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सूर साम्राज्य और शेरशाह सूरी
शेरशाह का आरंभिक जीवन
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम फरीद था। उसके पिता हसन खाँ तथा पितामह इब्राहिम सूर बहलोल लोदी के समय में पेशावर के निकटवर्ती पहाड़ी प्रदेश रोह से भारत आकर पंजाब के बजवाड़ा में बस गये थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि फरीद का जन्म 1472 ई. में सासाराम में हुआ था, किंतु अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार फरीद का जन्म 1485-86 ई. में बजवाड़ा (हरियाणा) में ही हुआ था। फरीद के जन्म के कुछ दिनों बाद इब्राहिम खाँ सूर ने हिसार फिरोजा के सूबेदार जमाल खाँ और हसन खाँ ने उमर खाँ के यहाँ नौकरी कर ली। इब्राहिम खाँ सूर की मृत्यु के बाद हसन खाँ जमाल खाँ की सेवा में आ गया। जब सिकंदर लोदी ने जमाल खाँ को जौनपुर (बिहार) का सूबेदार नियुक्त किया तो हसन खाँ भी अपने मालिक के साथ जौनपुर चला आया। हसन की सेवा से खुश होकर जमाल खाँ ने उसको सासाराम, खवासपुर और टांडा के परगने जागीर के रूप में दे दिये। सोन नदी के किनारे सासाराम में ही फरीद ने अपनी तरुणावस्था के प्रारंभिक वर्ष व्यतीत किये थे।
पारिवारिक विवाद
फरीद के पिता हसन खाँ ने एक विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त तीन दासियों को भी हरम में रख लिया था जिनसे आठ संतानें थीं। फरीद खाँ और निजाम खाँ एक ही अफगान माता से पैदा हुए थे, किंतु शेष छह पुत्र- अली, यूसुफ, खुर्रम या मुदहिर, शाखी खाँ, सुलेमान और अहमद- इन्हीं दासियों की संतान थे। यद्यपि बजवाड़ा से बिहार पहुँचकर तथा वहाँ बड़ी जागीर पा जाने से हसन खाँ का दर्जा बढ़ गया था, किंतु फरीद और निजाम तथा उनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति होती गई और कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। इस विवाद का प्रमुख कारण यह था कि हसन खाँ अपनी सबसे छोटी पत्नी के प्रति अधिक आसक्त था, इसलिए वह फरीद और निजाम खाँ की माँ की ओर कोई ध्यान नहीं देता था।
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जौनपुर में फरीद की शिक्षा
पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता और परिवार के विद्वेषमय वातावरण से तंग आकर 22 वर्षीय फरीद सासाराम छोड़कर जौनपुर चला आया। उस समय जौनपुर इस्लामी संस्कृति और विद्या का केंद्र था और ‘भारत का शिराज’ समझा जाता था। जौनपुर में जमाल खाँ ने उसके विद्याध्ययन की व्यवस्था की। यहाँ फरीद ने फारसी, तुर्की, तथा हिंदी आदि भाषाओं का अध्ययन किया। उसने अरबी, व्याकरण पढी और फारसी के सुप्रसिद्ध ग्रंथ-रत्न ‘गुलिस्ताँ’, ‘बोस्ताँ’ और ‘सिकंदरनामा’ को कंठस्थ कर लिया। फरीद की कुशाग्र-बुद्धि और असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर जमाल खाँ ने हसन को अपने पुत्र से सद्व्यवहार करने का निर्देश दिया जिसको स्वीकार कर हसन ने फरीद को अपनी जागीर का प्रबंधक नियुक्त कर दिया।
जागीर के प्रबंधक के रूप में
जौनपुर से अपनी पढ़ाई पूरा करने के बाद फरीद सासाराम वापस आ गया और लगभग 21 वर्षों अर्थात् 1497-1518 ई. तक अपने पिता की जागीर की देख-रेख व प्रबंध किया। कृषकों के कल्याण के लिए उसने लगान-संबंधी एक श्रेष्ठ व्यवस्था स्थापित की जो भूमि की नाप-जोख, उसके वर्गीकरण और उसमें होने वाली पैदावार पर आधारित थी। उसने उदंड जमींदारों का दमन किया और भ्रष्टाचारी लगान अधिकारियों को दंडित किया। फरीद की प्रबंध-कुशलता, परगनों की शांति और समृद्धि से हसन खाँ अत्यधिक प्रभावित था। परंतु पारिवारिक अशांति बनी रही। अंत में विमाता के दुर्व्यवहार और पिता के पक्षपात के कारण फरीद 1518 ई. में घर से छोड़कर आगरा चला गया।
आगरा में फरीद
आगरा में फरीद ने सुल्तान इब्राहीम लोदी से प्रार्थना की कि उसके पिता की जागीर उसे सौंप दी जाए, किंतु सुल्तान ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। संयोगवश इसी वर्ष (1520 ई.) हसन की मृत्यु हो गई और सुल्तान इब्राहीम ने फरीद की प्रार्थना स्वीकार कर सासाराम और खवासपुर-टाँडा की जागीर उसे सौंप दी।
जागीर के उत्तराधिकार का झगड़ा
किंतु सुल्तान द्वारा प्रदान की गई पिता की जागीर से भी उत्तराधिकार का झगड़ा समाप्त नहीं हुआ और उसके सौतेले भाई सुलेमान ने, जो हसन के अंतिम दिनों में जागीर की देखभाल करने लगा था, भागकर चौंद (वर्तमान चौनपुर) के जागीरदार मुहम्मद खाँ सूर के पास चला गया। मुहम्मद खाँ, जो हसन खाँ से द्वेष रखता था, चाहता था कि हसन खाँ की जागीर को फरीद और उसके सौतेले भाइयों में बाँट दिया जाए। किंतु फरीद विभाजन के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि जागीर उसने सुल्तान से प्राप्त किया था।
बहार खाँ नुहानी (मुहम्मदशाह) की सेवा में फरीद
अब फरीद ने दक्षिण बिहार के लोदी सूबेदार बहार खाँ नुहानी के यहाँ नौकरी कर ली ताकि उसके समर्थन से जागीर वापस ली जा सके। इसी समय पानीपत के युद्ध (1526 ई.) में इब्राहिम लोदी मारा गया। बहार खाँ नुहानी ने सुल्तान मुहम्मदशाह की उपाधि धारण की और अपनी स्वतंत्रता का घोषणा कर दी। सुल्तान मुहम्मदशाह फरीद की योग्यता से बहुत प्रभावित था। एक दिन शिकार के समय फरीद ने एक शेर को तलवार के एक वार से ही मार दिया, जिससे प्रसन्न होकर सुल्तान मुहम्मदशाह ने फरीद को शेर खाँ की उपाधि प्रदान की और अपने अल्पवयस्क पुत्र जलाल खाँ का शिक्षक का नियुक्त कर दिया।
शेर खाँ सुल्तान मुहम्मद (बहार खाँ नुहानी) के दरबार में भी सुरक्षित नहीं रह सका क्योंकि सूर कबीले का सदस्य होने के कारण वह नुहानी अफगानों की आँख में खटकता था। फलतः शेर खाँ ने कड़ा और मानिकपुर के मुग़ल गवर्नर जुन्नैद बरलास से संपर्क स्थापित किया और उसके सहयोग से अप्रैल 1527 ई. में मुग़ल सेना में शामिल हो गया।
मुगलों की सेवा में शेर खाँ
शेर खाँ मुगल सेना में लगभग 15 महीने तक रहा। इस दौरान उसने मुगलों के सैनिक संगठन, सैनिक चालें, तोपखाने के प्रयोग का अध्ययन किया और यह अनुभव किया कि मुगल प्रशासन तथा सैन्य-विधान में अनेक कमियाँ हैं। यदि प्रयत्न किया जाए तो एक बार फिर अफगान साम्राज्य पुनर्स्थापना की जा सकती है। कहा जाता है कि उसने एक बार अफगानों से कहा भी था कि ‘‘यदि ईश्वर ने मेरी सहायता की और भाग्य ने मेरा साथ दिया तो मैं सरलता से मुगलों को भारत से निकाल दूँगा।’
जब बाबर ने बिहार के अफग़ानों पर चढ़ाई की, तो शेर खाँ की सेवाएँ काफी लाभदायक सिद्ध हुईं। मार्च 1528 ई. में शेरखाँ ने जुनैद बरलास की सहायता से सासाराम, खवासपुर-टाँडा की जागीर पर पुनः अधिकार कर लिया।
बाबर को इस महत्वाकांक्षी अफगान पर संदेह हो गया था। उसने अपने पुत्र हुमायूँ को शेर खाँ से सतर्क रहने की सलाह थी: ‘‘शेर खाँ पर नजर रखना, वह चालाक आदमी है और उसके माथे पर राजत्व के लक्षण दिखाई देते हैं।’’ शेर खाँ को भी लगा कि मुगलों के साथ उसका निर्वाह नहीं होगा।
पुनः मुहम्मदशाह (बहार खाँ नुहानी) की सेवा में शेर खाँ
1528 ई. के अंत में शेर खाँ मुग़लों की नौकरी छोड़कर पुनः बिहार के सुल्तान मुहम्मद (बहार खाँ नुहानी) के पास आ गया। सुल्तान ने भी उसका स्वागत किया और उसे अपने अल्पवयस्क पुत्र जलाल खाँ का शिक्षक नियुक्त कर दिया। कुछ समय बाद ही 1528 ई. में सुल्तान मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी जलाल खाँ नाबालिग था। सुल्तान मुहम्मदशाह की विधवा पत्नी दूदू बीबी बालक सुल्तान की संरक्षिका नियुक्त हुई। उसने शेर खाँ को अपना वकील नियुक्त किया। डिप्टी गवर्नर की हैसियत से शेर खाँ ने शासन-व्यवस्था का पुनः संगठन किया और फौजों के अनेक दोषों को दूर किया। अब शेर खाँ नाबालिग सुल्तान जलाल के प्रति स्वामिभक्ति तथा सेवा-भाव रखते हुए अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने लगा और अफगानों को संगठित करने में लग गया।
किंतु 1529 ई. में इब्राहिम लोदी का भाई महमूद खाँ लोदी अफगान सरदारों के निमंत्रण पर बिहार आ गया जिससे स्थिति बदल गई। महमूद खाँ लोदी मार्च, 1527 ई. में खानवा की लड़ाई में राणा संग्रामसिंह की ओर से लड़ा था और पराजय के बाद मेवाड़ चला गया था। महमूद खाँ ने जलाल खाँ से समझौता कर सुल्तान की उपाधि धारण की और मुगलों से निर्णायक युद्ध करने का फैसला किया।
शेर खाँ का उत्थान
शेर खाँ महमूद लोदी की अयोग्यता और अफगान सरदारों के पारस्परिक द्वेषों से परिचित था। वह बाबर के विरुद्ध लड़ना नहीं चाहता था, इसलिए वह बड़ी अनिच्छा से अफगान सेना में सम्मिलित हुआ। 1529 ई. में घाघरा के युद्ध में अफगान सेना पराजित हुई। चूंकि शेर खाँ ने युद्ध में भाग नहीं लिया था, इसलिए बाबर ने बिहार से आगरा लौटते समय जब जलाल खाँ को बिहार का अधीनस्थ शासक नियुक्त किया तो उसे यह आदेश दिया कि वह शेर खाँ को ही अपना संरक्षक और डिप्टी गवर्नर नियुक्त करे। इसके कुछ समय बाद दूदू बीबी की मृत्यु हो गई और संपूर्ण शासन-सत्ता शेर खाँ के अधीन हो गई। जलाल खाँ अभी नाबालिग और नाममात्र का ही शासक था। शेर खाँ शासन का पुनर्गठन करने और सेना में सूर कबीले के अफगानों को भरती करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के कार्य में लगा रहा।
बिहार तथा बंगाल का शासक शेर खाँ
शेर खाँ की बढ़ती हुई शक्ति तथा सूर कबीले के अफगानों के बढ़ते हुए प्रभाव से नुहानी अफगान अमीर सशंकित हो गये। उन्होंने शेर खाँ को हटाने के लिए बंगाल के शासक नुसरतशाह (1518-32 ई.) से सहायता माँगी। नुसरतशाह भी बिहार को अपने नियंत्रण में करना चाहता था, इसलिए उसने 1529 ई. में दक्षिण बिहार पर आकमण कर दिया। किंतु शेर खाँ ने नुसरतशाह को बुरी तरह पराजित कर किया, जिससे शेर खाँ की प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई।
इसके बाद भी नुहानी अमीर शेर खाँ के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहे। शेर खाँ ने अफगान एकता की दृष्टि से नुहानी सरदारों से समझौता करने का बहुत प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। अब वयस्क हो जाने के कारण जलाल खाँ भी शेर खाँ से अपना पीछा छुड़ाना चाहता था, इसलिए उसने भी अफगान सरदारों के साथ बंगाल के शासक नुसरतशाह से सहायता माँगी। शेर खाँ इन घटनाओं से अनजान नहीं था। उसने भी अपनी पूरी सैनिक तैयारी कर ली। फलत: जलाल खाँ और नुहानी सरदार शेर खाँ से भयभीत होकर बंगाल भाग गये। अब बिहार पर शेरखाँ की पूर्ण सत्ता स्थापित हो गई। लेकिन उसने कोई राजसी उपाधि धारण नहीं की, बल्कि ‘हजरते आला’ की उपाधि धारण करके ही राजकार्य का संचालन करता रहा।
शेर खाँ का मुगलों से संघर्ष
बिहार पर अधिकार करके शेर खाँ ने मुगलों के किसी क्षेत्र या अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया था। लेकिन चुनारगढ़ के प्रश्न पर शेर खाँ और हुमायूँ का पहली बार आमना-सामना हुआ। चुनारगढ़ के अफगान किलेदार ताज खाँ ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 1529 ई में ताज खाँ की मृत्यु के बाद उसकी विधवा लाड मलिका और उसके सौतेले पुत्रों के बीच विवाद हो गया, जिसका लाभ उठाकर शेर खाँ ने लाड मलिका से विवाह करके चुनार का दुर्ग तथा वहाँ पर छिपा हुआ खजाना भी प्राप्त कर लिया था। इससे शेर खाँ की शक्ति और संसाधनों में काफी वृद्धि हो गई थी।
शेर खाँ-हुमायूँ समझौता
अगस्त, 1532 ई. में दोहरिया के युद्ध में महमूद लोदी के नेतृत्ववाली अफगान सेना को पराजित कर हुमायूँ ने पूर्व की ओर बढ़कर शेर खाँ के विरुद्ध कार्यवाही की और ‘पूर्वी भारत का द्वार’ माने जाने वाले चुनार किले का घेरा डाल दिया। चुनारगढ़ की चार महीने की घेरेबंदी के बाद शेर खाँ और हुमायूँ में एक समझौता हो गया जिसके अनुसार शेर खाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और अपने तीसरे पुत्र कुतुब खाँ को पाँच सौ सैनिकों की एक अफगान सैनिक टुकड़ी के साथ हुमायूँ की सेवा में बंधक के रूप में रख दिया। इसके बदले में शेर खाँ को चुनार का किला मिल गया।
बंगाल पर विजय
जलाल खाँ नुहानी अफगान सरदारों के साथ बंगाल भाग गया था और चुनारगढ़ पर घेरा डालते समय बंगाल के शासक ने बिहार के साथ शत्रुता का व्यवहार किया था। अतः शेर खाँ का बंगाल के सुल्तान से युद्ध होना अपरिहार्य था। इसके लिए शेर खाँ को अवसर भी मिल गया। बंगाल के शासक नुसरतशाह की 1532 ई. में मृत्यु हो गई और बंगाल में अराजकता फैल गई। नुसरतशाह के पुत्र अलाउद्दीन फिरोज की हत्याकर उसका भाई गयासुद्दीन महमूद सुल्तान बन गया था। शेर खाँ ने अपने पुत्र कुतुब खाँ को, जो हुमायूँ के साथ गुजरात अभियान में था, बुला लिया और अलाउद्दीन फिरोज की हत्या का बहाना बनाकर 1533 ई. में बंगाल पर आक्रमण कर दिया। शेर खाँ ने 1534 ई. में ‘सूरजगढ़ की प्रसिद्ध लड़ाई’ में बंगाल की सेना ने पराजित कर दिया। इस विजय से प्रेरित होकर शेर खाँ ने 1535 ई. में फिर बंगाल पर आक्रमण किया और तेलियागढी, जिसे बंगाल का प्रवेश द्वार माना जाता था, तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया।
गयासुद्दीन महमूद ने चिनसुरा के पुर्तगालियों की सहायता से तेलियागढ़ी को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न किया, लेकिन शेर खाँ बड़ी चालाकी से बंगाल की राजधानी गौड़ पहुँच गया। अंत में, 1536 ई. में गयासुद्दीन महमूद ने 13 लाख स्वर्ण-मुद्रा देकर शेर खाँ की अधीनता स्वीकार कर ली।
अगले वर्ष 1537 ई. में खिराज वसूलने के लिए शेर खाँ ने पुनः बंगाल पर आक्रमण किया और बंगाल की राजधानी गौड़ और रोहतासगढ़ के प्रसिद्ध किले अधिकार कर लिया। अब गयासुद्दीन महमूद ने हुमायूँ से सहायता करने की याचना की।
शेर खाँ बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था और उसके नेतृत्व में अफगान लड़ाके इकट्ठे हो गये थे। इस समय उसके पास एक कुशल और बृहद सेना थी जिसमें 1200 हाथी भी थे। यद्यपि वह अब भी मुगलों के प्रति वफादारी की बात करता था, लेकिन उसने मुगलों को भारत से निकालने के लिए बड़ी चालाकी से योजना बनाई। उसका गुजरात के बहादुरशाह से गहरा संपर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बड़ी सहायता भी की थी।
चौसा तथा कन्नौज के युद्ध
हुमायूँ को स्थिति की गंभीरता का ज्ञान तब हुआ जब गयासुद्दीन महमूद ने उससे सहायता माँगी। किंतु अक्टूबर 1537 ई. से मार्च 1538 ई. तक का बहुमूल्य समय हुमायूँ ने चुनार के घेरे में गँवा दिया। यद्यपि मार्च 1538 ई. में मुगलों ने चुनार दुर्ग को जीत लिया, परंतु इस बीच शेर खाँ ने अपनी बंगाल विजय का कार्य पूरा कर लिया और अपने परिवार तथा कोष को रोहतासगढ़ के सुदृढ़ दुर्ग में भेज दिया।
चुनार की सफलता से उत्साहित हुमायूँ बंगाल की राजधानी गौड़ की ओर बढ़ा, परंतु वह अभी वाराणसी में ही था कि शेर खाँ ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा और दस लाख सलाना कर भी देगा। यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेर खाँ कितना ईमानदार था, लेकिन हुमायूँ ने शेर खाँ के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया।
शेर खाँ बंगाल छोडकर दक्षिण बिहार पहुँच चुका था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद और संचार-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके। हुमायूँ बिना किसी प्रतिरोध के 15 अगस्त, 1538 ई. को बंगाल के गौड़ क्षेत्र में पहुँच गया। गौड़ पहुँचकर उसने इस स्थान का पुनर्निर्माण कर इसका नाम ‘जन्नताबाद’ रखा। इस बीच शेर खाँ को चुनार तथा जौनपुर पर पुनः अधिकार कर लिया और आगरा तथा गौड़ के बीच की हुमायूँ की सप्लाई रेखा को काट दिया। अब हुमायूँ को स्थिति की गंभीरता का आभास हुआ और उसने आगरा की ओर प्रस्थान किया।
चौसा का युद्ध
शेर खाँ की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ कर्मनाशा नदी के पूर्वी किनारे पर चौसा आ गया। 26 जून, 1539 ई. को अचानक शेर खाँ ने तीन ओर से मुगल सेनाओं का आक्रमण कर दिया जिसमें लगभग 7,000 मुगल सैनिक और सरदार मारे गये। चौसा के युद्ध में मुगलों की करारी हार हुई और हुमायूँ बड़ी मुश्किल से भागकर निजाम नामक भिश्ती की मदद से अपनी जान बचा सका।
चौसा की विजय के बाद अफगान सरदारों के आग्रह पर शेर खाँ ने अपना राज्याभिषेक कराया, ‘शेरशाह आलम सुल्तान-उल-आदिल’ की उपाधि धारण की और अपने नाम के सिक्के चलाये।
कन्नौज का युद्ध
चौसा की पराजय के बाद हुमायूँ ने आगरा पहुँचकर अपने भाइयों और सरदारों से सहायता की प्रार्थना की। लेकिन कोई भी उसकी सहायता करने को तैयार नहीं हुआ। फलतः हुमायूँ जल्दबाजी में एक सेना एकत्र कर शेरशाह का सामना करने के लिए कन्नौज पहुँच गया। 17 मई, 1740 ई. को शेरशाह और हुमायूँ के बीच कन्नौज का युद्ध हुआ, जिसमें हुमायूँ पराजित हुआ और युद्ध-क्षेत्र से भाग निकला। हुमायूँ पीछा करते हुए शेरशाह आगरा पहुँच गया, जहाँ 10 जून, 1540 ई. को उसका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ और वह भारत का सम्राट बन गया।
शेरशाह का शासन और उपलब्धियाँ
पंजाब की विजय
शेरशाह हुमायूँ से दिल्ली तथा आगरा छीन लेने से ही संतुष्ट नहीं हुआ। शेरशाह का उद्देश्य मुगलों को पंजाब से निकाल देना था। वह हुमायूँ का पीछा करते-करते पंजाब की बढ़ा तो कामरान काबुल चला गया और हुमायूँ को बाध्य होकर सिंध की ओर भागना पड़ा। नवंबर 1540 ई. में शेरशाह ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।
गक्खर और बलूच क्षेत्र की विजय
उत्तर-पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए शेरशाह ने गक्खरों तथा बलूचों को नियंत्रण में लाने का प्रयास किया क्योंकि गक्खर लोग मुगलों के मित्र थे। शेरशाह ने गक्खर प्रदेश पर आक्रमण करके इसे बुरी तरह नष्ट कर दिया। फिर भी शेरशाह गक्खर जाति को समाप्त करने के अपने लक्ष्य को तो पूरा नहीं कर सका, लेकिन गक्खरों की शक्ति कम अवश्य हो गई। शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने और गक्खरों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए झेलम के निकट एक विशाल दुर्ग का निर्माण कराया, जिसका नाम उसने ‘रोहतास’ रखा। इस दुर्ग में उसने हैबत खाँ एवं ख्वास खाँ के नेतृत्व में 50 हजार अफगान सैनिकों की एक टुकड़ी को स्थायी रूप से नियुक्त कर दिया।
बंगाल की पुनर्विजय
जब शेरशाह उत्तर-पश्चिम में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर रहा था, उसे सूचना मिली कि बंगाल के सूबेदार खिज्रखाँ ने बंगाल के पूर्व सुल्तान महमूद की पुत्री से विवाह कर लिया है और विद्रोह करके स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा है। शेरशाह तुरंत गौड़ पहुँचा और खिज्रखाँ को बंदी बना लिया।
भविष्य में बंगाल में इस प्रकार के विद्रोह की पुनरावृत्ति रोकने के लिए शेरशाह ने यहाँ एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रारंभ किया। उसने सूबेदारी की परंपरा को समाप्त कर संपूर्ण बंगाल प्रांत को कई सरकारों (जिलों) में बाँट दिया। प्रत्येक सरकार में ‘शिकदार’ नियुक्त किये गये, जिसके पास शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक छोटी-सी सेना थी। शिकदारों की नियुक्ति शेरशाह स्वयं करता था और सभी शिकदार व्यक्तिगत रूप से सम्राट के प्रति उत्तरदायी थे। शिकदारों पर नियंत्रण रखने के लिए एक गैर-सैनिक अधिकारी ‘अमीन-ए-बंगला’ की नियुक्ति की गई। सर्वप्रथम यह पद काजी फजीलात को दिया गया था।
मालवा की विजय
बंगाल से आगरा वापस आने के बाद शेरशाह ने 1542 ई. में मालवा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के कई कारण थे- एक, हुमायूँ ने मालवा की विजय की थी और शेरशाह उन समस्त प्रदेशों को जीतना चाहता था जो मुगल साम्राज्य में रह चुके थे। दूसरे, गुजरात के शासक बहादुरशाह की मृत्यु के बाद मालवा का सूबेदार मल्लू खाँ ‘कादिरशाह’ के नाम से मालवा का स्वतंत्र शासक बन गया था। उसने शेरशाह के पुत्र कुतब खाँ की समय पर सहायता नहीं की थी जिसके कारण हुमायूँ के भाइयों- अस्करी और हिंदाल ने कुतुब खाँ को 1540 ई. में मार दिया था। अतः शेरशाह कादिरशाह से रुष्ट था।
मालवा की ओर जाते हुए शेरशाह ने अप्रैल, 1542 ई. में ग्वालियर के किले पर अधिकार कर लिया और वहाँ के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद शेरशाह सारंगपुर पहुँचा जहाँ मालवा के सुल्तान कादिरशाह ने उपस्थित होकर शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। शेरशाह ने कादिरशाह के साथ अच्छा व्यवहार किया और उसको लखनौती (कहीं-कहीं कालपी मिलता है) का गवर्नर नियुक्त किया, किंतु कादिरशाह शेरशाह से भयभीत होकर अपने परिवार के साथ गुजरात के सुल्तान महमूद तृतीय की की शरण में चला गया। शेरशाह ने सुजात खाँ को मालवा का गर्वनर नियुक्त कर दिया।
रायसीन की विजय
रायसीन का शासक पूरनमल 1542 ई. में शेरशाह की सेवा में उपस्थित हुआ था और राजसी भेंट प्रदान कर उसका सम्मान किया था। कहा जाता है कि शेरशाह को रायसीन पर इसलिए आक्रमण करना पड़ा था क्योंकि उसे शिकायत मिली थी कि पूरनमल मुसलमानों पर अनुचित तौर पर अत्याचार कर रहा था। सच तो यह है कि अफग़ान बादशाह रायसीन की समृद्धशाली रियासत पर पहले से ही आँखें गड़ाये हुए था। शेरशाह 1543 ई. में आगरा से चलकर मांडू होते हुए रायसीन पहुँचा और किले का घेरा डाल दिया। पूरनमल संभवतः इस संघर्ष के लिए तैयार था क्योंकि किले का घेरा कई महीने तक चलता रहा। अंततः शेरशाह ने चालाकी से पूरनमल को उसके आत्म-सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा का वायदा कर आत्म-समर्पण हेतु तैयार कर लिया। परंतु शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमों पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया जिसमें पूरनमल एवं उसके सैनिक बहादुरी से लड़ते हुए मारे गये। ‘पूरनमल के विरुद्ध शेरशाह द्वारा किया गया यह विश्वासघात उसके व्यक्तितत्व पर काला धब्बा है।’
मुल्तान और सिंध की विजय
शेरशाह ने पंजाब के शासन-प्रबंध और गक्खरों की रोकथाम के लिए ख्वास खाँ और हैबत खाँ को छोड़ रखा था। किंतु जब दोनों मिलकर काम नहीं कर सके तो शेरशाह ने ख्वास खाँ को हटाकर हैबत खाँ को इस प्रांत का गवर्नर बना दिया। नये गवर्नर हैबत खाँ ने सरदार फतेह खाँ के केंद्र-स्थान अजोधन (पाकपट्टन) पर अधिकार कर लिया और लाहौर के मार्ग को सुरक्षित किया। इसके बाद हैबत खाँ ने मुल्तान के शासक बख्शू लंगाह को पराजित कर बंदी बना लिया और मुलतान को अफगान साम्राज्य में शामिल कर फतेहजंग खाँ को वहाँ का गवर्नर नियुक्त दिया। शेरशाह ने 1541 ई. में ही सिंध को अपने अधिकार में कर लिया था और इस्लाम खाँ नाम के एक स्थानीय सरदार को यहाँ का शासक बनाया था। इस प्रकार उत्तर-पश्चिम में शेरशाह के राज्य के अंतर्गत पंजाब प्रांत के अतिरिक्त मुल्तान और सिंध भी सम्मिलित थे।
मारवाड़ की विजय
राजस्थान के शक्तिशाली राज्य मारवाड़ पर मालदेव राठौर का शासन था, जिसकी राजधानी जोधपुर थी। पिछले दस वर्षों में उसने निरंतर युद्धों द्वारा अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर लिया था। मालदेव की बढ़ती शक्ति को शेरशाह भला कैसे बरदाश्त करता? जब बीकानेर नरेश कल्याणमल तथा मेड़ता के वीरमदेव ने मालदेव के विरुद्ध, जिसने उनके राज्यों को अधिकृत कर लिया था, शेरशाह से सहायता माँगी, तो शेरशाह ने 1544 ई. में जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। राजपूतों ने अफगानों का डटकर मुकाबला किया, लेकिन जब शेरशाह को विजय-प्राप्ति की आशा नहीं दिखी तो उसने चालाकी से मालदेव के सरदारों की ओर से अपने नाम जाली पत्र लिखवाकर मारवाड़ नरेश के खेमे के पास डलवा दिया। इस पत्र को पढ़कर मालदेव को अपने सरदारों के प्रति संदेह हो गया और वह युद्ध का विचार त्यागकर युद्ध-क्षेत्र से भाग गया। इस अपमानजनक स्थिति में भी कुछ राजपूत सरदारों ने शेरशाह पर आक्रमण कर अफगानों के दाँत खट्टे कर दिये। शेरशाह को बरबस कहना पड़ा कि “एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैंने दिल्ली का राज्य लगभग खो दिया था।”
मेवाड़ की विजय
मारवाड़ को जीत लेने के बाद शेरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राणा सांगा की मृत्यु के बाद से ही मेवाड़ का गौरव लुप्त हो गया था और चित्तौड़ का दरबार षड्यंत्र का केंद्र बन गया था। इस समय यहाँ के अवयस्क प्रशासक का नाम राणा उदयसिंह था। इस स्थिति में जब शेरशाह की सेनाएँ चित्तौड़ पहुँची, तब अवयस्क राजा उदयसिंह ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। चित्तौड़ से शेरशाह कछवाहा (आमेर) की ओर गया और रणथम्भौर पर अधिकार कर अपने लड़के आदिल खाँ को यहाँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
इस प्रकार राजस्थान के अधिकांश क्षेत्रों पर शेरशाह का कब्जा हो गया। किंतु शेरशाह ने बड़ी दूरदर्शिता से राजस्थान के राजपूत राजाओं को विस्थापित करने और उन्हें नितांत परवश बनाने की चेष्टा नहीं की क्योंकि ऐसा करने से राजपूत अफग़ान सत्ता के विरुद्ध संगठित होकर विद्रोह कर सकते थे। शेरशाह ने अजमेर, जोधपुर, माउंट आबू और चित्तौड़ के दुर्गों की किलेबंदी की और प्रमुख महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपनी चौकियाँ स्थापित कर अफगान सैनिक बलों नियुक्त किया।
कालिंजर विजय और शेरशाह की मृत्यु
राजस्थान की विजय के पश्चात् शेरशाह ने नवंबर, 1544 ई. में बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कालिंजर दुर्ग का घेरा डाल दिया, जो उसका अंतिम सैन्य-अभियान साबित हुआ। कालिंजर के राजपूत शासक कीरतसिंह ने शेरशाह के आदेश के विरुद्ध रीवां के शासक वीरभानसिंह बघेला को संरक्षण दिया था। कालिंजर का घेरा एक वर्ष तक चलता रहा। अंत में, 22 मई, 1545 ई. को शेरशाह ने स्वयं आक्रमण का संचालन किया और दुर्ग की दीवारों को बारूद से उड़ाने का आदेश दिया। कहा जाता है कि किले की दीवार से टकराकर लौटे एक गोले के विस्फोट से शरेशाह की 22 मई, 1545 ई. को मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वह ‘उक्का’ नाम का एक अग्नेयास्त्र चला रहा था। किंतु उसके मरने से पूर्व किले को जीता जा चुका था। ‘इस प्रकार एक महान् राजनीतिज्ञ एवं सैनिक का अंत अपने जीवन की विजयों एवं लोकहितकारी कार्यों के बीच में ही हो गया।’
साम्राज्य विस्तार
शेरशाह सूरी ने अपने पाँच साल के अल्पसमय में एक विशाल साम्राज्य का निर्माण कर लिया था। शेरशाह को इस बात का मलाल रहा कि उसे वृद्धावस्था में राज्य-प्राप्ति हुई। उसका कहना था कि यदि वह युवावस्था में राजा बनता तो शायद उसका साम्राज्य-विस्तार और अधिक होता। फिर भी, 1545 ई. में उसके अधीन एक विशाल साम्राज्य था, जो पूरब में सोनारगाँव से लेकर पश्चिम में गक्खर प्रदेश तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक विस्तृत था।
शेरशाह का प्रशासन
मध्यकालीन भारत के इतिहास में शेरशाह का शासनकाल उत्कृष्ट शासन-प्रबंध के लिए प्रसिद्ध है। शेरशाह को व्यवस्था सुधारक के रूप में माना जाता है, व्यवस्था प्रवर्तक के रूप में नहीं, क्योंकि उसने सल्तनतकाल से चली आ रही प्रशासकीय इकाइयों में कोई परिवर्तन नहीं किया। फिर भी, वह पहला मुसलमान शासक था जिसने अपनी प्रजा की इच्छाओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उनकी भलाई के लिए कार्य किया। वास्तव में शेरशाह एक कुशल प्रशासक था जिसने प्रशासन के क्षेत्र में कई ऐसे सुधारों को लागू किया जिससे प्रशासन की कार्यकुशलता अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई।
केंद्रीय प्रशासन
शेरशाह का प्रशासन पूर्ववर्ती सुल्तानों के समान निरंकुश और एकतंत्रीय था जिसके अंतर्गत प्रशासन की समस्त शक्तियाँ उसके हाथों में केंद्रित थीं। लेकिन उसका दृष्टिकोण प्रबुद्ध तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित था। शेरशाह की राजत्व की धारणा लोदी सुल्तानों से भिन्न थी। उसने यह स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि अफगान राजत्व का कबाइली और पंचायती स्वरूप हिंदुस्तान में व्यावहारिक नहीं है क्योंकि इसमें शासक की स्थिति दुर्बल रहती है। इसलिए अफगान परंपराओं की उपेक्षा करते हुए उसने तुर्कों की निरंकुश सत्ता के सिद्धांत को अपनाया। साम्राज्य की सभी कार्यकारी शक्तियाँ सम्राट के व्यक्तित्व में ही निहित थीं और वही शासन-तंत्र का प्रधान संचालक था। सभी प्रकार के अधिकरियों-कर्मचारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था और सभी अधिकारी एवं कर्मचारी केवल उसके प्रति ही उत्तरदायी होते थे। वह विधान का स्रोत था और उसके निर्णय के विरुद्ध कोई सुनवाई नहीं हो सकती थी। इस प्रकार सिद्धांत के तौर पर राज्य की समस्त शक्तियाँ शेरशाह में ही निहित थीं।
शेरशाह ने अपने पिता की सासाराम, खवासपुर तथा टांडा की जागीर का प्रबंध करते हुए जो प्रशासनिक अनुभव प्राप्त किया था, उसने उसे सम्राट बनने पर समस्त साम्राज्य में लागू किया। यही कारण है कि उसका प्रशासनिक सुधार मुख्य रूप से परगना तथा सरकारों के स्तर तक हुआ था और केंद्रीय तथा प्रांतीय प्रशासन के स्वरूप लगभग पहले जैसे ही बने रहे।
शेरशाह की प्रशासनिक सफलता का दूसरा कारण उसका अत्यधिक परिश्रम था। वह सुबह से देर रात तक राज्य के कार्यों में व्यस्त रहता था और अपना अधिकाधिक समय सूचनाओं को प्राप्त करने, आदेशों अथवा निर्देशों को लिखाने आदि में व्यतीत करता था। वह प्रत्येक विभाग के कार्यों का स्वयं निरीक्षण करता था और छोटी से छोटी रिपोर्ट को भी स्वयं पढ़ता था। जो आज्ञाएँ वह जारी करता था, वे तुरंत लिखी जाती थीं जिससे उनका समय से क्रियान्वयन हो जाता था। इससे प्रशासन में एकरूपता तथा कुशलता स्थापित हुई।
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मंत्रिपरिषद्
कोई सम्राट चाहे कितना भी परिश्रमी क्यों न हो, वह अकेला सारे साम्राज्य के प्रशासन को नहीं चला सकता। इसलिए शेरशाह सूरी ने भी प्रशासनिक सुविधा के लिए दिल्ली के सुल्तानों की तरह चार मंत्रियों की एक मंत्रिपरिषद् का गठन किया था। यद्यपि ये मंत्री अपने-अपने विभाग के अध्यक्ष होते थे, किंतु सभी महत्वपूर्ण निर्णय शेरशाह स्वयं करता था और उसके मंत्री केवल उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे। वास्तव में, उसके मंत्रियों को स्थिति सचिवों के समान थी। वे शेरशाह को केवल परामर्श दे सकते थे और उसे मानना या न मानना शेरशाह को इच्छा पर था।
दीवान-ए-वजारत : इस विभाग के अध्यक्ष को वजीर कहा जाता था, जिसे प्रधानमंत्री तथा वित्त-मंत्री कहा जा सकता है। वजीर जहाँ वित्त अर्थात् आय तथा व्यय का प्रबंध करता था, वहीं अन्य विभागाध्यक्षों पर भी नियंत्रण रखता था। मालगुजारी की व्यवस्था ठीक करने के लिए शेरशाह इस विभाग में विशेष रुचि रखता था
दीवान-ए-आरिज: इस विभाग का प्रमुख आरिज कहलाता था जो प्रतिरक्षा मंत्री होता था। इसका कार्य सैनिकों की भर्ती, अनुशासन तथा वेतन-वितरण आदि का प्रबंध करना था। यद्यपि वह एक सेनानायक होता था, परंतु वह सेनापति नहीं होता था। सैनिकों की भर्ती और उनके वंतन-निर्धारण का कार्य प्रायः शेरशाह स्वयं करता था।
दीवान-ए-रसालत : इस विभाग का प्रमुख एक प्रकार का विदेशमंत्री होता था जो विदेशों में आये राजदूतों की देखभाल अथवा उनसे वार्ता करता था। विदेशों को भेजे जाने वाले निर्देशों अथवा प्रार्थना-पत्रों को लिखने तथा भेजने का कार्य भी यही करता था।
दीवान-ए-इंशा : यह एक प्रकार से शाही सचिवालय था और इसका अध्यक्ष दबीर-ए-खास कहलाता था। इसका कार्य साम्राज्य के अंदर राजकीय निर्देशों अथवा आदेशों को लिखवाकर भेजना होता था। सूबेदारों तथा अन्य अधिकारियों से वह उन पत्रों को प्राप्त करता था जो सम्राट के लिए भेजे जाते थे।
इन चार मंत्रियों के अतिरिक्त शेरशाह ने केंद्रीय सरकार में दो अन्य प्रमुख अधिकारी भी नियुक्त किये थे जिनका सम्मान और अधिकार मंत्रियों के ही समान थे। इनमें से एक ‘दीवान-ए-कजा’ विभाग था, जिसका प्रमुख अधिकारी मुख्य काजी होता था। न्याय प्रशासन में सम्राट के बाद उसका दूसरा स्थान था। दूसरा विभाग ‘बरीद-ए-मुमालिक’ था जिसका मुखिया ‘दीवान-ए-बरीद’ गुप्तचर विभाग का प्रमुख होता था। इसका कार्य साम्राज्य के विभिन्न भागों से गुप्तचरों की रिपोर्ट को प्राप्त करना था। डाक का प्रबंध भी यही विभाग करता था। संभवतः इसी प्रकार का एक अन्य कर्मचारी राजमहल के कार्यों के निरीक्षण और प्रबंधन के लिए भी नियुक्त किया जाता था।
प्रांतीय प्रशासन
प्रशासनिक सुविधा के लिए शेरशाह का संपूर्ण साम्राज्य सरकार, परगने तथा गाँव में बँटा था। डॉ. कानूनगो का मानना है कि शेरशाह के प्रशासन में ‘सरकार’ से ऊँची कोई प्रशासनिक इकाई नहीं थी। परमात्माशरण के अनुसार शेरशाह के शासनकाल में फौजी गवर्नरों की प्रथा थी और अकबर से पहले प्रांतों का अस्तित्व था। लगता है कि शेरशाह ने अपने साम्राज्य को 47 प्रांतों अथवा इक्ताओं में बाँट रखा था, लेकिन इनका स्वरूप और आकार एक-सा नहीं था। इक्ता के प्रशासन को चलाने के लिए उसने सैनिक गवर्नर नियुक्त किये थे, जैसे लाहौर, अजमेर अथवा मालवा आदि के सैनिक गवर्नर। प्रांतों में फौजी गवर्नरों की नियुक्तियों में शेरशाह ने एक और परीक्षण किया। उसने पंजाब के फौजी गवर्नर हैबत खाँ के नीचे दो डिप्टी गवर्नर नियुक्त किये थे। राजसथान के गवर्नर ख्वास खाँ के नीचे भी उसने एक डिप्टी गवर्नर सरहिंद में नियुक्त किया था। संभव है कि इन प्रांतों की विशेष स्थिति और समस्याओं के कारण ही डिप्टी गवर्नर नियुक्त किये गये रहे हों।
बंगाल में एक नवीन प्रशासन व्यवस्था
शेरशाह ने 1542 ई. में बंगाल में एक नवीन प्रशासन व्यवस्था स्थापित की और पूरे प्रांत को कई सरकारों (जिलों) में विभाजित कर दिया। प्रत्येक सरकार में एक सैनिक अधिकारी ‘शिकदार’ होता थे। इन शिकदारों के ऊपर उसने एक ‘अमीन-ए-बंगाल’ नामक नागरिक गवर्नर नियुक्त किया ताकि इस प्रांत में फिर विद्रोह न होने पाये।
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सरकार और परगना
जिस प्रकार से शेरशाह ने अपने साम्राज्य को कई इक्ताओं में बाँटा हुआ था, उसी प्रकार प्रत्येक इक्ता को कई सरकारों में बाँटा गया था और सरकारें परगनों में विभाजित थीं। सरकार और परगना के संबंध में विस्तृत जानकारी अब्बास खाँ की रचना ‘तारीखे शेरशाही’ से मिलती है।
सरकार प्रशासन
प्रत्येक सरकार में दो प्रधान अधिकारी थे जो सरकार का शासन-संचालन करते थे। पहला, शिकदार-ए-शिकदारान और दूसरा, मुंसिफ-ए-मुंसिफान।
शिकदार-ए-शिकदारान : मुख्य शिकदार सरकार का सैनिक अधिकारी था जिसके पास पर्याप्त सेना और पुलिस होती थी। उसका कार्य सरकार या जिला में शांति बनाये रखना, परगनों शिकदारों के कार्य का निरीक्षण करना तथा मालगुजारी व अन्य करों की वसूली में सहायता करना था। वह परगना के शिकदारों के फैसलों के विरुद्ध अपीलें भी सुनता था। शिकदार-ए-शिकदारान के पद पर नियुक्ति शेरशाह स्वयं प्रमुख अमीरों में से करता था।
मुंसिफ-ए-मुंसिफान : मुंसिफ-ए-मुंसिफान मुख्यतया न्याय से संबंधित था और वह परगना के मुंसिफों तथा अमीनों के कार्य का भी निरीक्षण करता था। इसके अधीन भी, शिकादार-ए-शिकदारान की भाँति बहुत से लेखक, लिपिक आदि होते थे जो सरकार के प्रशासन में उसकी सहायता किया करते थे।
परगना प्रशासन
प्रत्येक सरकार कई परगनों में विभक्त था। प्रत्येक परगना में शिकदार (सैनिक अधिकारी) और मुंसिफ या अमीन (नागरिक अधिकारी) होते थे जो शिकदार-ए-शिकादारान तथा मुंसिफ-ए-मुंसिफान के अधीन रहकर परगने के प्रशासन को संचालित करते थे। परगने में एक शिकदार के अलावा एक मुंसिफ, एक फोतदार (खजांची) और दो कारकुन (लेखक) होते थे। परगने में मुंसिफ शिकदार का का समकक्षी होता था। उसका कार्य भूमि की पैमाइश कराना तथा भूमिकर की वसूली करना था। वह दीवानी तथा माल के मुकदमे भी सुनता था। परगने का तीसरा अधिकारी फोतदार था जो परगने की आय-व्यय का ब्यौरा रखता था।परगने का खजाना भी उसी के अधीन रहता था। परगने में दो कारकुनों की भी व्यवस्था थी जिसमें फारसी का लेखक होता था और दूसरा हिंदी का। एक अर्द्ध-सरकारी अधिकारी कानूनगो भी होता था। शिकदार का कार्य शांति बनाये रखना और अमीन का कार्य भूमि की पैमाइश कराना तथा मालगुजारी वसूल करना था। परगना आजकल की तहसील की तरह ही एक प्रशासनिक इकाई थी।
परगना प्रशासन में शेरशाह ने महत्वपूर्ण सुधार किये थे। उसने परगना स्तर पर न्याय व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया, जनता की सुख-सुविधा का ध्यान रखा और दो समान अधिकार-संपन्न अधिकारियों को नियुक्त करके स्थानीय विद्रोहों की संभावना को समाप्त कर दिया। परगना अधिकारियों की नियुक्ति भी शेरशाह स्वयं करता था, इससे परगनों पर केंद्रीय नियंत्रण बढ़ गया था।
गाँव प्रशासन
शेरशाह के कार्यकाल में प्रशासन की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई गाँव थे। प्रत्येक परगना कई गाँवों में विभाजित था। गाँव का प्रमुख अधिकारी मुकद्दम (मुखिया) होता था जिसका काम किसानों से भूमिकर इकट्ठा करके राजकीय कोष में जमा करवाना था। मुकद्दम (मुखिया) ही गाँव में शांति एवं व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होता था। गाँव में चोरी, डकैती, हत्या आदि अपराधों को रोकना उसी का कार्य था। यदि मुकद्दम अपराधी का पता लगाने में असमर्थ होता था तो उसे स्वयं दंड भुगतना पड़ता था। इसके अलावा, पटवारी नामक एक कर्मचारी गाँव से संबंधित सभी कार्यों का हिसाब-किताब रखता था। शेरशाह ने पंचायतों के कार्यों में किसी प्रकार का भी हस्तक्षेप नहीं किया और ग्राम प्रशासन को स्थानीय लोगों के हाथों में ही छोड़ दिया था।
सैनिक व्यवस्था
शेरशाह के राज्य की शक्ति तथा सुरक्षा का आधार सेना थी। उसने अपने विशाल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने के सैनिक संगठन में महत्त्वपूर्ण सुधार किये थे। शेरशाह ने प्राचीन सैन्य-पद्धति को छोड़कर एक स्थायी सेना का गठन किया, जिसके सैनिकों को राजकीय कोष से वेतन दिया जाता था और जो पूर्ण रूप से सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होती थी।
शेरशाह की सेना में चार अंग थे, जिसमें घुड़सवार सैनिकों की संख्या 25,000 थी, पदाति सैनिकों की संख्या 1,50,000, हस्तिसेना में 5,000 हाथी और 50,000 बंदूकचियों के साथ एक तोपखाना शामिल था। उसने साम्राज्य के विभिन्न भागों में दुर्ग और चौकियाँ स्थापित कर प्रत्येक में एक मजबूत सैनिक टुकड़ी को तैनात किया था।
शेरशाह ने अपने सैन्य-विधान में घुड़सवार सेना को अधिक महत्त्व दिया। उसकी घुड़सवार सेना में मुख्य रूप से अफगान थे, लेकिन उसने अन्य जातियों के लोगों तथा हिंदुओं को भी सेना में भर्ती किया। प्रांतों के गवर्नरों के पास भी सेनाएँ थीं, लेकिन वे इतनी कम थी कि कभी शेरशाह के लिए संकट नहीं बन सकती थीं।
शेरशाह ने घोड़ों पर शाही निशान से दागने की प्रथा पुनः प्रचलित की ताकि घटिया नस्ल के घोड़ों से उसे बदला न जा सके और उनकी गणना में कोई गड़बड़ी न हो सके। घोड़ों की ही तरह शेरशाह ने प्रत्येक सैनिक का ‘हुलिया’ जैसे-नाम, पिता का नाम, आयु, कद को एक रजिस्टर में लिखवाने की नई प्रथा आरंभ की जिससे सैनिकों की गणना में कोई हेरा-फेरी न की जा सके। संभवतः घोड़ों को दागने और सैनिकों के हुलिया लिखने की प्रथा को शेरशाह ने अलाउद्दीन खिलजी ने ग्रहण किया था।
कुछ एक इतिहासकारों का मानना है कि सम्राट स्वयं सैनिकों को भर्ती किया करता था, स्वयं उनको वेतन दिया करता था तथा सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए व्यक्तिगत तौर पर विशेष रुचि रखा करता था। यह अक्षरशः भले ही सत्य न हों, किंतु इतना निश्चित है कि शेरशाह अपने सैन्य-सुधारों में व्यक्तिगत तौर पर रुचि लेता था और वेतन तथा पदोन्नति जैसे मामलों का निपटारा स्वयं करता था। इसी कारण सैनिक तथा अधिकारी उसके स्वामिभक्त होते थे और उसको सेना की ओर से कभी विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ा।
न्याय व्यवस्था
शेरशाह ने न्याय-संबंधी सुधार करके अपराधों की संख्या तथा प्रकार को निश्चित रूप से कम कर दिया था। शेरशाह न्याय प्रदान करते समय अपने-पराये का ध्यान नहीं रखता था और प्रायः “जैसे को तैसा’’ के सिद्धांत के अनुसार न्याय प्रदान करता था। ‘मीर अदल’ नामक न्यायिक अधिकारी का कार्य यह देखना होता था कि न्यायालय के निर्णय को उचित प्रकार से क्रियान्वित किया गया है या नहीं।
यद्यपि न्याय तथा कानून का स्रोत स्वयं सम्राट ही था और साम्राज्य के न्याय-विभाग का अध्यक्ष मुख्य काजी होता था। किंतु न्याय व्यवस्था को सर्वसुलभ बनाये रखने के लिए शेरशाह ने सरकार में काजियों और परगनों में अमीनों की नियुक्ति की थी। गाँवों में मुकदमों का फैसला प्रायः पंचायतें किया करती थीं।
पुलिस व्यवस्था
शेरशाह ने अपने साम्राज्य में शांति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए कोई अलग पुलिस विभाग तो नहीं बनाया था, परंतु इक्ता में शिकदार-ए-शिकदारान, परगनों में शिकदार तथा गाँव में मुकद्दम शांति-व्यवस्था और सुरक्षा के लिए नियुक्त किये गये थे। शेरशाह ने अपराधों के मामलों में स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत को लागू किया था। गाँवों में यदि कोई चोरी या डाका पड़ता था तो इसके लिए मुकद्दम ही उत्तरदायी होता था। यदि मुकद्दम चोर या डाकू का पता नहीं लगा पाता था तो उसको सजा दी जाती थी और उसे नुकसान की भरपाई करनी पड़ती थी।
गुप्तचर व्यवस्था
पुलिस विभाग के कार्य को सुचारू ढंग से चलाने और अपनी अधिकारियों की मनमानी पर अंकुश रखने के लिए शेरशाह ने एक स्वस्थ गुप्तचर विभाग की स्थापना की थी और सभी प्रमुख नगरों तथा केंद्रों में गुप्तचरों को नियुक्त किया था। शेरशाह को अपने विश्वसनीय गुप्तचरों के माध्यम से राजस्व, न्याय, सामान्य प्रशासन, बाजार की कीमतों आदि बारे में सारी सूचनाएँ गुप्त रूप से मिलती रहती थीं। सूचनाओं को शीघ्रतापूर्वक भेजने के लिए सरायों में डाक-चौकियों की व्यवस्था थी जहाँ दो घोड़े सदैव उपलब्ध रहते थे।
वित्त एवं भू-राजस्व व्यवस्था
शेरशाह की वित्त-व्यवस्था के अंतर्गत सरकारी आय का सबसे बड़ा स्रोत जमीन पर लगनेवाला कर था, जिसे ‘लगान’ या ‘मालगुजारी’ कहते थे। अपने पिता की जागीर का काम दो दशकों तक सँभालने और फिर बिहार के शासन की देखभाल करने के कारण शेरशाह भू-राजस्व प्रणाली के प्रत्येक स्तर के कार्य से भली-भाँति परिचित था। उसने भू-विशेषज्ञ टोडरमल खत्री, जिसने आगे चलकर अकबर के साथ भी कार्य किया, जैसे योग्य प्रशासकों की मदद से भूमि-कर-संबंधी बंदोबस्त में कई मूलभूत परिवर्तन तथा सुधार किये, इसलिए उसकी भूराजस्व-व्यवस्था को ‘टोडरमल का बंदोबस्त’ भी कहा जाता है।
भूमि की पैमाइश
शेरशाह ने मालगुजारी को खेतों की पैमाइश के आधार पर निर्धारित किया। उसने अहमदखाँ के निरीक्षण में राज्य की कृषि-योग्य भूमि की पैमाइश कराई। संभवतः मुल्तान सूबे में पैमाइश नहीं कराई गई थी क्योंकि यह सीमावर्ती क्षेत्र था और सुरक्षा कारणों से इस क्षेत्र को छोड़ दिया गया था।
पट्टा एवं कबूलियत
शेरशाह ने कृषकों को भूमि का पट्टा दिया जिसमें भूमि का क्षेत्रफल, स्थिति, प्रकार और किसान द्वारा देय मालगुजारी दर्ज रहती थी। इस पट्टे पर किसानों से मालगुजारी की ‘कबूलियत’ (स्वीकृति-पत्र) ले ली जाती थी, जिससे किसान को पता रहता था कि उसे कितनी मालगुजारी देनी है। पट्टा एवं कबूलियत एक प्रकार से राज्य और किसान के बीच समझौता था। वास्तव में शेरशाह का सिद्धांत था कि मालगुजारी निर्धारित करते समय कृषकों से उदारता से व्यवहार किया जाए, लेकिन कर-संग्रह में किसी प्रकार की उदारता न की जाए।
भूमि का वर्गीकरण और लगान की दर
मालगुजारी के निर्धारण के लिए ऊर्वरापन के आधार पर भूमि को तीन श्रेणियों- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट में वर्गीकृत किया गया। शेरशाह ने ‘रई’ या फसल-दरों की सूची बनवाई और उसके आधार पर विभिन्न फसलों के लिए मालगुजारी निश्चित की थी। पैदावार का लगभग एक तिहाई भाग सरकारी लगान के रूप में लिया जाता था। शेरशाह ने केवल मुल्तान में राजस्व-निर्धारण और संग्रह के लिए पहले से चली आ रही बटाई (हिस्सेदारी) व्यवस्था को ही प्रचलन में रहने दिया और वहाँ उपज का 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था।
भूमिकर की वसूली
भूराजस्व की वसूली प्रायः मुकद्दम द्वारा की जाती थी, किंतु शेरशाह ने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे स्वयं राजकोष में भूमिकर जमा करें ताकि किसानों और राज्य के बीच सीधा संपर्क स्थापित हो सके। शेरशाह ने जहाँ तक संभव हुआ मालगुजारी को नकदी के रूप में अदा करने के लिए कृषकों को प्रोत्साहित किया। नष्ट होने वाले उत्पाद जैसे तरकारी आदि पर मालगुजारी केवल नकदी में ली जाती थी। जकात, खम्स तथा विदेशी माल पर चुंगी आदि राज्य की आय के अन्य स्रोत थे।
जरीबाना और मुहासिलाना
शेरशाह के शासनकाल में किसानों से ‘जरीबाना’ या भूमि की पैमाइश का शुल्क एवं ‘मुहासिलाना’ या कर संग्रह-शुल्क भी लिया जा़ता था, जिनकी दरें क्रमशः भूराजस्व की 2.5 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत थी। कोई भी राजस्व अधिकारी इसके अलावा किसी प्रकार का कोई अनुलाभ किसान से नहीं ले सकता था।
जरीब का प्रयोग : शेरशाह ने भूमि की पैमाइश के लिए एक ही नाप की ‘जरीब’ का प्रयोग किया जो ‘गज-ए-सिकंदरी’ पर आधारित थी। 60 गज के जरीब में 32 कड़ियाँ होती थीं। एक जरीब को बीघा कहा जाता था। शेरशाह ने कुशल और ईमानदार राजस्व अधिकारियों को पुरस्कृत करने के नियम भी बनाये।
खेती एवं किसानों की सुरक्षा : शेरशाह ने खेती और किसानों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा। वह कहा करता था: ‘‘किसान निर्दोष हैं, वे अधिकारियों के आगे झुक जाते हैं, और अगर मैं उन पर जुल्म करूँ तो वे अपने गाँव छोड़कर चले जायेंगे, देश बर्बाद और वीरान हो जायेगा और दोबारा समृद्ध होने में बहुत लंबा समय लगेगा।’’ अब्बास खाँ लिखता है कि सेना को विशेष आदेश था कि वह खेतों को हानि न पहुँचाये। अगर कोई सैनिक खेतों को हानि पहुँचाता था तो शेरशाह दोषी सैनिक को कठोर दंड देता था और किसान की क्षतिपूर्ति की जाती थी। शेरशाह के समय कुल मालगुजारी के अलावा किसानों से 2.5 प्रतिशत अतिरिक्त कर अनाज के रूप में वसूल कर गोदामों में सुरक्षित रखा जाता था। इस अनाज का प्रयोग प्राकृतिक आपदा के समय कृषकों की सहायता के लिए किया जाता था। दुर्भिक्ष, अनावृष्टि और अतिवृष्टि आदि के समय सरकार की ओर से किसानों को ऋण दिये जाते थे। इन ऋणों पर किसी प्रकार का सूद नहीं लिया जाता था और ऋण की रकम का भुगतान किसान आसान किश्तों में करते थे।
बंदोबस्त की खामियाँ
शेरशाह पहला मुस्लिम सम्राट था जिसने भूमि-कर व्यवस्था को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया था, अतः उसमें स्वाभावतः कुछ खामियाँ थीं, जैसे-औसत उत्पादन की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी और मध्यम तथा निम्न भूमियों पर कर-भार अधिक था। मालगुजारी के अलावा जरीबाना, मुहासिलाना आदि कर देने से किसानों पर कर भार बढ़ गया था। वार्षिक बंदोबस्त के कारण भी किसानों को असुविधा होती थी। मालगुजारी के नकद भुगतान की व्यवस्था से भी किसानों को असुविधा होती थी। विभिन्न मंडियों में अनाज के मूल्यों में अंतर होने से भी किसानों का नुकसान होता था। जागीरदारी प्रथा अभी भी प्रचलित थी, इसलिए जागीरदारी वाले क्षेत्रों के किसानों को राजस्व सुधार का लाभ प्राप्त नहीं मिल सका।
फिर भी, शेरशाह द्वारा आरंभ की गई लगान-व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता, कड़े परिश्रम तथा उसके मन में किसानों की भलाई की भावना का परिचायक थी जिससे अंततः राज्य और किसान दोनों का कल्याण हुआ। बंदोबस्त से राज्य की आमदनी बढ़ गई जिसके कारण शेरशाह जन-कल्याण के कार्यों को संपन्न कर सका था। यह बंदोबसत किसानों के लिए भी कल्याणकारी रहा जिससे राज्य में समृद्धि आई।
मुद्रा सुधार
शेरशाह ने मुद्रा-व्यवस्था के सुधार पर भी विशेष ध्यान दिया था। उसने पुरानी और खोटी मुद्राओं को प्रचलन से हटा दिया और उनके स्थान पर नवीन सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्राओं का प्रचलन किया। उसके दो प्रकार के सिक्के मुख्य थे-चाँदी का ‘रुपया’, जिसका भार 178 ग्रेन था और ताँबे का ‘दाम’, जिसका भार 380 ग्रेन था। शेरशाह का चाँदी का रुपया इतना प्रमाणिक था कि वह शताब्दियों बाद तक मानक सिक्के के रूप में प्रचलित रहा। उसके सोने की मुद्रा या ‘अशर्फी’ का भार भिन्न-भिन्न था- 166.4 ग्रेन, 167 ग्रेन और 168.5 ग्रेन। शेरशाह ने इन मुद्राओं का पारस्परिक अनुपात भी निश्चित किया था। एक चाँदी का रुपया 64 दाम के बराबर था। रुपये के 1/2, 1/4, 1/8, 1/16 भाग भी थे।
शेरशाह की मुद्राएँ चौकोर और वृत्ताकार दोनों प्रकार की थीं। सिक्कों पर अरबी लिपि में शेरशाह का नाम, पदवी और टकसाल का नाम अंकित रहता था। कुछ मुद्राओं पर शेरशाह का नाम देवनागरी लिपि में भी टंकित मिलता है। शेरशाह के कुछ सिक्कों पर उसका नाम चारों खलीफाओं के नाम के साथ अंकित है। टकसालों की संख्या 23 थी, किंतु मुख्य टकसालें आगरा, ग्वालियर, उज्जैन, लखनऊ, सासाराम, आबू और सख्खर में थीं। शेरशाह का मुद्रा-सुधार स्थायी सिद्ध हुआ जिसे मुगलों ने भी अपनाया था।
व्यापार-वाणिज्य का विकास
व्यापार की उन्नति के लिए शेरशाह ने आदेश दिया था कि व्यापारिक चुंगी केवल दो स्थानों पर ली जायेगी-एक, साम्राज्य में प्रवेश करते समय और दूसरी बार वस्तु के विक्रय के समय। साम्राज्य में प्रवेश करते समय बंगाल-बिहार सीमा पर सीकरी गली और पश्चिम में रोहतासगढ़ चुंगी के प्रमुख केंद्र थे। इससे पहले प्रत्येक जिले, परगने अथवा राज्य की सीमा पर व्यापारियों को चुंगी देनी पड़ती थी। इसके अलावा, शेरशाह के मुद्रा-सुधारों, सड़कों व सरायों के निर्माण तथा मार्गों की सुरक्षा-व्यवस्था से भी व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला। उसने मुकद्दमों को आदेश दिया था कि वे व्यापारियों को समस्त सुविधाएँ प्रदान करेंगे तथा उनके जान-माल रक्षा करेंगे। अगर किसी व्यापारी का माल चोरी हो जाता था तो स्थानीय अधिकारियों को क्षतिपूर्ति करनी पड़ती थी। इस प्रकार शेरशाह की व्यवस्था व्यापार-वाणिज्य की उन्नति में सहायक हुई।
सड़कों का निर्माण
शेरशाह के प्रशासन की एक महान उपलब्धि सड़कों तथा सरायों का निर्माण करना था। सड़कें किसी भी राष्ट्र के विकास व्यवस्था की धुरी मानी जाती हैं। शेरशाह सूरी ने राजधानी तथा मुख्य नगरों को जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण कराया जिससे साम्राज्य के दृढ़ीकरण के साथ-साथ व्यापार तथा आवागमन की भी उन्नति हुई। उसने मुख्य रूप से चार सड़कों का निर्माण करवाया जिनमें पहली सड़क बंगाल के सोनारगाँव से सिंध नदी तक दो हजार मील लंबी थी, जिसे ‘सड़क-ए-आजम’ के नाम से जाना जाता था। दूसरी सड़क आगरा से जोधपुर और चित्तौड़ होते हुए गुजरात के बंदरगाहों तक जाती थी। तीसरी सड़क आगरा से बुरहानपुर तक जाती थी। उसने लाहौर से मुल्तान तक चौथी सड़क का निर्माण करवाया क्योंकि मुल्तान उस समय व्यापार का मुख्य केंद्र था और मध्य एशिया के व्यापारिक काफिले यहाँ रुकते थे। उसने यात्रियों की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये और जगह-जगह पर सरायों, मस्जिदों और कुंओं का निर्माण करवाया था
सरायों का निर्माण
यात्रियों एवं व्यापारियों की सुविधा और सुरक्षा के लिए शेरशाह ने सड़कों पर प्रत्येक दो कोस (लगभग आठ) किलोमीटर पर सरायों का निर्माण कराया। इन सरायों में हिंदू और मुसलमान दोनों धमो्रं के यात्रियों के लिए रहने-खाने तथा सामान सुरक्षित रखने की अलग-अलग व्यवस्था होती थी। हिंदू यात्रियों को भोजन और बिस्तर देने के लिए ब्राह्मण नियुक्त किये जाते थे। अब्बास खाँ लिखता है कि जो भी इन सरायों में ठहरते थे, उन्हें उनके पद के अनुसार सरकार की ओर से सारी सुविधाएँ दी जाती थीं। सरायों की व्यवस्था के लिए आसपास गाँव की कुछ जमीन अलग से दी गई थी। प्रत्येक सराय में एक शहना (सुरक्षा अधिकारी) के अधीन कुछ चौकीदार होते थे।
शेरशाह के समय में सरायों का प्रयोग डाक-चौकियों के रूप में किया जाता था। प्रत्येक सराय में डाक को लाने-ले जाने के लिए दो घोड़े सदैव तैयार रहते थे जिनके माध्यम से संदेश-वाहक एक स्थान से दूसरे स्थान एवं सुलतान तक संवाद पहुँचाया करते थे। कालिकारंजन कानूनगो ने इन सरायों को शेरशाह के ‘साम्राज्य की धमनियाँ’ कहा है।
यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा
शेरशाह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने यातायात की उत्तम व्यवस्था के साथ-साथ यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा का भी संतोषजनक प्रबंध किया था। किसी यात्री या व्यापारी के साथ कोई वारदात होने पर संबंधित क्षेत्र के मुकद्दम या जमींदार को उत्तरदायी माना जाता था और उसे संपूर्ण नुकसान की भरपाई करनी पड़ती थी। अब्बास सरवानी की चित्रमय भाषा में एक जर्जर बूढ़ी औरत भी अपने सिर पर जेवरात की टोकरी रखकर यात्रा पर जा सकती थी, और शेरशाह की सजा के डर से कोई चोर या लुटेरा उसके नजदीक नहीं आ सकता था।
सार्वजनिक निर्माण
इसमें कोई संदेह नहीं है कि शेरशाह का व्यक्तित्व असाधारण था। उसने पाँच साल के शासन की छोटी-सी अवधि में चार प्रमुख सड़कों तथा 1700 सरायों के अतिरिक्त अनेक ऐतिहासिक दुर्गों एवं भवनों का भी निर्माण कराया। उसने झेलम नदी के तट पर रोहतासगढ़ किले का निर्माण करवाया एवं कन्नौज के स्थान पर ‘शेरसूर’ नामक नगर बसाया। 1541 ई. में शेरशाह ने ही पाटलिपुत्र को ‘पटना’ के नाम से पुनः स्थापित किया। उसने हुमायूँ द्वारा निर्मित ‘दीनपनाह’ को तुड़वाकर उसके ध्वंशावशेषों से दिल्ली में ‘पुराने किले’ का निर्माण करवाया। किले के अंदर उसने ‘किला-ए-कुहना’ मस्जिद का निर्माण करवाया, जो इंडो-इस्लामिक शैली का अच्छा उदाहरण है। यही नहीं, सासाराम में झील के अंदर ऊँचे टीले पर शेरशाह द्वारा बनवाया गया अपना स्वयं का मकबरा उसके महान व्यक्तित्व का प्रतीक है। लाल बलुआ पत्थर के इस मकबरे का डिजाइन वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खाँ ने तैयार किया था। कनिंघम ने इस मकबरे को ताजमहल से भी श्रेष्ठ बताया है।
शेरशाह स्वयं विद्वान था और सिकंदरनामा, गुलिस्ताँ और बोस्ताँ आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया था। उसने शिक्षा के प्रसार के लिए अनेक मदरसों का निर्माण कराया और विद्वानों को संरक्षण दिया। मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ जैसी हिंदी की कुछ श्रेष्ठ रचनाएँ उसी के शासनकाल में लिखी गई थीं।
धार्मिक सहिष्णुता
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शेरशाह कट्टर सुन्नी मुसलमान था जो न केवल दिन में पाँच बार नमाज ही पढ़ता था, बल्कि रमजान में रोजे भी रखता था। उसने रायसीन शासक पूरनमल के विरूद्ध जिस प्रकार धार्मिक आधार पर आक्रमण कर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किया था, उस आधार पर उसे धर्म-सहिष्णु शासक नहीं माना जा सकता है। किंतु डॉ. कानूनगो जैसे इतिहासविद् शेरशाह को एक धर्म-सहिष्णु शासक मानते हैं। यद्यपि उसने कभी-कभार युद्ध को जीतने के लिए धर्म का आश्रय लिया था, किंतु शांतिकाल में उसने धर्म को राजनीति से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। उसने हिंदुओं के साथ कोई भेदभाव नहीं किया और योग्यता के अनुसार महत्त्वपूर्ण नौकरियाँ हिंदुओं को दी थीं। उसकी सेना में हिंदू सैनिकों की अच्छी-खासी संख्या थी। राजा टोडरमल खत्री ने भूमि-कर संबंधी अपना प्रारंभिक अनुभव शेरशाह के अधीन काम करते हुए ही प्राप्त किया था। भूमि-कर संबंधी पत्र-व्यवहार फारसी भाषा के साथ-साथ देवनागरी लिपि में भी होते थे। उसने अपने सिक्कों पर अपना नाम हिंदी में भी लिखवाया था।
शेरशाह का महत्त्व
शेरशाह का एक मुख्य योगदान यह है कि उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य में कानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया। यद्यपि उसने किसी नवीन व्यवस्था का निर्माण नहीं किया, फिर भी उसने पूर्ववर्ती प्रशासन को नवीन उद्देश्य और प्रेरणा प्रदान की। वह जमीनी स्तर से उठकर सम्राट बना था, इसलिए उसने अपने अल्प शासनकाल में प्रजा के हित से जुड़े अधिकांश मुद्दों को हल करने का प्रयास किया। उसने राजस्व, प्रशासन, कृषि, परिवहन, संचार-व्यवस्था के लिए जो काम किया, वह आज के शासकों के लिए भी अनुकरणीय है। धार्मिक कट्टरता के उस युग में शेरशाह ने एक धर्म सहिष्णु सम्राट के रूप में अकबर की उदार नीति के लिए मार्ग प्रशस्त किया तथा उसका पथ-प्रदर्शक था।
शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी
1540 ई. में हुमायूँ को कन्नौज स्थान पर पराजित करके शेरशाह सूरी ने जिस महान सूर साम्राज्य का निर्माण किया था, वह केवल 16 साल तक ही सुरक्षित रह सका। शेरशाह के उत्तराधिकारी इतने निर्बल और अशक्त थे कि वे उसके द्वारा सुसंगठित साम्राज्य को विघटित होने से बचा नहीं सके और 1556 ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में मुगलों की विजय से वह छिन्न-भिन्न हो गया।
इस्लामशाह (जलाल खाँ)
यद्यपि मृत्यु से पहले शेरशाह ने अपने बड़े पुत्र आदिल खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियत किया था, किंतु उसकी मृत्यु के तीन दिन बाद अर्थात् 25 मई, 1545 ई. को अफगान सरदारों के सहयोग से उसका छोटा पुत्र जलाल खाँ इस्लामशाह (1545-1553 ई.) की उपाधि धारण कर राजसिंहासन पर बैठा।
राजपद प्राप्त करने से पूर्व जलाल खाँ ने कई अवसरों पर अपनी उत्कृष्ट सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। 1531 ई. में उसने चुनारगढ़ की वीरता से रक्षा की थी, 1537 ई. में उसने गौड़ के घेरे में भाग लिया और बंगाल के तेलियागढ़ी में मुग़ल सेना को करारी मात दी थी। 1539 ई. और 1540 ई. में चौसा और कन्नौज के युद्धों में भी उसने अपने अपूर्व पराक्रम और उत्कृष्ट सैनिक योग्यता का परिचय दिया था। रायसीन और जोधपुर के आक्रमणों में भी उसने अपने पिता के साथ सहयोग किया था। इस प्रकार अफगान अमीरों ने एक योग्य उत्तराधिकारी का चुनाव किया था। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि इससे अमीरों को शक्ति में वृद्धि हुई तथा आदिल खाँ और इस्लामशाह के मध्य संघर्ष अनिवार्य हो गया।
निःसंदेह इस्लामशाह शेरशाह की तरह एक योग्य सेनापति एवं कुशल प्रशासक था, किंतु वह संदेही और धोखेबाज था। उसने सशंकित होकर उन सभी अफगान अमीरों की हत्या करवा दी जिन्होंने उससे बचने के लिए विद्रोह किया था। इसमें शेरशाह के प्रमुख अफगान सेनापति हैबतखाँ नियाजी और ख्वासखाँ भी थे।
अपनी योग्यता के बल पर इस्लामशाह 8 वर्ष तक अपने पैतृक साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने में सफल हो सका। 1553 ई. में जब हुमायूँ ने उत्तर-पश्चिम पर आक्रमण किया, इस्लामशाह तुरंत उसका सामना करने के लिए गया और हुमायूँ को वापस जाना पड़ा। लेकिन उसकी संदेही प्रकृति के कारण उसके काल में अफगानों की एकता नष्ट हो गई और अनेक प्रमुख अफगान सरदारों की हत्या से अफगानों की सैनिक शक्ति दुर्बल हो गई।
मुहम्मद आदिलशाह (मुबारिज खाँ)
1553 ई. में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसका अवयस्क पुत्र फिरोज राजगद्दी पर बैठा, परंतु तीन दिन बाद ही उसके मामा मुबारिज खाँ ने उसे मरवा दिया और स्वयं आदिलशाह की उपाधि धारण करके सिंहासन पर बैठ गया। मुबारिज खाँ शेरशाह के छोटे भाई निजाम खाँ का पुत्र था जो अदली के नाम से अधिक प्रसिद्ध था।
आदिलशाह (1553-1555 ई.) एक विलासप्रिय एवं आलसी शासक था। उसने अपना राजकार्य हेमू नाम के एक हिंदू को सौंप रखा था जो कभी रेवाड़ी की सड़कों पर नमक बेचा करता था। आदिलशाह के सिंहासन पर अधिकार कर लेने से सिंहासन के अन्य दावेदार अफगान सरदारों ने उसकी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिससे सूर साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तेज हो गई और 1555 ई. तक सूर साम्राज्य तीन भागों में बँट गया। सिंहासन के एक दावेदार इब्राहिमखाँ सूर ने आक्रमण कर दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया और इब्राहिमशाह की उपाधि धारण की। फलतः आदिलशाह ने चुनार को अपनी राजधानी बनाया और पूर्व के राज्य से ही संतोष कर लिया। इब्राहिम खाँ कुछ दिन ही शासन कर पाया था कि पंजाब के सूबेदार अहमद खाँ ने उस पर आक्रमण करके दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया तथा सिकंदरशाह की उपाधि धारण की। इब्राहिम खाँ सूर संभल भाग गया। राजस्थान तथा बुंदेलखंड इस्लामशाह के समय में ही सूर साम्राज्य से अलग हो चुके थे और उसकी मृत्यु के पश्चात् बंगाल और मालवा भी स्वतंत्र हो गये। इस प्रकार हुमायूँ को पुनः साम्राज्य प्राप्त करने का अवसर मिल गया। 1554 ई. में हुमायूँ ने सिकंदरशाह की सेना को मच्छीवारा के युद्ध में तथा स्वयं सिकंदरशाह को सरहिंद के युद्ध में 22 जून, 1555 ई. में पराजित कर दिया। इन विजयों से हुमायूँ का पंजाब, दिल्ली और आगरा पर अधिकार हो गया। 1556 ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में अफगानों की पराजय और अकबर की विजय से सूर साम्राज्य का सदा के लिए अंत हो गया।
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