गुप्तकालीन धर्म और धार्मिक जीवन (Religion and Religious Life in Gupta Period)

गुप्तकालीन धर्म

गुप्तकाल को प्रायः ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का चरमोत्कर्ष माना जाता है। गुप्त सम्राटों में कुछ वैष्णव, कुछ शैव और कुछ बौद्ध थे। अधिकांश गुप्त सम्राटों ने वैदिक धर्म के विविध अनुष्ठानों व क्रियाविधि को अपनाया तथा वैदिक परंपराओं व प्रणालियों के अनुसार अश्वमेध यज्ञों के साथ-साथ अग्निष्टोम, वाजपेय, वाजसनेय आदि यज्ञ किये। इस समय मूर्ति पूजा वैदिक धर्म का सामान्य लक्षण बन गई। मूर्तियों को बलि प्रदान करने की प्रथा भी चलती रही। मोक्ष के लिए धर्म, अर्थ और काम के संतुलन पर बल दिया गया। वैदिक देवताओं की प्रतिष्ठा कम हो गई और वैष्णव एवं शैव दो महत्त्वपूर्ण संप्रदाय के रूप में विकसित हुए। इन दोनों धर्मों का समन्वय गुप्तकाल की प्रमुख विशेषता है। बौद्ध और जैन धर्म न केवल बने रहे, अपितु इनमें भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भक्ति के सिद्धांत को महत्त्व दिया गया और ईश्वर-भक्ति व्यक्तिगत वस्तु बन गई। वैष्णव, शैव और कुछ अंश तक बौद्ध धर्म में भक्ति के सिद्धांत पर जोर दिया गया क्योंकि सामंती व्यवस्था में अधीनस्थ को अपने स्वामी के चरणों का सेवक माना जाता था, जिसमें भक्ति का सिद्धांत अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता था। इस प्रकार हिंदू धर्म का वर्तमान स्वरूप बहुत कुछ गुप्तकालीन धर्म पर ही आधारित है।

वैष्णव धर्म

गुप्तकाल में वैष्णव धर्म की लोकप्रियता चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी। अधिकांश गुप्त शासक व्यक्तिगत रूप से वैष्णव धर्म के उपासक थे। गुप्त राजाओं ने ‘परमभागवत’ की उपाधि धारण की और अपनी राजाज्ञाएँ गरुड़ध्वज पर अंकित करवाई। चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य एवं समुद्रगुप्त द्वारा जारी किये गये सिक्कों पर विष्णु के वाहन गरुड़ की आकृति मिलती है। भितरी (गाजीपुर) से गरुड़-मुद्रा का उदाहरण प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त गुप्तकालीन मुद्राओं पर शंख, चक्र, गदा, पद्म, लक्ष्मी जैसे वैष्णव धर्म के अनेक चिन्हों व प्रतीकों का अंकन भी मिलता है।

इस समय अनेक विष्णु मंदिरों का निर्माण हुआ। शिलालेखों में विष्णु-मंदिरों और विष्णु-ध्वजों का वर्णन है। गंगधर अभिलेख में विष्णु को ‘मधुसूदन’ कहा गया है। स्कंदगुप्त का जूनागढ़ एवं बुधगुप्त का एरण अभिलेख विष्णु-स्तुति से ही प्रारंभ होते हैं। जूनागढ लेख के अनुसार चक्रपालित नामक गुप्तकालीन कर्मचारी ने विष्णु के एक मंदिर का निर्माण करवाया था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने विष्णुपद पर्वत के शिखर पर विष्णुध्वज की स्थापना की थी (प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतः भक्तया ध्वजः स्थापितः)।

स्कंदगुप्त के भितरी स्तंभलेख में वासुदेव कृष्ण की मूर्ति का उल्लेख है और कहा गया है कि उसकी पूजा के लिए एक ग्राम दान में दिया गया था। देवगढ़ का दशावतार मंदिर गुप्तकालीन वैष्णव धर्म के विकास का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। पंचायतन श्रेणी के इस मंदिर के एक स्तंभ पर उपासक भागवत गोविंद का उल्लेख है। इस मंदिर में कृष्ण के जीवन की कुछ घटनाओं के अंकन के साथ-साथ विष्णु को शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते दिखाया गया है।

वस्तुतः गुप्तकाल में वैष्णव धर्म भारत के प्रत्येक प्रांत में फैला और दक्षिणपूर्वी एशिया, हिंदचीन, कंबोडिया, मलाया और इंडोनेशिया तक इसका प्रचार हुआ। शिलालेखों, सिक्कों और साहित्य से भारत के विभिन्न प्रांतों में इस धर्म के प्रसार के प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार गुप्तकाल में भागवत धर्म अपने विकास की पराकाष्ठा पर था। स्थापत्य और साहित्य दोनों में विष्णु को विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया है। इस काल में वैष्णव धर्म का न केवल प्रसार हुआ, वरन् विभिन्न रूपों में उसका विकास भी हुआ।

अवतारवाद

इस समय पहले से चले आ रहे अवतारवाद के विचार को विशेष रूप से विकसित किया गया और अवतारवाद वैष्णव धर्म का प्रधान अंग बन गया। तत्कालीन सामंतवादी सामाजिक ढ़ांचे में वैष्णव धर्म और कुछ अंशों में शैव धर्म का अवतारवाद अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता था। बौद्ध धर्म और बोधिसत्व में भी अवतारवाद मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में विष्णु के उन्तालिस अवतार माने गये, किंतु सामान्यतया दस अवतारों को स्वीकार किया जाता है- मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। अवतारवाद में यह विश्वास किया गया कि सांसारिक कष्टों से भक्तों को मुक्त करने के लिए एक अवतार होगा और इस विचार से निम्न वर्गों का प्रभावित होना स्वाभाविक था।

ऐसा लगता है कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों, कबायली एवं जनजातीय लोगों के धार्मिक विश्वासों एवं आस्थाओं को भी वैष्णव धर्म में समाविष्ट कर लिया गया। यही कारण है कि नारायण, संकर्षण, लक्ष्मी जैसे देवी-देवताओं को वैष्णव धर्म का अंग बना लिया गया और यह गुप्तकाल की अद्भुत देन है।

शैव धर्म

गुप्तकाल में शैव धर्म का भी विकास हुआ। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का सेनापति वीरसेन शैव था, जिसने शैवों के निवास के लिए उदयगिरि पहाड़ी में एक गुफा का निर्माण करवाया था। गुप्तों के समय में मथुरा में ‘महेश्वर’ नाम का शैव संप्रदाय था। कालिदास के ‘मेघदूत’ से ज्ञात होता है कि उज्जयिनी में महाकाल का एक मंदिर था, जहाँ संध्या के समय आरती उतारी जाती थी। कुमारगुप्त प्रथम का सेनापति पृथ्वीषेण शैव धर्म का अनुयायी था, जिसने करमदंडा नामक स्थान पर शिव की एक प्रतिमा स्थापित करवाई थी। दामोदरपुर लेख में शिव पूजा के निमित्त अग्रहार दान का वर्णन है। स्कंदगुप्त के बैल के आकार वाले सिक्के उसकी शैव धर्म में आस्था के प्रमाण हैं। सामंत महाराज हस्तिन् के खोह अभिलेख में ‘नमो महादेव’ शब्द उत्कीर्ण है, जिससे लगता है कि किसी शुभ-कार्य के पूर्व भगवान् शिव की वंदना की जाती थी।

गुप्तकाल में अनेक शिव मंदिरों का निर्माण हुआ और शिव की महिमा से संबंधित ग्रंथों की रचना भी हुई। कालीदास शिव के उपासक थे और उनकी रचनाओं में शिव के विभिन्न रूपों, मतों तथा सिद्धांतों का वर्णन मिलता है। उन्होंने ‘रधुवंश’ महाकाव्य पार्वती-परमेश्वरौ की वंदना के साथ आरंभ किया है और ‘कुमारसंभव’ में कुमार तथा स्कंद के जीवन का वर्णन किया है। भारवि ने ‘किरातार्जुनीय’ में अर्जुन और किरात वेशधारी शिव के युद्ध का विवरण दिया है। पुराणों में शिव के अनेक नाम मिलते हैं और उन्हें ‘देवों का देव’  कहा गया है। कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों पर मयूर पर आरूढ़ कार्तिकेय का अंकन है, जिससे लगता है कि वह कार्तिकेय का उपासक था। उसने अपने पुत्र का नाम स्कंद रखा, जो शैव धर्म में उसकी गहरी आस्था का प्रमाण है।

गुप्तकाल में शिव की मूर्तियाँ मानव एवं लिंग दोनों रूपों में बनाई जाती थीं। मानवाकार शिव की मूर्तियों में कोसाम से प्राप्त मूर्ति महत्त्वपूर्ण है। लिंग मूर्तियों में भूमरा से प्राप्त एकलिंग मुखमूर्ति महत्त्वपूर्ण है। शिव के अर्धनारीश्वर रूप की कल्पना एवं शिव-पार्वती की संयुक्त मूर्ति का निर्माण भी पहली बार इसी समय आरंभ हुआ। गुप्तकाल में हरिहर के रूप में शिव की बनी मूर्तियाँ शैव एवं वैष्णव धर्म के समन्वय का प्रमाण हैं, जिसमें एक ही मूर्ति के माध्यम से दोनों धर्मों के विचारों को व्यक्त किया गया। इसी समय त्रिमूर्ति पूजा के अंतर्गत ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की पूजा आरंभ हुई। तीनों देवताओं के गुण, बल और स्वभाव को समाहित करके बहुदेववाद को एकदेववाद का रूप दिया गया। इस काल में शैव धर्म के अनेक संप्रदायों का विकास हुआ। वामन पुराण के अनुसार शैव, पाशुपत, कापालिक और कालामुख जैसे चार शैव संप्रदाय अधिक प्रचलित थे।

गुप्तकाल के कुछ शासकों ने शैव धर्म को राजकीय समर्थन दिया और शिव मंदिरों तथा मूर्तियों के निर्माण में सहयोग प्रदान किया। इस काल के दो शिव मंदिर नचना-कुठारा और भूमरा से प्राप्त हुए हैं। भूमरा तथा खोह स्थानों में एकमुख शिवलिंग की सुंदर प्रतिमाएं हैं। गुप्तकालीन एक चतुर्मुखी शिवलिंग अजमेर संग्रहालय में है। करमदंडा से एक शिव लिंग मिला है। त्रिशूल तथा शिव के वाहन नंदी के अनेक चिन्ह प्राप्त हुए हैं।

शक्ति पूजा

इस काल में देवताओं की तुलना में देवियों की पूजा का वैभवशाली स्वतंत्र रूप सामने आया। शक्ति पूजा के साथ विस्तृत और विशाल पौराणिक कथा-साहित्य का सृजन हुआ। देवी की विभिन्न मूर्तियाँ पूर्वी भारत और बंगाल से प्राप्त हुई हैं। अर्धनारीश्वर के रूप में शक्ति और शिव दोनों संप्रदायों का एकीकरण भी हुआ, जिसमें शक्ति की प्रधानता स्वीकार की गई। शिव और शक्ति की पूजा करुणामय और भयंकर दोनों रूपों में की जाती थी।

बौद्ध धर्म

फाह्यान के विवरण से पता चलता है कि इस समय बौद्ध धर्म स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा था। गया, मथुरा, कोशांबी एवं सारनाथ बौद्ध धर्म के मुख्य केंद्र थे। साँची के एक लेख से ज्ञात होता है कि ‘आम्रकार्दव‘ नामक एक बौद्ध धर्मानुयायी को चंद्रगुप्त द्वितीय ने किसी उच्च पद पर नियुक्त किया था, जिसने ‘काकनादबाट’ के महाविहार को पच्चीस दीनार दान दिया था (काकनादबाट…श्रीमहाविहारे….प्रणिपत्य ददाति पंचविंशतिश्च दीनारान्)। इसके सूद से मंदिर में दीपक जलाया जाता था तथा पाँच भिक्षुओं को भोजन कराया जाता था (रत्नगृहे च दीपको ज्वलतु…पश्चैव भिक्षवो भुंजताम्)।

448 ई. के मानकुँवर के लेख से पता चलता है कि बुद्धिमित्र नामक भिक्षु ने बुद्ध-मूर्ति स्थापित किया था। इसी प्रकार 476 ई. के सारनाथ लेख में अभयमित्र नामक भिक्षु द्वारा बुद्ध की मूर्ति-स्थापना का उल्लेख मिलता है। गुप्तकाल में ही नालंदा के प्रसिद्ध बौद्ध विहार की स्थापना की गई, जिसे दो सौ ग्रामों का राजस्व प्राप्त होता था। वैन्यगुप्त नामक परवर्ती गुप्त शासक ने शैव होते हुए ‘वैवर्त्तिक संघ’ नामक महायान बौद्ध संस्थान को दान दिया था।

सैद्धांतिक रूप से बौद्ध धर्म हिंदू धर्म का घोर विरोधी था, किंतु उपासना, कर्म और व्यवहार में वह ब्राह्मण धर्म के निकट आ गया था। गुप्तकाल में आर्यदेव, वसुबंधु, असंग, मैत्रेयनाथ एवं दिङ्नाग जैसे अनेक बौद्ध आचार्यों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने अपनी विद्वता के द्वारा भारतीय ज्ञान के विकास में योगदान किया। फाह्यान ने अफगानिस्तान, भिंड, मथुरा और पाटलिपुत्र में महायान भिक्षुओं को देखा था। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अंतर्गत माध्यमिक एवं योगाचार संप्रदाय का विकास हुआ, जिसमें योगाचार संप्रदाय गुप्तों के समय में पर्याप्त लोकप्रिय था।

जैन धर्म

गुप्तकाल में ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म का भी विकास हुआ। गुप्तकाल में जैन धर्म अपरिवर्तित रहा, किंतु इसमें भी मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। इस समय भगवान् महावीर एवं अन्य तीर्थंकरों की सीधी खड़ी हुई एवं पालथी मारकर बैठी हुई (स्थानक एवं आसन) मूर्तियों का निर्माण किया गया। कुषाण और गुप्त काल के जैन तीर्थंकरों की कांस्य प्रतिमाएँ चौसा (बिहार) से प्राप्त हुई हैं। गुप्तों के समय में ही मथुरा में द्वितीय (313 ई.) एवं वल्लभी में तृतीय (453 ई.) जैन सभाएँ आयोजित की गईं। वल्लभी सभा का सभापति प्रसिद्ध जैन आचार्य देवार्धि क्षमाश्रमण था।

गुप्तकाल में जैन धर्म मध्यमवर्गीय लोगों एवं व्यापारियों में प्रचलित था। कदंब एवं गंग राजाओं ने भी इस धर्म को संरक्षण प्रदान किया। 426 ई. के कुमारगुप्त प्रथम के उदयगिरि अभिलेख में किसी शंकर नामक जैन धर्म के अनुयायी द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख है। बुद्धगुप्त के पहाड़पुर से प्राप्त लेखों में जैन मंदिरों को भूमिदान देने का वर्णन मिलता है। कहौम लेख से पता चलता है कि स्कंदगुप्त के समय मद्र नाम के व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थंकरों- ऋषभनाथ (आदिनाथ), शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई थी। मथुरा अभिलेख के अनुसार कुमारगुप्त प्रथम के काल में हरिस्वामिनी नाम की जैन मतावलंबी महिला ने जैन मंदिर को दान दिया था। इस प्रकार गुप्तकाल में जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या ब्राह्मण धर्म व बौद्ध धर्म के अनुयायियों की अपेक्षा कम अवश्य थी, लेकिन इस समय जैन धर्म मगध से लेकर कलिंग, मथुरा, उदयगिरि एवं तमिलनाडु तक फैला हुआ था।

सूर्य पूजा

गुप्तकाल में सूर्योपासकों का भी संप्रदाय विद्यमान था। विक्रम संवत् 529 के मंदसौर शिलालेख के कुछ प्रारंभिक श्लोकों में सूर्य भगवान् की स्तुति की गई है। स्कंदगुप्त का इंदौर ताम्रलेख सूर्यपूजा से आरंभ होता है। बुलंदशहर जिले के ‘माडास्यात’ नामक बस्ती में एक सूर्य मंदिर था और अंतर्वेदी (गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र) में दो क्षत्रियों ने एक सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था। मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से मातृचेट नामक नागरिक ने ग्वालियर (गोपाह्यपुर) में पर्वत-शृंग पर एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया था-

नानाधातुविचित्रे गोपाह्य-नाम्नि भूधरे रम्ये।

कारितवान्शैलमयं भानोः प्रासाद-वरमुख्यम्।।

अभिलेखों में सूर्य के लोकार्क, भास्कर, आदित्य, वरुणस्वामी एवं मार्तंड आदि अनेक नाम मिलते हैं।

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