कलचुरियों की अनेक शाखाओं में त्रिपुरी की कलचुरी शाखा का भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस राजवंश ने मध्य भारत में लगभग सातवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के आरंभ तक शासन किया। त्रिपुरी के कलचुरियों की की राजधानी त्रिपुरी थी, जिसकी पहचान मध्य प्रदेश के जबलपुर के निकट तेवर गाँव से की जाती है। डाहल या चेदि क्षेत्र पर शासन के कारण त्रिपुरी के कलचुरियों को डाहल के कलचुरी और चैद्य (चेदि देश के स्वामी) आदि नाम से भी जाना जाता है। त्रिपुरी के के कलचुरी वंश का संसथापक कोकल्ल प्रथम (845-890 ई.) था। इस शाखा का अंतिम ज्ञात शासक त्रैलोक्यमल्ल (1210-1212 ई.) था
महिष्मती के कलचुरियों के पतन और संभवतः विस्थापन के बाद 7वीं शताब्दी के अंत में वामराजदेव ने कालिंजर को जीतकर पहले कालिंजर और फिर त्रिपुरी राजधानी बनाकर शासन किया। इसी समय सरयूपार के कहला और कसया क्षेत्र में कलचुरियों की शाखाएँ स्थापित हुईं। त्रिपुरी की कलचुरी शाखा का वास्तविक संस्थापक कोकल्ल प्रथम (845-885 ई.) था। त्रिपुरी के कलचुरी शासकों ने गुर्जर-प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों, चंदेलों, कल्याणी के चालुक्यों, गुजरात के चौलुक्यों, मालवा के परमारों और गौड़ तथा उत्कल के समकालीन राजवंशों के साथ युद्ध, वैवाहिक संबंध और सैनिक गठबंधन करके कलचुरी क्षेत्र का विस्तार किया।
1030 के दशक में, कलचुरी राजा गांगेयदेव (1015-1041 ई.) ने अपनी पूर्वी और उत्तरी सीमाओं का विस्तार कर विक्रमादित्य, महाराजाधिराज और त्रिकलिंगाधिपति जैसी भरी-भरकम उपाधियाँ धारण की। गांगेयदेव के पुत्र लक्ष्मीकर्ण (1041-1073 ई.) के शासनकाल में कलचुरी राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। लक्ष्मीकर्ण ने कई पड़ोसी राज्यों के विरुद्ध सफल सैनिक अभियानों के बाद ‘चक्रवर्ती’ की उपाधि धारण की। उसने कुछ समय के लिए मालवा और बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। लक्ष्मीकर्ण के बाद, कलचुरी राजवंश धीरे-धीरे पतन की ओर अग्रसर हुआ। इस राजवंश के अंतिम ज्ञात शासक त्रैलोक्यमल्ल (1210-1212 ई.) ने कम से कम 1212 ईस्वी तक शासन किया। इसके बाद, कलचुरी क्षेत्र मालवा और बुंदेलखंड के नियंत्रण में चले गये और अंततः दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गये।
ऐतिहासिक स्रोत
Table of Contents
Toggleत्रिपुरी के कलचुरी राजवंश की जनकारी अभिलेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, उत्खनित अवशेषों और अनेक साहित्यिक ग्रंथों से मिलती है।
अभिलेख
त्रिपुरी की कलचुरी शाखा से संबंधित महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में लक्ष्मणराज द्वितीय का कारीतलाई अभिलेख, युवराजदेव का बिलहरी शिलालेख, लक्ष्मीकर्ण का रीवा प्रस्तरलेख, बनारस का कणमेरु मंदिरलेख और गोहरवा (प्रयाग) लेख, गांगेयदेव के शासनकाल का सारनाथ शिलालेख, मुकुंदपुर शिलालेख और प्यावाँ लेख, यशःकर्ण का खैरा तथा जबलपुर शिलालेख ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। इनके साथ-साथ, गुहिल राजा बालादित्य का चाटसू शिलालेख, चंदेलों का खजुराहो शिलालेख, परमारों की उदयपुर प्रशस्ति और गुजरात के चालुक्यों की वडनगर प्रशस्ति से भी कलचुरियों के इतिहास-निर्माण में सहायता मिलती है। इन अभिलेखों और ताम्रपत्रों से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
सिक्के
कलचुरी शासकों द्वारा जारी किये गये सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के मध्य भारत और उत्तर प्रदेश के कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं। परवर्ती कलचुरी शासक गांगेयदेव के लक्ष्मी शैली के स्वर्ण सिक्कों के अग्रभाग पर पद्मासन मुद्रा में गजलक्ष्मी और पृष्ठ भाग पर तीन पंक्तियों में ‘श्रीमद्गांगेयदेव’ का अंकन है। इन सिक्कों से कलचुरी राज्य के क्षेत्रीय विस्तार, आर्थिक समृद्धि, व्यापारिक संपर्क और कलात्मक विकास के साथ-साथ शासकों की धार्मिक अभिरूचि पर भी प्रकाश पड़ता है।
पुरातात्त्विक अवशेष
कलचुरी शासकों द्वारा त्रिपुरी, दमोह, कटनी, भेड़ाघाट, पाली, तुम्माण जैसे स्थानों पर बनवाये गये दुर्ग, मंदिर, महल, जलाशय और अन्य संरचनाएँ उनकी सर्जनात्मक बुद्धि, कलात्मक अभिरूचि, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक सरोकारों की जानकारी प्रदान करते हैं। कलचुरीकालीन मूर्तियाँ, बर्तन, आभूषण, कलाकृतियाँ और अवशेष भी तत्कालीन सांस्कृतिक समृद्धि और कलात्मक विकास की सूचना के स्रोत हैं।
साहित्यिक स्रोत
साहित्यिक स्रोतों में राजशेखर द्वारा विरचित ‘विद्वशालभंजिका’ और ‘काव्यमीमांसा’ सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। इन ग्रंथों में राजशेखर ने युवराज की मालवा तथा कलिंग की विजय का उल्लेख करते हुये उसे ‘चक्रवर्ती’ राजा बताया है। विल्हण कृत ‘विक्रमांकदेवचरित’ से कर्ण और चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। हेमचंद्र के ‘द्वाश्रयकाव्य’ से कर्ण तथा पाल शासक विग्रहपाल के बीच संघर्ष का उल्लेख है। मेरुतुंग की ‘प्रबंधचिंतामणि’ से कलचुरी शासक कर्णदेव के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। सोमेश्वरदेव की ‘कीर्तिकौमुदी’ और अबुल-फजल बैहाक़ी की ‘तारीख-ए-बैहाकी’ ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
नामकरण और उत्पत्ति
कलचुरियों को शिलालेखों में कलच्चुरि, कटच्चुरी, कलत्सुरी, कालासुरी, कटाचुरी, करचुलि, कालचर्य, कलचुरि, कलचुरी, कुलचुरी, चैद्य, चेदिनरेश, हैहयवंशी या अहिहय कहा गया है। कलचुरी तुर्की भाषा के शब्द ‘कुल्चुर’ से आया है, जिसका अर्थ होता है- ‘उच्चउपाधिधारी’। कहा जाता है कि इस वंश के लोग बड़ी-बड़ी ‘काली मूंछें’ रखते थे और अपने साथ एक ‘छुरी’ रखा करते थे। काली मूंछें तथा छुरी रखने के कारण पहले ‘कालछुरी’ कहलाये, जो बाद में ‘कलचुरी’ बन गया।
कलचुरियों की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है। डी. आर. भंडारकर के अनुसार कलचुरी विदेशी आक्रामणकारी जातियों, जैसे शकों, पह्लवों के हिंदू वंशज थे। लेकिन कलचुरियों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।
त्रिपुरी की कलचुरी शाखा के युवराजदेव द्वितीय के बिलहरी शिलालेख में कलचुरियों ने स्वयं को महाभारत के हैहयवंशीय शासक कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बताया है, जो अपनी शक्ति और युद्ध-कौशल के लिए प्रसिद्ध था। इसी प्रकार कोकल्ल प्रथम के पुत्र राजकुमार वल्लेका के गयारसपुर शिलालेख, कर्ण के वाराणसी शिलालेख और यशःकर्ण के खैरा शिलालेख भी कलचुरी स्वयं को पौरवों और भरत के माध्यम से कार्तवीर्य का वंशज बताते हैं।
दक्षिण कोसल के कलचुरियों ने भी अपने अभिलेखों में स्वयं को चंद्रवंशीय सहस्त्रार्जुन की संतान बताया है। 12वीं शताब्दी के पृथ्वीराज विजय से भी पता चलता है कि त्रिपुरी के कलचुरी चंद्रवंशीय पौराणिक शासक कार्तवीर्य से संबंधित थे।
वी.वी. मिराशी के अनुसार त्रिपुरी के कलचुरी महिष्मती के कलचुरियों से संबंधित थे। लेकिन महिष्मती के कलचुरियों के किसी अभिलेख में उन्हें ‘हैहयवंशीय’ के रूप में वर्णित नहीं किया गया है, बल्कि यह नाम उनके पड़ोसी प्रारंभिक चालुक्यों के कुछ शिलालेखों में मिलता है।
इस प्रकार त्रिपुरी के कलचुरियों को चंद्रवंशी क्षत्रिय माना जा सकता है। संभव है कि वे किसी स्थानीय जनजाति से संबंधित रहे हों।
त्रिपुरी के कलचुरियों का राजवंशीय इतिहास
वामराजदेव (लगभग 675-700 ई.)
त्रिपुरी (तेवर) की कलचुरी शाखा का संस्थापक कोकल्ल प्रथम (लगभग 845-885 ई.) को माना जाता है, लेकिन अभिलेखीय स्रोतों से पता चलता है कि उसके कई पीढ़ियों पूर्व वामराजदेव (675-700 ई.) ने त्रिपुरी की कलचुरी शाखा की नींव रखी थी। अभिलेखों में वामराजदेव को ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ कहा गया है, जिसके चरणों की अनेक राजा पूजा करते थे (श्यामदेव पादानुध्यात्)।
संभवतः सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हर्षवर्धन की शक्ति के पतन के बाद वामराज ने कालिंजर को जीतकर एक विशाल राज्य स्थापित किया, जिसमें बुंदेलखंड, बघेलखंड, सागर, जबलपुर और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र शामिल थे। उसने अपनी राजधानी कालिंजर से त्रिपुरी स्थानान्तरित की, लेकिन यह निश्चित नहीं है कि उसने त्रिपुरी को किससे जीता था।
वामराज ने त्रिपुरी से आगे बढ़कर अयोमुख (प्रतापगढ़ और रायबरेली) पर अधिकार किया और सरयूपार के गोरखपुर, देवरिया तथा कुशीनगर के क्षेत्रों को जीतकर अपने छोटे भाई लक्ष्मणराज को सौंप दिया। संभवतः इसी समय सरयूपार में कलचुरियों की कहला और कसया की शाखाएँ स्थापित हुईं।
युवराजदेव के बिलहरी और कर्ण के बनारस अभिलेखों में डाहल (त्रिपुरी) की कलचुरी वंशावली कोकल्ल प्रथम से पारंभ होती है, और वामराज का कोई उल्लेख नहीं है। वामराजदेव का शासनकाल मोटे तौर पर 675 से 700 ई. के बीच माना जा सकता है।
शंकरगण प्रथम (लगभग 750-775 ई.)
वामराज की कुछ पीढ़ियों बाद शंकरगण प्रथम (लगभग 750-775 ई.) त्रिपुरी का शासक हुआ। सागर और छोटी देवरी से उसके दो दानपरक अभिलेख मिले हैं, जिनमें उसकी उपाधियाँ परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर मिलती हैं। इन अभिलेखों के प्राप्ति-स्थानों और उपाधियों से लगता है कि वह एक विस्तृत प्रदेश का शासक था।
शंकरगण के बाद लगभग सौ वर्षों का कलचुरी इतिहास तिमिराच्छादित है क्योंकि इस कालावधि में किसी कलचुरी शासक का कोई अभिलेख नहीं मिला है। संभवतः इस दौरान त्रिपुरी के कलचुरियों ने दक्षिणापथ के राष्ट्रकूटों की अधिसत्ता स्वीकार कर ली और अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया।
लक्ष्मणराज प्रथम (लगभग 825-845 ई.)
शंकरगण प्रथम के बाद अगला कलचुरी शासक लक्ष्मणराज प्रथम (लगभग 750-850 ई.) हुआ। उसके कलचुरी संवत् 593 (841-842 ई.) के कारीतलाई अभिलेख से कलचुरियों के इतिहास की पुनः जानकारी मिलती है। इस लेख में एक राष्ट्रकूट शासक की प्रशंसा की गई है और किसी नागभट्ट की पराजय का उल्लेख है। अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र के अनुसार राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने डाहल प्रदेश को जीतकर लक्ष्मणराज को वहाँ का प्रांतीय शासक नियुक्त किया। इससे स्पष्ट है कि इस समय कलचुरी अपने दक्षिणी पड़ोसियों- राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार करते थे और लक्ष्मणराज ने राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय की ओर से गुर्जर-प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था। राष्ट्रकूटों और कलचुरियों के बीच वैवाहिक संबंध थे, जिससे दोनों राजवंशों का संबंध और भी दृढ़ हो गयो थे।
कोकल्ल प्रथम (लगभग 845-890 ई.)
त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश का संस्थापक कोक्कल प्रथम (लगभग 845-890 ई.) को माना जाता है क्योंकि युवराजदेव के बिलहरी और कर्ण के बनारस अभिलेखों में त्रिपुरी की कलचुरी वंशावली कोकल्ल प्रथम से ही प्रारंभ होती है। यद्यपि उसका कोई लेख नहीं मिला है, लेकिन बिलहरी और बनारस अभिलेखों से उसकी उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
कोकल्ल के पुत्र वल्लेका के ग्यारसपुर शिलालेख से पता चलता है कि कोकल्ल प्रथम गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज का एक अधीनस्थ सामंत था, और प्रतिहार साम्राज्य की दक्षिण-पूर्वी सीमाओं के विस्तार में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उसने बंगाल के पाल साम्राज्य के विरूद्ध संघर्ष में भी मिहिरभोज की मदद की थी। संभवतः प्रतिहार भोज के प्रति कोकल्ल की अधीनता नाममात्र की थी और प्रतिहार राज्य के दक्षिणी भाग में अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करके उसने कलचुरी साम्राज्य की नींव रखी।
वैवाहिक संबंध
कोक्कल प्रथम एक दूरदर्शी शासक था। उसने प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों और चंदेलों के साथ युद्ध और कूटनीतिक संबंधों के माध्यम से अपनी स्थिति सुदृढ़ की और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ क्षेत्रों तक कलचुरी राज्य का विस्तार किया। उसने स्वयं चंदेल राजकुमारी नट्टादेवी से विवाह किया, जो चंदेल राजा जयशक्ति या राहिल की पुत्री या बहन थी। कोक्कल ने नट्टादेवी से उत्पन्न अपनी पुत्री महादेवी का विवाह राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय किया और उसकी ओर से उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि कोकल्ल की एक अन्य पुत्री लज्जादेवी बंगाल के पाल शासक विग्रहपाल प्रथम की रानी और उसके उत्तराधिकारी नारायणपाल की माँ थी। इन वैवाहिक संबंधों के द्वारा उसने कलचुरी साम्राज्य की पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिण-पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित कर लिया।
कोक्कल प्रथम की सैन्य उपलब्धियाँ
कोकल्ल प्रथम कलचुरी राजवंश का एक शक्तिशाली शासक था। कर्ण के बनारस अभिलेख में कहा गया है कि उसने भोज, वल्लभराज, चित्रकूटभूपाल, हर्ष और शंकरगण को अभयदान दिया। बिलहरी अभिलेख के अनुसार उसने सारी पृथ्वी को जीतकर कौम्भोद्भव (अगस्त्य) की दिशा (दक्षिण) में कृष्णराज एवं कुबेर (उत्तर) की दिशा में श्रीनिधिभोजदेव को अपने दो कीर्तिस्तंभों के रूप में स्थापित किया।
बनारस और बिलहरी अभिलेखों में उल्लिखित भोज संभवतः कन्नौज का गुर्जर प्रतीहार शासक भोज प्रथम है, जो कोकल्ल के दामाद राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय (878-911 ई.) का समकालीन था। कोकल्ल ने उत्तर दिशा में जिस भोज को अपनी यशःकीर्ति के रूप में स्थापित करने का दावा किया है, वह संभवतः पालों के विरुद्ध उसकी सहायता का द्योतक है। बनारस अभिलेख का वल्लभराज स्पष्टतः बिलहरी अभिलेख का कृष्णराज है, जिसकी पहचान राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय से की जाती है। कोकल्ल प्रथम ने वेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा विजयादित्य तृतीय (844-888 ई.) के विरूद्ध अपने पुत्र और युवराज शंकरगण द्वितीय के माध्यम से अपने मित्र और दामाद कृष्ण द्वितीय की सहायता की थी।
बिलहरी अभिलेख के चित्रकूटभूपाल और हर्ष की पहचान निश्चित नहीं है। कुछ इतिहासकार चित्रकूटभूपाल की पहचान चंदेल शासक हर्ष से करते हैं। कोकल्ल से अभयदान पाने वाला हर्ष संभवतः मेवाड़ क्षेत्र पर शासन करने वाला प्रतीहार शासक भोज प्रथम का गुहिल सामंत था, जिसका उल्लेख बालादित्य के चाट्सु अभिलेख में है। शंकरगण संभवतः सरयूपार (गोरखपुर) की कलचुरी शाखा का शासक था, जिसका उल्लेख सोढ़देव के कहला अभिलेख में है।
तुम्माणवंशी पृथ्वीदेव के 1079 ईस्वी के अमोदा अभिलेख में दावा किया गया है कि कोकल्ल ने कर्णाट, वंग, गुर्जर, कोंकण, शाकम्भरी और तुर्क तथा रघुवंशी राजाओं के राजकोषों को लूट लिया। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह एक अनैतिहासिक प्रशस्ति मात्र है।
इस प्रकार कोक्कल प्रथम ने अपनी कूटनीति और सैन्य शक्ति के बल पर कलचुरी साम्राज्य का विस्तार किया, जो मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था।
कोक्कल प्रथम कला और साहित्य का भी संरक्षक था। उसने शैव मंदिरों और धार्मिक स्थलों का निर्माण करवाया, जो उसकी शिव भक्ति के प्रमाण हैं।
रतनपुर के कलचुरी अभिलेखों के अनुसार कोक्कल के 18 पुत्र थे, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण द्वितीय ‘मुग्धतुंग’ त्रिपुरी के कलचुरी राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और अन्य पुत्र कलचुरी राज्य के विभिन्न क्षेत्रों के मंडलाधिपति नियुक्त किये गये।
शंकरगण द्वितीय ‘मुग्धतुंग’ (लगभग 890-910 ई.)
कोकल्ल प्रथम की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र शंकरगण द्वितीय (890-910 ई.) त्रिपुरी का शासक हुआ, जिसे प्रसिद्धधवल, मुग्धतुंग और रणविग्रह के नाम से भी जाना जाता है।
शंकरगण द्वितीय युवराज रूप में राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की ओर से वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक विजयादित्य तृतीय (844-888 ई.) के विरुद्ध युद्ध में भाग ले चुका था। संभवतः त्रिपुरी का शासक बनने के बाद भी उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के साथ मिलकर चालुक्य विजयादित्य तृतीय पर आक्रमण किया, लेकिन किरणपुर के युद्ध में चालुक्यों के हाथों उन्हें बुरी तरह पराजित होना पड़ा।
कलचुरी शिलालेखों से ज्ञात होता है कि शंकरगण ‘मुग्धतुंग’ ने लगभग 900 ईस्वी में समुद्रतटीय क्षेत्रों की विजय की और दक्षिण कोसल क्षेत्र के बाणवंशी शासक विक्रमादित्य ‘जयमेयु’ को पराजित कर पाली पर अधिकार कर लिया। उसने अपने एक छोटे भाई को पाली का मंडलाधिपति नियुक्त किया, जिसने तुम्माण में कलचुरियों की एक नई शाखा की नींव रखी।
बिलहरी अभिलेख में शंकरगण को मलय देश पर आक्रमण करने का श्रेय दिया गया है, लेकिन यह दावा संदिग्ध है क्योंकि इसकी पुष्टि किसी अन्य ऐतिहासिक स्रोत से नहीं होती है।
शंकरगण ने क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन बनाये रखने के लिए अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया।
शंकरगण के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र बालहर्ष (लगभग 910-915 ई.) कलचुरी राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, जिसने बहुत कम समय तक शासन किया।
युवराजदेव प्रथम ‘केयूरवर्ष’ (लगभग 915-945 ई. )
बालहर्ष के अल्पकालीन शासन के बाद शंकरगण का छोटा भाई युवराजदेव प्रथम ‘केयूरवर्ष’ (लगभग 915-945 ई.) डाहल के कलचुरी राज्य की गद्दी पर बैठा। युवराजदेव प्रथम का कोई अभिलेख नहीं मिला है, लेकिन उसके वंशजों के लेखों और राजशेखर के ग्रंथों में उसकी उलब्धियों का विवरण मिलता है।
युवराजदेव प्रथम की राजनीतिक उपलब्धियाँ
युवराजदेव एक शक्तिशाली शासक था। युवराजदेव द्वितीय के बिलहरी अभिलेख में कहा गया है कि युवराज प्रथम की सेनाएँ शत्रुओं पर अनगिनत प्रहार करती हुई (उत्तर में) पार्वती की केलि और लास्य के सतत मित्र कैलाश पर्वत तक, पूर्व में भास्वत् अर्थात् सूर्य की लालिमा को सर्वप्रथम बिखेरने वाले उदयाचल तक, दक्षिण में सेतुबंध तथा वहाँ से पश्चिम पयोधि तक गईं।
कर्ण के बनारस अभिलेख और राजशेखर कृत विद्वशालभंजिका में युवराजदेव के भुजबल की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि उसने गौड़ (बंगाल), कर्णाट (कर्नाटक), गुजरात (लाट), कलिंग (उडीसा) तथा कश्मीर पर आक्रमण किया, उन प्रदेशों की महिलाओं से विवाह किया और ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की।
युवराजदेव प्रथम और राष्ट्रकूट
युवराजदेव का समकालीन राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय (914-929 ई.) चेदि राजकुमारी लक्ष्मी का पुत्र था और उसका विवाह भी एक कलचुरी राजकन्या विजम्बा से हुआ था। इन वैवाहिक संबंधों के कारण युवराजदेव ने उसके उत्तरी अभियान में सहायता की, जिसके फलस्वरूप प्रतिहार शासक महिपाल को अपनी राजधानी छोड़कर भागना पडा। इस आक्रमण के बाद प्रतिहार नरेश महेंद्रपाल और महिपाल के आश्रित कवि राजशेखर ने त्रिपुरी में शरण ली और वहीं विद्वशालभंजिका तथा काव्यमीमांसा की रचना की।
युवराजदेव और चंदेल
चंदेलों के खजुराहो लेख में युवराजदेव की शक्ति की प्रशंसा करते हुए उसे ‘प्रसिद्ध राजाओं के मस्तक पर पैर रखनेवाला’ कहा गया है। इससे लगता है कि उसने अन्य अनेक राजाओं की भाँति संभवतः चंदेल शासक यशोवर्मन को भी पराजित किया था।
मालवा और उड़ीसा पर आक्रमण
राजशेखर कृत विद्वशालभंजिका में युवराजदेव को ‘उज्जयिनीभुजंग’, ‘चक्रवती’ और ‘त्रिकलिंगाधिपति’ कहा गया है, जिससे लगता है कि उसने मालवा और उड़ीसा पर भी आक्रमण किया। यद्यपि राजशेखर का विवरण अतिशयोक्तिपूर्ण है, फिर भी, लक्ष्मणराज द्वितीय के करीतलाई अभिलेख से स्पष्ट है कि उसने गुर्जर प्रतिहार नरेश महिपाल पर विजय प्राप्त की थी और गौड़, मालवा तथा दक्षिण कोसल के राजा को पराजित किया था।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
युवराजदेव प्रथम कला और साहित्य का महान संरक्षक था। उसने गोलकीमठ जैसे कई मंदिरों और मठों के निर्माण करवाया। प्रतिहार महेंद्रपाल और महिपाल के दरबारी कवि राजशेखर को युवराजदेव प्रथम ने अपने दरबार में संरक्षण दिया और जहाँ उसने विद्वसालभंजिका और काव्यमीमांसा की रचना की।
युवराजदेव शिव का भक्त था। उसने प्रभावशिव नामक शैव साधु तथा उसके साथ रहने वाले अन्य साधुओं के लिए गुर्गी में मंदिर सहित एक मठ और भेड़ाघाट में चौसठ योगिनियों का मंदिर बनवाया। उसने गोलकीमठ के रख-रखाव के लिए तीन लाख गाँव दान में दिये। उसकी रानी नोहलादेवी ने शैवाचार्यों के निर्देशन में बिलहरी के निकट नोहलेश्वर शिवमदिर का निर्माण करवाया और उसके रखरखाव के लिए सात गाँव दान में दिया।
युवराजदेव ने जैन और बौद्ध धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया, जो उसकी धार्मिक सहिष्णुता का सूचक है। युवराज का प्रधानमंत्री भाकमिश्र भारद्वाजवंशी ब्राह्मण था। उसके एक अन्य मंत्री गोल्लाक की भी जानकारी मिलती है।
लक्ष्मणराज द्वितीय (लगभग 945-970 ई.)
युवराजदेव प्रथम का उत्तराधिकारी उसकी रानी नोहलादेवी से उत्पन्न पुत्र लक्ष्मणराज (लगभग 945-970 ई.) हुआ। उसने पूर्वी भारत में बंगाल, कोसल, उड़ीसा और पश्चिमी भारत में लाट और गुर्जर राज्यों के विरूद्ध सफल सैन्य अभियान किया।
बंगाल, कोसल और उड़ीसा की विजय
लक्ष्मणराज के संबंध में गोहरवा (प्रयाग) शिलालेख में कहा गया है कि उसने बंगाल के राजा को कुशलतापूर्वक पराजित (भंग) किया, पांड्यराज को पराभूत किया, लाटराज को लूटा, गुर्जरराज को हराया और कश्मीर के वीर ने अपना सिर झुकाकर उसके चरणों की पूजा की-
बंगालभंगनिपुणः परिभूतपाण्ड्यो लाटशलुण्डेनपटुञ्जितगुज्जैरेन्द्रः।
कश्मीरवीर मुकुटार्चितपादपीठस्तेषु क्रमादजनि लक्ष्मणराजदेवः।।
युवराजदेव द्वितीय के बिलहरी अभिलेख के अनुसार उसने कोसलनाथ को जीतते हुए आगे बढ़कर ओड्र (उड़ीसा) के राजा से रत्न और स्वर्णमय कालिय (नाग) की प्रतिमा छीन ली, जिससे उसने सोमनाथ की पूजा की। यहाँ कोसल का आशय महाकोसल (छत्तीसगढ़) से है, और कोसलनाथ संभवतः महाभवगुप्त था।
गुजरात और लाट की विजय
पूर्वी अभियान के बाद लक्ष्मणराज ने पश्चिमी भारत में गुजरात और लाट के क्षेत्रों की विजय की, जो उसकी सोमनाथ पूजा और गोरहवा अभिलेख में लाटविजय के उल्लेख से प्रमाणित है। संभवतः इसी अभियान में उसने जूनागढ के आभीर शासक ग्रहरिपु को भी पराजित किया।
लक्ष्मणराज अपने पिता की तरह शैव मत का अनुयायी था। उसने त्रिपुरी और आसपास के क्षेत्रों में अनेक मंदिरों तथा मठों का निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। उसके मंत्री सोमेश्वर ने अपने पिता भाकमिश्र की तरह करीतलाई में विष्णु का एक मंदिर बनवाया, उसके रखरखाव के लिए एक गाँव दान किया और आठ ब्राह्मणों की नियुक्ति की। इस प्रकार लक्ष्मणराज के शासनकाल में त्रिपुरी एक प्रमुख व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया।
लक्ष्मणराज ने अपनी पुत्री बोन्थादेवी का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ के साथ किया, जिसका पुत्र तैलप द्वितीय था।
शंकरगण तृतीय (लगभग 970-980 ई.)
लक्ष्मणराज द्वितीय के बाद उसका पुत्र शंकरगण तृतीय (लगभग 970-980 ई.) त्रिपुरी की राजगद्दी पर बैठा। इसका नाम कर्ण के बड़ागाँव और करीतलाई शिलालेख में मिलता है।
शंकरगण तृतीय ने विस्तारवादी नीति अपनाई और समकालीन गुर्जर प्रतिहार शासक संभवतः विजयपाल को पराजित किया, लेकिन चंदेलों के साथ संघर्ष में उसका अपमानजनक अंत हुआ और संभवतः चंदेलराज धंग (950-1002 ई.) के छोटे भाई कृष्ण के प्रधानमंत्री वाचस्पति ने उसे पराजित कर मार डाला।
शंकरगण संभवतः वैष्णव धर्म का अनुयायी था। यद्यपि बड़ागाँव शिलालेख के अनुसार उसने शंकरनारायण के सम्मान में कुछ उपहार दिया था, लेकिन करीतलाई शिलालेख में उसे वैष्णव बताया गया है।
युवराजदेव द्वितीय (लगभग 980-990 ई.)
शंकरगण तृतीय का उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई युवराजदेव द्वितीय (लगभग 980-990 ई.) हुआ। कलचुरी शिलालेखों में उसे पृथ्वी पर सभी दिशाओं के सभी राजाओं को जीतने का श्रेय दिया गया है और ‘चेदींद्रचंद्र’ (चेदिवंश’ के राजाओं में चंद्र) कहकर प्रशंशा की गई है, जबकि वास्तव में वह एक दुर्बल शासक था।
युवराज द्वितीय और कल्याणी के चालुक्य
कलचुरियों और कल्याणी के चालुक्यों के बीच वैवाहिक संबंध थे। चालुक्य शासक तैलप द्वितीय की माँ युवराजदेव की बहन थी, लेकिन तैलप ने वैवाहिक संबंधों की अनदेखी करते हुए चेदि देश पर आक्रमण कर युवराजदेव को पराजित किया।
युवराज द्वितीय और परमार
उदयपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि परमार शासक वाक्पति द्वितीय ‘मुंज’ (974-995 ई.) ने त्रिपुरी पर आक्रमण कर युवराज द्वितीय के सेनापतियों को मार डाला और कुछ समय के लिए त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया। बाद में, परमार वाक्पति मुंज और युवराज के बीच संधि हो गई।
संभवतः युवराज द्वितीय के कायरतापूर्ण कृत्य से असंतुष्ट होकर प्रमुख मंत्रियों ने उसको हटाकर उसके पुत्र कोकल्ल द्वितीय को त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठाया।
कोकल्लदेव द्वितीय (लगभग 990-1015 ई.)
युवराजदेव का पुत्र कोकल्लदेव द्वितीय (लगभग 990-1015 ई.) प्रमुख मंत्रियों (अमात्यमुख्याः) की सलाह से त्रिपुरी का शासक हुआ।
कोकल्ल द्वितीय एक महान विजेता था। उसने अपने पुत्र कलिंगराज को दक्षिण कोसल की विजय के लिए भेजा, जहाँ उड़ीसा के सोमवंशियों ने कलचुरियों को खदेड़कर तुम्माण पर अधिकार कर लिया था। कलिंगराज ने 1000 ई. के आसपास न केवल तुम्माण को अपने अधीन किया, बल्कि दक्षिण कोसल को भी जीत लिया और तुम्माण को अपनी राजधानी बनाकर छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की स्थापना की, जो बाद में रतनपुर की शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। और रायपुर शाखा में विभाजित हो गई। 14वीं शताब्दी के अंत में, रतनपुर शाखा विभाजित हो गई और कलचुरियों की एक नई शाखा रायपुर का उदय हुआ, जो लहुरी शाखा के नाम से भी प्रसिद्ध है।
गुर्गी से प्राप्त कोकल्ल द्वितीय के एकमात्र शिलालेख में दावा किया गया है कि उसके सैनिक अभियान से भयभीत होकर तीन पड़ोसी राजा- गुर्जर (संभवतः प्रतिहार शासक राज्यपाल), गौड़ (पाल शासक महिपाल) और कुंतल (कल्याणी का चालुक्यराज विक्रमादित्य पंचम) अपना राज्य छोड़कर भाग गये। कोकल्ल ने इस अभियान के दौरान संभवतः लाट के चौलुक्य नरेश चामुंडराज को भी हराया था।
लगता है कि गुर्गी शिलालेख में कोकल्लदेव की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित किया गया है क्योंकि इन विजयों की पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं होती है।
इस प्रकार लक्ष्मणराज द्वितीय के बाद लगभग चार-पाँच दशकों तक त्रिपुरी के कलचुरियों की सत्ता शिथिल और कुंठित रही। बाद में, गांगेयदेव के शासनकाल में हैहयवंषी पुनः यश, समृद्धि और साम्राज्यवाद के पथ पर अग्रसर हुए।
कलचुरी सत्ता का विकास
गांगेयदेव ‘विक्रमादित्य’ (लगभग 1015-1041 ई.)
कोकल्ल द्वितीय का पुत्र और उत्तराधिकारी गांगेयदेव लगभग 1015 ई. के आसपास त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठा, जो अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत इस वंश का महानतम शासक सिद्ध हुआ। गांगेयदेव के शासनकाल के दो अभिलेख मुकुंदपुर और प्यावाँ से मिले हैं, लेकिन उसकी उपलब्धियों की जानकारी मुख्यतः उसके पुत्र कर्ण और प्रौत्र यशःकर्ण के अभिलेखों से मिलती है।
गांगेयदेव के राज्यारोहण के समय कलचुरी सत्ता शक्तिहीन और शिथिल थी। विद्याधर के नेतृत्व में चंदेल और भोज के नेतृत्व में परमार अपने समकालीन शक्तियों को चुनौती दे रहे थे। कलचुरी सं. 772 (1019 ई.) के मुकुंदपुर अभिलेख में गांगेयदेव को ‘महार्हमहामहत्तक’ और ‘महाराज’ कहा गया है, जो उसकी सामंत स्थिति का सूचक है। संभवतः वह चंदेल शासक विद्याधर (1018-1029 ई.) की सर्वोच्चता स्वीकार करता था क्योंकि खजुराहो से प्राप्त एक खंडित चंदेल अभिलेख में दावा किया गया है कि, ‘कान्यकुब्ज के राजा का वध करने वाले, युद्धकुशल और उच्चासनस्थ (विद्याधर) की भोज और कलचुरीचंद्र ने वैसे ही पूजा की, जैसे कोई शिष्य अपने गुरु की करता है’ (विहितकन्याकुब्जभूपालभंग समरगुरुउपास्तप्रौढ़सह कलचुरीचन्द्र शिष्यवत् भोजदेवः)। इतिहासकार इस ‘कलचुरिचंद्र’ (कलचुरियों का चंद्रमा) की पहचान गांगेयदेव से करते हैं। लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चंदेल शिलालेख एक अतिशयोक्ति मात्र है और गांगेयदेव परमार राजा भोज का अधीनस्थ था।
संभवतः परमार भोज भी गांगेयदेव की तरह विद्याधर से आतंकित था, अतः वह गांगेयदेव का स्वभाविक मित्र बन गया। भोज ने गांगेयदेव की सहायता से संभवतः चंदेल साम्राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन विद्याधर ने उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया।
गांगेयदेव ने परमार भोज के साथ गठबंधन करके कल्याणी के चालुक्यों पर आक्रमण किया, लेकिन कुछ प्रारंभिक सफलताओं के बाद उन्हें पराजित होकर पीछे हटना पड़ा। चालुक्यों से पराजय के साथ ही कलचुरी-परमार गठबंधन भी समाप्त हो गया और मध्य भारत पर प्रभुत्व के लिए दोनों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें गांगेयदेव की पराजय हुई।
1030 के दशक में, गांगेयदेव ने पूर्वी और उत्तरी भारत में कलचुरी साम्राज्य का विस्तार करने के बाद अपनी स्वतंत्रता घोषित कर ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। उसने काशी (वाराणसी) और प्रयाग (प्रयागराज) जैसे पवित्र शहरों पर प्रभुत्व स्थापित किया, जो धार्मिक और व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे।
गांगेयदेव की आरंभिक सैन्य उपलब्धियाँ
विद्याधर की मृत्यु के बाद गांगेयदेव ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और उत्तरी भारत का सार्वभौम शासक बनने के लिए उसने अनेक विजयें की। उसने अंग, उत्कल, काशी तथा प्रयाग को जीता और प्रयाग में अपना एक निवास-स्थान बनाया। काशी का क्षेत्र गांगेयदेव ने संभवतः पाल शासकों से छीना था। प्रयाग पर उसके अधिकार की पुष्टि खैरा और जबलपुर के लेखों से होती है जहाँ बताया गया है कि गांगेयदेव ने उत्तर-पश्चिम में पंजाब तथा दक्षिण में कुंतल तक सैनिक अभियान किया।
गांगेयदेव और कल्याणी के चालुक्य
गांगेयदेव ने परमार शासक भोज के सामंत के रूप में उसकी ओर से कल्याणी के चालुक्य शासक जयसिंह द्वितीय (1015-1042 ई.) के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया। कुलेनूर अभिलेख से पता चलता है कि भोज, गांगेयदेव और राजेंद्र चोल ने एक संयुक्त मोर्चा बनाकर कल्याणी के चालुक्य राज्य पर तीन ओर से आक्रमण किया। लक्ष्मीकर्ण के गोरहवा, यशःकर्ण के खैरा और जबलपुर अभिलेखों में दावा किया गया है कि कुंतल का राजा (जयसिंह) पराजित हुआ, लेकिन चालुक्य अभिलेखों से लगता है कि गांगेयदेव और उनके सहयोगियों को कुछ प्रारंभिक सफलता के बाद पीछे हटना पड़ा और चालुक्य जयसिंह ने अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इस पराजय के साथ ही कलचुरी-परमार मित्रता भी समाप्त हो गई।
गांगेयदेव और परमार
परमारों की उदयपुर प्रशस्ति, भोज के सामंत यशोवर्मन के कल्वन अभिलेख और मेरुतुंग के प्रबंध चिंतामणि से ज्ञात होता है कि भोज ने ‘चेदिश्वर’ को पराजित किया। भोज द्वारा पराजित ‘चेदिश्वर’ गांगेयदेव ही था। बाल सरस्वती मदन की पारिजातमंजरी (1213 ई.) में कहा गया है कि भोज ने ‘चेदिविजय’ को एक उत्सव के रूप में मनाया। भोज के वंशज अर्जुनवर्मन के 1223 ई. के धार शिलालेख में भी गांगेय पर भोज की विजय का उल्लेख है।
यह स्पष्ट नहीं है कि भोज ने चालुक्य-विरोधी अभियान से पहले गांगेयदेव को हराया था या बाद में। वी.वी. मिराशी का अनुमान है कि भोज ने 1019 ई. से पहले गांगेयदेव को पराजित किया होगा, जब गांगेयदेव ने अपना मुकुंदपुर शिलालेख जारी किया था। लेकिन अधिक संभावना यही है कि चालुक्यों के विरुद्ध संयुक्त अभियान के बाद चंदेल क्षेत्रों पर अधिकार करने की प्रतिस्पर्धा में कलचुरियों और परमारों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें गांगेयदेव को मुँह की खानी पड़ी।
संप्रभुता की घोषणा
अपने शासनकाल के उत्तरार्ध में गांगेयदेव ने अपनी पूर्वी और उत्तरी सीमाओं पर सैन्य विजयें कीं और एक संप्रभु शासक के रूप में महाराजाधिराज, परमेश्वर तथा महामंडलेश्वर जैसी उच्च उपाधियाँ धारण की, जो उसके 1037-38 ई. के प्यावाँ शिलालेख में मिलती हैं। खैरालेख के अनुसार उसने ‘विक्रमादित्य’ की ऐतिहासिक उपाधि भी धारण की। अल्बरूनी ने उसका उल्लेख डाहल देश के शासक के रूप में किया है, और उसकी राजधानी ‘तिउरी’ (त्रिपुरी) बताया है।
पूर्वी और उत्तरी भारत में सैन्य अभियान
पूर्वी भारत
पाल शक्ति के हृास का लाभ उठाकर गांगेयदेव ने संभवतः पाल नरेश महिपाल (988-1038 ई.) से काशी छीन लिया और अंग पर अधिकार करने का प्रयत्न किया। लक्ष्मीकर्ण के शिलालेखों में कहा गया है कि गांगेयदेव ने अंग देश की संपत्ति छीन ली। लेकिन दूसरी ओर मुजफ्फरपुर के इमादपुर से प्राप्त महिपाल (988-1038 ई.) के शासन के 48वें वर्ष के एक शिलालेख से स्पष्ट है कि अंग पर महिपाल का अधिकार था। इस प्रकार यह निश्चित नहीं है कि गांगेयदेव का अंग पर अधिकार था।
पूर्व में गांगेयदेव ने उड़ीसा की विजय की और उत्कलराज को हराया। गोहरवा अभिलेख में कहा गया है कि ‘उसने समुद्र के किनारे उत्कलराज को जीतकर अपनी बाहु को मानो एक विजय-स्तंभ बना दिया’ (निर्जित्योत्कलमवधिसीन जयस्तम्भः स्वकीयो भुजः)। इसका अप्रत्यक्ष समर्थन कर्ण के रीवा अभिलेख से भी होता है, जिसके अनुसार ‘उसके सैनिकों द्वारा मारे गये हाथियों के रक्त से समुद्र का पानी लाल हो गया।’ वी.वी. मिराशी के अनुसार पराजित उत्कलराज भौमकरवंशी शुभकर द्वितीय था। उत्कल के विरुद्ध इस अभियान में संभवतः तुम्माण (तुमान) के कलचुरी सामंत कमलराज ने गांगेयदेव की सहायता की।
कलचुरी अभिलेखों में दावा किया गया है कि गांगेयदेव ने दक्षिण कोसल के शासक को भी पराजित किया। दक्षिण कोसल का पराजित शासक संभवतः सोमवंशी महाशिवगुप्त चंडीहर ययाति द्वितीय (1021-1040 ई.) था। पूर्व (कलिंग क्षेत्र) में अपने सफल अभियान के बाद गांगेयदेव ने ‘त्रिकलिंगाधिपति’ की उपाधि धारण की, जो उसके पुत्र कर्ण के पहले अभिलेख में मिलती है।
रामायण की 1019 ई. की एक पांडुलिपि की स्तंभिका के आधार पर रमेशचंद्र मजुमदार जैसे कुछ इतिहासकार गांगेयदेव को तिरहुत की विजय का श्रेय भी देते हैं, लेकिन यह मत इतिहासकारों द्वारा स्वीकृत नहीं है।
उत्तरी भारत
कलचुरी शिलालेखों में गांगेयदेव को काशी, प्रयाग और कीर की विजय का श्रेय दिया गया है। लक्ष्मीकर्ण के बनारस शिलालेख में कहा गया है कि गांगेयदेव ने काशी और प्रयाग होते हुए गंगा-यमुना के दोआब को जीतकर हिमाचल प्रदेश के कीर अर्थात् कांगड़ा घाटी आक्रमण किया और उसके राजा को बंदी बना लिया। इस विजय के बाद उसने काशी और प्रयाग के आसपास के क्षेत्रों को अपने राज्य में मिला लिया।
गांगेयदेव ने काशी का क्षेत्र संभवतः पाल शासक महिपाल प्रथम (988-1038 ई.) से छीना, क्योंकि सारनाथ से प्राप्त एक अभिलेख से पता चलता है कि 1026 ई. में उस पर महिपाल का अधिकार था। काशी पर गांगेयदेव के अधिकार की पुष्टि तारीखे बैहाकी से भी होती है, जिसके अनुसार पंजाब के मुस्लिम शासक अहमद नियाल्तगीन के 1033 ई. में बनारस पर आक्रमण के समय वहाँ का राजा गंग (गांगेयदेव) था।
प्रयाग पर गांगेयदेव के अधिकार की पुष्टि उसके पौत्र यशःकर्ण के खैरा और जबलपुर अभिलेखों से होती है, जिनमें कहा गया है कि ‘गांगेयदेव ने वटवृक्ष के नीचे निवास करते हुए अपनी एक सौ रानियों के साथ प्राणोत्सर्ग कर मुक्ति प्राप्त किया।’ यही नहीं, गांगेयदेव के ‘गजलक्ष्मी शैली’ के स्वर्ण सिक्के भी उत्तर प्रदेश के कई स्थानों से मिले हैं, जो गंगा-यमुना दोआब पर उसके राज्याधिकार के प्रमाण हैं।
चंदेलों के एक लेख में गांगेयदेव को ‘जितविश्व’ (विश्वविजेता) कहा गया है, जिसके आधार पर कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि गांगेयदेव ने जेजाकभुक्ति के चंदेलों को पराजित कर उत्तर में अपने राज्य का विस्तार किया। लेकिन बाद में, गांगेयदेव को चंदेल राजा विजयपाल के हाथों पराजित होना पड़ा, क्योंकि चंदेलों के खजुराहो शिलालेख में दावा किया गया है कि विजयपाल ने एक युद्ध में गांगेयदेव का अभिमान तोड़ दिया।
इस प्रकार गांगेयदेव ने त्रिपुरी के कलचुरी राज्य की सीमाओं का विस्तार कर महाराजाधिराज, परमेश्वर और महामंडलेश्वर की साम्राज्यसूचक उपाधियाँ धारण कीं, जो कलचुरी संवत् 789 (1037-1038 ई.) के प्यावाँ अभिलेख में मिलती हैं। यशःकर्ण के खैरा अभिलेख में उसकी उपाधि विक्रमादित्य मिलती है, जबकि एक चंदेल लेख में उसे विश्वविजेता कहा गया है।
सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
गांगेयदेव का शासनकाल केवल सैन्य पराक्रमों की कहानियों तक ही सीमित नहीं था। उसकी सबसे प्रमुख उपलब्धि सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों का प्रचलन था, जो उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों से पाये गये हैं। उसके ‘गजलक्ष्मी शैली’ के स्वर्ण सिक्कों के अग्रभाग पर पद्मासन मुद्रा में गजलक्ष्मी और पृष्ठभाग पर उसका तीन पंक्तियों में नाम ‘श्रीमद्गांगेयदेव’ अंकित है। गांगेयदेव के सिक्कों की आकृति की नकल चंदेलों, गहड़वालों और तोमरों ने की।
गांगेयदेव एक महान कवि और विद्वान भी था। उसके शासनकाल में संस्कृत साहित्य और कला को विशेष प्रोत्साहन मिला।
गांगेयदेव शैव धर्म का अनुयायी था। उसने प्यावाँ में एक शिवलिंग की स्थापना की और एक भव्य शिवमंदिर बनवाया। कलचुरी अभिलेखों के अनुसार उसने प्रयाग में पवित्र अक्षयवट के नीचे अपनी सौ पत्नियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया था।
गांगेयदेव के पुत्र लक्ष्मीकर्ण (कर्ण) ने अपने पिता के पहले वार्षिक श्राद्ध के अवसर पर 1042 ई. में बनारस शिलालेख जारी किया था, जिससे पता चलता है कि गांगेयदेव की मृत्यु 22 जनवरी 1041 ई. को हुई थी।
कलचुरी सत्ता का चरमोत्कर्ष
कर्णदेव या लक्ष्मीकर्ण (लगभग 1041-1073 ई.)
गांगेयदेव का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कर्णदेव या लक्ष्मीकर्ण (लगभग 1041-1073 ई.) हुआ, जो कलचुरी वंश का सबसे शक्तिशाली और लोकप्रिय शासक था। उसका राज्य वर्तमान मध्य प्रदेश के चेदि या डाहल क्षेत्र के आसपास केंद्रित था। कर्ण का विवाह एक हूणवंशीय राजकुमारी आवल्लदेवी के साथ हुआ था, जो उसके उत्तराधिकारी यशःकर्ण की माँ थी। उसकी दो पुत्रियाँ वीरश्री और यौवनश्री थीं, जिनका विवाह क्रमशः बंगाल के जाटवर्मन और विग्रहपाल तृतीय से हुआ था। लक्ष्मीकर्ण के समय के कुल नौ अभिलेख मध्य प्रदेश के रीवा, सिमरा, सिमरिया आदि स्थानों से मिले हैं, जिनमें उसकी शौर्यगाथा का विस्तृत विवरण मिलता है।
लक्ष्मीकर्ण ने प्रारंभ में लगभग बीस वर्षों तक प्रायः सभी दिशाओं में चंद्र, चोल, कल्याणी के चालुक्य, चौलुक्य, चंदेल और पाल सहित कई पड़ोसी राज्यों के विरूद्ध कई सैनिक अभियान किया और सैन्य सफलताओं के बाद, 1052-1053 ई. में ‘चक्रवर्ती’ की उपाधि धारण की। लगभग 1055 ई. में, उसने परमार राजा भोज के पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और भोज की मृत्यु के बाद मालवा के परमार साम्राज्य के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया। रसमाला के अनुसार एक सौ छत्तीस राजा उसकी सेवा में सदैव उपस्थित रहते थे। उसकी सैन्य उपलब्धियों से चकाचौंध होकर यूरोपीय इतिहासकारों ने उसे ‘हिंद का नेपोलियन’ कहा है। बाद में, अपने शासनकाल के उत्तरार्ध में कर्ण को कई युद्धों में पराजयों का सामना करना पड़ा और भोज के भाई उदयादित्य ने मालवा पर नियंत्रण कर लिया।
लक्ष्मीकर्ण की सैन्य उपलब्धियाँ
लक्ष्मीकर्ण की विजयों का उल्लेख कलचुरी सं. 800 (1048-1049 ई.) के रीवा प्रस्तर-अभिलेख में मिलता है, जिसकी पुष्टि अन्य अभिलेखों में प्रयुक्त उसकी विजयसूचक उपाधियों से होती है।
प्रारंभिक विजयें
1048-49 ई. के रीवा प्रस्तर-लेख में लक्ष्मीकर्ण की वंग (आधुनिक बंगाल) और अंग के पूर्वी क्षेत्रों में सैन्य सफलताओं का वर्णन किया गया है। लेख में कहा गया है कि ‘पूर्व दिशा का राजारूपी जहाज कर्ण की सेनारूपी समुद्र में डूब गया।’ नरसिंह के भेड़ाघाट अभिलेख में भी दावा किया गया है कि ‘कर्ण के शौर्य के सम्मुख वंग और कलिंग के राजा काँप उठे।’
वंग का आशय आधुनिक बंगाल से है। लक्ष्मीकर्ण द्वारा पराजित वंग का शासक संभवतः चंद्रवशीय गोविंदचंद्र था। लक्ष्मीकर्ण ने वज्रदमन को वंग के विजित क्षेत्र का राज्यपाल नियुक्त किया और उसके पुत्र जाटवर्मन के साथ अपनी पुत्री वीरश्री का विवाह कर मैत्री-संबंध स्थापित किया, जिसने बाद में उसके अंग विजय में सहायता की।
कुंतल और काँची पर आक्रमण
रीवा शिलालेख में कर्ण को कुंतल और काँची की विजय का श्रेय दिया गया है। कुंतल कल्याणी के चालुक्यों के अधीन था। कर्ण की कुंतल विजय के बारे में परस्पर विरोधी साक्ष्य मिलते हैं। जहाँ एक ओर रीवा अभिलेख में कहा गया है कि कर्ण ने कुंतलराज की लक्ष्मी का अपहरण कर लिया, वहीं दूसरी ओर चालुक्यों के दरबारी कवि बिल्हण ने विक्रमांकदेवचरित में दावा किया है कि ‘आहवमल्ल (सोमेश्वर प्रथम) ने कर्ण की शक्ति को इस प्रकार नष्ट किया कि लक्ष्मी पुनः कभी डाहल राज्य वापस नहीं गई।’ इससे लगता है कि इस शक्ति-परीक्षण में किसी को निर्णायक सफलता नहीं मिली।
जहाँ तक कर्ण के काँची पर आक्रमण का सवाल है, संभवतः कर्ण ने चोल शासक राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.) को पराजित किया था, क्योंकि चोलों ने 809 ई. में ही पल्लवों को उखाड़ फेंका था।
गुर्जर देश पर आक्रमण
रीवा शिलालेख के अनुसार लक्ष्मीकर्ण ने गुर्जर देश पर आक्रमण किया, जहाँ उसने स्थानीय महिलाओं को विधवा बना दिया। इस गर्जुर राजा की पहचान चालुक्य राजा भीम प्रथम से की जाती है। लेकिन लगता है कि दोनों राज्यों के बीच शांति स्थापित हो गई थी, क्योंकि बाद में भीम ने लक्ष्मीकर्ण के साथ एक संयुक्त अभियान में भाग लिया था।
‘चक्रवर्ती’ कर्ण (1052-1053 ई.)
लक्ष्मीकर्ण ने 1052-1053 ई. में स्वयं को ‘चक्रवर्ती’ घोषित किया और अपना दुबारा राज्याभिषेक कराया। गोपालपुर प्रस्तर अभिलेख उसकी उपाधि ‘सप्तम चक्रवर्ती’ मिलती है। इसकी पुष्टि उसके सेनापति वप्पुल्ल के रीवा शिलालेख से होती है; जिसमें उसके शासनारंभ की गणना उसके द्वितीय राज्याभिषेक के वर्ष से की गई है।
लक्ष्मीकर्ण ने परमभट्टारक, महाराजाधिराज और परमेश्वर जैसी उपाधियाँ धारण की। त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि उसे अपने पिता से विरासत में मिली थी। ओड्रू, कोंगद और कलिंग को मिलाकर ‘त्रिकलिंग’ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त, उसने अश्वपतिनरपतिगजपतिराजत्रयाधिपति की उपाधि भी धारण की।
परमार भोज और चालुक्य भीम
मालवा के परमारवंशी राजा भोज (1010-1055 ई.) ने लक्ष्मीकर्ण के पिता गांगेयदेव को पराजित किया था। 1050 के दशक के मध्य में, लक्ष्मीकर्ण ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिए परमार भोज के विरूद्ध अण्हिलवाड़ के चालुक्य भीम प्रथम (1024-1064 ई.) के साथ गठबंधन किया। समझौते के अनुसार भीम ने पश्चिम से और लक्ष्मीकर्ण ने पूर्व से मालवा पर आक्रमण किया। 14वीं शताब्दी के इतिहासकार मेरुतुंग की प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि ठीक उसी समय परमार भोज की मृत्यु हो गई। रासमाला से पता चलता है कि भोज की मृत्यु के बाद कर्ण ने धारा को ध्वस्त करने के बाद परमार राजधानी को बुरी तरह लूटने के बाद धारा नगरी सहित मालवा के दक्षिण-पूर्वी भागों पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार अपने पिता गांगेयदेव की पराजय का बदला चुकाया।
संभवतः भीम और लक्ष्मीकर्ण परमार राज्य को आपस में बाँटने पर सहमत हुए थे। अतः मालवा पर अधिकार को लेकर कर्ण और चौलुक्य भीम के बीच संघर्ष छिड़ गया। प्रबंधचिंतामणि और द्वाश्रयकाव्य से पता चलता है कि भीम ने कलचुरी राज्य पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी त्रिपुरी तक पहुँच गया। अंततः लक्ष्मीकर्ण ने हाथी, घोड़े और भोज का स्वर्णमंडप भेंटकर चौलुक्य भीम से समझौता कर लिया।
मालवा लक्ष्मीकर्ण के नियंत्रण अधिक समय तक नहीं रह सका। भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह ने मालवा पर पुनः अधिकार करने के लिए कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम से सहायता माँगी। विक्रमांकदेवचरित से पता चलता है कि सोमश्वर प्रथम आहवमल्ल ने परमारों के प्रति वंशगत शत्रुता की नीति का परित्याग कर जयसिंह की सहायता के लिए अपने पुत्र राजकुमार विक्रमादित्य षष्ठ को भेजा। आरंभ में लक्ष्मीकर्ण को विक्रमादित्य के विरुद्ध कुछ सफलता मिली, लेकिन अंततः पराजित हुआ। इस प्रकार परमार भोज के पुत्र जयसिंह प्रथम 1055 ई. में धारा के पैतृक सिंहासन पर पुनः आसीन हुआ। सोमश्वर प्रथम ने जयसिंह के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
लक्ष्मीकर्ण और चंदेल
लक्ष्मीकर्ण का सबसे प्रसिद्ध संघर्ष बुंदेलखंड के चंदेलों के साथ हुआ। ऐतिहासिक स्रातों से पता चलता है कि लक्ष्मीकर्ण ने चंदेल राजा देववर्मन (1050-1060 ई.) को पराजित कर बुंदेलखंड के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। कृष्णमिश्र के नाटक प्रबोधचंद्रोदय से पता चलता है कि कलचुरी राजा ने चंदेल राजा को गद्दी से उतार दिया था। बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित के अनुसार कलचुरी राजा लक्ष्मीकर्ण कालंजर के स्वामी (अर्थात देववर्मन) के लिए ‘रुद्र और कालाग्नि’ के समान था। संभवतः इस कलचुरी-चंदेल युद्ध में देववर्मन मारा गया और लक्ष्मीकर्ण ने एक दशक से भी अधिक समय के लिए चंदेल राज्य के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।
चंदेल अभिलेखों में शासक कीर्तिवर्मन को चंदेल शक्ति के पुनरुत्थान का श्रेय दिया गया हैं और उसकी तुलना ‘समुद्रमंथन करने वाले विष्णु’ अथवा उसे ‘सुखा डालने वाले अगस्त्य’ से की गई है। लेख से पता चलता है कि 1070 ई. के आसपास उसके एक सामंत गोपाल ने लक्ष्मीकर्ण को पराजित कर बुंदेलखंड से खदेड़ दिया। इस प्रकार कीर्तिवर्मन ने ‘चेदिपति’ लक्ष्मीकर्ण को पराजित कर बुंदेलखंड क्षेत्र पर पुनः चंदेल नियंत्रण स्थापित कर लिया।
लक्ष्मीकर्ण और बंगाल के पाल
लक्ष्मीकर्ण ने पाल शासक नयपाल (1026-1041 ई.) द्वारा शासित गौड़ क्षेत्र पर आक्रमण किया, लेकिन नयपाल की सेना ने कलचुरियों की सेना को पीछे खदेड़ दिया। नयपाल के शासनकाल के सियान शिलालेख में लक्ष्मीकर्ण की पराजय का उल्लेख है। तिब्बती वृत्तांतों के अनुसार, बौद्ध भिक्षु दीपंकर (अतीश) की मध्यस्थता से नयपाल और पश्चिम के राजा कर्ण के बीच संधि हो गई।
लक्ष्मीकर्ण ने संभवतः नयपाल के उत्तराधिकारी विग्रहपाल तृतीय (1041-1067 ई. के शासनकाल में भी गौड़ पर आक्रमण किया और विग्रहपाल को पराजित किया। संध्याकार नंदी ने रामचरित में विग्रहपाल तृतीय को कर्ण पर विजय प्राप्त करने का श्रेय दिया है, लेकिन यह एक प्रशंसात्मक उक्ति मात्र है। विग्रहपाल की पराजय की पुष्टि वीरभूम जिले के पैकोर से प्राप्त कर्ण के एक स्तंभलेख से होती है, जिसे उसने वहाँ की एक स्थानीय देवी को समर्पित किया था।
12वीं शताब्दी के जैन लेख हेमचंद्र के द्वयाश्रयकाव्य से भी विग्रहपाल की पराजय की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार पराजित गौड़ राजा को अपना जीवन और सिंहासन बचाने के लिए भारी हर्जाना देना पड़ा था। जो भी हो, अंततः कलचुरी कर्ण और विग्रहपाल तृतीय के बीच संधि हो गई और कर्ण ने अपनी दूसरी पुत्री यौवनश्री का विवाह विग्रहपाल के साथ कर दिया।
लक्ष्मीकर्ण और सोमेश्वर द्वितीय
कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु (1068 ई.) के बाद उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ के बीच सिंहासन के लिए संघर्ष आरंभ हो गया। लक्ष्मीकर्ण ने सोमेश्वर द्वितीय का पक्ष लिया, जबकि परमार राजा जयसिंह ने विक्रमादित्य षष्ठ का साथ दिया। सोमेश्वर द्वितीय और लक्ष्मीकर्ण की संयुक्त सेना ने मालवा पर आक्रमण किया और जयसिंह को अपदस्थ कर परमार राज्य पर अधिकार कर लिया। परमारों की नागपुर प्रशस्ति में कर्णाट और कलचुरी राजाओं के संघ को परमार राज्य को ‘डुबा देने वाला समुद्र’ कहा गया है। संभवतः परमार शासक जयसिंह युद्ध में मारा गया। डॉ. वासुदेव विष्णु मिराशी का अनुमान है कि कर्ण ने मालवा को अपने राज्य में मिला लिया और नर्मदा के दक्षिण का क्षेत्र सोमेश्वर द्वितीय को दे दिया।
ऐसा लगता है कि 1073 ई. के आसपास मालवा लक्ष्मीकर्ण के हाथ से निकल गया क्योंकि नागपुर प्रशस्ति से संकेत मिलता है कि परमार भोज के भाई उदयादित्य ने सोमेश्वर द्वितीय और लक्ष्मीकर्ण की संयुक्त सेना को पीछे खदेड़ दिया और ‘वराहरूप होकर मालवराज्य का उद्धार’ किया। उदयपुर से प्राप्त एक परमार प्रशस्ति में दावा किया गया है कि उदयादित्य परमार ने ‘दहलाधीश (कर्ण) का संहार’ किया। इससे लगता है कि उदयादित्य ने लक्ष्मीकर्ण को मार डाला, लेकिन यह अतिरंजित प्रतीत होता है, क्योंकि लक्ष्मीकर्ण ने अपने पुत्र यशःकर्ण का स्वयं राज्याभिषेक किया था।
कलिंग की विजय
11वीं शताब्दी में कलिंग पर सोमवंशी चंडीहार ययाति (1025-1055 ई.) और उद्योतकेसरी महाभवगुप्त चतुर्थ (1055-1080 ई.) का शासन था। नरसिंह के भेड़ाघाट अभिलेख में कहा गया है कि ‘कर्ण के भय से कलिंग देश का राजा काँपता था।’ कर्ण को संभवतः पहले चंडीहार ययाति को पराजित करने में सफलता मिली थी, लेकिन उसके उत्तराधिकारी से पराजित होना पड़ा क्योंकि महाभवगुप्त चतुर्थ के शिलालेखों से पता चलता है कि उसने ‘डाहल, ओड्रू और गौड़ के राजाओं पर विजय प्राप्त की।’
वास्तव में, अपने शासनकाल के अंतिम चरण में लक्ष्मीकर्ण को पड़ोसियों से पराजित होना पड़ा। मालवा के परमार नरेश उदयादित्य, अन्हिलवाड़ के चौलुक्य भीम प्रथम और चंदेल शासक कीर्तिवर्मन ने कर्ण को पराजित कर त्रिपुरी के कलचुरियों की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। 1073 ई. के आसपास उसका शासन समाप्त हो गया।
खैरा और जबलपुर से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार, लक्ष्मीकर्ण ने अपने पुत्र यशःकर्ण को राजा बनाया। यशःकर्ण के 1076 ई. के एक शिलालेख में नए राजा के कुछ अभियानों का उल्लेख मिलता है, जिससे लगता है कि लगभग 1073 ई. में उसने अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया था।
लक्ष्मीकर्ण की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
लक्ष्मीकर्ण अपने वंश का महान योद्धा और प्रशासक होने के साथ-साथ कला और संस्कृति का उदार संरक्षक भी था। उसने कई संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश विद्वानों को संरक्षण दिया। वह विक्रमांकदेवचरित के लेखक बिल्हण का बहुत सम्मान करता था। विक्रमांकदेवचरित से पता चलता है कि बिल्हण ने लक्ष्मीकर्ण के काशी दरबार में आयोजित एक काव्य प्रतियोगिता में गंगाधर नामक विद्वान को हराया था। उसके अन्य दरबारी कवियों में वल्लण, नचिराज, कर्पूर, कनकाभर और विद्यापति थे।
लक्ष्मीकर्ण ने त्रिपुरी के निकट कर्णावती (कर्णबेल) नामक नगर बसाया और वाराणसी में कर्णमेरु मंदिर का निर्माण करवाया, जो संभवतः शिव को समर्पित था। उसने अमरकंटक में त्रियातन कर्ण मंदिर और प्रयागराज में गंगातट पर कर्णतीर्थ घाट बनवाया था। वाराणसी और प्रयाग में वह अकसर धार्मिक कार्यों का संपादन करता था और ब्राह्मणों के लिए कर्णावती अग्रहार (गाँव) की भी स्थापना की थी। उसने सारनाथ के बौद्धों और बौद्धविहारों को आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की, जो उसकी धार्मिक सहिष्णुता का प्रमाण है।
कलचुरी सत्ता का अवसान
यशःकर्ण (लगभग 1073-1123 ई.)
लक्ष्मीकर्ण की हूणवंशीय रानी आवल्लदेवी से उत्पन्न पुत्र यशःकर्ण लगभग 1073 ई. के आसपास त्रिपुरी का शासक हुआ। उसके खैरा और जबलपुर से प्राप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि लक्ष्मीकर्ण ने स्वयं उसका राज्याभिषेक किया था।
यशःकर्ण के अभिलेखों में दावा किया गया है कि वह आंध्र के राजा को जीतकर गोदावरी नदी तट तक पहुँच गया और वहाँ भीमेश्वर (महादेव) की पूजा-अर्चना की। आंध्र प्रदेश का पराजित शासक संभवतः वेंगी का पूर्वी चालुक्य शासक विजयादित्य सप्तम (1061-1076 ई.) था। इस अभियान में दक्षिण कोसल के कलचुरी सामंत जाजल्लदेव प्रथम ने यशःकर्ण की सहायता की।
यशःकर्ण ने संभवतः कुछ अन्य राजाओं से मिलकर एक सैनिक संघ बनाने का प्रयत्न किया। लेकिन इसमें उसे सफलता नहीं मिली और उसके अपने ही राज्य पर संकट आ गया। उसके रतनपुर के सामंत जाजल्लदेव प्रथम ने कान्यकुब्ज के गहड़वाल शासक चंद्रदेव और जेजाकभुक्ति के चंदेल कीर्तिवर्मन तथा सल्लक्षणवर्मन से मित्रता कर ली और स्वयं स्वतंत्र होने का प्रयास करने लगा।
यशःकर्ण को काशी-कन्नौज के गहड़वाल शासक चंद्रदेव से पराजित होना पड़ा और काशी सहित कलचुरी राज्य के उत्तरी भाग गहड़वालों के हाथ में निकल गये। गोविंदचंद्र गहड़वाल के 1104 ई. के बसही अभिलेख में कहा गया है कि ‘कर्ण और भोज का नाममात्र शेष रह जाने (मर जाने) पर पृथ्वी ने विपत्ति में पड़कर विश्वास और प्रेमपूर्वक चंद्रदेव को अपना पति अर्थात् रक्षक चुना।’ गहड़वालों की राजनीतिक प्रतिष्ठा का संस्थापक यही चंद्रदेव (1089-1104 ई.) था। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि 1089 ई. के बाद उसने काशी, अयोध्या, कन्नौज और इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) के आसपास के सभी क्षेत्र जीत लिये थे। इस प्रकार चंद्रदेव ने काशी और प्रयाग के आसपास के सभी क्षेत्र (अयोध्या सहित) कलचुरी यशःकर्ण से छीन लिया।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि चंद्रदेव के पुत्र मदनपाल (1104-1114 ई.) के समय जब गहड़वाल सेना कन्नौज राज्य के उत्तरी भागों पर होनेवाले तुर्क आक्रमणों को रोकने में व्यस्त थी, तो यशःकर्ण ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को पुनः अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया, लेकिन उसकी सफलता का कोई प्रमाण नहीं है।
यशःकर्ण के शासनकाल में कलचुरी राज्य केवल बघेलखंड तक सीमित रह गया। उसके समय में मालवा के परमार शासक लक्ष्मदेव (1086-1094 ई.), चंदेलराज सल्लक्षणवर्मन (1100-1110 ई.) और कल्याणी के चालुक्यराज विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) ने बारी-बारी से कलचुरी राज्य पर आक्रमण करके यशःकर्ण को पराजित किया।
गयाकर्ण (लगभग 1123-1153 ई.)
यशःकर्ण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गयाकर्ण लगभग 1123 ई. में कलचुरी राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासनकाल के केवल दो अभिलेख मिले हैं, जिसमें सबसे प्राचीन अभिलेख तेवर से मिला है, जिसकी तिथि लगभग 1150-51 ईस्वी है।
संभवतः गयाकर्ण को चंदेलों से पराजित होकर रीवा के कुछ उत्तरी क्षेत्रों को खोना पड़ा। मदनवर्मन (1129-1163 ई.) के मंत्री गदाधर के मऊ शिलालेख में दावा किया गया है कि ‘एक भयंकर युद्ध में पराजित होने के बाद ‘चेदिराज’ मदनवर्मन का नाम सुनते ही भाग जाता है।’ यह ‘चेदिराज’ संभवतः कलचुरी नरेश गयाकर्ण ही था। रीवा के पवनार से प्राप्त मदनवर्मन के चाँदी के सिक्कों के ढेर से भी प्रमाणित होता है कि कैमूर की पहाड़ियों के उत्तर का क्षेत्र गयाकर्ण के हाथ से निकल गया था।
गयाकर्ण के शासनकाल में दक्षिण कोसल के रतनपुर के कलचुरियों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। गयाकर्ण ने रतनपुर के कलचुरी सामंत रत्नदेव द्वितीय को अधीन करने के लिए एक सेना भेजी, लेकिन वह पराजित हो गई। विक्रम सं. 1207 (1149-50 ई.) के एक अभिलेख में कहा गया है कि रत्नदेव ‘चेदिराज की सेनारूपी समुद्र के लिए बड़वानल’ था। इस प्रकार गयाकर्ण के शासनकाल में दक्षिण कोसल की रतनपुर की कलचुरी शाखा भी स्वतंत्र हो गई।
गयाकर्ण ने गुहिलवंशी शासक विजयसिंह की पुत्री अल्हनादेवी से विवाह किया। उसकी माता श्यामलादेवी परमार राजा उदयादित्य की पुत्री थीं। इस विवाह के कारण परमारों और कलचुरियों के बीच शांति स्थापित हुई।
गयाकर्ण शैव मतानुयायी था और उसके राजगुरु शक्ति-शिव थे। उसकी गुहिलवंशी रानी अल्हनादेवी ने पाशुपत शैव संप्रदाय को संरक्षण दिया और भेड़ाघाट में वैद्यनाथ मंदिर तथा मठ का पुनर्निर्माण करवाया। तेवर से प्राप्त लेख से पता चलता है कि शैव आचार्य भावशिव ने एक शैव मंदिर बनवाया था।
कलचुरी सत्ता का अंत
गयाकर्ण का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नरसिंह (लगभग 1153-1163 ई.) हुआ। उसके अभिलेखों के प्राप्तिस्थानों से लगता है कि उसने कैमूर की पहाड़ियों के उत्तर के उन क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया, जो गयाकर्ण से चंदेल मदनवर्मन ने छीन लिये थे।
नरसिंह संभवतः निःसंतान था, क्योंकि कलचुरी राज्य का अगला उत्तराधिकारी उसका भाई जयसिंह (लगभग 1163-1188 ई.) हुआ, जो गयाकर्ण का पुत्र था। उसके शासनकाल के पाँच अभिलेख मिले हैं, लेकिन एक अभिलेख में उसकी सैनिक शक्ति की प्रशंसा की गई है।
जयसिंह ने दक्षिण कोसल (रतनपुर) के कलचुरियों को पुनः चेदिराज्य की अधीनता में लाने के लिए सैनिक अभियान किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। चंदेल शासक परमर्दिन (लगभग 1165-1203 ई.) के एक अभिलेख से लगता है कि जयसिंह ने चंदेल राजा से पराजित होकर उसकी अधिसत्ता स्वीकार कर ली।
जयसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी विजयसिंह (लगभग 1188-1210 ई.) भी संभवतः चंदेलों की अधिसत्ता स्वीकार करता था। उसके समय के दस अभिलेख करनबेल, तेवर, भेड़ाघाट, कुम्भी, रीवा, झूलपुर आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
विजयसिंह के शासनकाल में सल्लक्षण नामक एक उत्तरी सामंत ने कलचुरी आधिपत्य को उखाड़ फेंकने का असफल प्रयास किया। लगभग 1200 ईस्वी में उसे देवगिरि के यादव राजा सिंण या जैतुगी प्रथम से पराजित होना पड़ा। विजयसिंह को संभवतः 1210 ई. के आसपास चंदेलवंशीय त्रैलोक्यवर्मा ने भी पराजित किया।
त्रिपुरी की कलचुरी वंश का अंतिम ज्ञात शासक त्रैलोक्यमल्ल (लगभग 1210-1212 ई.) है, जो झूलपुर (मांडला) ताम्रपत्र के अनुसार कलचुरी राजा विजयसिंह का पुत्र था। उसके तीन अभिलेख धुरेटी और रीवा से मिले हैं। त्रैलोक्यमल्ल ने ‘कन्यकुब्ज के स्वामी’ की उपाधि धारण की, लेकिन इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। धुरेटी अभिलेख से ज्ञात होता है कि 1212 ई. के आसपास रीवा के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर चंदेलों का अधिकार था।
त्रैलोक्यमल्ल ने कम से कम 1212 ई. तक शासन किया। 13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, त्रिपुरी के कलचुरी राज्य के पश्चिमी क्षेत्र मालवा के परमारों और बुंदेलखंड के चंदेलों, उत्तरी क्षेत्र दिल्ली के सुल्तानों और दक्षिण के क्षेत्र देवगिरी के यादवों के नियंत्रण में चले गये और इस कलचुरी राजवंश का अंत हो गया।
छत्तीसगढ़ में रतनपुर और रायपुर की कलचुरी शाखाएँ 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक शासन करती रही, लेकिन मराठों के आक्रमण और ब्रिटिश सत्ता के उदय के साथ उनकी भी सत्ता समाप्त हो गई।
कलचुरियों का प्रशासन
कलचुरियों का प्रशासनिक ढाँचा अत्यंत व्यवस्थित था। उनके केंद्रीकृत शासन में राजा सर्वोच्च शासक होता था, लेकिन स्थानीय स्तर पर सामंतों और अधिकारियों को शासन का दायित्व सौंपा जाता था। राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी, जो विभिन्न विषयों पर राजा को मंत्रणा देती थी।
कलचुरियों की सेना में पैदल सैनिक, घुड़सवार और हाथी शामिल थे। उनकी सैन्य शक्ति ने उन्हें पड़ोसी राज्यों के विरूद्ध मजबूत बनाया।
कृषि, व्यापार और खनन उनकी अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार थे। नर्मदा और गोदावरी नदियों के किनारे बसे उनके क्षेत्र व्यापार के लिए उपयुक्त थे।
कलचुरी शासकों ने समय-समय पर अपने सिक्कों का प्रचलन किया। कृष्णराज के सिक्के एलीफेंटा और एलोरा की गुफाओं से मिले हैं, जबकि गांगेयदेव के लक्ष्मी प्रकार के सिक्के मध्य भारत के अनेक स्थानों से पाये गये हैं, जो कलचुरी राज्य की आर्थिक समृद्धि और व्यापारिक प्रगति के प्रमाण हैं।
कलचुरी शासक शिव और विष्णु के उपासक थे। उन्होंने न केवल अनेक मंदिरों और मठों का निर्माण करवाया, बल्कि जैन और बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दिया, जो उनकी धार्मिक सहिष्णुता का सूचक है। कलचुरी शासकों के सिक्कों पर धार्मिक प्रतीक, जैसे पद्मासन लक्ष्मी, शिवलिंग और नंदी अंकित होते थे।
कलचुरी शासकों का सांस्कृतिक योगदान
कलचुरियों की सैन्य शक्ति, प्रशासनिक कुशलता और सांस्कृतिक योगदान ने मध्य भारत के इतिहास को समृद्ध बनाया। त्रिपुरी न केवल राजनीतिक, बल्कि सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण था।
कलचुरी शासकों ने त्रिपुरी, रतनपुर, भेड़ाघाट, बिलहरी, करीतलाई, नोहटा, गुबरा, दोनी, कोडल, सोहागपुर, अमरकंटक, गुर्गी, चंद्रेहे आदि स्थानों पर मंदिरों, मठों, घाटों का निर्माण करवाया और तालाब खुदवाये, जो कलचुरीकालीन धार्मिक जीवन और कलात्मक विकास के प्रमाण हैं। वाराणसी का कर्णमेरु मंदिर, त्रिपुर सुंदरी मंदिर, नोहलेश्वर शिवमंदिर, भेड़ाघाट के 84 योगिनियों के मंदिर कलचुरी कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। गांगेयदेव के सोने के लक्ष्मी शैली के सिक्के तत्कालीन कला और समृद्धि के सूचक हैं।
कलचुरी शासकों ने विद्वानों, साहित्यकारों और कलाकारों को राजाश्रय प्रदान किया, जिससे संस्कृत साहित्य, नाटक और नाट्य कला के विकास को प्रोत्साहन मिला।
उपयोगी बहुवकल्पीय प्रश्न
- त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश की राजधानी कहाँ थी?
(A) कालिंजर
(B) त्रिपुरी (तेवर)
(C) महिष्मती
(D) कन्नौज
उत्तर: (B) त्रिपुरी (तेवर) - त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश का वास्तविक संस्थापक कौन था?
(A) वामराजदेव
(B) कोकल्ल प्रथम
(C) गांगेयदेव
(D) लक्ष्मीकर्ण
उत्तर: (B) कोकल्ल प्रथम - त्रिपुरी के कलचुरी शासकों को किस अन्य नाम से जाना जाता था?
(A) चैद्य
(B) गहड़वाल
(C) परमार
(D) चालुक्य
उत्तर: (A) चैद्य - वामराजदेव ने किस क्षेत्र को जीतकर त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया?
(A) कालिंजर
(B) मालवा
(C) बुंदेलखंड
(D) कन्नौज
उत्तर: (A) कालिंजर - कलचुरी राजवंश का चरमोत्कर्ष किस शासक के शासनकाल में हुआ?
(A) गांगेयदेव
(B) लक्ष्मीकर्ण
(C) युवराजदेव प्रथम
(D) कोकल्ल प्रथम
उत्तर: (B) लक्ष्मीकर्ण - गांगेयदेव ने कौन-सी उपाधि धारण की थी?
(A) चक्रवर्ती
(B) विक्रमादित्य
(C) महाराजाधिराज
(D) A और C दोनों
उत्तर: (D) A और C दोनों - त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश का अंतिम शासक कौन था?
(A) विजयसिंह
(B) त्रैलोक्यमल्ल
(C) गयाकर्ण
(D) यशःकर्ण
उत्तर: (B) त्रैलोक्यमल्ल - निम्नलिखित में से कौन-सा अभिलेख लक्ष्मीकर्ण के शासनकाल से संबंधित है?
(A) बिलहरी शिलालेख
(B) रीवा प्रस्तरलेख
(C) खजुराहो शिलालेख
(D) चाटसू शिलालेख
उत्तर: (B) रीवा प्रस्तरलेख - गांगेयदेव के सिक्कों पर क्या अंकित था?
(A) शिवलिंग
(B) गजलक्ष्मी
(C) नंदी
(D) सूर्य
उत्तर: (B) गजलक्ष्मी - कलचुरी शासकों ने किन धर्मों को संरक्षण दिया?
(A) शैव
(B) वैष्णव
(C) जैन और बौद्ध
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर: (D) उपरोक्त सभी - निम्नलिखित में से कौन-सा साहित्यिक स्रोत कलचुरी इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है?
(A) विद्वशालभंजिका
(B) रामचरित
(C) गीतगोविंद
(D) मेघदूत
उत्तर: (A) विद्वशालभंजिका - कोकल्ल प्रथम ने किस राजवंश की राजकुमारी से विवाह किया था?
(A) चंदेल
(B) परमार
(C) पाल
(D) राष्ट्रकूट
उत्तर: (A) चंदेल - लक्ष्मीकर्ण ने किस क्षेत्र पर कुछ समय के लिए अधिकार किया था?
(A) कन्नौज
(B) मालवा और बुंदेलखंड
(C) गुजरात
(D) कोंकण
उत्तर: (B) मालवा और बुंदेलखंड - त्रिपुरी के कलचुरी शासकों ने किन राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए?
(A) गुर्जर-प्रतिहार
(B) राष्ट्रकूट
(C) चंदेल और पाल
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर: (D) उपरोक्त सभी - निम्नलिखित में से कौन-सा क्षेत्र त्रिकलिंग का हिस्सा नहीं था?
(A) ओड्रू
(B) कोंगद
(C) कलिंग
(D) कन्नौज
उत्तर: (D) कन्नौज - युवराजदेव प्रथम को किस साहित्यकार ने ‘चक्रवर्ती’ कहा?
(A) बिल्हण
(B) राजशेखर
(C) हेमचंद्र
(D) कल्हण
उत्तर: (B) राजशेखर - गांगेयदेव ने किन पवित्र शहरों पर प्रभुत्व स्थापित किया?
(A) काशी और प्रयाग
(B) मथुरा और अयोध्या
(C) उज्जैन और काँची
(D) द्वारका और कुरुक्षेत्र
उत्तर: (A) काशी और प्रयाग - कलचुरी शासकों की उत्पत्ति किस वंश से मानी जाती है?
(A) सूर्यवंश
(B) चंद्रवंश
(C) अग्निवंश
(D) कोई नहीं
उत्तर: (B) चंद्रवंश - लक्ष्मीकर्ण ने किस चालुक्य शासक के साथ गठबंधन किया था?
(A) जयसिंह द्वितीय
(B) भीम प्रथम
(C) सोमेश्वर प्रथम
(D) विक्रमादित्य षष्ठ
उत्तर: (B) भीम प्रथम - निम्नलिखित में से कौन-सा मंदिर लक्ष्मीकर्ण ने बनवाया था?
(A) कर्णमेरु मंदिर
(B) खजुराहो मंदिर
(C) सोमनाथ मंदिर
(D) कैलास मंदिर
उत्तर: (A) कर्णमेरु मंदिर - त्रिपुरी के कलचुरी शासकों की सेना में क्या शामिल था?
(A) पैदल सैनिक
(B) घुड़सवार
(C) हाथी
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर: (D) उपरोक्त सभी - किस शासक के शासनकाल में त्रिपुरी के कलचुरी राज्य केवल बघेलखंड तक सीमित रह गया?
(A) गांगेयदेव
(B) यशःकर्ण
(C) लक्ष्मीकर्ण
(D) त्रैलोक्यमल्ल
उत्तर: (B) यशःकर्ण - किस अभिलेख में गांगेयदेव को ‘विक्रमादित्य’ कहा गया है?
(A) खैरा शिलालेख
(B) रीवा प्रस्तरलेख
(C) बिलहरी शिलालेख
(D) कारीतलाई अभिलेख
उत्तर: (A) खैरा शिलालेख - कलचुरी शासकों ने किस नदी के किनारे व्यापारिक केंद्र स्थापित किए?
(A) गंगा
(B) नर्मदा
(C) यमुना
(D) कावेरी
उत्तर: (B) नर्मदा - किस कलचुरी शासक ने परमार भोज के पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई?
(A) गांगेयदेव
(B) लक्ष्मीकर्ण
(C) कोकल्ल प्रथम
(D) युवराजदेव प्रथम
उत्तर: (B) लक्ष्मीकर्ण - निम्नलिखित में से कौन-सा साहित्यिक ग्रंथ लक्ष्मीकर्ण के शासनकाल से संबंधित है?
(A) विक्रमांकदेवचरित
(B) काव्यमीमांसा
(C) प्रबंधचिंतामणि
(D) कीर्तिकौमुदी
उत्तर: (A) विक्रमांकदेवचरित - गयाकर्ण की रानी अल्हनादेवी का संबंध किस राजवंश से था?
(A) गुहिलवंशी
(B) परमार
(C) चंदेल
(D) पाल
उत्तर: (A) गुहिलवंशी - किस कलचुरी शासक ने काशी और प्रयाग पर पुनः अधिकार करने का प्रयास किया?
(A) यशःकर्ण
(B) गयाकर्ण
(C) जयसिंह
(D) नरसिंह
उत्तर: (A) यशःकर्ण - त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश का अंत कब हुआ?
(A) 1210 ई.
(B) 1212 ई.
(C) 1153 ई.
(D) 1188 ई.
उत्तर: (B) 1212 ई. - कलचुरी शासकों के सिक्कों पर कौन-सा धार्मिक प्रतीक अंकित होता था?
(A) शिवलिंग
(B) गजलक्ष्मी
(C) नंदी
(D) उपरोक्त सभी
उत्तर: (D) उपरोक्त सभी