विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)

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विजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिणी भाग में, मुख्यतः दक्कन क्षेत्र में स्थित था, जिसकी राजधानी हम्पी वर्तमान कर्नाटक में स्थित थी। तेरहवीं शताब्दी में उदित होने वाले दक्षिण के प्रादेशिक राज्यों की तुलना में यह सामाज्य न केवल अत्यधिक विस्तृत तथा शक्तिशाली था, बल्कि इसका स्वरूप भी भिन्न था। इस साम्राज्य को विजयनगर सल्तनत के नाम से भी जाना जाता था। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में हरिहर प्रथम और उनके भाई बुक्का राय प्रथम ने विद्यारण्य के समर्थन से की थी। अंततः विजयनगर साम्राज्य को 1565 ई. में दक्कनी सल्तनतों की संयुक्त सेना के विरूद्ध तालीकोटा की लड़ाई में एक बड़ी हार का सामना करना पड़ा, जिसके कारण विजयनगर साम्राज्य का पतन हो गया।

वास्तव में, विजयनगर साम्राज्य के उत्थान और पतन का इतिहास मुख्य रूप से निरंतर युद्धों और संघर्षों का इतिहास रहा है, इसलिए विजयनगर के शासकों ने अपने विस्तृत साम्राज्य के स्वरूप तथा राज्य की समसामयिक आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप एक नई प्रशासनिक व्यवस्था का प्रवर्तन किया। कहा जाता है कि इस सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था के कारण ही राज्य में सर्वांगीण समृद्धि थी। कई विदेशी यात्रियों, जैसे- निकोलो कोंटी, अब्दुल रज्जाक और डोमिंगो पायस आदि ने इस राज्य की समृद्धि की प्रशंसा की है। विजयनगर साम्राज्य के प्रशासन के स्वरूप की जानकारी विजयनगरकालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों तथा समय-समय पर विजयनगर साम्राज्य की यात्रा करने वाले विदेशी यात्रियों के विवरणों से मिलती है।

प्रशासनिक व्यवस्था

केंद्रीय प्रशासन
राय (राजा)

विजयनगर साम्राज्य की शासन-पद्धति सिद्धांततः राजतंत्रात्मक थी। प्रशासन का केंद्र-बिंदु राजा होता था, जिसे ‘राय’ कहा जाता था। राजपद कुछ अंश तक दैवी माना गया था, क्योंकि विजयनगर का राजा देवता विरूपाक्ष के नाम पर शासन करता था। यद्यपि शासक राज्य का सर्वोच्च सैनिक, असैनिक तथा न्यायिक अधिकारी था, किंतु उसकी सत्ता निरंकुश नहीं, अपितु नियंत्रित थी। वह न केवल धर्मानुसार शासन संचालित करता था, बल्कि प्राचीन स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में विहित नियमों का कड़ाई से पालन भी करता था।

राजा की निरंकुशता पर राजपरिषद नामक संस्था भी नियंत्रण रखती थी। इसके अलावा, व्यापारिक निगमें, धार्मिक संस्थाएँ, केंद्रीय मंत्री तथा ग्रामीण संस्थाएँ भी राजा पर कुछ नियंत्रण रखती थीं। राजा के चुनाव में राज्य के मंत्री एवं अमर-नायक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे। विजयनगर में संयुक्त शासन के भी उदाहरण मिलते हैं, जैसे- हरिहर और बुक्का ने एक साथ शासन किया था।

राजा का आदर्श

विजयनगर के राजा धर्म के अनुरूप शासन को आदर्श शासन मानते थे। एक आदर्श राजा को किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, इसका उल्लेख कृष्णदेवराय की पुस्तक ‘आमुक्तमाल्यद’ में मिल़ता है। आमुक्तमाल्यद के अनुसार एक मूर्धाभिषिक्त राजा को सदैव धर्म को दृष्टि में रखकर शासन करना चाहिए और अपने प्रजा के सुख और कल्याण का ध्यान रखना चाहिए। जब राजा प्रजा का कल्याण करेगा, तभी प्रजा भी राजा के कल्याण की कामना करेगी और तभी देश प्रगतिशील एवं समृद्धशील होगा। अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा कल्याण के उद्देश्य को सदा आगे रखने पर ही देश के लोग राजा के कल्याण की कामना करेंगे और राजा का कल्याण तभी होगा, जब देश प्रगतिशील तथा समृद्धशाली होगा।’

विजयनगर के राजाओं के राजनीतिक आदर्श धर्मनिरपेक्ष थे। उनका व्यक्तिगत धर्म चाहे जो भी रहा हो, उन्होंने सभी धर्मावलंबियों को समान रूप से संरक्षण एवं प्रश्रय दिया। साम्राज्य-विस्तार के साथ-साथ वे देश की आर्थिक प्रगति के प्रति भी पूर्णतया सजग थे। विजयनगर के शासक किसानों और खेतिहर लोगों के शोषण तथा दमन के प्रति सचेष्ट थे। उन्होंने कृषि एवं व्यापार की उन्नति को विशेष महत्त्व दिया। कृषि-योग्य भूमि के विस्तार, सिंचाई के साधनों के विकास, विदेशी व्यापार की उन्नति तथा औद्योगिक प्रगति के प्रति वे सतत प्रयत्नशील रहे।

वंशानुगत राजपद

राजपद सामान्यतः वंशानुगत था और पिता के बाद पुत्र अथवा उसके अभाव में निकटतम् उत्तराधिकारी को मिलता था, किंतु यह अनिवार्य नियम नहीं था। कभी-कभी निकटतम् उत्तराधिकारियों के अवयस्क या अयोग्य होने पर राय अपना उत्तराधिकारी घोषित करता था। कृष्णदेवराय ने अपने डेढ़ वर्ष के शिशुपुत्र को उत्तराधिकारी न बनाकर अपने चचेरे भाई अच्युतदेव राय को उत्तराधिकारी घोषित किया था। कभी-कभी सेनानायक अथवा राजकुल के अन्य सदस्य राजा या वैध उत्तराधिकारी को अपदस्थ कर सत्ता अपहृत कर लेते थे और कभी-कभार राजगद्दी के लिए लड़ाइयाँ भी होती थीं।

राज्याभिषेक

राजा के राज्यारोहण के अवसर पर प्रायः राज्याभिषेक संस्कार संपन्न किया जाता था। इस अवसर पर दरबार में अत्यंत भव्य आयोजन होता था, जिसमें अमर-नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर में संपन्न कराया था। राज्याभिषेक के समय राजा को प्रजापालन एवं निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी।

युवराज

विजयनगर प्रशासन में राजा के बाद युवराज का पद था। सामान्यतः राजा के बडे पुत्र को युवराज बनाने की परंपरा थी, किंतु पुत्र के न होने पर राजपरिवार के किसी योग्य सदस्य को युवराज नियुक्त किया जा सकता था। युवराज के राज्याभिषेक को ‘युवराज पट्टाभिषेक’ कहते थे। विजयनगर के अधिकांश शासकों ने अपने जीवनकाल में ही युवराजों की घोषणा कर उत्तराधिकार-संबंधी संघर्ष की संभावना को समाप्त करने का प्रयास किया था, फिर भी, उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की सूचना मिलती है। युवराज की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था होती थी और उसे साहित्य, ललितकला, युद्धकला तथा नीति की शिक्षा दी जाती थी।

संरक्षक अथवा प्रतिशासक की प्रथा

कभी-कभी शासक अथवा युवराज के अवयस्क होने की स्थिति में राजा अपने जीवनकाल में ही स्वयं अपने किसी मंत्री या अमर-नायक को उसका संरक्षक अथवा प्रतिशासक (रोजेंट) नियुक्त करता था। सालुव नरसिंह ने अपने पुत्रों की देखभाल के लिए अपने सेनानायक तुलुव नरसा नायक को नियुक्त किया था। अच्युतदेव राय के बाद उसके बेटे प्रथम वेंकट के अल्पवयस्क होने के कारण उसके मामा सलकराजु तिरुमल को संरक्षक नियुक्त किया गया था। संरक्षक की नियुक्ति के विरोध के भी उदाहरण मिलते हैं। बाद में यह संरक्षक व्यवस्था विजयनगर के लिए हानिकर सिद्ध हुई।

राजपरिषद्

यद्यपि विजयनगर साम्राज्य में राजा ही राज्य का सर्वप्रभुतासंपन्न एवं सर्वोच्च अधिकारी होता था, किंतु उसकी सहायता के लिए कई परिषदें गठित की गई थीं। इनमें राजपरिषद् भी एक थी जो राजा की स्वेच्छाचारिता पर एक निश्चित सीमा तक नियंत्रण रखती थी। राजा स्वयं इस राजपरिषद् का सदस्य होता था। वह राजपरिषद् की सलाह से राजाज्ञाएँ जारी करता था। राजा के चयन, अभिषेक तथा राज्य-प्रशासन के सुचारु रूप से संचालन में यह राजपरिषद् महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

मंत्रिपरिषद्

राजा को प्रशासनिक कार्यों में सलाह एवं सहयोग देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् (कौंसिल ऑफ मिनिस्टर्स) होती थी। विजयनगर में मंत्रिपरिषद् में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के कुल बीस सदस्य होते थे, जिनकी आयु 50 से 70 वर्ष के बीच होती थी। विजयनगरकालीन मंत्रिपरिषद् की तुलना कौटिल्य के मंत्रिपरिषद् के साथ की जा सकती है। मंत्रियों की बैठक एक सभाभवन में होती थी, जिसे ‘वेंकटविलासमानप’ कहा जाता था। मंत्रिपरिषद् का मुख्य अधिकारी महाप्रधान अथवा प्रधान होता था, किंतु इसकी अध्यक्षता सभानायक करता था। मंत्रिपरिषद् में महाप्रधान अथवा प्रधान के अलावा मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष तथा राज्य के विशेष निकट-संबंधी सम्मिलित होते थे। मंत्रियों का चयन नहीं होता था, बल्कि उन्हें राजा द्वारा नामित किया जाता था। कभी-कभार मंत्री पद आनुवंशिक भी होता था, किंतु यह सामान्य नियम नहीं था। यद्यपि शासकीय कार्यों के संचालन में मंत्रिपरिषद् की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी, किंतु राजा मंत्रिपरिषद् की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

प्रधान या महाप्रधानी

मंत्रिपरिषद् का प्रमुख अधिकारी प्रधान या महाप्रधान होता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री जैसी थी। इसकी तुलना मराठाकालीन पेशवा से की जा सकती है। कभी-कभी महाप्रधान भी मंत्रिपरिषद् की अध्यक्षता करता था।

केंद्रीय सचिवालय

शासकीय कार्यों के सफल संचालन के लिए केंद्र में एक संगठित सचिवालय की व्यवस्था थी, जिसमें विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग विभागों का वर्गीकरण किया गया था। अब्दुर रज्जाक तथा नुनिज दोनों ने सचिवालय की ओर संकेत किया है। अब्दुर रज्जाक ने सचिवालय का वर्णन दीवानखाना के रूप में किया है। यह सचिवालय संभवतः तेलुगु नामक ब्राह्मणों की एक नई उपजाति से नियंत्रित होता था। सचिवालय में रायसम् तथा कर्णिकम् (लेखाकार) जैसे मुख्य अधिकारी थे। रायसम् (सचिव) राजा के मौखिक आदेशों को लिपिबद्ध करता था, जबकि कर्णिकम् (एकाउंटेंट) सचिवालय से संबद्ध केंद्रीय कोषागार का अधिकारी होता था।

दंडनायक

केंद्र में दंडनायक नामक उच्च अधिकारी होता था। किंतु यह पद पद-बोधक न होकर विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को इंगित करता था। दंडनायक का अर्थ प्रशासन का प्रमुख और सेनाओं का नायक होता था। कहीं-कहीं मंत्रियों को भी दंडनायक की उपाधि दी जाती थी। दंडनायक को न्यायाधीश, सेनापति, गर्वनर या प्रशासकीय अधिकारी का कार्यभार सौंपा जा सकता था।

कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण अधिकारियों को कार्यकर्त्ता कहा जाता था, जो संभवतः प्रशासनिक अधिकारियों की ही एक श्रेणी होती थी। शाही मुद्रा रखने वाला अधिकारी मुद्राकर्त्ता कहा जाता था। रत्नों की रक्षा करने वाले अधिकारी, व्यापार का निरीक्षण करने वाले अधिकारी, पुलिस अध्यक्ष, राजा के स्तुति-गायक भाट, तांबूलवाहिनी, दिनपत्री प्रस्तुत करने वाले, नक्काशी करने वाले तथा अभिलेखों के रचयिता आदि कुछ अन्य अधिकारी भी नियुक्त होते थे।

विजयनगर के शासक अपनी राजधानी में भव्य दरबार का आयोजन करते थे, जिसमें मंत्री, नायक, प्रांतपति, पुरोहित, साहित्यक, ज्योतिषी, भाट, तांबूलवाहिनी तथा गायक आदि सभी उपस्थित रहते थे। राजदरबार में नवरात्र और महारामनवमी जैसे त्यौहार बड़ी शानो-शौकत से मनाये जाते थे।

विजयनगर का वैभव

विजयनगर की यात्रा करने वाले प्रायः सभी विदेशी यात्रियों, जैसे- निकोलो कोंटी, अब्दुर रज्जाक, डेमिंगो पायस, फर्नाओ नुनिज ने विजयनगर शहर की समृद्धि की प्रशंसा की है। यद्यपि 1565 ई. में तालीकोटा युद्ध के बाद इस नगर की शान-शौकत को काफी कुछ नष्ट कर दिया गया था, फिर भी बचे-खुचे अवशेष विजयनगर के अतीत के वैभव की कहानी के गवाह हैं। वास्तव में पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों में विजयनगर शहर विशाल दुर्गों से घिरा एक बृहदाकार नगर था। इटली के यात्री निकोली कोंटी ने लिखा है कि नगर की परिधि साठ मील है। इसकी दीवारें पहाड़ों तक चली गई हैं। अनुमान है कि इस नगर में अस्त्र धारण करने योग्य नब्बे हजार सैनिक हैं। राजा भारत के सभी अन्य राजाओं से अधिक शक्तिशाली है। फ़रिश्ता भी लिखता है कि, ‘बहमनी वंश के राजकुमार सिर्फ़ दिलेरी के बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये हुए हैं, अन्यथा शक्ति, समृद्धि और क्षेत्रफल में बीजानगर (विजयनगर) के राजा उनसे कहीं बढ़कर हैं।’ फ़ारस के यात्री अब्दुर रज्जाक (1442-1443 ई.) ने देवराय द्वितीय के समय में विजयनगर की यात्रा की थी। अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर के संबंध में लिखा है कि यह नगर संसार के देखे-सुने नगरों में सबसे भव्य है। नगर का घेरा लगभग 165,75 कि.मी. (64 मील) था। इसमें सात किले बने थे और सभी सुदृढ़ रक्षा-प्राचीरों से घिरे हुए थे। इनमें तीन आहातों में कृषि-योग्य जमीनें थीं। अंदर के चार आहातों में मुख्य नगर बसा हुआ था। राजकीय प्रासाद मध्य में स्थित था। प्रासाद के पास ही चार बाज़ार हैं, जो बहुत ही लंबे-चौड़े थे। रज्जाक के अनुसार राजा के कोष में गड्ढेयुक्त प्रकोष्ठ थे, जो पिघले हुऐ सोने की सिल्लियों से भरे थे। देश के सभी निवासी चाहे ऊँच हों अथवा नीच, यहाँ तक कि बाजार के शिल्पकार भी अपने कानों, गलों, बाँहों, कलाइयों तथा अंगुलियों में जवाहरात एवं सोने के आभूषण पहनते थे। पुर्तगाल के डोमिंगो पायस ने इस नगर के सुदृढ़ दुर्गीकरण, द्वारों, गलियों एवं राजमार्गों, सिंचाई के साधनों, उपवनों, बाजारों तथा मंदिरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पायस के अनुसार ‘यह नगर रोम नगर के समान था तथा राजा का प्रासाद लिस्बोन के सभी महलों से बड़ा था।’ उसने लिखा है कि इसके राजा के पास भारी खजाना है। उसके पास बहुत सैनिक एवं हाथी हैं, क्योंकि ये इस देश में बहुतायत से मिलते हैं। इस नगर में आपको प्रत्येक राष्ट्र एवं जाति के लोग मिलेंगे, क्योंकि यहाँ बहुत व्यापार होता है और बहुत-से बहुमूल्य पत्थर मुख्यतः हीरे पाये जाते हैं। यह संसार का सबसे संपन्न नगर है। ……..गलियाँ तथा बाजार अनगिनत लदे हुए बैलों से भरे रहते हैं।

प्रांतीय प्रशासन

प्रशासनिक सुविधा के लिए विजयनगर साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था, जिन्हें राज्य या मंडल या चावडी या पिर्थिक (कर्नाटक में) कहा जाता था। बड़े राज्यों को महाराज्य कहा जाता था। प्रांतों के भी छोटे-छोटे भाग थे, जिन्हें तमिल प्रदेशों में कोट्टम (कुर्रम), नाडु या वलनाडु और मेलाग्राम (ग्राम समूह) कहा जाता था।

कर्नाटक प्रांत में प्रांत के प्रशासकीय खंडों और उपखंडों के नाम तमिल प्रदेशों से भिन्न थे। वहाँ प्रांत को वेथ, सीमा, स्थल और वलित में विभाजित किया गया था। कुछ विद्वानों का विचार है कि मंडल प्रांत से बड़ी इकाई थी।

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई प्रांत (मंडल) थे। प्रांतों की संख्या सदैव एक नहीं रहती थी। किंतु कृष्णदेवराय के शासनकाल में प्रांतों की संख्या सर्वाधिक छः थी, जबकि डेमिंगो पायस ने 200 प्रांतों का उल्लेख किया है। संभवतः पायस ने कर या उपहार आदि देने वाले सभी जागीरदारों, अमरनायकों और प्रशासकों को प्रांतीय शासक मान लिया है। प्रांतों के विभाजन में सैनिक दृष्टिकोण को विशेष महत्त्व दिया जाता था। सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और सुदृढ़ दुर्ग से युक्त प्रदेश को प्रांत बनाया जाता था। प्रांतो का सीमाएँ तात्कालिक प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित होती रहती थीं। ऐसा साम्राज्य के उत्तरी प्रांतों के साथ अकसर होता रहता था क्योंकि ये प्रदेश विजयनगर और मुस्लिम सुल्तानों के अधिकार में आते-जाते रहते थे।

सामान्यतः प्रांतों में राजपरिवार के किसी सदस्य (कुमार या राजकुमार) या प्रभावशाली दंडनायक को ही प्रशासक नियुक्त किया जाता था, जिन्हें मंडलेश्वर, नाडा, नायक तथा महामंडेलश्वर कहा जाता था। प्रांतीय प्रशासकों को अपने-अपने प्रांतों के भीतर प्रशासनिक मामले में पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त थी। उन्हें प्रांत में अधिकारियों की नियुक्ति करने, आवश्यकतानुसार नये कानून बनाने, मुद्रा प्रवर्तित करने, कर वसूल करने, नये कर लगाने, पुराने कर को समाप्त करने एवं भूमिदान देने आदि की स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रांतपतियों का मुख्य दायित्व प्रांत की जनता का हित तथा कानून-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखना था। प्रांत के गर्वनर को भू-राजस्व का एक निश्चित अंश केंद्रीय सरकार को देना होता था और आवश्यकता पड़ने पर केंद्रीय सरकार को सैनिक सहायता भी देनी हो़ती थी। यदि वह अपनी आय का तिहाई भाग राज्य (केंद्र) के पास नहीं भेजता था, तो राज्य (केंद्र) उसकी संपत्ति जब्त कर सकता था।

प्रांतीय प्रशासकों का कार्यकाल उनकी सामरिक दक्षता, केंद्रीय शासक के प्रति स्वामिभक्ति तथा प्रशासनिक योग्यता पर निर्भर करता था, किंतु उसके विश्वासघाती सिद्ध होने अथवा प्रजा का शोषण एवं उत्पीड़न की शिकायत मिलने पर राजा प्रांतपति को पदच्युत् कर सकता था। सामान्यतः प्रांतपति शक्तिशाली राजाओं के शासनकाल में केंद्रीय सत्ता के प्रति स्वामिभक्त बने रहते थे, किंतु केंद्रीय शक्ति के क्षीण होते ही वे अपनी स्वतंत्रता घोषित करने से भी नहीं चूकते नहीं थे।

अमर नायक (नायंकर प्रणाली)

विजयनगर साम्राज्य की प्रांतीय व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता अमर नायक प्रणाली थी, जिसे ‘नायंकर प्रणाली’ कहा गया है। यद्यपि अमर नायक प्रणाली विजयनगर साम्राज्य की एक प्रमुख राजनीतिक खोज मानी जाती है, कितु ऐसा लगता है कि इस प्रणाली के कई तत्त्व दिल्ली सल्तनत की इक्ता प्रणाली से लिये गये थे। इसकी उत्पत्ति के संबंध में कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयनगर साम्राज्य में सेना-प्रमुख को ही नायक कहा जाता था, जो सामान्यतः किलों पर नियंत्रण रखते थे और जिनके पास सशस्त्र सैनिक होते थे। कुछ दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि नायक वास्तव में भू-सामंत होते थे, जिन्हें वेतन और सेना के रख-रखाव के लिए एक विशेष भू-खंड, जिसे ‘अमरम्’ (अमरमकारा या अमरमहली) कहा जाता था, दिया जाता था।

डी.सी. सरकार का विचार है कि यह एक प्रकार की जमींदारी प्रथा थी, जिसमें राजा की सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अमर नायकों को जमीन दी जाती थी। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार विजयनगर साम्राज्य में नायंकरों के इतिहास में एक विभाजक रेखा है। 1565 ई. के पहले के नायंकर एक प्रकार के सैनिक मुखिया थे, जबकि 1565 ई. के बाद के नायंकर एक प्रकार से अर्ध-स्वतंत्र हो गये।

वस्तुतः नायक सैनिक होते थे, जिन्हें सैनिक सेवा के बदले पद दिया जाता था और अमर नायक ऐसे सैनिक कमांडर होते थे, जिनके अधीन निश्चित संख्या में सैनिक रहते थे और जिन्हें राय द्वारा वेतन के बदले एक प्रकार का राज्य-क्षेत्र अमरम् दिया जाता था। अमर नायक अपने राज्य-क्षेत्र के किसानों, शिल्पकर्मियों तथा व्यापारियों से भू-राजस्व तथा अन्य कर वसूल करते थे और राजस्व का कुछ भाग व्यक्तिगत उपयोग तथा अपनी निर्धारित सेना के रख-रखाव के लिए अपने पास रखकर शेष हिस्सा केंद्रीय सरकार को भेज देते थे। सामान्यतः नायकों की सेना की संख्या तथा केंद्र को भेजे जाने वाले राजस्व के अंश का निर्धारण अमरम् भूमि के आकार (क्षेत्रफल) के आधार पर किया जाता था। फर्नाओ नुनिज के अनुसार भू-सामंतों को 120 लाख की आमदनी होती थी और इसमें से वह 60 लाख राजा को देता था।  सोलहवीं शती ई. के मध्य में ऐसे अमरनायकों की संख्या लगभग 200 तक पहुँच गई थी।

अमर नायक को अमरम् राज्य-क्षेत्र में शांति, सुरक्षा एवं अपराधों को रोकने के दायित्व का भी निर्वाह करना होता था। इसके अतिरिक्त, उन्हें जंगलों को साफ़ करवाना एवं कृषि-योग्य भूमि का विस्तार भी करना होता था। अमर नायकों (नायंकारों) के आंतरिक मामलों में राजा हस्तक्षेप नहीं करता था। केंद्रीय राजधानी में नायक का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो अधिकारी होते थे- एक तो नायक की सेना का सेनापति और दूसरा संबंधित नायक का एक प्रशासनिक अभिकर्ता, जिसे स्थानपति कहा जाता था। अमर नायक वर्ष में एक बार राजा को भेंट भेजा करते थे और अपनी स्वामिभक्ति प्रकट करने के लिए समय-समय पर राजकीय दरबार में उपहारों के साथ स्वयं उपस्थित हुआ करते थे।

राजा कभी-कभी नायंकारों को एक से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित कर उन पर अपना नियंत्रण दर्शाता था। अच्युतदेव राय ने अमर-नायकों की उदंडता पर नियंत्रण रखने के लिए एक विशेष अधिकारी महामंडलेश्वर (विशेष कमिश्नर) की नियुक्त की थी। किंतु इन नायकों के पद धीरे-धीरे आनुवांशिक होते गये और सत्रहवीं शताब्दी में इनमें से कई नायकों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये। कालांतर में वित्तीय और सैनिक साधनों की दृष्टि से सुदृढ़ अमर नायक केंद्रीय नेतृत्व के अक्षम होने पर स्वतंत्र होने तथा अपने शासित क्षेत्रों के विस्तार के लिए आपस में ही लड़ने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि जो तेलुगु नायक विजयनगर साम्राज्य की सैनिक शक्ति के मूल आधार थे, वहीं उसके प्रतिद्वंद्वी बन गये। इस प्रकार नायंकर प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से चाहे जितनी भी उपयोगी रही हो, आगे चलकर केंद्रीय ढाँचे के विघटन का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई।

कुछ इतिहासकार प्रांतीय व्यवस्था और नायंकर व्यवस्था में कोई भेद नहीं मानते। किंतु जहाँ प्रांतीय शासक या गवर्नर अपने प्रांत में राजा प्रतिनिधि होता था और राजा के नाम पर शासन करता था। वहीं इसके विपरीत अमर नायक मात्र एक सैनिक सामंत होता था और वित्तीय दायित्वों के निर्वहन के लिए उसे विशेष भू-क्षेत्र अमरम् दिया जाता था। प्रांतपतियों की अपेक्षा नायंकरों को अपने अमरम् में अधिक स्वायत्तता प्राप्त थी और सामान्यतः राजा इनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। प्रांतीय गवर्नरों की अपेक्षा नायंकरों के दायित्व भी अधिक थे। जंगलों को साफ करना, कृषि-योग्य भूमि का विस्तार करना और कृषि की रक्षा करना इनका प्रमुख दायित्व था। प्रांतीय गवर्नर प्रायः ब्राह्मण होते थे, लेकिन ब्राह्मण नायकों के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। सिद्धांततः अमर नायकों की जागीरें उनके वंशजों को नहीं मिलती थी, लेकिन व्यवहारतः धीरे-धीरे यह पद भी आनुवंशिक हो गया। प्रांतीय गवर्नरों के पदों को आनुवंशिक होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

स्थानीय प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासकीय सुविधा के लिए राज्य का विभाजन किया गया था। प्रायः तमिल प्रदेशों में प्रांत अथवा मंडल का विभाजन जिलों में किया गया था, जिन्हें कोट्टम (कुर्रम) कहा जाता था। कोट्टम को तालुकों या परगनों में बाँटा गया था, जिन्हें नाडु या वलनाडु कहते थे। नाडुओं का विभाजन एैयमबद मेलाग्राम (ग्राम समूह) में किया गया था। प्रत्येक मेलाग्राम में 50-50 उर या गाँव होते थे। कर्नाटक प्रांत में प्रांत के प्रशासकीय खंडों और उपखंडों के नाम तमिल प्रदेशों से भिन्न थे। वहाँ प्रांत को वेथ में, वेथ को सीमा में, सीमा को स्थल में और स्थल को वलित में विभाजित किया गया था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उर अथवा गाँव थे, जो आत्मनिर्भर थे।

ग्राम सभाएँ

चोलचालुक्य काल के समान विजयनगर साम्राज्य युग में भी ऊर, सभा तथा नाडु नामक स्वायत्तशासी संस्थाएँ प्रचलित थीं। विजयनगरकालीन स्थानीय प्रशासन के संदर्भ में भी इन सभाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें कहीं-कहीं महासभा, ऊर तथा महाजन सभा कहा जाता था। उदाहरण के लिए कावेरीपत्तम की सभा को महासभा और आगरमपुत्तूर की ग्रामसभा को महाजन सभा कहा गया है।

गाँव की सभा (ग्राम पंचायत) में स्थानीय समस्याओं पर विचार-विमर्श के लिए गाँव या क्षेत्र-विशेष के लोग भाग लेते थे। नई भूमि या अन्य प्रकार की संपत्ति उपलब्ध कराने, गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने, गाँव की भूमि को दान में देने के लिए ग्राम सभा को सामूहिक निर्णय लेने का अधिकार था। राजकीय कर संग्रह करना तथा भू-आलेखों को तैयार रखना भी इनका कर्तव्य था। ग्रामसभा के पास दीवानी एवं फ़ौजदारी के छोटे-छोटे मामलों में निर्णय करने का अधिकार भी था। यदि कोई भूस्वामी लंबे समय तक लगान नहीं दे पाता था, तो ग्राम सभाएँ उसकी ज़मीन जब्त कर सकती थीं। सार्वजनिक दानों और ट्रस्टों (न्यासों) की व्यवस्था भी यही ग्राम सभाएँ देखती थीं।

ग्राम अधिकारी

यद्यपि गाँव के प्रशासन के लिए ग्रामसभा (पंचायत) उत्तरदायी थी, किंतु समकालीन अभिलेखों में अनेक ग्राम अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। परुपत्यागर नामक अधिकारी किसी स्थान विशेष पर राजा या गवर्नर का प्रतिनिधि होता था। अधिकारी नामक एक अन्य सम्मानित अधिकारी प्रायः सभी गाँवों और नगरों में नियुक्त किया जाता था। अत्रिमार नामक अधिकारी ग्रामसभाओं और अन्य स्थानीय संगठनों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था। नत्तुनायकर संभवतः नाडुओं का अधीक्षक होता था। स्थल गौडिक नामक अधिकारी किलों के निर्माण-संबंधी कार्यों की देखभाल करता था। मध्यस्थ भूमि के क्रय-विक्रय से संबंधित अधिकारी था। सेनतेओवा गाँव का हिसाब-किताब रखता था, जबकि तलर गाँव का पहरेदार अथवा कोतवाल था। बेगरा नामक कर्मचारी गाँव में बेगार एवं मज़दूरी आदि की देखभाल करता था और निरानिक्कर (वाटरमैन) सिंचाई चैनलों की देखरेख करता था। गाँव के इन अधिकारियों का वेतन भूमि के रूप में अथवा कृषि की उपज के एक अंश के रूप में मिलता था।

आयंगार व्यवस्था

विजयनगर प्रशासन की एक अन्य प्रमुख विशेषता उसकी आयंगार व्यवस्था थी। आयंगार व्यवस्था मूलतः गाँवों के प्रशासन से संबंधित थी। यह व्यवस्था भी नायंकर व्यवस्था की भाँति संभवतः विजयनगर के शासकों की अपनी खोज थी। आयंगार व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक ग्राम एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया गया था और इन संगठित ग्रामीण इकाइयों के प्रशासनिक संचालन के लिए बारह प्रशासकीय अधिकारियों का एक समूह नियुक्त किया गया था, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘आयंगार’ कहा जाता था। आयंगारों एक प्रकार के ग्राम-सेवक माना जा सकता है, जिसमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होता था। यद्यपि आयंगारों की नियुक्ति केंद्रीय सरकार करती थी और वे अवैतनिक होते थे, किंतु उनकी सेवाओं के बदले उन्हे गाँव में लगान-मुक्त भूमि दी जाती थी। बाद में आयंगार का पद अनुवांशिक हो गया था, जिससे वे अपने पदों को गिरवी रख सकते थे अथवा बेच सकते थे।

आयंगारों का प्रमुख कार्य लगान की वसूली, गाँव की जमीन की खरीद-फरोख्त, दान एवं हस्तांतरण आदि पर नियंत्रण रखना था। इन अधिकारियों (आयंगारों) की अनुमति के बगैर ग्राम स्तर की कोई भी संपत्ति या भूमि न तो बेची जा सकती थी, और न ही दान दी जा सकती थी। ज़मीन के क्रय-विक्रय से संबंधित समस्त दस्तावेज आयंगर के पास ही रहते थे। अपने अधिकार क्षेत्र में शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने की जिम्मेदारी इन्हीं आयंगारों पर थी। कर्णिक (लेखाकार) नामक अधिकारी जमीन की खरीद-फरोख्त की लिखा-पढ़ी करता था। विजयनगर के राजा महानायकाचार्य नामक अधिकारी द्वारा गाँव के प्रशासन से अपना संबंध बनाये रखते थे। वस्तुतः विजयनगर के शासकों ने आयंगार व्यवस्था की स्थापना कर एक प्रकार से स्थानीय स्वशासन का गला घोंट दिया था।

अर्थव्यवस्था और आर्थिक जीवन

प्रायः सभी स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर साम्राज्य में असीम समृद्धि थी। इस साम्राज्य की यात्रा करने वाले विभिन्न विदेशी यात्रियों, जैसे-इटली के निकोली कोंटी, पुर्तगाल के डोमिंगो पायस तथा फारस के अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर की समृद्धि की बड़ी प्रशंसा की है। प्रायः सभी विदेशी यात्रियों के विवरणों से ज्ञात होता है कि उच्च वर्ग के लोगों के रहन-सहन का स्तर बहुत ऊँचा था। वास्तव में, विजयनगर की समृद्धि का मूल कारण समुन्नत कृषि, व्यापार-वाणिज्य और उद्योग था।

कृषि-व्यवस्था और भू-स्वामित्व

विजयनगर की समृद्धि का मुख्य आधार कृषि-व्यवस्था थी। नुनिज के अनुसार समस्त भूमि पर राजा का अधिकार था, जिन्हें वह अपने नायकों व सरदारों को दे देता था। नायक व सरदार इस भूमि को कृषकों को देते थे। किंतु विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर में भू-उपयोग के आधार पर कई प्रकार के भू-स्वामित्व का प्रचलन था। ‘भंडारवाड’ ग्राम ऐसे गाँव थे, जिनकी भूमि राज्य के सीधे नियंत्रण में होती थी। इन गाँवों के किसान नियत भू-राजस्व देते थे। ‘मान्य भूमि’ भूमि ब्राह्मणों, मंदिरों या मठों को दान में दी जाती थी, जो पूरी तरह करमुक्त होती थी। ब्राह्मणों को दान में दी गई भूमि ‘ब्रह्मदेय’ तथा मंदिरों को दान में दी गई भूमि ‘देवदेय’ कहलाती थी। मंदिरों पास सुरक्षित भूमि को ‘देवदान’ कहा जाता था। मठों को दान में दी गई करमुक्त भूमि ‘मठीपुर’ कहलाती थी।

नायकों को उनके वेतन और उनकी सेना के रख-रखाव के लिए दी गई भूमि ‘अमरम’ कहलाती थी। गाँव को कुछ विशेष सेवाओं के बदले दी जाने वाल करमुक्त भूमि को ‘उंबलि’ कहते थे। युद्ध में शौर्य-प्रदर्शन करनेवालों को दी जानेवाली भूमि को ‘रक्त’ (खत्त) कहा जाता था। ब्राह्मणों अथवा बड़े भू-स्वामियों द्वारा खेती के लिए किसानों को पट्टे पर दी जाने वाली भूमि ‘कुट्टगि’ कही जाती थी। कुट्टगि लेने वाले पट्टेदारों को कुछ विशेष शर्तों का निर्वाह करना पड़ता था। उदाहरणार्थ- उसे उपज का निश्चित अंश नकद या जिंस के रूप में कुट्टगि-भूस्वामी को देना पड़ता था और उसकी इच्छानुसार फसल की बुआई करनी पड़ती थी। पट्टेदार और भूस्वामी के बीच उपज की हिस्सेदारी को ‘वारम व्यवस्था’ कहते थे। कृषि-मजदूरों को ‘कुदि’ कहा जाता था। वास्तव में कुदि ऐसे खेत मज़दूर होते थे, जो भूमि के क्रय-विक्रय के साथ ही हस्तांतरित हो जाते थे, किंतु उन्हें इच्छापूर्वक कार्य से विलग नहीं किया जा सकता था।

जलापूर्ति एवं सिंचाई

विजयनगर साम्राज्य में न तो सिंचाई का कोई विभाग था, न ही राज्य की ओर से इस दिशा में कोई विशेष प्रयास किया जाता था। फिर भी, सिंचाई के मुख्य साधन तालाब, बाँध तथा नहर थे। विदेशी यात्रियों के विवरणों और समकालीन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सिंचाई की सुविधा के लिए साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में नये तालाबों का निर्माण और पुराने तालाबों का विवर्द्धन व जीर्णोद्धार करवाया गया था। तुंगभद्रा नदी के पास उपजाऊ कृषि क्षेत्रों की सिंचाई के लिए नदी के पानी को टैंकों तक ले जाने के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाकर नहरें खोदी गई थीं। विजयनगर प्रशासन कुंओं की खुदाई को भी प्रोत्साहित करता था, जिसकी निगरानी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा की जाती थी।

सिंचाई के साधनों के विकास में मंदिर, मठ तथा व्यक्तिगत लोग तथा संस्था का ही योगदान था। इस समय सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना धर्मकार्य समझा जाता था और ऐसा करने वाले को राज्य की ओर से करमुक्त भूमि दी जाती थी। सिंचाई के साधनों की रक्षा तथा व्यवस्था की जिम्मेदारी सामुदायिक थी। उत्खनन में प्राप्त जल-वितरण प्रणाली के अवशेषों से पता चलता है कि राजधानी शहर में जल की आपूर्ति और उसके संरक्षण के लिए एक विकसित जल-आपूर्ति प्रणाली थी। राजधानी शहर में बड़े टैंकों का निर्माण राज्य की ओर से किया गया था, जबकि छोटे टैंकों का निर्माण सामाजिक और धार्मिक लोगों द्वारा ही करवाया गया था।

प्रमुख उपजें

साम्राज्य की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर निर्भर थी। समय-समय पर राज्य की ओर से भूमि की पैमाइश कराई जाती थी, किंतु पूरे साम्राज्य में यह समान व्यवस्था न थी। संपूर्ण भूमि मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित थी-(1) सिंचित तथा (2) असिंचित या शुष्क। गीली भूमि को नन्जाई कहा जाता था। सिंचित भूमि में दो या तीन फसलें ली जाती थीं। अनाजों में चावल, दालें, चना तथा तिलहन मुख्य रूप से उगाये जाते थे। चावल मुख्य उपज थी, जो दो प्रकार का होता था- सफेद और काला। ‘कुरवाई’ भी एक प्रकार का चावल था। सुपारी, (चबाने के लिए) और नारियल प्रमुख नकदी फसलें थीं। कपास का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था, जिससे कपड़ा उद्योग के लिए धागे की आपूर्ति आसानी से हो जाती थी। नारियल तो तटवर्ती प्रदेशों की प्रमुख उपज थी। नील तथा ईख की भी खेती होती थी। इसके अतिरिक्त हल्दी, काली मिर्च, इलायची और अदरक जैसे मसाले सुदूर मलनाड पहाड़ी क्षेत्र में उगाये जाते थे। फल-फूल और बागवानी की खेती भी बड़े पैमाने पर होती थी। अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर में बड़ी संख्या में गुलाब के व्यापारियों को देखा था।

किसानों की स्थिति

विजयनगर साम्राज्य में किसानों की आर्थिक स्थिति पर इतिहासकार एक मत नहीं है। किंतु माना जाता है कि सामान्य नागरिक की आर्थिक स्थिति लगभग पहले जैसी ही रही। उनके मकान मिट्टी और फूस के थे, जिनके दरवाज़े भी छोटे थे। वे अक्सर नंगे पाँव चलते थे और कमर के ऊपर कुछ भी नहीं पहनते थे। सोलहवीं शताब्दी का यात्री निकितिन कहता है कि, ‘देश में जनसंख्या बहुत अधिक है, लेकिन ग्रामीण बहुत ग़रीब हैं, जबकि सामंत समृद्ध हैं और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनंद उठाते हैं।’

राजस्व-व्यवस्था

विजयनगर के शासक राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। इसका एक प्रमुख कारण तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति थी क्योंकि विजयनगर को बार-बार बहमनी के सुलतानों और उड़ीसा के गजपतियों के आक्रमणों का सामना करना पड़ता था। फलतः विजयनगर के शासकों ने हरसंभव स्रोत से राजकीय कोष को समृद्ध करने का प्रयास किया।

भूमिकर

विजयनगर की राजकीय आय का प्रधान स्रोत भूमिकर था, जिसे ‘शिष्ट’ कहा जाता था। भू-राजस्व से संबंधित विभाग को ‘अथवन’ (अस्थवन) कहा जाता था। राज्य के राजस्व की वसूली उपज (जिंस) एवं नकद दोनों रूपों में की जाती थी। नगद राजस्व को ‘सिद्धदाय’ (सद्दम) कहा जाता था।

विजयनगर के शासकों ने विभेदकारी कर-पद्धति (भूमि की सापेक्ष उर्वरता के अनुसार कर) अपनाई और संपूर्ण भूमि की पैमाइश करवाई। विजयनगर में संपूर्ण भूमि को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया था, जैसे- सिंचित भूमि, असिंचित भूमि, वन और जंगल। यद्यपि भू-उपयोग की स्थिति, भूमि की उर्वरता तथा उस पर उगाई जाने वाली फसल के आधार पर जमीन का वर्गीकरण करके भू-राजस्व की दर निर्धारित की जाती थी, किंतु भू-राजस्व के निर्धारण में भूमि में होने वाली उपज और उसकी किस्म का सर्वाधिक महत्त्व था।

यद्यपि भू-राजस्व की दर भूमि की उत्पादकता एवं उसके भू-उपयोग के अनुसार तय की जाती थी, किंतु अनाज, भूमि, सिंचाई के साधनों के अनुसार लगान की दर अलग-अलग होती थी। नूनिज का यह कहना सही नहीं है कि किसानों को अपनी उपज का दसवाँ भाग कर के रूप में देना पड़ता था। एक आलेख के अनुसार करों की दर संभवतः इस प्रकार थी-सर्दियों में चावल की एक किस्म ‘कुरुबाई’ का 1/3 भाग, सीसम, रागी और चने आदि का 1/4 भाग, ज्वार और शुष्क भूमि पर उत्पन्न होने वाले अन्य अनाजों का 1/6 भाग भूराजस्व लिया जाता था। नीलकंठ शास्त्री भी मानते हैं कि आमतौर पर राजस्व परंपरागत षष्टांश (1/6) से सकल उपज के आधे (1/2) भाग तक होता था। किंतु कुछ इतिहासकारों का विचार है कि विजयनगर शासकों को बहमनी सुल्तानों और गजपतियों की शत्रुता के कारण एक विशाल सेना रखनी पड़ती थी, इसलिए सैनिक आवश्यकता के कारण यहाँ भूमिकर की दर कुछ अधिक थी। सैन्य खर्चों को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों तथा मंदिरों के स्वामित्व वाली भूमि पर उपज का क्रमशः मात्र बीसवाँ (1/20) तथा तीसवाँ भाग (1/30) ही शिष्ट (लगान) वसूल किया जाता था। तेलुगु जिलों में मंदिर कर को ‘श्रोत्रिय’ कहा जाता था, तमिल भाषी जिलों में इसे ‘जोड़ी’ कहा जाता था। संभवतः कभी-कभार सैनिकों के रख-रखाव के लिए सैनिक कर भी वसूल किया जाता था।

सिंचाई कर

राजकीय आय का एक अन्य प्रमुख स्रोत था- सिंचाई कर। सिंचाई कर उन किसानों से लिया जाता था, जो सिंचाई के साधनों का उपयोग करते थे। सामान्यतः राज्य की ओर से सिंचाई का कोई अलग विभाग नहीं था, किंतु कृष्णदेवराय जैसे कुछ शासकों ने सिंचाई के लिए बाँध बनवाकर नहरें निकलवाई थी। तमिल प्रदेश में सिंचाई कर को ‘दासबंद’ (दसावंद) एवं आंध्र प्रदेश व कर्नाटक में ‘कट्टकोडेज’ (कटट्कोडर्गे) कहा जाता था।

भू-राजस्व एवं सिंचाई कर के साथ-साथ विजयनगर की जनता को अन्य अनेक प्रकार के करों, जैसे- चुंगी तथा सीमा-शुल्क, औद्योगिक शुल्क, लाइसेंस शुल्क, पंजीयन शुल्क, बिक्री कर, संपत्ति शुल्क, उद्यान शुल्क का भी भुगतान करना पड़ता था। जिन जमीनों पर खेती नहीं होती थी, उस पर चारागाह कर ‘जीवधनम्’ की वसूली की जाती थी।  आवासीय संपत्ति से संबंधित करों को ‘इलारी’ कहा जाता था। डकैती और आक्रमण से चल और अचल संपत्ति की सुरक्षा के लिए दुर्गावर्तन, दन्नयवर्द्धन और कवाली कनिके जैसे कर वसूल किये जाते थे। पुलिस कर को ‘अरसुस्वतंत्रम्’ कहा जाता था।

सामाजिक तथा सामुदायिक करों में विजयनगर साम्राज्य में प्रचलित ‘विवाहकर’ अत्यंत रोचक है, जो वर तथा कन्या दोनों पक्षों से लिया जाता था। कृष्णदेवराय ने विवाह कर को माफ कर दिया था। किंतु विधवा विवाह कर से मुक्त था। इससे लगता है कि विजयनगर के शासक विधवाओं की स्थिति में सुधार करने के लिए प्रयासरत थे।

वास्तव में, समकालीन अर्थव्यवस्था से जुड़ा ऐसा कोई वर्ग नहीं था, जिससे कुछ न कुछ कर न लिया जाता रहा हो। यहाँ तक कि बढ़इयों, नाइयों, धोबियों, चर्मकारों, कुम्हारों, भिखारियों, मंदिरों, वेश्याओं तक को भी कर देना पड़ता था। बढ़इयों पर लगने वाले कर को ‘कसामी गुप्त’ कहा जाता था। सदाशिव राय के शासनकाल में रामराय ने नाइयों को कर से मुक्त कर दिया था। कहा जाता है कि कौडोंजा नामक एक नाई की सेवा से प्रसन्न होकर रामराय ने संपूर्ण नाई जाति को बेगार और कर से मुक्त कर दिया था। लोकप्रिय मंदिरों से ‘पेरायम’ नामक आगंतुक शुल्क लिया जाता था। विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले कुछ अन्य कर भी थे, जैसे- कदमाई, मगमाई, कनिक्कई, कत्तनम, कणम, वरम, भोगम, वारिपत्तम, इराई और कत्तायम आदि।

सामान्यतः कर-संग्रह का कार्य प्रांतीय सरकारें तथा स्वायत्त संस्थाएँ करती थीं, लेकिन उच्चतम् बोली बोलने वाले को लगान वसूल करने का ठेका देने की पद्धति भी चलन में थी। ठेकेदारी अथवा नीलामी की यह पद्धति कृषिभूमि तक ही सीमित नहीं थी। व्यापारिक महत्त्व के स्थानों को भी इसी तरह नीलाम किया जाता था। इस दृष्टि से विजयनगर के नगरद्वार के समीपवर्ती क्षेत्र का, जहाँ वणिक एकत्र होते थे, विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। नुनिज के अनुसार यह द्वार प्रतिवर्ष 1200 परदान पर नीलाम किया जाता था और इस द्वार से कोई भी स्थानीय या विदेशी व्यक्ति उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता था, जब तक वह उतनी राशि नहीं अदा कर देता था, जितनी ठेकेदार माँगता था।

कोषागार

राजस्व के संग्रह के लिए राजप्रासाद से संबद्ध दो कोषागार थे। दैनिक वसूली और व्यय के लिए एक छोटा कोषागार था। बड़े कोषागार में सामंतों तथा महामंडलेश्वरों से प्राप्त बड़े एवं बहुमूल्य उपहारों को जमा किया जाता था। पायस के अनुसार इसे तालों में बंदकर मुहर लगाकर रखा जाता था, केवल विशेष परिस्थितियों और दैवी आपदाओं के समय ही इसे खोला जाता था।

राजकीय व्यय के मद

राज्य की आमदनी मुख्यतः राजप्रासाद के रख-रखाव, सैनिक व्यवस्था तथा दातव्य (धर्मस्व) निधि के मद में खर्च की जाती थी। कृष्णदेवराय ने आमुक्तमाल्यद में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि राज्य की आय चार हिस्सों में बाँटी जानी चाहिए। एक हिस्सा राजप्रासाद एवं धर्मस्व के मदों पर, दो हिस्सा सेना के रख-रखाव पर और शेष को एक संचित कोषागार में जमा किया जाना चाहिए।

विजयनगर साम्राज्य की कराधान व्यवस्था के संबंध में कुछ विद्वानों मानते हैं कि यहाँ कर की दर अधिक थी और जनता कर के बोझ से दबी थी। वास्तव में, समकालीन परिस्थितियों में सैन्यीकरण की आवश्यकता के अनुरूप साम्राज्य में करों का अधिक होना स्वाभाविक था। यद्यपि विजयनगर में संभवतः करों की दर बहुत अधिक थी, किंतु आपात स्थिति में राज्य द्वारा करों को माफ भी किया जाता था या कम कर दिया जाता था।

उद्योग एवं व्यापार

विजयनगर साम्राज्य में व्यापार मुख्यतः चेट्टियों के हाथों में केंद्रित था। इस समय के प्रमुख व्यवसायों में कपड़ा बुनाई, खानों की खुदाई, धातु-शोधन आदि शामिल थे। इतालवी यात्री बार्थेमा (1505 ई.) के अनुसार कैम्बे के निकट बड़ी मात्रा में सूती वस्त्रों का निर्माण होता था। छोटे व्यवसायों में गंधी का पेशा (इत्र) पेशा सबसे महत्त्वपूर्ण था। दस्तकार वर्ग के व्यापारियों को ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था, किंतु स्वर्णकार, लौहकार तथा वर्धकि (बढ़ई) का सामाजिक स्तर जुलाहों, कुम्हारों, चर्मकारों, कलालों तथा तेलियों की तुलना में ऊँचा था। विविध उद्योगों में लगे शिल्पी और व्यापारी श्रेणियों में संगठित थे। अब्दुर रज्जाक लिखता है कि प्रत्येक पृथक् संघ अथवा शिल्प के व्यापारियों की दुकानें एक दूसरे के निकट हैं। पायस भी कहता है कि प्रत्येक गली में मंदिर है, क्योंकि ये (मंदिर) सभी शिल्पियों तथा व्यापारियों की संस्थाओं के होते हैं।

किंतु शिल्प-श्रेणियाँ चेट्टियों की वणिक श्रेणियों की तुलना में कम शक्तिशाली थीं और एक प्रकार से उन्हीं के नियंत्रण में तथा उन्हीं के लिए कार्य करती थीं। इसका कारण यह था कि आर्थिक दृष्टि से वणिक श्रेणियाँ ज्यादा शक्तिशाली थीं। व्यापारिक वस्तुओं में पूँजी लगाने के साथ-साथ वितरण का नियंत्रण भी उन्हीं के हाथ में था।

आंतरिक व्यापार

विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- देश का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार। व्यापार जल तथा स्थल दोनों मार्गों से होता था। देश के आंतरिक व्यापार के लिए यातायात के सस्ते साधन के रूप में कावड़ी, सिर पर बोझ ढोने वाले, लद्दू घोड़े, लद्दू बैल, गाड़ियाँ एवं गधे आदि का प्रयोग होता था। स्थानीय व्यापार में बाजारों तथा मेलों का बड़ा महत्त्व था। उत्सव के समय मंदिरों की ओर जाने वाले मुख्य मार्गों पर नियतकालीन मेले लगते थे, जिनकी देखभाल व्यापारिक संघ का अध्यक्ष (पट्टनस्वामी) करता था। नगरीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए नाडु के मुखियों के आदेशों पर मेले लगाये जाते थे। इसके अतिरिक्त, नगरों में अलग से बाजार होते थे, जहाँ व्यापारी अपना व्यवसाय करते थे। विशेष वस्तुएँ विशेष बाजारों में ही बिकती थीं।  साम्राज्य की राजधानी हम्पी एक संपन्न व्यापारिक केंद्र थी, जहाँ बड़ी मात्रा में कीमती रत्नों और सोने का बाजार था। कृषि उत्पादनों तथा गैर-कृषि उत्पादनों के बाजार भी अलग-अलग होते थे। कृषि उत्पादनों का व्यापार ज्यादातर दायें हाथ की जातियों के द्वारा होता था। गैर-कृषि उत्पादनों के व्यापार तथा चल-शिल्पों पर बायें हाथ की जातियों का अधिकार था।

विदेश व्यापार

विजयनगर के राजे विदेशी व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन तथा संरक्षण देते थे। विजयनगर राज्य के संपन्न व्यापार से आकर्षित होकर कई राष्ट्रीयताओं के व्यापारी (अरब, फारसी, गुजरात, खोरासानियन) कालीकट में बस गये थे। इस विदेश व्यापार में समुद्रतटीय बंदरगाहों की अहम भूमिका थी। अब्दुर रज्जाक के अनुसार संपूर्ण साम्राज्य में 300 बंदरगाह थे। इस समय कालीकट, मैंगलोर, होनावर, भटकल, बरकुर, कोचीन, कन्नानोर, मछलीपट्टनम् और धर्मदाम के बंदरगाह सबसे महत्त्वपूर्ण थे। मालाबार तट पर सर्वाधिक  प्रसिद्ध बंदरगाह कालीकट था। विजयनगर के विदेशी व्यापार में भारतीयों की भूमिका कम, विदेशियों की भूमिका अधिक थी। बारबोसा के अनुसार भारतीय समुद्री व्यापार पर मुस्लिम सौदागरों का पूर्ण नियंत्रण था।

विजयनगर का विदेश व्यापार मलय द्वीपसमूह, बर्मा, चीन, अरब, ईरान, फारस, दक्षिण अफ्रीका, अबीसीनिया तथा पुर्तग़ाल आदि देशों से होता था। अब्दुर रज्जाक के अनुसार चुंगीघरों के अधिकारी व्यापारिक सामानों की जाँच-पड़ताल करते थे और बिक्री पर 40वाँ हिस्सा कर के रूप में वसूल करते थे। विजयनगर से चावल, काली मिर्च, अदरक, दालचीनी, इलायची, हरड़, नारियल, ज्वार, रंग, चंदन की लकड़ी, सागौन की लकड़ी, इमली की लकड़ी, लौंग, अदरक, दालचीनी, सूती कपड़े, लोहे, इस्पात, सोना, चाँदी, हीरे, इत्र, शोरा, चीनी, ताड़-गुड़ आदि आदि का बड़े पैमाने पर निर्यात किया जाता था। इतालवी यात्री बार्थेमा (1505 ई.) के अनुसार कैम्बे से प्रतिवर्ष सूती एवं सिल्क वस्त्रों से लादे हुए 40 या 50 जहाज विभिन्न देशों में भेजे जाते थे। देशी तकनीक द्वारा तैयार किये गये रंगीन मुद्रित कपड़े जावा और सुदूरपूर्व में निर्यात किये जाते थे। सूती धागे को बर्मा और नील को फारस भेजा जाता था। मलक्का के साथ कालीमिर्च का अच्छा व्यापार होता था। विजयनगर में हीरे की खानें अधिक थीं। नुनिज ने हीरों के ऐसे बंदरगाह की चर्चा की है, जहाँ की हीरों की खानें दुनिया में सबसे बड़ी थीं। मछलीपट्टनम् का समृद्ध खनिज क्षेत्र उच्च गुणवत्ता वाले लौह और इस्पात निर्यात के लिए प्रवेश द्वार था।

विजयनगर साम्राज्य में आयात की जाने वाली वस्तुओं में घोड़े का सर्वाधिक महत्त्व था। घोड़ों के व्यापार पर पहले अरबों का नियंत्रण था, किंतु बाद में इस पर पुर्तगालियों ने नियंत्रण कर लिया। घोड़े अरब, सीरिया तथा तुर्की के पश्चिमी सामुदायिक बंदरगाहों से लाये जाते थे। बहमनी सुल्तानों और उड़ीसा के गजपतियों से लगातार लड़ते रहने के कारण सैन्य-दृष्टि से विजयनगर को बड़ी संख्या में घोड़ों की आवश्यकता थी। नुनिज ने लिखा है कि विरूपाक्ष के शासनकाल में सालुव नरसिंह ओरमुज तथा अदन से घोड़े मँगाता था और उन्हें मुँहमाँगी कीमत अदा करता था। विजयनगर राज्य पहले मध्य एशिया से आयातित अच्छी नस्ल के घोड़े उत्तर भारत से मँगाता था। लेकिन बहमनी राज्यों के साथ संघर्ष से जब इसमें बाधा आई, तो विजयनगर ने पुर्तगालियों से मधुर संबंध बनाने की पहल की। कृष्णदेवराय ‘आमुक्तमाल्यद’ में कहता है कि राजा को अपने देश के बंदरगाहों का सुधार करना चाहिए, जिससे व्यापार में सुधार हो तथा घोड़े, हाथी, कीमती रत्न, चंदन, मोती तथा अन्य सामग्रियों का देश में स्वतंत्र रूप से आयात हो।

घोड़े के अलावा, विजयनगर में आयात की जाने वाली अन्य प्रमुख वस्तुएँ थीं- मदिरा, हाथीदाँत, मोती, ताँबा, सिंदूर, मूँगा, केसर, बहुमूल्य पत्थर, पारा, रेशम, रंगीन मखमल, गुलाब जल, चाकू, रंगीन ऊंटसोना, चाँदी, पॉम, मसाले, नमक आदि। मखमल मक्का से तथा साटन व रेशमी जरीदार एवं बूटेदार कपड़ा चीन, जिद्दा तथा अदन से आयात किया जाता था। रेशम चीन से आता था और चीनी बंगाल से। मोती फ़ारस की खाड़ी से तथा बहुमूल्य पत्थर पेगु से मँगाये जाते थे। मसाले दक्षिण-पूर्व एशिया से आते थे। सोना-चाँदी तथा हाथी श्रीलंका तथा पेगु से मँगाये जाते थे।

तटवर्ती एवं सामुद्रिक व्यापार के लिए जहाजों का प्रयोग किया जाता था। अभिलेखीय प्रमाणों से लगता है कि विजयनगर के शासक जहाजी बेड़े रखते थे तथा पुर्तगालियों के आगमन के पहले वहाँ के लोग जहाज बनाने की कला से परिचित थे। बारबोसा के लेखानुसार दक्षिण भारत के जहाज मालदीप द्वीपों में बनते थे। कोंटी के अनुसार भारतीय जहाज इटली के जहाज से बड़े, किंतु चीन के जहाज से छोटे थे। भारत के बंदरगाहों पर आने वाले जहाजों में चीनी जहाज सर्वश्रेष्ठ थे। इनसे प्रतिदिन लगभग 64 किमी. की यात्राएँ हो जाती थीं। बारबोसा के अनुसार लालसागर से लौटने पर सौदागरों की स्थानीय लेन-देन में एक नायक अंगरक्षक, एक चेट्टि लेखाकार तथा एक दलाल सहायता प्रदान करते थे।

मुद्रा प्रणाली

विजयनगर साम्राज्य में विदेश व्यापार उन्नत अवस्था में था, इसलिए वस्तु-विनिमय की अपेक्षा मुद्रा की अधिक आवश्यकता थी। मुद्रा-निर्माण के संदर्भ में अब्दुर रज्जाक ने राजकीय टकसाल का उल्लेख किया है। वास्तव में, विजयनगर साम्राज्य में केंद्रीय टकसाल के साथ-साथ प्रत्येक प्रांत की राजधानी में भी प्रांतीय टकसालें होती थीं।

विजयनगर में मुख्यतः स्वर्ण एवं ताँबें के मुद्राएँ ही प्रचलित थीं और चाँदी की मुद्राओं का प्रचलन बहुत कम था। यद्यपि सोने की मुद्राएँ ‘वराह’ और ‘पेरदा’ कहलाती थीं, लेकिन विजयनगर की सर्वाधिक प्रसिद्ध मुद्रा सोने का वराह थी, जिसका वज़न 52 ग्रेन होता था। वराह को विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लेख किया है। सोने की छोटी मुद्राओं या आधे वराह को (26 ग्रेन) को ‘प्रताप’ (परताब) तथा प्रताप के आधे को ‘फणम’ (फनम) कहा जाता था। मिश्रित मुद्राओं में फणम सबसे ज्यादा उपयोगी था। चाँदी की छोटी मद्राओं को ‘तार’ (फणम का छठवाँ हिस्सा) कहा जाता था। ताँबे का सिक्का ‘डिजटेल’ कहलाता था, जो तार के एक तिहाई मूल्य के बराबर होता था। विजयनगर के तटीय क्षेत्रों में स्थानीय मुद्राओं के साथ-साथ पुर्तगाली कुज्रेडा, फारसी मुदा दीनार, इटली के प्लोरीन तथा दुकत डुकटे जैसी विदेशी मुद्राएँ भी प्रचलित थीं।

विजयनगर के शासकों की मुद्राओं पर विभिन्न देवताओं एवं पशुओं के प्रतीक टंकित होते थे, जो शासकों के धार्मिक विश्वास के अनुसार बदलते रहते थे। इस साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम के सोने की मुद्राओं (वराह) पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ मिलती हैं। तुलुव वंश के शासकों की मुद्राओं पर बैल, गरुड़, शिव, पार्वती और कृष्ण की आकृतियों तथा सदाशिव राय की मुद्राओं पर लक्ष्मी एवं नारायण की आकृतियों का अंकन है। अराविदु वंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे, इसलिए उनकी मद्राओं पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित हैं।

अर्थव्यवस्था में मंदिरों की भूमिका

विजयनगर के आर्थिक जीवन में मंदिरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। बड़े पैमाने पर मंदिरों के निर्माण से हजारों राजमिस्त्रियों, मूर्तिकारों और अन्य कुशल कारीगरों को रोजगार मिला। पायस लिखता है कि प्रत्येक गली में मंदिर हैं और वे किसी न किसी शिल्प से संबंधित हैं। बड़े-बड़े मंदिरों को सैकड़ों गाँवों का अनुदान दिया जाता था, जिसे ‘देवदान’ कहा जाता था। मंदिर बंजर भूमि खरीदकर और उस पर जुलाहों को बसाकर अथवा सिंचाई योजनाओं का निरीक्षण कर ग्राम विकास को प्रोत्साहन देते थे। मंदिर राज्य की सिंचाई व्यवस्था में भी सहयोग करते थे। मंदिरों के अपने व्यापारिक संघ थे, जो अपनी निधि का उपयोग विभिन्न कार्यों में करते थे। मंदिर बैंकिंग गतिविधियों में भी सक्रिय भागीदारी निभाते थे और कृषि और व्यापार के अतिरिक्त आपदा के समय ब्याज पर ऋण देते थे। ऋण पर ब्याज की दर 12 प्रतिशत से 30 प्रतिशत वार्षिक तक होती थी। यदि ऋणी ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसकी भूमि मंदिर की हो जाती थी। इस प्रकार प्राचीन राज्यों के समान विजयनगर राज्य में भी भू-स्वामी तथा श्रमिकों के सेवा-नियोजक के रूप में मंदिरों की सार्वजनिक अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।

सैन्य-संगठन

विजयनगर साम्राज्य के सैनिक विभाग को कंदाचार कहा जाता था। यद्यपि इस विभाग का उच्च अधिकारी महादंडनायक या सेनापति होता था, किंतु राजा स्वयं भारतीय युद्ध-नीति एवं परंपरा के अनुसार युद्धभूमि में अग्रिम पंक्ति में रहकर सेना का संचालन करता था। विजयनगर में दो प्रकार की सेनाओं के अस्तित्व की सूचना मिलती है- एक, केंद्रीय सेना, जो सीधे साम्राज्य द्वारा भर्ती की जाती थी और दूसरे,  प्रत्येक दंडनायक तथा प्रांतीय शासक की सेना।

साम्राज्य की विशाल एवं कार्यक्षम सेना में मुख्यतया पैदल, घुड़सवार, हाथी और ऊँट शामिल होते थे। पैदल सेना में भिन्न-भिन्न वर्गों एवं धर्मों के लोग (यहाँ तक कि मुसलमान भी) सम्मिलित किये जाते थे। विदेशी यात्री डोमिंगो पायस के अनुसार कृष्णदेवराय की सेना में 3600 अश्वारोही, सात लाख पदाति तथा 651 हाथी थे। भारत में अच्छे नस्ल के घोड़ों की कमी थी, इसलिए विजयनगर की घुड़सवार सेना के लिए पुर्तगाली व्यापारियों से उत्तमकोटि के अरबी तथा ईरानी घोड़े खरीदे जाते थे। जब पुर्तगालियों ने अरब तथा फारस के व्यापारियों को हटाकर घोड़े के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया, तो कृष्णदेवराय ने अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए पुर्तगालियों से मैत्री-संबंध स्थापित किया।

तत्कालीन लेखों के अनुसार विजयनगर के राजाओं के पास एक तोपखाना भी था, किंतु उसके संगठन के संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं है। तोपखाने का संचालन प्रायः विदेशी बंदूकधारियों द्वारा ही किया जाता था। निकोलो कोंटी के अनुसार क्विलन, श्रीलंका, पूलीकट, पेगू और तेनसिरिम के राजा देवराय द्वितीय को कर देते थे। इससे संकेत मिलता है कि विजयनगर के राजाओं के पास एक शक्तिशाली नौसेना भी थी, जिसके बलबूते उन्होंने कई बंदरगाहों और श्रीलंका पर अधिकार किया और पेगू और तेनसिरिम से निरंतर करों की वसूली की। किंतु यह नौसेना चोलों के समान सशक्त नहीं थी। सैनिकों तथा अधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था।

केंद्रीय बल के अलावा, संपूर्ण साम्राज्य में सैनिक जागीरें (मिलिटरी फीफ्स) फैली हुई थीं। प्रत्येक जागीर का स्वामी एक नायक या सैनिक प्रमुख होता था। इन्हें एक निश्चित भूखंड पर, जिसे अमरम् कहा जाता था, राजस्व-वसूली और शासन करने का अधिकार था। प्रत्येक नायक राज्य द्वारा निर्धारित संख्या में हाथी, घोड़े, ऊँट, घुड़सवार तथा पैदल सैनिक रखता था और युद्ध के समय अपनी सेना के साथ केंद्रीय सेना की सहायता करता था। किंतु विजयनगर की सेना अनुशासन और शक्ति में दक्कन के मुस्लिम राज्यों की सेनाओं से कमतर थी।

भर्ती, प्रशिक्षण और युद्धोपकरण

विजयनगर साम्राज्य में सैनिकों की भर्ती, प्रशिक्षण और अन्य युद्धोपयोगी साजो-समान की व्यवस्था की जाती थी। सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए नियमित विद्यालय होते थे, जहाँ उन्हें धनुष-बाण और तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। सेना के साजो-सामान की चर्चा करते हुए नुनिज ने लिखा है कि ये धनुष, बंदूक, ढ़ाल तथा कवच से सुसज्जित रहते थे। धनुर्धारी तथा बंदूकधारी सैनिक कवच के रूप में रुई भरी छोटी कोट का प्रयोग करते थे, जबकि तलवारबाज सैनिक ढ़ाल लिये होते थे। भालाधारी कमरबंद बाँधे रहते थे। हाथियों के ऊपर हौदा रखा जाता था जिस पर चार सैनिक बैठकर चारों ओर से युद्ध करते थे। हाथियों के सूड़ पर तेज धार वाले बड़े-बड़े छुरे बँधे रहते थे, जिनकी सहायता से वे दुश्मनों का भारी नुकसान करते थे। आग्नेयास्त्रों का प्रबंध मुख्यतया विदेशियों के हाथ में था।  आरंभ में विजयनगर की सेना में केवल भारतीय सैनिक ही होते थे। किंतु बाद में मुसलमानों और पुर्तगालियों को भी बड़ी संख्या में सेना में सम्मिलित किया जाने लगा। कृष्णदेवराय को रायचूर में क्रिस्टोमाओं डी फिगिरेडी के अधीन पुर्तगाली सैनिकों की सहायता से ही सफलता मिली थी।

विजयनगर साम्राज्य की प्रतिरक्षा में दुर्गों (किलों) की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इन किलों के प्रभारी प्रायः बाह्मण होते थे। विजयनगर के सैनिक किसी भी दुर्ग को घेरने और उसे तोड़ने में पारंगत थे। गुट्टी के किले को प्रभुसत्ता के चक्र की धुरी कहा गया है। नवविजित क्षेत्र के किलों को ‘पदाईपर्रू’ कहा जाता था।

न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था हिंदू धर्म पर आधारित थी। राज्य का प्रधान न्यायाधीश राय (राजा) होता था और और सभी मामलों में उसका निर्णय अंतिम माना जाता था। जिन लोगों को शिकायत होती थी, वे राजा या प्रधानमंत्री को याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे। मुकदमों का निर्णय प्रायः हिंदू धर्मशास्त्रों, खासकर याज्ञवल्क्य स्मृति तथा पराशरसंहिता की माधवकृत टीका में विहित कानूनों के आधार पर किया जाता था।

राजा के केंद्रीय न्यायालय के साथ-साथ संपूर्ण साम्राज्य में भी नियमित न्यायालयों का गठन किया गया था। प्रांतों में प्रांतपति तथा गाँवों में ग्राम पंचायतें, जाति पंचायतें, श्रेणी संगठन और आयंगर न्यायिक कार्यों का निष्पादन करते थे। अपराध सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा जैसी प्रथाएँ भी प्रचलित थी। दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर थी। व्यभिचार एवं राजद्रोह जैसे भयंकर अपराध के लिए अंग-विच्छेदन, मृत्युदंड तथा कभी-कभी हाथियों से कुचलवाकर मारने की सजा दी जाती थी। सामाजिक अपराध का दोषी पाये जाने पर अपराधी की संपत्ति या जमीन जब्त कर ली जाती थी। इसी प्रकार मंदिरों की जमीन पर बलात् कब्जा करने, दान दी हुई वस्तु पर अधिकार करने, धर्मार्थ किये गये निर्माण कार्यों को क्षतिग्रस्त करने, प्रतिबंधित विवाह करने, गुरुपत्नी या ब्राह्मण की हत्या करने तथा देवप्रसाद (भोग) में विष मिलाने के लिए राज्य की ओर से कठोर दंड की व्यवस्था थी। लेकिन ब्राह्मणों को किसी भी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा ता था।

पुलिस एवं गुप्तचर व्यवस्था

राज्य में शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधों पर नियंत्रण के लिए एक सुव्यवस्थित पुलिस विभाग था। पुलिस अधिकारियों को ‘कवलगर’ (अरसुकवलकार) कहा जाता था, जो प्रायः सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर निर्णय देते थे। वही राजमहल की सुरक्षा से संबंधित अधिकारी भी थे, जो नायकों के अधीन कार्य करते थे। स्थानीय चोरी और अपराधों की जिम्मेदारी उसी प्रकार पुलिस अधिकारियों पर थी, जैसे शेरशाह सूरी के समय थी अर्थात् चोरी होने पर पुलिस या तो माल की बरामदी करती थी, नहीं तो उसे स्वयं चोरी का माल वापस करना पड़ता था। शहरों में रात को सड़कों पर नियमित रूप से पुलिस के पहरे और गश्त (भ्रमण) की व्यवस्था थी। पुलिस विभाग का खर्च वेश्याओं (गणिकाओं) से वसूल किये गये कर (टैक्स) से चलता था। कभी-कभी पुलिस के अधिकारों को बेच दिया जाता था, जिसे ‘पदिकावल’ कहा जाता था। संपूर्ण राज्य में एक सुव्यवस्थित गुप्तचर व्यवस्था थी, जिससे राजा को राज्य की घटनाओं की सूचना मिलती रहती थी। गुप्तचर व्यवस्था निश्चित रूप से प्रांतीय गवर्नरों तथा मनबढ़ सामंतों के षड्यंत्र, दुरभि-संधि और विद्रोह पर नियंत्रण रखने में मददगार सिद्ध हुई होगी।

प्रशासनिक कमजोरियाँ

विजयनगर साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में कई कमियाँ थीं, जो बाद में साम्राज्य की स्थिरता के लिए घातक साबित हुईं। एक तो, प्रांतीय शासकों को बहुत स्वतंत्रता थी, जिससे केंद्रीय शक्ति कमजोर हुई और अंत में साम्राज्य का पतन हो गया। दूसरे, अनेक सुविधाओं के बावजूद साम्राज्य स्थिरता से व्यापार का विकास करने में असफल रहा। यह असफलता विजयनगर के साम्राज्यीय जीवन में एक बड़ा दोष सिद्ध हुई और एक स्थायी हिंदू साम्राज्य को असंभव बना दिया। तीसरे, अल्पकालीन व्यापारिक लाभ के लिए विजयनगर सम्राटों ने पुर्तगालियों को पश्चिमी तट पर बसने दिया और इस प्रकार लाभ का सिद्धांत साम्राज्य की स्थिरता के लिए नुकसानदेह साबित हुआ।

विजयनगर का सामाजिक जीवन

विजयनगरकालीन समाज चार वर्गों में विभाजित था- विप्रुल (ब्राह्मण), राजुलु (क्षत्रिय), मोतिकिरतलु (वैश्य) और नलवजटिव (शूद्र) अर्थात् विजयनगर साम्राज्य में सिद्धांतः चातुर्वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। विजयनगर के समकालीन साहित्यिक ग्रंथों एवं अभिलेखों में वर्णाश्रमधर्म मंगलानुपालिनम् एवं सकलवर्णाश्रममंगलानुपातिसुत नामक शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे लगता है कि विजयनगर के शासक किसी वर्ण विशेष के नहीं, बल्कि सभी वर्णों के मंगल की कामना करते थे।

सामाजिक वर्ग भेद
विप्रलु (ब्राह्मण)

विजयनगरकालीन समाज में ब्राह्मणों (विप्रलु) को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। सामान्यतः उनका कार्य धार्मिक कार्य एवं अध्ययन-अध्यापन करना था, किंतु दंडनायक, मंत्री तथा राजदूत जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर भी अधिकांशतः उन्हीं की नियुक्ति होती थी। इस काल के अभिलेखों तथा साहित्य ग्रंथों में अनेक श्रेष्ठ ब्राह्मण सेनानायकों के उल्लेख मिलते हैं। डोमिंगो पायस ने लिखा है कि ब्राह्मणों में केवल पुरोहित तथा साहित्यकार ही नहीं थे, बल्कि बहुत से राज्याधीन नगरों तथा कस्बों के अधिकारी भी थे।

ब्राह्मण प्रायः शाकाहारी होते थे और अधिकांश ब्राह्मण जीवहत्या करने तथा मांस खाने से परहेज करते थे। उनकी आजीविका का मुख्य साधन जनता और राजा द्वारा दिया गया दान होता था, किंतु कुछ ब्राह्मण ऐसे भी थे, जो व्यापार और कृषि से भी अपनी जीविका चलाते थे। उन्हें किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था।

राजुल (क्षत्रिय)

समाज में ब्राह्मणों के बाद दूसरा स्थान क्षत्रियों (राजुल) का था। यद्यपि इस काल के अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रंथों में उनसे संबंधित कोई विशेष जानकारी नहीं है, किंतु इतना निश्चित है कि उनका संबंध ज्यादातर राजकुलों से था और वे मुख्यतः प्रशासकीय कार्यों तथा सेना से संबद्ध थे। बारबोसा ने लिखा भी है कि राजा क्षत्रिय परिवार से आते थे, जो धनाढ्य तथा युद्धप्रिय होते थे। ज्यादातर उच्च सरकारी पदों तथा प्रमुखों की नियुक्ति इसी वर्ग से की जाती थी।

मोतिकिरतलु (वैश्य)

समाज में तीसरा वर्ग वैश्यों (मोतिकिरतलु) का था, जिनका कार्य मुख्यतः व्यापार करना था। इस वर्ग में शेट्टियों अथवा चेट्टियों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनकी सामाजिक स्थिति पर्याप्त अच्छी थी। विजयनगर का अधिकांश व्यापार इसी वर्ग के हाथों में केंद्रित था। बरबोसा के अनुसार इस वर्ग के लोग बहुत धनी तथा सम्मानित थे और साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करते थे। व्यापार के अतिरिक्त यह लिपिक एवं लेखा-कार्यों में भी निपुण होता था।

वीर पांचाल

तीसरे वर्ग में ही चेट्टियों के ही समतुल्य एक समूह दस्तकार व्यापारियों का था, जिन्हें ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था। इस दस्तकार वर्ग में संभवतः लोहार, स्वर्णकार, कांस्यकार, तक्षक (मूर्तिकार), शस्त्रवाहक, वर्धकि (बढ़ई), कैकोल्लार (जुलाहे), कंबलत्तर (चपरासी), नाई, रेड्डि (कृषक) जैसे व्यावसायिक समुदाय भी शामिल थे। वास्तव में, वीर पंचालों में स्वर्णकारों, लुहारों तथा बढ़इयों की सामाजिक स्थिति ऊँची थी। समाज में नाइयों की भी पर्याप्त प्रतिष्ठा थी, जिन्हें रामराय के समय में कर से मुक्त कर दिया गया थे। कैकोल्लार अथवा जुलाहे मंदिरों के आस-पास रहते थे और मंदिर के प्रशासन तथा स्थानीय करारोपण में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। ‘तोट्टियन’ चरवाहे थे, जिन्होंने बाद में सीमांत शासक (पोलिगार) का दर्जा हासिल कर लिया, सौराष्ट्र व्यापारी थे, जो गुजरात से आये थे और ब्राह्मणों को टक्कर देते थे, रेड्डी किसान थे और उप्पिलिया नमक निर्माता थे। विभिन्न समुदाय विवादों और झगड़ों से बचने के लिए शहर के अलग-अलग हिस्सों में रहते थे।

बड़वा

विजयनगर काल में उत्तर से बहुत से लोग दक्षिण में आकर बस गये थे, जिन्हें बड़वा कहा जाता था। नवागंतुक उत्तर भारतीय बड़वा वर्ग ने अपनी कार्य-कुशलता तथा बुद्धि के बल पर दक्षिण के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया। इससे एक ओर दक्षिण के परंपरागत व्यापारिक समुदायों का पतन हुआ, तो दूसरी ओर विजयनगरकालीन समाज में विद्वेष की भावना विकसित हुई।

नलवजटिव (शूद्र)

समाज में शूद्र वर्ग की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी और सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि उन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। उनका मुख्य कार्य उच्च और समृद्ध वर्गों की सेवा करना था। इस वर्ग के अपनी जीविका के लिए छोटे-मोटे व्यवसाय करते थे। श्रमिक वर्ग ज्यादातर इसी समुदाय से संबंधित था। उन्हें काम के बदले फसली मजदूरी दी जाती थी। इस वर्ग को काम के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव में भी जाना पड़ता था। डोम, जोगी, मछुआरे, परय्यन, कलाल, चमार आदि इसी वर्ग में आते थे।

दासप्रथा

विजयनगर में दासप्रथा का भी प्रचलन था, जिसका उल्लेख निकालो कोंटी ने किया है। महिला एवं पुरुष दोनों दास बनाये जाते थे क्योंकि अभिलेखों में दासियों को उपहार में देने का उल्लेख मिलता है। पुर्तगाली यात्री पायस ने लिखा है कि विजयनगर की रानियों की सेवा में बहुसंख्यक दासियाँ रहती थीं। इसी प्रकार राजप्रासाद में रहने वाली बहुसंख्यक महिलाओं में बहुत-सी युद्धबंदी महिला दासियाँ रहती थीं। ऋण न चुका पाने एवं दिवालिया होने की स्थिति में ऋण लेने वालों को भी दास या दासी बनना पड़ता था। दास-दासियों के क्रय-विक्रय की प्रथा भी थी, जिसे ‘बेसवेग’ कहा जाता था।

स्त्रियों की स्थिति

विजयनगर में स्त्रियों की दशा सामान्यतः निम्न थी, परंतु उत्तर भारत की अपेक्षा अच्छी थी। इस समय स्त्रियाँ प्रशासन, व्यवसाय, व्यापार और ललित कला जैसे क्षेत्रों में सक्रिय रूप से शामिल थीं, जिन पर पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। विजयनगर में कन्याओं को लोकभाषा, संस्कृत, साहित्य, संगीत, ललितकला तथा नृत्य जैसे लौकिक व्यवहार के विषयों के साथ-साथ उन्हें कुश्ती (मल्लयुद्ध) तथा अस्त्र-शस्त्र संधान की शिक्षा दी जाती थी। ‘वरदंबिका परिनयम’  की लेखिका तिरुमलंबा देवी और ‘मधुरविजयम्’ की लेखिका गंगादेवी संस्कृत भाषा की महिला कवियित्री थीं। तेलुगु महिला रचनाकारों में तल्लापका तिम्मक्का और अतुकुरी मोल्ला बहुत प्रसिद्ध थीं। बारबोसा भी बताता है कि स्त्रियों को गायन, क्रीड़ा एवं नृत्य की शिक्षा दी जाती थी।

वास्तव में, संपूर्ण भारतीय इतिहास में विजयनगर ही ऐसा एकमात्र साम्राज्य था, जिसमें बड़ी संख्या में स्त्रियों को राजकीय पदों पर नियुक्त किया था। राजा राजमहल के खर्च के हिसाब-किताब की जाँच के लिए महिलाओं को नियोजित करता था। राजा की अंगरक्षिकाओं के रूप में भी स्त्रियों की नियुक्ति होती थी। नुनिज ने लिखा है कि राजप्रासादों में बहुसंख्यक स्त्रियाँ ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, संगीत और नृत्य में प्रवीण नर्तकी, घरेलू नौकरानी, पालकी वाहक और राज्य की अंगरक्षिकाओं के रूप में नियुक्त होती थीं। डेमिंगो पायस के अनुसार राजप्रासाद की परिचारिकाएँ महानवमी के महोत्सव में भाग लेती थीं।

किंतु विजयनगर साम्राज्य में अभिजात वर्ग तथा सर्वसाधारण वर्ग की स्त्रियों के जीवन में पर्याप्त विषमताएँ थीं। अभिजात वर्ग की तथा शहरी स्त्रियों की जिंदगी शान-शौकत से बीतती थी, जो प्रायः राजाप्रासादों और घरों की चारदीवारी के भीतर सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करती थीं। उनके पहनावे, आभूषण आदि महँगे होते थे। इसके विपरीत सर्वहारा वर्ग की महिलाएँ गाँव में रहते हुए विभिन्न व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती हुई सामान्य रूप से जीवन-यापन करती थीं।

सती प्रथा

विजयनगर साम्राज्य के सामाजिक जीवन में सतीप्रथा के प्रचलन था, जिसका उल्लेख बारबोसा और निकोलो कोंटी ने किया है। नुनिज ने लिखा है कि स्त्रियाँ अपने मृत पति के साथ जलकर मर जाती थीं और इसमें वे अपना सम्मान समझती थीं। सती होनेवाली स्त्री की स्मृति में पाषाण स्मारक लगाये जाते थे, जिसे ‘सतीकल’ कहा जाता था। 1534 ई. के एक अभिलेख में मालगौड़ा नामक एक महिला के सती होने का प्रमाण मिलता है। नुनिज के अनुसार यह प्रथा तेलुगुओं को छोड़कर प्रायः सभी में प्रचलित थी, किंतु आभिलेखिक साक्ष्यों से लगता है कि विजयनगर समाज में सतीप्रथा ज्यादातर राजपरिवारों तथा नायकों में ही प्रचलित थी और सर्वसाधारण में इसका प्रचलन कम था। बारबोसा के विवरण से भी पता चलता है कि सती प्रथा शासक वर्ग में प्रचलित थी, लेकिन उच्च वर्गों, जैसे- लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में इस प्रथा का प्रचलन नहीं थी।

दहेज प्रथा

विजयनगरकालीन समाज में दहेज प्रथा हिंदुओं और मुसलमानों दोनों में प्रचलित थी। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने अपनी बहन की शादी में अहमदनगर के निजामशाह को शोलापुर शहर दिया था। इसी प्रकार जब कलिंग के गजपति नरेश ने विजयी राजा कृष्णदेवराय के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया, तो उन्होंने कई गँवों को दहेज में दिया था। कुछ इतिहासकार इस प्रथा को इस्लामी मेहर प्रणाली का प्रभाव मानते है। किंतु 1553 ई. के एक लेख में दहेज को अवैधानिक बताते हुए यह घोषणा की गई है कि दहेज देने वाले और लेने वाले दोनों दंड के भागी होंगे। कन्यादान लेने वाले यदि धन या सुवर्ण लेंगे, तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। वास्तव में, कभी-कभी सामाजिक अपराध करने वालों तथा जाति के नियम तोड़ने वालों को जाति से निष्कासित कर दिया जाता था।

विधवा विवाह

सामान्यतः समाज में विधवाओं की स्थिति दयनीय थी, परंतु समाज में विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त थी। विधवा विवाह को विवाहकर से मुक्त करके विजयनगर के राजाओं ने विधवाओं की दशा को सुधारने का प्रयास किया था।

पर्दा प्रथा

विजयनगरकालीन समाज में सामान्यतया पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, किंतु कुछ उच्च एवं अभिजात वर्ग में यह प्रथा प्रचलित थी। सर्वसाधारण वर्ग की कामकाजी महिलाएँ, देवदासियाँ, गणिकाएँ आदि इससे मुक्त थीं।

देवदासी प्रथा

विजयनगर में देवदासी की प्रथा प्रचलित थी। मंदिरों में देवताओं की की पूजा-अर्चना के लिए देवदासियाँ होती थीं, जो आजीवन कुँवारी रहती थीं। डोमिंगो पायस ने इन देवदासियों की संपन्नता का वर्णन किया है। देवदासियों की आजीविका या तो भूमिदानों से चलती थी या नियमित वेतन से।

इसके अलावा, विजयनगरकालीन समाज में बालविवाह और बहुपत्नी प्रथा जैसी अनेक कुप्रथाएँ भी प्रचलित थीं। अभिजात वर्ग की कन्याओं का अल्पायु में ही विवाह करने का प्रचलन था। सामान्य वर्गों में एक पत्नीत्व का रिवाज था, किंतु अभिजात वर्ग तथा राजकुल के सदस्य न केवल अनेक विवाह करते थे, बल्कि बड़ी संख्या में रखैल और दासियाँ भी रखते थे।

खान-पान

विजयनगर समाज के लोग माँसाहारी भी थे और शाकाहारी भी। बरबोसा लिखता है कि ब्राह्मणों तथा लिंगायतों को छोड़कर सामान्यतः शासक तथा अभिजात वर्ग के लोग मांसाहारी थे और गाय-बैल को छोड़कर प्रायः सभी पशुओं का माँस खाते थे। नूनिज के अनुसार ‘विसनग (विजयनगर) के राजा हर प्रकार की वस्तु खाते हैं, किंतु बैलों अथवा गायों का माँस नहीं। इन्हें वे कभी नहीं मारते क्योंकि वे उनकी पूजा करते हैं। वे भेड़, सूअर, हरिण, तीतर, खरगोश, पंडुक, बटेर तथा सब तरह के पशु-पक्षियों- यहाँ तक कि गौरैया, चूहे, बिल्लियाँ तथा छिपकलियों का मांस भी खाते हैं। ये सभी चीजें, विसनग (विजयनगर) शहर के बाजार में बिकती हैं। हर चीज को जीवित बेचना पड़ता है, ताकि हरेक आदमी यह जान सके कि वह क्या खरीद रहा है। ….नदियों से मछलियाँ भी अधिक परिमाण में आती हैं।’’ पायस के अनुसार कतिपय त्योहारों पर राजा 24 भैसों तथा 150 भेड़ों की बलि देता था। उसके अनुसार महानवमी पर्व के अंतिम दिन 250 भैंसे तथा 4500 भेड़ों की बलि चढ़ाई जाती थी। निश्चित ही उनकी बलि के बाद उनके मांस का खाने में उपयोग किया जाता रहा होगा।

वस्त्राभूषण

विजयनगर साम्राज्य में अभिजात तथा सर्वसाधारण के वस्त्राभूषण में पर्याप्त विषमताएँ थीं। सामान्य वर्ग की स्त्रियाँ पतली सूती तथा सिल्क की साड़ी, चोली तथा दुपट्टा धारण करती थीं। उनमें पेटीकोट पहनने का प्रचलन नहीं था। राजपरिवार और उच्च वर्ग की स्त्रियाँ कीमती एवं कढ़े हुए पावड़ (एक प्रकार का पेटीकोट) पहनती थीं। बार्थेम के अनुसार संपन्न व्यक्ति एक छोटी कमीज तथा सिर पर सुनहले रंग का वस्त्र धारण करते थे। सामान्य वर्ग के पुरुष धोती और सफेद कुर्ता पहनते थे। पगड़ी पहनने की प्रथा भी प्रचलित थी, परंतु जूते केवल अभिजात वर्ग के लोग ही पहनते थे। इन जूतों की बनावट रोमन जूतों के समान होती थी।

स्त्री एवं पुरुष दोनों आभूषणप्रिय थे और उनमें इत्रों के प्रति लगाव था। स्त्री-पुरुष दोनों गले में हार, भुजबंध तथा कुंडल, बेसर या नथिया पहनते थे, लेकिन दोनों के आभूषणों की बनावट में अंतर होता था। युद्ध में वीरता दिखानेवाले पुरुष अपने पैर में एक प्रकार का कड़ा पहनते थे, जिसे ‘गंडपेंद्र’ कहा जाता था। प्रारंभ में इसे शौर्य का प्रतीक माना जाता था, किंतु बाद में इसे सम्मान का प्रतीक मानकर मंत्रियों, विद्धानों सैनिकों एवं अन्य सम्मानीय व्यक्तियों को भी दिया जाने लगा।

विजयनगर के धनी-मानी तथा कुलीन वर्ग के लोग सुगंधित द्रव्यों (इत्र) का भी प्रयोग करते थे। वे शरीर तथा वस्त्रों को सुवासित करने के लिए चंदन, केशर, अगर, कस्तूरी आदि का प्रयोग करते थे। मिश्रित सुगंधों तथा सुगंधित पुष्पों का प्रयोग खूब किया जाता था। विजयनगर में गुलाब के व्यापारियों को देखकर अब्दुर रज्जाक को आश्चर्य हो गया था क्योंकि नगर के निवासियों के लिए भोजन की तरह गुलाब का फूल भी आवश्यक था।

आमोद-प्रमोद और मनोरंजन

विजयनगर समाज में मनोरंजन के साधन प्रचलित थे। इस समय नाटक तथा अभिनय (यक्षगान) बहुत लोकप्रिय थे। यक्षगान में मंच पर संगीत तथा वाद्यों की सहायता से अभिनय किया जाता था, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों सम्मिलित होते थे। वोमलाट एक प्रकार का छाया नाटक था, जो विजयनगर में विशेष रूप से प्रसिद्ध था। विजयनगर में शतरंज और पासा विशेष लोकप्रिय थे और कृष्णदेवराय स्वयं शतरंज के प्रसिद्ध खिलाड़ी थे। पायस के अनुसार कुश्ती भी मनोविनोद का प्रमुख साधन था, जो पुरुषों और महिलाओं में समान रूप से प्रचलित था। इसके अलावा, चित्रकारी, जुआ खेलना (द्यूतक्रीड़ा), तलवारबाजी, बाजीगरी, तमाशा दिखाना, मछली पकड़ना भी विजयनगर के निवासियों के मनोरंजन के साधन थे।

गणिकाएँ

प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में गणिकाओं की महत्ता स्वीकार की गई थी। विजयनगरकालीन समाज में भी गणिकाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनकी दो श्रेणियाँ थीं- पहली श्रेणी की गणिकाएँ मंदिरों से संबद्ध थीं, जबकि दूसरी श्रेणी की गणिकाएँ अपना स्वतंत्र व्यवसाय करती थीं। गणिकाएँ प्रायः सुशिक्षित, नृत्य, संगीत आदि में दक्ष और विशेषाधिकार-संपन्न होती थीं, जो अपने यौवन, नृत्य, संगीत तथा कामोद्दीपक हाव-भाव से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती थीं। गणिकाएँ सार्वजनिक उत्सवों में खुलकर भाग लेती थीं और राजपरिवार तथा अभिजात वर्ग के लोग बिना किसी आपत्ति के उनसे संबंध बनाते थे। गणिकाओं से प्राप्त होने वाले कर से पुलिस एवं सैन्य विभाग का खर्च चलता था।

शिक्षा-व्यवस्था

विजयनगर में न तो शिक्षा का कोई विभाग था और न ही विजयनगर के राजाओं ने किसी विद्यालय की स्थापना की थी। शिक्षा मूलतः मंदिरों, मठों और अग्रहारों में दी जाती थी, जहाँ वेद पुराण, इतिहास, काव्य, नाटक, दर्शन, भाषा, गणित, आयुर्वेद आदि का अध्ययन-अध्यापन होता था। अग्रहारों में मुख्यतः वेदों की शिक्षा दी जाती थी। तुलुव वंश के शासकों ने शिक्षा को कुछ प्रोत्साहन दिया था। विजयनगर के शासक इन मठों, मंदिरों तथा ब्राह्मणों को करमुक्त भूमिदान देते थे। इस प्रकार विजयनगर शासकों ने भले ही नियमित विद्यालयों की स्थापना नहीं की थी, किंतु मठों, मंदिरों तथा ब्राह्मणों को करमुक्त भूमिदान देकर एक प्रकार से शिक्षा एवं साहित्य की उन्नति में योगदान दिया।

संभवतः विजयनगरकालीन समाज में वर्ग-भेद के कारण कभी-कभार सामाजिक विवाद भी होते रहते थे। यही कारण है कि 1379 ई. के एक लेख में नायकों तथा नगर प्रशासकों को यह निर्देश दिया गया है कि यदि जातियों में कोई जातीय विवाद उत्पन्न हो, तो वे विवादग्रस्त जातियों को अपने समक्ष बुलाकर उनके विवाद का निस्तारण करें। इसी तरह श्रीरंग के शासनकाल के 1632 ई. के एक लेख में कुछ गाँवों के निवासियों को आदेशित किया गया है कि वे दस्तकार समुदायों- बढ़ई, लुहार तथा सुनार के साथ न तो दुर्व्यवहार करें और न ही उनके विशेषाधिकारों का हनन करें। इस आदेश का उल्लंघन करने वाले को 12 पण का दंड देने की व्यवस्था की गई थी। इस प्रकार विजयनगर के शासक तत्कालीन समाज में समरसता और सामंजस्य बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।

धर्म एवं धार्मिक जीवन

अभिलेखीय तथा साहित्यिक प्रमाणों से पता चलता है कि विजयनगर के शासक धार्मिक प्रवृत्ति के थे और अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार हिंदू धर्म तथा संस्कृति के संरक्षक थे। किंतु विदेशी यात्रियों के लेखन से स्पष्ट पता चलता है कि वे सभी धर्मों और संप्रदायों के प्रति सहिष्णु और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे। हालांकि विजयनगर के राजाओं ने ‘गोब्राह्मण प्रतिपालनाचार्य’ जैसी उपाधियाँ धारण की थीं, किंतु उन्होंने इस्लामी अदालत, समारोह, पोशाक और राजनीतिक भाषा को भी अपनाया था। वास्तव में, विजयनगर के प्रायः सभी शासकों ने तत्कालीन संप्रदायों-शैव, बौद्ध, वैष्णव, जैन, ईसाई, यहूदी और यहाँ तक कि इस्लाम के प्रति भी सदैव उदारता की नीति अपनाई। विजयनगर का एक महान् शासक ‘यवनस्थापनाचार्य’ की उपाधि धारण करके गौरवान्वित होता था। वेंकट द्वितीय ने पुर्तगालियों को बेल्लोर में एक चर्च बनवाने की अनुमति दी थी।

सोलहवीं शती ई. के प्रारंभ तक मालाबार तट की आबादी में (मोपलों) की संख्या बीस प्रतिशत पहुँच गई थी। लेकिन इस्लाम ने दक्षिण भारत की विचारधारा को प्रभावित किया, यह कहना कठिन है। पुर्तगालियों के आगमन से दक्षिण भारत में ईसाई धर्म के प्रचार में सक्रियता बढ़ी। लेकिन इनके धार्मिक प्रचार-कार्य को जब राजनीतिक रूप दिया गया, तो विजयनगर के सहिष्णु शासकों का असंतुष्ट होना स्वाभाविक था।

शैव धर्म

विजयनगर साम्राज्य के उदय से दक्षिण भारत में शैव धर्म की उन्नति हुई। विजयनगर के प्रारंभिक शासक शैव थे तथा अपने संरक्षक देव विरूपाक्ष के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। अभिलेखों में हरिहर प्रथम तथा बुक्का प्रथम को काशिविलास क्रियाशक्ति, जो एक पाशुपत आचार्य थे, का शिष्य बताया गया है। किंतु काशिविलास कट्टर पाशुपत नहीं थे। कहा जाता है कि उन्होंने एक स्थानीय विष्णु मंदिर के लिए भूमिदान किया था और स्वयं हरिहर प्रथम ने काशिविलास की आज्ञा से विद्याशंकर मंदिर के लिए दान दिया था। शैवों में लिंगायत संप्रदाय के अनुयायी अधिक थे। लिंगायत संप्रदाय का बायें हाथ की जातियों में, जो गैर-कृषि उत्पादनों में लगी थीं, ज्यादा प्रचलन था।

वैष्णव धर्म

पंद्रहवीं शती ई. के दौरान विजयनगर राजाओं की धार्मिक मान्यताओं में क्रमिक परिवर्तन हुआ और शासकों का वैष्णव धर्म के प्रति झुकाव अधिक हो गया। वैष्णवों में रामानुज के द्वैतवादी अनुयायी अधिक थे। सालुव शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे और अहोबिल के नृसिंह एवं तिरुपति के वेंकटेश की पूजा करते थे। फिर भी, सालुव नरेश हम्पी में भगवान विरुपाक्ष (शिव) के साथ-साथ तिरुपति में वेंकटेश्वर (विष्णु) के चरणों में पूजा करते थे। कृष्णदेवराय ने वैष्णव संप्रदाय से संबद्ध बिठोवा की पूजा पर बल दिया था, किंतु वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म में भी उसकी गहरी आस्था थी, जो उसके विरूपाक्ष मंदिर में स्थित अभिलेख से प्रमाणित है। इस लेख के शीर्ष पर लिंग, नंदी तथा सूर्य तथा अर्धचंद्र प्रतीक तक्षित हैं। उसकी राजसभा में रहने वाले अनेक विद्वान शैव थे। इसी प्रकार सदाशिव विष्णु के साथ-साथ शिव और गणेश की पूजा करता था। रामराय के अनुरोध पर उसने पेरुंबदूर स्थित रामानुज के मंदिर के लिए दान दिया गया था। इस प्रकार विजयनगर शासकों के व्यक्तिगत धर्म समयानुसार बदलते रहे, किंतु वे अंत तक धर्मसहिष्णु बने रहे।

वैदिक धर्म

शैव एवं वैष्णव धर्मों के साथ-साथ इस समय वैदिक धर्म का भी प्रचार-प्रसार था। विद्यारण्य संप्रदाय से संबद्ध सायण तथा माधव ने वेदों पर भाष्य लिखकर वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में सहायता की। पुराण तथा महाकाव्य शिक्षा के मुख्य विषयों में थे। विजयनगर के शासकों के संरक्षण में अनेक संस्थाएँ वैदिक शिक्षा एवं धर्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न थीं। राजाओं के संरक्षण के कारण इस काल में दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मंदिरों का विस्तार हुआ, उनमें बड़े-बड़े गोपुरम् अथवा प्रवेश स्तंभ, गलियारे तथा मंडप जोड़े गये। वैदिक धर्म में देवी-देवताओं की नैमित्तिक पूजा-उपासना के साथ-साथ विशिष्ट अवसरों पर भैसें, भेड़ तथा सुअरों की पशुबलि की प्रथा भी प्रचलित थी। महानवमी के अवसर पर तो 250 भैसें तथा 4500 भेड़ें काटी जाती थीं। विजयनगर के प्रतिभाशाली शासकों द्वारा इस क्रूर एवं अमानवीय प्रथा को प्रश्रय देना आश्चर्यजनक लगता है। विजयनगर में जैन धर्म को भी पूर्ण संरक्षण मिला था। वणिक निगमों की सदस्य मंडली में जैन भी होते थे।

इस प्रकार विजयनगर राज्य में विभिन्न धर्मों के विद्यमान होते हुए तथा राजाओं के व्यक्तिगत धर्मों के अनुयायी होने के बावजूद भी यहाँ समान रूप से सभी धर्मों का विकास हुआ। विजयनगर राज्य का कोई राजकीय धर्म नहीं था। सभी को अपनी इच्छानुसार धार्मिक आचरण की छूट थी। बारबोसा सही लिखता है कि, ‘‘राजा ऐसी स्वतंत्रता देता है कि प्रत्येक मुनष्य बिना किसी खीझ और जाँच-पड़ताल के, कि वह ईसाई, यहूदी, मूर (मुस्लिम) अथवा हिंदू है, अपने धर्म के अनुसार कहीं भी आ-जा और रह सकता है।’’

किंतु विजयनगर के शासकों की धर्म-सहिष्णुता और सभी धर्मों को समान रूप से संरक्षण देने की नीति बावजूद यहाँ आपस में विवाद होते रहते थे। धार्मिक विवादों के मामलों में राज्य का हस्तक्षेप होता था। बुक्का प्रथम के शासनकाल में वैष्णवों तथा जैनों के बीच धार्मिक विवाद हुआ। जैनों ने बुक्का प्रथम से वैष्णवों द्वारा प्रताड़ित किये जाने की शिकायत की। बुक्का प्रथम ने निर्णय दिया कि दोनों संप्रदाय के अनुयायी समान स्वतंत्रता के साथ बिना एक दूसरे के हस्तक्षेप के अपने-अपने धर्म का पालन करें। वैष्णवों तथा शैवों के बीच मतभेद का अप्रत्यक्ष संकेत उत्तरी कन्नड़ के सामंत प्रमुख कृष्णप्प नायक के 1561 ई. के एक लेख में मिलता है। इस लेख में गणपति की वंदना के बाद विवृत है कि, ‘कुछ लोग कहते हैं कि विष्णु (हरि) के अतिरिक्त विश्व में कोई दूसरा देवता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि शिव (हर) के समान कोई दूसरा देवता विश्व में नहीं है। इस संदेह को दूर करने के लिए हरि तथा हर हरिहर रूप हैं।’ इस प्रकार विभिन्न संप्रदायों में उत्पन्न विवाद को सुलझाने की दिशा में भी विजयनगर के शासक सदैव यत्नशील रहते थे।

विजयनगर में साहित्यिक विकास

विजयनगर के शासकों ने साहित्य के विकास में विशेष रुचि ली और उनके प्रोत्साहनपूर्ण संरक्षण में दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा का भी अप्रतिम विकास हुआ। यद्यपि समग्र दक्षिण भारत में अभिजात वर्ग की भाषा संस्कृत थी, किंतु जनसाधारण में स्थानीय तेलुगु, कन्नड़ एवं तमिल भाषा का अधिक प्रचलन था। विजयनगर राज्य में भी संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ का अत्यधिक प्रचलन था। विजयनगर के सम्राटों ने इन भाषाओं को संरक्षण दिया, जिसके फलस्वरूप उनकी आशातीत उन्नति हुई और विभिन्न भाषाओं में अनेक ग्रंथों की रचना की गई। साम्राज्य की प्रशासनिक और अदालती भाषाएँ क्रमशः कन्नड़ और तेलुगु थीं। दक्षिण भारत के साहित्यिक इतिहास में कृष्णदेवराय का राज्यकाल एक नये युग का ऊषाकाल था।

संस्कृत साहित्य

विजयनगर के प्रारंभिक शासकों, विशेषरूप से बुक्का प्रथम के समय वैदिक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में विशेष प्रगति हुई। उसकी वेदमार्गप्रतिष्ठापक उपाधि इसका ज्वलंत प्रमाण है। इस काल की अधिकांश संस्कृत रचनाएँ वेदों, रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर भाष्य थीं, जैसे सायणाचार्य ने वेदार्थ प्रकाश नामक वेदों पर एक ग्रंथ लिखा था। विद्यारण्य ने राजकालनिर्णय, माधवीयधातुवृत्ति, पराशरमाधवीय विवरणप्रमेयसंग्रह, सर्वदर्शन संग्रह, जीवनमुक्तिविवेक, पंचदशी, संगीतसार, शंकरदिग्विजय की रचना की। विजयनगर के माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमशः जैमिनीय न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रंथों की रचना की थी। उसी के भाई सायण ने भारतीय संस्कृति के आदिग्रंथ वेद पर वेदार्थ प्रकाश नामक भाष्य लिखा। कहा जाता है कि कुमार कंपन के आग्रह पर सायण ने सुभाषितसुधानिधि की रचना 84 पद्धतियों में की थी। सायण की अन्य कृतियाँ यज्ञतंत्र तथा पुरुषार्थ हैं। बुक्का प्रथम के काल में उसकी पुत्रवधू गंगादेवी (कुमार कंपन की रानी) ने मधुराविजयम् नामक काव्य की रचना की। इसमें कुमारकंपन की काँची के पंप तथा मदुरै के मुसलमान सरदारों के विरुद्ध सैनिक अभियान का वर्णन किया गया है। हरिहर द्वितीय के पुत्र विरूपाक्ष ने नारायणविलास की रचना पाँच अंकों में तथा उनपत्तराघव की रचना एक अंक में की थी। हरिहर द्वितीय के शासनकाल में ही भास्कर (इरुपण दंडाधिनाथ) ने नानाथरत्नाकर नामक संस्कृत-कोश की रचना की थी। पंद्रहवीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में सालुव नरसिंह के आश्रित द्वितीय राजनाथ ने साल्वाभ्युदय की लिखा था। मल्लिकार्जुन के संरक्षण में कल्लिनाथ ने संगीतशास्त्र पर और कल्लिनाथ के पौत्र राम अमात्य ने रामराय के संरक्षण में स्वरमेलकलानिधि नामक ग्रंथ की रचना की थी।

विजयनगर राज्य के महानतम् सम्राट कृष्णदेवराय के समय संस्कृत साहित्य उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। इनके समय अनेक संस्कृत ग्रंथों की रचना की गई। कवि के रूप में कृष्णदेवराय ने संस्कृत में जाम्बुवतीपरिणयम् नामक नाटक की रचना की थी। तिम्मन के अनुसार कृष्णदेवराय महान रसज्ञ और कविताप्रवीण्य फणीश (काव्य रचना में दक्ष) थे। उसकी साहितिसमरांगणसार्वभौम उपाधि भी उसे साहित्य एवं युद्ध में समान रूप से कुशल बताती है। उसके समकालीन काँची के निवासी गोविंदराज ने भूषण का प्रणयन किया। कृष्णदेवराय के ही संरक्षण में ईश्वर दीक्षित ने 1517 ई. में रामायण महाकाव्य पर लघु तथा बृहविवरण नामक टीकाएँ प्रणीत की। दिवाकर ने कृष्णदेवराय के दरबार में परिजातहरण, देवीस्तुति, रसमंजरी तथा भारतामृत नामक काव्यों की रचना महाभारत की कथाओं के आधार पर की। कृष्णदेवराय के मंत्री सालुव तिम्म ने अगस्त्य (विद्यानाथ) की कृति बालभारत पर एक टीका लिखी थी। उसके समय में व्यासराय ने तात्पर्यचंद्रिका तथा भेदोज्जीवन की रचना की। उसकी अन्य रचनाएँ न्यायामृत तथा तर्कतांडव हैं। कृष्णदेवराय के दरबारी संगीतज्ञ लक्ष्मीनारायण ने संगीतसूर्योदय नामक ग्रंथ की रचना की थी।

विजयनगर की संस्कृत साहित्यिक कृतियों में अच्युतराय के समकालीन राजनाथ (सालुव नरसिंह के समकालीन राजनाथ से भिन्न) द्वारा विरचित भागवतचंप तथा अच्युतरायाभ्युदय विशेषरूप महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार विजयनगर राजाओं के शासन में संस्कृत भाषा एवं साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई और साहित्य की प्रायः सभी विधाओं जैसे- महाकाव्य, नाटक, गद्य, चंपू, दर्शन, व्याकरण, हेतुविद्या तथा संगीत में ग्रंथों की रचना की गई।

तेलुगु साहित्य

विजयनगर राजाओं का शासनकाल तेलुगु साहित्य की उन्नति का काल था। तेलुगु भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि श्रीनाथ (1365-1440 ई) के नाम पर 1350 ई. के बाद के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के काल को श्रीनाथ युग कहा जाता है। उसकी कृतियों में श्रृंगारनैषध (श्रीहर्ष के नैषधचरित का अनुवाद), परुत्राटचरित तथा शालिवाहन सप्तशति का अनुवाद, पंडिताराध्य-चरित, शिवरात्रि-माहात्म्य, हरविलास पीपखंड तथा काशिखंड हैं। इनमें केवल अंतिम चार ही उपलब्ध हैं। उन्होंने क्रीड़ाधिरापम् नामक एक नाटक रचना भी की थी। इसके अतिरिक्त श्रृंगारदीपिका तथा पलनति-वीरचरित्रम् की रचना का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। सालुव नरसिंह का समकालीन तेलुगु का प्रसिद्ध विद्वान् पिल्लमडि पिनवीरभद्र था। उसने महाभारत के अश्वमेध पर्व का जैमिनिभारत नाम से तेलुगु में अनुवाद कर सालुव नरसिंह को समर्पित किया था। उसकी दूसरी कृति श्रृंगारशाकुंतल है, जो कालिदास की प्रसिद्ध कृति अभिज्ञानशाकुंतलम् का अनुवाद है।

कृष्णदेवराय के काल को तेलुगु साहित्य का क्लासिकी युग माना जाता है। उसने आंध्रभोज, अभिनवभोज, आंध्रपितामह आदि उपाधियाँ धारण की थी। उसके काल में तेलुगु साहित्य में एक नये तत्त्व का आगमन हुआ और संस्कृत ग्रंथों के तेलुगु अनुवाद के स्थान पर स्वतंत्र रूप से पौराणिक अथवा कल्पित कथा के आधार पर प्रबंधों की रचना प्रारंभ हुई। इस परंपरा में रचे गये महाकाव्यों में स्वयं कृष्णदेवराय की रचना आमुक्तमाल्यद अथवा विष्णुचित्तीय प्रथम उदाहरण है। इसमें अलवार विष्णुचित्त (पेरियालवार) के जीवन, वैष्णव दर्शन पर उनके मत तथा उनकी दत्तक पुत्री गोदा एवं भगवान रंगनाथ के बीच प्रेम का वर्णन है, तेलगु के पंचमहाकाव्यों में एक माना जाता है। तेलुगु के पाँच महाकाव्य हैं- कृष्णदेवराय रचित आमुक्तमाल्यद, अल्लसानि पेद्दन रचित मनुचरित, भट्टमूर्ति रचित वसुचरित, पिंगलि सूरन विरचित राघवपांडवीयमु तथा तेनालि रामकृष्ण विरचित पांडुरंगमाहात्म्यमु हैं। कहते हैं कि कृष्णदेवराय की राजसभा में अल्लसानि पेद्दन, नंदि तिम्मन, भट्टमूर्ति, धूर्जटि, माडय्यगरि मल्लन, अय्यलराजु, रामभद्र, पिंगलि सूरन तथा तेनालि रामकृष्ण नामक आठ कवि रहते थे। इन्हें अष्टदिग्गज कहा जाता था।

राजकवि अल्लसानि पेद्दन को कृष्णदेवराय ने ‘आंध्रकवितापितामह’ की उपाधि दी थी। उसकी प्रसिद्ध रचना मनुचरित या स्वारोचिश संभव है। इसकी कथा मार्कंडेयपुराण से ली गई है। इस ग्रंथ को अल्लसानि पेद्दन ने कृष्णदेवराय को समर्पित किया था। पेद्दन ने हरिकथासार शरणम् नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना भी की थी, जो अप्राप्त है। कृष्णदेवराय के दूसरे तेलुगु कवि नंदि तिम्मन ने पारिजातापहरण प्रबंध नामक काव्य की रचना की। भट्टमूर्ति, जो बाद में रामराजभूषण नाम से प्रसिद्ध हुआ, ने विद्यानाथ के प्रतापरुद्रीय की अनुकृति पर नरसभूपालियम् नाम से अलंकारशास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना कर तोरगंति नरसराजु को समर्पित किया था। उसकी अन्य कृतियाँ हरिश्चंद्रनलोपाख्यानम् तथा वसुचरित्र हैं। हरिश्चंद्रनलोपाख्यानम् में हरिश्चंद्र और नल-दमयंती की कथा का साथ-साथ वर्णन किया गया है। वसुचरित्र में सुक्तिमती नदी तथा कोलाहल पर्वत की पुत्री गिरिका एवं राजकुमार वसु के विवाह का वर्णन है, जो महाभारत की छोटी-सी कथा है। कालहस्ति के शैवकवि धूर्जटि ने कालहस्ति माहात्म्य तथा उसके पौत्र कुमार धूर्जटि ने कृष्णदेवरायविजय की रचना की थी। पाँचवे कवि मादय्यगरि मल्लन ने राजशेखरचरित की रचना कर ख्याति प्राप्त की थी। सफलकथा सारसंग्रह एवं रामाभ्युदयम् छठें कवि अच्चलराजु रामचंद्र की रचनाएँ है। कृष्णदेवराय के अष्ट दिग्गजों में सातवें कवि पिंगलि सूरन ने राघवपांडवीयमु में रामायण तथा महाभारत की कथाओं का एक साथ वर्णन किया है। कृष्णदेवराय तथा वेंकट के समकालीन तेनालि रामकृष्ण विरचित पांडुरंग माहात्म्यमु की गणना तेलुगु के पाँच महान महाकाव्यों में की जाती है। इसमें एक दुराचारी ब्राह्मण की दिवंगत आत्मा का विष्णु के गणों द्वारा यमराज के चंगुल से छुड़ाये जाने का वर्णन है। उसकी एक अन्य कृति उद्भटाचार्यचरित है। कृष्णदेवराय के समय का एक अन्य तेलुगु कवि संकुसाल नृसिंह है, जिसकी प्रस्तावना में कवियों और राजाओं की निंदा की गई है। पिडुपति सोमनाथ की शैव रचना बासवपुराण में वैष्णव धर्म की कटु आलोचना की गई है। कृष्णदेवराय के समय की दो अन्य रचनाएँ मनुमंचिभट्टविरचित हयलक्षणशास्त्र तथा वल्लभाचार्यकृत लीलावती गणित हैं। हयलक्षणशास्त्र में घोड़े तथा उसके प्रशिक्षण से संबंधित विषय निरूपित है। लीलावती गणित प्रसिद्ध लीलावती का पद्यानुवाद है।

कन्नड़ साहित्य

तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया, जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। कुमार व्यास का कन्नड़-भारत कृष्णदेवराय को ही समर्पित है। कन्नड भाषा के संवर्धन में प्रारंभ में जैनों की बड़ी भूमिका रही। किंतु बाद में शैवों और वैष्णवों के बढ़ते प्रभाव के कारण जैनों की स्थिति कमजोर हो गई। हरिहर द्वितीय तथा देवराय प्रथम के काल में मधुर ने पंद्रहवें तीर्थंकर के आधार पर धर्मनाथपुराण की रचना की। वृत्तविलास ने धर्मपरीक्षा (अमितगति विरचित संस्कृत धर्मपरीक्षा का कन्नड़ अनुवाद) तथा शास्त्रसार की रचना की। इस युग की एक अन्य रचना काव्यसार है, जिसका प्रणयन विद्यानंद ने किया था।

जैनों के बाद कन्नड़ साहित्य के संवर्द्धन में सर्वाधिक योगदान वीरशैवों ने किया। इस काल की कन्नड़ कृतियों में अराध्य ब्राह्मण भीमकविरचित बासवपुराण अत्यंत प्रसिद्ध लिंगायत धर्मग्रंथ है। (प्रौढ़) देवराय द्वितीय के दरबारी कवि चामरस ने प्रभुलिंग-लीले की रचना की। कहा जाता है कि (प्रौढ़) देवराय द्वितीय ने इसका तेलुगु तथा मलयालम में अनुवाद भी कराया था। (प्रौढ़) देवराय के मंत्री लक्कना दंडेश ने शिवतत्त्वचिंतामणि तथा जक्कनार्य ने नुरोंदुस्थल की रचना की।

विरूपाक्ष के शासनकाल में तोंटड सिद्धेश्वर अथवा सिद्धलिंगयति ने 700 वचनों में षट्स्थल-ज्ञानामृत नामक एक गद्य ग्रंथ की रचना की। उसके शिष्य विरक्त तोंटदार्य ने सिद्धेश्वर-पुराण लिखा, जिसमें उसने अपने गुरु का जीवनवृत्त निरूपित किया है। गुब्बि के मल्लनार्य ने कृष्णदेवराय के शासनकाल में भावचिंतारत्न, सत्येंद्रचोल कथे तथा वीरशैवामृत’ की रचना की।

वैष्णव रचनाओं में कृष्णदेवराय के समय ब्रह्मण नारणप्प लिखित गडुगिन भारत अत्यंत प्रसिद्ध है। इसमें महाभारत के प्रथम दश पर्वों का कन्नड़ में अनुवाद किया गया है। तिम्मन्नकृत कृष्णराय भारत में महाभारत के ग्यारहवें पर्व से लेकर अठारहवें पर्व तक का कन्नड़ अनुवाद किया गया है। इसी काल में चाटुविठ्ठलनाथ ने भागवत का कन्नड अनुवाद किया। अच्युतदेव राय के शासनकाल में पुरंदरदास ने लोकप्रिय भक्ति गीतों की रचना की। कृष्णदेवराय के शासनकाल में इसके विदूषक ने हास्यरस में रामकृष्ण-कथे की रचना की थी।

विजयनगर में कला एवं स्थापत्य का विकास

विजयनगर के शासकों ने कला एवं स्थापत्य के विकास में भी विशेष रुचि का प्रदर्शन किया। कहा जाता है कि बुक्का प्रथम ने संपूर्ण भारत के विद्वानों, शिल्पकारों और कारीगरों को विजयनगर साम्राज्य में आमंत्रित किया था। इस साम्राज्य की पुरानी राजधानी के पुरावशेष इस बात के सबूत हैं कि अपने गौरवकाल में भारतीय कलाकारों ने यहाँ वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला की एक पृथक् शैली का विकास किया था। यद्यपि विजयनगर साम्राज्य का राजनीतिक इतिहास उसका दक्कन सल्तनत के साथ चल रहे संघर्ष पर केंद्रित है, किंतु उसकी वास्तुकला का एक पक्ष दक्कन सल्तनत की इस्लामी विशेषताओं के साथ कई धर्मनिरपेक्ष संरचनाओं को समेटे हुए है। कई मेहराब, गुंबद और तहखाने हैं, जो इन इस्लामी प्रभावों के सूचक हैं।

विजयनगर साम्राज्य में स्थापत्य कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। कृष्णदेवराय ने अपनी माता की स्मृति में विजयनगर के पास नागलपुर नामक एक नया नगर स्थापित करवाया और एक बड़ा तालाब खुदवाया, जो सिंचाई के काम भी आता था। विजयनगर के शासकों के संरक्षण में विजयनगर को विविध प्रकार भवनों, मंदिरों तथा मूर्तियों से अलंकृत किया गया। दुर्भाग्य से उनमें से अधिकांश नष्ट हो गये हैं, किंतु जो अवशिष्ट हैं, उनमें राजा का सभाभवन (आडियन्स हाल) और राजसिंहासन मंच (थ्रोन प्लेटफार्म) विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं।

सभाभवन

सभाभवन का निर्माण मूल रूप से स्तंभों के आधार पर कई मंजिलों में किया गया था। सबसे अंत में पिरामिडनुमा छत थी। अब्दुर रज्जाक के अनुसार सभाभवन दुर्ग में स्थित सभी भवनों से ऊँचा था। उसका निर्माण दस-दस स्तंभों की दस पंक्तियों और इस प्रकार कुल सौ स्तंभों से किया गया था। यह शत-स्तंभ कक्ष (हाल ऑफ हंड्रेड पिलर्स) कहलाता था। स्तंभों के आधार वर्गाकार, दंड बेलनाकार तथा स्तंभशीर्ष दीवारगीर (ब्रैकेट युक्त) थे। निचला भाग आकर्षक सीढ़ियों के डंडों तथा किनारे के साथ एक के ऊपर एक विस्तीर्ण क्रमशः कम होते हुए चबूतरों के रूप में समस्त संरचना के ऐतिहासिक स्वरूप के अनुरूप चौड़े उभरे तथा गढ़े हुए रद्दों से अलंकृत है। वास्तुविद् पर्सी ब्राउन के अनुसार यह सभाभवन फारस तथा मुगलों के अनुकरण पर बनाया गया था।

राजसिंहासन मंच

कहा जाता है कि राजसिंहासन मंच का निर्माण कृष्णदेवराय ने उड़ीसा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। यह भी क्रमशः घटते हुए एक के ऊपर एक तीन चबूतरों से वर्गाकार रूप में बनाया गया था। इसमें सबसे निचले चबूतरे का एक किनारा 40.234 मीटर तथा सबसे ऊपरी चबूतरे का एक किनारा 23,774 मीटर है। ऊपरी चबूतरे की उर्ध्वाधार दीवारें आकर्षक प्रस्तर संचकणों से अलंकृत हैं। निचले दोनों चबूतरों की उर्ध्वाधार दीवारें पशुओं तथा मनुष्यों की कम उभरी हुई आकृतियों से कलात्मक ढंग से अलंकृत की गई हैं। इसकी समता यूरोप के गोथिक शैली के परवर्ती शिल्प से की जा सकती है।

विजयनगर की अन्य अवशिष्ट कलाकृतियों में लोट्स महल, हस्तिशाला तथा मीनारद्वय (वाच टॉवर) विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। प्रायः लोट्स महल को भारतीय इस्लामी शैली का मिश्रित रूप माना जाता है, किंतु मेहराबों तथा स्तंभों को छोड़कर शेष रचना पर भारतीय शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। इस महल का निर्माण 1575 ई. में किया गया था। दक्षिण भारतीय मंदिरों के शिखरों के ढंग पर निर्मित यह एक वर्गागार मंडप है, जिसका निर्माण दोहरे आलों वाले कोनों के साथ दो मंजिलों में किया गया है। ऊपरी मंजिल में बने कक्षों की छत पिरामिडाकार है। हस्तिशाला पर इस्लामी कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

मंदिर-वास्तु

विजयनगर स्थापत्य शैली का पूर्ण विकास मंदिर-वास्तु में परिलक्षित होता है। दक्षिण भारत के विभिन्न संप्रदायों तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण एक नई प्रकार की मंदिर निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। विजयनगर साम्राज्य के मंदिर-वास्तु की प्रमुख विशेषताएँ थी-मंडप के अतिरिक्त कल्याण-मंडप का प्रयोग, अलंकृत स्तंभों और पायों का प्रयोग, एक ही चट्टान को काटकर स्तंभ और जानवर की आकृति का निर्माण। इस समय कर्मकांडीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मंदिर के विशाल प्रांगण में मुख्य मंदिर के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं के मंदिर और अलंकृत स्तंभों का निर्माण आरंभ हुआ। किंतु इन दोनों निर्माणों से भी अधिक जीवंत तथा आकर्षक रचना अलंकृत कल्याण मंडप है, जहाँ देवता के विवाह का प्रतीकात्मक समारोह आयोजित किया जाता था।

विजयनगर के मंदिरों की एक प्रमुख विशेषता है- उनके स्तंभों तथा पायों का विधिवत अलंकरण। यह अलंकरण जटिल मूर्ति समूहों से किये गये हैं। स्तंभों तथा स्थूणों को अत्यंत निपुणता से तराश कर उन पर मनुष्य, देवी-देवता तथा पैर उठाये पशुओं की रमणीय मूर्तियाँ तक्षित की गई हैं। सभी स्तंभ तथा मूर्तियाँ एक ही ठोस पत्थर को अच्छी तरह तराश कर बनाई गई हैं, जिनमें दो पैरों पर खड़े घोड़े की आकृति सर्वाधिक आकर्षक है। मुख्य स्तंभों से अलग मध्यवर्ती स्तंभों के चारों ओर लघु स्तंभों का समुदाय है। उनका मुख्य दंड कई भागों में बँटा है और प्रत्येक भाग में मंदिर के प्रतिरूप बने हैं, जो बुर्ज के समान एक दूसरे के ऊपर हैं। सभी स्तंभों में स्तंभ-शीर्ष के अंश के रूप में अलंकृत ब्रैकेट तथा ब्रैकेट के नीचे पुष्पों की लटकन है, जो अधोमुख कमल की कली के रूप में दिखते हैं।

विजयनगर शैली का एक अन्य तत्व हम्पी में ससिवकालु (सरसों) गणेश और कदलेकालु (मूंगफली) गणेश, करकला और वेनूर में गोम्मटेश्वर (बाहुबली) मोनोलिथ और लेपाक्षी में नंदी बैल जैसे बड़े मोनोलिथ की नक्काशी और अभिषेक है। कोलार, कनकगिरी, श्रृंगेरी और कर्नाटक के अन्य शहरों के विजयनगर मंदिर; आंध्र प्रदेश में तड़पत्री, लेपाक्षी, अहोबिलम, तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर और श्रीकालहस्ती के मंदिर और तमिलनाडु में वेल्लोर, कुंभकोणम, काँची और श्रीरंगम के मंदिर इस शैली के उदाहरण हैं।

विजयनगर मंदिर वास्तु शैली के समस्त मंदिर तुंगभद्रा के दक्षिण समस्त दक्षिण भारत में, जहाँ द्रविड़ शैली के मंदिर पाये जाते हैं, फैले हुए हैं। मंदिर-स्थापत्य के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण के रूप में विजयनगर की विध्वंस राजधानी हम्पी में स्थित विट्ठलस्वामी मंदिर तथा हजारराम मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका निर्माण कृष्णदेवराय द्वारा करवाया गया था।

विट्ठलस्वामी मंदिर

विजयनगर के सभी मंदिरों में विट्ठलस्वामी मंदिर सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम अलंकृत मंदिर है। इसमें विष्णु (विठोवा-पंढरपुर के प्रसिद्ध देवता) की प्रतिमा स्थापित है। संभवतः इस मंदिर का निर्माण कृष्णदेवराय के शासनकाल में 1513 ई. में प्रारंभ हुआ था और उसके उत्तराधिकारी के शासनकाल में भी चलता रहा। यह मंदिर एक मिश्रित भवन है, जो लंबे-चौड़े आँगन में खड़ा है। आहाता स्तंभों की तिहरी कतार से घिरा है। इसमें पूरब, दक्षिण तथा उत्तर में तीन प्रवेशद्वार हैं और इनके ऊपर गोपुरम् बनाये गये हैं।

इस मंदिर के मुख्य तीन अंग हैं- गर्भगृह, मध्यमंडप या सभाभवन और अर्द्धमंडप (सामने स्तंभोंवाली खुली ड्योढ़ी)। अर्द्धमंडप 1.5 मीटर ऊँची कुर्सी पर बना है। इसमें कुल 56 अलंकृत स्तंभ हैं और प्रत्येक 3.7 मीटर ऊँचा है। इन्हें ग्रेनाइट के ठोस खंडों को काटकर बनाया गया है। इनमें चालीस स्तंभ हाल के बाहरी किनारे के चारों ओर मार्ग निर्माण की दृष्टि से नियमित अंतर पर खड़े किये गये हैं, शेष सोलह मध्य भाग में आयताकार मार्ग बनाने का काम करते हैं। स्तंभ के बल्ल तथा शीर्ष की खुदाई पृथक् ढंग से की गई है। स्तंभ की पीठिका अत्यंत सुंदर ढंग से खुदी है। स्तंभों के ऊपर ब्रैकेट बने हैं, जिनके ऊपर छत टिकी है। किंतु सभी स्तंभ एक समान तक्षित नहीं हैं। इस द्वारमंडप की उत्कृष्ट कला ने आगे चलकर चिदंबरम्, वेल्लोर तथा मदुरै की द्रविड़ शैली के मंदिरों को स्थायी रूप से प्रभावित किया।

मंदिर का भीतरी भाग वर्गाकार है, जिसकी एक ओर की लंबाई 16,764 मीटर है। इसके मध्य में एक वर्गाकार मंच तथा प्रत्येक कोने पर एक-एक स्तंभ है। विमान 22.86 मीटर लंबा और 21.946 मीटर चौड़ा है। इसके अंदर बाहरी आंगन की सतह पर एक प्रदक्षिणापथ है। मंदिर का एक भाग कल्याणमंडप है, जो मुख्य मंदिर से अलग उत्कृष्ट तथा भव्य कारीगरी से युक्त है। इसमें भी एक खुला मंडप है, जिसकी वास्तुरचना मंदिर के सामने वाले द्वारमंडप से मिलती-जुलती है। इसमें कुल अड़तालीस स्तंभ हैं और सभी अलंकृत हैं। कल्याणमंडप के पास तथा महामंडप के प्रवेश द्वार के सामने एक अन्य अत्यंत आकर्षक भवन है, जिसमें गमनशील पत्थर के पहिये लगे हैं, जो घूमते थे और यथार्थ लगते हैं। संपूर्ण रथ विजयनगर की शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है।

हजारराम मंदिर

विजयनगर साम्राज्य के मंदिर वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना हजारराम मंदिर है। संभवतः इस मंदिर का निर्माण भी कृष्णदेवराय ने 1513 ई. में प्रारंभ किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार इसे विरूपाक्ष द्वितीय ने बनवाया था। इस मंदिर के मुख्य तथा सहायक मंदिरों की रचना विट्ठलस्वामी मंदिर की शैली पर ही की गई थी। यहाँ एक आँगन में मुख्य मंदिर के अतिरिक्त देवी के लिए अलग देवस्थान, कल्याणमंडप तथा अन्य सहायक मंदिर हैं। आँगन को 7.315 मीटर ऊँची दीवार से घेरा गया है। आँगन में जाने के लिए पूरब की तरफ चौरस छतवाला द्वारमंडप है, जो सभाभवन की ओर जाता है। सभाभवन में चारों ओर काले पत्थर के चार बड़े स्तंभ हैं, जिन पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। अहाते के मध्य स्थित मुख्य भवन के ऊपर असाधारण विमान अथवा बुर्ज है। इसकी निचली मंजिल पत्थर की है और शुंडाकार बुर्ज ईंट का बना है। मंदिर की भीतरी दीवारों पर रामायण के दृश्य अंकित किये गये हैं।

चित्रकला

विजयनगर काल में चित्रकला उत्तमता की ऊँची सीढ़ी पर पहुँच गई थी, जिसे लिपाक्षी कला कहा जाता है। इसके विषय रामायण एवं महाभारत से लिये गये हैं। हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर में दशावतार और गिरिजाकल्याण (पार्वती, शिव की पत्नी का विवाह), लेपाक्षी के वीरभद्र मंदिर में शिवपुराण भित्तिचित्र (शिव की कथाएँ) और कामाक्षी और वरदराज मंदिरों में दीवार-चित्रकला शामिल हैं।

संगीतकला का शीघ्रता से विकास हुआ। संगीत के विषय पर कुछ नई पुस्तकें लिखी गईं। कृष्णदेवराय और रामराय संगीत में प्रवीण थे। नाट्यशालाओं में यक्षणी शैली सबसे प्रसिद्ध था।

इस प्रकार विजयनगर के शासकों ने न केवल एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था के आधार पर दक्षिण भारत को संगठित करने का प्रयास किया, बल्कि कृषि एवं उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित कर साम्राज्य की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया। इस साम्राज्य के शासकों ने संस्कृत, तमिल, तेलुगु और कन्नड़ में साहित्य और भाषाओं को बढ़ावा दिया। विजयनगर साम्राज्य के प्रतिभाशाली शासकों के संरक्षण में हिंदू धर्म, दर्शन, व्याकरण, नाटक, कला, नृत्य और संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई और अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। कुल मिलाकर, विजयनगर के प्रतिभाशाली शासकों के संरक्षण में विजयनगर की चतुर्दिक उन्नति हुई।

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