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अमोघवर्ष द्वितीय, गोविंद चतुर्थ और अमोघवर्ष तृतीय
अमोघवर्ष द्वितीय (929-930 ई.)
इंद्र तृतीय के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र अमोघवर्ष द्वितीय 928 ई. के आसपास मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंश का राजा हुआ। गोविंद चतुर्थ के सांगली लेख में अमोघवर्ष द्वितीय का नाम नहीं मिलता है। इस आधार पर फ्लीट का अनुमान है कि अमोघवर्ष द्वितीय ने शासन नहीं किया था। किंतु कई परवर्ती राष्ट्रकूट अभिलेखों में अमोघवर्ष द्वितीय का नामोल्लेख है और शिलाहार शासक अपराजित के भदन दानपत्र में स्पष्ट कहा गया है कि उसने एक वर्ष (929-930 ई.) तक शासन किया था।
लगभग एक वर्ष के अल्पकालीन शासन के पश्चात् अमोघवर्ष की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु स्वाभाविक थी या किसी षड्यंत्र का परिणाम, यह स्पष्ट नहीं है। राष्ट्रकूट लेखों के अनुसार उसकी मृत्यु पिता की मृत्यु के दुःसह वियोग में हुई थी। गोविंद चतुर्थ के काम्बे और सांगली लेख में एक श्लोक मिलता है, जिसके अनुसार वह (गोविंद) संसार में साहसांक केवल त्याग और अतुलनीय साहस के कारण हुआ था। उसने सामर्थ्य होते हुए भी अपने बड़े भाई के साथ निंदनीय क्रूरता का व्यवहार नहीं किया, बंधु की भार्या के साथ गमनादि दुराचारों द्वारा अपयश भी नहीं कमाया और भय के कारण पवित्रता एवं अपवित्रता से परांगमुख होकर पैशाच व्रत स्वीकार नहीं किया-
सामर्थ्य सति निन्दिता प्रविहिता नैवाग्रजे क्रूरता,
बन्धुस्त्रीगमनादिभिः कुचरितैरावर्ज्जितम् नायशः।
शौचाशौचपराङमुखम् न च भिया पैशाच्यमंगीकृते,
त्यागैनासम सासहसैश्च भुवने यस्साहसांकोऽभवत्।।
इस श्लोक में गोविंद की तुलना साहसांक (चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य) से की गई है। संभवतः इस श्लोक में गोविंद ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि यद्यपि उसमें भाई के साथ क्रूरता का व्यवहार करने या उसकी भार्या से विवाह करने की क्षमता थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इससे अप्रत्यक्ष रूप से संकेत मिलता है कि गोविंद ने न केवल अमोघवर्ष को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या की होगी, बल्कि उसकी पत्नी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रखा रहा होगा। इस कार्य से गोविंद की काफी अपकीर्ति फैल गई होगी और इस अपकीर्ति को मिटाने के लिए उसने सांगली और काम्बे के लेखों में इस श्लोक को अंकित करवाया होगा। सत्यता जो भी हो, संभावना यही है कि अमोघवर्ष को अपदस्थ कर गोविंद चतुर्थ ने राजसिंहासन को हस्तगत किया होगा।
गोविंद चतुर्थ (930-936 ई.)
गोविंद चतुर्थ 930 ई. में राष्ट्रकूट राजवंश के सिंहासन पर बैठा। उसने संभवतः अपने बड़े भाई अमोघवर्ष को अपदस्थ कर राजसिंहासन को हस्तगत किया था। सिंहासनारोहण के समय इसकी अवस्था लगभग 26 वर्ष की थी। काम्बे अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपना राज्याभिषेक बड़ी धूमधाम से संपन्न किया और ब्राह्मणों तथा मंदिरों को बहुत दानादि दिया था।
अभिषेक के समय गोविंद ने प्रभूतवर्ष की उपाधि धारण की। इसकी अन्य उपाधियाँ नृपतुंग, सुवर्णवर्ष, वीरनारायण, साहसांक, शशांक, रट्टकंदर्प, नृपतित्रिनेत्र, विक्रांतनारायण, वल्लभनरेंद्र, परमेश्वर, परमभट्टारक तथा श्रीपृथ्वीवल्लभ आदि थीं।
गोविंद चतुर्थ का शासनकाल राजनैतिक उपलब्धियों की दृष्टि से महत्वहीन रहा। यद्यपि सांगली पत्र में गंगा-यमुना द्वारा इसके राजप्रासाद में सेवा करने का उल्लेख मिलता है, किंतु इससे यह अनुमान करना निरर्थक है कि उसने इलाहाबाद तक की विजय किया था। संभवतः इंद्र तृतीय की सेना उत्तर से लौटते समय कुछ समय तक इलाहाबाद में ठहरी थी।
वेंगी में राष्ट्रकूट समर्थक चालुक्य शासक युद्धमल्ल को भीम ने अपदस्थ कर दिया, किंतु गोविंद ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। यही नहीं, चालुक्य लेखों में पूर्वी चालुक्य शासक भीम द्वितीय ने गोविंद की विशाल सेना को पराजित करने का दावा किया है।
राष्ट्रकूट लेखों से ज्ञात होता है कि गोविंद चतुर्थ एक अयोग्य और विलासी शासक था। राज्यारोहण के कुछ ही समय बाद वह रासरंग में लिप्त हो गया, जिससे शासन का कार्य शिथिल पड़ने लगा। करहद लेख से पता चलता है कि उसकी बुद्धि तरुणियों के दृष्टिपाश में बंध गई थी और वह नित्य नव-वनिताओं (नर्तकियों) से घिरा रहता था। उसे साम्राज्य के अंतः एवं बाह्य घटनाओं का कोई ज्ञान नहीं रहता था। अनेक व्याधियों से घिरे होने के कारण उसका शरीर दुर्बल पड़ गया और वह जनता की सहानुभूति खोने लगा। राज्य के सभी अंग शिथिल हो गये, उसकी शक्ति समाप्तप्राय हो गई और अंततः उसका नाश स्वाभाविक हो गया (सोप्यंगनानयनपाशनिरुद्ध बुद्धिः, संसर्ग संगविमुखीकृत सर्वसत्वः)।
देवली एवं करहद लेखों से ज्ञात होता है कि गोविंद चतुर्थ की विलासिता से उद्विग्न होकर सामंतों एवं जनता ने विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। उसके प्रमादी जीवन से असंतुष्ट होकर उसके सामंतों, अधिकारियों तथा मत्रियों ने भी उसे पदच्युत् करने की योजना बनाई और उसके चाचा अमोघवर्ष तृतीय को सिंहासनासीन करने का निश्चय किया।
पम्प कवि के ‘विक्रमार्जुनविजय’ काव्य में भी कहा गया है कि उसके दुर्व्यसनों से असंतुष्ट होकर सामंतों ने गोविंद चतुर्थ के चाचा अमोघवर्ष तृतीय से गोविंद को राजसिंहासन से हटाने का अनुरोध किया था। अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष तृतीय का विवाह चेदि राजकुमारी के साथ हुआ था और वह शासन के प्रति उदासीन होकर त्रिपुरी में शांतिमय जीवन व्यतीत कर रहा था। राजशेखर के ‘विद्धशालभंजिका ’से भी संकेत मिलता है कि अमोघवर्ष तृतीय अपने ससुर युवराज प्रथम के यहाँ निर्वासित जीवन-यापन कर रहा था।
इसी बीच गोविंद ने दक्षिणी कर्नाटक के वेमुलवाड के अपने सामंत अरिकेशरि से युद्ध छेड़ दिया। अरिकेशरि का विवाह इंद्र तृतीय की पुत्री रेवक निरमडि के साथ हुआ था। पम्प के ‘विक्रमार्जुनविजय’ के अनुसार बेमुलवाड़ के चालुक्य सामंत अरिकेशरि द्वितीय ने वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य पंचम को प्रश्रय प्रदान किया। जब गोविंद चतुर्थ ने विजयादित्य पंचम को वापस करने का आदेश दिया, तो अरिकेशरि द्वितीय ने अस्वीकार कर दिया और दक्षिणी कर्नाटक के किसी युद्ध में गोविंद को पराजित कर दिया।
इसी समय सामंतों और मंत्रियों की सलाह पर अमोघवर्ष त्रिपुरी से चलकर मान्यखेट आ गया। संभवतः पयोष्णी नदी के किनारे गोविंद चतुर्थ और अमोघवर्ष की सेनाओं का आमना-सामना हुआ, जिसमें राष्ट्रकूट नरेश गोविंद चतुर्थ सेना पराजित हुई। अमोघवर्ष तृतीय ने चेदि सेनाओं की सहायता से गोविंद चतुर्थ को अपदस्थ कर दिया और 936 ई. में मान्यखेट के राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
अनुमान किया जाता है कि गोविंद चतुर्थ के विरुद्ध एक संघ का निर्माण किया गया था। यद्यपि अमोघवर्ष तृतीय इसमें सक्रिय नहीं रहा, किंतु उसके महत्वाकांक्षी पुत्र कृष्ण तृतीय ने अपने पिता को सिंहासनारूढ़ करने के लिए अवश्य ही इस संघ में सक्रिय भूमिका निभाई होगी। कृष्ण तृतीय चेदियों, चालुक्यों, अरिकेशरि एवं अन्य मंत्रियों के सहयोग से अपने उद्देश्य में सफल रहा।
गोविंद युद्ध में मारा गया अथवा बंदी बना लिया गया, यह स्पष्ट नहीं है। परांतक प्रथम के तक्कोलम अभिलेख में गोविंदवल्लभरायर का उल्लेख है, जो परांतक का दामाद था। संभव है कि यह गोविंद चतुर्थ ही रहा हो। गोविंद की अंतिम ज्ञात तिथि 934 ई. है, इससे लगता है कि उसके शासनकाल का अंत 935-36 ई. के आसपास हुआ होगा।
अमोघवर्ष तृतीय (936-939 ई.)
गोविंद चतुर्थ को अपदस्थ कर अमोघवर्ष तृतीय 936 ई. के आसपास मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजगद्दी पर बैठा। उसका वास्तविक नाम बड्डेग था। इसका विवाह कलचुरि शासक युवराज प्रथम की पुत्री कुंडकदेवी के साथ हुआ था। इसके अनेक पुत्र थे, जिनमें कृष्ण तृतीय ज्येष्ठ था। अन्य पुत्र जगत्तुंग, निरुपम तथा खोट्टिग आदि थे। अमोघवर्ष तृतीय की पुत्री रेवकनीम्मडि थी, जो गंगराज राजमल्ल तृतीय के भाई बुतुग के साथ ब्याही गई थी।
सिंहासनारोहण के अवसर पर बड्डेग ने अमोघवर्ष की उपाधि धारण की और इसी नाम से वह प्रसिद्ध हो गया। बाद में उसने श्रीपृथ्वीवल्लभ, महाराजाधिराज, परमेश्वर तथा परमभट्टारक की उपाधियाँ भी धारण की।
अमोघवर्ष तृतीय धार्मिक प्रवृति का शासक था। वह परम शैव था। उसने शिव के कई मंदिरों का निर्माण करवाया और ब्राह्मणों आदि को काफी दान दिया। वह शासन में कम, ब्रह्म-चिंतन में अधिक रुचि रखता था। आध्यात्मिक क्रियाओं में उसकी व्यस्तता के कारण शासन के कार्य का संचालन उसके योग्य पुत्र एवं युवराज कृष्ण तृतीय ने किया।
अमोघवर्ष तृतीय की सैनिक उपलब्धियाँ
अमोघवर्ष तृतीय के शासनकाल में राष्ट्रकूटों ने जो सैनिक सफलताएँ प्राप्त की, उसका संपूर्ण श्रेय उसके पुत्र कृष्ण तृतीय को ही है। 940 ई. के देवली ताम्रलेख में उसकी तुलना कुमार से की गई है। कृष्ण तृतीय के प्रभाव के संबंध में लेखों में कहा गया है कि पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों के बीच शासन करनेवाले सभी सामंत कृष्ण तृतीय की आज्ञा मानते थे और वह स्वयं अपने पिता का आज्ञाकारी पुत्र था।
गंगवाड़ी के बुतुग द्वितीय की सहायता
अमोघवर्ष तृतीय के शासनकाल में उसके आज्ञाकारी पुत्र कृष्ण तृतीय ने अपने बहनोई गंग बुतुग द्वितीय को गंग सिंहासन पर अधिष्ठित करने के लिए राजमल्ल को पदच्युत करने की योजना बनाई। देवली लेख से पता चलता है कि उसने गंगवाड़ी के शासक राजमल्ल के सामंत नोलंबवंशीय दंतिग तथा बप्पुग का युद्ध क्षेत्र में वध किया और अंततः राजमल्ल भी वीरगति को प्राप्त हुआ। इस प्रकार कृष्ण तृतीय ने राजमल्ल को मारकर अपने संबंधी बुतुग द्वितीय को 937 ई. में गंगवाड़ी का राजा बनाया। देवली लेख के आधार पर अल्तेकर का अनुमान है कि कृष्ण तृतीय ने युवराज के रूप में ही बुतुग को गंग सिंहासन पर आसीन किया था।
कलचुरियों के विरूद्ध अभियान
अमोघवर्ष तृतीय और कृष्ण तृतीय दोनों का विवाह चेदि राजकुमारियों के साथ हुआ था। इसके बाबजूद युवराज कृष्ण तृतीय ने 938 ई. के लगभग अपने पुराने संबंधी कलचुरि चेदियों को आक्रांत किया और उन्हें पराजित किया। देवली पत्र से स्पष्ट है कि कृष्ण तृतीय ने अपनी माँ एवं पत्नी के अग्रजों को पराजित किया था। इसकी पुष्टि श्रवणबेलगोला लेख से भी होती है।
बुंदेलखंड पर आक्रमण
इसके बाद कृष्ण तृतीय ने बुंदेलखंड पर आक्रमण कर गुर्जर प्रतिहारों को पराजित किया और चंदेल राज्य के कालंजर तथा चित्रकूट के दुर्गों पर अधिकार कर लिया। बघेलखंड से उपलब्ध कृष्ण तृतीय के जूरा लेख में उसे परमभट्टारक, परमेश्वर, महाराजाधिराज की उपाधि दी गई है। देवली पत्र के आधार पर अल्तेकर का अनुमान है कि कृष्ण तृतीय ने युवराज के रूप में ही कालंजर एवं चित्रकूट के दुर्गों को अधिकृत किया था।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कृष्ण तृतीय ने अपने पिता के शासनकाल में युवराज के रूप में गंगवाडी, चेदि तथा बुंदेलखंड के विरूद्ध सैनिक अभियान कर अपनी योग्यता और वीरता की धाक जमा ली थी।
अमोघवर्ष ने केवल तीन वर्ष (संभवतः 936-939 ई.) तक ही शासन किया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र और युवराज कृष्ण तृतीय 939 ई. में राष्ट्रकूट राजवंश का राजा हुआ।
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