पूर्वी चालुक्य राज्य
वेंगी का पूर्वी चालुक्य राज्य मुख्यतः कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्र में विस्तृत था। इसकी राजधानी वेंगी (वेंगिपुर) थी, जिसका समीकरण आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान पेड्डावेगी से किया जाता है। वेंगी के चालुक्य वंश का उत्थान बादामी के चालुक्य वंश की एक शाखा के रूप में हुआ। वातापि (बादामी) के चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय ने पूर्वी दक्षिणापथ (पूर्वी दक्कन) को सुव्यवस्थित और नियंत्रित करने के लिए अपने छोटे भाई कुब्ज (कुबड़ा) विष्णुवर्धन को आंध्र क्षेत्र का प्रांतपति (उपराजा) नियुक्त किया था। कालांतर में विष्णुवर्धन ने अपनी शक्ति बढ़ाकर वेंगी को केंद्र बनाकर एक स्वतंत्र चालुक्य राज्य की स्थापना की, जिसे वेंगी का पूर्वी चालुक्य राजवंश के नाम से जाना जाता है।
वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक अपने को पश्चिमी चालुक्यों की तरह मानवगोत्रीय, हारीतिपुत्र, तथा कार्तिकेय और सप्तमातृकाओं से जोड़ते थे। साथ ही, वे उन कदंबों और इक्ष्वाकुओं से भी अपने को जोड़ते थे, जिनके अधिकार वाले भूभाग को उन्होंने स्वयं अधिकृत किया था। उनकी पूर्ण वंशावली पुलकेशिन द्वितीय के हैदराबाद अभिलेख (613 ई.) में मिलती है।
वेंगी के पूर्वी चालुक्यों ने 7वीं शताब्दी से 1075 ई. तक लगभग 460 वर्षों तक शासन किया। अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य पूर्व में ओडिशा के गंजाम जिले में महेंद्रगिरि तक, पश्चिम में आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में मन्नेरु नदी तक, उत्तर में भूतपूर्व हैदराबाद राज्य, बस्तर और मध्य भारत की सीमाओं तक, तथा दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था। इस प्रकार, इसमें ओडिशा के आधुनिक गंजाम जिले का दक्षिणी भाग, आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम, पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी, कृष्णा, गुंटूर और नेल्लोर जिले सम्मिलित थे।
वेंगी के चालुक्य राजवंश का राजनैतिक इतिहास
विष्णुवर्धन प्रथम (615-633 ई.)
वेंगी के पूर्वी चालुक्य वंश का प्रथम शासक विष्णुवर्धन प्रथम महापराक्रमी, कुशल सेनानायक, और योग्य प्रशासक था। वह लंबे समय तक अपने भाई वातापि के पुलकेशिन द्वितीय के प्रति निष्ठावान रहा और उनकी ओर से विभिन्न युद्धों में भाग लिया। सतारा अभिलेख (617-618 ई.) में वह अपने को युवराज और बादामी के शासक का प्रिय बताता है। बाद में, जब पुलकेशिन द्वितीय पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन प्रथम के साथ भीषण युद्ध में व्यस्त थे, विष्णुवर्धन ने वेंगी में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और विषमसिद्धि की उपाधि धारण की।
एक स्वतंत्र शासक के रूप में विष्णुवर्धन ने कम से कम दो ताम्रपत्र उत्कीर्ण कराए, जो विशाखापट्टनम से प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों से पता चलता है कि विष्णुवर्धन ने अपने बाहुबल से महेंद्र पर्वत-शृंखला तक कलिंग और पूर्वी समुद्रतटीय आंध्र प्रदेश को जीत लिया था। कलिंग का कुछ भाग उनके राज्य में शामिल था। बाद के एक अभिलेख से पता चलता है कि दक्षिण में विष्णुकुंडिन वंश के माधव तृतीय या मन्यण भट्टारक और कोंडपडुमति वंश के शासक बुद्धराज उनके सामंत के रूप में शासन करते थे। इसके अतिरिक्त, पुलकेशिन द्वितीय के कोप्परम अनुदानपत्रों से पता चलता है कि उन्होंने कर्मराष्ट्र (आंध्र प्रदेश के गुंटूर और नेल्लोर क्षेत्र) में कुछ भूमि ब्राह्मणों को दान की थी। इस प्रकार, विष्णुवर्धन प्रथम लगभग संपूर्ण वेंगी साम्राज्य का स्वामी बन गया था।
परवर्ती अभिलेखों में कहा गया है कि पट्टवर्धन वंश के सेनापति कालकंप ने विष्णुवर्धन के आदेश पर ददर नामक कट्टर शत्रु को मारकर उसके राजचिह्न छीन लिए थे। यद्यपि ददर की पहचान निश्चित नहीं है, किंतु विष्णुवर्धन तृतीय के एक अभिलेख के अनुसार उनकी रानी अय्यणा महादेवी ने बैजवाड़ा (विजयवाड़ा) में नदुब्बिसदि जैन मंदिर के लिए भूमिदान दिया था, जो तेलुगु प्रदेश का प्रथम जैन मंदिर था।
इस प्रकार विष्णुवर्धन प्रथम, पुलकेशिन द्वितीय और पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन प्रथम के युद्धों के कारण अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ करने और सीमांत क्षेत्रों में अपने प्रभाव का विस्तार करने में सफल रहा। उनके वीर सेनानायकों बुद्धवर्मन और कालकंप का विशेष सहयोग प्राप्त था। अभिलेखों से पता चलता है कि उनका साम्राज्य उत्तर-पूर्व में विशाखापट्टनम से दक्षिण-पश्चिम में उत्तरी नेल्लोर तक फैला था।
विष्णुवर्धन प्रथम राजनेता होने के साथ-साथ विद्याप्रेमी और विद्वानों का संरक्षक भी था। कहा जाता है कि उन्होंने संस्कृत साहित्य के महाकवि भवभूति को संरक्षण दिया था, जिन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य किरातार्जुनीयम् की रचना की थी। विष्णुवर्धन ने सिंह, दीपक और त्रिशूल चिह्नांकित चांदी के सिक्कों का प्रचलन किया और मकरध्वज, विषमसिद्धि, और बिट्टरस जैसी सम्मानजनक उपाधियाँ धारण कीं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका शासनकाल 624 ई. से 641 ई. तक था, किंतु सामान्यतः इसे 615 ई. से 633 ई. तक माना जाता है।
जयसिंह प्रथम (633-663 ई.)
विष्णुवर्धन प्रथम के बाद उनका पुत्र जयसिंह प्रथम वेंगी का शासक बना। उनके द्वारा जारी एक अभिलेख में दावा किया गया है कि उन्होंने अनेक सामंत शासकों को पराजित किया, किंतु पराजित शासकों या राज्यों के नाम नहीं मिलते। उनके शासनकाल में बादामी के चालुक्यों और दक्षिण के पल्लवों के बीच हुए संघर्ष में उन्होंने पुलकेशिन द्वितीय की कोई सहायता नहीं की, जिसके कारण चालुक्य-पल्लव युद्ध में वातापि के चालुक्य बुरी तरह पराजित हुए और दक्षिणापथेश्वर पुलकेशिन द्वितीय युद्धभूमि में मारा गया।
जयसिंह प्रथम ने महाराज, पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वीजयसिंह और सर्वसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण कीं। कुछ विद्वानों के अनुसार उनका शासनकाल 641 ई. से 673 ई. तक था, किंतु अधिकांश इतिहासकार इसे 633 ई. से 663 ई. तक मानते हैं।
इंद्रवर्मन (663 ई.)
जयसिंह प्रथम के बाद लगभग 663 ई. में उनका छोटा भाई इंद्रवर्मन वेंगी का शासक बना। इंद्रवर्मन की किसी विजय या अन्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धि की सूचना नहीं मिलती, केवल उनके एक सामंत कोडिवर्मन की जानकारी प्राप्त होती है। इंद्रवर्मन ने इंद्रभट्टारक, इंद्रराज, इंदुराज, महाराज, सिंहविक्रम और त्यागधेनु जैसी उपाधियाँ धारण कीं। यद्यपि जयसिंह प्रथम के शासनकाल में इंद्रवर्मन प्रशासन में सक्रिय था, किंतु स्वतंत्र शासक के रूप में केवल एक सप्ताह तक शासन करने के बाद 663 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
विष्णुवर्धन द्वितीय (663-672 ई.)
इंद्रवर्मन के अल्पकालिक शासन के बाद, 663 ई. में विष्णुवर्धन द्वितीय वेंगी की राजगद्दी पर बैठा, जो संभवतः इंद्रवर्मन का पुत्र था। अभिलेखों में उनके द्वारा दिए गए भूमिदानों के अतिरिक्त किसी अन्य उपलब्धि का उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने विजयसिद्धि, मकरध्वज और प्रलयादित्य जैसी उपाधियाँ धारण कीं। उन्होंने कुल नौ वर्षों (663-672 ई.) तक शासन किया।
मंगि युवराज (672-697 ई.)
विष्णुवर्धन द्वितीय के बाद उनका पुत्र मंगि युवराज 672 ई. में वेंगी का उत्तराधिकारी बना। मंगि, मंगलेश का संक्षिप्त रूप है। उन्होंने लगभग पच्चीस वर्षों तक शासन किया, किंतु उनकी किसी सैन्य उपलब्धि की जानकारी नहीं मिलती। उनके राज्य की उत्तरी सीमा नागवली (लांगुलिया), दक्षिण में पिनाकिनी नदी के पास कर्मराष्ट्र की सीमाओं तक और पश्चिम में आधुनिक तेलंगाना तक थी।
मंगि युवराज दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने शास्त्रार्थ द्वारा नास्तिक बौद्धों को आंध्र देश छोड़ने के लिए विवश किया। उन्होंने कई अग्रहार ग्राम दान किए और संभवतः अपनी राजधानी विजयवाटिका (विजयवाड़ा) में स्थानांतरित की। उनके लिए विजयादित्य, सर्वलोकाश्रय और विजयसिद्धि जैसे नामों का भी उपयोग किया गया। अनुमानतः उन्होंने 672 ई. से 697 ई. तक शासन किया।
जयसिंह द्वितीय (697-710 ई.)
संभवतः मंगि युवराज के कई पुत्र थे और उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमें जयसिंह द्वितीय को सफलता मिली और वह वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। पता चलता है कि जयसिंह द्वितीय का छोटा भाई विजयादित्यवर्मन एलमांचिलि (विशाखापट्टनम जिले का आधुनिक एलमांचिलि) को राजधानी बनाकर मध्य कलिंग पर शासन कर रहा था। संभवतः विजयादित्यवर्मन ने जयसिंह द्वितीय की संप्रभुता को चुनौती देकर स्वतंत्रता प्राप्त की और महाराज की उपाधि धारण की। विजयादित्यवर्मन की मृत्यु के बाद उनका पुत्र कोकिल या कोकिलवर्मन मध्य कलिंग का शासक बना। जयसिंह द्वितीय के लिए लोकाश्रय और सर्वसिद्धि जैसे विरुदों का उपयोग किया गया। उन्होंने संभवतः तेरह वर्ष (697-710 ई.) तक शासन किया।
कोकिलि या कोकुलि विक्रमादित्य (710 ई.)
जयसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद, वेंगी के चालुक्यों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ। इस युद्ध में सबसे छोटे सौतेले भाई कोकिलि या कोकुलि विक्रमादित्य को सफलता मिली और वह लगभग 710 ई. में वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। कोकुलि विक्रमादित्य ने विजयसिद्धि की उपाधि धारण की और अपने भतीजे कोकिल या कोकिलवर्मन को पराजित कर मध्य कलिंग (एलमांचिलि) को पुनः साम्राज्य में शामिल किया। छह महीने बाद उनके बड़े भाई विष्णुवर्धन तृतीय ने उन्हें अपदस्थ कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। संभवतः बाद में दोनों में समझौता हुआ, जिसके अनुसार मुख्य साम्राज्य पर विष्णुवर्धन तृतीय और मध्य कलिंग पर कोकिलि का अधिकार मान लिया गया। इसके बाद चार पीढ़ियों तक इस क्षेत्र पर कोकिलि के उत्तराधिकारियों के शासन के प्रमाण मिलते हैं। कोकिलि के बाद मध्य कलिंग पर मंगि युवराज (मंगि युवराज का पौत्र) ने शासन किया।
विष्णुवर्धन तृतीय (710-746 ई.)
विष्णुवर्धन तृतीय ने लगभग 710 ई. में अपने छोटे भाई कोकुलि विक्रमादित्य को हटाकर वेंगी का शासन सँभाला। उनके काल के लगभग नौ अभिलेख मिलते हैं, जिनमें से एक तेलुगु भाषा में और शेष संस्कृत में उत्कीर्ण हैं। इन अभिलेखों में प्रायः अग्रहार ग्रामों या मंदिरों को दिए गए ग्रामदान (देवदान) का उल्लेख है।
विष्णुवर्धन तृतीय के शासनकाल के तेइसवें वर्ष के एक अभिलेख में मंगि की पुत्री पृथ्वीपोथि (पृथ्वीपोणि) द्वारा दिए गए दान का उल्लेख है। इस मंगि की पहचान विष्णुवर्धन के पिता मंगि युवराज से की जा सकती है। 762 ई. के एक अन्य अनुदानपत्र के अनुसार उन्होंने विष्णुवर्धन प्रथम की पत्नी अय्यणा महादेवी द्वारा बैजवाड़ा के जैन मंदिर के लिए दिए गए भूमिदान का नवीकरण किया था।
ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन तृतीय के शासनकाल के उत्तरार्ध में पृथ्वीव्याघ्र नामक एक निषाद शासक ने नेल्लोर की उत्तरी सीमा से सटे पूर्वी चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग को जीत लिया था। किंतु नंदिवर्मन के उदयेंद्रम अनुदानपत्र के अनुसार पृथ्वीव्याघ्र को बाद में पल्लव नरेश नंदिवर्मन द्वितीय के सेनापति उदयचंद्र ने पराजित कर उनके द्वारा विजित पूर्वी चालुक्य भूभाग को अधिकृत कर लिया।
विष्णुवर्धन तृतीय ने विषमसिद्धि, त्रिभुवनांकुश और समस्तभुवनाश्रय जैसी उपाधियाँ धारण कीं, जबकि उनकी पत्नी विजयमहादेवी को परिपालिका की उपाधि दी गई। यद्यपि वे 762 ई. तक जीवित रहे, किंतु उन्होंने 746 ई. के आसपास प्रशासन का भार अपने पुत्र विजयादित्य प्रथम को सौंप दिया था।
विजयादित्य प्रथम (746-764 ई.)
विष्णुवर्धन तृतीय के सिंहासन त्याग के बाद उनकी पटरानी विजयमहादेवी से उत्पन्न पुत्र विजयादित्य प्रथम वेंगी का शासक बना। उन्होंने त्रिभुवनांकुश, विजयसिद्धि, शक्तिवर्मन, भट्टाराज, विक्रमराम और विजयादित्य जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
विजयादित्य के शासनकाल में दक्षिणापथ की राजनीति में व्यापक उथल-पुथल हुई। आठवीं शताब्दी के मध्य में लगभग 757 ई. में राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ने बादामी के चालुक्यों को पराजित कर उनके अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद, राष्ट्रकूटों का वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ संघर्ष शुरू हुआ, क्योंकि दोनों की सीमाएँ एक-दूसरे से सटी हुई थीं। विजयादित्य ने संभवतः 746 ई. से 764 ई. तक शासन किया।
विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई.)
विजयादित्य प्रथम के बाद उनका पुत्र विष्णुवर्धन चतुर्थ 764 ई. में वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। उनके समकालीन राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम ने साम्राज्य विस्तार के लिए अपने युवराज गोविंद द्वितीय को वेंगी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राष्ट्रकूट युवराज गोविंद द्वितीय के अलस अभिलेख (769 ई.) से पता चलता है कि उन्होंने वेंगी के विरुद्ध अभियान का नेतृत्व किया और मुसी व कृष्णा नदियों के संगम पर अपने स्कंधावार में कोष, सेना और भूमि सहित वेंगी नरेश (विष्णुवर्धन चतुर्थ) को समर्पण के लिए बाध्य किया। इससे प्रतीत होता है कि वेंगी नरेश ने बिना युद्ध के राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
राष्ट्रकूटों में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू होने पर विष्णुवर्धन चतुर्थ ने गोविंद द्वितीय का साथ दिया। किंतु ध्रुव प्रथम की विजय के बाद उन्होंने गोविंद द्वितीय के समर्थकों को दंडित करने के लिए वेंगी पर आक्रमण किया। इस अभियान में वेमुलवाड के चालुक्य सामंत अरिकेशरी ने ध्रुव प्रथम का विशेष सहयोग किया। 786 ई. के जेथवै अनुदानपत्र से पता चलता है कि विष्णुवर्धन युद्ध में पराजित हुआ और अपनी पुत्री शीलमहादेवी का विवाह ध्रुव प्रथम से करने के लिए बाध्य हुआ। इसके बाद वेंगी के चालुक्य राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में शासन करने लगे। 802 ई. और 808 ई. के राधनपुर अनुदानपत्रों से पता चलता है कि ध्रुव प्रथम के पत्रवाहक के अर्धशब्द ही विष्णुवर्धन चतुर्थ को अधिकृत करने के लिए पर्याप्त थे।
राधनपुर पत्रों के अनुसार विष्णुवर्धन चतुर्थ अपने स्वामी के लिए महाप्राचीर और भवन निर्माण कराने के लिए बाध्य हुआ। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ध्रुव प्रथम के आदेशानुसार विष्णुवर्धन चतुर्थ ने मान्यखेट की किलेबंदी करवाई थी, किंतु साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि मान्यखेट का निर्माण अमोघवर्ष प्रथम ने करवाया था।
विष्णुवर्धन चतुर्थ ने लगभग 36 वर्षों तक शासन किया। कुछ इतिहासकार उनका शासनकाल 772 ई. से 808 ई. तक मानते हैं, किंतु सामान्यतः इसे 764 ई. से 799 ई. तक माना जाता है।
विजयादित्य द्वितीय (799-847 ई.)
विष्णुवर्धन चतुर्थ के बाद विजयादित्य द्वितीय वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। उन्होंने नरेंद्र भृगराज, चालुक्यार्जुन, त्रिभुवनांकुश, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर और वेंगीनाथ जैसी उपाधियाँ धारण कीं।
यद्यपि विजयादित्य द्वितीय वेंगी के योग्यतम शासकों में से एक था, किंतु उनके शासन के प्रारंभिक वर्षों में उन्हें कई असफलताओं का सामना करना पड़ा। उनके भाई भीम सालुक्कि ने राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय की सहायता से उन्हें पराजित कर वेंगी पर अधिकार कर लिया। गोविंद तृतीय को पश्चिमी गंगों और वेमुलवाड के चालुक्यों से भी सहायता मिली थी।
विजयादित्य अपनी पराजय से निराश नहीं हुए और राष्ट्रकूटों से वेंगी को मुक्त कराने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। संयोगवश, 814 ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु के बाद उनके अल्पवयस्क पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के उत्तराधिकार को लेकर राष्ट्रकूटों में आंतरिक झगड़े शुरू हो गए। अमोघवर्ष का संरक्षक कर्क विद्रोह को दबा नहीं सका और अमोघवर्ष को कुछ समय के लिए गद्दी छोड़नी पड़ी।
गंटूर अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य ने राष्ट्रकूटों में व्याप्त अराजकता का लाभ उठाकर उनके सेनानायकों से निरंतर युद्ध करते हुए अपने विद्रोही भाई भीम सालुक्कि को अपदस्थ कर वेंगी पर पुनः अधिकार कर लिया। इसकी पुष्टि राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय के नौसारी पत्र से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रकूट कुललक्ष्मी चालुक्यरूपी अगाध समुद्र में विलुप्त हो गई थी। इस युद्ध में विजयी चालुक्य सेना ने राष्ट्रकूट साम्राज्य के एक बड़े भाग को रौंदते हुए स्तंभनगर (गुजरात का आधुनिक खंभात) को पदाक्रांत कर नष्ट कर दिया।
इस प्रकार विजयादित्य ने संभवतः 814 ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु के बाद राष्ट्रकूटों में व्याप्त अराजकता का लाभ उठाकर न केवल वेंगी मंडल, बल्कि स्तंभनगर तक राष्ट्रकूट क्षेत्र को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। उन्होंने राष्ट्रकूटों के सहयोगी दक्षिण के गंगों को भी पराजित किया, जिसकी पुष्टि विजयादित्य तृतीय के मसुलीपट्टम अभिलेख से होती है।
नौसारी अभिलेख से पता चलता है कि राष्ट्रकूटों के विरुद्ध वेंगी के चालुक्यों की यह सफलता अस्थायी थी। परवर्ती राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि अमोघवर्ष ने गुजरात के राजा कर्क द्वितीय की सहायता से विंगवेल्लि (भिगिनिपल्लि) के युद्ध में चालुक्य सेना को निर्णायक रूप से पराजित कर विजयादित्य को क्षमायाचना के लिए विवश कर दिया और वीरनारायण (विष्णु) की भाँति अपने राज्य का उद्धार किया। कुछ समय बाद विजयादित्य ने अपने पुत्र विष्णुवर्धन का विवाह गुजरात की राष्ट्रकूट राजकुमारी सिंहलादेवी से करके मैत्री-संबंध को दृढ़ किया।
विजयादित्य को संभवतः बस्तर क्षेत्र में शासन करने वाले किसी नाग नरेश से भी निपटना पड़ा, जिसकी पहचान स्पष्ट नहीं है। मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार, नागभट्ट द्वितीय (गुर्जर प्रतिहार शासक) ने आंध्र और कलिंग के राजाओं को पराजित किया था। कुछ इतिहासकार, जैसे दिनेशचंद्र सरकार और डी.सी. गांगुली इस आंध्र शासक की पहचान विजयादित्य द्वितीय से करते हैं।
विजयादित्य धर्मनिष्ठ शैव थे। उनका शासनकाल कलात्मक निर्माण कार्यों के लिए स्मरणीय है। उन्होंने समस्तभुवनाश्रय, श्री नरेंद्रस्वामी और उमामहेश्वर स्वामी के नाम से अनेक शिव मंदिरों का निर्माण करवाया।
इतिहासकारों ने उनके शासनकाल को 40, 41, 44 या 48 वर्ष निर्धारित किया है। नीलकंठ शास्त्री जैसे इतिहासकार उनका शासनकाल 808 ई. से 847 ई. तक मानते हैं, जबकि दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार यह 799 ई. से 847 ई. तक था। संभवतः यह अंतर उनके विद्रोही भाई भीम सालुक्कि द्वारा सिंहासन हड़पने के कारण था। सामान्यतः उनका शासनकाल 799 ई. से 847 ई. तक माना जाता है।
विष्णुवर्धन पंचम (847-848 ई.)
विजयादित्य द्वितीय के बाद, उनका पुत्र विष्णुवर्धन पंचम वेंगी का उत्तराधिकारी बना। उन्होंने अपने पिता के सैन्य अभियानों में सक्रिय रूप से सहायता की और कलि (युद्ध) नाम धारण किया। उनका विवाह गुजरात की राष्ट्रकूट राजकुमारी शीलमहादेवी (सिंहलादेवी) से हुआ था। विष्णुवर्धन पंचम को कलि, सर्वलोकाश्रय और विषमसिद्धि जैसी उपाधियों से अलंकृत किया गया। उन्होंने मात्र 18 या 20 महीने (847-848 ई.) शासन किया। उनके कई पुत्र थे—विजयादित्य तृतीय, अय्यपराज, विक्रमादित्य प्रथम और युद्धमल्ल प्रथम। उनकी मृत्यु के बाद शीलमहादेवी से उत्पन्न पुत्र विजयादित्य तृतीय उत्तराधिकारी बना।
विजयादित्य तृतीय (848-892 ई.)
विष्णुवर्धन पंचम के बाद, उनका शीलमहादेवी से उत्पन्न पुत्र विजयादित्य तृतीय लगभग 848 ई. में वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। वह अपने पितामह की भाँति महत्वाकांक्षी और रणकौशल में निपुण था। उनका संपूर्ण शासनकाल दिग्विजय और विभिन्न राज्यों से संघर्ष में व्यतीत हुआ। अभिलेखों में उन्हें गुणग, परचक्रराम, मंजुप्रकार, अरशंककेशरिन, रणरंगशूद्रक, विक्रमधवल, नृपतिमार्तंड, भुवनकंदर्प और त्रिभुवनांकुश जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया।
विजयादित्य तृतीय की उपलब्धियाँ
विजयादित्य तृतीय वेंगी के चालुक्य वंश का सबसे महान शासक था। शासन संभालते ही उन्होंने ‘लौह-रक्तनीति’ का अनुसरण कर दक्षिण और उत्तर में अनेक शक्तियों को अपनी कूटनीति और बाहुबल से पराजित किया और वेंगी राज्य की सीमाओं को यथासंभव विस्तृत किया।
बोय (बोथ) जाति के विरुद्ध अभियान
विजयादित्य तृतीय ने अपने दिग्विजय के क्रम में सबसे पहले नेल्लोर के आसपास शासन करने वाली बोय (बोथ) जाति के विरुद्ध अभियान किया। बोय पहले से ही चालुक्यों के अधीन थे, किंतु विष्णुवर्धन पंचम की मृत्यु के बाद उन्होंने चालुक्यों की अधीनता अस्वीकार कर स्वतंत्रता घोषित कर दी।
बोयों को दंडित करने के लिए विजयादित्य ने अपने सेनापति पंडरंग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। पंडरंग ने बोयों के कट्टेम और नेल्लोर के सुदृढ़ दुर्गों को ध्वस्त कर दिया। बोय बुरी तरह पराजित हुए और पंडरंग विजय करता हुआ तोंडैमंडलम की सीमा तक पहुँच गया। वहाँ उन्होंने अपने नाम पर एक नगर स्थापित किया और पंडरंग माहेश्वर नामक एक शिवमंदिर का निर्माण करवाया। इस विजय के फलस्वरूप समस्त दक्षिण-पूर्वी तेलुगु प्रदेश, जो पल्लवों के अधीन था, चालुक्य साम्राज्य में शामिल हो गया। पंडरंग को इस क्षेत्र का उपराजा नियुक्त किया गया।
राहण की पराजय
बोयों से निपटने के बाद विजयादित्य तृतीय की सेना ने पंडरंग के नेतृत्व में राहण नामक सरदार को पराजित किया, किंतु इस राहण की पहचान स्पष्ट नहीं है।
पश्चिमी गंगों के विरुद्ध अभियान
886 ई. में तालकाड के पश्चिमी गंग शासक नीतिमार्ग पेर्मानाडि ने गंगवाडि में विद्रोह कर स्वतंत्रता की घोषणा की। विजयादित्य ने गंगवाडि के विरुद्ध बढ़ते हुए नोलंबवाडि की सीमा पर पेर्मानाडि के सहायक नोलंबराज मंगि को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। अम्म द्वितीय के मलियपुंडी अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य ने नोलंब शासक (मंगि) का सिर काटकर उसे कंदुक बनाकर युद्ध मैदान में खेला। इसके बाद उन्होंने गंगवाडि के गंगों को बुरी तरह पराजित कर नीतिमार्ग पेर्मानाडि को संधि के लिए विवश किया।
चोलों, पल्लवों और पांड्यों के विरुद्ध सफलता
सतलुरु अनुदानपत्र के अनुसार विजयादित्य ने पल्लवों और पांड्यों के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की। संभवतः नोलंबवाडि पर अधिकार को लेकर पल्लवों और चालुक्यों में युद्ध हुआ, जिसमें विजयादित्य ने पल्लव शासक अपराजित को पराजित किया।
धर्मवरम अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य तृतीय ने तंजापुरी (तंजावुर) पर अधिकार किया और चोल शासक को संरक्षण दिया। संभवतः यह चोल शासक विजयालय था। ऐसा प्रतीत होता है कि पांड्य मारंजडैयन ने चोल राज्य पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया था। इस आक्रमण के कारण विजयालय ने विजयादित्य के यहाँ शरण ली थी। विजयादित्य ने पांड्यों को पराजित कर विजयालय को उसका राज्य वापस दिलाया। इन विजयों के फलस्वरूप विजयादित्य की धाक समस्त दक्षिण भारत में फैल गई।
राष्ट्रकूटों से संघर्ष
दक्षिण में अपनी विजय पताका फहराने के बाद विजयादित्य ने उत्तर की ओर सैन्य अभियान किया। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम की 880 ई. में मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी पुत्र कृष्ण द्वितीय ने अपने संबंधी कलचुरि संकिल (शंकरगण), जो डाहल का शासक था, के साथ मिलकर विजयादित्य पर आक्रमण किया।
अम्म द्वितीय कालीन मलियपुंडी अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य तृतीय ने नोलंब (मैसूर) नरेश मंगि को पराजित कर उसकी हत्या की। उन्होंने गंगवाडि नरेश नीतिमार्ग, कलचुरि संकिल, और राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को भयाक्रांत कर दिया। कृष्ण द्वितीय भागकर शंकरगण के डाहल राज्य में शरण लेने को विवश हुए।
विजयादित्य ने अपने सेनापति पंडरंग को डाहल (जबलपुर) पर आक्रमण के लिए भेजा। कुछ पूर्वी चालुक्य अभिलेखों से पता चलता है कि चालुक्य सेना ने कलिंग, कोशल और वेमुलवाड के शासकों को पराजित कर चेदि राज्य में डाहल, दलेनाड और चक्रकूट नगर को ध्वस्त कर दिया। इसके बाद विजयादित्य ने कृष्ण द्वितीय और शंकरगण की सेनाओं को बुरी तरह पराजित कर किरणपुर (मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले का किरनपुर) को जला दिया। चालुक्य सेना ने राष्ट्रकूट साम्राज्य को रौंदते हुए अचलपुर को जलाकर राख कर दिया। विवश होकर कृष्ण द्वितीय को विजयादित्य की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। विजयादित्य ने राष्ट्रकूट शासक के राजचिह्न (गंगा-यमुना की आकृतियाँ) छीनकर स्वयं वल्लभ की उपाधि धारण की और अपने को संपूर्ण दक्षिणापथ तथा त्रिकलिंग का स्वामी घोषित किया। अंततः कृष्ण द्वितीय के आत्मसमर्पण के बाद उन्होंने उसका राज्य वापस कर दिया।
वास्तव में, विजयादित्य तृतीय पूर्वी चालुक्य वंश का सबसे महान विजेता शासक था, जिसने वेंगी के सिंहासन की मर्यादा को सर्वाधिक बढ़ाया। उनके शासनकाल में पूर्वी चालुक्य राज्य उत्तर में महेंद्रगिरि से दक्षिण में पुलिकत झील तक विस्तृत था। उन्होंने 44 वर्षों (लगभग 848-892 ई.) तक शासन किया। उनके कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को युवराज घोषित किया। किंतु दुर्भाग्यवश, उनके शासनकाल में ही विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई। फलतः विजयादित्य तृतीय की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य का पुत्र चालुक्य भीम प्रथम वेंगी की राजगद्दी पर बैठा।
चालुक्य भीम प्रथम (892-922 ई.)
विजयादित्य तृतीय की मृत्यु के बाद उनका भतीजा चालुक्य भीम प्रथम, जो विक्रमादित्य का पुत्र था, 892 ई. में पूर्वी चालुक्य वंश का उत्तराधिकारी बना। उन्हें आरंभ में अत्यंत संकटपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनके चाचा युद्धमल्ल और कुछ अन्य पारिवारिक सदस्य उनके राज्यारोहण का विरोध कर रहे थे। युद्धमल्ल ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय से सहायता माँगी। कृष्ण ने तुरंत अपनी पराजय का बदला लेने के लिए एक सेना वेंगी भेजी। वेमुलवाड के चालुक्य अभिलेखों और कन्नड़ कवि पंप के पंपभारत अथवा विक्रमार्जुनविजय से पता चलता है कि राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के सामंत वड्डेग ने वेंगी पर आक्रमण किया। राष्ट्रकूट सैनिकों ने गुंटूर और नेल्लोर तक चालुक्य राज्य को रौंद डाला और चालुक्य राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। युद्धभूमि में भीम को बंदी बना लिया गया, किंतु कुछ समय बाद कृष्ण द्वितीय ने उसे मुक्त कर दिया।
भीम प्रथम अपनी पराजय से निराश नहीं हुए। उन्होंने कुसुमायुध (मुदुगोंड के चालुक्यों का प्रधान) जैसे स्वामिभक्त समर्थकों की सहायता से राष्ट्रकूट आक्रमणकारियों को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद, उन्होंने अपना अभिषेक करवाया और विष्णुवर्धन की उपाधि धारण की।
किंतु उनके राज्यारोहण के कुछ समय बाद कृष्ण द्वितीय के सेनापति दंडेश गुंडय ने पुनः चालुक्यों पर आक्रमण किया। इस अभियान में राष्ट्रकूटों के साथ लाट और कर्नाट प्रदेश की सेनाएँ भी थीं। भीम और उनके पुत्र युवराज इरिमर्तिगंड ने निर्वधपुर (पूर्वी गोदावरी जिले का निधवोलु) में आक्रमणकारियों को परास्त कर पीछे ढकेल दिया। इसके बाद, पेरुवंगुरुग्राम (पश्चिमी गोदावरी जिले के एल्लोरे तालुक में स्थित पेदवंगुरु) के युद्ध में चालुक्य भीम की सेना ने राष्ट्रकूटों, लाटों और कर्नाट की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया। इस युद्ध में राष्ट्रकूट सेनापति दंडेश गुंडय मारा गया, किंतु चालुक्य युवराज इरिमर्तिगंड भी स्वर्ग सिधार गए। इस प्रकार, चालुक्य भीम ने राष्ट्रकूटों के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा करने में सफलता प्राप्त की।
चालुक्य भीम ने सर्वलोकाश्रय, त्रिभुवनांकुश, द्रोणाचार्य, परमब्रह्मण्य और ऋतसिद्ध जैसी उपाधियाँ धारण कीं। वह शिव का परम उपासक था। उन्होंने द्राक्षाराम और भीमवरम में शिवमंदिरों का निर्माण करवाया। उनके कम से कम दो पुत्र थे—विजयादित्य और विक्रमादित्य। लगभग 30 वर्षों तक शासन करने के बाद, 922 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
विजयादित्य चतुर्थ (922 ई.)
चालुक्य भीम प्रथम की मृत्यु के बाद, उनका पुत्र विजयादित्य चतुर्थ 922 ई. में वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। उन्होंने गंडभाष्कर और कोल्लभिगंड की उपाधियाँ धारण कीं। यद्यपि उन्होंने मात्र छह महीने शासन किया, किंतु इस अल्पकाल में उन्होंने न केवल राष्ट्रकूटों को पराजित किया, बल्कि दक्षिण विरजापुरी के युद्ध में कलिंग के गंगों के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की। दुर्भाग्यवश इसी युद्ध में उनकी मृत्यु हो गई।
अम्म प्रथम (922-929 ई.)
विजयादित्य चतुर्थ के दो पुत्र थे—अम्मराज प्रथम और भीम द्वितीय। उनकी मृत्यु के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र अम्म प्रथम वेंगी का उत्तराधिकारी बना। इस समय वेंगी के चालुक्य राज्य की स्थिति अत्यंत नाजुक थी। उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर आंतरिक संघर्ष शुरू हो गया, जिसमें अम्मराज प्रथम के चाचा विक्रमादित्य द्वितीय की मुख्य भूमिका थी। चालुक्यों का परंपरागत शत्रु राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय भी विद्रोहियों का साथ दे रहा था। इस विषम परिस्थिति में अम्मराज प्रथम ने दृढ़तापूर्वक परिस्थितियों का सामना किया और अपने समर्थकों की सहायता से 922 ई. के अंत में वेंगी की राजगद्दी पर अधिकार करने में सफल हो गया। उन्होंने राजमहेंद्र और सर्वलोकाश्रय की उपाधियाँ धारण कीं। उन्होंने कुल सात वर्षों (922-929 ई.) तक शासन किया।
अल्पकालिक चालुक्य शासक
अभिलेखों में अम्म प्रथम के दो पुत्रों—विजयादित्य पंचम और भीमराज की सूचना मिलती है। अम्म प्रथम की असामयिक मृत्यु के बाद उनका अवयस्क पुत्र विजयादित्य पंचम राजा बना। उन्हें कंठिक विजयादित्य या कंठक बेत के नाम से भी जाना जाता है। विजयादित्य पंचम मात्र 15 दिन शासन कर सका, क्योंकि युद्धमल्ल प्रथम के पुत्र ताल (तालप, ताड या ताडप) ने राष्ट्रकूटों की सहायता से उन्हें बंदी बनाकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
एक महीने बाद चालुक्य भीम प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने ताल को पराजित कर मार डाला और वेंगी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य द्वितीय ने लगभग एक वर्ष तक शासन किया। अपने अल्प शासनकाल में उन्होंने त्रिकलिंग को पुनः जीता, जो भीम प्रथम के बाद स्वतंत्र हो गया था। इसके बाद अम्म प्रथम के पुत्र भीमराज (भीम द्वितीय) ने विक्रमादित्य द्वितीय को अपदस्थ कर वेंगी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। इस घटना की सूचना दिगुमर्डु अभिलेख से मिलती है।
भीमराज (भीम द्वितीय) केवल आठ महीने शासन कर सका। उसे ताल प्रथम के पुत्र युद्धमल्ल द्वितीय ने एक युद्ध में पराजित कर मार डाला और चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया। युद्धमल्ल को यह सफलता राष्ट्रकूट नरेश इंद्र तृतीय की सहायता से मिली।
युद्धमल्ल द्वितीय (929-935 ई.)
युद्धमल्ल द्वितीय नाममात्र का शासक था। उनके शासनकाल में राष्ट्रकूट शासकों और उनके सामंतों के हस्तक्षेप के कारण वेंगी के चालुक्य राज्य में अराजकता और अव्यवस्था फैली रही। उनके अन्य भाई और सगे-संबंधी भी उन्हें सिंहासन से हटाने के लिए षड्यंत्र रच रहे थे। उन्होंने लगभग सात वर्षों तक शासन किया।
चालुक्य भीम द्वितीय (936-948 ई.)
वेंगी के चालुक्य राज्य को गृहयुद्ध और अराजकता के भंवर से निकालने का श्रेय चालुक्य भीम द्वितीय को है। वह विजयादित्य चतुर्थ की पत्नी मेलांबा से उत्पन्न पुत्र और अम्म प्रथम के सौतेले भाई थे।
चालुक्य भीम द्वितीय ने लगभग पाँच वर्षों तक राष्ट्रकूटों और अपने संबंधियों से निरंतर संघर्ष किया। 930 ई. में गोविंद के शासन के विरुद्ध उनके कुछ उच्च अधिकारियों ने बड्डेग और उनके पुत्र कन्नर के नेतृत्व में विद्रोह किया। गोविंद इसे दबा नहीं सका और विद्रोह बढ़ता गया। राष्ट्रकूटों की आंतरिक कलह का लाभ उठाकर चालुक्य भीम द्वितीय ने राष्ट्रकूट सेनाओं को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया। युद्धमल्ल के पास हथियार डालने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। उनके दोनों पुत्रों—बाडप और ताल द्वितीय ने भागकर राष्ट्रकूट दरबार में शरण ली। इस प्रकार 936 ई. के आसपास भीम द्वितीय ने वेंगी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया।
राज्यारोहण के बाद भीम द्वितीय ने विष्णुवर्धन, गंडमहेंद्र, राजमार्तंड, सर्वलोकाश्रय और त्रिभुवनांकुश जैसी उपाधियाँ धारण कीं। संभवतः उन्होंने बैजवाड़ा में मल्लेश्वर स्वामी के मंदिर और इसके निकट एक बौद्ध विहार का निर्माण करवाया।
उनकी दो रानियों की सूचना मिलती है—पूर्वी गंग राजकुमारी अंकिदेवी और एक अज्ञात कुल की लोकांबा। अंकिदेवी से दानार्णव और लोकांबा से अम्म द्वितीय उत्पन्न हुए। भीम द्वितीय ने अपने आठ वर्षीय पुत्र अम्मराज द्वितीय को युवराज नियुक्त किया। लगभग 12 वर्षों तक शासन करने के बाद 947 ई. के आसपास उनकी मृत्यु हो गई।
अम्म द्वितीय (947-970 ई.)
भीम द्वितीय की मृत्यु के बाद उनका पुत्र अम्म द्वितीय 947 ई. के आसपास वेंगी का राजा बना। उनका संपूर्ण शासनकाल संघर्षों में व्यतीत हुआ। उनके सिंहासनारोहण के बाद युद्धमल्ल द्वितीय के दोनों पुत्रों—बाडप और ताल द्वितीय ने, जो अपने पिता की मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट दरबार में भाग गए थे, कृष्ण तृतीय की सहायता से वेंगी पर आक्रमण किया। अम्म द्वितीय के कई अधिकारी भी उनसे जा मिले। विवश होकर अम्म द्वितीय वेंगी छोड़कर भाग गया। बाडप ने वेंगी पर अधिकार कर ‘विजयादित्य’ के नाम से शासन शुरू किया।
बाडप और ताल द्वितीय के अभिलेखों से पता चलता है कि बाडप की मृत्यु के बाद उनका छोटा भाई ताल द्वितीय विष्णुवर्धन के नाम से वेंगी का राजा बना। किंतु ताल द्वितीय अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। कुछ समय प्रवास में रहने के बाद अम्म द्वितीय वेंगी लौट आया। उन्होंने अपने सामंतों और कोलनु के सरदार नृपकाम की सहायता से ताल द्वितीय को युद्ध में मारकर वेंगी की राजगद्दी पुनः हासिल कर ली।
अम्म द्वितीय अधिक समय तक शांति से शासन नहीं कर सका। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 950 ई. में चोल राज्य जीतने के बाद वेंगी पर विजय के लिए अपनी सेना भेजी। उन्होंने कूटनीति का सहारा लेकर अम्म द्वितीय के भाई दानार्णव को वेंगी की गद्दी पर बैठाने का आश्वासन देकर अपनी ओर मिला लिया। राष्ट्रकूटों और दानार्णव की संयुक्त सेना से पराजित होकर अम्म द्वितीय कलिंग भाग गया। कृष्ण ने अपने वादे के अनुसार दानार्णव को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया। किंतु जैसे ही राष्ट्रकूट सेना वेंगी से लौटी, अम्म द्वितीय ने कलिंग से वापस आकर दानार्णव को अपदस्थ कर वेंगी की राजगद्दी पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद भी अम्म और दानार्णव के बीच संघर्ष जारी रहा। अंततः 970 ई. के आसपास दानार्णव ने मुदुगोंड वंश के मल्लन और गोंडिम की सहायता से अम्म द्वितीय को मार डाला और वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया।
अम्म द्वितीय ने राजमहेंद्र, त्रिभुवनांकुश और समस्तभुवनाश्रय की उपाधियाँ धारण कीं। अनुश्रुतियों के अनुसार उन्होंने राजमहेंद्रपुर नामक नगर की स्थापना की और चेमका नामक गणिका की प्रार्थना पर सर्वलोकेश्वर जिनवल्लभ जैन मंदिर के लिए एक गांव दान दिया।
दानार्णव (970-973 ई.)
दानार्णव ने अम्म द्वितीय को मारकर 970 ई. के लगभग वेंगी की राजगद्दी प्राप्त की। किंतु वे केवल तीन वर्ष (970-973 ई.) शासन कर सके। पेदुकल्लु का तेलुगु चोड प्रमुख जटाचोड भीम, जो अम्म द्वितीय का साला था, ने अपने बहनोई की मृत्यु का बदला लेने के लिए 973 ई. में दानार्णव की हत्या कर वेंगी पर अधिकार कर लिया।
चालुक्य शासन में व्यवधान
जटाचोड भीम (973-999 ई.)
दानार्णव की मृत्यु के बाद, जटाचोड भीम के वेंगी पर अधिकार करने के साथ ही वहां कुछ समय (973-999 ई.) के लिए चालुक्य राजवंश का शासन समाप्त हो गया और एक नए वंश की सत्ता स्थापित हुई। जटाचोड पेदुकल्लु के तेलुगु वंश का प्रधान था। उनका शासनकाल वेंगी के चालुक्य इतिहास में अंतराल के रूप में जाना जाता है।
जटाचोड भीम एक शक्तिशाली शासक था। उन्होंने अंग, कलिंग, द्रविड़ आदि के राजाओं को पराजित किया और महेंद्रगिरि से काँची तक के संपूर्ण तटीय प्रदेश और बंगाल की खाड़ी से कर्नाटक तक अपने राज्य का विस्तार किया।
दानार्णव की हत्या के बाद उनके पुत्र शक्तिवर्मन और विमलादित्य ने पहले कलिंग के गंग शासक के यहाँ शरण ली। किंतु जब जटाचोड भीम ने गंगों पर आक्रमण किया, तो दोनों राजकुमारों ने चोल शासक राजराज प्रथम के यहाँ शरण ली। राजराज चोल ने चालुक्य राजकुमारों की सहायता के बहाने अपनी विस्तारवादी नीति को कार्यान्वित करने की योजना बनाई।
राजराज ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री कुंददैदेवी का विवाह कर चालुक्य राजकुमारों से मित्रता को सुदृढ़ किया और शक्तिवर्मन को वेंगी की गद्दी पर बैठाने के लिए 999 ई. के आसपास जटाचोड भीम पर आक्रमण किया।
राजराज के चौदहवें वर्ष के अभिलेख से पता चलता है कि उन्होंने वेंगी पर अधिकार कर लिया था। जटाचोड भीम ने भागकर कलिंग के पहाड़ों और जंगलों में आश्रय लिया। शक्तिवर्मन को वेंगी की गद्दी पर आसीन करने के बाद, चोल सेना स्वदेश लौट गई।
शक्तिवर्मन वेंगी पर शांति से शासन नहीं कर सका। कलिंग में जटाचोड अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने में लगा रहा। जैसे ही चोल सेना वेंगी से लौटी, उसने वेंगी पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। इसके बाद, उसने आगे बढ़कर चोलों के दूसरे नगर काँची को जीत लिया।
जटाचोड की यह सफलता क्षणिक थी। राजराज ने जटाचोड की सेनाओं को न केवल अपने साम्राज्य से बाहर खदेड़ दिया, बल्कि विजय करते हुए कलिंग तक पहुँच गया। युद्ध में जटाचोड भीम पराजित हुआ और 999 ई. के लगभग मार दिया गया। इसके बाद राजराज ने 1003 ई. के आसपास शक्तिवर्मन को पुनः वेंगी का शासक बनाया।
शक्तिवर्मन प्रथम (999-1011 ई.)
जटाचोड भीम के बाद, दानार्णव का पुत्र शक्तिवर्मन प्रथम चोलों की सहायता से वेंगी का शासक बना। इसके साथ ही वेंगी में चालुक्य वंश का शासन पुनः स्थापित हुआ।
यद्यपि शक्तिवर्मन ने बारह वर्षों (999-1011 ई.) तक शासन किया, किंतु उनके शासनकाल की घटनाओं के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। उन्होंने चोलों की सहायता से वेंगी का सिंहासन प्राप्त किया था, इसलिए वे जीवन भर चोलों की अधीनता स्वीकार करते रहे।
कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों के एक अभिलेख से पता चलता है कि वहां के शासक तैलप द्वितीय के पुत्र सत्तिग या सत्याश्रय ने 1006 ई. में बायलनंबि के नेतृत्व में वेंगी पर आक्रमण के लिए एक सेना भेजी थी। यद्यपि बायलनंबि ने शक्तिवर्मन को हरा दिया, किंतु चोलों की सहायता से वे अपने राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहे। शक्तिवर्मन ने चालुक्यनारायण, चालुक्यचंद्र, सर्वलोकाश्रय और विष्णुवर्धनमहाराज जैसी उपाधियाँ धारण कीं। उन्होंने 1011 ई. तक शासन किया।
विमलादित्य (1011-1018 ई.)
शक्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के बाद, उनके छोटे भाई विमलादित्य ने वेंगी पर शासन किया। वे पूर्णतः चोलों के अधीन थे। एक अभिलेख से पता चलता है कि जैन साधु त्रिकालयोगी सिद्धांतदेव उनके गुरु थे, जिससे प्रतीत होता है कि वे जैन धर्म में दीक्षित थे।
अपने पूर्वजों की भाँति विमलादित्य ने परमब्रह्मण्य और माहेश्वर की उपाधियाँ धारण कीं। उन्होंने लगभग सात वर्ष (1011-1018 ई.) शासन किया। उनकी दो पत्नियों—कुंददैदेवी और मेलमा की सूचना मिलती है। कुंददैदेवी चोल राजराज प्रथम की पुत्री थी, जिससे राजराज नरेंद्र नामक पुत्र हुआ। मेलमा संभवतः जटाचोड भीम की पुत्री थी, जिससे विजयादित्य उत्पन्न हुआ। विमलादित्य की मृत्यु के बाद उनके दोनों पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए विवाद उत्पन्न हुआ।
राजराज नरेंद्र (1018-1061 ई.)
विमलादित्य की मृत्यु के बाद कुंददैदेवी से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र राजराज नरेंद्र 1018 ई. में वेंगी की गद्दी पर बैठा। मेलमा के पुत्र विजयादित्य ने उनके उत्तराधिकार का विरोध किया और कल्याणी के चालुक्य जयसिंह द्वितीय ‘जगदेकमल्ल’ की सहायता से वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया। किंतु राजराज नरेंद्र ने अपने मामा राजेंद्र चोल की सहायता से 1022 ई. के लगभग वेंगी का सिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया।
राजराज नरेंद्र और विजयादित्य के बीच संघर्ष जारी रहा। कल्याणी के चालुक्य विजयादित्य का समर्थन कर रहे थे, जबकि राजराज नरेंद्र को चोलों की सहायता प्राप्त थी। कल्याणी के चालुक्यों की सहायता से विजयादित्य सप्तम ने 1030 ई. में वेंगी की गद्दी हासिल कर ली। किंतु 1035 ई. में राजराज नरेंद्र ने पुनः सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
राजराज नरेंद्र अधिक समय तक शांति से शासन नहीं कर सके। 1042 ई. में कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण किया। राजराज की सहायता के लिए राजेंद्र चोल ने अपनी सेना भेजी। चोल और चालुक्य सेनाओं के बीच कलिदिंडि का युद्ध हुआ, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। किंतु कुछ समय बाद, सोमेश्वर ने वेंगी पर पुनः आक्रमण कर उसे जीत लिया। राजराज ने चोलों के स्थान पर पश्चिमी चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली।
1045 ई. के राजाधिराज प्रथम के एक अभिलेख से पता चलता है कि उन्होंने धान्यकटक के युद्ध में सोमेश्वर प्रथम की सेना को पराजित कर चालुक्यों को वेंगी से बाहर कर दिया था। किंतु 1047 ई. के एक अभिलेख में सोमेश्वर की वेंगी विजय का वर्णन मिलता है। 1049 से 1054 ई. तक के अभिलेखों में उनके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय को वेंगी पुरवरेश्वर की उपाधि दी गई है। पश्चिमी चालुक्यों के 1055-56 ई. के कई अभिलेख गोदावरी जिले के द्राक्षाराम से मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राजराज नरेंद्र के शासन के अंत (1061 ई.) तक वेंगी पर पश्चिमी चालुक्यों का अधिकार बना रहा।
इस प्रकार राजराज का इकतालीस वर्षीय शासनकाल संघर्षों में व्यतीत हुआ। चोल और चालुक्य शासक वेंगी को समरांगण मानकर शक्ति-परीक्षण करते रहे। राजराज नरेंद्र ने अपनी ममेरी बहन अम्मंगै से विवाह किया, जो राजेंद्र चोल की पुत्री थी। इससे उत्पन्न पुत्र का नाम राजेंद्र चोल के नाम पर राजेंद्र रखा गया।
विजयादित्य सप्तम (1061-1073 ई.)
राजराज नरेंद्र की मृत्यु के बाद उनका छोटा सौतेला भाई विजयादित्य सप्तम 1061 ई. में वेंगी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक बना। उन्होंने कल्याणी के चालुक्यों की सहायता से अपने सौतेले भाई राजराज नरेंद्र को अपदस्थ करने के लिए निरंतर प्रयास किया और आरंभ में कुछ सफल भी हुए। बाद में, वे कल्याणी के चालुक्यों की शरण में चले गए और उनके अधीन नोलंबवाडि में शासन करने लगे।
सिंहासन ग्रहण करने के बाद विजयादित्य सप्तम ने अपने पुत्र शक्तिवर्मन द्वितीय के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया और पुनः नोलंबवाडि चले गए। किंतु मात्र एक वर्ष के शासन के बाद शक्तिवर्मन चोलों के विरुद्ध लड़ते हुए मारा गया। इसके बाद विजयादित्य पुनः वेंगी की राजगद्दी पर बैठे।
विजयादित्य सप्तम कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर के अधीन थे। सोमेश्वर ने उनके नेतृत्व में एक सेना दक्षिण की ओर चोलों से युद्ध करने के लिए भेजी। इसी बीच, सोमेश्वर की मृत्यु हो गई और विजयादित्य को चोलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इसके बाद 1068 ई. तक वे वेंगी में चोलों के सामंत के रूप में शासन करते रहे।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि विजयादित्य को वेंगी का शासक बनाए जाने का उनके भतीजे राजेंद्र ने विरोध किया, किंतु कलिंग के गंग शासक देवेंद्रवर्मा की सहायता से वे 1072-73 ई. तक वेंगी पर शासन करते रहे।
1073 ई. के आसपास डाहल के चेदि शासक यशःकर्णदेव ने वेंगी पर आक्रमण किया और आंध्र शासक को नष्ट कर दिया। इसी प्रकार गंग शासक राजराज देवेंद्रवर्मन के एक सेनापति ने अपने अभिलेख में दावा किया कि उन्होंने वेंगी शासक को कई बार पराजित किया और उनकी संपत्ति को अपहृत कर लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि विजयादित्य वेंगी से भागकर पश्चिमी चालुक्यों के अधीन नोलंबवाडि में शासन करने लगे और वहीं 1075 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। विजयादित्य के बाद वेंगी का चालुक्य राज्य शक्तिशाली चोल साम्राज्य में विलीन हो गया।










