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कृष्ण प्रथम
चित्तलदुर्ग से प्राप्त एक लेख के अनुसार दंतिदुर्ग के कोई पुत्र नही था और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा कृष्ण प्रथम 756 ई. के आसपास राष्ट्रकूट राजपीठ पर आसीन हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर उसने शुभतुंग एवं अकालवर्ष की उपाधि धारण की।
वी.ए. स्मिथ के अनुसार कृष्ण प्रथम ने अपने भतीजे दंतिदुर्ग को अपदस्थ कर राजसिंहासन पर अधिकार किया था, जबकि सी.वी. वैद्य के अनुसार संभवतः उसने दंतिदुर्ग की हत्या करके गद्दी प्राप्त की थी। बड़ौदा अभिलेख में दंतिदुर्ग का नाम नहीं है, और कहा गया है कि कृष्णराज ने अपने एक दुराचारी संबंधी को मारकर अपनी जाति के कल्याण (गोत्रहिताय) प्रभुसत्ता ग्रहण की थी।
कृष्ण द्वितीय के बेगुम्रा लेख में दंतिदुर्ग के लिए ‘वल्लभराजेऽकृताप्रजाबाधे’ पद प्रयुक्त हुआ है, जिसे कुछ विद्वानों ने ‘कृताप्रजाबाधे’ अर्थात् ‘प्रजा को कष्ट देनेवाला’ पढ़ा है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि दंतिदुर्ग ने अपनी प्रजा पर अत्याचार किया, जिससे कृष्ण प्रथम ने उसका विनाश कर राष्ट्रकूट राजवंश की रक्षा की। इसीलिए बड़ौदा अभिलेख में अत्याचारी शासक का नाम नहीं आया है।
किंतु कर्कराज के शक संवत् 894 के करदा अनुदानपत्र में कहा गया है कि दंतिदुर्ग की निःसंतान मृत्यु हो जाने पर कृष्ण राजा हुआ था। कवि एवं नौसारी अभिलेखों से भी संकेत मिलता है कि दंतिदुर्ग की स्वाभाविक मृत्यु हुई थी।
अल्तेकर ने बड़ौदा अभिलेख के ‘कृताप्रजाबाधे’ को सही रूप में ‘अकृताप्रजाबाधे’ पढ़ा है। भंडारकर के अनुसार यदि कृष्ण प्रथम ने दंतिदुर्ग की हत्या की होती, तो अपने लेखों में उसकी प्रशंसा क्यों करता? अल्तेकर का अनुमान है कि कृष्ण प्रथम ने जिस राष्ट्रकूट शासक को पराजित किया था, वह दंतिदुर्ग नहीं, बल्कि अंतरोली-छरोली अनुदानपत्र का कर्क द्वितीय रहा होगा, जो समधिगतपंचमहाशब्द परमभट्टारकमहाराजाधिराज परमेश्वर जैसी साम्राज्यिक उपाधियाँ धारण कर स्वतंत्र होने का प्रयास कर रहा था। कर्क द्वितीय को उसकी वास्तविक स्थिति का ज्ञान कराने के लिए कृष्ण प्रथम ने उसे दंडित किया होगा।
कृष्ण प्रथम की सैनिक उपलब्धियाँ
कृष्ण प्रथम दंतिदुर्ग की भाँति एक साम्राज्यवादी शासक था। अपने सिंहासनारोहण के बाद उसने सभी दिशाओं में साम्राज्य-विस्तार की योजना बनाई और इस क्रम में उसने न केवल गुजरात पर नियंत्रण किया, बल्कि चालुक्यों और गंगों को पराजित कर वर्तमान कर्नाटक तथा कोंकण के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया।
कर्क द्वितीय का दमन
राज्याभिषेक के कुछ समय बाद ही कृष्ण को अपने भतीजे दक्षिणी गुजरात के शासक कर्क द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। वास्तव में 757 ई. के आसपास कर्क द्वितीय ने समधिगतपंचमहाशब्द परमभट्टारकमहाराजाधिराज परमेश्वर जैसी सम्राट-सूचक उपाधियाँ धारण कर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। कृष्ण ने कर्क को पराजित कर अपने अधीन कर लिया और गुजरात के प्रशासन पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।
राहप्प के विरूद्ध सफलता
बेगुम्रा अनुदानपत्रों और कर्क के सूरत अनुदानपत्रों में कहा गया है कि कृष्ण ने दर्पयुक्त राहप्प को पराजित कर उसका पालिध्वज अपहृत कर लिया और इसके उपलक्ष्य में राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की। अभी तक इस राहप्प की निश्चित पहचान नहीं हो सकी है। कभी फ्लीट जैसे विद्वानों ने राहप्प का समीकरण कर्क द्वितीय से किया था, जो अब विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।
कुछ विद्वानों के अनुसार राहप्प या तो चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय रहा होगा या उसका कोई निकट-संबंधी सेनापति रहा होगा। मेवाड़ से प्राप्त 725 ई. के एक अभिलेख में महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीधवलप्पदेव का उल्लेख मिलता है। इस लेख के आधार पर अल्तेकर का अनुमान है कि राहप्प मेवाड़ का शासक हो सकता है, जो श्रीधवलप्पदेव का कोई पुत्र या उत्तराधिकारी रहा होगा। इस प्रकार राहप्प का वास्तविक तादात्म्य संभव नहीं है।
बादामी के चालुक्यों का विनाश
दंतिदुर्ग ने चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय को पराजित अवश्य कर दिया था, लेकिन वह चालुक्यों का पूरी तरह उन्मूलन नहीं कर सका था। दंतिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात् कीर्तिवर्मन् द्वितीय अपने खोये हुए प्रदेशों को पुनः अधिकृत करने का प्रयास कर रहा था।
कर्क और राहप्प को पराजित करने के बाद कृष्ण प्रथम ने बादामी के चालुक्यों की अवशिष्ट शक्ति को समाप्त करने की योजना बनाई। लेकिन कृष्ण प्रथम के आक्रमण के पहले ही 757 ई. के आसपास कीर्तिवर्मन् स्वयं अपनी सेना लेकर भीमा नदी के तट पर अपने विजयस्कंधावार में उपस्थित हो गया। फलतः कृष्ण प्रथम ने कीर्तिवर्मन् को निर्णायक रूप से पराजित कर चालुक्य राजवंश का पूरी तरह विनाश कर दिया।
गोविंद तृतीय के शक संवत् 730 (807 ई.) के एक अभिलेख में वर्णित है कि वल्लभ (कृष्ण प्रथम) ने चालुक्य राजलक्ष्मी का अपहरण कर लिया (यश्चालुक्य कुलादनून….लक्ष्मीम आकृष्ट्रवान् वल्लभः)।
कर्क द्वितीय के शक संवत् 734 (811 ई.) के बड़ौदा लेख से भी पता चलता है कि राजाओं में सिंह कृष्ण प्रथम ने युद्ध की इच्छा से आग बढ़ते हुए महावराह (कीर्तिवर्मन् द्वितीय) को हिरण बना दिया अर्थात् रणभूमि से भगा दिया (महावराहं हरिणी चकार प्राज्य प्रगावे खलुराजसिंहः)। इसकी पुष्टि कल्याणी के चालुक्य शासकों के अभिलेखों से भी होती है, जिनमें कहा गया है कि चालुक्यों का यश कीतिवर्म के साथ समाप्त हुआ-
तद्भवो विक्रमादित्यः कीर्तिवर्मा तदात्मजः।
येन चालुक्यराज्यश्रीरन्तरायिन्यमद्भुवि।।
इस प्रकार कीर्तिवर्मन् को हराकर कृष्ण प्रथम ने संपूर्ण कर्नाटक प्रदेश पर अधिकार कर लिया।
गंगों के विरूद्ध सफलता
चालुक्यों के विनाश के बाद कृष्ण प्रथम ने दक्षिण में मैसूर के गंगवाड़ी राज्य पर आक्रमण किया। तलेगाँव लेख से ज्ञात होता है कि 768 ई. में मन्नपुर या मान्यपुर नामक स्थान पर कृष्ण प्रथम अपना सैनिक शिविर डाले हुए था। गंगराज श्रीपुरुष और उसके पुत्र सीयगल्ल ने बड़ी वीरता से अपने साम्राज्य की रक्षा का प्रयास किया। प्रारंभ में गंगों को सफलता भी मिली, लेकिन अंततः उन्हें पराजित होना पड़ा। कृष्ण ने उनकी राजधानी मान्यपुर पर अधिकार कर लिया और वहाँ विजयोत्सव मनाया। गंगो की बहुत-सी संपत्ति राष्ट्रकूटों ने अपहृत कर ली। कृष्ण प्रथम ने श्रीपुरुष को एक छोटे क्षेत्र पर अपना सामंत नियुक्त किया और स्वयं 769 ई. में गंग-राज्य से वापस लौट आया। इस प्रकार गंग राज्य के कुछ क्षेत्र भी राष्ट्रकूट साम्राज्य में सम्मिलित हो गये।
वेंगी के विरूद्ध अभियान
गंगों को पराजित करने के बाद कृष्ण प्रथम ने वेंगी के चालुक्यों के विरूद्ध अभियान किया। वेंगी के चालुक्य भी वातापी के चालुक्यों की ही एक शाखा थे। अलस लेख से ज्ञात होता है कि कृष्ण द्वितीय ने अपने ज्येष्ठ पुत्र गोविंद को युवराज बनाया और उसके नेतृत्व में एक बड़ी सेना चालुक्य राज्य के विरुद्ध भेजी। राष्ट्रकूट सेना 769 ई. के आसपास कृष्णा एवं मूसी नदियों के संगम पर पहुँच गई, जो वेंगी से मात्र 160 किमी की दूरी पर था। इस युद्ध में वेंगी नरेश विष्णुवर्धन् चतुर्थ पराजित हुआ। किंतु बाद में दोनों राजवंशों में संधि हो गई। संधि की शर्तों के अनुसार विष्णुवर्धन् ने अपने राज्य का कुछ भाग गोविंद द्वितीय को दे दिया और अपनी पुत्री शीलभट्टारिका का विवाह उसके छोटे भाई ध्रुव के साथ कर दिया।
इस प्रकार वेंगी राज्य का कुछ हिस्सा भी राष्ट्रकूट साम्राज्य में शामिल हो गया। मंदुक लेख से ज्ञात होता है कि संपूर्ण मराठी मध्य प्रांत 772 ई. तक राष्ट्रकूटों के अधीन था।
दक्षिणी कोंकण का अधिग्रहण
कृष्ण प्रथम ने दक्षिणी कोंकण राज्य को आक्रांत कर उस पर अधिकार कर लिया और शिलाहारवंश के संस्थापक सणफुल्ल को वहाँ का शासक नियुक्त किया। रट्टराज के खेरपाटन दानपत्रों से पता चलता है कि सणफुल्ल ने सह्य पर्वत तथा समुद्र के मध्य का प्रदेश कृष्णराज की कृपा से प्राप्त किया था। इस प्रकार कृष्ण प्रथम ने दक्षिण कोकण को अधिकृत कर सणफुल्ल को अपना सामंत नियुक्त किया। कोंकण के शिलाहार दीर्घकाल तक राष्ट्रकूटों के प्रति निष्ठावान बने रहे।
कृष्ण प्रथम का मूल्यांकन
कृष्ण प्रथम एक कुशल योद्धा होने के साथ ही साथ योग्य शासक भी था। उसने न केवल अकालवर्ष एवं शुभतुंग के अलावा पृथ्वीवल्लभ तथा श्रीवल्लभ की उपाधियाँ धारण की, बल्कि उत्तराधिकार में प्राप्त साम्राज्य का काफी विस्तार भी किया। उसके साम्राज्य में संपूर्ण महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश का एक बड़ा भाग शामिल था। अल्तेकर के अनुसार अपने अल्प शासनकाल में कृष्ण प्रथम ने राष्ट्रकूट राज्य की पैतृक सीमा का तिगुना विस्तार किया और अपनी विजयों से उसने अपने उत्तराधिकारियों के लिए वह मार्ग प्रशस्त किया, जिससे वे उत्तर भारत की राजनीति में भाग ले सके।
कृष्ण प्रथम विजेता एवं साम्राज्य-निर्माता होने के अलावा कला एवं साहित्य का उदार संरक्षक भी था। प्रसिद्ध जैन विद्वान अकलंक भट्ट कृष्ण का समकालीन था। कहा जाता है कि उसने ‘राजवार्तिक’ तथा अन्य कई ग्रंथों की रचना की थी। अपने नाम पर कृष्ण ने कनेश्वर (कृष्णेश्वर) नामक एक देवकुल का निर्माण कराया, जिसमें बहुत से विद्वान् निवास करते थे।
एक धर्मनिष्ठ शासक के रूप में कृष्ण ने ब्राह्मणों को धन दान दिया और लगभग 18 मंदिरों का निर्माण करवाया। इसके काल का सबसे उत्कृष्ट निर्माण एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश मंदिर है, जो तत्कालीन शैलकृत वास्तुकला एक अद्भुत नमूना है। इस मंदिर का निर्माण एक ही गुफा को काटकर किया गया है। बड़ौदा अभिलेख के अनुसार जब देवताओं ने कैलाश मंदिर को देखा, तो उन्होंने भी आश्चर्यचकित होकर कहा था कि इस प्रकार का सौंदर्य, कला में अन्यत्र दुर्लभ है। संभवतः आरंभ में इस देवालय का नाम इसके निर्माता के नाम पर कृष्णेश्वर ही था, किंतु संप्रति यह कैलाश मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि घमौरी (अमरावती तालुका) से प्राप्त मुद्राभांड, जिसमें 1800 चाँदी के सिक्के हैं और जिन पर एक ओर राजा का शीश तथा दूसरी ओर परममाहेश्वर माहादित्यपादानुध्यात श्रीकृष्णराज लेख अंकित है, कृष्ण प्रथम के सिक्के हैं। किंतु इस मत को अंतिम रूप से स्वीकार करना कठिन है।
कृष्ण प्रथम की अंतिम ज्ञात तिथि 772 ई. तलेगाँव लेख की है, जबकि इसके उत्तराधिकारी पुत्र ध्रुव की प्रथम ज्ञात तिथि 775 ई. पिम्परी अनुदानपत्र की है, जिसमें कृष्ण प्रथम का कोई उल्लेख नहीं है। इससे लगता है कि कृष्ण ने लगभग 774 ई. तक शासन किया था।
कृष्ण प्रथम के दो पुत्र थे- गोविंद द्वितीय तथा ध्रुव। कृष्ण प्रथम ने अपने पुत्र गोविंद द्वितीय को 770-72 ई. के बीच युवराज नियुक्त कर दिया था और युवराज की हैसियत से ही उसने वेंगी के चालुक्य शासक विष्णुवर्धन् चतुर्थ को पराजित किया था।
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