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साइमन कमीशन (1928)
1919 में भारत में संवैधानिक सुधार करने के उद्देश्य से भारत शासन अधिनियम, 1919 पारित किया गया था। इस अधिनियम में एक प्रावधान यह भी किया गया था कि इस अधिनियम के पारित होने के 10 वर्ष बाद एक संविधानिक आयोग का गठन किया जायेगा, जो भारत में इस अधिनियम के अंतर्गत हुई संवैधानिक प्रगति की समीक्षा करेगा कि भारत में उत्तरदायी शासन स्थापित करने का समय आ गया है अथवा नहीं।
इसी प्रावधान के अनुसार भारत में संवैधानिक व्यवस्था के कामकाज की समीक्षा के लिए 8 नवंबर, 1927 को लंदन की टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात ब्रिटिश सांसदों का एक संविधान आयोग के गठन की घोषणा की। इस आयोग को सर जॉन साइमन के नाम पर ‘साइमन कमीशन’ कहा जाता है, किंतु इसका औपचारिक नाम ‘भारतीय संवैधानिक आयोग’ था। साइमन कमीशन का कार्य 1919 के अधिनियम के प्रगति की समीक्षा कर इस बात की सिफारिश करना था कि क्या भारत इस योग्य हो गया है कि यहाँ के लोगों को और संवैधानिक अधिकार दिये जायें? और यदि दिये जायें, तो उसका स्वरूप क्या हो?
इस समय ब्रिटेन में रूढ़िवादी दल की सरकार थी और बाल्डविन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। समय से पूर्व साइमन कमीशन के गठन का कारण यह था कि निकट भविष्य में इंग्लैंड में आम चुनाव होनेवाले थे और बाल्डविन की रूढ़िवादी सरकार को आशंका थी कि 1928 में होने वाले आगामी चुनावों में लेबर पार्टी चुनाव जीत सकती है। बाल्डविन की टोरी सरकार नहीं चाहती थी कि आयोग का गठन आनेवाली नई सरकार करे। इसलिए उसने तय समय से दो वर्ष पहले ही साइमन कमीशन का गठन कर दिया था। अप्रैल, 1926 में भारतमंत्री ने वायसराय इरविन को लिखा था: ‘‘हम यह खतरा नहीं मोल ले सकते कि 1927 के कमीशन का मनोनयन हमारे उत्तराधिकारियों के हाथ में चला जाये।”
साइमन कमीशन तत्कालीन भारत के राज्य सचिव लॉर्ड बिरकनहेड के दिमाग की उपज थी। हॉउस ऑफ कामंस में उसने कहा था, ‘क्या इस पीढी, दो पीढ़ियों या सौ सालों में भी ऐसी संभावना दिखाई पड रही है कि भारत के लोग सेना, नौसेना तथा प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण संभालने की स्थिति में हो जायेंगे और उनका एक गवर्नर जनरल होगा, जो इस देश की किसी भी सत्ता के प्रति नहीं, अपितु भारतीय सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा?’ इस कमीशन का भारतीयों ने तीखा विरोध किया क्योंकि इस आयोग में एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था।
साइमन कमीशन का गठन
साइमन कमीशन आयोग सर जान साइमन की अध्यक्षता में गठित हुआ, जिसके सभी सातों सदस्य ब्रिटिश संसद से लिये गये थे और अंग्रेज थे। आयोग का अध्यक्ष सर जॉन साइमन ब्रिटेन की उदारवादी पार्टी से संबंधित था और उसी के नाम पर इस आयोग का नाम ‘साइमन आयोग’ पड़ा था। अन्य सदस्यों में क्लीमेंट एटली, हैरी लेवी लॉसन, एडवर्ड कैडोगन, वरनोन हारटशोर्न, जॉर्ज लेन फॉक्स और डोनाल्ड हॉवर्ड थे। भारतीयों को साइमन कमीशन से बाहर रखने का निर्णय लॉर्ड इर्विन के सुझावों के आधार पर लिया गया था, यद्यपि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इसके पीछे लॉर्ड बिरकनहेड का हाथ बताया है।
साइमन कमीशन पर भारतीयों की प्रतिक्रिया
साइमन कमीशन के गठन की घोषणा ने लोगों को उत्तेजित करने के लिए आग में घी डालने का काम किया। भारतीयों को अपमानित करने के उद्देश्य से आयोग में किसी भी भारतीय सदस्य को नहीं लिया गया था। यह नस्लभेद का एक घिनौना उदाहरण था। फलतः चौरीचौरा की घटना (4 फरवरी, 1922) के बाद रुका हुआ राष्ट्रीय आंदोलन साइमन आयोग के गठन की घोषणा से पुनः गतिमान हो गया। सभी वर्गों के भारतीयों ने साइमन कमीशन के गठन का तीव्र विरोध किया।
साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे, इसलिए कांग्रेस ने इसे ‘श्वेत कमीशन’ कहकर इसका विरोध किया। कांग्रेस ने 11 दिसंबर, 1927 को इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया, जिसमें साइमन आयोग में एक भी भारतीय सदस्य न लिये जाने के कारण आयोग के बहिष्कार की घोषणा की गई। दिसंबर, 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन एम.एन. अंसारी की अध्यक्षता में हुआ। मद्रास अधिवेशन में, जिसमें गांधीजी ने भाग नहीं लिया था, कांग्रेस ने ‘हर कदम पर, हर रूप में साइमन कमीशन के बहिष्कार’ का निर्णय लिया। कांग्रेस के अलावा, तेजबहादुर सप्रू के लिबरल फेडरेशन, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, किसान मजदूर पार्टी, फिक्की इत्यादि ने भी साइमन कमीशन के बहिष्कार का फैसला किया। वास्तव में, साइमन कमीशन ने कम से कम अस्थायी तौर पर देश के विभिन्न समूहों और पार्टियों को एक कर दिया।
मद्रास की जस्टिस पार्टी, पंजाब की यूनियन पार्टी, भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में कुछ हरिजन संगठनों, जैसे- ऑल इंडिया अछूत फेडरेशन और मुहम्मद शफी के नेतृत्व में मुस्लिम लीग के एक गुट ने साइमन कमीशन के गठन का समर्थन किया था। लखनऊ के कुछ तालुकेदारों और पूँजीपतियों ने आयोग के सदस्यों का समर्थन किया। इसके अलावा, सेंट्रल सिख संघ ने भी साइमन कमीशन का विरोध नहीं किया था।
साइमन कमीशन का आगमन और विरोध
साइमन कमीशन 3 फरवरी, 1928 को बंबई पहुँचा। साइमन कमीशन के विरोध में अखिल भारतीय हड़ताल हुई, काले झंडे दिखाये गये और ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लगाये गये। बंबई का छात्र समुदाय काला झंडा लहराते हुए सड़कों पर निकल आया और शांतिपूर्ण जुलूस निकाले गये। के.के. नरीमन ने बंबे यूथ लीग की विशाल जनसभा की और साइमन के साथ-साथ स्टेनले बाल्डविन, बरकेनहेड और मैकडोनल्ड के पुतले फूंके गये।
साइमन कमीशन जहाँ-कहीं भी गया- मद्रास, कलकत्ता (कोलकाता), लाहौर, लखनऊ, विजयवाड़ा और पूना- सभी स्थानों पर विशाल जनसमूह ने काले झंडे दिखाकर उसका स्वागत किया। मद्रास में साइमन कमीशन का विरोध टी. प्रकाशम के नेतृत्व में किया गया था। वहाँ प्रदर्शनकारियों का पुलिस के साथ टकराव हुआ, गोली चली और एक व्यक्ति मारा गया। 19 फरवरी को साइमन के कलकत्ता पहुँचने पर भारी प्रदर्शन किया गया। 1 मार्च को कलकत्ता में ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करने के लिए सभाएँ आयोजित की गईं। दिल्ली में आयोग के स्वागत के लिए कोई भी भारतीय नहीं गया।
लाहौर में 30 अक्टूबर, 1928 को सचिवालय के सामने लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। 31 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन के विरोध के दौरान लाहौर के पुलिस अधीक्षक स्कॉट ने ‘शेर-ए-पंजाब’ लाला लाजपत राय की निर्ममता से पिटाई की। अंत में, बुरी तरह घायल ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय ने जनसभा में सिंह गर्जना की कि, ‘आज मेरे ऊपर बरसी हर एक लाठी की चोट एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी ।’ अंततः इसी चोट के कारण 18 दिन बाद 17 नवंबर, 1928 को लाला लाजपत राय शहीद हो गये। लाला लाजपत राय की मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए मोतीलाल नेहरू ने उन्हें ‘प्रिंस अमंग पीस मेकर्स’ कहा था, जबकि मुहम्मदअली जिन्ना ने कहा था कि ‘इस क्षण लाला लाजपत राय की मृत्यु भारत के लिए एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य है।’ लाला लाजपत राय की मृत्यु पर दुख प्रकट करते हुए गांधीजी ने कहा था कि, ‘भारतीय सौरमंडल का एक सितारा डूब गया है। लालाजी की मृत्यु ने एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है, जिसे भरना अत्यंत कठिन है। वे एक देशभक्त की तरह मरे हैं और मैं अभी भी नहीं मानता हूँ कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, वे अभी भी जिंदा है।’ लाला लाजपत राय की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए साइमन कमीशन के अध्यक्ष जॉन साइमन ने स्वयं कहा था कि ‘एक उत्साही सामाजिक कार्यकर्त्ता और एक मुख्य राजनीतिक कार्यकर्त्ता का अवसान हो गया है।’
लखनऊ में 28-30 नवंबर को साइमन कमीशन का विरोध करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू और गोविंदवल्लभ पंत पुलिस की लाठियों से बुरी तरह घायल हो गये। लखनऊ के कैसरबाग में ताल्लुकेदारों द्वारा साइमन कमीशन के सदस्यों के लिए आयोजित स्वागत-समारोह के दौरान खलीकुज्जमाँ ने पतंगों और गुब्बारों पर ‘साइमन वापस जाओ’ लिखकर कमीशन के सदस्यों के ऊपर आकाश में उड़ाया। इस प्रकार ‘गो बैक’ के नारों से परेशान साइमन कमीशन इंग्लैंड लौट गया।
साइमन आयोग की रिपोर्ट
साइमन कमीशन ने कुल दो बार भारत का दौरा किया। पहली बार वह फरवरी-मार्च, 1928 में भारत आया, जबकि दूसरी बार वह अक्टूबर, 1928 में। साइमन कमीशन ने मई, 1930 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी और यह रिपोर्ट 27 मई, 1930 को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित की गई। साइमन आयोग की मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं-
- 1919 के भारत सरकार अधिनियम के तहत लागू की गई द्वैध शासन-व्यवस्था को समाप्त कर प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की जाए, किंतु केंद्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया है।
- केंद्रीय विधानमंडल को पुनर्गठित किया जाए, जिसमें एक इकाई की भावना को छोड़कर संघीय भावना का पालन किया जाये, साथ ही इसके सदस्य परोक्ष पद्धति से प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा चुने जायें।
- साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारत में उच्च न्यायालय को भारत सरकार के अधीन कर दिया जाए।
- इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि बर्मा (वर्तमान म्यांमार) को भारत से विलग कर दिया जाये और उड़ीसा तथा सिंध को नये प्रांतों के रूप में स्थापित किया जाए।
- प्रांतीय विधानमंडलों में सदस्यों की संख्या बढ़ाई जाये।
- गवर्नर व गवर्नर जनरल अल्पसंख्यक जातियों के हितों के प्रति विशेष ध्यान रखें।
- प्रत्येक दस वर्ष बाद पुनरीक्षण के लिए एक संविधान आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त किया जाये और भारत के लिए एक ऐसा लचीला संविधान बनाया जाये, जो स्वयं से विकसित हो।
- साइमन कमीशन ने इस बात की भी सिफारिश की थी कि भारत परिषद को अभी बनाये रखा जाए, किंतु उसके अधिकारों में कमी की जानी चाहिए।
साइमन कमीशन की रिपोर्ट की समीक्षा
राजनीतिक दस्तावेज़ के रूप में साइमन कमीशन की रिपोर्ट कागजों का मात्र एक ऐसा पुलिंदा मात्र थी, जो शिवस्वामी अय्यर के अनुसार ‘रद्दी की टोकरी में फेंकने के लायक़’ थी। किंतु इस आयोग की रिपोर्ट सबसे बड़ा गुण यह था कि यह भारत की समस्याओं का एक बुद्धिमत्तापूर्ण अध्ययन था और इसने राजनैतिक पुस्तकालय को एक उच्चकोटि की रचना प्रदान की। साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार-विमर्श करने के लिए और भारत की संवैधानिक समस्या का समाधान निकालने के लिए लंदन में तीन गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया गया। किंतु कांग्रेस में सिर्फ दूसरे गोलमेज सम्मेलन में ही भाग लिया था। फिर भी, साइमन कमीशन की कई सिफारिशें 1935 के भारत सरकार अधिनियम में लागू की गईं।
साइमन कमीशन और राष्ट्रीय आंदोलन
साइमन कमीशन का गठन अंग्रेजों की औपनिवेशिक चाल का ही एक हिस्सा था, किंतु यह दाँव उनके लिए उलटा पड़ गया। इस समय देश सांप्रदायिक दंगे की चपेट में था, भारत की एकजुटता नष्ट हो चुकी थी और गांधीजी के नेपथ्य में चले जाने से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक ठहराव-सा आ गया था। किंतु साइमन कमीशन की नियुक्ति की घोषणा ने भारत की सोई जनता को जगा दिया। इसने कांग्रेस के टिमटिमाते दिये में फिर से जान फूँक दी और इधर-उधर बिखरे हुए राजनैतिक दल एक मंच पर आ गये।
साइमन के बहिष्कार के कारण एकाएक नौजवानों के संघ और संगठन बनने लगे। इसके बहिष्कार के लिए देश के अनेक भागों में मजदूर-किसान पार्टियाँ बनीं। साइमन विरोधी आंदोलन की लहर में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस नेता के रूप में उभरे। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने पूरे देश का दौरा कर हजारों नौजवान सभाओं को संबोधित किया और असंख्य बैठकों की अध्यक्षता की। साइमन विरोधी आंदोलन के कारण रुका हुआ क्रांतिकारी आंदोलन भी उत्तर भारत और बंगाल में फिर से उठ खड़ा होने लगा।
सर्वदलीय सम्मेलन और नेहरू रिपोर्ट, 1928
नवंबर, 1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत सरकार अधिनियम 1919 के कामकाज की समीक्षा करने और भारत के लिए संवैधानिक सुधारों का प्रस्ताव देने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया था। साइमन आयोग को नियुक्त कराने वाले अनुदारपंथी राज्य सचिव लॉर्ड बिरकनहेड लगातार यह राग अलाप रहे थे कि भारतीय लोग संवैधानिक सुधार के लिए ऐसा ठोस प्रस्ताव बनाने में असमर्थ हैं, जिसको सभी भारतीयों का व्यापक राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो। उसने ब्रिटिश संसद में चुनौतीपूर्ण शब्दों में कहा था, ‘भारतीय एकमत होकर कभी भी अपने देश के लिए संविधान नहीं बना सकते।’
भारतीय नेताओं ने बिरकनहेड की एक ‘सर्वसम्मत संविधान’ बनाने की चुनौती को स्वीकार किया। दिसंबर, 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने मद्रास सत्र में न केवल साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया, बल्कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी को यह अधिकार भी दिया कि वह अन्य संगठनों के साथ विचार-विमर्श करके भारत का संविधान तैयार करे। इसी विषय पर विचार-विमर्श हेतु 28 फरवरी, 1928 को दिल्ली में देश के विभिन्न विचारधाराओं वाले नेताओं का एक ‘सर्वदलीय सम्मेलन’ आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता डॉ. एम.ए. अंसारी ने की। इस सम्मेलन में कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा जैसी 29 संस्थाओं ने हिस्सा लिया, किंतु आपसी मतभेद के कारण इस ‘सर्वदलीय सम्मेलन’ कोई निर्णय नहीं लिया जा सका।
अगला ‘सर्वदलीय सम्मेलन’ 19 मई 1928 को एम.ए. अंसारी की अध्यक्षता में पुणे (बंबई) में हुआ। इस सम्मेलन में भारतीय संविधान के मसौदे को तैयार करने के लिए पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ सदस्यों की एक उप-समिति गठित की गई, जिसमें मुस्लिम लीग के सर अली इमाम व शोएब कुरैशी, हिंदू महासभा के एम.एस. अणे व एम.आर. जयकर, लिबरल पार्टी के तेजबहादुर सप्रू, सिक्ख मंगलसिंह, गैर-ब्राह्मण जी.पी. प्रधान, मजदूर दल के एन.एम. जोशी और कांग्रेस के सुभाषचंद्र बोस जैसे लोग शामिल थे। पं. जवाहरलाल नेहरू उपसमिति के सचिव थे।
मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित उप-समिति ने दर्जनों सम्मेलनों और साझी बैठकों के बाद अगस्त, 1928 में प्रसिद्ध ‘नेहरू रिपोर्ट’ को अंतिम रूप दिया। 10 अगस्त, 1928 ई. को यह रिपोर्ट कांग्रेस के अधिवेशन में रखी गई, जिसे सभी ने स्वीकार किया। यह रिपोर्ट 28 अगस्त, 1928 को सर्वदलीय सम्मेलन के लखनऊ सत्र में प्रस्तुत की गई। यह रिपोर्ट जुलाई, 1928 ई. में प्रकाशित की गई, जो ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है।
नेहरू रिपोर्ट, 1928 की सिफारिशें
‘नेहरू रिपोर्ट’ ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को संविधान बनाने के अयोग्य बताने की चुनौती का कांग्रेस के नेतृत्व में दिया गया सशक्त प्रत्युत्तर था। इसने समस्त भारत के लिए एक इकाई वाला संविधान प्रस्तुत किया, जिसके द्वारा भारत को केंद्र तथा प्रांतों में पूर्ण प्रादेशिक स्वायत्तता मिले। ‘नेहरू रिपोर्ट’ की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं-
- रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि केंद्र में औपनिवेशिक स्वराज्य तथा प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए।
- भारत को अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों (जैसे कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, आदि) की भांति ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के भीतर तुरंत औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान किया जाए और उसे पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना का अधिकार दिया जाए।
- प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान की जाए। केंद्र में भी गवर्नर जनरल को संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करना चाहिए।
- भारत के लिए संघात्मक शासन को उपयुक्त बताया गया और कहा गया था कि केंद्र और प्रांतों में संघीय आधार पर शक्तियों का विभाजन किया जाए, किंतु अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र को दी जाएं।
- नागरिकों के मूल अधिकारों की लंबी सूची के साथ भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया था और कहा गया था कि शरारतभरी सांप्रदायिक चुनाव-पद्धति को समाप्त कर उसके स्थान पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था की जाए। केंद्र एवं उन राज्यों में, जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हों, उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ स्थानों को आरक्षित कर दिया जाए (किंतु यह व्यवस्था उन प्रांतों में न लागू की जाए, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हों, जैसे पंजाब और बंगाल)।
- केंद्र में भारतीय संसद या व्यवस्थापिका के दो सदन हों- निम्न सदन और उच्च सदन। निम्न सदन (हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव) के सदस्यों की संख्या 500 हो और इनका निर्वाचन वयस्क मताधिकार द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव-पद्धति से हो। उच्च सदन (सीनेट) के सदस्यों की संख्या 200 हो और इसके सदस्यों का निर्वाचन परोक्ष पद्धति से प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं द्वारा किया जाए।
- केंद्र सरकार का प्रमुख गवर्नर जनरल हो और उसकी नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाए। गवर्नर जनरल केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् की सलाह पर कार्य करेगा, जो केंद्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होगी।
- प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष होगा और इनका प्रमुख गवर्नर होगा, जो प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् की सलाह पर कार्य करेगा।
- देसी राज्यों के अधिकारों एवं विशेषाधिकारों को सुनिश्चित किया जाए और उत्तरदायी शासन की स्थापना के पश्चात् ही किसी राज्य को संघ में सम्मिलित किया जाए।
- भाषाई आधार पर प्रांतों का गठन किया जाए और सिंध प्रांत को बंबई से अलग कर उत्तर-पश्चिमी प्रांतों को भी अन्य प्रांतों के समान ही अधिकार दिए जाएं।
- भारत में एक प्रतिरक्षा समिति, उच्चतम न्यायालय तथा लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाए।
‘नेहरू रिपोर्ट’ में कुछ अन्य सिफारिशें भी की गई थीं, जैसे- सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, महिलाओं के लिए समान अधिकार, यूनियन (संगठन) बनाने की स्वतंत्रता और धर्म का हर प्रकार से राज्य से पृथक्करण।
नेहरू रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया
यद्यपि ‘नेहरू रिपोर्ट’ भारतीयों द्वारा अपने लिए संविधान का मसौदा तैयार करने का पहला बड़ा प्रयास था, किंतु यह रिपोर्ट विवशता के समझौतों का एक संकलन थी और इसलिए कमजोर नींव पर खड़ी थी। अगस्त, 1928 ई. में लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में ‘नेहरू रिपोर्ट’ को सभी ने एक मत से स्वीकार कर लिया। किंतु दिसंबर 1928 में कलकत्ता में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन ने ‘नेहरू रिपोर्ट’ को स्वीकार नहीं किया। नागरिकों के मूल अधिकारों में राजा और जमींदारों के भूमि-अधिकारों को सुरक्षित रखा गया था, जिसके कारण देश के तमाम नेताओं और आम जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और सिख लीग के कुछ सांप्रदायिक रूझान वाले नेताओं को भी रिपोर्ट को लेकर अनेक आपत्तियाँ थीं।
नेहरू रिपोर्ट पर मुस्लिम प्रतिक्रिया
मुसलमानों का एक वर्ग हर तरह से ‘नेहरू रिपोर्ट’ से अपने को अलग रखे हुए था। मुहम्मदअली जिन्ना ने दिसंबर, 1928 में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में तीन संशोधन सुझाये थे- केंद्रीय विधानमंडल में मुसलमानों का एक तिहाई प्रतिनिधित्व, वयस्क मताधिकार स्थापित होने तक पंजाब और बंगाल में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण और अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतों में निहित हों, न कि केंद्र में। चूँकि जिन्ना की माँगें पूरी नहीं हुईं, इसलिए वे मुहम्मद शफी की अगुआई वाले समूह में शामिल हो गये। 1 जनवरी, 1929 को दिल्ली में एक अखिल भारतीय मुस्लिम सम्मेलन (ऑल पार्टीज मुस्लिम) हुआ, जिसमें ‘नेहरू रिपोर्ट’ के प्रायः सभी प्रतिवेदनों को खारिज कर दिया गया, जिससे यह बात एकदम साफ हो गई कि मुहम्मदअली जिन्ना जिस तबके का नेतृत्व कर रहे थे, वह मुस्लिम बहुल प्रांतों में मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों की माँग को छोड़ने वाला नहीं था।
चौदह सूत्री माँग-पत्र, मार्च 1929
यद्यपि जिन्ना जनवरी, 1929 के दिल्ली में आयोजित ‘ऑल पार्टीज मुस्लिम’ में शामिल नहीं हुए, किंतु उन्होंने मार्च, 1929 में ‘नेहरू रिपोर्ट’ के विकल्प के रूप में एक ‘चौदहसूत्री माँग-पत्र’ मुस्लिम लीग के माध्यम से प्रस्तुत किया और ‘नेहरू रिपोर्ट’ को पूरी तरह से खारिज करने का सुझाव दिया। जिन्ना के ‘चौदहसूत्री माँग-पत्र’ में संघीय संविधान, प्रांतीय स्वायत्तता, पंजाब और बंगाल में मुस्लिम बहुमत की स्थापना, केंद्रीय विधानसभा और प्रांतीय मंत्रिमंडलों तथा नौकरियों में मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व, अल्पसंख्यकों की शिक्षा, संस्कृति व भाषा की रक्षा, सभी संप्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता, सिंध प्रदेश को बंबई से अलग किये जाने जैसी माँगें शामिल थीं। चूंकि मुसलमानों ने अपनी माँगों के द्वारा नेहरू समिति की रिपोर्ट के आधारभूत सिद्धांतों को रद्द कर दिया था, इसलिए कांग्रेस और लीग के बीच एकता स्थापित होना असंभव था। इस प्रकार सांप्रदायिक दलों ने राष्ट्रीय एकता का दरवाजा बंद कर दिया और इसके बाद सांप्रदायिकता का निरंतर विकास हुआ।
कांग्रेस के भीतर प्रतिक्रिया
‘नेहरू रिपोर्ट’ में ‘डोमिनियन स्टेट्स’ को पहला लक्ष्य और ‘पूर्ण स्वराज्य’ को दूसरा लक्ष्य घोषित किया गया था, इसलिए सुभाषचंद्र बोस, पं. जवाहरलाल नेहरू, सत्यमूर्ति तथा अनेक युवा राष्ट्रवादियों ने ‘नेहरू रिपोर्ट’ के डोमिनियन स्टेटस के विचार को अस्वीकार कर दिया। ‘नेहरू रिपोर्ट’ के विरोध में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने अप्रैल, 1928 में संयुक्त रूप से ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष एस. श्रीनिवास आयंगर थे।
कांग्रेस के भीतर के युवा समुदाय की प्रतिक्रिया ने राष्ट्रवादी नेतृत्व को कलकत्ता कांग्रेस में यह प्रस्ताव पारित करने के लिए मजबूर कर दिया कि यदि ब्रिटिश सरकार 31 दिसंबर, 1929 तक नेहरू रिपोर्ट को मंजूर नहीं करती या उससे पहले ठुकरा देती है, तो कांग्रेस एक और जन-आंदोलन शुरू करने पर विवश होगी।
इस बीच इंग्लैंड में लेबर पार्टी के रैमसे मैकडानाल्ड प्रधानमंत्री बन गये, जिनकी सलाह पर वायसराय ने कहा कि ’1917 की घोषणा में यह अंतर्निहित था कि भारत संवैधानिक विकास का स्वाभाविक मुद्दा डोमिनियन स्टेटस की प्राप्ति है। भारतीय और ब्रिटिश लोगों का एक गोलमेज सम्मेलन होगा, जिसमें साइमन कमीशन के अंतिम प्रस्तावों पर विचार किया जाएगा।’ कांग्रेस ने गोलमेज सम्मेलन के बहिष्कार का निर्णय लिया और घोषित किया कि राष्ट्रीय लक्ष्य पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है, इसीलिए उसने मार्च, 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।
नेहरू रिपोर्ट का महत्त्व
अपनी कमियों के बावजूद ‘नेहरू रिपोर्ट’ एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचनात्मक प्रयास था। इसने देश के समक्ष ऐसा आदर्श रखा जैसा पहले कभी नहीं रखा गया था। वस्तुतः ‘नेहरू रिपोर्ट’ आधुनिक संविधान का प्रारम्भिक रूप थी।’ यह रिपोर्ट अमेरिकी अधिकारों के बिल से प्रेरित थी, जिसने भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के प्रावधान की नींव रखी। जी.आर. प्रधान के अनुसार ‘1928 की नेहरू रिपोर्ट सांप्रदायिकता की भावना मिटाने का उग्र प्रयत्न थी।’ लाला लाजपतराय ने ‘नेहरू रिपोर्ट’ को ‘भारतीय लोक जीवन की सर्वोत्तम परंपराओं का एक महत्त्वपूर्ण कार्य’ बताया, जबकि पं. मदनमोहन मालवीय ने इसे ‘स्वराज्य पक्ष को आलोकित करने वाली रोशनी’ कहा था।
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