Table of Contents
1935 के अधिनियम के अधीन प्रांतों में कांग्रेसी सरकारें
सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति (1934) के बाद कांग्रेस के अंदर गंभीर मतभेद पैदा हो गये, जैसे इससे पहले असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद हुए थे। जहाँ गांधीजी सक्रिय राजनीति से कुछ समय के लिए अलग हो गये और हरिजनोद्धार जैसे रचनात्मक कार्यों में लग गये, वहीं समाजवादी और दूसरे वामपंथी तत्त्वों ने मई 1934 में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ (कांसपा) का गठन कर लिया। तय हुआ कि कांसपा कांग्रेस के भीतर रहकर ही काम करेगी, उसके रुझान को एक समाजवादी कार्यक्रम की ओर मोड़ने और रूढ़िवादी दक्षिणपंथियों के प्रभुत्व को कम करने के प्रयास करेगी। लेकिन कांग्रेस के अंदर भावी रणनीति को लेकर यह बहस प्रारंभ हो गई कि ऐसे समय में, जब जनांदोलन सुसुप्तावस्था में है, राजनीतिक गतिविधियों को किस तरह संचालित किया जाए?
गांधीजी ने गाँवों में रचनात्मक कार्य करने और दस्तकारी को बढ़ावा देने पर जोर दिया। उनके अनुसार ‘‘इन रचनात्मक कार्यों से जनशक्ति संगठित होगी, जनांदोलन के अगले चरण के लिए किसानों को संगठित करने में मदद मिलेगी। कांग्रेस कार्यकर्ता हर समय सक्रिय रहेंगे और जब भी संघर्ष का आह्वान किया जायेगा, वे संघर्ष में शामिल हो जायेंगे।’’ कांग्रेस के एक दूसरे समूह का विचार था कि राजनीतिक निराशा के इस दौर में एक बार फिर चुनावों में भाग लेकर विधानमंडलों में घुसकर राजनीतिक संघर्ष करना चाहिए, ताकि जनता के मनोबल को गिरने से बचाया जा सके। अपरिवर्तनवादी नेता राजगोपालचारी ने भी नवस्वराजियों की रणनीति का समर्थन किया और सुझाव दिया कि संसदीय कार्य सीधे कांग्रेस के निर्देश में होना चाहिए। इन नये स्वराजियों में आसफ अली, सत्यमूर्ति, डा. एम.ए. अंसारी, भूलाभाई देसाई तथा विधानचंद्र राय प्रमुख थे।
कांग्रेस का वामपंथी समूह, जिसका नेतृत्व पं. जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे, रचनात्मक कार्य प्रारंभ करने और विधानमंडल में भागीदारी, दोनों का विरोधी था। नेहरू का विचार था कि लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्णस्वराज्य’ के कार्यक्रम को तय किये जाने के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ हमें औपनिवेशिक सत्ता से तब तक संघर्ष करते रहना होगा, जब तक कि हम उसे पूर्णरूपेण उखाड़ फेंकने में सफल न हो जाएं। नेहरू ने इस बात पर जोर दिया कि कांग्रेस को ‘निरंतर संघर्ष’ की रणनीति का पालन करना चाहिए और उसे साम्राज्यवादी ढांचे से सहयोग एवं समझौते के जाल में नहीं फँसना चाहिए।
इस प्रकार जहाँ एक ओर भारतीय राष्ट्रवादी असमंजस में थे, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश हुकूमत यह मानकर चल रही थी कि आज नहीं तो कल, कांग्रेस में सूरत की तरह एक और विभाजन होना ही है। किंतु गांधीजी ने अपनी दूरदर्शिता से कांग्रेस को विभाजित होने से बचा लिया। उन्होंने कौंसिलों में भागीदारी के समर्थकों की माँग को स्वीकार कर लिया। मई 1934 में पटना में गांधी के निर्देशन में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने चुनाव में भाग लेने का फैसला किया। लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में सी. राजगोपालाचारी व अन्य दक्षिणपंथियों के दबाव के बावजूद गाँधी ने अध्यक्ष के पद के लिए नेहरू के नाम का समर्थन करके वामपंथी गुट को भी प्रसन्न कर दिया। नेहरू और समाजवादियों का भी मानना था कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पहले औपनिवेशिक शासन का अंत किया जाना आवश्यक है और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में कांग्रेस का सहयोग करना जरुरी है, क्योंकि कांग्रेस ही भारतीयों का एकमात्र प्रमुख संगठन है। दक्षिणपंथियों ने भी सही रणनीति अपनाई, फलतः नवंबर 1934 में केंद्रीय विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस ने प्रशंसनीय प्रदर्शन करते हुए भारतीयों के लिए आरक्षित 75 सीटों में से 45 सीटें जीत लीं। वायसराय विलिंगडन विलाप करने लगे : ‘यह हमारे लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि यह गांधी की बहुत बड़ी जीत है।’
ब्रिटिश सरकार की रणनीति
ब्रिटिश सरकार 1932-33 के राष्ट्रीय आंदोलन को निर्दयता से दबाने में सफल तो हो गई थी, किंतु उसे यह एहसास भी हो गया था कि अब ताकत के बल पर राष्ट्रवादी भावनाओं को ज्यादा दिन तक नहीं दबाया जा सकता। अब सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन को स्थायी रूप से कमजोर करने के लिए एक रणनीतिक योजना तैयार की कि संवैधानिक सुधारों के द्वारा कांग्रेस के एक गुट को संतुष्टकर औपनिवेशिक प्रशासन में समाहित कर लिया जाए और इसके बाद राष्ट्रवादी आंदोलन की बची-खुची शक्ति को दमन से समाप्त कर दिया जायेगा।
ब्रिटिश सरकार ने गॅवर्नमेंट आफ इंडिया ऐक्ट 1935 के द्वारा एक नये अखिल भारतीय संघ की स्थापना और प्रांतों में स्वायत्तता के आधार पर एक नई शासन-प्रणाली की व्यवस्था की। यह संघ ब्रिटिश भारत के प्रांतों तथा रजवाड़ों पर आधारित था। केंद्र में दो सदनोंवाली एक संघीय विधायिका की व्यवस्था थी, जिसमें रजवाड़ों को भिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गया था, किंतु रजवाड़ों के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें वहाँ के शासक मनोनीत करते। ब्रिटिश भारत की केवल 14 प्रतिशत (छठवाँ हिस्सा) जनता को मताधिकार प्राप्त था।
इस प्रकार विधायिका में राष्ट्रवादी तत्वों को नियंत्रण में रखने के लिए राजा-महाराजाओं का उपयोग किया गया था, किंतु तब भी इसे वास्तविक शक्ति नहीं दी गई थी। रक्षा और विदेश विभाग इनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर थे, जबकि दूसरे विषयों पर गवर्नर जनरल का विशेष नियंत्रण था। गवर्नर जनरल और गवर्नरों की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती और वे उसी के प्रति उत्तरदायी थे।
प्रांतों को अधिक स्थानीय अधिकार दिये गये। इसके तहत सभी प्रांतीय कामकाज उत्तरदायी मंत्रियों को देखना था। प्रांतीय प्रशासन की डोर मंत्रियों के हाथ में तो थी, लेकिन उनके ऊपर गर्वनरों की नियुक्ति का प्रावधान था। गवर्नर को ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त थे, कि वह जब चाहे प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता था और जब तक चाहे उस पर अपना अधिकार बनाये रख सकता था, विशेषकर अल्पसंख्यकों, अधिकारियों, कानून व्यवस्था और अंग्रेजों के हितों से संबद्ध जैसे मामलों में।
इस प्रकार नये अधिनियम में भी वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक सत्ता अंग्रेजों के ही हाथ में थी, उपनिवेशवाद की पकड़ कहीं से भी ढीली नहीं हुई थी। ब्रिटिश सरकार को उम्मीद थी कि उदारपंथी तथा संवैधानिक नरमपंथी, जो सविनय अवज्ञा आदोलन के दौरान जन-समर्थन खो चुके हैं, सुधारों के द्वारा सरकार की ओर आकर्षित हो जायेंगे। संवैधानिक संघर्ष में आस्था रखनेवाले लोगों को संवैधानिक तथा अन्य रियायतों द्वारा सरकार के प्रति निष्ठावान बना लिया जायेगा और उन्हें जन-आंदोलन की मुख्य धारा से अलग कर दिया जायेगा। एक बार सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद ये कांग्रेसी संघर्ष और बलिदान की राजनीति में वापस नहीं लौटेंगे।
1935 के अधिनियम की संयुक्त संसदीय कमेटी के अध्यक्ष और 1936 से भारत के वायसरॉय लिनलिथगो ने तो बाद में लिखा भी कि ‘‘अधिनियम 1935 तो इसलिए पारित किया गया क्योंकि हम समझते थे कि भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व बरकरार रखने का सबसे बढ़िया तरीका यही है। भारतीयों के हित में संविधान में संशोधन करना हमारी नीति नहीं थी और न हम भारतीयों को सत्ता सौंपने की जल्दबाजी में ही थे। हमारा तो प्रयास यही था कि जब तक संभव हो, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना रहे।’’
ब्रिटिश सरकार को यह भी आशा थी कि सुधारों के सवाल पर कांग्रेस विभाजित हो जायेगी। कांग्रेस में उदारवादियों और संविधानवादियों तथा वामपंथियों और दक्षिणपंथियों में संघर्ष प्रारंभ हो जायेगा। इसके बाद उदारवादियों को सुधारों और रियायतों के बल पर जनांदोलन की राह से अलग कर दिया जायेगा, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर पड़ जायेगा।
यदि सरकार संविधानवादियों को अपनी ओर मोड़ने में सफल रही, तो जुझारू और वामपंथी ताकतें जल-भुन उठेंगी। इस प्रकार वामपंथी या तो खुद कांग्रेस से अलग हो जायेंगे या दक्षिणपंथी ताकतें इन्हें खुद कांग्रेस से निकाल बाहर कर देंगी, यानी कांग्रेस हर हाल में टूट जायेगी। इसके बाद कांग्रेस और दक्षिणपंथी गुट से अलग-थलग पड़े वामपंथियों को शक्ति के बल पर कुचल दिया जायेगा।
प्रांतीय स्वयत्तता भी ब्रिटिश सरकार की एक कुटिल चाल थी। अंग्रेजी हुकूमत जानती थी कि प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने से सशक्त प्रांतीय नेताओं का उदय होगा, जो प्रशासनिक अधिकारों को अपने ढंग से प्रयोग करना चाहेंगे। धीरे-धीरे ये प्रांतीय नेता राजनीतिक शक्ति के स्वायत्त केंद्र बन जायेंगे। इससे कांग्रेस का प्रांतीयकरण हो जायेगा और कांग्रेस का अखिल भारतीय केंद्रीय नेतृत्व यदि समाप्त न भी हो सका, तो महत्त्वहीन और उपेक्षित तो हो ही जायेगा। 1936 में लिनलिथगो ने लिखा था : ‘‘सीधे संघर्ष से बचने का सबसे बढिया तरीका है- प्रांतीय स्वायत्तता, क्योंकि प्रांतीय स्वायत्तता के माध्यम से ही क्रांति के सबसे बड़े हथियार कांग्रेस को नष्ट किया जा सकता है।’’
ब्रिटिश सरकार को जैसे ही आभास हुआ कि कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथी और वामपंथी आपस में लड़ने लगे हैं, तो उसने आंदोलन के प्रति आक्रामक रवैया अपनाना छोड़ दिया। 1935 के बाद सरकार अप्रत्याशित रूप से नरमी दिखाने लगी। जब पं. नेहरू संविधानवादियों और दक्षिणपंथियों की खुलेआम आलोचना कर रहे थे और औपनिवेशिक सत्ता को क्रांतिकारी आंदोलन के माध्यम से उखाड़ फेंकने तथा समाजवादी समाज की स्थापना करने का आह्वान कर रहे थे, तब सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। सरकार समझ रही थी कि नेहरू के इस काम से कांग्रेस टूट जाएगी। मद्रास के गवर्नर एस्किने ने वायसराय को सलाह दी कि ‘‘नेहरू इस तरह का भाषण जितना ज्यादा दें, उतना ही अच्छा है, क्योंकि उनके यही भाषण कांग्रेस-विभाजन के कारण बनेंगे। हमें तो नेहरू के प्रति उदारपंथी रूख अपनाना चाहिए क्योंकि यह व्यक्ति न चाहते हुए भी कांग्रेस को भीतर से ढहा रहा है।’’
सत्ता में भागीदारी का मुद्दा
ब्रिटिश सरकार ने अधिनियम 1935 की घोषणा ही नहीं की, बल्कि उसे तुरंत लागू भी कर दिया। प्रांतीय स्वायत्तता पर अमल करते हुए 1937 के प्रारंभ में प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव की घोषणा कर दी गई। कांग्रेस ने एक स्वर से 1935 के अधिनियम को ‘निराशाजनक’ कहकर नामंजूर कर दिया। किंतु कांग्रेस में इस बात पर सहमति थी कि व्यापक आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम को आधार बनाकर कांग्रेस को चुनाव में भाग लेना चाहिए। इससे जनता में साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना और मजबूत होगी। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि चुनाव के बाद क्या किया जायेगा? यदि चुनाव में कांग्रेस को प्रांतों में बहुमत मिला, तो उसे सरकार बनानी चाहिए या नहीं? यह प्रश्न एक बार फिर राष्ट्रवादियों के बीच बहस का विषय बन गया।
जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, कांसपा एवं वामपंथी नेताओं ने सत्ता में भागीदारी का विरोध किया। नेहरू ने स्पष्ट शब्दों में कहा : पहली बात तो यह है कि सत्ता में भागीदारी का मतलब अधिनियम 1935 को स्वीकार करना होगा, खुद को दोषी ठहराना होगा। यह तो बिना अधिकार के उत्तरदायित्व वहन करना होगा, क्योंकि राज्य और सत्ता के ढाँचे अपरिवर्तित रहेंगे। कांग्रेस जनता के लिए कुछ कर नहीं पायेगी, उल्टे वह किसी न किसी रूप में दमनकारी साम्राज्यवादी सत्ता का एक हिस्सा बन जायेगी और जनता के शोषण में उसका सहयोग करेगी। दूसरे, सत्ता में भागीदारी से जन-आंदोलन का क्रांतिकारी चरित्र समाप्त हो जायेगा, कांग्रेस संसदीय कार्यों में उलझकर साम्राज्यवादी शासन का एक अंग बनकर रह जायेगी और स्वतंत्रता, सामाजिक-आर्थिक न्याय तथा गरीबी दूर करने का उसका लक्ष्य पीछे छूट जायेगा।
सत्ता में भागीदारी के समर्थक पुराने स्वराज्यवादियों की तरह चाहते थे कि संसद में घुसकर सरकारी कदमों का विरोध किया जाए और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दी जायें कि 1935 के अधिनियम पर अमल ही न हो सके। नवस्वराजियों ने दीर्घकालिक रणनीति के तहत सुझाव दिया कि मजदूरों और किसानों को वर्गीय आधार पर संगठित किया जाए और इन संगठनों को कांग्रेस से जोड़ा जायें तत्पश्चात् कांग्रेस को समाजवादी राह पर लाकर आंदोलन को पुनः प्रारंभ करने का प्रयास किया जाये।
सत्ता में भागीदारी के समर्थकों का कहना था कि वे भी 1935 के अधिनियम का विरोध करते हैं और उसे खत्म करना चाहते हैं, किंतु सत्ता में भागीदारी एक अल्पकालिक रणनीति है। इससे स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती, लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में संसदीय संघर्ष की राजनीति अपनाना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि इस समय जन-आंदोलन का कोई अन्य विकल्प नहीं है। यद्यपि इसके कई खतरे भी हैं और सत्ता में किसी भी पद को धारण करनेवाला कांग्रेसी किसी गलत रास्ते पर भी जा सकता है, लेकिन हमें इन खतरों और बुराइयों से डरकर प्रशासन में भागीदारी का बहिष्कार नहीं करना चाहिए। यदि कांग्रेस सत्ता में भागीदारी नहीं करेगी तो तमाम ऐसे गुट और पार्टियाँ इस ताक में हैं कि कब मौका मिले और वे सत्ता में घुस जाएं। यदि ऐसी ताकतें सत्ता मे घुस गईं तो प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा मिलेगा और राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर होगा। यदि प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनती हैं, तो सीमित अधिकारों के बावजूद कांग्रेसी सरकारें हरिजनोत्थान, खादी प्रचार, मद्य-निषेध, शिक्षा-प्रसार आदि जैसे रचनात्मक कार्यों के साथ-साथ किसानों के ऋण, लगान और मालगुजारी में कमी जैसे काम भी कर सकती हैं।
सत्ता में भागीदारी-संबंधी टकराव 1936 के आरंभ में लखनऊ कांग्रेस में किसी तरह टाल दिया गया। यहाँ राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में और गांधी के आशीर्वाद से प्रतिनिधियों के बहुमत ने स्वीकार किया कि 1935 के कानून के अंतर्गत होने वाले चुनावों में भागीदारी और फिर प्रांतों में पद स्वीकार करने से कांग्रेस के गिरते मनोबल को ऐसे समय में सहारा मिलेगा, जब सीधी कार्रवाई का विकल्प सामने नहीं था।
अगस्त 1936 में बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने चुनावों में भाग लेने का फैसला किया, किंतु पद स्वीकार करने संबंधी निर्णय चुनावों के बाद तक के लिए टाल दिया गया। फैजपुर कांग्रेस में प्रतिनिधियों के बहुमत ने चुनाव में भाग लेने का निर्णय किया। सत्ता में भागेदारी के प्रश्न पर चुनाव के बाद विचार करने का फैसला किया गया।
प्रांतीय चुनाव और प्रांतों में कांग्रेसी सरकारें
कांग्रेस ने 1937 के चुनावों के लिए जारी अपने घोषणा-पत्र में 1935 के भारत शासन अधिनियम को पूरी तरह नामंजूर कर दिया, किंतु नागरिक स्वतंत्रता की बहाली, राजनीतिक कैदियों की रिहाई, कृषि के ढाँचे में व्यापक परिवर्तन, भू-राजस्व और लगान में उचित कमी, किसानों को कर्ज से राहत तथा मजदूरों को हड़ताल करने, विरोध-प्रदर्शन करने तथा संगठन बनाने के अधिकार देने का वादा किया।
कांग्रेस के तूफानी चुनाव-प्रचार को जनता का व्यापक समर्थन मिला, किंतु गांधीजी ने एक भी चुनाव-सभा को संबोधित नहीं किया। फरवरी 1937 में हुए प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव-परिणामों से यह बात सिद्ध हो गई कि जनता का एक बड़ा भाग कांग्रेस के साथ है। कांग्रेस ने 1585 में से 1161 सीटों पर चुनाव लड़ा और 715 सीटें जीतकर सरकार को विस्मय में डाल दिया। कुल ग्यारह प्रांतों में से छः प्रांतों- मद्रास (159), बंबई (88), संयुक्त प्रांत (134), बिहार (98), मध्य प्रदेश (71) तथा उड़ीसा (36) में कांग्रेस को बहुमत मिला। बंगाल (50), असम (35) तथा उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (19) में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। केवल पंजाब (18) और सिंध (7) में कांग्रेस को कम सीटें मिलीं। अधिकांश भारतवासियों और खासकर हिंदुओं की नजर में यह ‘गांधीजी और पीले बक्से के पक्ष में मतदान’ था और यह ऐसे कुछ वास्तविक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के प्रति उनकी आशाओं का सूचक था, जिनके वादे अभी हाल में समाजवादियों और दूसरे वामपंथी कांग्रेसी नेताओं ने किये थे। मार्च 1937 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने नेहरू और कांसपा नेताओं की आपत्तियों को रद्द करके पद स्वीकार करने का निर्णय लिया।
गांधीजी ने इस निर्णय का अनुमोदन किया, लेकिन विधायिकाओं से बाहर अहिंसा और रचनात्मक कार्यक्रम में अपनी आस्था व्यक्त की। नेहरू का विरोध इस तर्क पर आधारित था कि प्रांतीय सरकारें चलाने पर कांग्रेस को ‘साम्राज्यिक ढाँचे का कार्यक्रम जारी रखने’ का जिम्मेदार ठहराया जायेगा और इस तरह वह उसी जनता के साथ छल करेगी, जिसके भारी मनोबल को कांग्रेस ने कभी स्वयं उभारा था।
गांधीजी ने कांग्रेसियों को सलाह दी कि सरकार में शामिल होने के मुद्दे को वे सहजता से लें, गंभीरता से नहीं। यह काँटों का ताज है, इससे कोई गौरव हासिल नहीं होगा। ये पद केवल इसलिए स्वीकार किये गये हैं ताकि यह पता लग सके कि हम अपने राष्ट्रवादी लक्ष्य की ओर अपेक्षित गति से आगे बढ़ रहे हैं या नहीं। गांधी ने आगाह किया कि 1935 के अधिनियम का उपयोग सरकार की उम्मीदों के अनुसार न किया जाए और सरकार जिस रूप में चाहती है, उस रूप में अधिनियम के इस्तेमाल से यथासंभव बचा जाये।
मंत्रिमंडल बनाने के पहले कांग्रेस ने वायसराय से यह आश्वासन चाहा कि मंत्रिमंडलों में गवर्नर अकारण हस्तक्षेप नहीं करेंगे। थोड़ी उठापटक के बाद 22 जून 1937 को सरकार ने यह आश्वासन दिया कि सभी गवर्नर इस बात की पूरी कोशिश करेंगे कि वे मंत्रियों से, वे चाहे जिस पार्टी के हों, संघर्ष मोल नही लेंगे और इस प्रकार के संघर्ष को टालने या समाप्त करने का हरसंभव प्रयास करेंगे। सरकार के आश्वासन पर कांग्रेस ने जुलाई 1937 में छः प्रांतों- मद्रास, बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रांत, मध्य भारत, बंबई में अपने मंत्रिमंडल का गठन किया। बाद में असम और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में भी कांग्रेस ने साझी सरकारें बनाई। सिंध, बंगाल एवं पंजाब में गैरकांग्रेसी मंत्रिमंडल बने। पंजाब में कम्युनिस्ट (यूनियनिस्ट) पार्टी ने और बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई।
कांग्रेस द्वारा विभिन्न प्रांतों में मंत्रिमंडलों के गठन से कांग्रेस की प्रतिष्ठा तो बढ़ी, किंतु इससे यह बात भी स्पष्ट हो गई कि यह न केवल जनता की विजय है, बल्कि यह जनता के कल्याण के लिए जनता द्वारा, उसके प्रतिनिधियों को सौंपा गया उत्तरदायित्व है। चूंकि कांग्रेसी मंत्रियों के अधिकार और वित्तीय संसाधन सीमित थे, इसलिए उनसे साम्राज्यवादी स्वरूप को परिवर्तित करने या किसी क्रांतिकारी युग के सूत्रपात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
कांग्रेसी सरकारों की उपलब्धियाँ
कांग्रेसी मंत्रिमंडल भारत में ब्रिटिश प्रशासन के बुनियादी साम्राज्यवादी चरित्र को बदलने और एक नया युग आरंभ करने में असफल रहे। फिर भी, 1935 के अधिनियम के अंतर्गत कांग्रेस मंत्रिमंडलों को जो सीमित अधिकार मिले थे, उनके सहारे उन्होंने जनता की दशा सुधारने के प्रयास किये। कांग्रेसी मंत्रियों ने ईमानदारी तथा जनसेवा के नये मानदंड स्थापित किये। कांग्रेसी अपना वेतन स्वयं घटाकर 500 रुपये प्रतिमाह कर दिये। उनमें से अधिकांश रेलों में दूसरे या तीसरे दर्जे में सफर करते। इसके अलावा प्रांतों में गठित कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अनेक क्षेत्रों में सकारात्मक निर्णय लिये।
नागरिक स्वतंत्रता
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने नागरिक स्वतंत्रता की बहाली हेतु अनेक कदम उठाये, जैसे- 1932 में जनसुरक्षा अधिनियम द्वारा प्रांतीय सरकारों को प्रदान किये गये सभी आपातकालीन अधिकार रद्द कर दिये गये। हिंदुस्तान सेवादल और यूथ लीग जैसे अतिवादी संगठनों, राष्ट्रवादी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रेस पर लगाये गये प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये।
पुलिस के अधिकारों में कटौती की गई। बड़ी संख्या में राजनीतिक बंदियों एवं जेलों में बंद क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया। राजनीतिक निर्वासन तथा नजरबंदी से संबंधित सभी आदेश रद्द कर दिये गये। बंदी-सुधार के कार्यक्रम भी शुरू किये गये। जब्त किये गये हथियार वापस लौटा दिये गये तथा रद्द किये गये लाइसेंस पुनः बहाल कर दिये गये।
किंतु नागरिक स्वतंत्रता के संबंध में कांग्रेस मंत्रियों द्वारा किये गये कुछ कार्यों की आलोचना भी हुई। जुलाई 1937 में एक समाजवादी नेता युसुफ मेहरअली को उत्तेजक भाषण देने के आरोप में मद्रास सरकार ने दंडित किया। इसी तरह अक्टूबर 1937 में एक अन्य समाजवादी कांग्रेसी एस.एस. बाटलीवाला को मद्रास सरकार ने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया, जिसमें उन्हें छः माह की सजा हुई। बंबई के तत्कालीन गृहमंत्री के.एम. मुंशी पर आरोप लगा कि उन्होंने साम्यवादी तथा वामपंथी कांग्रेसियों पर नजर रखने के लिए खुफिया विभाग का दुरुपयोग किया।
कृषि-सुधार
कांग्रेसी सरकारों ने बँटाईदारों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए अनेक कृषि-कानून बनाये। बंबई में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जब्त की गई भूमि किसानों को वापस की गई और आदोलन के दौरान बर्खास्त अधिकारियों के पेंशन-भत्ते पुनः बहाल किये गये। किंतु जमींदारी प्रथा को समाप्त न करके कांग्रेस ने कृषि-ढांचे के कायाकल्प की कोशिश नहीं की। इसका कारण यह था कि इस कार्य के लिए प्रांतीय मंत्रिमंडलों के पास न तो पर्याप्त अधिकार थे और न ही पर्याप्त वित्तीय संसाधन। इसके अलावा उपनिवेशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीयों की एकजुटता के लिए उनके विभिन्न प्रतिस्पर्धी हितों के बीच तालमेल बनाये रखना भी आवश्यक था। प्रायः सभी कांग्रेस-शासित राज्यों, जैसे- बंबई, बिहार, मद्रास, असम और संयुक्त प्रांत में प्रतिक्रियावादी तत्वोंवाला द्वितीय सदन (विधान परिषद्) मौजूद था, जिसमें जमींदारों, भूस्वामियों, पूँजीपतियों और सूदखोरों का वर्चस्व था। इन परिषदों में कांग्रेस अल्पमत में थी, इसलिए किसी भी कानून को पास कराने के लिए सरकार को इन तत्त्वों से समझौता करना पड़ता था।
इन अवरोधों के बावजूद कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने कृषि-ढांचे में अनेक सुधार किये और भू-सुधार, ऋणग्रस्तता से राहत, वनों में पशुओं को चराने की अनुमति, भू-राजस्व की दरों में कमी तथा नजराना व बेगारी जैसे गैर-कानूनी कार्यों को समाप्त करने से संबंधित अनेक कानून बनाये। किंतु इन कानूनों का लाभ मुख्यतः बड़े काश्तकारों को ही मिल सका और छोटे किसानों तथा खेत-मजदूरों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
मजदूरों के प्रति दृष्टिकोण
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का आधारभूत दृष्टिकोण था- औद्योगिक शांति की स्थापना और मजदूरों के हितों की रक्षा। कांग्रेस ने हड़तालों का कम से कम आयोजन करने तथा हड़ताल पर जाने के पहले अनिवार्य मध्यस्थता की वकालत की। कांग्रेसी सरकारों ने मजदूरों और मालिकों को अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं तथा मंत्रियों को मध्यस्थ बनाने की सलाह दी। मजदूर संघ पहले से अधिक मुक्त हुए और मजदूरी बढ़वाने में सफल रहे। फिर भी, कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने आंदोलनकारी मजदूरों के विरुद्ध कई अवसरों पर धारा 144 का प्रयोग किया और मजदूर नेताओं को गिरफ्तार भी किया।
समाज-कल्याण के कार्य
कांग्रेसी सरकारों ने चुने हुए क्षेत्रों में नशाबंदी लागू की। हरिजन-कल्याण के लिए मंदिरों में प्रवेश, सामान्य नागरिक सुविधाओं का प्रयोग, छात्रवृत्तियाँ, पुलिस एवं सरकारी नौकरियों में इसकी संख्या में वृद्धि जैसे उपाय किये गये। प्राथमिक, तकनीकी एवं उच्च शिक्षा की ओर ध्यान दिया गया और लोक-स्वास्थ्य एवं स्वच्छता जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी गई।
अनुदान एवं अन्य तरीकों से खादी व दूसरे स्वदेशीउद्योगों को समर्थन दिया गया और आधुनिक उद्योगों को प्रोत्साहन दिया गया। इसके अलावा राष्ट्रीय योजना के विकास को प्रोत्साहित करने हेतु 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस द्वारा ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया गया। कांग्रेस लोक शिकायत समितियों की स्थापना हुई, जिनका कार्य लोक शिकायतों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत करना था। इसके साथ ही जन-शिक्षा अभियान चलाये गये, कांग्रेस पुलिस स्टेशनों एवं पंचायतों की स्थापना की गई।
कांग्रेसी सरकारों के उपलब्धियों का मूल्यांकन
कहते हैं कि कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के दो वर्ष के कामकाज से कई समूहों का मोहभंग हुआ। कुछेक जातिगत निर्योग्यताओं की समाप्ति और मंदिर-प्रवेश के विधेयकों से दलित और उनके नेतागण अप्रभावित रहे क्योंकि ये विधेयक कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के सांकेतिक विधायी कार्यक्रम थे। कांग्रेस के मजदूर-विरोधी दृष्टिकोण के कारण बंबई, गुजरात, संयुक्त प्रांत और बंगाल में मजदूरों के जुझारूपन और औद्योगिक असंतोष में वृद्धि हुई। इसका प्रमाण बंबई में 1938 का औद्योगिक विवाद कानून (बाम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूटेस ऐक्ट) था।
चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने किसानों के बढ़ते जुझारूपन का उपयोग किया था, किंतु बाद में उसने किसान मतदाताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया। अक्तूबर 1937 में किसान सभा ने आधिकारिक रूप से लाल झंडे को अपना लिया और 1938 के वार्षिक सम्मेलन में वर्ग-सहयोग के गांधीवादी सिद्धांत की भर्त्सना की और घोषणा की कि ‘खेतिहर क्रांति’ उसका परम लक्ष्य है। वास्तव में 1939 के अंत तक कांग्रेसियों के मध्य सत्ता के लिए अवसरवादिता, आंदोलन, कलह एवं जोड़-तोड़ के प्रयास जैसी बुराइयाँ आने लगी थीं। गांधीजी को भी लगने लगा था कि ‘‘हम अंदर से कमजोर होने लगे हैं’’ और नेहरू भी महसूस कर रहे थे कि कांग्रेस मंत्रिमंडलों की रचनात्मक भूमिका चुके गई है।
अक्टूबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न राजनीतिक संकट के समय कांग्रेस मंत्रिमंडलों के इस्तीफे का स्वागत करते हुए गांधीजी ने कहा कि ‘‘इससे कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार की सफाई करने में मदद मिलेगी।’’ गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1939 को सी. राजगोपालाचारी को लिखारू ‘‘जो कुछ हुआ है, वह हमारे उद्देश्य के लिए अच्छा है। मुझे पता है कि यह दवा काफी कड़वी है, लेकिन इसकी जरूरत थी। शरीर में जितने परजीवी हैं, उन सबको यह बाहर निकाल फेंकेगी।’’ फिर भी, अनेक कारणों से कांग्रेसी सरकारों के अट्ठाईस माह का शासन महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के सख्त आलोचक रहे नेहरू ने 1944 में लिखा था : ‘‘पीछे मुड़कर देखने पर उनकी दो साल की अवधि की उपलब्धियों पर आश्चर्य होता है, इसके बावजूद कि वे अनगिनत परेशानियों से घिरे हुए थे।’’ कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के संसदीय कार्यों ने उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि की और जनता के मध्य उनके आधार को मजबूत किया। भारतीयों के सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उत्थान की दिशा में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये और यह स्पष्ट कर दिया कि मौलिक सामाजिक संक्रमण के लिए भारतीय स्वशासन आवश्यक है।
सांप्रदायिक दंगों से सख्ती से निपटना कांग्रेस-मंत्रिमंडलों की एक प्रमुख उपलब्धि थी। कांग्रेस ने जिलाधीशों तथा पुलिस अधिकारियों से सांप्रदायिक दंगों के समय सख्ती से निपटने के लिए कहा।
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने राष्ट्रीयता का प्रभाव-क्षेत्र और राष्ट्रीय जागरूकता को बढ़ाने के लिए सरकारी पदों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया, जिससे भविष्य में बड़े पैमाने पर संघर्ष चलाने के लिए ताकत मिली।
सरकारों के गठन का असर नौकरशाही पर भी पड़ा, खासतौर से निचले स्तर पर। इससे ब्रिटिश साम्राज्य के स्तंभों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्तंभ, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का मनोबल कमजोर हुआ। कांग्रेस-मंत्रिमंडलों के प्रशासनिक कार्यों ने इस भ्रम को तोड़ दिया कि भारतीय स्वशासन के लायक नहीं है।
मंत्रिमंडलों के गठन से न तो भारतीय एकता की भावना में कोई कमी आई और न ही कांग्रेस का प्रांतीयकरण हुआ, जैसाकि 1935 का अधिनियम बनानेवालों ने उम्मीद की थी। आंतरिक गुटबाजी के बावजूद कांग्रेस संगठन में अनुशासन बना रहा। जब अखिल भारतीय संकट की घड़ी आई और जैसे ही केंद्रीय नेतृत्व ने चाहा, कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने तुरंत त्यागपत्र दे दिया।
इन्हें भी पढ़ सकते हैं-
भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृतियाँ : मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल
सिंधुघाटी सभ्यता में कला एवं धार्मिक जीवन
कुषाण राजवंश का इतिहास और कनिष्क महान
भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण
आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय
यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1
प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-2
बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1
भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1
भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1