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चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’
समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन्न पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय असाधारण प्रतिभा, अदम्य उत्साह एवं विलक्षण पौरुष से युक्त था। गुप्त अभिलेखों से ध्वनित होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त-सम्राट हुआ था। किंतु इसके विपरीत, अंशरूप में उपलब्ध ‘देवीचंद्रगुप्तम्’ एवं कतिपय अन्य साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वान् रामगुप्त को समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी घोषित करते हैं। रामगुप्त की दुर्बलता और अयोग्यता का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने उसके राज्य एवं रानी दोनों का हरण कर लिया।
ऐतिहासिक स्रोत
चंद्रगुप्त द्वितीय के इतिहास-निर्माण में पुरातात्त्विक और साहित्यिक दोनों स्रोतों से सहायता मिलती है। इसके काल के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनमें से कुछ तिथियुक्त हैं और कुछ तिथिविहीन।
मथुरा स्तंभलेख पहला अभिलेख है, जिस पर गुप्त संवत् 61 (380 ई.) की तिथि अंकित है। यह लेख उसके शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था। लेख में चंद्रगुप्त द्वितीय को ‘परमभट्टारक’ कहा गया है। इस अभिलेख से पता चलता है कि इस समय मथुरा क्षेत्र में पाशुपत धर्म का लकुलीश संप्रदाय अधिक लोकप्रिय था। मथुरा से ही इस नरेश के शासनकाल का एक तिथिविहीन शिलालेख भी मिला है जिसमें चंद्रगुप्त के काल तक की गुप्तवंशावली मिलती है।
इसके अतिरिक्त दो अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेख उदयगिरि से प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक तिथियुक्त है, जिसे गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में सनकानीक महाराज ने वैष्णव गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण कराया था। इस गुफा की दीवाल पर भगवान् विष्णु की प्रतिमा का भी अंकन है। दूसरा तिथिविहीन लेख भी एक गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण है, जो शैव धर्म से संबंधित है। इसे चंद्रगुप्त द्वितीय के संधिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव ने उत्कीर्ण कराया था जो किसी सैन्य-अभियान में चंद्रगुप्त के साथ पूर्वी मालवा आया हुआ था। इस नरेश का एक अन्य शिलालेख गुप्त संवत् 88 (407 ई.) इलाहाबाद जिले की करछना तहसील के गढ़वा नामक स्थान से मिला है।
तिथिक्रम की दृष्टि से गुप्त संवत् 93 (412 ई.) का साँची शिलालेख इसके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है, जो साँची के महाचैत्य की वेदिका के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण है। इस अभिलेख में चंद्रगुप्त का प्रिय नाम ‘देवराज’ मिलता है। लेख से पता चलता है कि आम्रकार्दव नामक सैनिक पदाधिकारी ने साँची में स्थित महाविहार (काकनादबाट श्रीमहाविहार) को ईश्वरवासक ग्राम तथा पच्चीस दीनार दानस्वरूप दिया था। केवल मथुरा शिलालेख को छोड़कर अन्य सभी लेख कर्मचारियों एवं धर्मपरायण व्यक्तियों द्वारा उत्कीर्ण कराये गये थे। इन अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों का प्रमाणिक परिचय मिलता है।
चंद्रगुप्त के शासनकाल में गुप्त मुद्रा-कला का भी विकास हुआ। उसने धनुर्धर, छत्र, पर्यंक, सिंहहंता, अश्वारूढ़, राजारानी, ध्वजधारी एवं चंद्रविक्रम कोटि की मुद्राओं का प्रचलन किया जो उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ-साथ उसके साम्राज्य-विस्तार पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। सबसे पहले इसी नरेश ने शक-विजय के उपलक्ष्य में रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया जो उसकी शक विजय का सबल प्रमाण हैं। इसके अलावा तत्कालीन ताम्र-मुद्राएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
साहित्यिक विकास की दृष्टि से भी चंद्रगुप्त का शासनकाल प्रशंसनीय है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कालीदास जैसे विद्वान् उसके दरबार की शोभा थे और उनकी रचनाओं से तत्कालीन समाज, धर्म और राजनीति का ज्ञान होता है। इसके अलावा भोजकृत ‘श्रृंगारप्रकाश’ एवं क्षेमेंद्रप्रणीत ‘औचित्यविचारचर्चा’ भी महत्त्वपूर्ण हैं। फाह्यान नामक चीनी यात्री इसी नरेश के काल में भारत आया था, इसलिए उसका यात्रा-विवरण भी तत्त्कालीन इतिहास के निर्माण में उपयोगी है।
तिथि का निर्धारण
चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों के आधार पर किया जा सकता है। गुप्त संवत् 61 (380 ई.) का मथुरा स्तंभलेख चंद्रगुप्त के शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था (राज्यसंवत्सरे पंचमे)। इसलिए उसका राज्यारोहण गुप्त संवत् (61-5) 56 अर्थात् 375 ई. में हुआ होगा।
तिथिक्रम की दृष्टि से साँची का शिलालेख उसके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है जिसकी तिथि गुप्त संवत् 93 (412 ई.) है। इसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञाततिथि उसके बिलसद अभिलेख में गुप्त संवत् 96 (415 ई.) प्राप्त होती है। इस आधार पर अनुमान किया जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने 375 ई. से 415 ई. तक लगभग चालीस वर्षों तक शासन किया।
नाम और उपाधियाँ
चंद्रगुप्त द्वितीय के अन्य अनेक नाम भी मिलते हैं। साँची लेख में उसका नाम ‘देवराज’ मिलता है (महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य देवराज इति नाम्नः)। प्रवरसेन द्वितीय की चमक प्रशस्ति में प्रभावतीगुप्ता को महाराजाधिराज देवगुप्त की पुत्री बताया गया है (महाराजाधिराजश्रीदेवगुप्तसुतायां प्रभावतीगुप्तायाम्)। कुछ मुद्राओं पर उसका नाम ‘देवश्री’ व ‘श्रीविक्रम’ भी मिलता है। अभिलेखों और सिक्कों से पता चलता है कि उसने ‘विक्रमांक’, ‘विक्रमादित्य’, ‘सिंहविक्रम’, ‘नरेंद्रचंद्र’, ‘अजीतविक्रम’, ‘परमभागवत’, ‘परमभट्टारक’ आदि उपाधियाँ धारण की थी जो उसकी महानता और राजनीतिक प्रभुता के परिचायक हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ
चंद्रगुप्त द्वितीय एक बुद्धिमान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था। राज्यारोहण के उपरांत उसने स्वयं को समुद्रगुप्त का ‘पादपरिगृहीत’ घोषित कर अपने उत्तराधिकार को वैधानिक रूप प्रदान किया। तत्त्कालीन शक्तिशाली राजवंशों- नागों, वाकाटकों तथा कदंबों के साथ वैवाहिक-संबंध स्थापित कर चंद्रगुप्त उसने अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया और गुप्त-कुलवधू की ओर कुदृष्टि डालनेवाले म्लेच्छ शकों का उन्मूलन कर गुप्त राजसत्ता का विस्तार किया।
चंद्रगुप्त द्वितीय के वैवाहिक संबंध
गुप्तों के वैवाहिक संबंध उनकी विदेशनीति में अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। हर्यंकवंशीय बिंबिसार की भाँति चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी अपने समकालीन राजवंशों के साथ विवाह संबंध द्वारा अपनी शक्ति का प्रसार किया था।
नाग वंश से संबंध
प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने नागदत्त, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत् तथा नंदि जैसे अनेक नागवंशीय राजाओं को पराजित किया था, किंतु इससे नागवंश का पूर्ण विनाश नहीं हो सका था और नाग अभी भी एक प्रमुख शक्ति के रूप में बने हुए थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने नागों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ‘नागकुलसम्भूता’ राजकुमारी कुबेरनागा के साथ विवाह किया, जिससे इस गुप्त नरेश को अपनी नवस्थापित सार्वभौम सत्ता को सुदृढ़ करने में सहायता प्राप्त हुई। इसी वैवाहिक संबंध के परिणामस्वरूप एक कन्या प्रभावतीगुप्ता उत्पन्न हुई जिसका विवाह वाकाटक वंश में किया। अनुमान है कि यह वैवाहिक-संबंध समुद्रगुप्त के काल में ही हुआ रहा होगा क्योंकि चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावतीगुप्ता वयस्क हो चुकी थी। तभी तो वकाटकों का सहयोग लेने के लिए चंद्रगुप्त ने अपने राज्यारोहण के उपरांत प्रभावतीगुप्ता का विवाह रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया था।
वाकाटकों से संबंध
दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। वाकाटक नरेश के राज्य की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि वह उज्जयिनी के शक-क्षत्रपों के विरुद्ध किसी भी उत्तरी भारत की शक्ति के लिए उपयोगी तथा अनुपयोगी दोनों ही सिद्ध हो सकता था। यही कारण है कि चंद्रगुप्त ने शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया, जिससे गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री-संबंध स्थापित हो गया। किंतु इस विवाह के कुछ समय बाद ही तीस वर्ष की आयु में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसके दोनों पुत्र- दिवाकरसेन और दामोदरसेन अभी क्रमशः पाँच वर्ष व दो वर्ष के थे, इसलिए राज्य का शासन प्रभावतीगुप्ता ने अपने हाथों में ले लिया। उसने अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय को शकों के विरुद्ध हरसंभव सहायता की।
कुंतल से संबंध
दक्षिण भारत में कुंतल (कर्नाटक) एक प्रभावशाली राज्य था, जहाँ कदम्बों का शासन था। आज का कनाड़ी जिला प्राचीन कुंतल राज्य का प्रतिनिधित्व करता है। ‘श्रृंगारप्रकाश’ तथा ‘कुंतलेश्वरदौत्यम्’ से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। तालकुंड के स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि कुंतल नरेश काकुत्स्थवर्मा नामक कदंबवंशी शासक की कन्या गुप्तवंश में ब्याही गई थी-
गुप्तादि-पार्त्थिव-कुलाम्बुहस्थलानिस्नेहादर-प्रणय-सम्भ्रम-केसराणि।
श्रमन्त्यनेक नृपषट्पद सेवितानि योऽबोधयद्दुहितृदीधितिभिर्नृपाकृकैः।।
संभवतः चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब राजवंश के काकुत्स्थवर्मा की पुत्री अनंतदेवी से हुआ था। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि भोज के श्रृंगारप्रकाश एवं क्षेमेंद्र की औचित्य-विचारचर्चा से भी होती है जिसके अनुसार चंद्रगुप्त ने कालीदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। वहीं रहकर कालीदास ने ‘कुंतलेश्वरदौत्यम्’ नामक ग्रंथ की रचना की थी, जो संप्रति उपलब्ध नहीं है। कालीदास ने लौटकर सम्राट को सूचित किया था कि कुंतल नरेश शासन का भार चंद्रगुप्त के ऊपर डालकर भोग-विलास में लिप्त हैं (पिवति मधुसुगंधीन्याननानि प्रियाणां, त्वयि विनित भारः कुंतलानामधीशः)। संभवतः इस वैवाहिक संबंध के कारण ही चंद्रगुप्त के सौरभ से दक्षिणी समुद्रतट सुवासित होते थे।
चंद्रगुप्त द्वितीय की सैनिक उपलब्धियाँ
चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ कर सैनिक अभियान किया जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहालेख के अनुसार ‘कृत्स्नपृथ्वीजय’ (संपूर्ण पृथ्वी को जीतना) था। यद्यपि समुद्रगुप्त ने अनेक विदेशी जातियों को अपना आधिपत्य मानने के लिए विवश किया था। किंतु लगता है कि साम्राज्य में व्याप्त अव्यवस्था का लाभ उठाकर कुछ विदेशी शासक गुप्त साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर रहे थे। इस समय विदेशी जातियों की शक्ति के दो बड़े केंद्र थे- गुजरात, काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रप और गांधार-कंबोज के कुषाण। शक-महाक्षत्रप संभवतः षाहानुषाहि कुषाण राजा के ही प्रांतीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुंड (शकस्वामी या शकों के स्वामी) कहा गया है।
शक विजय
शक गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी मालवा पर शासन करते थे। इन शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित करना चंद्रगुप्त द्वितीय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। माना जाता है कि रामगुप्त के समय में शकों ने गुप्त साम्राज्य के समक्ष भीषण संकट उत्पन्न कर दिया था और चंद्रगुप्त ने उनके शासक की हत्या कर गुप्त साम्राज्य और उसके सम्मान की रक्षा की थी।
सम्राट बनने पर चंद्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटकों के सहयोग से काठियावाड़-गुजरात के शक-महाक्षत्रापों पर आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह पराजित किया और अपने प्रतिद्वंद्वी शक शासक रुद्रसिंह तृतीय को मारकर गुजरात और काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कहते हैं कि शक-विजय के उपलक्ष्य में चंद्रगुप्त ने ‘शकारि’ तथा ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि को धारण किया था। इसी प्रकार कई शताब्दी पहले सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि ने शकों का उच्छेद कर ‘शकारि’ और ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि ग्रहण की थी।
चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा शक-विजय की सूचना देने वाले तीन अभिलेख पूर्वी मालवा से प्राप्त हुए हैं। चंद्रगुप्त के संधि-विग्रहिक वीरसेन शैव के उदयगिरि (भिलसा के समीप) गुहालेख से पता चलता है कि ‘वह समस्त पृथ्वी को जीतने के उद्देश्य से राजा के साथ इस स्थान पर आया था’ (कृत्स्नपृथ्वीजयार्थेन राज्ञेवैह सहागतः)। इसी स्थान से प्राप्त गुप्त संवत् 82 (401 ई.) के वैष्णव लेख से पता चलता है कि भिलसा (पूर्वी मालवा) में सनकानीक महाराज चंद्रगुप्त द्वितीय की अधीनता में शासन कर रहा था। इसकी पुष्टि गुप्त संवत् 93 (412 ई.) के साँची शिलालेख से होती है जिसके अनुसार आम्रकार्दव नामक सैन्याधिकारी ने काकनादबाट श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक नामक गाँव एवं पच्चीस दीनार दानस्वरूप दिया था। इन लेखों से मालव प्रदेश में चंद्रगुप्त द्वितीय की दीर्घ-उपस्थिति की सूचना मिलती है जिसका उद्देश्य संभवतः शक-सत्ता का उन्मूलन कर गुप्त साम्राज्य का विस्तार करना ही था।
चंद्रगुप्त की शक-विजय का प्रबल प्रमाण उसकी रजत-मुद्राएँ हैं। शक-मुद्राओं के अनुकरण पर चंद्रगुप्त ने इस क्षेत्र में प्रचलन के लिए अपनी रजत मुद्राओं पर अपना चित्र, नाम, विरुद, गरुड़ एवं मुद्रा-प्रचलन की तिथि को अंकित करवाया। यहाँ से रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जो चंद्रगुप्त द्वारा पुनर्टंकित करवाये गये हैं। यही नहीं, इस शासक की सिंह-निहंता प्रकार की मुद्राएँ भी उसके गुजरात और काठियावाड़ की विजय का प्रमाण हैं जहाँ जंगलों में सिंह बड़ी संख्या में पाये जाते थे।
उदयगिरि के वैष्णव गुहालेख से स्पष्ट है कि गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में चंद्रगुप्त द्वितीय का सामंत महाराज सनकानीक पूर्वी मालवा का शासक था। चंद्रगुप्त की रजत मुद्राएँ गुप्त संवत् 90 (409 ई.) की हैं जो पश्चिमी भारत से मिली हैं। इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि 409 ई. के पूर्व पश्चिमी भारत में गुप्त सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी। सौराष्ट्र के इन नव-विजित क्षेत्रों पर शासन करने के लिए चंद्रगुप्त ने संभवतः उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाई, इसलिए उसे ग्रंथों में ‘उज्जैनपुरवराधीश्वर’ कहा गया है।
गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब चंद्रगुप्त के साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूरब में बंगाल तक विस्तृत हो गई। भड़ौच, सोपारा, खम्भात तथा पश्चिती तट के अन्य बंदरगाहों पर अधिकार के कारण गुप्त साम्राज्य पश्चिमी देशों के संपर्क में आ गया।
गणराज्यों की विजय
गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गांधार-कंबोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था। संभवतः पश्चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों ने चंद्रगुप्त की व्यस्तता का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। चंद्रगुप्त द्वितीय का सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव अपने साँची अभिलेख में स्वयं को अनेक युद्धों में विजय द्वारा यश प्राप्त करनेवाला (अनेक समरावाप्तविजययशसूपताकः) कहता है। विष्णु पुराण से विदित होता है कि संभवतः गुप्तकाल से पूर्व अवंति पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का आधिपत्य था और चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों से निपटने के बाद इन गणराज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। किंतु वर्तमान स्थिति में उनका विवेचन अप्रमाणित है।
मेहरौली स्तंभ-लेख के ‘चंद्र’ की पहचान
दिल्ली में मेहरौली के निकट कुतुबमीनार के पार्श्व में स्थित लौह-स्तंभ (विष्णुध्वज) पर किसी ‘चंद्र’ नामक एक प्रतापी सम्राट की विजय-प्रशस्ति उत्कीर्ण है। लेख के अनुसार-
यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्
वंगेष्वाहव वर्त्तिनोऽभिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिभुजे।
तीर्त्वा सप्तमुखानि येन समरे सिंधुोर्जिता वाहिकाः,
यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्वीर्यानिलैर्दक्षिणः।।’
अर्थात् उसने ‘बंगाल के युद्ध क्षेत्र में मिलकर आये हुए अपने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था; उसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था; उसने सिंधु नदी के सातों मुखों को पारकर युद्ध में वाह्लीकों को जीता था; उसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट अब भी सुवासित हो रहा था।’
अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लेख उत्कीर्ण किया गया, वह राजा मर चुका था, किंतु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी। उसने ‘अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक शासन किया’ (प्राप्तेन स्वभुजार्जितं च सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ)। ‘भगवान् विष्णु के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना की थी (प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णुर्ध्वजः स्थापितः)।’
मेहरौली के इस स्तंभलेख में कोई तिथि अंकित नहीं है। इसमें न तो राजा का पूरा नाम दिया गया है और न ही राजा की कोई वंशावली दी गई है। इसलिए इस ‘चंद्र’ की पहचान प्राचीन भारत के चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर चंद्रगुप्त द्वितीय तक के प्रायः समस्त ‘चंद्र’ नामधारी सम्राटों से की जाती रही है।
हरिश्चंद्र सेठ इस चंद्र की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से करते हैं, किंतु वह जैनधर्मानुयायी था और लेख की लिपि गुप्तकालीन है। हेमचंद्र रायचौधरी इसकी पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक ‘चंद्रांश’ से करते हैं, जो मेहरौली के चंद्र जैसा प्रतापी नहीं था। हरप्रसाद शास्त्री इस चंद्र की पहचान सुसुनिया पहाड़ी (पश्चिम बंगाल) लेख के ‘चंद्रवर्मा’ से करते हैं, किंतु यह समीकरण भी मान्य नहीं है क्योंकि चंद्रवर्मा एक साधारण राजा था जिसे समुद्रगुप्त ने सरलतापूर्वक उन्मूलित कर दिया था।
रमेशचंद्र मजूमदार मेहरौली के चंद्र का समीकरण कुषाण शासक कनिष्क प्रथम से करते हैं जिसे खोतानी पाण्डुलिपि में ‘चंद्र कनिष्क’ कहा गया है। किंतु इस मत से भी सहमत होना कठिन है क्योंकि कनिष्क बौद्ध मतानुयायी था और उसके राज्य का विस्तार दक्षिण में नहीं था।
इसी प्रकार फ्लीट, आयंगर, राधागोविंद बसाक जैसे कुछ इतिहासकार चंद्र को ‘चंद्रगुप्त प्रथम’ मानते हैं, किंतु चंद्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य बहुत सीमित था और बंगाल तथा दक्षिण भारत पर उसका कोई प्रभाव नहीं था। यही नहीं, कुछ इतिहासकार ‘चंद्र’ की पहचान समुद्रगुप्त से भी करते हैं, किंतु इस लेख में उसके अश्वमेध यज्ञ का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि यह मरणोत्तर लेख है।
अधिकांश विद्वान् ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ‘उसने वंग प्रदेश में शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था और सिंधु के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैंधव देश की सात नदियों) को पार करके वाह्लीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी। दक्षिण में उसकी ख्याति फैली हुई थी और वह भगवान् विष्णु का परम भक्त था।’ वंग की पहचान साधारणतया पूर्वी बंगाल से की जाती है। वाह्लीक-विजय का अभिप्राय बल्ख (बैक्ट्रिया) से लिया जा सकता है, यद्यपि इसका तात्कालिक तात्पर्य संभवतः वाह्लीक जाति से है।
बंगाल विजय
मेहरौली के स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के एक सम्मिलित संघ को पराजित किया था। वस्तुतः पश्चिमी बंगाल का बाँकुड़ा वाला क्षेत्र समुद्रगुप्त द्वारा जीता जा चुका था और उत्तरी एवं पूर्वी बंगाल अब भी जीतने को अवशिष्ट था। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार समतट, डवाक आदि प्रत्यंत राज्य समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे।
संभवतः गुप्त साम्राज्य की अराजक परिस्थितियों और काठियावाड़-गुजरात के शकों को पराजित करने में चंद्रगुप्त द्वितीय की व्यस्तता का लाभ उठाकर बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने गुप्त-सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। शकों और उत्तर-कुषाणों से निपटने के बाद चंद्रगुप्त ने बंगाल के शत्रुओं के इस संघ का उन्मूलन किया (यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीयमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्)। मेहरौली लेख के अनुसार इस सम्राट की भुजाओं पर तलवार के द्वारा कीर्ति लिखी गई थी (खड्गेन कीर्तिभुजे)। इस विजय से संपूर्ण वंग-भूमि पर गुप्त-सत्ता स्थापित हो गई और ताम्रलिप्ति जैसे समृद्ध बंदरगाह पर गुप्तों का अधिकार हो गया जिससे व्यापार-वाणिज्य की बहुत उन्नति हुई।
वाह्लीक विजय
मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय ने सिंधु के सात मुखों को पार कर वाह्लीकों पर विजय प्राप्त की थी। पंजाब की सात नदियों- यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम और सिंधु का प्रदेश प्राचीन समय में ‘सप्तसैंधव’ कहलाता था। वाह्लीक विजय से अभिप्राय संभवतः बल्ख (बैट्रिया) से न होकर वाह्लीक जाति से है। उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर पंजाब में उत्तर-कुषाणों का राज्य विद्यमान था और संभवतः इन्हीं उत्तर-कुषाणों को वाह्लीक कहा गया है जो कभी बल्ख (बैट्रिया) में शासन कर चुके थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने सप्तसैंधव प्रदेश को पारकर पंजाब में जाकर इन उत्तर-कुषाणों को पराजित किया। इस विजय के परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँच गई।
चंद्रगुप्त द्वितीय की दक्षिण भारत की विजय
मेहरौली लेख के अनुसार चंद्रगुप्त द्वितीय की ख्याति दक्षिण भारत तक फैली हुई थी। वस्तुतः चंद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के वाकाटक और कदंब जैसे शक्तिशाली राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव का विस्तार किया था। उसकी पुत्री प्रभावतीगुप्ता के काल में वाकाटक राज्य पूर्णतया उसके प्रभाव में था।
भोज के ‘श्रृंगारप्रकाश’ से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने कालीदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश काकुत्स्थवर्मा के दरबार में भेजा था। कालीदास ने लौटकर सूचना दी थी कि कुंतल नरेश अपना राज्यभार चंद्रगुप्त को सौंपकर भोग-विलास में निमग्न हो गया था। क्षेमेंद्र ने ‘औचित्य-विचारचर्चा’ में कालीदास के एक श्लोक का उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि कुंतल प्रदेश का शासन वस्तुतः चंद्रगुप्त ही चलाता था।
स्पष्ट है कि दक्षिण के वाकाटक और कुंतल राज्यों पर चंद्रगुप्त का प्रभाव था। संभवतः इन्हीं प्रभावों के कारण मेहरौली स्तंभलेख में काव्यात्मक ढ़ंग से लिखा गया है कि ‘चंद्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्र-तट आज भी सुवासित हो रहे हैं।’
मेहरौली लेख के ‘चंद्र’ की अन्य विशेषताएँ भी चंद्रगुप्त द्वितीय के संबंध में सत्य प्रतीत होती हैं। चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी ‘चंद्र’ की भाँति शकपति की हत्या करके अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था और लगभग चालीस वर्षों की लंबी अवधि तक शासन किया था। उसकी ‘परमभागवत’ उपाधि से स्पष्ट है कि वह विष्णु का अनन्य भक्त था।
इस प्रकार मेहरौली स्तंभलेख के ‘चंद्र’ की प्रायः सभी विशेषताएँ चंद्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व और चरित्र में परिलक्षित होती हैं। लेख की लिपि भी गुप्तकालीन है और चंद्रगुप्त द्वितीय की कुछ मुद्राओं पर उसका नाम भी ‘चंद्र’ मिलता है। संभवतः उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता की स्मृति में इस लेख को उत्कीर्ण कराया था।
चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य-विस्तार
अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक सुविस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरमसीमा पर पहुँच गया था। पश्चिमी भारत के शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कंबोज के उत्तर-कुषाणों के पराजित हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की घाटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत हो गया था। दक्षिण भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। उसके लेख और सिक्के इस विस्तृत भूभाग में कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
अश्वमेध यज्ञ
चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। बनारस के तिगवा नामक गाँव से घोड़े की एक प्रस्तर-मूर्ति मिली है जिस पर ‘चंद्रगु’ लेख उत्कीर्ण है। जे. रत्नाकर के अनुसार यह अश्वमेध की अश्व-प्रतिमा हो सकती है और यह पाठ ‘चंद्रगुप्त’ का नामांश है। किंतु इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है।
चंद्रगुप्त द्वितीय की मुद्राएँ
चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य की आवश्कता के अनुसार अनेक प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन करवाया था। स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ इस नरेश की रजत एवं ताम्र-मुद्राएँ भी प्राप्त हुई हैं। स्वर्ण मुद्राओं को दीनार तथा रजत मुद्राओं को ‘रुप्यक’ (रुपक) कहा जाता था। स्वर्ण मुद्राएँ संभवतः सार्वभौम प्रचलन के लिए थीं जो उसकी वीरता और तत्त्कालीन आर्थिक संपन्नता का सूचक हैं। चंद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित है-
धनुर्धारी प्रकार:
इन मुद्राओं के पुरोभाग पर धनुष-बाण लिए राजा की आकृति, गरुड़ध्वज तथा मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ अंकित है। पृष्ठभाग पर देवी के साथ राजा की उपाधि ‘श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण है।
छत्रधारी प्रकार
इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर राजा आहुति डालते हुए खड़ा है, उसका बायां हाथ तलवार की मुठिया पर है। राजा के पीछे एक बौना छत्र लिए खड़ा है। इस ओर दो प्रकार के लेख मिलते हैं- ‘महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त’ तथा ‘विक्रमादित्य पृथ्वी को जीतकर उत्तम-कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः तथा क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः)। पृष्ठ भाग पर कमल के ऊपर देवी चित्रित हैं और मुद्रालेख ‘विक्रमादित्यः’ उत्कीर्ण है।
पर्यंक प्रकार
इन मुद्राओं के मुख भाग पर सुसज्जित राजा हाथ में कमल लिये पलंग पर आसीन है और मुद्रालेख ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य’ तथा पलंग के नीचे ‘रूपाकृति’ उत्कीर्ण है। कुछ मुद्राओं के मुख भाग पर उसकी उपाधि ‘परमभागवत’ भी मिलती है।
सिंह-निहंता प्रकार
इस प्रकार की मुद्राओं के मुख भाग पर सिंह को धनुषबाण अथवा कृपाण से मारते हुए राजा की आकृति उत्कीर्ण है और पृष्ठ भाग पर बैठी हुई देवी का अंकन है। इस प्रकार की मुद्राएँ कई वर्ग की हैं और उन पर भिन्न-भिन्न मुद्रालेख अंकित है, जैसे- नरेंद्रचंद्र पृथ्वी का अजेय राजा सिंह-विक्रम स्वर्ग को जीतता है, (नरेंद्रचंद्र प्रथितदिव जयत्यजेयो भुवि सिंह-विक्रम), ‘देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ अथवा ‘महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः’ आदि।
अश्वारोही प्रकार
इन मुद्राओं के मुख भाग पर अश्वारोही राजा की आकृति तथा मुद्रालेख ‘परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर बैठी देवी और उपाधि ‘अजितविक्रमः’ उत्कीर्ण है।
चंद्रगुप्त द्वितीय ने रजत एवं ताम्र मुद्राओं का भी प्रचलन करवाया था जो स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए थीं। उसने शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद विजित क्षेत्रों में पुरानी शक-मुद्राओं के अनुकरण पर रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया। इन रजत मुद्राओं के मुख भाग पर राजा की और पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति उत्कीर्ण है तथा ‘परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तविक्रमादित्य’ तथा ‘श्रीगुप्तकुलस्यमहाराजाधिराज श्रीगुप्तविक्रमांकाय’ लेख मिलते हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में उसकी जो मुद्राएँ मिली हैं, वे कुषाण नमूने की हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय ने ताँबे के कई प्रकार की मुद्राओं का भी प्रचलन किया था। इन मुद्राओं के मुख भाग पर ‘श्रीविक्रम’ अथवा ‘श्रीचंद्र’ तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़ की आकृति के साथ ‘श्रीचंद्रगुप्त’ अथवा ‘चंद्रगुप्त’ खुदा हुआ है।
चंद्रगुप्त द्वितीय की शासन-व्यवस्था
चंद्रगुप्त द्वितीय महान् विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी था। उसका चालीस वर्षीय शासन शांति, सुव्यवस्था एवं समृद्धि का काल था। सम्राट् स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। उसकी सहायता के लिए मंत्रिपरिषद् होती थी। राजा के बाद दूसरा उच्च अधिकारी ‘युवराज’ होता था। गुप्तकाल में युवराजों की सहायता के लिए स्वतंत्र परिषद् हुआ करती थी।
चंद्रगुप्तकालीन अभिलेखों में अनेक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है। उसके एक मंत्री शिखरस्वामी को करमदंडा अभिलेख में ‘कुमारामात्य’ भी कहा गया है। चंद्रगुप्त का संधिविग्रहिक (अन्वयप्राप्तसचिव) वीरसेन ‘शैव’ था जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहालेख में है। साँची लेख से ज्ञात होता है कि उसका सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव था जो अनेक युद्धों का विजेता (अनेकसमरावाप्तविजययशस्तपताकः) था। लेखों एवं मुद्राओं के आधार पर चंद्रगुप्तकालीन कुछ शासकीय विभागों के पदाधिकारियों का नाम इस प्रकार है-
‘कुमारामात्य’ विभिन्न प्रकार के उच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों का वर्ग था। इनका कार्यालय ‘कुमारामात्याधिकरण’ कहलाता था।
‘बलाधिकृत’ सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी होता था जिसका कार्यालय ‘बलाधिकरण’ कहा जाता था।
‘रणभंडाराधिकृत’ सैन्य-सामग्री को सुरक्षित रखने वाला प्रधान अधिकारी था और इसका कार्यालय ‘रणभांडाधिकरण’ कहलाता था।
‘दंडपाशिक’ पुलिस विभाग का पदाधिकारी था जो ‘दंडपाशाधिकरण’ में बैठता था।
‘भटाश्वपति’ अश्वसेना का प्रधान होता था। ‘महादंडनायक’ मुख्य न्यायाधीश होता था और ‘महाप्रतीहार’ मुख्य दौवारिक होता था।
‘विनयस्थितिस्थापक’ का प्रमुख कार्य राज्य में शांति और कानून-व्यवस्था को बनाये रखना था। इसके अलावा विनयशूर, तलवर और उपरिक आदि भी प्रशासनिक व्यवस्था के अधिकारी थे।
सत्ता का विकेंद्रीकरण
साम्राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। शासन की प्रांतीय इकाई ‘देश’ या ‘भुक्ति’ कहलाती थी। प्रांतों के मुख्य अधिकारी ‘उपरिक’ कहे जाते थे। तीरभुक्ति का राज्यपाल चंद्रगुप्त द्वितीय का पुत्र गोविंदगुप्त था, जिसका उल्लेख बसाढ़ मुद्रालेख में है। सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा का राज्यपाल रहा होगा। प्रांतों का विभाजन अनेक प्रदेशों या विषयों में हुआ था।
वैशाली के सर्वोच्च शासकीय अधिकारी का विभाग वैशाली-अधिष्ठान-अधिकरण कहलाता था। नगरों एवं ग्रामों के शासन के लिए अलग परिषद् होती थी। ग्राम शासन के लिए ग्रामिक, महत्तर एवं भोजक नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति होती थी।
चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी। किंतु परवर्ती कुंतलनरेशों के अभिलेखों में उसे पाटलिपुत्रपुरवराधीश्वर एवं उज्जयिनीपुरवराधीश्वर दोनों कहा गया है। संभव है कि शक रुद्रसिंह तृतीय की पराजय के बाद चंद्रगुप्त ने अपने राज्य की दूसरी राजधानी उज्जयिनी में बनाई हो। साहित्यिक ग्रंथों में विक्रमादित्य को इन दोनों ही नगरों से संबद्ध किया गया है। उज्जयिनी विजय के बाद ही मालव संवत् विक्रमादित्य के नाम से संबद्ध होकर विक्रम संवत् नाम से अभिहित होने लगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल में भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान (400-411 ई.) ने लिखा है कि भारत के लोग अहिंसक और शांतिप्रिय थे, वे राजा की भूमि जोतते थे और लगान के रूप में उपज का कुछ अंश राजा को देते थे। उन्हें कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता थी और वे कोई भी व्यवसाय कर सकते थे। उस समय मृत्यदंड नहीं दिया जाता था। सामान्यतया अर्थदंड लगाया जाता था, किंतु जघन्य अपराधों के लिए अंग-भंग भी किया जाता था। लोग लहसुन-प्याज तक नहीं खाते थे और सुरापान नहीं करते थे। देश में चोर-डाकुओं का कोई भय नहीं था। उसने लिखा है कि देश में व्यापार-व्यवसाय की स्थिति उन्नत थी। लोग संपन्न और सुखी थे तथा मानवीयता से परिपूर्ण थे। शिक्षण-संस्थाओं को सहयोग देना, धार्मिक संस्थाओं को दान देना और परस्पर सहयोग करना लोगों की स्वाभाविक प्रकृति थी। चंद्रगुप्तकालीन शांति और सुव्यवस्था की ओर संकेत करते हुए कालीदास ने लिखा है-
‘यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्थ पथे गतानाम्।
वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्।।’
अर्थात् जिस समय वह राजा शासन कर रहा था, उपवनों में मद पीकर सोती हुई सुन्दरियों के वस्त्रों को स्पर्श करने का साहस वायु तक में नहीं था, तो फिर उनके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था?
चंद्रगुप्त द्वितीय का धर्म और धार्मिक नीति
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णवधर्म का अनुयायी ‘परमभागवत’ था। मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवाई थी। उसने योग्यता के आधार पर विभिन्न धर्मों के लोगों को उच्च पदों पर नियुक्त किया था। उसका संधिविग्रहिक वीरसेन शैव था जिसने शिव की पूजा के लिए उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण करवाया था (भक्त्याभगवतः शम्भोः गुहामेकमकारयत्)। उसका सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध था जिसने साँची के श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक ग्राम और पच्चीस दीनार दान दिया था (प्रणिपत्य ददाति पंचविंशतीः दीनारान्)। उस समय यज्ञ करने वाले, शिव, विष्णु एवं सूर्य के उपासक, जैन, बौद्ध सभी मतों के मानने वाले परस्पर प्रेम से रहते थे।
चंद्रगुप्त द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
चंद्रगुप्त के शासनकाल में जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास हुआ तथा धर्म, दर्शन, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, साहित्य और कलाओं की उन्नति हुई। संभवतः यही कारण है कि अनेक इतिहासकारों ने उसके शासनकाल को भारतीय इतिहास को‘स्वर्णयुग’ बताया है।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य विद्या एवं कला का उदार संरक्षक था। उसके शासनकाल में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। अनुश्रुतियों के अनुसार संस्कृत के अमरकवि कालीदास, प्रसिद्ध ज्योतिष विद्वान् वराहमिहिर, आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वररुचि जैसे ‘नवरत्न’ उसके दरबार की शोभा थे। उसका संधिविग्रहिक वीरसेन व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का विद्वान् तथा कवि था (शब्दार्थ-न्याय-लोकज्ञे कविः पाटलिपुत्रकः)। राजशेखर की काव्यमीमांसा से पता चलता है कि उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने वाली एक विद्वत्परिषद् थी जिसने कालीदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चंद्र, चंद्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी। इसके नाम से चलाया गया विक्रम संवत् संवत्सर की गणना में आज भी प्रयुक्त होता है।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में पश्चिमी सीमांत के विस्तार से उत्तर भारत की संस्कृति और वाणिज्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उज्जयिनी इस काल का प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, जहाँ अधिकतर व्यापारिक मार्ग एक-दूसरे से मिलते थे। एक बार फिर पाटलिपुत्र की सड़कें उत्तरी तथा मध्य भारत के निर्माण-केंद्रों से होती हुई समुद्र तक पहुँच गईं। पाटलिपुत्रा (पटना) से कोशांबी, उज्जयिनी होते हुए एक मार्ग गुजरात में भडौंच (भृगुकच्छ) बंदरगाह तक जाता था, जहाँ से समुद्री मार्ग द्वारा पश्चिमी देशों- मिस्र, रोम, ग्रीस, फारस और अरब देशों से व्यापार होता था। पूर्व में बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति जैसा बड़ा बंदरगाह था, जहाँ से पूर्व एवं सुदूर-पूर्व के देशों- बर्मा, जावा, सुमात्रा, चीन आदि से व्यापार होता था। पूर्वी बंगाल के उत्तम सूती वस्त्र, पश्चिम बंगाल का सिल्क, बिहार का नील, वाराणसी, अनहिलवाड़ा-पाटन की स्वर्ण कशीदाकारी तथा किनख्वाब, हिमालय क्षेत्रों के राज्यों के इत्र, कपूर तथा दक्षिण भारत के मसाले, इन बंदरगाहों तक आसानी से पहुँचने लगे। पश्चिमी व्यापारी इस व्यापार के बदले बड़ी मात्रा में रोम से सोना लाये जिसका प्रभाव चंद्रगुप्त द्वितीय की विभिन्न स्वर्ण मुद्राओं पर परिलक्षित होता है। भारत से मुख्यतः मोती, मणि, सुगंधी, सूती वस्त्र, मसाले, नील, दवाइयाँ, हाथीदाँत आदि निर्यात किये जाते थे। विदेशों से चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम, घोड़े, खजूर आदि मँगाये जाते थे।
इस प्रकार चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य उदार, न्यायप्रिय तथा सुयोग्य प्रशासक था। इस प्रतापी नरेश के काल में न केवल व्यापार-वाणिज्य की उन्नति हुई, अपितु शिल्पों और उद्योगों का भी विकास हुआ जिसके कारण प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों की दृष्टि से अनेक इतिहासकारों ने इस नरेश के काल को ‘स्वर्णयुग’ की संज्ञा प्रदान की है। इस गुप्त सम्राट का मूल्यांकन करते हुए कालीदास ने लिखा है-
‘कामं नृपाः संतु सहस्त्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम्।
नक्षत्र ताराग्रहसंकुलापि, ज्योतिष्मती चंद्रमसैव रात्रिः।।’
(भले ही पृथ्वी पर सहस्त्रों राजा हों, किंतु पृथ्वी इस राजा से उसी प्रकार राजनवती (राजा वाली) कही गई है, जिस प्रकार नक्षत्र, तारा, ग्रह आदि के होने पर भी रात्रि केवल चंद्रमा से ही चाँदनी वाली कही जाती है।
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