वीरराजेंद्र चोल (Virarajendra Chola, 1063-1070 AD) » प्राचीन इतिहास »
वीरराजेंद्र चोल (Virarajendra Chola, 1063-1070 AD)

वीरराजेंद्र चोल (Virarajendra Chola, 1063-1070 AD)

राजेंद्र चोल द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका अनुज वीरराजेंद्र चोल 1063 ई. के लगभग चोल राजपीठ पर आसीन हुआ। यद्यपि राजेंद्र द्वितीय ने अपने जीवनकाल में अपने पुत्र राजमहेंद्र को 1059 ई. में युवराज नियुक्त किया था, जिसने संभवतः मुडक्कार के युद्ध में भाग भी लिया था। किंतु इसी युद्ध के बाद अथवा इसी युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। राजमहेंद्र की मृत्यु के बाद राजेंद्र द्वितीय ने अपने अनुज वीरराजेंद्र को 1063 ई.में युवराज बना दिया था। इसलिए राजेंद्र द्वितीय की मृत्यु के बाद यही चोल राजगद्दी पर बैठा। वह अपने बड़े भाई राजाधिराज चोल के शासनकाल के में श्रीलंका में चोल वायसराय रह चुका था। इसके बाद, वह अपने दूसरे बड़े भाई राजेंद्र चोल द्वितीय के शासनकाल में उरैयूर के भगवान के रूप में सेवा की थी। वीरराजेंद्र चोल ने राजेंद्र चोल द्वितीय की ओर से लगभग 1060 ई. में अपने परंपरागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को ‘कुडलसंगमम्’ के मैदान में पराजित किया था और तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजय-स्तंभ स्थापित किया था।

वीरराजेंद्र चोल के शासनकालीन घटनाओं की जानकारी के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। स्रोतों से ज्ञात होता है कि शासन संभालने के बाद वीरराजेंद्र चोल (1064-1070 ई.) ने अपने एक पुत्र मधुरांतक को तोंडमंडलम् और दूसरे पुत्र गंगैकोंडचोल को पांडय देश का उपराजा नियुक्त किया था।

वीरराजेंद्र चोल (Virarajendra Chola, 1063-1070 AD)
वीरराजेंद्र चोल के समय में चोल साम्राज्य

वीरराजेंद्र चोल की उपलब्धियाँ

वीरराजेंद्र चोल के समक्ष दो गंभीर चुनौतियाँ थीं। इनमें एक पश्चिमी चालुक्यों से संबंधित थी, जो कूडलसंगमम् युद्ध की पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए प्रयत्नशील थे, और दूसरी चुनौती वेंगी की राजनीति में हस्तक्षेप कर वहाँ चोल प्रभुत्व को स्थापित करना था। महत्वाकांक्षी वीरराजेंद्र ने न केवल इन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया, बल्कि अन्य कई दिशाओं में भी आशातीत सफलता अर्जित की। इसने सिंहल पर भी आक्रमण किया और चोल नियंत्रण से मुक्त होने के सिंहल राजाओं के प्रयासों का निदर्यतापूर्वक दमन किया।

वीरराजेंद्र चोल की आरंभिक विजयें

वीरराजेंद्र के शासन के दूसरे वर्ष के तिरुवेंकाडु लेख में कूडलसंगमम् के युद्ध का वर्णन है। इसमें उसकी चालुक्यों के विरुद्ध संभवतः उस विजय का संकेत है, जिसे उसने युवराजकाल में प्राप्त की थी। किंतु चौथे वर्ष के तिरुमल्लूर लेख में वर्णित है कि उसने तीन बार आहवमल्ल की पीठ देखी थी अर्थात् उसे पराजित किया था। कन्याकुमारी लेख में भी कुडलसंगमम् युद्ध का लगभग वैसा ही उल्लेख मिलता है, जैसा अन्य लेखों में है।

चौथे वर्ष के करुवूर लेख से पता चलता है कि अपने शासनकाल के आरंभ में वीरराजेंद्र ने पोतप्पि नरेश, धारा के शासक जननाथ के छोटे भाई, केरल (चेर पेरुमल) तथा पांड्य के श्रीवल्लभ के वीरकेशरि का वध किया था। मणिमंगलै लेख में इसके उडगै तथा केरल की विजय को भी सम्मिलित किया गया है, जिसके बाद वीरराजेंद्र बहुसंख्यक हाथियों के उपहार के साथ वापस आया था।

पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष

अभी वीरराजेंद्र केरल जैसे शत्रुओं से युद्ध में व्यस्त था, तभी पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर प्रथम ने कूडलसंगमम् की पराजय का बदला लेने के लिए चोल देश पर आक्रमण किया। सबसे पहले सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र विक्कलन (विक्रमादित्य षष्ठ) को वीरराजेंद्र की राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वीरराजेंद्र ने पांड्यों, सिंहल और चेर पेरुमल को पराजित करने के बाद विक्रमादित्य षष्ठ को पराजित किया। आहवमल्ल युद्ध मैदान से भाग गया और चोलों ने उसकी पत्नी, छत्र, वराहध्वज, युद्धवाय आदि पर अधिकार कर लिया।

संभवतः इसी प्रसंग में वीरराजेंद्र द्वारा सात चालुक्य सेनापतियों तथा गंगों, कांडवों और बैदुम्बों के सिर काटकर गंगैकोंडचोलपुरम के प्रवेशद्वार पर लटकाने का वर्णन मिलता है। इसके बाद, वीरराजेंद्र ने चालुक्य राजकुमारों- विक्रमादित्य (विक्कलन) और सिंघानन का पीछा किया। उसने सोमेश्वर प्रथम के दोनों राजकुमारों और पुत्रों के नेतृत्ववाली चालुक्य सेना को पूरी तरह पराजित कर दिया और चालुक्य राजधानी की ओर बढ़ गया। वहाँ उसने पहली बार सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया, जो युद्ध के मैदान से भाग गया था।

अपनी पराजय के अपमान से क्षुब्ध होकर सोमेश्वर ने चोल शासक को पुनः कूडलसंगमम् में निर्णायक युद्ध के लिए आमंत्रित किया। चालुक्य सोमश्वर के आमंत्रण को स्वीकार कर वीरराजेंद्र कूडल के निकट कांडे पहुँच गया और सोमेश्वर की प्रतीक्षा करने लगा। किंतु चालुक्यराज वहाँ आने के बजाय पश्चिमी समुद्रतट पर कहीं जाकर छिप गया। वीरराजेंद्र एक माह तक उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चोल नरेश से भयभीत होकर चालुक्यों के सेनापति देवनाथ, शित्ति तथा केशि भाग खड़े हुए। चोल शासक ने अनेक नगरों को ध्वस्त करते हुए रट्टपाडि को रौंद डाला, तुंगभद्रा के तट पर अपना सिंहयुक्त विजय-स्तंभ स्थापित किया और सोमेश्वर का एक पुतला बनाकर उसी को अपमानित करके अधिकृत किया।

बिल्हण के अनुसार सोमश्वर अपनी अस्वस्थता के कारण युद्ध में नहीं आया था, किंतु लगता है कि सोमेश्वर ने वीरराजेंद्र को कूडलसंगमम् में मिलने का झूठा वादा किया था। वस्तुतः इसकी आड़ में वह अपने पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ को दक्षिण भेजकर युद्ध जारी रखना चाहता था। यही कारण है कि वह पश्चिमी समुद्र की ओर जाकर छिपा था। यह भी हो सकता है कि सोमेश्वर में वीरराजेंद्र का सामना करने का साहस न रहा हो और मानसिक ग्लानि के कारण ही बीमार पड़ा हो। जो भी हो, इतना निश्चित है कि चालुक्यों के विरुद्ध इस अभियान में चोल वीरराजेंद्र को निर्णायक रूप से सफलता मिली।

वेंगी में हस्तक्षेप

कूडलसंगमम् से लौटने के बाद वीरराजेंद्र ने वेंगी पर आक्रमण किया, जो इस समय चालुक्यों के अधिकार में था। वास्तव में वेंगी में राजराज के बाद उसका पुत्र राजेंद्र द्वितीय राजगद्दी का वैध उत्तराधिकारी था, किंतु उसके चाचा विजयादित्य सप्तम ने इसका विरोध किया और युद्ध शुरू कर दिया। चालुक्य विक्रमादित्य पष्ठ ने राजेंद्र द्वितीय की सहायता की और विजयादित्य को अपदस्थ कर वेंगी को अपने अधिकार में कर लिया। किंतु वेंगी पर चालुक्यों का अधिकार अल्पकालिक रहा। कूडलसंगमम् से निपटने के बाद वीरराजेंद्र में विजयादित्य सप्तम की सहायता की और वेंगी पर आक्रमण कर दिया। वीर राजेंद्र ने बेजवाड़ा के निकट कृष्णा नदी के किनारे एक भयंकर युद्ध में अपने प्रतिद्वंदी चालुक्यों पराजित कर दिया।

वीरराजेंद्र के चौथे वर्ष के करुवूर लेख के अनुसार वीरराजेंद्र ने विक्रमादित्य पष्ठ की विशाल सेना को वेंगीनाडु में पराजित किया, चालुक्य महादंडनायक चामुंडराज का सिर काट लिया और उसकी पुत्री नागलै की नाक काट ली। किंतु इस घटना का संबंध राजेंद्र द्वितीय के शासनकाल से जोड़ा गया है। इससे लगता है कि राजेंद्र द्वितीय के समय चोलों का वेंगी पर अधिकार हो गया था, किंतु उसकी मृत्यु के बाद वीरराजेंद्र के शासनकाल में जब वह पश्चिमी चालुक्यों के साथ व्यस्त था, वेंगी उसके प्रभाव से निकल गया। यही कारण है कि परिचमी चालुक्यों से निपटने के बाद वीरराजेंद्र को पुनः इस पर आक्रमण करना पड़ा था। संभव है कि सोमेश्वर प्रथम ने कोप्पम् युद्ध में पराजित होने के बाद उसकी क्षतिपूर्ति के रूप में वेंगी पर अधिकार कर लिया हो। बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित तथा कन्याकुमारी लेख से भी पता चलता है कि वीरराजेंद्र ने कलिंग में महेंद्र पर्वत एवं चित्रकूट तक की विजय किया था। इसी बीच 1068 ई. में सोमेश्वर ने तुंगभद्रा में डूबकर आत्महत्या कर ली। इससे स्पष्ट है कि वीरराजेंद्र ने पश्चिमी चालुक्यों को पराजित करने के बाद वेंगी में पुनः चोल सत्ता को स्थापित किया था।

श्रीलंका से युद्ध

वीरराजेंद्र चोल का समकालीन श्रीलंका का शासक विजयबाहु रोहण प्रदेश से चोलों को निकाल कर अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए सतत प्रयत्नशील था। फलतः वीरराजेंद्र ने सिंहल नरेश विजयबाहु प्रथम के विरुद्ध सैनिक अभियान कर उसे निर्णायक रूप से पराजित किया और वातगिरि में शरण लेने के लिए बाध्य किया। थोड़े-बहुत अंतर के साथ इस घटना का उल्लेख सिंहली इतिवृत्त महावंश और चोल लेखों, दोनों में मिलता है। महावंश के अनुसार वीरराजेंद्र के सेनापति ने विजयबाहु को पराजित कर कजरग्राम में लूट-पाट की और वापस लौट आया।

विजयबाहु ने बर्मा के शासक के पास उपहारादि भेंटकर चोलों के विरुद्ध सहायता माँगी। बर्मा के शासक की सहायता से विजयबाहु ने पुनः विद्रोह कर दिया। वीरराजेंद्र की सेना ने महातित्थ में भीषण नरसंहार कर विद्रोह को दबा दिया। इसके बाद चोल सेनापति रोहण जाकर विजयबाहु के विरोधियों को अपनी ओर मिला लिया। अंततः विजयबाहु के सभी प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए।

वीरराजेंद्र के शासनकाल के पाँचवें वर्ष के 1067 ई. के एक लेख के अनुसार राजा ने एक विशाल सेना भेजी, जिसने बिना सेतु मार्ग का निर्माण किये समुद्र पार किया। रोहण में भीषण संघर्ष हुआ, जिसमें भारी नरसंहार हुआ। श्रीलंका की सेनाएँ हार गईं। विजयबाहु भाग गया, किंतु उसकी रानी पकड़ी गई और वीरराजेंद्र ने संपूर्ण लंका पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार महावंश और चोल अभिलेखों के सम्मिलित प्रमाणों से रोहण पर वीरराजेंद्र के अधिकार की पुष्टि होती है। किंतु संभवतः रोहण पर चोलों का अधिकार स्थायी नहीं रहा और दो या तीन वर्षों के बाद ही विजयबाहु ने रोहण को चोलों से मुक्त कर लिया।

कडारम् विजय

वीरराजेंद्र के राजत्वकाल के सातवें वर्ष के एक लेख में इसकी कडारम् विजय का उल्लेख मिलता है। लेख के अनुसार वीरराजेंद्र ने किसी शरणार्थी शासक की सहायता के लिए कडारम् के विरुद्ध अभियान किया था। यह घटना 1068 ई. के आसपास घटित हुई होगी। कुछ विद्वानों के अनुसार वीरराजेंद्र के कडारम् अभियान की प्रमाणिकता संदिग्ध है।

पश्चिमी चालुक्यों के साथ पुनः संघर्ष

सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु (1068) के बाद उसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय हुआ। किंतु सोमेश्वर द्वितीय में अपने पिता जैसी योग्यता और सामर्थ्य नहीं था। अतः वीरराजेंद्र चोल ने चालुक्यों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया। इसकी सूचना चोलों एवं चालुक्यों, दोनों के लेखों से मिलती है, किंतु दोनों भिन्न-भिन्न परिणाम का संकेत देते हैं। चालुक्य लेखों के अनुसार चोलों ने गुट्टि के दुर्ग पर आक्रमण किया था, किंतु सोमेश्वर के सामने उनकी एक न चली और उन्हें मजबूर होकर वापस लौटना पड़ा। इस प्रकार चालुक्य लेख राजेंद्र के अभियान को असफल बताते हैं।

चोल अभिलेखों के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय के कंठिका खोल पाने के पूर्व (राज्याभिषेक के समय कंठिका खोली जाती थी) ही वीरराजेंद्र ने कम्पिलि नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और कम्पिल नगर को जीतने के उपलक्ष्य में करगिड गाँव में अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। उसने सोमेश्वर द्वितीय को कन्नड़ देश छोड़ने के लिए विवश किया, शल्लुकि विक्रमादित्य (विक्रमादित्य षष्ठ) को कंठिका पहनाई और रट्टपाडि देश को जीतकर उसे दे दिया। तक्कयागपरणि के अनुसार राजगंभीर (चोल राजा) ने पिट्टन से राजचिन्ह लेकर उसे इरट्टन को दे दिया।

बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में इस घटना को कुछ दूसरी तरह अलंकारिक भाषा में प्रस्तुत किया है। बिल्हण के अनुसार सोमेश्वर द्वितीय और उनके छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ के बीच उत्तराधिकार संबंधी विवाद हो गया और गृहयुद्ध छिड़ गया। विक्रमादित्य षष्ठ ने वीरराजेंद्र चोल के चोल दरबार में शरण ली और सहायता माँगी। विक्रमादित्य षष्ठ और वीर राजेंद्र के बीच संधि हो गई और वीर राजेंद्र ने विक्रमादित्य षष्ठ के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इसके बाद विक्रमादित्य षष्ठ एवं वीरराजेंद्र ने सम्मिलित रूप से सोमेश्वर द्वितीय को पराजित किया। जो भी हो, इतना निश्चित है कि चोलों को सोमेश्वर द्वितीय के विरूद्ध निर्णायक सफलता मिली।

वीरराजेंद्र चोल का मूल्यांकन

वीरराजेंद्र अपने संपूर्ण शासनकाल (1063-1070 ई.) में युद्धों एवं सामरिक अभियानों में व्यस्त रहा और उनमें उसे सफलता भी मिली। उसने अपने पिता राजेंद्र चोल प्रथम, फिर भाइयों राजाधिराज प्रथम और राजेंद्र द्वितीय को प्रशासन और युद्ध दोनों में सक्रिय सहायता प्रदान की थी। बाद में, शासक के रूप में उसने स्वयं आंतरिक प्रशासन और सैन्य-विजय दोनों ही क्षेत्रों में सफलतापूर्वक शासन किया। एक तरह से उनकी उपलब्धियों की तुलना राजेंद्र चोल प्रथम से की जा सकती है।

वीरराजेंद्र चोल के शासनकाल के चौथे वर्ष के तिरुनामनाल्लूर के एक शिलालेख के अनुसार उसने अपनी उपलब्धियों के उपलक्ष्य में राजकेशरी, सकलभुवनाश्रय, मेदिनीवल्लभ, महाराजाधिराज, पांड्यकुलांतक, राजाश्रय, राजराजेंद्र, आहवमल्लकुलकाल आदि उपाधियाँ धारण की थी।

वीरराजेंद्र एक कुशल निर्माता, दानी तथा विद्वानों का आश्रयदाता भी था। 1067 ई. के एक लेख के अनुसार इसने तिरमुक्ककूडल में एक विद्याकेंद्र (पाठशाला) स्थापित किया था। इससे संबद्ध एक छात्रावास और चिकित्सालय भी था। उसने चिदंबरम् के नटराज के मुकुट के लिए एक बहुमूल्य मणि भेंट की थी और चोल, तुंडीर, पांड्य एवं गंगवटि क्षेत्रों में ब्रह्मदेय दान दिया था। इसे 40,000 वैदिक ब्राह्मणों को भूमिदान देने का श्रेय प्राप्त है। वीर राजेंद्र के शासनकाल में बौद्ध धर्म का बोलबाला था और बुधमित्र के ‘वीरशोलियम्’ व्याकरण ग्रंथ से स्पष्ट है कि तमिल साहित्य पर बौद्ध साहित्य का प्रभाव पड़ा था।

कुलोत्तुंग प्रथम के तंजावुर शिलालेख में वीरराजेंद्र की महारानी का नाम अरुमोलिनंगई मिलता है। उसकी पुत्री राजसुंदरी ने पूर्वी गंग वंश के एक राजकुमार से विवाह किया, और उसका पुत्र अनंतवर्मन चोडगंगदेव पूर्वी गंग वंश के पूर्वज बना। वीरराजेंद्र ने लगभग 1070 ई. तक शासन किया।

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

चालुक्य राजवंश

राजेंद्र चोल प्रथम

परांतक चोल प्रथम

वेंगी का (पूर्वी) चालुक्य राजवंश

बादामी का चालुक्य वंश: आरंभिक शासक

सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम

वेंगी का (पूर्वी) चालुक्य राजवंश

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि

नेपोलियन बोनापार्ट

प्रथम विश्वयुद्ध: कारण और परिणाम

राष्ट्रकूट राजवंश का राजनीतिक इतिहास

उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण

Print Friendly, PDF & Email
error: Content is protected !!
Index
Scroll to Top