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भारत में मध्यपाषाण काल
भारत में मध्य पाषाण काल (Mesolithic Period) की खोज 1867 ई. में हुई जब सी.एल. कार्लायल ने विंध्य क्षेत्र का सर्वेक्षण कर एक विशेष तकनीक से बने लघुपाषाणोपकरणों को खोज निकाला। मध्य पाषाणकालीन मानव ने जिन उपकरणों को बनाया उन्हें ‘सूक्ष्म पाषाण-उपकरण’ या ‘बौने उपकरण’ कहा गया है। पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ क्वार्टजाइट के स्थान पर इस काल में जैस्पर पत्थर या लाल पत्थर से बने होते थे। मध्य पाषाणकालीन संस्कृति की कार्बन तिथियों से पता चलता है कि यह संस्कृति लगभग ई.पू. 12000 में आरंभ हुई और ई.पू. 2000 तक चलती रही।
इस काल में तापमान में परिवर्तन आया तथा मौसम गर्म और शुष्क हो गया। इससे जहाँ एक ओर पौधों और जानवरों में परिवर्तन आया, वहीं मानव-जीवन भी प्रभावित हुआ। जीवन-शैली में परिवर्तन होने के कारण उपकरण-निर्माण की तकनीक में भी परिवर्तन आया। यद्यपि अब भी मानव शिकारी और खाद्य-संग्राहक ही था, किंतु अब बड़े जानवरों का शिकार करने के स्थान पर छोटे जानवरों का शिकार करने लगा। उपकरण-निर्माण में पत्थर के साथ हड्डी का प्रयोग मानव की जीवन-शैली में बड़े परिवर्तन को प्रतिबिंबित करता है जो उसे पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल में ले आया। इस काल के मानव ने उपकरणों और हथियारों में हत्थे का प्रयोग आरंभ किया। आग और कृषि की उसे अभी तक जानकारी नहीं थी, किंतु वह कुत्ते को पालतू बना चुका था। मिट्टी के बर्तन बनाने की शुरूआत भी मध्यपाषाण काल के अंतिम चरण की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। मध्य पाषाणकालीन संस्कृति के प्रमुख स्थल हैं- राजस्थान में बागौर, गुजरात में लंघनाज, उत्तर प्रदेश में सराय नाहरराय, चोपनीमांडो, महदहा और दमदमा, मध्य प्रदेश में भीमबैठका और आदमगढ़।
उपकरण एवं विस्तार
इस काल में जलवायु गर्म होती जा रही थी जिसके परिणामस्वरूप पशु पुराने स्थान छोड़कर पानी की तलाश में नदियों के किनारे चले गये होंगे। परिणामतः शिकार के लिए मानव को अब बड़े जानवर मिलने मुश्किल हो गये और वह छोटे जानवरों का शिकार करने लगा। छोटे जानवरों को मारने के लिए उपकरण भी छोटे-छोटे बने, जिनको सूक्ष्मपाषाणोपकरण (माइक्रोलिथ) कहा जाता है- लगभग एक से.मी. से लेकर आठ से.मी. तक। ब्लेड, क्रोड, तक्षणी, तीर की नोंक जैसे तिकोने उपकरण, अर्धचंद्राकार आदि इस काल के उपकरणों में प्रमुख हैं। कुछ सूक्ष्म उपकरण ज्यामितीय आकार के भी हैं। सूक्ष्म उपकरण संयुक्त उपकरणों के महत्त्वपूर्ण तकनीकी विकास को प्रतिबिंबित करते हैं। इन उपकरणों में हड्डी, लकड़ी या बाँस का हत्था जोड़ दिया गया जिससे उपकरणों को प्रयोग में लाना न केवल अधिक सुविधाजनक हुआ, बल्कि वह पहले से अधिक प्रभावी भी हो गया। इनमें मुख्यतः अर्धचंद्राकार, बेदिनी जैसे औजार थे। बाद में निर्मित ताँबे और लोहे के तीर, कांटे और हंसिया का प्राक्-रूप भी इसी काल में अस्तित्व में आ गया था। ऐसे उपकरणों का उदय संभवतः पुरापाषाण काल के अंत में हो गया था, किंतु इन्हें पूर्णता मध्यपाषाण काल में प्राप्त हुई। इस काल में पूरे विश्व के मानव सूक्ष्म उपकरण बना रहे थे। कहीं-कहीं तो इनकी लंबाई आधा इंच है। ये उपकरण दबाव तकनीक से बनाये गये थे। सामाजिक रूप से मानव अभी भी खानाबदोश था, किंतु उसके उपकरणों से उसकी जीवन-शैली में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
प्रायद्वीपीय भारत
राजस्थान के पंचप्रदा नदी घाटी और साजात क्षेत्र में सूक्ष्म-उपकरण बड़ी मात्रा में पाये गये हैं। इस क्षेत्र में तिलवाड़ा और बागौर महत्त्वपूर्ण मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। कोठारी नदी के पास स्थित बागौर वस्तुतः भारत का सबसे बड़ा मध्य पाषाणकालीन स्थल है। यहाँ उत्खनन-कार्य 1968-70 ई. में पुराविद् वी.एन. मिश्र ने करवाया था। कश्मीर की पर्वत-श्रेणियों, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश इत्यादि क्षेत्रों में छोटे स्तर पर कुछ पुरातात्त्विक खुदाइयाँ की गई हैं। इसके अतिरिक्त मोरहना पहाड़, बाघैखोर, भैंसोर के पास और लेखहिया (मिर्जापुर के पास) से पहली बार गैर-ज्यामितीय और बाद में ज्यामितीय उपकरण प्राप्त हुए हैं। साथ ही कम पके हुए लाल गेरुए मृद्भांड भी मिले हैं। बाद में मिले सूक्ष्म उपकरणों में अर्धचंद्राकार, त्रिकोण, ब्लेड, तक्षणी, खुरचनी, बेधनी, समलंब इत्यादि हैं। उत्तर और मध्य गुजरात के लंघनाज और अखज जैसे स्थलों की रेतीली मिट्टी में से प्राप्त हुए पत्थर के वृत्त, जो क्वार्टजाइट के बने हैं, और क्लोराइट की स्तरित चट्टान से बने पालिशदार उपकरण विशेष महत्त्व के हैं। इस प्रकार के उपकरणों से लगता है कि मानव ने नुकीली लकड़ी से जमीन जोतने की गतिविधि आरंभ कर दी थी। उसके लिए पत्थर के वृत्त को लकड़ी के ऊपर वनज के रूप में प्रयोग किया जाता रहा होगा।
गुजरात में वलसाना और हीरपुर, उत्तर प्रदेश में सराय नाहरराय, मोरहना पहाड़, चोपनीमांडो और लेखहिया, मध्य प्रदेश में भीमबैठका, आदमगढ़ और होशंगाबाद, बिहार में रांची, पलामू, भागलपुर एवं राजगीर आदि प्रायद्वीपीय भारत के कुछ महत्त्वपूर्ण मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के सिंगरौली, बाँदा एवं विंध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं।
पूर्वी भारत
पूर्वी भारत में सूक्ष्म उपकरण मुख्यतः उड़ीसा और बंगाल के लैटराइट मैदानों, छोटा नागपुर के पठार से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त सूक्ष्म उपकरण गैर-ज्यामितीय हैं, अतः त्रिकोण, समलंब इत्यादि यहाँ अनुपस्थित हैं। सामान्यतः सफेद क्वार्टज के उपकरण बनाये गये हैं, किंतु चर्ट, चेल्सेडनी, क्रिस्टल, क्वार्टजाइट और लकड़ी के उपकरणों के भी अवशेष पाये गये हैं। पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में दामोदर नदी के किनारे वीरभानपुर तथा उड़ीसा में मयूरभंज, क्योझोर, कुचई और सुंदरगढ़, मेघालय की गारो पहाडि़याँ से भी सूक्ष्म पाषाण-उपकरण मिले हैं।
कृष्णा, गोदावरी डेल्टा
कृष्णा, गोदावरी डेल्टा में प्रचुर मात्रा में सूक्ष्म उपकरण प्राप्त हुए हैं और कुछ मामलों में तो वे नवपाषाण काल तक सुरक्षित रह गये हैं। तमिलनाडु के संगनकुल्लू से क्रोड, शल्क, तक्षणी और चापाकार उपकरण प्राप्त हुए हैं। आंध्र प्रदेश के कुर्नूल और रानीगुंटा नामक स्थानों से भी सूक्ष्म उपकरण प्राप्त हुए हैं। उल्लेख्य है कि इनमें से कुछ स्थल क्रमानुसार बाद के काल के हैं, किंतु उन पर मध्यपाषाण काल का प्रभाव है, इसलिए इन्हें मध्य पाषाणकालीन स्थलों की सूची में रखा गया है। केवल बागौर (राजस्थान), सराय नाहरराय, महदहा (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) और आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) ही कालक्रमानुसार और भौतिक संस्कृति के आधार पर पूरी तरह मध्य पाषाणकालीन स्थल हैं।
मध्य पाषाणकालीन संस्कृति
इस काल का मानव पुरापाषाण काल के मानव से थोड़ा भिन्न था। यह अंतर उसके औजारों, सामाजिक गठन, धार्मिक विश्वास तथा अर्थव्यवस्था में दिखाई देता है। इस काल को ‘संक्रमण काल’ कहते हैं। दक्षिण भारत के वीरभानपरु तथा मिर्जापुर के प्राक्-मृद्भांड और गैर-ज्यामितीय स्तर इस काल के प्रारंभिक चरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मिर्जापुर और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के अन्य स्थल तथा उत्तरी गुजरात में लंघनाज जैसे स्थल संभवतः अगले चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन स्थलों पर पशुओं को पालतू बनाने या प्रारंभिक कृषि के यद्यपि कोई प्रमाण नहीं मिलते, किंतु यहाँ से मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। यद्यपि ये मृद्भांड भी बहुत कम पकाये हुए और बहुत कम संख्या में मिलते है, किंतु मृद्भांडों की उपस्थिति से लगता है कि मानव ने इस चरण में अस्थायी निवास-स्थान बनाना आरंभ कर दिया था।
पहले युग की तरह ही मध्यपाषाण काल के मानव की अर्थव्यवस्था शिकार एवं अन्न-संग्रह पर आधारित थी। किंतु इस काल के अंतिम चरण में कुछ साक्ष्यों के संकेत मिलता है कि राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में इस काल के शिकारी खाद्य-संग्रहकर्त्ताओं ने कुछ कृषि उपक्रमों को अपनाना आरंभ कर दिया था। बागौर जैसे स्थानों पर प्रारंभिक कृषि एवं पशुपालन के संकेत मिलते हैं। बागौर और आदमगढ़ में 6000 ई.पू. के लगभग मध्य पाषाणयुगीन मानव की गतिविधियों का संबंध भेड़ और बकरी के साथ होने के साक्ष्य मिले हैं। इससे लगता है कि इस काल के मानव ने कुछ सीमा तक स्थायी जीवन-शैली को अपना लिया था।
बागौर और लंघनाज से प्राप्त साक्ष्यों से लगता है कि ये मध्य पाषाणकालीन समूह हड़प्पा सभ्यता और दूसरी ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों से संपर्क में थे और इन संस्कृतियों से कई प्रकार की वस्तुओं का व्यापार भी करते थे। बागौर से हड़प्पा संस्कृति के प्रकार के तीन ताँबे के तीर के नोंक प्राप्त हुए हैं।
इस काल में मानव ने अन्न को पकाकर खाने की कला को सीख लिया था। गर्त-चूल्हों से प्राप्त अधजली हड्डियों से लगता है कि मानव माँस को भूनकर खाने लगा था। चोपनीमांडो एवं सराय नाहरराय से जमीन के अंदर गर्त चूल्हे एवं हाथ से बने बर्तनों के साक्ष्य मिले हैं।
महदहा से भी आवास-निर्माण के साथ शवों को दफनाने एवं गर्त-चूल्हे तथा सिल-लोढ़ेनुमा उपकरण के अवशेष पाये गये हैं। इन साक्ष्यों के बावजूद कृषि और पशुपालन को अर्थव्यवस्था के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है।
मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थिपंजर के कुछ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहरराय, महदहा, दमदमा से प्राप्त हुए हैं। चोपनीमांडो से प्राप्त शवाधानों का सिर पश्चिम दिशा की ओर है। मानव अस्थिपंजर के साथ कहीं-कहीं पर कुत्ते के अस्थिपंजर भी मिले है, जिनसे प्रतीत होता है कि कुत्ते प्राचीन काल से ही मनुष्य के सहचर रहे हैं।
उच्च पुरा पाषाणकाल और मध्य पाषाणकालीन मानव द्वारा निवास के लिए प्रयोग में लाये गये सभी शैलाश्रयों में मानव द्वारा बनाये गये चित्र बड़ी संख्या में मिलते हैं। चट्टानों पर रंगों से और खोदकर बनाये गये चित्रों से मध्य पाषाणकालीन मानव के सामाजिक, आर्थिक जीवन तथा गतिविधयों के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।
शैल चित्रकारी के नमूने पाकिस्तान में चारगुल से लेकर पूरब में उड़ीसा और उत्तर में कुमायूँ पहाडि़याँ से लेकर दक्षिण में केरल तक प्राप्त होते हैं। इन चित्रों में प्रयोग किये गये रंग लाल, हरे, सफेद और पीले हैं। मध्य पाषाणकालीन चित्रकारी के उदाहरण उत्तर प्रदेश में मोरहना पहाड़, मध्य प्रदेश में भीमबैठका, आदमगढ़, लखाजौर, कर्नाटक में कुपागल्लौ जैसे स्थलों में बड़ी संख्या में मिले हैं। ये चित्र विभिन्न विषयों पर हैं। इन चित्रों में मुख्य रूप से जानवरों के शिकार, खाद्य-संग्रह, मछली पकड़ना और अन्य मानव-गतिविधियाँ प्रतिबिंबित होती हैं। सर्वाधिक चित्र जानवरों के हैं। वे समूह और एकल दोनों रूपों में चित्रित हैं। गुफाओं से प्राप्त शैल चित्रकारी में सामूहिक शिकार के चित्रों से लगता है कि सामाजिक संगठन पहले की अपेक्षा अधिक मजबूत हो गया था। आदमगढ़ से प्राप्त गैंडे के शिकार के चित्र से संकेत मिलता है कि बड़े जानवरों का शिकार सामूहिक रूप से किया जाता था। विभिन्न मानव गतिविधियों, जैसे- नृत्य, दौड़ना, शिकार करना, खेलना और युद्ध करना इत्यादि का चित्रण भी इन शैलचित्रों में किया गया है। अंतिम संस्कार, बच्चों के जन्म और उनके पालन-पोषण तथा यौन-गतिविधियों में सामूहिक भागीदारी भी इन चित्रों में प्रतिबिंबित होती है।
नवपाषाण काल
नवपाषाण काल( Neolithic Period) में प्रागैतिहासिक मानव ने एक नये युग में प्रवेश किया जब उसने प्रकृति से मिलनेवाले संसाधनों पर पूरी तरह निर्भर रहना छोड़कर जौ, गेहूँ और चावल जैसे अनाजों को उगाना और जानवरों को पालतू बनाना आरंभ कर दिया। जानवरों को पालतू बनाना सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। जहाँ एक ओर मानव इनसे माँस एवं दूध प्राप्त कर सकता था, वहीं दूसरी ओर विभिन्न उद्देश्यों के लिए उनके श्रम का भी उपयोग कर सकता था। पौधों और जानवरों को पालतू बनाने की गतिविधि के परिणामस्वरूप ग्राम-आधारित स्थायी जीवन का आरंभ हुआ जहाँ प्राकृतिक-संसाधनों के उपयोग एवं शोषण द्वारा प्रकृति पर नियंत्रण स्थापित किया गया और कृषि-अर्थव्यवस्था का उदय हुआ। भारत में इस संस्कृति के उदय को नये प्रकार के उपकरणों से पहचाना गया है, जिन्हें नव पाषाणकालीन उपकरण कहा गया है।
भारत में सर्वप्रथम 1860 ई. में ली मेसुरियर ने नवपाषाण काल के प्रथम प्रस्तर-उपकरण उत्तर प्रदेश की टौंस नदी की घाटी से प्राप्त किये। इसके बाद 1872 ई. में निबलियन फ्रेजर ने कर्नाटक के बेलारी क्षेत्र को दक्षिण भारत के उत्तर पाषाणकालीन सभ्यता का मुख्य स्थल घोषित किया। भारत में नवपाषाण काल का समय ई.पू. 4000 से ई.पू. 1800 तक माना जाता है।
नवपाषाण काल को अंग्रेजी में ‘नियोलिथिक’ कहा जाता है जो यूनानी भाषा के दो शब्दों ‘नियो’ और ‘लिथोस’ से बना है, जिनका अर्थ है- नया पत्थर या नवपाषाण। सर्वप्रथम सर जान लुब्बाक ने 1865 ई. अपनी पत्रिका ‘प्रीहिस्टारिक टाइम्स’ में इस शब्द का प्रयोग किया। बाद में गार्डेन चाइल्ड ने नवपाषाण संस्कृति को आत्मनिर्भर खाद्य-उत्पादक अर्थव्यवस्था के रूप में परिभाषित किया और इसे ‘नवपाषाण क्रांति’ नाम दिया। ग्राहम क्लार्क को ‘नवपाषाण क्रांति’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति है और कहते हैं कि ‘नवपाषाण’ शब्द प्राक्-धातुकाल का प्रतिनिधित्व करता है। माइल्स बर्किट जोर देते हैं कि कृषि गतिविधियाँ, जानवरों को पालतू बनाना और पत्थर के उपकरणों की घिसाई और पालिश, मृद्भांडों का निर्माण जैसे लक्षण नवपाषाणिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। विश्व की प्रारंभिक नव पाषाणकालीन संस्कृतियों के साक्ष्य सर्वप्रथम फिलीस्तीन, इजरायल और उत्तरी ईराक से प्राप्त हुए हैं। इस काल में प्राचीनतम् फसल के साक्ष्य नील नदी की घाटी में मिले हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल जैरिको है जो संभवतः विश्व की सबसे पुरानी नवपाषाणकालीन बस्ती है।
उपकरण एवं प्रसार
भारतीय उपमहाद्वीप में नवपाषाण काल के प्रस्तर उपकरण पहले की अपेक्षा अधिक परिष्कृत, पैने और गहरे ट्रेप के बने थे जिन पर एक विशेष प्रकार की पालिश लगी होती थी और इसलिए ये उपकरण पहले की अपेक्षा अधिक प्रभावी थे। इस काल की अनिवार्य विशेषता पालिशदार कुल्हाड़ी है। पालिशदार हस्तकुठारों को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप की नवपाषाणकालीन संस्कृतियों के अवशेष उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान और अफगानिस्तान से लेकर प्रायद्वीपीय भारत से मिले हैं।
उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र
अफगानिस्तान और पाकिस्तान में पुरातत्त्वविदों द्वारा शिकारी खाद्य-संग्रहकर्ताओं की गुफाओं को खोज निकाला गया है। इन गुफाओं में जंगली भेड़, भैंसे और बकरी की हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। ई.पू. 7000 अफगानिस्तान में बकरी एवं भेड़ को पालतू बनाने की शुरूआत हो गई थी। पुरातात्त्विक उत्खनन में बलूचिस्तान क्षेत्र में कृषि और पशुओं को पालतू बनाने की प्रक्रिया के आरंभ होने के संकेत मिलते हैं। इस क्षेत्र में बहुत-सी घाटियाँ हैं जो विभिन्न नदी धाराओं द्वारा बहाकर लाई गई कछारी मिट्टी के कारण पर्याप्त उर्वर हैं। बलूचिस्तान में काची मैदान कृषि-अर्थव्यवस्था के आरंभ के लिए एक उपयुक्त क्षेत्र था। इसी पारिस्थिकी क्षेत्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल मेहरगढ़ में कृषि-गतिविधियों के आरंभिक साक्ष्य मिले हैं। कृषि-संबंधी प्रमुख साक्ष्य सांभर (राजस्थान) से पौधा बोने का मिला है, जो ई.पू. 7000 वर्ष पुराना माना जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में गेहूँ का साक्ष्य मेहरगढ़ में मिला है और वह भी ई.पू. 7000 के आसपास का है। यहाँ उगाये जानेवाले अनाज में जौ की दो किस्में और गेहूँ की तीन किस्में सम्मिलित हैं। प्राचीनतम् फसल गेहूँ को माना जाता है, चावल को नहीं।
मेहरगढ़ से प्राप्त नवपाषाण स्तर को दो चरणों में वर्गीकृत किया गया है- मृद्भांडरहित प्रारंभिक चरण और मृद्भांड सहित बाद का चरण। मेहरगढ़ जौ और गेहूँ की कृषि तथा भेड़ एवं अन्य पशुओं को पालतू बनाने की गतिविधियों का एक स्वतंत्र केंद्र था। मेहरगढ़ का दूसरा चरण ताम्र-पाषाण काल का प्रतिनिधित्व करता है। इस चरण से गेहूँ और जौ की कृषि के अतिरिक्त कपास और अंगूर की खेती के प्रमाण मिले हैं।
नवपाषाणकालीन प्रारंभिक स्तरों से जंगली जानवरों जैसे चिंकारा, बारहसिंगा, चार सीगोंवाला मृग, जंगली भेड़ एवं बकरी के अवशेष प्राप्त हुए है, किंतुु ऊपरी स्तरों से नवपाषाण काल के परवर्ती चरणों में जंगली जानवरों, जैसे- चिंकारा, सुअर आदि के अतिरिक्त पालतू पशुओं, जैसे- बकरी एवं भेड़, के अवशेष प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इसके स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि भेड़ एवं बकरी को पालतू बनाने की प्रक्रिया स्थानीय रूप से विकसित हुई। उत्खनन में पाये गये अवशेषों के आधार पर लगता है कि नवपाषाण काल के लोगों का खान-पान एक मिश्रित अर्थव्यवस्था पर आधारित था जिसमें प्रारंभिक कृषि और पशुओं को पालतू बनाने की प्रक्रिया के साथ ही शिकार करना भी शामिल था। इस काल के लोग मिट्टी के बने चतुर्भुजाकार घरों में रहते थे। कुछ घरों में छोटे चौकोर विभाजन बने होते थे जो भंडारण के लिए प्रयोग किये जाते थे। इस काल के ब्लेड उद्योग से पाँच पत्थर के वसुले, पच्चीस घिसनेवाले पत्थर और सोलह मूसली प्राप्त हुई हैं।
उत्तरी भारत
कश्मीर घाटी में ई.पू. 2500 में कृषि-बस्तियों का विकास हुआ। बुर्जहोम और गुफकराल के उत्खनन से इस क्षेत्र की नवपाषाण संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। बुर्जहोम की खोज 1935 ई. में डी.टेरा एवं पैटरसन ने किया था। गुफकराल का उत्खनन 1981 ई. में ए.के. शर्मा द्वारा कराया गया। इन दोनों स्थलों की कार्बन-14 तिथियाँ संकेत करती हैं कि कश्मीर घाटी में नवपाषाण संस्कृतियों का अस्तित्त्व ई.पू. 2500 से ई.पू. 1500 के बीच था। कश्मीर घाटी की नवपाषाण संस्कृति की विशेषता गर्त-निवास (गड्ढों में रहना) है। इन गर्त-निवासों की जमीन पर लाल-भूरे रंग का बढि़या फर्श है। गर्त-निवास के अतिरिक्त जमीन के ऊपर बने निवास-गृहों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हड्डियों के उपकरणों की बड़ी मात्रा में उपस्थिति से लगता है कि अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से शिकार पर आधारित थी। भेड़, बकरी, लाल हिरन, भेड़िये जैसे जंगली जानवरों की हड्डियों के अतिरिक्त कुछ जंगली खाद्यान्न, जैसे- मसूर, मटर, गेहूँ, जौ आदि के अवशेष भी खुदाई में प्राप्त हुए हैं।
बाद के चरण में पालतू पशुओं और पौधों के अवशेष प्राप्त होते हैं। परवर्ती चरण से प्राप्त दूसरी उल्लेखनीय वस्तुओं में तक्षणी तथा हड्डियों के परिष्कृत उपकरण, जैसे- तीर की नोंक, मछली पकड़ने की कँटिया आदि प्रमुख हैं। यहाँ से सिलबट्टा, हड्डी की बनी सूइयाँ तथा एक फसल काटने का छेददार यंत्र भी मिला है। कुछ उदाहरणों में मानव-शवों के साथ कुत्तों के शव दफनाये गये हैं। ये सारे साक्ष्य एक खाद्य-संग्राहक अर्थव्यवस्था से स्थायी कृषि-अर्थव्यवस्था में संक्रमण की ओर संकेत करते हैं। बुर्जहोम की नवपाषाण संस्कृति स्वात घाटी में स्थित सरायखोला और घालीगई से प्राप्त मृद्भांडों तथा हड्डी और पत्थर के उपकरणों से मिलती-जुलती है। गर्त-निवास और फसल काटने की मशीन और कुत्तों के शवाधान जैसी विशेषताएँ उत्तरी चीन की नवपाषाण संस्कृति से भी मिलती हैं।
विंध्य क्षेत्र
विंध्य पठार का संपूर्ण क्षेत्र घने जंगलों से ढ़का है। इस प्रकार का क्षेत्र उच्च पुरा पाषाणकालीन लोगों के लिए शिकार करने के उद्देश्य से उपयुक्त था। खाद्य-संग्राहक से खाद्य-उत्पादक की अवस्था में संक्रमण को दर्शानेवाले बेलन घाटी के स्थलों में चोपनीमांडो, कोलडिहवा और महगड़ा सम्मिलित हैं। चोपनीमांडो से साझे चूल्हे/अंगीठियाँ, निहाई, ज्यामितीय सूक्ष्म-उपकरण, बड़ी संख्या में वृत्त-पत्थर तथा हाथ से निर्मित मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। इसी स्थल पर कुछ जंगली जानवरों और जंगली खाद्यानों (जंगली चावल) के अवशेष प्राप्त हुए हैं। कोलडिहवा के उत्खनन में तीन सांस्कृतिक स्तर प्राप्त हए हैं- नवपाषाण, ताम्र पाषाण और लौहयुग। महगड़ा में एक ही सांस्कृतिक चरण प्राप्त हुआ है जो नवपाषाणकालीन है। दोनों स्थलों से प्राप्त साक्ष्य संयुक्त रूप से स्थायी जीवन-शैली, चावल की फसल के परिष्करण और बकरी एवं भेड़ आदि को पालतू बनाने की प्रक्रिया की ओर संकेत करते हैं।
संगठित पारिवारिक इकाई, मृद्भांडों के मानक प्रकार, भोजन तैयार करने के सुविधाजनक उपकरण (हल्की चक्की तथा मुसली आदि), विशेषीकृत उपकरण (छेनी, वसुला आदि), चावल की परिष्कृत किस्म तथा पालतू पशु, जैसे- भेड़, बकरी और घोड़ा आदि विशेषताओं के साथ बेलन घाटी की नवपाषाणकालीन संस्कृति एक विकसित और अपेक्षाकृत स्थायी जीवन-शैली को प्रतिबिंबित करती है। माना जाता है कि बेलन घाटी की नवपाषाणकालीन बस्ती भारत की सर्वप्रथम चावल उगानेवाली बस्ती है (ई.पू. 6000)। इस क्षेत्र में खाद्य-संग्राहक से कृषि-अर्थव्यवस्था में संक्रमण भी स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। चोपनीमांडो से उत्तर मध्यपाषाण और प्राक्-नव पाषाणकालीन मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। इससे संकेत मिलता है कि पौधों और जानवरों को पालतू बनाने की प्रक्रिया से पहले मृद्भांड बनाना आरंभ हो गया था। यही नहीं, विश्व में सर्वप्रथम मृद्भांड बनाने के साक्ष्य चोपनीमांडो से ही प्राप्त हुए हैं।
मध्य गंगा घाटी
चिरांद, चेचर, सेनेवार और तारादिब जैसे स्थलों के उत्खनन से इस क्षेत्र के नवपाषाणकालीन लोगों की जीवन-शैली पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। सेनेवार में (रोहतास जिला, बिहार) नवपाषाणकालीन लोग चावल, जौ, मटर, मसूर और कुछ तिलहन उगाते थे। बिहार के सारण जिले के चिरांद से मिट्टी की फर्श के कुछ अवशेष, मृद्भांड, सूक्ष्म उपकरण, हड्डी के उपकरण और अर्द्ध-कीमती पत्थरों के मनके प्राप्त हुए हैं। इन स्थलों से मानव-मृंडमूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। इस काल में चिरांद में गेहूँ, जौ, चावल और मसूर जैसे अनाज उगाये जाते थे।
पूर्वी भारत
इस क्षेत्र में असम की पहाडि़याँ के अतिरिक्त उत्तरी कछार, गारो और नागा पहाडि़याँ सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र के नवपाषाणकालीन स्तरों में पालिशदार हस्त-कुठार (जो गोल और छोटे आकार के हैं), रस्सी के चिन्हवाले मृद्भांड आदि मिले हैं। असम में नवपाषाणकालीन संस्कृति का काल मोटेतौर पर 2000 ई.पू. माना जाता है।
दक्षिणी भारत
दक्षिण भारत में नव पाषाणकालीन बस्तियाँ पहाड़ी क्षेत्र और दक्कन के शुष्क पठार पर पाई गई हैं। इनके निकट से भीम, कृष्णा, तुंगभद्रा और कावेरी नदियाँ बहती हैं। ये बस्तियाँ मुख्य रूप से ऐसे क्षेत्रों में हैं जहाँ औसत वर्षा पच्चीस से.मी. प्रतिवर्ष से कम है। दक्षिण भारत में नवपाषाणकालीन लोगों की जीवन-शैली पर प्रकाश प्रकाश डालनेवाले प्रमुख स्थल संगनकल्लू, मास्की, ब्रह्मगिरि, तेक्कलकोट, पिकलीहल, कुपगल, हलूर, पलावोई, हेम्मीज और टी. नरसिपुर आदि हैं।
दक्षिण भारत के प्रारंभिक कृषकों द्वारा उगाई जानेवाली प्रारंभिक फसल रागी थी। माना जाता है कि परिष्कृत रागी पूर्वी अफ्रीका से आई थी। यह जंगली रागी का प्रत्यक्ष पूर्वज नहीं है। दक्षिण भारत के नव पाषाणकालीन कृषकों द्वारा उगाई जानेवाली अन्य फसलें गेहूँ, मसूर और मूंग आदि थीं। ताड़ के पेड़ भी उगाये जाते थे। सीढ़ीदार कृषि इस काल के दौरान एक प्रचलित कृषि-तकनीक थी। कुछ नवपाषाण बस्तियों, जैसे- उन्नूर, कोडेकल और कुपगल के पास हड्डियों के टीले प्राप्त हुए हैं। इनमें से कुछ टीले बस्ती से बहुत दूर जंगलों में भी मिले हैं। संभवतः ये टीले नवपाषाणकालीन पालतू पशुओं के बाड़े थे।
कृष्णा, गोदावरी और उनकी सहायक नदियों के मध्य और ऊपरी भाग में विशुद्ध नव पाषाणकालीन चरण नहीं मिलता है, किंतु कृष्णा की सहायक नदी भीम पर स्थित चंदोली और गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा पर स्थित नेवासा और दायमाबाद से प्राप्त साक्ष्य-संकेतों से लगता है कि इस क्षेत्र के नव पाषाणकालीन कृषकों ने ताम्र-पाषाणकाल तक की यात्रा पूरी की थी।
इसी प्रकार उत्तरी महाराष्ट्र की ताप्ती और नर्मदा घाटी, मध्य प्रदेश और गुजरात से भी नवपाषाण स्तर प्राप्त नहीं हो सके हैं। केवल बीना घाटी में एरण और दक्षिणी गुजरात में जोरवाह से दक्षिण भारतीय प्रकार की तिकोनी कुठार प्राप्त हुई है, जिसे नवपाषाणकालीन माना जाता है। चंबल, बनास और काली सिंधु में भी मुश्किल से ही कुछ पाॅलिशदार पत्थर के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इस क्षेत्र में स्थायी जीवन-शैली ताँबा, काँसे के प्रयोग में आने के बाद आरंभ हुई।
नव पाषाणकालीन संस्कृति की विशेषताएँ
नवपाषाण काल की अनिवार्य विशेषता पाॅलिशदार कुल्हाड़ी है। इस समय प्राप्त प्रस्तर-उपकरण गहरे ट्रेप के बने थे जिन पर एक विशेष प्रकार की पालिश लगी होती थी। प्रस्तर-उपकरणों में हस्त-कुठार, हथौड़े, वसुली, छेनी, कुदाल, गदाशीर्ष आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही साथ हड्डी के छेनी, बरमा, बाण, कुदाल, सुई आदि भी प्राप्त हुए हैं। इन उपकरणों के निर्माण में मानव की विकसित होती बुद्धि-क्षमता प्रतिबिंबित होती है।
नव पाषाणकालीन मनुष्य आखेटक, पशुपालक से आगे निकलकर खाद्य पदार्थों का उत्पादक एवं उपभोक्ता भी बन गया। अब वह खानाबदोश वाले जीवन को त्यागकर स्थायित्वपूर्ण जीवन की ओर आकर्षित होने लगा। इसी युग से प्राचीन कृषक समुदायों का बसना प्रारंभ हुआ। उत्खनन में गेहूँ, चना, जौ, धान, रागी, मूँग के पुरावशेष मिले हैं। सिंधु और बलूचिस्तान की सीमा पर स्थित कच्छी मैदान में बोलन नदी के किनारे मेहरगढ़ नामक स्थान पर ई.पू. 7000 के आसपास कृषि-कर्म का प्रारंभ हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप में गेहूँ का प्राचीनतम् साक्ष्य मेहरगढ़ से ही मिला हैं। ई.पू. 6000 में विश्व में प्राचीनतम् चावल का साक्ष्य बेलन घाटी में कोलडिहवा (इलाहाबाद) और लहुरादेवा (संत कबीरनगर) में प्राप्त हुआ है। इसके अतिरिक्त महगड़ा से भी खेती का साक्ष्य मिला है। दक्षिण भारत में बाजरे एवं रागी के साक्ष्य मिले हैं। विश्व में प्राचीनतम् कपास के साक्ष्य मेहरगढ़ में प्राप्त हुए हैं।
नवपाषाणकालीन मानव पशुओं की उपयोगिता से परिचित हो चुका था। इस क्रम में उसने सबसे पहले कुत्ते को अपना सहचर बनाया था, किंतु अब गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि भी पालतू बनाये गये। इन पशुओं के माँस, दूध और श्रम का आवश्कतानुसार उपयोग करता था। पशुपालन के कारण मानव पशुओं के निकट आया और जीवविज्ञान का प्रयोग शुरू हुआ।
नवपाषाणकाल की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- पहिये का आविष्कार, किंतु पहिये का प्रयोग यातायात में नहीं, बर्तन बनाने में किया गया। चाक पर बर्तन बनाने की तकनीक सर्वप्रथम इसी काल में दृष्टिगोचर होती है। खाद्यान्न को रखने के लिए बड़े-बड़े बर्तनों का प्रयोग हुआ। चाक पर बने बर्तनों के अलावा नवपाषाणकालीन हाथ से बने भाँड, तसले, थाली, कटोरे, घड़े, तश्तरी, टोंड़ीदार जलपात्र, मटके आदि भी प्राप्त हुए हैं जो स्थायी जीवन के प्रमाण हैं।
नवपाषाणयुग में मानव स्थायी रूप से निवास बनाने लगा, जो जलस्रोतों के निकट होता था। मानव द्वारा गोल एवं चौकोर आवास बनाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। बाँस की टहनियों एवं वृक्षों की शाखाओं की सहायता से दीवारें बनाई जाती थीं और घास-फूस से छत का निर्माण किया जाता था। इस काल में मानव ने नाव जैसी चीज का निर्माण भी कर लिया था, परंतु यातायात में इसका प्रयोग नहीं किया। इस काल में मानव ने सुई-धागे का भी प्रयोग प्रारंभ किया। संभवतः वस्त्रों की जगह जानवरों की खालों का प्रयोग किया जाता था।
बिहार के रोहतास जिले की कैमूर पर्वतीय श्रृंखला में मिले शैलचित्र, मध्य प्रदेश के भीमबैठका में पाये पाषाण चित्रों की तरह अमूल्य हैं। कैमूर के पर्वतीय क्षेत्रों में शैल-चित्र धाऊ पत्थर को पीसकर पतले ब्रश से उकेरे गये हैं। इन शैल चित्रों में सूअर, गैंडा, बाघ, बैल आदि जानवरों को दिखाया गया है। एक चित्र में हाथी और उसके बच्चों के भागते तथा हिरण के शिकार को दर्शाया गया है। इन शैल-आश्रयों में शैलचित्रों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि कैमूर की इन पहाडि़यों में प्राचीन काल में बस्तियाँ बसी हुई थीं। इन चित्रों को मध्यपाषाण काल से लेकर नवपाषाण काल तक का माना जा सकता है।
प्रारंभिक नवपाषाणकालीन अर्थव्यवस्था कृषि और जानवरों को पालतू बनाने की प्रक्रिया पर आधारित थी। कृषि-अर्थव्यवस्था पर आधारित प्रारंभिक नवपाषाणिक बस्ती के साक्ष्य भारतीय उपमहाद्वीप में क्वेटा घाटी तथा लोरलाई और झोब नदी घाटी से प्राप्त होते हैं।
इसी प्रकार कुछ अन्य नवपाषाणकालीन स्थल, जैसे-साँभर, किला गुल मुहम्मद, गुमला, राणा घुंडई, अंजीरा, मुंडीगाक तथा मेहरगढ़ से प्राप्त साक्ष्य 7000 से 5000 ई.पू. के हैं। बलूचिस्तान में बोलन दर्रे के निकट मेहरगढ़ सबसे प्रारंभिक कृषि बस्ती है जो 7000 ई.पू. में अस्तित्व में आ गई थी। इसके बाद इस क्षेत्र में जंगली जानवरों पर निर्भरता के स्थान पर पालतू पशुओं और खाद्यान्न-फसलों पर निर्भरता क्रमिक विकास के रूप में सामने आती है। यहाँ प्रारंभिक चरण में मृद्भांडों के प्रयोग के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। लगभग 1,000 वर्ष बाद ई.पू. 6000 में हस्त-निर्मित और बाद में चाक-निर्मित मृद्भांडों के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यहाँ कृषि की ओर क्रमिक स्थानीय संक्रमण के साक्ष्य नहीं हैं और उसके स्थान पर खेती-योग्य परिष्कृत अनाज और दालें अचानक सामने आती हैं। संभवतः कृषि की जानकारी यहाँ के लोगों को अपने पड़ोस ईरान और इराक से हुई थी। बलूचिस्तान में ई.पू. 5000 में बसे किला गुल मुहम्मद और कलात (क्वेटा घाटी), कंधार के निकट मुंडीगाक, तक्षशिला के निकट सरायखोला और शेरीखान तरकाई आदि अनेक कृषि-आधारित ग्रामों के साक्ष्य मिले हैं। ई.पू. 4000 में बालाकोट बस्ती अस्तित्व में आई और इसी समय गिरिपद क्षेत्र (कम ढलानवाला पहाड़ी क्षेत्र) में कृषि का विकास आरंभ हुआ। यही समय था जब कृषि की इस जानकारी का उपयोग सिंधु नदी घाटी में आमरी में किया गया। इन कृषि-कर्मकारों द्वारा सिंधु के मैदान की ओर संचरण उपनिवेशीकरण की प्र्रक्रिया तथा सभ्यता के विकास की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम था। सिंधु नदी क्षेत्र की कछारी भूमि ने अधिशेष उत्पादन में सहायता प्रदान की, जिसके कारण हड़प्पा जैसी उच्चकोटि की नगरीय सभ्यता का उदय संभव हो सका।
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