कन्नौज का यशोवर्मन (Yashovarman of Kannauj)

कन्नौज का यशोवर्मन

हर्ष की मृत्यु के बाद की राजनीतिक स्थिति

हर्ष की मृत्यु (647-648 ई.) के बाद उसका साम्राज्य शीघ्र ही विखंडित हो गया। इसका कारण यह था कि उसके पीछे कोई उत्तराधिकारी नहीं था। उस राजनीतिक शून्य का लाभ उठाकर उन सभी क्षेत्रों ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, जिन्हें उसने अपने अधीन संगठित किया था। कन्नौज का साम्राज्य भी समाप्त हो गया, उसका अधिकार-क्षेत्र काफी सीमित हो गया और मगध, बंगाल और उड़ीसा उससे अलग हो गये। हर्ष के साम्राज्य के खंडहरों पर उदित होने वाले नये राज्यों के अतिरिक्त जो स्वतंत्र राज्य पहले से विद्यमान थे, उन्होंने भी अपनी सत्ता का विस्तार करने का प्रयत्न किया। राजपूताना एवं पश्चिमी भारत में कुछ नये राजवंशों का उदय हुआ, जो कालांतर में उत्तरी भारत की प्रमुख शक्ति बन गये। कश्मीर में कार्कोट राजवंश की सत्ता स्थापित हुई। वस्तुतः हर्षोत्तर काल में उत्तर भारत में राजनीतिक विकेंद्रीकरण और विभाजन की शक्तियाँ एक बार पुनः क्रियाशील हो गईं। चूंकि हर्ष के समय से ही उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र-बिंदु कन्नौज बन गया था, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज पर अधिकार करने के लिए विभिन्न शक्तियों के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया।

चीनी आक्रमण

ह्वेनसांग के माध्यम से हर्ष का चीन के राजा से संबंध स्थापित हुआ था और दोनों के बीच दूतमंडलों का आदान-प्रदान होने लगा था। चीनी लेखक मा-त्वान-लिन के विवरणों से पता चलता है कि चीन से हर्ष के दरबार में 641 और 643 ई. में दूतमंडल आये थे। ह्वेनसांग के 645 ई. में चीन लौटने के बाद चीन के राजा ने 646 ई. में तीसरा दूतमंडल भेजा, जिसका नेता वंग हुएनत्से था, जो दूसरे दूतमंडल का भी सदस्य रह चुका था। किंतु जब वह कन्नौज पहुँचा, तो हर्ष की मृत्यु (647-48 ई.) हो चुकी थी और उसके मंत्री अर्जुन (अरुणाश्व) ने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया था। उसने अपने सैनिकों के द्वारा चीनी दूतमंडल को लूटा और बंदी बना लिया। वंग ने रात को चुपके से भागकर किसी तरह अपनी जान बचाई और बदला लेने के लिए तिब्बती राजा गंपो तथा नेपाली राजा अंशुवर्मन से सैनिक सहायता लेकर अर्जुन के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया। अंततः अर्जुन पराजित हुआ, उसके बहुत से सैनिक मारे गये और उसे बंदी बनाकर चीन ले जाया गया, जहाँ कैद में ही उसकी मृत्यु हो गई।

मा-त्वान-लिन के इस विवरण की ऐतिहासिकता संदिग्ध है क्योंकि इस चीनी-तिब्बती अभियान की चर्चा न तो भारतीय साहित्य में मिलती है और न ही नेपाल और तिब्बत के इतिहास में। संभव है कि हर्ष के बाद साम्राज्य के बँटवारे के लिए महत्त्वाकांक्षी प्रतिद्वंद्वियों के बीच होने वाले संघर्ष में वंग हुएनत्से ने किसी की ओर से भाग लिया हो और इसी संबंध में उसका अर्जुन से संघर्ष हुआ हो। जो भी हो, मा-त्वान-लिन के विवरण से इतना स्पष्ट है कि हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में अराजकता और अव्यवस्था की स्थिति व्याप्त थी।

यह स्पष्ट नहीं है कि अरुणाश्व ने हर्षवर्धन के साम्राज्य के केवल उत्तर-पूर्वी (बिहार वाले) क्षेत्रों पर अधिकार किया था या उसके कुछ अन्य प्रदेशों पर भी। कन्नौज के बारे में भी कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। कुछ अभिलेखों से लगता है कि मौखरियों ने पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया था क्योंकि सुचंद्रवर्मन नामक राजा की एक मुद्रा मिली है, जो संभवतः अंवतिवर्मन का पुत्र और ग्रहवर्मन का भाई था। भोगवर्मन नामक एक अन्य राजा को ‘मौखरिकुल का मुकुटमणि’ कहा गया है। उसने नेपाल और मगध के राजकुलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किया था। मनोरथवर्मन नामक तीसरे राजा का एक अभिलेख वाराणसी के चकिया क्षेत्र के इलिया गाँव से मिला है। इससे लगता है कि अरुणाश्व के बाद मौखरियों ने कन्नौज के आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया था, किंतु उनका तिथिक्रम नहीं है। इस प्रकार हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज का लगभग 75 वर्षों का इतिहास तिमिराच्छादित है। इस अंधयुग की समाप्ति के बाद, यशोवर्मन नामक एक महत्त्वाकांक्षी और शक्तिशाली शासक के कन्नौज पर शासन करने की सूचना मिलती है।

यशोवर्मन

यशोवर्मन लगभग आठवीं शती के प्रारंभ में कन्नौज की गद्दी पर बैठा। यशोवर्मन के संबंध में जानकारी का प्रमुख स्रोत उसके दरबारी कवि वाक्पति द्वारा लिखित ‘गउडवहो’ है। गउडवहो प्राकृत भाषा का एक ऐतिहासिक काव्य है, जिसका मुख्य वर्ण्य-विषय है- विजयोपरांत गौडराज का यशोवर्मन द्वारा वध। इसी काव्य में यशोवर्मन की अन्य विजयों की भी चर्चा है। किंतु हर्षचरित की तरह गउडवहो में भी तिथियों का अभाव है। संभवतः गउडवहो के आधार पर ही जैन लेखकों ने अनेक प्राकृत-संस्कृत काव्यों, जैसे- वप्पभट्टसूरिचरित, राजशेखरकृत प्रबंधकोष, प्रभाचंद्र का प्रभावकचरित और जिनप्रभसूरि का तीर्थकल्प में यशोवर्मन की चर्चा की है। इनके अतिरिक्त, कल्हण की राजतरंगिणी में यशोवर्मन और कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड के युद्ध का विवरण मिलता है। कम से कम पाँच चीनी ग्रंथों से भी यशोवर्मन के बारे में सूचना मिलती है, जिनका उल्लेख जन-युन-हुआ ने किया है। इनमें से एक हुई-चाओ नामक किसी कोरियाई बौद्ध भिक्षु द्वारा अपनी भारत और मध्य एशिया की यात्रा से लौटने के बाद 727 ई. में लिखा गया था, किंतु अब तक उसका कोई अंग्रेजी अथवा भारतीय भाषाओं में रूपांतर नहीं मिला है। अन्य ग्रंथों में हैं- ल्यू-शी के नेतृत्व में संकलित शांगवंश का प्राचीन इतिहास (945 ई.); वैंग -पू द्वारा संकलित शांगवंश के विधान (961 ई.); वैंग -चिन-जो और यांग-यि द्वारा संकलित शाही राजपत्रालय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आलेख (1005-1013 ई.) और यू-यांग-श्यू एवं सुंग-चि द्वारा संकलित शांग वंश का नवीन इतिहास (1060 ई.)। इनमें यशोवर्मन और कश्मीर के उसके समकालिक राजा ललितादित्य मुक्तापीड संबंधी अनेक उल्लेख मिलते हैं। इसके अलावा, नालंदा से प्राप्त एक लेख से भी यशोवर्मन की विजयों के संबंध में कुछ अप्रत्यक्ष जानकारी होती है।

यशोवर्मन के वंश और प्रारंभिक जीवन

यशोवर्मन के वंश और प्रारंभिक जीवन के बारे में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। गउडवहो में उसे विष्णु का अवतार और ‘चंद्रवंशी’ क्षत्रिय कहा गया है। जैनग्रंथ बप्पभट्टसूरिचरित और प्रभावकचरित में उसे मौर्य शासक चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज का बताया गया हैं। कुछ इतिहासकार ‘वर्मन’ नामांत के आधार पर उसे मौखरि वंश से संबंधित करते हैं। किंतु यह इसका कोई प्रमाण नहीं है कि मौखरि चंद्रवंशी ही थे। वास्तव में, यशोवर्मन और मौखरियों के एककुलत्त्व के संबंध में मात्र नामांत की समता के अलावा अन्य कोई प्रमाण नहीं है।

यशोवर्मन का विजय अभियान

यशोवर्मन की विजयों के संबंध में गउडवहो में कहा गया है कि वर्षांत के अंत में उसने अपनी सेना के साथ विजययात्रा प्रारंभ की। सोन नदी की घाटी तथा विंध्यपर्वत की विंध्यवासिनी देवी (आधुनिक मिर्जापुर के पास विंध्याचल नगर) के स्थान से होता हुआ वह मगध की ओर गया। मगहनाह (मगध) का राजा भयभीत होकर भाग गया, किंतु वह पकड़ा गया और मारा गया। इस विजय के बाद यशोवर्मन का कानपुर, फतेहपुर और प्रयागराज के क्षेत्रों पर अधिकार हो गया। तत्पश्चात् यशोवर्मन की सेनाएँ बंग की ओर बढ़ीं और वहाँ के लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

बंगविजय के बाद यशोवर्मन ने दक्षिण की ओर बढ़ते हुए मलय पर्वत को पार किया और दक्षिणी पठार के एक शासक को अधीन बनाता हुआ मलय पर्वत को पारकर वह समुद्रतट तक पहुँचा। फिर उसने पारसीकों के देश की ओर जाकर उन्हें एक भयंकर युद्ध में पराजित किया और पश्चिमी घाट के दुर्गम क्षेत्रों से ‘कर’ वसूल किया। इसके बाद, वह नर्मदा और समुद्री किनारों से होता हुआ मरुदेश (राजपूताना के मारवाड़) पहुँचा, जहाँ से वह पुनः श्रीकंठ (थानेश्वर) और कुरुक्षेत्र होता हुआ अयोध्या पहुँचा। उसने मंदराचल पर्वत के निवासियों को अपने अधीन किया और हिमालय की तलहटियों के प्रदेशों को जीतते हुए वह अपनी राजधानी कन्नौज लौट आया। उसने कन्नौज में एक महोत्सव का आयोजन किया और उन राजाओं को, जो उसके साथ आये थे, अपने-अपने राज्यों में वापस भेज दिया।

यशोवर्मन के विजय-अभियान की समीक्षा

वाक्पति का यशोवर्मन के विजय-अभियान का यह विवरण कितना ऐतिहासिक है, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार गउडवहो यशोवर्मन की विजयों के वर्णन की भूमिका मात्र है। कुछ विद्वान गउडवहो के विवरण को वास्तविक घटना नहीं, बल्कि कवि की कल्पना मात्र मानते हैं क्योंकि यह विश्वास करना कठिन है कि उसने उत्तर और दक्षिण के सभी राज्यों को पराजित किया होगा। वस्तुतः वाक्पति ने यशोवर्मन की विजयों का कोई विशेष ब्यौरा नहीं दिया है, यहाँ तक कि बंग (गौड) देश के मारे गये राजा का नाम तक नहीं दिया है और गौड विजय का उल्लेख भी काव्य के अंत किया है।

किंतु यशोवर्मन की विजयों को असंभव कहकर निरस्त नहीं किया जा सकता। मध्यदेश के यशोवर्मन जैसे शक्तिशाली राजा के लिए पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में नर्मदा तक और उत्तर में हिमालय की तलहटियों तक विजय करना असंभव नहीं था। अन्य प्रमाणों से विभिन्न दिशाओं में यशोवर्मन की कुछ विजयों का संकेत और समर्थन मिलता है। प्रायः सभी इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि यशोवर्मन ने मगध के जिस राजा को पराजित उसका वध किया था, वह उत्तरगुप्तवंशी शासक जीवितगुप्त द्वितीय था। संभवतः वही गौड देश का भी शासक था क्योंकि उस समय मगध और गौड प्रायः एक ही राजा के अधीन हुआ करते थे। आर.जी. बसाक ने बंगाल के विजित राजा की पहचान खड्गवंश के राजा राजभट्ट से किया है। नालंदा से यशोवर्मन के एक मंत्री के पुत्र मालद का बौद्ध भिक्षुओं को दिये गये दान को अंकित करनेवाला एक शिलाभिलेख मिला है, जिससे उसके मगध विजय की अप्रत्यक्ष पुष्टि होती है। यशोवर्मन की मगध-विजय का एक दूसरा प्रमाण यह भी है कि उसने बिहार के घोसरावां नामक स्थान पर यशोवर्मपुर विहार का निर्माण करवाया था।

गउडवहो के विवरणों का अप्रत्यक्ष समर्थन यशोवर्मन के समय कन्नौज आने वाले चीनी यात्री हुई-चाओ के इस कथन से भी होता है कि, ‘उस मध्य भारत के राजा का शासित क्षेत्र अत्यंत विशाल था, राजा प्रायः स्वयं युद्धों में सेनाओं का नेतृत्त्व करता था, उसकी अन्य राजाओं से प्रायः मुठभेड़ें होती थीं और उन युद्धों में वह सर्वदा विजयी रहता था।’ वह श्रावस्ती, कपिलवस्तु और वैशाली को यशोवर्मन के राज्य (मध्यदेश) में स्थित बताता है।

दक्षिणापथ में यशोवर्मन ने किन प्रदेशों से होकर अपनी विजययात्रा की अथवा किन राजाओं को अपने अधीन किया, यह स्पष्ट नहीं है। 730 ई. के रायगढ़ चालुक्य अभिलेख में दावा किया गया है कि पुलकेशिन द्वितीय के प्रपौत्र विजयादित्य ने अपने पिता विनयादित्व (680-696 ई.)) के उत्तर भारतीय अभियान में किसी ‘सकलोत्तरापथनाथ’ को पराजित कर उससे गंगा-यमुना का प्रतीक, पालिध्वज और पद्मरागमणि प्राप्त कर अपने पिता को भेंट किया था। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि विजयादित्य का उत्तर भारत के जिस शक्तिशाली राजा (सकलोत्तरापथनाथ) से युद्ध हुआ था, वह राजा यशोवर्मन ही था और संभवतः उसने चालुक्य युवराज विजयादित्य को बंदी बनाया था।

गउडवहो में वर्णित पारसीकों से तात्पर्य संभवतः सिंध के अरबों से है। संभवतः अरबों ने कन्नौज पर आक्रमण किया था और इसी मुठभेड़ के दौरान यशोवर्मन ने अरबों को पराजित किया था। मरुदेश, श्रीकंठ और कुरुक्षेत्र कन्नौज के पूर्ववर्ती सम्राट हर्ष के अधिकार में रह चुके थे। नालंदा अभिलेख में यशोवर्मन के मंत्री को उदीचीपति (उत्तर दिशा का रक्षक), मार्गपति (सीमाओं का रक्षक) तथा प्रतीततिकिन कहा गया है। हुई-चाओ से भी पता चलता है कि यशोवर्मन ने पंजाब के कुछ भागों पर आक्रमण कर उन्हें अपने राज्य में मिला लिया था।

यशोवर्मन के राजनयिक संबंध

यशोवर्मन का अपने समकालीन चीन सम्राट से राजनयिक संबंध थे। चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि यशोवर्मन ने 731 ई. में पु-टा-सिन (बुद्धसेन) नामक अपने मंत्री को चीनी शासक हेन शुंग (713-755 ई.) के दरबार में भेजा था। चीनी विवरणों में यशोवर्मन को इ-श फो-मो कहा गया है और उसे मध्यदेश का राजा बताया गया है। प्रारंभ में यशोवर्मन और ललितादित्य के बीच भी मैत्रीपूर्ण संबंध थे और दोनों मिलकर अरबों और तिब्बतियों के प्रसार को रोकने के लिए प्रतिबद्ध थे।

कश्मीर नरेश ललितादित्य मुक्तापीङ ने भी 736 ईस्वी में अपना एक दूतमंडल चीन भेजा था और यशोवर्मन का उल्लेख अपने एक मित्र के रूप में किया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यशोवर्मन और ललितादित्य दोनों राजाओं ने अपने समान उद्देश्य अर्थात तिब्बतियों और अरबों के विरुद्ध सैनिक सहायता के लिए चीनी शासक के यहाँ अपने दूत भेजे थे।

ललितादित्य से पराजय

यशोवर्मन और ललितादित्य जैसे शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी राजाओं की मित्रता अधिक दिनों तक नहीं चल सकी। संभवतः जैसे ही अरबों और तिब्बतियों का दबाव कम हुआ, उनके आपसी संबंध बिगड़ गये और युद्ध छिड़ गया। चीनी वृत्तों से ज्ञात होता है कि उन दोनों के बीच संघर्ष का कारण जालंधर (पंजाब) के आसपास के क्षेत्रों को अपने-अपने राज्यों में मिला लेने की योजना थी। कल्हण ने राजतरंगिणी में दोनों शासकों के बीच होने वाले संघर्षों का विवरण दिया है। एक लंबे युद्ध के बाद संधि-वार्ता प्रारंभ हुई, किंतु वह सफल नहीं हो सकी। अंततः यशोवर्मन युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ और ललितादित्य की अधीनता मानने को विवश हुआ। राजतरंगिणी में काव्यात्मक ढंग से कहा गया है कि, ‘वाक्पति, भवभूति आदि कवियों द्वारा सेवित यशोवर्मन उसका (ललितादित्य का) गुणगान करने लगा और यमुना के किनारों से लेकर कालिका (काली) नदी तक के बीच का कान्यकुब्ज राज्य का क्षेत्र मानों ललितादित्य के महल का आँगन बन गया’-

कविर्वाक्पतिराजश्रीभवभूत्यादिसेवितः।

जितो ययौ यशोवर्मन तद्गुणस्तुतिवन्दिताम्।।

किमन्यत्कान्यकुब्जोवीं यमुनापारतोऽस्य सा।

अभूदाकालिकातीरं गृहप्रांगणवद्वशे।। राजतरंगिणी, चतुर्थ, 145

कश्मीरी सेनाएँ कान्यकुब्ज के क्षेत्रों से होकर पूर्व की विजय को गईं। पंजाब, जालंधर, कांगड़ा, और पुंछ कश्मीरी ललितादित्य के अधिकार में चले गये, जिन्हें उसने अपने अधीनस्थ राजाओं को सौंप दिया। मध्यदेश, विशेषकर कन्नौज से बहुत विद्वान भी कश्मीर जाकर बस गये।

यशोवर्मन-ललितादित्य का युद्ध कब हुआ था, इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं। कुछ विद्वान ललितादित्य-यशोवर्मन के युद्ध का समय 733 ई. में मानते हैं। किंतु 736 ई. में ललितादित्य ने चीनी सम्राट के यहाँ जब अपना दूतमंडल भेजा था और उस समय तक ललितादित्य और यशोवर्मन में मित्रता थी। अधिकांश इतिहासकारों ने इस युद्ध का समय 740 ई. के आसपास स्वीकार किया है।

कन्नौज का यशोवर्मन (Yashovarman of Kannauj)
कन्नौज का यशोवर्मन
विद्वानों का आश्रयदाता

यशोवर्मन स्वयं कवि होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। उसे सुभाषित ग्रथों के कुछ पद्यों और ‘रामाभ्युदय’ नाटक का रचयिता कहा जाता है। वाक्पतिराज और भवभूति उसके दरबार की शोभा थे। भवभूति ने तीन प्रसिद्ध नाटकों- मालतीमाधव, उत्तररामचरित और महावीरचरित की रचना की है। मालतीमाधव दस अंकों का नाटक है, जिसमें माधव तथा मालती की प्रणय कथा वर्णित है। उत्तररामचरित में सात अंक हैं, जिसमें रामायण के उत्तरकांड की कथा है और महावीरचरित के सात अंकों में राम के विवाह से लेकर राज्याभिषेक तक की कहानी है। उसने मगध में अपने नाम से यशवर्मपुर नामक एक विहार का निर्माण करवाया था। यशोवर्मन को शैव धर्म का अनुयायी बताया जाता है।

यशोवर्मन का शासनकाल

यशोवर्मन के शासनकाल 700 से 740 ई. के बीच माना जा सकता है। किंतु इस संबंध में कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं। चालुक्य शासक विनयादित्य के पुत्र विजयादित्य का जिस उत्तरापथनाथ से 696 ई. में संघर्ष हुआ था, यदि उसकी सही पहचान यशोवर्मन से की जाती है, तो स्पष्ट है कि वह 696 ई. के पूर्व कन्नौज की गद्दी पर बैठ चुका था। कुछ इतिहासकार उसका कार्यकाल 728 से 745 ईस्वी मानते हैं। विशुद्धानंद पाठक जैसे अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि यशोवर्मन ने लगभग 725 ई. से 752 ईस्वी तक शासन किया था। जैनग्रंथ प्रभावकचरित और प्रबंधकोश से भी संकेत मिलता है कि यशोवर्मन की मृत्यु 752 ई. के आसपास हुई थी।

यशोवर्मन के उत्तराधिकारी

यशोवर्मन का जिस तेजी से उत्थान हुआ, उतनी ही तीव्रता से उसका पतन भी हुआ। जैनग्रंथ वप्पभट्टसूरिचरित और राजशेखर के प्रबंधकोश से ज्ञात होता है कि यशोवर्मन के बाद उसकी निर्वासित रानी यशोदेवी से उत्पन्न उसके पुत्र आमराज ने कन्नौज और ग्वालियर से शासन किया। प्रभाचंद्र के प्रभावकचरित से स्पष्ट है कि आम के समय में ग्वालियर (गोपगिरि) का प्रदेश कन्नौज राज्य में शामिल था। ग्वालियर के रनोड़ से अवंतिवर्मन नामक एक राजा का अभिलेख मिला है, जिसने पुरंदर नामक शैव संन्यासी को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया था। कुछ इतिहासकार अवंतिवर्मन और आमराज को एक ही मानते हैं।

आमराज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र दुंदुक हुआ, जिसकी उसके पुत्र भोज ने हत्या कर दी। वास्तव में, आमराज और उसके उत्तराधिकारियों बारे में जैन ग्रंथों से परस्पर विरोधी सूचनाएँ मिलती हैं। यशोवर्मन के दुर्बल उत्तराधिकारियों के लगभग बीस वर्षों के शासन के बाद कन्नौज पर आयुध वंश का अधिकार हो गया।

आयुध वंश और त्रिकोणात्मक संघर्ष

आठवीं शती के तीसरे चरण में कन्नौज की राजलक्ष्मी यशोवर्मन के उत्तराधिकारियों को छोड़कर आयुध वंश के आश्रय में चली गईं। इस वंश का सबसे पहला राजा वज्रायुध था। कुछ विद्वान इसे यशोवर्मन से संबंधित करते हैं और कुछ इसे यशोवर्मन के पुत्र आमराज से समीकृत करते हैं। राजशेखरकृत कर्पूरमंजरी में वज्रायुध को पंचाल की राजधानी कन्नौज का शासक बताया गया है। कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि जयापीड विनयादित्य (770-810 ई.) ने गौडदेशाधिपति जयंत की पुत्री कल्याणदेवी से विवाह कर वापस आते समय कन्नौज के शासक को पराजित कर उसका राजसिंहासन तथा राजचिन्ह छीन लिया था। यद्यपि कुछ इतिहासकार इसकी पहचान इंद्रायुध (इंद्रराज) से करते हैं, किंतु अधिकांश इतिहासकार इस पराजित नरेश की पहचान आयुधवंशी वज्रायुध से करते हैं।

वज्रायुध के बाद 783-84 ई. के लगभग इंद्रायुध कन्नौज का राजा हुआ। किंतु उसके भाई चक्रायुध ने उसके राज्यारोहण का विरोध किया। इस समय आयुध शासकों की सत्ता नाममात्र की थी और कन्नौज राजनीतिक केंद्र होने के साथ-साथ व्यापारिक और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र था। कन्नौज पर नियंत्रण करने के लिए 8वीं शताब्दी के अंत में तत्कालीन भारत की तीन बड़ी शक्तियों- पश्चिमी भारत के गुर्जर प्रतिहारों, पूर्वी भारत के पालों और दक्षिणापथ के राष्ट्रकूटों के बीच त्रिकोणात्मक संघर्ष आरंभ हो गया, जो 10वीं शताब्दी के अंत तक चलता रहा।

सर्वप्रथम गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज ने कन्नौज के इंद्रायुध को हराकर अपनी अधिसत्ता मानने को विवश किया। इसके प्रत्युत्तर में बंगाल के पाल शासक धर्मपाल ने दोआब पर आक्रमण किया, किंतु वत्सराज की सेनाओं ने उसे बुरी तरह पराजित कर उसके दोनों श्वेत राजछत्रों को छीन लिया। इस बीच दक्षिणापथ के राष्ट्रकूट ध्रुव धारावर्ष (779-793 ई.) ने उत्तरापथ में हस्तक्षेप किया। उसने दोआब पर आक्रमण कर प्रतिहार शासक वत्सराज को बुरी तरह पराजित कर राजपूताने की मरुभूमि में शरण लेने पर विवश किया।।

प्रतिहार शासक वत्सराज को पराजित करने के बाद राष्ट्रकूट ध्रुव ने दोआब में कहीं पाल शासक धर्मपाल को भी पराजित किया। अंततः गंगा-यमुना के दुकूलों के बीच से नष्ट होते हुए (भागते हुए) गौडराज धर्मपाल की राजलक्ष्मी के लीलारविंदों और श्वेतछत्रों को छीन लेने के बावजूद राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव 790 ई. के लगभग दक्षिण भारत लौट गया।

राष्ट्रकूटों के प्रत्यावर्तन के बाद कन्नौज पर अधिकार के लिए पालों और प्रतीहारों में पुनः संघर्ष आरंभ हो गया। वत्सराज के राजपूताना की ओर भाग जाने का लाभ उठाते हुए पाल शासक धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया और इंद्रायुध को पराजित कर महोदयनगर (कन्नौज) की राजगद्दी अपने नामांकित चक्रायुध को दे दिया। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है कि कन्नौज की गद्दी पर चक्रायुध के राज्यारोहण के समय धर्मपाल ने एक बड़े दरबार का आयोजन किया, जिसमें पंचाल के वृद्धों के साथ भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवंति, गंधार और कीर के राजा सम्मिलित हुए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कन्नौज के राजा के राज्याभिषेक के समय इतने राजाओं की उपस्थिति धर्मपाल के राजनीतिक प्रभाव का द्योतक है। इस प्रकार उत्तर भारतीय राजनीति का केंद्र-बिंदु कन्नौज पुनः कुछ समय के लिए प्रतीहारों के प्रभावक्षेत्र से निकलकर बंगाल के पालों के प्रभावक्षेत्र में चला गया। यही कारण है कि सोड्ढल ने अपनी अवंतिसुंदरीकथा में पाल शासक धर्मपाल को ‘उत्तरापथस्वामिन्’ कहा है।

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