माधवगुप्त थानेश्वर में रहने लगे। लगता है कि कुमारगुप्त की पहले ही मृत्यु हो गई। अफसढ़ लेख के अनुसार ‘जिस प्रकार वसुदेव से कृष्ण का जन्म हुआ, उसी प्रकार महासेनगुप्त से माधवगुप्त का जन्म हुआ’-

वसुदेवादिव तस्माच्छ्रीसेवनशोभितवरणयुगः।

श्रीमाधवगुप्तोडभन्माधव इव विक्रमैकस।।

माधवगुप्त को हर्ष ने मगध में अपना सामंत नियुक्त किया। नालंदा से हर्ष की एक मुहर पाई गई है। शाहपुर लेख से भी पता चलता है कि मगध में हर्ष संवत् प्रचलित था। चीनी स्रोतों के अनुसार हर्ष ने 641 ई. में मगधराज की उपाधि धारण की थी, इसलिए इसी समय उसने माधवगुप्त को मगध में नियुक्त किया होगा।

हर्षचरित और अफसढ़ लेख के अनुसार माधवगुप्त हर्ष का प्रगाढ़ मित्र था और शासद उसके सैन्य अभियानों में उसकी सहायता भी किया था। यही कारण रहा होगा कि अफसढ़ लेख में उसे नाना युद्धों का विजेता कहा गया है। लगता है कि हर्ष की मृत्यु के बाद यह स्वतंत्र हो गया। कुछ इतिहासकार दो माधवगुप्तों की संभावना प्रकट करते हैं, किंतु ऐसा मानने का कोई औचित्य नहीं है।

आदित्यसेन

माधवगुप्त का उत्तराधिकारी पुत्र आदित्यसेन हुआ, जो श्रीमती देवी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। आदित्यसेन के लेख बिहार के गया, पटना तथा भागलपुर से प्राप्त हुए हैं। इससे लगता है कि हर्ष की मृत्यु के बाद आदित्यसेन ने अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए प्राचीन मगध तथा अंग के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और ‘परमभट्टारक’, ‘पृथिवीपति’ तथा ‘महाराजाधिराज’ जैसी उपाधियाँ धारण की। अभिलेखों में उसे चक्रवर्ती शासक के रूप में वर्णित किया गया है जो ‘संसार का रक्षक था और उसके श्वेतछत्र के द्वारा वसुधा-मंडल रक्षित था’ (श्वेतातपत्रासथगित वसुमतीमंडली लोकपालः)। ‘अन्य नरेशों के शिरोरूह उसके चरणों के प्रतापरूपी अनल के नीचे थे’ (न्यास्ताशेष-नरेश-मोलि-चरण- स्फारप्रतापानलः)। ‘उसके राज्य की सीमा समुद्र को स्पर्श करती थी (शास्ता समुद्रांतवसुन्धरायाः) और उसका यश समुद्र के दूसरे छोर को भी पार कर गया था’ (याता सागरपारम्)।

मंदर लेख से पता चलता है कि आदित्यसेन ने दिग्विजयकर अश्वमेध सहित कई यज्ञों का अनुष्ठान किया था और हाथी, घोड़े तथा विपुल संपत्ति दान दिया था। अश्वमेध-अश्व अंकित कुछ मुद्राएँ बंगाल से प्राप्त हुई हैं जो कुछ इतिहासकारों के अनुसार आदित्यसेन की हैं। देववर्णार्क लेख में उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ मिलती है, जिससे लगता है कि वह वैष्णव धर्मानुयायी था। उसने विष्णु के मंदिर का निर्माण भी करवाया था।

याता सागरपारमद्भुततम सापत्नवैरादहो।

तनेदं भजनोत्तमं क्षितिभुजा विष्णोः कृते कारितम्।।

आदित्यसेन ने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाई। चीनी यात्री हुई-लुन के अनुसार उसने बोधगया में एक बौद्ध मंदिर का निर्माण कराया था। उसकी माता श्रीमती देवी ने भी मठ का निर्माण करवाया था-

तज्जनन्या महादेव्या श्रीमत्या कारितो मठः।

धार्मिकेभ्यः स्वयं दत्तः सुरलोकगृहोपमः।।

आदित्यसेन ने प्रजा की भलाई के लिए अनेक कल्याणकारी कार्यों का संपादन किया था। उसकी महारानी कोणदेवी ने प्रजा की भलाई के निमित्त एक सरोवर का निर्माण करवाया था-

राजा खानितमद्भुतं सुपयसा पेपीयमानं जनै-

स्तस्यैव प्रियभार्यया नरपतेः श्रीकोणदेव्याः सरः।

मंदर लेख से भी पता चलता है कि महादेवी कोणदेवी ने एक तालाब खुदवाया था- ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीआदित्यसेनदेवदयिता परमभट्टारिकामहादेवी श्रीकोणदेवी पुष्करिणी कारितवती।’ अफसढ लेख में उसे परम यशस्वी (यशः श्लाघ्यम) कहा गया है। उसकी कीर्ति शरद् ऋतु के चंद्रमा के समान धवल थी-

येनेयं शरछिंदुबिंबधवला प्रख्यातभूमंडला

लक्ष्मीसंगमकांक्षया सुमहतो कीर्तिश्चिरं कोपिता।

बिहार के हजारीबाग के दुधबनी लेख में एक मगध नरेश आदिसिंह का उल्लेख मिलता है, जिसने उदयमान नामक व्यक्ति को तीन गाँव दान में दिया था। कुछ इतिहासकार इस आदिसिंह की पहचान आदित्यसेन से करते हैं, यद्यपि यह संदिग्ध है। देववर्णार्क लेख में उल्लिखित ‘गोमतीकोट्टक’ के आधार पर वी.पी. सिन्हा जैसे इतिहासकार इसके राज्य की पश्चिमी सीमा उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर तक मानते हैं।

देवगुप्त द्वितीय

आदित्यसेन का उत्तराधिकारी महादेवी कोणदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र देवगुप्त हुआ। यह उत्तर-गुप्त वंश का नौवाँ शसक था। देववर्णार्क लेख में उसकी उपाधियाँ पिता आदित्यसेन का भाँति ‘परमभट्टारक’ तथा ‘महाराजाधिराज’ मिलती हैं। इस लेख में उसे ‘परममाहेश्वर’ कहा गया है, जिससे लगता है कि वह व्यक्तिगत रूप से शैव धर्म का अनुयायी था।

देवगुप्त के समय में ही उत्तर-गुप्तों का पतन आरंभ हो गया। चालुक्य नरेश विनयादित्य के केंडूर के लेख से ज्ञात होता है कि उसने 680 ई. के आसपास किसी ‘सकलोत्तरपथनाथ’ को पराजित किया था। चालुक्य नरेश द्वारा पराजित यह नरेश देवगुप्त हो सकता है क्योंकि शाहपुर लेख से स्पष्ट है कि इसका पिता आदित्यसेन 672 ई. में शासन कर रहा था। कोरिया के बौद्धयात्री हुई-लुन ने पूर्वी भारतवर्ष के देवपाल नामक शासक का उल्लेख किया है। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान देवपाल से ही करते हैं। इसका शासनकाल संभवतः 695 ई. में समाप्त हो गया था।

विष्णुगुप्त

उत्तर-गुप्त वंश का दसवाँ शासक विष्णुगुप्त था। देववर्णार्क लेख के अनुसार देवगुप्त का यह पुत्र कमलादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था (श्रीदेवगुप्तदेवः तस्य पुत्रः तत्पादानुध्यातो परमभट्टारिकायां राज्ञां महादेव्यां श्रीकमलादेव्यामुत्पन्नः)। लेख में इसकी उपाधि ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’ मिलती है। विष्णुगुप्त का एक लेख मँगराव से प्राप्त हुआ है जिसके अनुसार उसने अपने शासन के सत्तरहवें वर्ष में कुट्टुकदेशीय किसी धर्मपरायण व्यक्ति ने अगारग्राम (मँगराव) के गृहस्थों से तेल खरीदकर चुंदस्कील तपोवन में निर्मित श्रीमित्रकेशवदेव के मंदिर में श्रीशुभद्रेश्वरदेव की प्रतिमा के सम्मुख दीपक जलाने के लिए दान किया था। देववर्णार्क लेख में उसकी उपाधि ‘परममाहेश्वर’ मिलती है जिससे लगता है कि वह शैव धर्मानुयायी था। मँगराव लेख से भी पता चलता है कि उसने अनेक शिव मंदिरों का निर्माण करवाया था (अनेकशिवसिद्धायतन)। इसका शासनकाल लगभग 695 से 715 ई. माना जा सकता है।

जीवितगुप्त द्वितीय

विष्णुगुप्त का उत्तराधिकारी जीवितगुप्त द्वितीय उत्तर-गुप्त वंश का ग्यारहवाँ शासक था। देववर्णार्क लेख इसी के शासनकाल का है। इस लेख के अनुसार वह इज्जादेवी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था (परमभट्टारिकायां राज्ञां महादेव्यां श्रीइज्जादेव्यामुत्पन्नः)। इसने भी ‘परमभट्टारक’, ‘महाराजाधिराज’ एवं ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। कन्नौज के यशोवर्मा का उदय संभवतः उत्तर-गुप्तों के विनाश का कारण बना। भवभूति के समकालीन वाक्पतिराज के ‘गौडवहो’ से पता चलता है कि यशोवर्मा ने अपने पूर्वी विजय अभियान के समय मगधनाथ को मार डाला था। इस मगधनाथ की पहचान मगध नरेश जीवितगुप्त द्वितीय से की जा सकती है। जीवितगुप्त द्वितीय के बाद उत्तर-गुप्त वंश का पतन हो गया और उत्तर भारत में एक बार पुनः अराजकता और अव्यवस्था की प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो गईं।

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