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फ्रांस: 1715 से 1789 ई. की क्रांति तक
मध्ययुगीन यूरोप के अधिकांश देशों में सामंतीय व्यवस्था विद्यमान थी। फ्रांस भी इन्हीं देशों में से एक था। आधुनिक युग का प्रारंभ होने के साथ ही सामंतीय व्यवस्था ओझिल होने लगी थी और उसका स्थान शक्तिशाली राजवंशों के शासन ने लेना प्रारंभ कर दिया था।
फ्रांस का उत्थान : कॉर्डिनल रिशलू और मेजारिन
हेनरी चतुर्थ (1589-1610 ई.) ने फ्रांस में बूर्बों वंश का स्थापना की थी। हेनरी के पश्चात् उसका पुत्र लुई तेरहवाँ (1610-1643 ई.) फ्रांस की राजगद्दी पर बैठा। यद्यपि वह स्वयं संगीत और आखेट का प्रेमी थी, लेकिन उसका योग्य मंत्री रिशलू फ्रांस का भाग्य-विधाता सिद्ध हुआ। उसने सामंतों का दमन कर निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की और फ्रांस को यूरोप की एक प्रमुख शक्ति बनाने के लिए तीसवर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) में हस्तक्षेप किया।
लुई तेरहवाँ का उत्तराधिकारी लुई चौदहवाँ (1643-1715 ई.) स्वयं को ही राज्य का मूर्त रूप ‘मैं ही राज्य हूँ’ कहता था। उसने बड़ी शान-ओ-शौकत से शासन किया और फ्रांस को भौतिक और सांस्कृतिक उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया। यद्यपि वह फ्रांस के लिए प्राकृतिक सीमाओं की तलाश में निरंतर युद्धरत रहा, लेकिन उसकी नई राजधानी वर्साय संपूर्ण यूरोप के आकर्षण का केंद्र बनी रही। लुई चौदहवाँ को मरने के समय अपनी असफलता का एहसास हुआ। उसने अपने उत्तराधिकारी को सलाह दी: ‘जनहित के कार्य करना, युद्ध न करना और सही सलाहकार रखना।’
लुई चौदहवाँ का उत्तराधिकारी लुई पंद्रहवाँ (1715-1774 ई.) जीवनभर विलासिता में डूबा रहा। फ्रांसीसी क्रांति के बीज इसी के शासनकाल में बोये गये जो 1789 ई. में अंकुरित हुए। लुई पंद्रहवा की अकुशल नीतियों का खामियाजा उसके उत्तराधिकारी लुई सोलहवाँ (1774-1793 ई.) को भुगतना पड़ा। इस प्रकार फ्रांस की क्रांति के समय वहाँ का शासक लुई सोलहवाँ था।
लुई पंद्रहवाँ (1715-1774 ई.)
लुई चौदहवाँ के पश्चात् लुई पंद्रहवाँ( Louis XV) पाँच वर्ष की आयु में फ्रांस की गद्दी पर बैठा। अल्पायु के कारण 1715 ई. से 1723 ई. तक शासन की वास्तविक सत्ता उसके चाचा आर्लियंस के ड्यूक के हाथों में और 1723 ई. से 1743 ई. तक कार्डिनल फ्लेरी के हाथों में रही। इसके बाद 1743 ई. में लुई पंद्रहवाँ ने शासन-सत्ता पूर्णरूप में अपने हाथों में ले ली और 1774 ई. तक अपनी मृत्यु-पर्यंत शासन किया। इस प्रकार लुई पंद्रहवाँ के शासनकाल को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है-
प्रथम चरण (1715 ई. से 1723 ई. तक) में शासन की वास्तविक सत्ता आर्लियंस के ड्यूक के हाथों में रही। द्वितीय चरण (1723 ई. से 1743 ई. तक) में सत्ता कार्डिनल फ्लेरी के हाथों में केंद्रित थी। तृतीय चरण (1743 ई. से 1774 ई. तक) में लुई पंद्रहवाँ ने सत्ता अपने हाथों में केंद्रित कर स्वयं शासन का संचालन किया।
फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग
आर्लियंस का ड्यूक (1715-1723 ई.)
लुई चौदहवाँ ने अपनी मृत्यु के समय आर्लियंस के ड्यूक को अपने प्रपौत्र का संरक्षक नियुक्त किया था और किंतु ड्यूक की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से 15 सदस्यों की एक परिषद् बनाई थी। उसकी इस व्यवस्था में बूर्बों वंश के इस सिद्धांत की कि ‘राज्य राजा की संपत्ति है’ रक्षा हुई, लेकिन लुई चौदहवाँ की मृत्यु बाद ड्यूक ऑफ आर्लियंस ने स्वयं को सर्वसत्ता संपन्न राज-प्रतिनिधि (रीजेंट) बना लिया और फ्रांस की सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया।
लुई चौदहवाँ की व्यवस्था में परिवर्तन
आर्लियंस के ड्यूक ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए सबसे पहले पार्लियामेंटों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लुई चौदहवाँ के वसीयतनामे में परिवर्तन कराकर स्वयं को सर्वसत्ता संपन्न राज-प्रतिनिधि (रीजेंट) बना लिया। उसने परिषदों की स्थापना की और सैन्य-शक्ति को सीमित करने के लिए सेना की संख्या में भारी कमी कर दी। इस प्रकार आर्लियंस के ड्यूक ने बूर्बों वंश के सिद्धांत को कि ‘राज्य राजा की संपत्ति है’ अस्वीकृत कर लुई चौदहवाँ की व्यवस्था में परिवर्तन कर दिया।
आर्थिक सुधार
आर्लियंस के ड्यूक के समक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या फ्रांस की जर्जर आर्थिक स्थिति थी। इस समस्या के निराकरण के लिए उसने एडिनबरा के निवासी जान लॉ को अपना अर्थमंत्री नियुक्त किया। जान लॉ ने आर्थिक व्यवस्था के इस सिद्धांत को कि ‘साख धन वृद्धि का कारण है’ अपनी अर्थनीति का मूल आधार बनाया। उसने उद्योग-धंधों व कृषि के विकास की ओर ध्यान न देकर कागजी नोटों की छपाई द्वारा व्यापार को प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया। उसने एक बैंक की स्थापना कर उसे कागजी मुद्रा जारी करने का अधिकार दे दिया और उसकी प्रारंभिक सफलता से उत्साहित होकर उसे ‘रॉयल बैंक’ का नाम दिया गया। 1717 ई. में एक मिसीसिपी कंपनी की भी स्थापना की गई और उसे लुजियाना के व्यापार का अधिकार दे दिया गया। कंपनी ने कुछ ही समय में अपनी स्थिति को इतना सुदृढ़ कर लिया कि इसके शेयर मुँह माँगे दामों में बिक गये, लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। रॉयल बैंक के असीमित कागजी नोटों की छपाई से स्थिति और विकराल हो गई। कंपनी का दिवाला निकल गया और फ्रांस आर्थिक विनाश की ओर जाने लगा। इस प्रकार आर्लियंस के ड्यूक की आंतरिक नीति पूर्णतः असफल हो गई।
आर्लियंस के ड्यूक की आंतरिक नीति की असफलता के कई कारण थे- एक तो उसने प्रारंभ से ही देश की शक्ति के स्थान पर अपनी शक्ति के उत्कर्ष पर विशेष ध्यान दिया और सरकारी धन का अपने हितों में दुरुपयोग किया। दूसरे, पार्लियामेंट, जो उनके इन कारनामों पर अंकुश लगा सकती थी, भी अपनी दुर्बलता के कारण कुछ न कर सकी। तीसरे, फ्रांस में इसी समय जेसुइटों एवं जेंसेनिस्टों के मध्य भीषण संघर्ष आरंभ हो गया, जिसमें आर्लियंस के ड्यूक ने जेसुइटों के फ्रांस से निष्कासन की नीति अपनाई। उसकी इस नीति से फ्रांस की शांति-व्यवस्था संकट में पड़ गई। चौथे, आर्लियंस के ड्यूक के शासन के दौरान सरदारों के ऐसे दल अत्यंत शक्तिशली हो गये जो उसकी नीतियों के घोर विरोधी थे। पाँचवें, अपने शासन की असफलता से दुःखी होकर जब आर्लियंस के ड्यूक ने लुई चौदहवाँ की निरंकुशता की नीति को अपनाने का प्रयत्न किया, तो 1723 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
प्रतिनिधि कार्डिनल फ्लेरी (1723-1743 ई.)
ड्यूक ऑफ आर्लियंस की मृत्यु के पश्चात् फ्रांसीसी शासन की वास्तविक शक्ति 70 वर्षीय कार्डिनल फ्लेरी के हाथों में केंद्रित हो गई। फ्लेरी प्रकृति से अत्यंत नम्र एवं मितव्ययी था। उसने अत्यंत निष्ठा एवं ईमानदारी के साथ अपनी शांतिपूर्ण विदेश नीति और आंतरिक सुधारों द्वारा फ्रांस की जर्जर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का भरसक प्रयत्न किया।
आंतरिक नीति
कार्डिनल फ्लेरी के सामने सबसे प्रमुख समस्या फ्रांस की कमजोर आर्थिक स्थिति थी। इसलिए उसने अपना पूर्ण ध्यान फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने की ओर केंद्रित किया। उसने राष्ट्र के संपूर्ण उपलब्ध साधनों का उपयोग करते हुए सरकारी व्यय को कम करने के साथ-साथ फ्रांस में व्यापार एवं उद्योग-धंधों के विकास के लिए हरसंभव प्रयत्न किया। उसने सरकारी बजट को संतुलित एवं नियंत्रित किया और सड़कों का निर्माण करवाया, किंतु कार्डिनल फ्लेरी को अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिल सकी। इसका मुख्य कारण यह था कि वह स्वयं इतना अधिक वृद्ध हो चुका था कि उसमें प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने की शक्ति नहीं रह गई थी। सच तो यह है कि वह कोई भी मूलभूत आंतरिक सुधार नहीं कर सका और उसने सड़कों के निर्माण में कृषकों से बेगार लेकर उन्हें असंतुष्ट कर दिया। इस प्रकार उसकी आंतरिक नीति असफल रही।
विदेश नीति
विदेशनीति के क्षेत्र में कार्डिनल फ्लेरी शांतिपूर्ण नीति का पक्षधर था, किंतु वह बूर्बों राजवंश की महत्वाकांक्षी नीति का शिकार हो गया। उसे न चाहते हुए भी पोलैंड के उत्तराधिकार युद्ध (1733-1738 ई.) में भाग लेना पड़ा। यह युद्ध 1733 ई. में वियेना की संधि से समाप्त हुआ। इस संधि से फ्रांस को महत्वपूर्ण लाभ हुए, उसके प्रत्याशी स्टैनिसलॉस को आजीवन लारेन की डची मिल गई। उसकी मृत्य के पश्चात् आस्ट्रिया ने इस डची पर लुई पंद्रहवाँ के अधिकार को मान्यता दे दी।
लुई पंद्रहवाँ का व्यक्तिगत शासन (1743-1774 ई.)
फ्लेरी की मृत्यु के पश्चात् 33 वर्ष की आयु में 1743 ई. में लुई पंद्रहवाँ ने शासन की बागडोर पूर्णतः अपने हाथों में ले ली। यद्यपि उसमें अनेक सद्गुण थे और उसकी प्रजा उसे ‘परमप्रिय लुई’ के नाम से पुकारती थी, किंतु वह केवल एक कमजोर ही नहीं, बल्कि विलासी और फ्रांस तथा अपने हितों के प्रति भी लापरवाह था।
वास्तव में लुई पंद्रहवाँ के काल में वर्साय का जीवन विलासिता और षड्यंत्रों का केंद्र बन गया। राजा की रखैलों- विशेष रूप से शातोरु, पॉम्पादूर एवं बारी का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि उसके राज्य को ‘रखैलों की सरकार’ कहा गया है। इतिहासकार हेज की मानें तो पॉम्पादूर केवल उसकी प्रेमिका ही नहीं थी, अपितु लगभग बीस वर्षों तक (1745-1764 ई.) फ्रांस की प्रधानमंत्री बनी रही। कहते हैं कि 1756 ई. की फ्रांस व आस्ट्रिया के मध्य होने वाली संधि में पॉम्पादूर का ही हाथ था।
इतना ही नहीं, लुई पंद्रहवाँ के पास महत्वपूर्ण राजकीय कार्यों के लिए समय नहीं था क्योंकि वह महल की खिड़की से शिकार करने और बिगड़े तालों की मरम्मत करने में रहता था। उसने अपने पड़ोसियों से युद्ध मोल लिया और फ्रांस के पुराने प्रतिद्वंदी अंग्रेजों से बिना तैयारी किये लड़ता रहा। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध (1740-1768 ई.) और सप्तवर्षीय (1756-1763 ई.) युद्धों में फ्रांस पराजित हुआ। इससे फ्रांस की आंतरिक रूप से पूरी तरह खोखला हो गया, लेकिन यूरोप में फ्रांस की प्रभुता अभी भी छाई हुई थी। मृत्यु के पूर्व लुई पंद्रहवाँ को वास्तविक स्थिति का बोध हुआ और उसने कहा था: ‘मेरे मरने के बाद प्रलय होगा।’ वस्तुतः उसकी मृत्यु के पंद्रह वर्षों बाद ही फ्रांस में क्रांति हो गई।
लुई सोलहवाँ (1774-1793 ई.)
1774 ई. में लुई पंद्रहवाँ की मृत्यु के बाद उसका बीसवर्षीय पौत्र लुई सोलहवाँ (Louis XVI) फ्रांस का शासक बना। वह सदाचारी एवं सहृदय अवश्य था, लेकिन उसमें नेतृत्व की क्षमता का नितांत अभाव था। वह विलासी तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन राज्य की समस्याओं में उसकी कोई विशेष रुचि नहीं थी और न ही वह इसके लिए कुछ कर सकता था। उसकी पत्नी मेरी एंतुआनेट उसके लिए एक बोझ थी। आस्ट्रिया की राजकुमारी होने के कारण फ्रांसीसी उसे ‘विदेशी’ और ‘घृणित आस्ट्रियन’ कहते थे। वह राजनीति में भी हस्तक्षेप करती थी, लेकिन उसमें उचित न्याय-शक्ति एवं व्यवहार-कुशलता का पूर्णतया अभाव था। वर्साय के बाहर की दुनिया से वह पूरी तरह अनभिज्ञ थी। तभी तो उसने उन लोगों को केक खाने की सलाह दी थी, जिन्हें रोटी तक नहीं मिलती थी।
लुई सोलहवाँ की समस्याएँ
लुई सोलहवाँ के स्वभाव के कारण फ्रांस के लोगों को बड़ा आश्वासन मिला था। फ्रांस ने जब अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में मदद की और जार्ज वाशिंगटन के नेतत्व में अमरीका को इंग्लैंड के विरुद्ध विजय मिली, तो सभी फ्रांसीसी गौरवान्वित हुए थे। लेकिन खुशियों का आधार स्थायी नहीं था। राज्य का ऋण बढ़ता जा रहा था और उसका भुगतान कर पाना कठिन होता जा रहा था। फ्रांस की आर्थिक दशा तभी सुधर सकती थी, जब विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग पर कर लगाये जाते और राजदरबार के भारी अपव्यय को कम किया जाता। लेकिन यह दोनों कार्य कुलीनों और उच्च पादरियों के स्वार्थ के विरूद्ध थे। लुई ने एक के बाद एक कई अर्थमंत्रियों को नियुक्त कर स्थिति पर नियंत्रण करने का प्रयास किया।
तुर्जो के सुधार
लुई सोलहवाँ ने आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए फ्रांसीसी अर्थशास्त्री और इतिहासकार तुर्जो (1774-1776 ई.) को वित्तमंत्री नियुक्त किया। तुर्जो अर्थशास्त्र का एक अच्छा ज्ञाता था और व्यापार के क्षेत्र में मुक्त व्यापार की नीति का समर्थक था। वह वाल्तेयर का मित्र एवं प्रसिद्ध फिजियोक्रेट गोष्ठी का सदस्य भी था। विश्वकोश के लेखकों में भी वह एक था। इस नियुक्ति से पूर्व वह इंटंडेंट के रूप में कुशलतापूर्वक कार्य कर चुका था। वित्तमंत्री के रूप में तुर्जो की नियुक्ति से लगा कि समस्या का समाधान हो जायेगा।
तुर्जो फ्रांस की भयावह आर्थिक स्थिति से परिचित था। उसने एक चारसूत्री कार्यक्रम बनाया- ऋण नहीं, नये कर नहीं, दिवालियापन नहीं और राज्य के खर्चे में कमी। पद-ग्रहण करते ही उसने खाद्यान्न के व्यापार पर लगे बहुत से प्रतिबंधों को हटा दिया, विभिन्न व्यवसायों की शक्तिशाली संस्था ‘गिल्ड’ को समाप्त कर दिया और सड़कों की मरम्मत के निमित्त लिए जाने वाले बेगार (कार्वे) को समाप्त कर एक सामान्य कर लगा दिया। तुर्जो के इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि अब फ्रांस को एक करोड़ दस लाख फ्रैंक की वार्षिक बचत होने लगी, जबकि अभी तक दो लाख फ्रैंक वार्षिक का घाटा हो रहा था।
निःसंदेह तुर्जो की नीतियाँ देश के लिए हितकारी थीं और वह देश को आर्थिक संकट से बचा सकता था, किंतु उसके सुधारों से विशेषाधिकार प्राप्त सामंत और पुरोहित संतुष्ट नहीं थे। फलतः मेरी एंटुआनेट के प्रभाव में आकर लुई सोलहवाँ ने 1776 ई. में तुर्जो को अपदस्थ कर दिया, जिससे फ्रांस की आर्थिक स्थिति और अधिक जटिल हो गई।
उसके बाद लुई सोलहवाँ ने क्लून्यी नामक व्यक्ति को जिम्मेदारी सौंपी। उसने तुर्जो का कार्यक्रम रद्द कर दिया। इसी समय अमरीका में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया और फ्रांस ने लाफायत के नेतृत्व में अपने परंपरागत शत्रु इंग्लैंड के विरुद्ध अमेरिका की मदद के लिए सेना भेज दी। फ्रांस के लिए यह अतिरिक्त भार सँभाल पाना मुश्किल था। फलतः क्लून्यी को हटना पड़ा।
नेकर
लुई सोलहवाँ ने 1776 ई. में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति नेकर को वित्तमंत्री नियुक्त किया। यद्यपि नेकर स्विट्जरलैंड का निवासी और प्रोटेस्टेंट था, लेकिन वह एक कुशल बैंकर और व्यापारी होने के कारण आर्थिक मामलों में दक्ष था। उसने ऋण न लेने की बात छोड़कर, तुर्जो के अन्य सुझाव स्वीकार कर किया। मितव्ययिता में वह तूर्जो से भी आगे निकल गया। इस समय अमरीका का स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था और फ्रांस को इसमें काफी धन खर्च करना पड़ रहा था। नेकर ने 40 करोड़ फ्रैंक का ऋण लिया और जब अमरीका में इंग्लैंड हारने लगा तो इसका श्रेय नेकर को मिला। कहा जाने लगा कि ‘नेकर ईश्वर है। वह बिना कोई कर लगाये युद्ध लड़ रहा है।’
इधर नेकर घाटे को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील था, तो उधर मेरी एंटुआनेट खुले हाथों से आभूषणों का क्रय एवं उपहारों का वितरण कर रही थी। इसी बीच नेकर ने 1781 ई. में राष्ट्रीय आय-व्यय का एक तरह का बजट (कोंत रान्द्यू) प्रकाशित किया और जनता को बताया कि वास्तव में कराधान से राज्य को कितनी आय होती है और राजा स्वयं अपने ऊपर कितना खर्च करता है।
आय-व्यय की रिपोर्ट (कोंत रान्द्यू) के प्रकाशन से सामंत एवं चापलूस दरबारी नेकर से असंतुष्ट हो गये क्योंकि इससे जनसाधारण के सामने उनकी पोल खुल गई थी। उन्होंने मेरी एंटुआनेट के सहारे नेकर को अपदस्थ करने के लिए राजा को राजी कर लिया। परिणामतः नेकर को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
तुर्जो और नेकर अपने सुधारों में असफल हो गये। इसके दो कारण थे-एक तो राजा का ढुलमुल चरित्र और दूसरा दरबारियों के षड्यंत्र। यदि राजा दृढ़ता से अपने मंत्रियों का समर्थन करता तो संभवतः फ्रांस की स्थिति सुधर सकती थी, लेकिन उसमें दृढ़ इच्छा-शक्ति नहीं थी।
नेकर का उत्तराधिकारी फ्लरी एक साधारण और चापलूस व्यक्ति था। उसने हवा के साथ बहना शुरू कर दिया। वह मारी एंटुआनेट के खर्च के लिए धन जुटाता रहा। परंतु यह स्थिति आखिर कब तक चलती?
केलोन
लुई सोलहवाँ ने 1783 ई. में केलोन को वित्तमंत्री बनाया। केलोन उच्च वर्ग से संबंधित था। फ्रांस का आर्थिक संकट दिन-प्रतिदिन और भी गहरा होता जा रहा था। उसने अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए फांस की समसत जनता पर सामान्य कर लगाने का प्रस्ताव किया, लेकिन सामंतों और उच्च वर्ग के लोगों के विरोध के कारण यह योजना त्याग दी गई।
अब केलोन ने राजकीय व्यय की पूर्ति के लिए अधिकाधिक ऋण लेने की नीति अपनाई और चार वर्षों में लगभग 60 करोड़ डालर का ऋण ले लिया। कुछ दिनों बाद स्थिति ऐसी आ गई कि ऋण मिलना भी बंद हो गया। केलोन ने राजा को सूचना दी कि राज्य दिवालियापन की ओर उन्मुख है और पूरे तंत्र में बिना कुछ मौलिक सुधार किये स्थिति सँभल नहीं सकती। अंत में, फ्रांस के ‘विशिष्ट व्यक्तियों की सभा’ (असेंबली ऑफ नोबल्स) बुलाने का निर्णय हुआ। केलोन ने विशिष्टों का सभा में देश की आर्थिक स्थिति का विवरण प्रस्तुत किया और तुर्जो तथा नेकर की तरह आर्थिक सुधार के लिए उच्च वर्ग के लोगों पर भी कर लगाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन प्रमुखों की सभा अपने विशेषाधिकारों के परित्याग के लिए तैयार नहीं थी। उसने प्रस्ताव को टालने के लिए ‘स्टेट्स जनरल’ का अधिवेशन बुलाने पर जोर दिया और यह तर्क दिया कि किसी भी प्रकार का वित्तीय परिवर्तन स्टेट्स जनरल की अनुमति से ही किया जा सकता है। फलतः केलोन और विशिष्टों की सभा का अधिवेशन, दोनों ही बर्खास्त कर दिये गये।
लुई सोलहवाँ और क्रांति का आरंभ
परिस्थितियों से विवश होकर लुई ने ब्रियेन को अर्थमंत्री नियुक्त किया और अध्यादेशों के माध्यम से सभी वर्गों पर नये कर लगाने का निश्चय किया। नियमानुसार इस प्रस्ताव को पेरिस की पार्लमां में भेजा गया। लेकिन पेरिस की पार्लमां ने उन कानूनों को न केवल रजिस्टर करने से इनकार कर दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया कि केवल राज्य को ही स्टेट्स जनरल के माध्यम से नये कर लगाने का अधिकार है। इस प्रकार राजा और पार्लमां के बीच ठन गई। लुई ने पेरिस की पार्लमां को बर्खास्त कर दिया और उसके सदस्यों को कैद करने की तैयारी करने लगा। फ्रांस की जनता ने पार्लमां का समर्थन किया और सैनिकों ने पार्लमां के सदस्यों को कैद करने से इनकार कर दिया। राजा दुविधा में पड़ गया, पेरिस की पार्लमां फिर बुलाई गई, लेकिन इस बार भी उसने करों को पंजीकृत करने से इनकार कर दिया। प्रांतों की पार्लमांओं ने उसका समर्थन किया। अब चारों ओर से स्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाने की माँग होने लगी।
अंततः लुई सोलहवाँ ने विवश होकर नेकर को पुनः अर्थमंत्री नियुक्त किया और 1788 ई. के अंतिम दिनों में यह घोषणा की कि 5 मई, 1789 ई. को स्टेट्स जनरल का अधिवेशन होगा। 175 वर्षों के पश्चात् स्टेट्स जनरल का अधिवेशन बुलाना दैवी अधिकारों के सिद्धांत की पहली पराजय थी।
स्टेट्स जनरल
स्टेट्स जनरल 1302 ई. में स्थापित फ्रांस की एक पुरानी प्रतिनिधि संस्था थी, किंतु इस संस्था का जनतंत्रीय सिद्धांत के अनुरूप विकास नहीं हो सका था। स्टेट्स जनरल के तीन सदन थे- प्रथम सदन पादरी वर्ग का था, दूसरा सदन सामंत वर्ग का था और तीसरा सदन साधारण वर्ग का था। इन वर्गों के प्रतिनिधियों की संख्या प्रायः एक समान थी, लेकिन तीनों वर्गों-पादरी, सामंत और तृतीय वर्ग के प्रतिनिधि अलग-अलग सदनों में मत देते थे और इस तरह तीनों सदनों में से दो सदन जो चाहते थे, वही स्वीकृत होता था। इस प्रकार कुलीन और पादरी वर्ग मिलकर जनसाधारण के हितों की अवहेलना करते थे। रिशलू के समय से 1614 ई. के बाद इसका अधिवेशन होना बंद हो गया था। फलतः लोग इसकी महत्ता, उपयोगिता और कार्यविधि को भूल चुके थे।
नेकर ने राजा से मिलकर स्टेट्स जनरल में तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों की संख्या दुगुनी कर दी, लेकिन यह निर्णय नहीं हो सका कि तीनों वर्गों के प्रतिनिधि सम्मिलित रूप से एक सदन में बैठकर विचार करेंगे या भिन्न-भिन्न सदनों में बैठेंगे। तीसरा सदन 90 प्रतिशत जनता का प्रतिनिधित्व करता था, यदि तीनों सदनों की एक साथ बैठक नहीं होती और और मतदान में प्रत्येक सदस्य का मत न मानकर एक सदन का एक मत माना जाता, तो तीसरे सदन की संख्या को दुगुना करने से कोई लाभ नहीं था।
स्टेट्स जनरल का अधिवेशन (5 मई, 1789 ई.)
स्टेट्स जनरल के चुनाव के लिए पादरी, सामंत और तृतीय वर्ग से अलग-अलग प्रतिनिधि चुनने की पुरानी पद्धति अपनाई गई। सार्वजनिक चुनाव के बाद 5 मई, 1789 ई. को वर्साय के विशाल भवन में बड़े समारोह के साथ स्टेट्स जनरल का पहला अधिवेशन आरंभ हुआ। इसके प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 1200 थी, जिसमें 600 से अधिक तृतीय सदन के सदस्य थे। उद्घाटन में तीनों सदनों की संयुक्त सभा को संबोधित करते हुए राजा ने आर्थिक संकट का उल्लेख किया, लेकिन उसने कोई सुधार-कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत किया। इसके बाद वित्तमत्री नेकर ने देश की संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति हवाला दिया, लेकिन उसने भी कोई वित्तीय योजना नहीं रखी। इससे तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों को बड़ी निराशा हुई और उनके मन में अनेक शंकाएँ जन्म लेने लगीं। राजा, रानी और नेकर के जाने के बाद प्रथम और द्वितीय वर्गों के प्रतिनिधि अपनी बैठकें करने के लिए अलग सदन में चले गये।
संयुक्त बैठक की माँग
तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने अलग-अलग सदनों में बैठने का विरोध किया और माँग की कि संसद संपूर्ण राष्ट्र की संस्था है, इसलिए तीनों वर्ग एक साथ बैठकर संयुक्त रूप से विचार-विमर्श करेंगे। तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों ने माँग की कि हर प्रतिनिधि को एक मत मानकर पूरे स्टेट्स जनरल के बहुमत के आधार पर निर्णय लिया जाए। जनसाधारण के प्रतिनिधियों की माँग मान लेने से सामंतों तथा पादरियों के विशेषाधिकरों की समाप्ति हो जाती, इसलिए विशेषाधिकार संपन्न लोगों ने राजा को सलाह दी कि वह इसे स्वीकार न करे।
12 जून 1789 ई. को तृतीय वर्ग के प्रतिनिधि सिए ने प्रथम और द्वितीय वर्ग के प्रतिनिधियों को संयुक्त वार्ता के लिए आमंत्रित किया, किंतु दोनों सदनों के प्रतिनिधियों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इसी बीच छोटे पादरी, गरीब सामंत और इन दोनों ही वर्गों के प्रबुद्ध प्रतिनिधि तृतीय वर्ग में आकर सम्मिलित होने लगे, जिससे तृतीय वर्ग के प्रतिनिधियों का उत्साह दुगुना हो गया।
तीसरे सदन के प्रतिनिधियों ने 17 जून, 1789 ई. को एक प्रस्ताव पारित अपने आप को राष्ट्रीय सभा (नेशनल असेंबली) घोषित कर दिया। सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया कि राष्ट्रीय सभा की अनुमति के बिना भविष्य में कोई भी कर नहीं लगेगा। 17 जून को पादरी वर्ग ने भी तृतीय सदन से मिल जाने का निर्णय लिया, जिससे सर्वसाधारण वर्ग के प्रतिनिधियों की शक्ति और बढ़ गई।
राष्ट्रीय सभा की घोषणा राजतंत्र के लिए सीधी चुनौती थी। राजा ने मेरी एंटुआनेट और काउंट अर्त्वा की सलाह पर 23 जून को तीनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करने की घोषणा की। लेकिन साधारण वर्ग के प्रतिनिधियों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
1830 की फ्रांसीसी क्रांति (जुलाई क्रांति)
टेनिस कोर्ट की शपथ (20 जून, 1789 ई.)
तीसरे वर्ग के सदस्य 20 जून, 1789 ई. को सभा भवन पहुँचे, लेकिन लुई सोलहवाँ ने मरम्मत के बहाने सभा भवन में ताला लगवाकर वहाँ सेना तैनात कर दिया था। फलतः साधारण वर्ग के प्रतिनिधियों ने सभा भवन के निकट एक ‘टेनिस कोर्ट’ में एकत्र होकर सभा करने का निर्णय किया। टेनिस कोर्ट में बेली की अध्यक्षता में तृतीय वर्ग प्रतिनिधियों ने घोषणा की कि वे केवल तृतीय वर्ग के नहीं, सारे राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं और वे एक स्थायी विधान (चार्टर ऑफ लिबरटी) बनाये बिना नहीं मानेंगे। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में शपथ ली गई कि, ‘‘जब तक राष्ट्र का संविधान स्थापित नहीं हो जायेगा, तब तक हम कभी भी अलग नहीं होंगे और जहाँ भी आवश्यकता पड़ेगी, हम एकत्र होंगे।‘‘ इसे ‘टेनिस कोर्ट की शपथ’ कहते है और यही क्रांति का सूत्रपात था।
23 जून, 1789 ई. को स्टेट्स जनरल का शाही अधिवेशन प्रारंभ हुआ, किंतु राजा ने दरबारी सामंतों के प्रभाव में आकर तीनों सदनों के प्रतिनिधियों को अलग-अलग बैठने का आदेश दिया और तृतीय वर्ग के प्रस्तावों को अमान्य कर दिया। राजा के इस कार्य से सर्वसाधारण वर्ग के प्रतिनिधि निराश हो गये।
अधिवेशन की समाप्ति पर राजा तथा उच्चवर्गीय सदस्यों ने सभा भवन छोड़ दिया, परंतु तीसरे वर्ग के प्रतिनिधि अपने स्थान पर बैठे रहे। राजा के प्रतिनिधियों ने उनसे अपने सदन में जाने को कहा, लेकिन तृतीय के नेता मिराबो ने घोषणा की ‘‘हम यहाँ जनता की इच्छा से उपस्थित हुए हैं, केवल संगीनें ही हमको यहाँ से हटा सकती हैं।’’ मिराबो की घोषणा के बाद राजा की स्थिति कठिन हो गई, क्योंकि 25 जून को अधिकांश पादरी और कुछ सामंत भी सर्वसाधारण की सभा में सम्मिलित हो गये थे।
राष्ट्रीय सभा (27 जून, 1789 ई.)
विवश होकर राजा ने 27 जून, 1789 ई. को मतदान के लिए एक ही सदन की प्रणाली और संविधान बनाने की बात मान ली। इस प्रकार राष्ट्रीय सभा (नेशनल एसेंबली) को वैधानिक मान्यता मिल गई। यह तृतीय वर्ग और क्रांति की पहली प्रमुख सफलता थी। अब सत्ता राजा के हाथों से निकलकर राष्ट्रीय सभा के हाथों में चली गई।
क्रांति का पहला दृश्य वर्साय का था जहाँ स्टेट्स जनरल, राष्ट्रीय सभा बन गई थी, लेकिन क्रांति का दूसरा दृश्य पेरिस में दिखा, जहाँ कई कारणों से स्थिति तनावपूर्ण होती जा रही थी। स्टेट्स जनरल का अधिवेशन पेरिस में न बुलाये जाने से पेरिस के लोग क्षुब्ध तो थे ही, पिछले दो वर्षों के अकाल और कारखानों की बंदी के कारण नगर में बेरोजगारों और मजदूरों के दंगे हो रहे थे। इस बीच राजा ने दरबारी सामंतों और मेरी एंटुआनेट जैस चापलूसों के प्रभाव में आकर पेरिस और वर्साय में विदेशी सैनिकों को तैनात करना शुरू कर दिया। उसने 11 जुलाई, 1789 ई. को वित्तमंत्री नेकर को पदच्युत् करके देश छोड़ने का आदेश दे दिया और उसके स्थान पर वारों दि ब्रेतोल को नियुक्त कर दिया। नेकर सुधारों का समर्थक था और जनता में बहुत लोकप्रिय था। राजा के इस अनैतिक कार्य से जनतायह समझने लगी कि राजा सख्ती बरतने जा रहा है और उन लोगों को हटा रहा है जो जनता का पक्ष ले सकते हैं।
12 जुलाई को पेरिस में देमूले (डेसमोलिंस) ने एक मीनार पर चढ़कर लोगों को सावधान किया और शस्त्रास्त्रों से लैस रहने का आह्वान किया: ‘‘नेकर को पद्च्युत् कर दिया गया है और शीघ्र ही राजा हमारे ऊपर आक्रमण करने की योजना बना रहा है। इसलिए हमको अपनी रक्षा के लिए शस्त्र ग्रहण करने चाहिए। यदि हम शीघ्र तैयार नहीं होंगे, तो जर्मन तथा स्विस सेनाएँ हमारा विनाश कर देंगी।’’
13 जुलाई को यह अफवाह फैली कि सैनिकों को पेरिस भेजा जा रहा है। इससे उत्तेजित होकर लोगों ने शस्त्रास्त्र संग्रह करने का निर्णय किया। 14 जुलाई को यह खबर फैली कि बास्तील में शस्त्रों का भंडार है और यह जानकर भीड़ उधर ही उमड़ पड़ी।
बास्तील का पतन (14 जुलाई, 1789)
बास्तील पेरिस के पूर्वी भाग में सीन नदी पर स्थित एक दुर्ग था जहाँ राजनीतिक बंदियों को रखा जाता था। मिराबो और वॉल्तेयर जैसे लोग वहाँ भेजे जा चुके थे। धीरे-धीरे यह दुर्ग निरंकुश राजसत्ता और उसके अत्याचारों का प्रतीक बनता जा रहा था। इसका अध्यक्ष दि लौने था और इस समय इसमें 7 बंदी और 125 सैनिक थे।
क्रांतिकारियों की भीड़ ने, जिसमें 10 हजार से अधिक क्रांतिकारी शामिल थे, 14 जुलाई, 1789 ई. को बास्तील के किले की ईंट से ईंट बजा दी। उत्तेजित भीड़ ने किलेदार तथा सैनिकों के सिर काट लिया और किले पर अधिकार कर लिया। इस घटना से यूरोप के सभी निरंकुश राजाओं के सिंहासन हिल उठे। इस घटना के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी फ्रांस अपना राष्ट्रीय दिवस 14 जुलाई को ही मनाता है।
बास्तील के पतन के बाद लुई सोलहवाँ 10 अगस्त, 1792 ई. तक फ्रांस का शासक बना रहा। बाद में देशद्रोह के आरोप में उसे 21 जनवरी, 1793 ई को तुइलरी राजमहल के सामने गिलोटिन पर चढ़ाकर फाँसी दे दी गई। इस स्थान को इस समय ‘गणतंत्र चौक’ कहा जाता है। गिलोटिन पर चढ़ते समय लुई सोलहवाँ ने जनता को संबोधित करते हुए कहा था: ‘‘सज्जनों! मैं निर्दोष हूँ। मुझ पर लगाये गये आरोप झूठे हैं। मेरा रक्त फ्रांस की जनता के लिए कल्याणकारी हो, यही कामना है।’’
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