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गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी)
हर्ष की मृत्यु के उपरांत प्रतिहारों ने संपूर्ण उत्तर भारत में एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया। किंतु विजयपाल (960 ई.) के समय तक आते-आते विशाल प्रतिहार साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया और उत्तर भारत में पुनः राजनैतिक अराजकता एवं अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर जिन राजवंशों का उदय हुआ, उनमें गुजरात का चौलुक्य अथवा सोलंकी वंश भी एक था।
परिचय
‘चालुक्य’ शब्द के आधार पर कुछ विद्वान् चौलुक्य अथवा सोलंकी वंश को दक्षिण के चालुक्य वंश से संबंधित करते हैं, किंतु उत्तर भारत के चालुक्य ‘चालुक्य’ नहीं, चौलुक्य थे, जो अग्निकुल से उत्पन्न राजपूतों में से एक थे। इतना निश्चित है कि सोलंकी विदेशी मूल के नहीं थे। वाडनगर लेख में इस वंश की उत्पत्ति ब्रह्मा के चुलुक अथवा कमंडल से बताई गई है।
गुजरात के चौलुक्य वंश ने दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक शासन किया। इनकी राजधानी अन्हिलवाड़ में थी। इस वंश का प्रथम शासक मूलराज था, जिसका पिता ‘महाराजाधिराज’ बताया गया है। संभवतः यह उपाधि उसके पिता को सम्मान देने के लिए प्रयुक्त की गई है। गुजरात की परंपरा और अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मूलराज ने अन्हिलवाड़ की गद्दी चापोत्कट राजाओं को मारकर प्राप्त किया था। इस वंश के प्रायः सभी शासक जैन धर्म के पोषक और संरक्षक थे।
ऐतिहासिक स्रोत
गुजरात के चौलुक्य वंश का इतिहास मुख्य रूप से जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है। इन ग्रंथों में हेमचंद्र का द्वाश्रयकाव्य, मेरुतुंगकृत प्रबंधचिंतामणि, सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमुदी, जयसिंहसूरि का कुमारपालचरित आदि महत्वपूर्ण हैं जिनसे इस वंश के शासकों की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों का ज्ञान होता है।
भारतीय साहित्य के अतिरिक्त इब्न-उल-अतहर, हसन निजामी जैसे मुसलमान इतिहासकारों के विवरणों से चौलुक्यों और तुर्कों के संघर्ष की जानकारी मिलती है। चौलुक्य राजाओं के अनेक लेख भी मिले हैं, जिनसे उनके इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण कुमारपाल की वाडनगर प्रशस्ति (971 ई.) है, जिसकी रचना श्रीपाल ने की थी। इसके अतिरिक्त, तलवाड़ा, उदयपुर (भिलसा) आदि के लेखों से जयसिंह, कुमारपाल, भीम द्वितीय आदि चौलुक्य शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है।
राजनैतिक इतिहास
अन्हिलवाड़ के चौलुक्यों के उदय के पूर्व गुजरात का इतिहास सामान्यतः कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों से संबंधित है। प्रतिहार महेंद्रपाल का साम्राज्य गुजरात तक विस्तृत था। राष्ट्रकूट शासक इंद्र तृतीय (915-17 ई.) द्वारा महीपाल की पराजय के पश्चात् प्रतिहारों की स्थिति निर्बल पड़ गई। राष्ट्रकूटों के साथ अनवरत संघर्ष के कारण गुजरात क्षेत्र अराजकता एवं अव्यवस्था का शिकार हो गया। फलतः प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के पतन के उपरांत चौलुक्यों (सोलंकियों) को गुजरात में अपनी सत्ता स्थापित करने का सुअवसर मिल गया।
मूलराज (941-995 ई.)
गुजरात के चौलुक्य शाखा का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के पतन का लाभ उठाते हुए 9वीं शती के मध्य में सरस्वती घाटी में अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। उसने अपने मामा को मारकर ‘अन्हिलपाटन’ पर अधिकार कर लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया। कुमारपालकालीन वाडनगर प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने चापोत्कट राजकुमारों की लक्ष्मी को बंदी बना लिया था।
गुजराती अनुश्रुतियों से पता चलता है कि मूलराज का पिता कल्याणकटक का क्षत्रिय राजकुमार था और उसकी माता गुजरात के चापोत्कट वंश की कन्या थी। यद्यपि उसके पिता की उपाधि ‘महाराजाधिराज’ मिलती है, किंतु लगता है कि वह प्रतिहारों का सामंत था।
मूलराज जब गद्दी पर बैठा तो उस समय उसका राज्य चारों ओर से महत्वाकांक्षी शासकों से घिरा था। पूरब में परमार शासक मुंज, उत्तर में शाकम्भरी के चाहमान वंश का विग्रहराज, दक्षिण में कल्याणी के चालुक्य शासक तैलप द्वितीय का शासन था। इसलिए मूलराज को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए अनेक युद्ध लड़ने पड़े।
मूलराज की विजयें
लाट से युद्ध: प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि मूलराज को पराजित करने के लिए लाट शासक वारप्प तथा शाकम्भरी के चाहमान शासक विग्रहराज ने मिलकर सारस्वतमंडल पर आक्रमण किया। सोलंकी शासक मूलराज इनका सामना नहीं कर सका तथा उसने भागकर कंथा के किले में शरण ली।
कालांतर में मूलराज ने कूटनीति से विग्रहराज से संधि कर ली और वारप्प अकेला हो गया। हेमचंद्र के द्वाश्रयमहाकाव्य से पता चलता है कि मूलराज के पुत्र चामुंडराज ने शुभ्रावती नदी को पारकर लाट में प्रवेश किया और वारप्प को पराजित करके मार डाला। सोमश्वरकृत कीर्तिकौमुदी से पता चलता है कि मूलराज ने स्वयं वारप्प की हत्या की थी। त्रिलोचनपाल के सूरत दानपत्र से भी इसका समर्थन होता है, जिसमें कहा गया है कि वारप्प के पुत्र गोगिराज ने अपने देश को शत्रुओं से मुक्त कराया था। यहाँ शत्रुओं से तात्पर्य मूलराज से ही है।
अनुश्रुतियों के अनुसार मूलराज सारस्वतमंडल पर अधिकार करने मात्र से ही संतुष्ट नहीं हुआ, बल्कि उसने उत्तर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में अपने राज्य का विस्तार करने का प्रयास किया जिसके कारण उसका अपने पड़ोसियों के साथ संघर्ष होना अनिवार्य हो गया था।
सौराष्ट्र एवं कच्छ से युद्ध: हेमचंद्र के द्वाश्रयकाव्य से पता चलता है कि मूलराज ने सुराष्ट्र तथा कच्छ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। सुराष्ट्र का राजा ग्राहरिपु जाति का आभीर था और उसकी नियुक्ति स्वयं मूलराज ने ही की थी। वह कच्छ के राजा लक्ष अथवा लाखा के साथ मिलकर एक शक्तिशाली राज्य बनाने का प्रयास कर रहा था। उसकी बढ़ती शक्ति से चिंतित मूलराज ने उसे दंडित करने के लिए उस पर आक्रमण किया।
प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि कच्छ के राजा लाखा ने ग्यारह बार मूलराज को पराजित किया, किंतु बारहवीं बार मूलराज ने ग्राहरिपु को पकड़ लिया और लाखा को मार डाला। इस विजय के फलस्वरूप चौलुक्यों का सौराष्ट्र पर अधिकार हो गया और यहाँ स्थित सोमनाथ मंदिर उनके राज्य का प्रसिद्ध तीर्थ बन गया। मेरुतुंग के अनुसार मूलराज प्रत्येक सोमवार को वहाँ दर्शन के निमित्त जाया करता था। बाद में मंडाली में उसने सोमेश्वर का मंदिर बनवाया।
परमार शासक पर विजय: मूलराज को कुछ अन्य क्षेत्रों में भी सफलता मिली। राष्ट्रकूट नरेश धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है कि मूलराज ने आबू पर्वत के परमार शासक धरणिवाराह को पराजित किया था। धरणिवाराह ने भागकर राष्ट्रकूट नरेश के दरबार में शरण ली थी।
किंतु मूलराज को कलचुरि नरेश, परमारवंशी मुंज और चाहमान शासक विग्रहराज द्वितीय के हाथों पराजित होना पड़ा। संभवतः विग्रहराज के विरुद्ध युद्ध में वह 995 ई. में मारा गया। मूलराज का साम्राज्य उत्तर में जोधपुर से लेकर पूरब और दक्षिण में साबरमती तट तक विस्तृत था।
चामुंडराज (995-1010 ई.)
मूलराज प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र चामुंडराज 995 ई. में राजा हुआ। कुमारपालचरित से ज्ञात होता है कि उसने धारा (मालवा) के परमार शासक सिम्मुराज (सिंधुराज) के विरुद्ध सफलता प्राप्त की, किंतु वह लाट प्रदेश पर अधिकार बनाये रखने में सफल नहीं हुआ और वारप्प के पुत्र गोगिराज ने पुनः लाट पर अधिकार कर लिया। कलचुरि नरेश कोक्कल द्वितीय ने भी चामुंडराज को पराजित किया था।
दुर्लभराज (1010-1024 ई.)
चामुंडराज के दो पुत्र थे- वल्लभराज तथा दुर्लभराज। वल्लभराज की मृत्यु अपने पिता के काल में ही हो गई थी। इसलिए चामुंडराज के बाद दुर्लभराज शासक बना। उसने लाट प्रदेश के शासक कीर्तिपाल को पराजित कर लाट प्रदेश को पुनः जीत लिया। इस विजय की सूचना वाडनगर लेख तथा जयसिंहसूरि के कुमारपालचरित से मिलती है।
भीमदेव प्रथम (1024-1064 ई.)
दुर्लभराज का उत्तराधिकारी उसका भतीजा (नागदेव का पुत्र) भीमदेव प्रथम हुआ। वह अपने वंश का शक्तिशाली शासक था। उसके प्रबल प्रतिद्वंदी परमार शासक भोज और कलचुरि नरेश कर्ण थे। उसे महमूद गजनवी के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा था।
परमारों से युद्ध: उदयपुर लेख से पता चलता है कि परमार नरेश भोज ने भीम को पराजित किया था। किंतु शीघ्र ही भीम ने कलचुरि नरेश कर्ण के साथ मिलकर परमार नरेश भोज के विरुद्ध एक संघ तैयार किया। इस संघ की सम्मिलित सेना ने मालवा के ऊपर आक्रमण कर परमारों की राजधानी धारा नगरी को बुरी तरह लूटा। बिल्हण के विवरण से पता चलता है कि भोज अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया। इस प्रकार उसकी प्रतिष्ठा मर्दित हो गई। इसी बीच परमार भोज की मृत्यु हो गई और धारा से लूटी गई संपत्ति के बँटवारे तथा मालवा पर अधिकार को लेकर भीम और कर्ण के आपसी संबंध भी बिगड़ गये।
अंततः भीम ने कर्ण के विरुद्ध एक दूसरा संघ तैयार किया, जिसमें चंदेलों और कल्याणी के चालुक्यों के साथ-साथ परमार जयसिंह द्वितीय, जो भोज का उत्तराधिकारी था, ने भी भीम की सहायता की थी। जैन ग्रंथों से पता चलता है कि भीम ने कर्ण को पराजित किया था। कहा गया है कि पहले तो चेदि नरेश कर्ण ने भीम से लड़ने के लिए भीलों तथा म्लेच्छों की सेना तैयार की और कुछ दिनों के लिए मालवा पर अधिकार कर लिया, किंतु बाद में उसने भीम से संधि करना श्रेयस्कर समझा। उसने भीम के वकील दामोदर को स्वर्ण मेरु सौंप दिया, जिसे वह मालवा से लूटकर लाया था।
सिंध की विजय: हेमचंद्र के विवरण से पता चलता है कि भीम ने सिंध के राजा हम्मुक को पराजित कर उसे अपने अधीन कर लिया। हम्मुक एक शक्तिशाली राजा था, जिसने कई शत्रुओं को पराजित किया था। भीम ने सिंधु नदी पर पुल बनाकर उसके राज्य में प्रवेश कर उसे पराजित किया।
आबू क्षेत्र पर अधिकार: भीम की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि आबू पर्वत क्षेत्र पर अपना अधिकार सुदृढ़ करना था। आबू पर्वत का क्षेत्र मूलराज के समय चौलुक्यों के नियंत्रण में था, किंतु बाद में वहाँ के शासक धंधुक ने भीम की सत्ता को चुनौती दी। फलस्वरूप भीम ने धंधुक पर आक्रमण कर पुनः अपना अधिकार सुदृढ़ किया।
नड्डुल के चाहमानों से संबंध: यद्यपि भीम के पूर्वजों का नड्डुल के चाहमान शासकों के साथ मधुर संबंध थे, किंतु महत्वाकांक्षी भीम ने इस राज्य पर कई आक्रमण किये। किंतु भीम को चाहमानों के विरूद्ध सफलता नहीं मिली और पराजित होना पडा।
एक लेख से पता चलता है कि नड्डुल के राजाओं- अहिल तथा उसके चाचा अन्हिल ने भीम को पराजित किया था। यह भी कहा गया है कि अन्हिल के पुत्र बालाप्रसाद ने भीम को पराजित किया था और भीम को कारागार से कृष्णराज नामक परमार शासक को मुक्त करने के लिए मजबूर किया था। इस प्रकार भीम नड्डुल के चाहमानों को नतमस्तक करने में सफल नहीं हो पाया।
महमूद गजनवी से युद्ध: भीम के शासनकाल की सबसे प्रमुख घटना महमूद गजनवी का सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण है। इसका उल्लेख केवल मुस्लिम इतिहासकारों ने किया है। तारीखे अल्फी के अनुसार महमूद ने मरूस्थल के रास्ते चौलुक्य राजधानी अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया। उसने सोमनाथ पहुँच कर मंदिर को लूटा तथा मूर्ति को खंडित कर दिया। किंतु भीम ने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उससे अपनी रक्षा की। फरिश्ता लिखता है कि भीम ने 3,000 मुसलमानों की हत्या कर दी थी, इसलिए महमूद को उसके भय के कारण मार्ग बदलकर भागना पड़ा। महमूद के आक्रमण का भीम के शासन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद भीम ने मंदिर का पुनः निर्माण करवा दिया।
भारत पर तुर्क आक्रमण: महमूद गजनवी
निर्माण-कार्य: एक महान् निर्माता के रूप में भीम ने पत्तन में भीमेश्वर तथा भट्टारिका के मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके सामंत विमलनाथ ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था, जो वास्तु एवं स्थापत्य की उत्कृष्ट रचना है। उसने 1064 ई. तक शासन किया।
कर्ण (1065-1093 ई.)
भीम का पुत्र कर्ण एक निर्बल शासक था। उसका समकालीन मालवा का परमार शासक जयसिंह था, जो चालुक्य नरेश सोमेश्वर की सहायता से गद्दी पर बैठा था। आबू के निकट एक अभिलेख में कहा गया है कि मालवा के शासक ने कर्ण को पराजित किया था।
कर्ण को चाहमानों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा और जोगलदेव ने कुछ समय के लिए अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया था।
प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि कर्ण ने आशापल्ली के भिल्ल राजा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की थी। कुमारपाल के चित्तौड़गढ़ लेख में कर्ण को मालवों को जीतने का श्रेय दिया गया है, किंतु इसकी पुष्टि अन्य किसी स्रोत से नहीं होती है।
निर्माण-कार्य: कर्ण की रुचि निर्माण-कार्यों में अधिक थी। उसने कर्णावती नामक नगर बसाया और वहाँ कर्णेश्वरदेव के मंदिर और कर्णसागर नामक झील का निर्माण करवाया। अन्हिलवाड़ के निकट कर्णमेरु नामक मंदिर के निर्माण का श्रेय भी कर्ण को दिया जाता है।
जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ई.)
गुजरात के चौलुक्य नरेश कर्ण के बाद उसकी पत्नी मयणल्लदेवी से उत्पन्न पुत्र जयसिंह सिद्धराज चौलुक्य वंश की गद्दी पर बैठा, जो इस वंश का श्रेष्ठ शासक सिद्ध हुआ। उसके कई लेख मिले हैं। चूंकि राज्यारोहण के समय वह अल्पवयस्क था, इसलिए उसकी माँ मयणल्लदेवी ने उसके युवा होने तक संरक्षिका के रूप में कार्य किया। मयणल्लदेवी ने एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में मंत्रियों के सहयोग से विरोधियों का दमन किया। वयस्क होने पर जयसिंह ने ‘सिद्धराज’ की उपाधि धारण की और शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया। सिद्धराज को ‘बारबक जिष्णु’ भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने बारबक भील पर विजय प्राप्त की थी।
जयसिंह की सैनिक उपलब्धियाँ
जयसिंह एक महान् योद्धा और विजेता था। उसने अपने परंपरागत शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अपनी सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखा और मालव, खंगार, चाहमान, बारबक आदि अनेक वंशों से युद्ध किया।
सौराष्ट्र की विजय: जयसिंह की प्रारंभिक सफलताओं में से एक सौराष्ट्र के आभीर शासक खंगार को पराजित करना था। जैन ग्रंथों में खंगार को नवधण भी कहा गया है। मेरुतुंग ने लिखा है कि आभीर शासक नवधण ने गिरनार से आगे बढ़ते हुए चौलुक्य सेना को ग्यारह बार पराजित किया और वर्धमान (झल्वर) एवं दूसरे नगरों को घेर लिया। किंतु जयसिंह ने बारहवीं बार स्वयं उसके विरुद्ध अभियान कर उसे पराजित कर मार डाला। विजित प्रदेश के शासन के लिए उसने अपनी ओर से जाम्बवंश के सज्जन को सुराष्ट्र का दंडाधिपति (प्रांतपाल) नियुक्त किया। इसकी पुष्टि दोहद लेख से भी होती है, जिससे पता चलता है कि जयसिंह ने सुराष्ट्र के राजा को बंदी बना लिया था। किंतु संभवतः जयसिंह का अधिकार चिरस्थायी नहीं रह सका।
चाहमानों से युद्ध: चाहमानों ओर चौलुक्यों में पुरानी शत्रुता थी। जयसिंह ने नड्डोल के चाहमान आशाराज को अपनी अधीनता स्वीकार करने और सामंत के रूप में शासन करने के लिए बाध्य किया। हेमचंद्र के अनुसार जयसिंह ने उत्तर में अपने समकालीन शाकंभरी के चाहमान शासक अर्णोराज के राज्य पर भी आक्रमण किया और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। किंतु एक कुशलनीतिज्ञ की भाँति उसने अपनी पुत्री कंचनदेवी का विवाह चाहमान नरेश अर्णोराज के साथ कर दिया और अर्णोराज को सामंत के रूप में शासन करने दिया।
मालवा के परमारों से युद्ध: जयसिंह ने पश्चिम में मालवा के परमार राजाओं के विरुद्ध अभियान किया। मेरुतुंग के विवरण से पता चलता है कि जब जयसिंह अपनी राजधानी छोड़कर सोमेश्वर की यात्रा पर गया था, तभी परमार शासक नरवर्मन् ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसे रौंद डाला तथा जयसिंह के मंत्री सांतु को अपने अधीन कर उससे अपने पाँव धुलवाये।
जयसिंह जब वापस लौटा तो उसने मालवराज से बारह वर्षों तक लगातार युद्ध किया। अंत में, उसने परमार शासक नरवर्मन् को युद्ध में पराजित कर उसे बंदी बना लिया और वहाँ विजयकीर्ति को स्थापित किया। इस विजय से उसका परमार राज्य के बड़े भाग पर अधिकार हो गया। कुमारपालचरित से पता चलता है कि जयसिंह ने धारा को ध्वस्त कर दिया और नरवर्मन् की हत्या कर दी। परमार नरेश नरवर्मन् के विरुद्ध जयसिंह को आशाराज और अर्णोराज से सहायता मिली थी।
मालवराज नरवर्मन् के पुत्र यशोवर्मन् ने भी युद्ध को जारी रखा। किंतु यशोवर्मन् को पुनः पराजित होना पड़ा और कुमारपाल की वाडनगर प्रशस्ति के अनुसार बंदी बना लिया गया। इस विजय के उपलक्ष्य में जयसिंह ने ‘अवंतिनाथ’ का विरुद धारण किया। उज्जैन लेख के अनुसार जयसिंह ने अंवतिमंडल के शासन के लिए महादेव नामक ब्राह्मण को नियुक्त किया।
चंदेलों से युद्ध: कुमारपालचरित से चलता है कि जयसिंह ने महोबा के चंदेल शासक मदनवर्मन् को पराजित किया था। कीर्तिकौमुदी के अनुसार वह धारा से कालिंजर गया था। किंतु दूसरी ओर चंदेल लेखों और पृथ्वीराजरासो से पता चलता है कि मदनवर्मन् ने ही जयसिंह को हराया था। लगता है कि जयसिंह को चंदेल नरेश मदनवर्मन् के विरुद्ध कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल सकी।
सिंध की विजय: जयसिंह को सिंधुराज की विजय का श्रेय दिया गया है। दोहद लेख के अनुसार उसने ‘सिंध के राजा को पराजित कर दिया तथा उत्तर के शासकों को अपनी राजाज्ञा शेषनाग के समान मस्तक पर धारण करने को विवश किया।’ यह पराजित सिंध नरेश संभवतः सुमरा जाति का कोई स्थानीय मुस्लिम सामंत रहा होगा।
परमर्दि की पराजय: तलवार लेख में कहा गया है कि जयसिंह ने परमर्दि को पराजित किया। हेमचंद्रराय के अनुसार यह शासक चंदेलवंशी परमर्दि न होकर कल्याणी का चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ था। उसकी भी उपाधि परमर्दिदेव की थी। किंतु संभावना है कि पराजित नरेश कोई साधारण राजा था, प्रसिद्ध चालुक्य नरेश नहीं।
बार्बरक से युद्ध: हेमचंद्र ने जयसिंह की विजयों में बार्बरक नामक राजा की पराजय का उल्लेख किया है, जो संभवतः गुजरात में रहनेवाली किसी अनार्य जाति का था और श्रीस्थल (सिद्धपुर) के साधुओं को कष्ट देता था। जयसिंह ने अपनी सेना के साथ उस पर आक्रमण कर उसे पराजित किया और बंदी बना लिया। किंतु उसकी पत्नी पिंगलिका के इस आश्वासन पर उसे मुक्त कर दिया कि वह ब्राह्मणों को तंग नहीं करेगा। इसके बाद बार्बरक जयसिंह का विश्वासपात्र सेवक बन गया।
साम्राज्य-विस्तार: जयसिंह सिद्धराज अपने समय का एक महान् विजेता एवं साम्राज्य-निर्माता था। उसने अपनी विजयों के फलस्वरूप चौलुक्य साम्राज्य की सीमाओं का आशातीत विस्तार किया। उसका साम्राज्य उत्तर में जोधपुर और जयपुर तक तथा पश्चिम में भिलसा तक फैला हुआ था। पूरब में काशी और पश्चिम-उत्तर में मारवाड़ तक के क्षेत्रों पर उसका अधिकार था। काठियावाड़ और कच्छ भी उसके राज्य में सम्मिलित थे।
जयसिंह की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
विद्या एवं विद्वानों का संरक्षक: जयसिंह अपनी विजयों से अधिक अपने सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण अधिक महत्वपूर्ण है। उसने अनेक कवियों और विद्वानों को प्रश्रय देकर गुजरात को शिक्षा और साहित्य के केंद्र बना दिया। वह जैन विद्वान् हेमचंद्र, श्रीपाल, रामचंद्र, आचार्य जयमंगल, यशःचंद्र और वर्धमान जैसे विद्वानों का संरक्षक था। श्रीपाल को उसने ‘कवींद्र’ की उपाधि दी थी। जैन आचार्य हेमचंद्र ने अपने व्याकरण ग्रंथ ‘सिद्धहेमचंद्र’ के द्वारा सिद्धराज को अमर कर दिया है। जयसिंह विभिन्न संप्रदायों के विद्वानों के साथ धार्मिक चर्चाएँ किया करता था। ज्योतिष, न्याय, पुराण आदि के अध्ययन के लिए उसने विद्यालय स्थापित करवाये थे।
निर्माण-कार्य: जयसिंह सिद्धराज महान् निर्माता भी था। उसकी सबसे प्रमुख कृति है सिद्धपुर में रुद्रमहाकाल का मंदिर, जो अपने विस्तार के लिए भारत के मंदिरों में प्रसिद्ध है। उसने पाटन में सहस्रलिंग नामक कृत्रिम झील का भी निर्माण करवाया और उसके समीप एक कीर्तिस्तंभ स्थापित करवाया था। द्वयाश्रय महाकाव्य के अनुसार उसने सहस्रलिंग के किनारे चंडिकादेव तथा अन्य 108 मंदिरों का निर्माण भी करवाया था। सिद्धराज ने राजमाता मिनलदेवी के आदेश पर गुजरात के अहमदाबाद जिले के विरमगाम में मुनसर (मिनलसर) तालाब भी बनवाया था। आबू पर्वत पर उसने एक मंडप बनवाकर उसमें अपने पूर्वजों की सात गजारोही मूर्तियाँ स्थापित करवाया था।
धर्म और धार्मिक नीति: जयसिह शैवमतावलंबी था। किंतु धार्मिक मामले में उसकी नीति उदार और समदर्शी थी। मेरुत्तुंग के अनुसार उसने अपनी माता के कहने पर बाहुलोड में यात्रियों से लिया जानेवाला कर समाप्त कर दिया। यद्यपि उसके समकालीन अधिकांश विद्वान् जैन थे, किंतु धर्मनिष्ठ शैव होते हुए भी उसने जैनियों के प्रति प्रति उदारता का प्रदर्शन किया। इस्लाम के प्रति भी उसकी नीति उदार थी।
कुमारपाल (1143-1172 ई.)
जयसिंह का अपना कोई पुत्र नहीं था। अतः उसकी मृत्यु के पश्चात् कुमारपाल राजा बना। विभिन्न स्रोतों से सूचना मिलती है कि कुमारपाल भीम प्रथम के पुत्र क्षेमराज का प्रपौत्र था, जो एक राजनर्तकी से उत्पन्न हुआ था। जैन आचार्य हेमचंद्र ने उसके राजा होने की भविष्यवाणी की थी, किंतु उसकी हीन उत्पत्ति के कारण जयसिंह उससे घृणा करता था और उसने अपने मंत्री उदयन के पुत्र बाहड़ को अपना दत्तक पुत्र बना लिया था। इस कारण कुमारपाल सात वर्षों तक पड़ोसी राज्य में छिपा रहा। किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद कुमारपाल ने 50 वर्ष की आयु में मंत्री उदयन एवं सेनापति कान्हड़देव की सहायता से राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। बाद में उसने कान्हड़देव (जो उसका बहनोई भी था) के व्यवहार से सशंकित होकर उसे अपंग एवं अंधा करवा दिया। किंतु मंत्री उदयन उसका विश्वासपात्र बना रहा और उसे मुख्यमंत्री बना दिया।
कुमारपाल की सैनिक उपलब्धियाँ
कुमारपाल अद्वितीय विजेता और कुशल योद्धा था। राज्यारोहण के बाद अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उसने सैनिक अभियान किया। उसकी विजयों का विस्तृत विवरण जयचंद्रसूरि के कुमारपालचरित में मिलता है।
चाहमानों से युद्ध: कुमारपाल को राजनीतिक कारणों से चाहमान शासकों से तीन बार युद्ध करना पड़ा। दो बार अर्णोराज के साथ और एक बार उसके पुत्र विग्रहराज के साथ। इस युद्ध में अर्णोराज की सहायता उदयन के पुत्र एवं जयसिंह के दत्तक पुत्र बाहड़ ने किया क्योंकि बाहड़ स्वयं चौलुक्य गद्दी का दावेदार था। अर्णोराज ने कुमारपाल के विरुद्ध कई अभियान किये। किंतु कुमारपाल ने बाहड़ को बंदी बना लिया।
जैन स्रोतों से ज्ञात होता है कि अर्णोराज के साथ कुमारपाल का संघर्ष लंबा चला। अंततोगत्वा कुमारपाल ने सहयोगी चारूभट्ट की सहायता से अर्णोराज को पराजित कर दिया। अर्णोराज ने अपनी पुत्री जल्हणादेवी का विवाह कुमारपाल के साथ करके मैत्री-संबंध स्थापित कर लिया। अर्णोराज ने चित्तौड़गढ़ में सज्जन नामक व्यक्ति को अपना सामंत नियुक्त किया।
कुमारपाल का तीसरा संघर्ष चाहमान शासक विग्रहराज चतुर्थ के साथ हुआ। विग्रहराज ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने के लिए और चौलुक्यों को अपने क्षेत्रों से हटाने के लिए अभियान छेड़ दिया। उसने चित्तौड़गढ़ (जावलिपुर) पर आक्रमण कर कुमारपाल द्वारा नियुक्त सामंत सज्जन की हत्या कर दी और चौलुक्यों द्वारा पूर्व में जीते गये अपने कुछ अन्य प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। चाहमान लेखों में यह दावा किया गया है कि विग्रहराज ने कुमारपाल को पराजित कर दिया था। किंतु लगता है कि दोनों के बीच एक प्रकार की संधि हो गई।
मालवों से युद्ध: मालवा में कुमारपाल का समकालीन शासक बल्लाल था। जैन ग्रंथों से पता चलता है कि कुमारपाल ने मालवा के शासक बल्लाल के ऊपर आक्रमण कर उसे मार डाला और उसका सिर महल की दीवार पर टाँग दिया। बल्लाल की पहचान निश्चित नहीं है। संभवतः वह कोई स्थानीय शासक था, जिसने मालवा पर अधिकार कर लिया था।
कोंकण से युद्ध: कोंकण में शिलाहारवंशी शासकों का शासन था। चूंकि सोलंकियों का राज्य कोंकण की सीमा से सटा हुआ था, इसलिए कुमारपाल ने चाहमान शासक सोमेश्वर और परमार शासक धारावर्ष के सहयोग से शिलाहारवंशी मल्लिकार्जुन को पराजित करके मौत के घाट उतार दिया।
आबू क्षेत्र की विजय: कुमारपालचरित से पता चलता है कि आबू क्षेत्र के चंद्रावती में परमार वंश की कोई छोटी शाखा शासन कर रही थी। यहाँ का शासक विक्रमसिंह था, जिसने कुमारपाल के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। कुमारपाल ने विक्रमसिंह पर आक्रमण कर उसे बंदी बना लिया और उसके भांजे यशोधवल को अपना सामंत नियुक्त किया।
सुराष्ट्र के विरूद्ध अभियान: कुमारपाल को सुराष्ट्र में भी एक सैनिक अभियान करना पड़ा। सौराष्ट्र का राजा सुंबर था। मेरुतुंग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसने कुमारपाल के प्रधानमंत्री उदयन को पराजित कर घायल कर दिया। किंतु बाद में कुमारपाल ने उसे अपने नड्डुल के चाहमान सामंत की सहायता से पराजित कर दिया। संबर के पुत्र को सुराष्ट्र का राजा बनाया गया, जिसने चौलुक्य नरेश कुमारपाल की अधीनता स्वीकार कर ली।
साम्राज्य-विस्तार: कुमारपाल अपने युग का एक शक्तिशाली शासक था। उसने जयसिंह की विरासत को अक्षुण्ण बनाये रखा और अपने समय की प्रमुख शक्तियों को पराजित कर चौलुक्य साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। मेरुतुंग के अनुसार कुमारपाल की आज्ञा का पालन कर्णाट, गुर्जर, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु, मालवा, कीर, कोंकण, जांगलक, सपादलक्ष, मेवाड़ तथा जालंधर के शासक करते थे। कर्नल टॉड ने लिखा है कि महाराजा की आज्ञा पृथ्वी के सभी राजाओं ने अपने मस्तक पर धारण किया था। संभवतः उसका साम्राज्य पूरब में गंगा नदी तक, पश्चिम में सिंधु नदी तक, उत्तर में तुरुष्क भूमि तक तथा दक्षिण में विंध्यपर्वत तक प्रसरित था।
धर्म और धार्मिक नीति: धार्मिक दृष्टि से कुमारपाल का शासनकाल अत्यंत आकर्षक रहा है। जैन अनुश्रुतियाँ एक स्वर से उसे अपने मत का अनुयायी बताती हैं। कहा गया है कि वह जैन धर्म के प्रसिद्ध आचार्य हेमचंद्र का शिष्य था और जैन धर्म में उसकी गहरी आस्था थी। जयसिंहकृत कुमारपालचरित के अनुसार उसने अभक्ष नियम स्वीकार किया और अपना मन जैन धर्म में लगा दिया (जैन धर्मे मनस्थापना)। उसने स्वयं जैन तीर्थस्थलों की यात्रा की और अनेक चैत्यों एवं मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने पशुवध इत्यादि को बंद करवा कर गुजरात को अहिंसक राज्य घोषित किया। उसने अपनी धर्मपत्नी महारानी मोपलदेवी की मृत्यु के बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और जीवन में कभी-भी मद्यपान अथवा मांस का भक्षण नहीं किया।
हेमचंद्रराय का अनुमान है कि संभवतः कुमारपाल का जैन धर्म की ओर झुकाव भौतिक कारणों से रहा होगा। इसका उद्देश्य राज्य के समृद्ध एवं शक्तिशाली वणिक समुदाय का सहयोग प्राप्त करना था, जो मुख्यतः जैन थे। अनवरत युद्धों के कारण राजकोष पर भारी दबाव पड़ा, जिसे पूरा करने के लिए उसे जैन समुदाय से आर्थिक सहायता लेना आवश्यक था।
किंतु इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि शैवधर्म में भी उसकी आस्था रही। उसने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाने के साथ-साथ कुछ शैव मंदिरों का निर्माण भी करवाया था। उसके सभी लेखों में शिव की स्तुति की गई है।
कुमारपाल ने शास्त्रों के उद्वार के लिए अनेक पुस्तक-भंडारों की स्थापना की,। उसके समय में अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे गये और गुजरात जैन धर्म, शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केंद्र बन गया। मृत्यु के समय उसकी आयु 80 वर्ष थी।
अजयपाल (1173-1176 ई.)
कुमारपाल के बाद उसका भतीजा अजयपाल शासक हुआ। गुजराती अनुश्रुतियों तथा मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि उसने कुमारपाल की विष द्वारा हत्या करवाई थी। उसकी उपाधि ‘परममाहेश्वर’ की मिलती है क्योंकि वह शैव था। जैन ग्रंथों के अनुसार उसने कपर्दिन नामक ब्राह्मण, जो दुर्गा का भक्त था, को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया और अन्य शैवों को भी प्रमुख प्रशासनिक पदों पर निुयक्त किया था।
सैनिक दृष्टि से उसकी उपलब्धि मात्र यह है कि उसने सपादलक्ष के चाहमान शासक सोमेश्वर को पराजित कर उसके राजछत्र और हाथी को छीन लिया था। संभवतः चित्तौड़ पर अधिकार को लेकर इसका गुहिल राजा सामंतसिंह से भी युद्ध हुआ था।
अजयपाल जैन धर्म का विरोधी था। उसने अनेक जैन मंदिरों को ध्वस्त करवा दिया और जैन आचार्य रामचंद्र की हत्या करवा दी। अंततः किसी द्वारपाल ने छूरा भोंककर अजयपाल की हत्या कर दी।
मूलराज द्वितीय (1176-1178 ई.)
अजयपाल की हत्या के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र मूलराज द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ। उसने अपनी माँ के संरक्षण में मात्र दो-ढाई वर्ष शासन किया।
मूलराज द्वितीय के समय तुर्कों का आक्रमण हुआ, किंतु तुर्क आक्रमणकारी को किसने पराजित किया-मूलराज द्वितीय या उसके भाई भीम द्वितीय ने, इस संबंध में कुछ विरोधाभास है। संभवत मूलराज के समय में तुर्क आक्रमण हुआ था, लेकिन सैन्य-संचालन का कार्य भीम द्वितीय ने किया था क्योंकि अभिलेखों में दोनों का नाम मिलता है। तबकाते नासिरी से भी पता चलता है कि अन्हिलवाड़ का राजा एकदम नया था, फिर भी, उसने गोरी को पराजित कर दिया था। इस युद्ध में नड्डुल के चाहमानों ने भी भीम का साथ दिया था।
भीम द्वितीय (1178-1241 ई.)
मूलराज द्वितीय के बाद उसका छोटा भाई भीम द्वितीय शासक हुआ। आबू तथा नागौर क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए उसका चाहमान शासक पृथ्वीराज से संघर्ष हुआ। किंतु बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया।
1178 ई. में मुइजुद्दीन गोरी के नेतृत्व में तुर्कों ने उसके राज्य पर आक्रमण किया, किंतु काशहद के मैदान में भीम ने उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया। इसके बाद 1195 ई. में भीम द्वितीय ने कुतुबुद्दीन ऐबक को हराकर उसे अजमेर तक खदेड़ दिया। किंतु दूसरे वर्ष (1196 ई.) कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर के हरिराज को पराजित कर अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भीम द्वितीय के 50,000 सैनिक मारे गये और 20,000 बंदी बना लिये गये। तुर्क आक्रांताओं ने उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को बुरी तरह लूटा और उस पर अधिकार कर लिया।
किंतु अन्हिलवाड़ पर तुर्कों का अधिकार क्षणिक साबित हुआ और 1201 ई. तक भीम ने पुनः अपने राज्य पर अधिकार कर लिया। आबू तथा दक्षिणी राजपूताना में चौलुक्यों का शासन स्थापित हो गया। इसके बाद लगभग एक शती तक तुर्कों ने गुजरात पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया।
मुसलमानों से निपटने के बाद भीम को परमारों, यादवों के साथ-साथ आंतरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा।
परमारों से युद्ध: तुर्क आक्रमण के कारण भीम द्वितीय मालवा पर ध्यान नहीं दे सका जिसका लाभ उठाकर परमार शासक विंध्यवर्मा ने मालवा से सोलंकियों को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। भीम द्वितीय ने मालवा के परमार शासक को पुनः अपना अधीनस्थ बना लिया।
यादवों से युद्ध: भीम द्वितीय की कठिनाइयों का लाभ उठाकर देवगिरि के यादव शासक भिल्लम पंचम् ने गुजरात और लाट पर आक्रमण कर दिया। किंतु भीम द्वितीय के सामंत लवणप्रसाद ने उसे पराजित कर पीछे ढकेल दिया।
1200 ई. के लगभग यादव भिल्लम के पुत्र जैतुगी ने दक्षिणी गुजरात पर आक्रमण कर चौलुक्य भीम को पराजित कर दिया। किंतु भीम के मंत्री लवणप्रसाद ने यादव नरेश सिंघण से संधि कर अपने राज्य को बचा लिया।
किंतु चौलुक्य भीम की आंतरिक स्थिति दुर्बल हो चुकी थी। बाह्य आक्रमणों के कारण भीम द्वितीय अपने सामंतों पर नियंत्रण नहीं रख सका। पता चलता है कि 1023 ई. के कुछ पहले ही जैत्तसिंह नामक उसके ही वंश के किसी संबंधी ने भीम को पदच्युत् कर राजधानी पर कुछ समय के लिए अधिकार कर लिया था। किंतु भीम अपने मंत्रियों-लवणप्रसाद एवं वीरधवल की सहायता से पुनः राजधानी पर अधिकार करने में सफल रहा।
वास्तव में भीम द्वितीय गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी) राजपूतों का अंतिम शासक था। इसकी दुर्बल स्थिति का लाभ उठाकर उसके कई सामंत जैसे- जालौर के उदयसिंह, गोडवड़ के सोमसिंह, चंद्रावती के धारावर्ष स्वतंत्र हो गये। आबू के परमार सामंतों ने भी विद्रोह कर दिया। इसके मंत्री लवणप्रसाद ने गुजरात में बघेलवंश की स्थापना की और 1240 ई. के लगभग उसके उत्तराधिकारियों ने अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया। बघेलवंश ने गुजरात में तेरहवीं शताब्दी के अंत तक शासन किया। इसके बाद गुजरात का स्वतंत्र हिंदू राज्य दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।
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