संगम युग : राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Sangam Age : Political, Socio-economical and Cultural Life)

भारतीय प्रायद्वीप का तमिलकम् प्रदेश सुदूर दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप त्रिभुजाकार रूप में कन्याकुमारी तक […]

संगम युग : राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Sangam Age : Political, Socio-economical and Cultural Life)

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भारतीय प्रायद्वीप का तमिलकम् प्रदेश

सुदूर दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप त्रिभुजाकार रूप में कन्याकुमारी तक विस्तृत है, जिसे ‘तमिलकम्’ प्रदेश कहा जाता था। दक्षिण भारत में ऐतिहासिक युग निश्चित रूप से संगम युग से शुरू होता है। चूंकि तमिल भाषा में रचित प्राचीन ‘संगम साहित्य’ ही इस काल की जानकारी का एकमात्र स्रोत है, इसलिए इस युग को ‘संगम युग’ के नाम से जाना जाता है।

संगम युग : राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Sangam Age : Political, Socio-economical and Cultural Life)
भारतीय प्रायद्वीप का तमिलकम् प्रदेश

संगम युग के ऐतिहासिक स्रोत

सुदूर दक्षिण भारत के जनजीवन पर सर्वप्रथम संगम साहित्य से प्रकाश पड़ता है। यद्यपि इस साहित्य से राजनीतिक गतिविधियों के संबंध में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती, किंतु सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन के संबंध में इससे प्रचुर सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। उपलब्ध संगम साहित्य की अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणियाँ दी गई हैं, जिनमें कवियों के नाम, रचना की परिस्थितियाँ और अन्य विवरण मिलते हैं। यद्यपि इन टिप्पणियों की प्रामाणिकता संदिग्ध है, फिर भी राजाओं, सामंतों और कवियों के काल-निर्धारण में इनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। संगम साहित्य के अतिरिक्त, उत्तर भारत में रचित वैदिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भी ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि वैदिक संस्कृति का दक्षिण की ओर प्रसार हो रहा था। मेगस्थनीज की इंडिका, पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी के अज्ञात लेखक, भूगोलवेत्ता टॉलमी, प्लिनी और स्ट्रैबो के विवरण भी दक्षिण भारत के इतिहास-निर्माण में उपयोगी हैं।

पुरातात्विक स्रोतों में महापाषाणिक समाधियों से प्राप्त पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुएँ, अशोक के अभिलेख, खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख और 10वीं शताब्दी के कुछ अभिलेख भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। अशोक के दूसरे और तेरहवें शिलालेखों में चेर, चोल और पांड्य राज्यों को सीमावर्ती राज्य बताया गया है। हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि कलिंग नरेश खारवेल ने अपने अभिषेक के ग्यारहवें वर्ष (संभवतः ई.पू. 165 में) तमिल राज्यों के एक संघ को परास्त किया था।

संगम का अर्थ और आयोजन

‘संगम’ का अर्थ कवियों का ‘संघ’, परिषद, गोष्ठी या ‘सम्मेलन’ है। वास्तव में, संगम तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों और बुद्धिजीवियों की एक परिषद थी। संगम का महत्त्वपूर्ण कार्य उन कवियों और लेखकों की रचनाओं का अवलोकन करना था, जो अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाना चाहते थे। परिषद या संगम की स्वीकृति के बाद ही वह रचना प्रकाशित हो पाती थी। इन संगमों (परिषदों) का आयोजन पांड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया जाता था। तमिल परंपरा से ज्ञात होता है कि पांड्य राजाओं के संरक्षण में उनकी राजधानी में तीन साहित्यिक परिषदों (संगमों) का आयोजन हुआ था, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:

प्रथम संगम

प्रथम संगम का आयोजन पांड्यों की राजधानी मदुरै (जो समुद्र में विलीन हो गई) में हुआ और इसकी अध्यक्षता ऋषि अगस्त्य ने की। दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के प्रसार का श्रेय अगस्त्य को है,और उन्हें तमिल भाषा में प्रथम ग्रंथ का प्रणेता माना जाता है।

कहा जाता है कि यह संगम 89 पांड्य राजाओं के संरक्षण में चार सौ वर्षों तक चला और इसमें 4,499 लेखकों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कर उनके प्रकाशन की अनुमति माँगी। इस संगम में संकलित महत्त्वपूर्ण ग्रंथ अकट्टियम् (अगस्त्य), परिपदाल, मुदुनारै, मुदुकुरुकु और कलरियाविरै थे, किंतु इस संगम की सभी रचनाएँ नष्ट हो गईं।

दूसरा संगम

दूसरा तमिल संगम कपाटपुरम् (अलवाय) में आयोजित किया गया। इस संगम की भी अध्यक्षता अगस्त्य ने की थी। इसे 59 पांड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया और इसमें 3,700 कवियों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। इस संगम की भी अधिकांश रचनाएँ नष्ट हो गईं, केवल एक तमिल व्याकरण-ग्रंथ तोल्काप्पियम् अवशिष्ट है, जिसकी रचना का श्रेय अगस्त्य के शिष्य तोल्काप्पियार को दिया जाता है। कहा जाता है कि मदुरै की भाँति कपाटपुरम् भी समुद्र में विलीन हो गया।

तीसरा संगम

तीसरा संगम पांड्यों की राजधानी मदुरै में संपन्न हुआ और इसकी अध्यक्षता नक्कीरर ने की। इसमें 449 कवियों ने भाग लिया और इसे 49 पांड्य राजाओं ने संरक्षण प्रदान किया। यद्यपि इस तीसरे संगम के भी अधिकांश ग्रंथ नष्ट हो गए हैं, किंतु अवशिष्ट तमिल रचनाएँ इसी संगम से संबंधित मानी जाती हैं।

संगम साहित्य का रचनाकाल

तमिल कवियों के संगम का प्रथम उल्लेख शैव संत (नयनार) इरैयनार अगप्पोरूल (8वीं शताब्दी ई.) के भाष्य की भूमिका में प्राप्त होता है। तमिल टीकाओं में कहा गया है कि तीन संगम 9,990 वर्षों तक चले। इसमें 8,598 कवियों ने भाग लिया और अपनी रचनाओं से संगम साहित्य की उन्नति की। लगभग 197 पांड्य शासकों ने इन संगमों को संरक्षण प्रदान किया। इरैयनार अगप्पोरूल के वर्णन में प्राप्त कुछ राजाओं और कवियों के नाम बाद के अभिलेखों और अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं। किंतु ऐतिहासिक तत्त्वों और कल्पनाओं के मिश्रण के कारण यह निश्चित करना कठिन है कि ये संगम कब और कितने समय के अंतराल पर आयोजित किए गए तथा इनकी कुल संख्या कितनी थी। कविताओं के अंत में दी गई टिप्पणियों का गहन अध्ययन करके राजाओं, सामंतों और कवियों के काल का समीकरण किया गया है। इससे इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि संगम साहित्य चार या पाँच पीढ़ियों की रचना है और इसके रचनाकाल का विस्तार 120 से 150 वर्षों के बीच हो सकता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संगम साहित्य 500 ई.पू. से 500 ई. के बीच रचित हुआ। मोटे तौर पर संगम साहित्य का रचनाकाल 100 ई. से 250 ई. तक माना जा सकता है।

संगम साहित्य का वर्गीकरण

संगम साहित्य में 473 कवियों, जिनमें कुछ महिलाएँ भी शामिल हैं, की 2,279 कविताएँ संकलित हैं। कुछ कविताएँ बहुत छोटी, केवल तीन पंक्तियों की हैं, जबकि कुछ 800 पंक्तियों तक लंबी हैं। अधिकांश कविताओं के अंत में टिप्पणियाँ दी गई हैं, जिनमें कवियों का नाम, काव्य-रचना की परिस्थितियाँ और अन्य विवरण दिए गए हैं, किंतु सौ से अधिक कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें कोई टिप्पणी नहीं है। मोटे तौर पर, संगम साहित्य को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है: तोल्काप्पियम् (तमिल व्याकरण), पत्तुपात्तु, एत्तुत्तोकै, पदिनेनकिलकनक्कु और कोलकनक्कु

तोल्काप्पियम् (तमिल व्याकरण)

द्वितीय संगम का एकमात्र शेष ग्रंथ तोल्काप्पियम् अगस्त्य ऋषि के बारह शिष्यों में से एक तोल्काप्पियार द्वारा रचित है। सूत्रशैली में रचित यह ग्रंथ तमिल भाषा का प्राचीनतम व्याकरण ग्रंथ है।

पत्तुपात्तु (दश गीत)

संगम साहित्य के इस संग्रह में दस ग्राम्य-गीत संकलित हैं। इनके नाम हैं: तिरुमुरुकात्रुप्पदै (नक्कीरर), पोरुनरात्रुप्पदै (कन्नियार), सिरुपानारुप्पदै (नथ्थनार), पेरुम्पानारुप्पदै (रुद्रक कन्नार), मुल्लैप्पात्तु (नप्पूथनार), मदुरैकांजी (मरुथनार), नेडुनल्वादै (नक्कीरर), कुरिंजिप्पात्तु (कपिलर), पत्तिनप्पालै (रुद्रक कन्नार) और मलैपदुकदाम (कौशिकनार)। नक्कीरर की तुलना अंग्रेजी लेखक जॉनसन से की जाती है। इन ग्रंथों में संगमकालीन देवता मुरुगन, चोल शासक करिकाल और पांड्य शासक नेडुजेलियन के विवरण भी मिलते हैं।

एत्तुत्तोकै (अष्ट-पदावली)

संगम साहित्य के इस अष्ट-पदावली में आठ ग्रंथ—नर्रिनै, कुरुन्तोकै, ऐन्कुरुनूरु, पदिनेनप्पत्तु, परिपदाल, कलित्तोकै, अहनानुरु और पुरनानुरु—संकलित हैं। इनमें संगम युग के राजाओं की नामावली के साथ-साथ तत्कालीन जनजीवन और आचार-विचार का वर्णन मिलता है।

पदिनेनकिलकनक्कु (लघु उपदेश-गीत)

इसमें अठारह छोटी नीतियुक्त और उपदेशात्मक कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह के दो ग्रंथ तिरुक्कुरल और नलदियार विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। तिरुक्कुरल की रचना तिरुवल्लुवर ने की, जिसे ‘तमिल साहित्य का बाइबिल’ कहा गया है।

महाकाव्य

छठी शताब्दी ई. के आसपास आर्य प्रभाव के कारण तमिल कवियों ने बड़ी कविताएँ लिखना शुरू किया, जिन्हें महाकाव्य कहा गया। यद्यपि इनकी गणना संगम साहित्य के अंतर्गत नहीं की जाती, किंतु इनसे तत्कालीन जीवन के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। इस काल के पाँच महाकाव्य हैं: शिल्प्पादिकारम्, मणिमेकलै, जीवक चिंतामणि, वलयपति और कुंडलकेशि। इनमें प्रथम तीन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शिल्प्पादिकारम्

तमिल साहित्य का प्रथम महाकाव्य शिल्प्पादिकारम् तमिल जनता का राष्ट्रीय काव्य है। इसमें श्रीलंका के शासक गजबाहु की भी चर्चा है। कहा जाता है कि वह उस समय उपस्थित था, जब शेनगुट्टुवन द्वारा कण्णगी के लिए एक मंदिर स्थापित किया जा रहा था।

शिल्प्पादिकारम् का अर्थ है ‘नूपुर की कहानी’। इस महाकाव्य की रचना चेर शासक शेनगुट्टुवन के छोटे भाई इलांगो अदिगल ने लगभग दूसरी-तीसरी शताब्दी ई. में की थी। इस ग्रंथ का कथानक पुहार (कावेरीपट्टनम्) के व्यापारी कोवलन पर आधारित है। कोवलन का विवाह कण्णगी से हुआ था। बाद में कोवलन की भेंट माधवी नामक एक वेश्या से होती है। माधवी के प्रेम में कोवलन कण्णगी को भूल जाता है। अपनी संपूर्ण संपत्ति लुटाने के बाद वह अपनी पत्नी के पास लौटता है। कण्णगी उसे अपना एक नूपुर देती है, जिसे बेचकर वे दोनों व्यापार करने की इच्छा से मदुरै आते हैं। उसी समय मदुरै की रानी का वैसा ही एक नूपुर खो जाता है और कोवलन को झूठे आरोप में मृत्युदंड दे दिया जाता है। बाद में कण्णगी के शाप से पूरी मदुरै नगरी भस्म हो जाती है। कण्णगी मरणोपरांत स्वर्ग में कोवलन से पुनः मिलती है।

मणिमेकलै

दूसरे महाकाव्य मणिमेकलै की रचना मदुरै के एक अनाज व्यापारी सीतलै सत्तनार ने की थी, जो बौद्ध था। इस महाकाव्य की रचना शिल्प्पादिकारम् के बाद की गई, क्योंकि जहाँ शिल्प्पादिकारम् की कहानी समाप्त होती है, वहीं से मणिमेकलै की कहानी शुरू होती है। इस महाकाव्य की नायिका मणिमेकलै, कोवलन और उसकी वेश्या प्रेमिका माधवी की पुत्री है। माधवी अपने प्रेमी कोवलन की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध बन जाती है। उधर, राजकुमार उदयन मणिमेकलै को पाने की कोशिश करता है, किंतु मणिमेकलै चमत्कारिक ढंग से अपने सतीत्व की रक्षा करती है। बाद में वह अपनी माँ के कहने पर बौद्ध भिक्षुणी बन जाती है।

जीवक चिंतामणि

तीसरा महाकाव्य जीवक चिंतामणि जैन मुनि और महाकवि तिरुत्तक्कदेवर की अमर कृति है। इस महाकाव्य में कवि ने जीवक नामक राजकुमार के अद्भुत कार्यों का वर्णन किया है। जीवक आठ विवाह करता है और जीवन के समस्त सुख-दुख भोगने के बाद अंत में राज्य और परिवार का त्याग कर जैन धर्म ग्रहण करता है। शिल्प्पादिकारम् और मणिमेकलै बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं, जबकि जीवक चिंतामणि जैन धर्म से।

उपर्युक्त तीन महाकाव्यों के अतिरिक्त, संगमकालीन दो अन्य महाकाव्य वलयपति और कुंडलकेशि बताए जाते हैं, किंतु इनकी विषय-वस्तु के संदर्भ में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।

संगम राज्यों का राजनीतिक इतिहास

संगम साहित्य में सुदूर दक्षिण के तीन प्रमुख राज्यों—चोल, चेर, और पांड्य के उद्भव और विकास का विवरण मिलता है। उत्तर-पूर्व में चोल, दक्षिण-पश्चिम में चेर, और दक्षिण-पूर्व में पांड्य राज्यों का विस्तार था। संभवतः ई.पू. पहली शताब्दी तक ये तीनों राज्य अस्तित्व में आ चुके थे। कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने तमिल प्रदेश के तीन राज्यों के एक संघ को पराजित किया था। इससे पहले, ई.पू. चौथी शताब्दी में मेगस्थनीज ने पांड्य राज्य का उल्लेख किया है। दक्षिण में इन तीनों राज्यों के अलावा, अनेक छोटे-छोटे राज्य भी थे, जो समय और परिस्थिति के अनुसार तीनों बड़े राज्यों में से किसी न किसी की युद्ध में सहायता करते थे। संगम कवियों ने इन छोटे राज्यों में से सात राज्यों की उनके राजाओं की उदारता के कारण प्रशंसा की है, किंतु उनके लिए ‘वेल्लल’ (संरक्षक) शब्द ही प्रयुक्त किया है।

संगम युग : राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Sangam Age : Political, Socio-economical and Cultural Life)
संगम राज्यों का राजनीतिक इतिहास

चोल राज्य

संगमकालीन राज्यों में चोल सबसे शक्तिशाली थे। इस राज्य के अंतर्गत चित्तूर, उत्तरी अर्काट, मद्रास का चित्तलदुर्ग, दक्षिणी अर्काट, तंजौर और त्रिचिनापल्ली के क्षेत्र शामिल थे। चोल राजवंश की प्रथम जानकारी कात्यायन के वार्तिक से मिलती है। साक्ष्यों से पता चलता है कि आरंभ में चोलों की राजधानी उत्तरी ‘मलनाडु’ थी। कालांतर में यह उरैयूर और तंजावूर हो गई। चोलों का राजकीय चिन्ह बाघ था।

करिकाल

प्रथम चोल शासक इलंजेत्सेन्नी था, किंतु उसका पुत्र करिकाल (190 ई.) संगमकालीन चोल राजाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण था। ‘करिकाल’ का अर्थ है ‘जले हुए टांग वाला’। उसके प्रारंभिक जीवन के संबंध में पता चलता है कि उसके शत्रुओं ने उसका पैतृक राज्य छीन लिया था। करिकाल ने अपने पराक्रम से सभी शत्रुओं को हराकर अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने वेणी (तंजौर) के समीप अपने समकालीन चेर और पांड्य राजाओं तथा ग्यारह सामंतों के संघ को हराया। तत्पश्चात्, वाहैप्परण्डलै के युद्ध में उसने नौ शत्रुओं के एक संघ को भी परास्त किया।

करिकाल की उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि उसने हिमालय तक सैनिक अभियान किया और वज्र, मगध तथा अवंति को जीता। जब वह खुले समुद्र में जहाज चलाता था, तो हवा भी उसके अनुसार बहने को बाध्य होती थी। उसकी सिंहल विजय का वृत्तांत भी मिलता है। कहा जाता है कि उसने सिंहल से 12,000 युद्धबंदियों को लाकर पुहार के बंदरगाह का निर्माण करवाया। किंतु इन विजयों की प्रामाणिकता संदिग्ध है।

करिकाल ने उद्योगों और कृषि के विकास के लिए कावेरी नदी के मुहाने पर पुहार की स्थापना की और सिंचाई के लिए नहरों तथा तालाबों का निर्माण करवाया। वह कला और साहित्य का संरक्षक और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। पत्तिनप्पालै के लेखक को उसने 16 लाख मुद्राएँ भेंट की थीं। पेरुनानुरुप्पदै में उसे सात स्वरों का ज्ञाता बताया गया है।

करिकाल के बाद चोलों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। ऐसा प्रतीत होता है कि चोल वंश दो भागों में बँट गया। नलंगिल्ली ने करिकाल के तमिल राज्य पर शासन किया और नेडुगिल्ली से दीर्घकालीन संघर्ष किया। अंततः करियारु के युद्ध में नेडुगिल्ली की पराजय हुई। इस युद्ध का उल्लेख मणिमेकलै में मिलता है। इसके बाद के चोल शासकों का इतिहास प्रामाणिक नहीं लगता। संभवतः चोल शासकों ने तीसरी-चौथी शताब्दी तक शासन किया। इसके बाद, नवीं शताब्दी ई. में विजयालय के नेतृत्व में चोल सत्ता का पुनरुत्थान हुआ।

चेर राज्य

संगम साहित्य का दूसरा प्रमुख राज्य चेरों का था। प्राचीन चेर राज्य में उत्तरी त्रावणकोर, कोचीन, और दक्षिणी मलाबार शामिल थे। प्रारंभिक चेर राजाओं को ‘वानवर’ जाति का बताया गया है। चेरों की राजधानी करूर या वंजीपुर थी, और उनका राजकीय चिन्ह धनुष था। टॉलमी चेरों की राजधानी ‘करौरा’ का उल्लेख करता है, जिसकी पहचान करूर से की गई है।

उदयनजिरल

संगम युग का प्रथम ऐतिहासिक चेर शासक उदयनजिरल (लगभग 130 ई.) था। कहा जाता है कि उसने कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन कराया था, अतः उसे ‘महाभोज उदयनजिरल’ की उपाधि दी गई।

उदयनजिरल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नेडुनजिरल आदन (155 ई.) था। इसकी राजधानी मरंदै थी। कहा जाता है कि उसने मलाबार तट पर किसी शत्रु को पराजित किया और कुछ यवन व्यापारियों (रोमन और अरब व्यापारियों) को बंदी बनाया। एक अनुश्रुति के अनुसार उसने एक अभिषिक्त शासक को हराकर ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की। किंतु उसके द्वारा हिमालय तक की विजय (इमैवरैयन) और उस पर्वत पर चेर राजचिन्ह अंकित करने का दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है। उसने अपने समकालीन चोल शासक से युद्ध किया और दोनों राजा मारे गए।

आदन के छोटे भाई कुट्टुवन ने कोन्गु के युद्ध में सफलता प्राप्त की और चेर राज्य को पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तक विस्तृत किया। इसने कई सामंतों को हराया और ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की। नेडुनजिरल के दो पुत्र थे—कलंगायक्कणि नारमुडिच्छेरल और शेनगुट्टुवन।

शेनगुट्टुवन

शेनगुट्टुवन 180 ई. के आसपास राजा बना। इसके यश का गान संगमकालीन प्रसिद्ध कवि परणर ने किया है। वह साहसी योद्धा और कुशल सेनापति था। उसके पास हाथी, घोड़ों के अलावा एक नौसैनिक बेड़ा भी था, क्योंकि परणर ने इसके समुद्री अभियान का उल्लेख किया है। इसने पूर्वी और पश्चिमी समुद्र के बीच अपना राज्य विस्तृत किया और ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की।

शेनगुट्टुवन ने कण्णगी पूजा या पत्तिनी पूजा को आरंभ किया। माना जाता है कि पत्तिनी पूजा की मूर्ति उसने किसी आर्य राजा को हराकर प्राप्त की थी और उस मूर्ति को गंगा नदी में धोकर लाया था। इस कथा से लगता है कि पत्तिनी पूजा का किसी न किसी रूप में उत्तर भारत से संबंध था। शिल्प्पादिकारम् में भी कण्णगी पूजा का प्रमाण मिलता है।

ऐसा प्रतीत होता है कि शेनगुट्टुवन के बाद चेर वंश कई उप-शाखाओं में बँट गया। इसके बाद के महत्त्वपूर्ण चेर शासक थे—अन्दुवन और उसका पुत्र वाली आदन। अपने शौर्य और उदार संरक्षण के कारण कवियों ने इन दोनों की प्रशंसा की है। अन्य छोटे शासकों में आयि और पारि की भी कवियों द्वारा प्रशंसा की गई है। आयि और पारि दोनों वेल शासक थे।

पेरनजिरल इरुमपौरै

चेर वंश की मुख्य शाखा का शासक शेनगुट्टुवन का पुत्र पेरनजिरल इरुमपौरै (190 ई.) था। वह महान वीर और साहसी नरेश था। उसके विरुद्ध सामंत आडिगइमान ने चोल और पांड्य राजाओं का एक संयुक्त मोर्चा बनाया, किंतु इरुमपौरै ने तीनों को अकेले ही पराजित कर तगदूर (धर्मपुरी) पर अधिकार कर लिया। तगदूर का आडिगइमान भी विद्वानों का संरक्षक था और इसने अनेक यज्ञ किए। आडिगइमान का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य दक्षिण में गन्ने की खेती शुरू करना था। कहा जाता है कि इसने अपने राज्य में स्वर्ग से लाकर गन्ने की खेती की परंपरा शुरू की थी।

कवियों द्वारा उल्लिखित अंतिम चेर शासक कुडक्को इलंजिरल इरुमपौरै था, जिसने चोल और पांड्य राजाओं के विरुद्ध सफलता प्राप्त की थी। लगभग 210 ई. के एक अन्य चेर शासक का भी उल्लेख मिलता है, जिसका नाम ‘हाथी जैसे आँखों वाला शेय’ था। इसकी उपाधि ‘मांदरजिरल इरुमपौरै’ थी। यह अपने समकालीन पांड्य शासक नेडुजेलियन से पराजित हुआ, किंतु बाद में इसने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली।

पांड्य राज्य

संगम युग का तीसरा राज्य पांड्यों का था, जो कावेरी के दक्षिण में स्थित था। इसमें आधुनिक मदुरै, तिनवेली के जिले और त्रावणकोर के कुछ भाग शामिल थे। पांड्यों की राजधानी मदुरै थी, और उनका राजचिन्ह मछली था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मदुरै कीमती मोतियों, उच्चकोटि के वस्त्रों और विकसित वाणिज्य और व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।

भांगुड़ी मरुदन द्वारा रचित मदुरैकांजी और अन्य स्रोतों से पहले तीन पांड्य शासकों के संबंध में जानकारी मिलती है। प्रथम शासक नेडियोन था, किंतु इसकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है। अनुश्रुतियों से पता चलता है कि नेडियोन ने पहरुली नामक नदी को अस्तित्व प्रदान किया और सागर पूजा की प्रथा शुरू की। इसके बाद मुदुकुडुमी पलशालै शासक हुआ।

मुदुकुडुमी पलशालै

वेलविकुडी दानपत्र के अनुसार मुदुकुडुमी पलशालै पांड्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था। इसने अनेक यज्ञ किए और ‘पलशालै’ की उपाधि धारण की। पांड्य वंश का तीसरा शासक नेडुजेलियन था। सिंहासनारोहण के समय वह अल्पायु था, जिसका लाभ उठाकर चेर, चोल और पाँच अन्य राजाओं ने मिलकर उसके राज्य को जीत लिया और उसकी राजधानी मदुरै को घेर लिया। किंतु वीर और साहसी नेडुजेलियन ने अपने शत्रुओं को खदेड़ते हुए चोल राज्य की सीमा में प्रवेश किया। उसने तलैयालंगानम (तंजौर) के युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित किया और चेर शासक शेय को बंदी बना लिया।

नेडुजेलियन की उदारता और दानशीलता की प्रशंसा की गई है। इसी शासक ने कण्णगी के पति कोवलन को मृत्युदंड दिया था। इसके बाद उसने पश्चाताप में आत्महत्या कर ली।

संगमकालीन राज्य-व्यवस्था, समाज, और संस्कृति

संगमकालीन प्रशासन

दक्षिण के संगमकालीन चोल, चेर और पांड्य राज्य एक प्रकार के कुल-राज्य-संघ थे। ऐसे राज्यों का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। संगमकालीन राजा का पद वंशानुगत होता था, जो ज्येष्ठता पर आधारित था। राजा का चरित्रवान, प्रजापालक, निष्पक्ष और संयमी होना अनिवार्य था। अपने जीवनकाल में ही राजा युवराज की नियुक्ति कर देता था। राजा के निःसंतान मरने पर मंत्रियों और प्रजा द्वारा राजा का चुनाव किया जाता था। उत्तराधिकार के स्पष्ट नियमों के अभाव में कभी-कभी उत्तराधिकार के लिए युद्ध भी होते थे। राज्याभिषेक का प्रचलन नहीं था, किंतु सिंहासनारोहण के समय उत्सव का आयोजन किया जाता था।

संगम युग : राजनीतिक, समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Sangam Age : Political, Socio-economical and Cultural Life)
संगमकालीन राज्य-व्यवस्था, समाज और संस्कृति

राजा सर्वशक्तिमान होता था, किंतु उसकी निरंकुशता पर परंपराएँ, बुद्धिमान मंत्रियों या राज्य के कवियों का नियंत्रण रहता था। शासन-कार्य में राजा ब्राह्मणों की सभा से सहायता प्राप्त करता था। संगमकालीन कवियों ने राजा को सलाह दी है कि वह ब्राह्मणों को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखे। राज्य द्वारा ब्राह्मणों को सर्वोच्च अधिकार और सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। राजधानी में राजा प्रतिदिन अपनी राजसभा ‘नालवै’ में प्रजा के कष्ट सुनता और शासन-कार्य संपन्न करता था। राजा की सहायता के लिए अधिकारियों और परामर्शदाताओं का एक समूह होता था, जिन्हें ‘पंचवारक’ कहा जाता था, जैसे—अमैच्चार (प्रधानमंत्री या मंत्री), पुरोहितार (पुरोहित), सेनापतियार (सेनापति), दूतार (विदेशी विभाग) और ओरार (गुप्तचर)।

राजकीय दरबार में सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। राजा कवियों, विद्वानों और विभिन्न कलाओं को संरक्षण और प्रोत्साहन देता था। कभी-कभी वह कवियों और कलाकारों को दान भी देता था। करिकाल ने पत्तिनप्पालै के लेखक को 16 लाख सोने की मुद्राएँ दी थीं। गायकों के गीतों के साथ नर्तकियाँ नाचती थीं। राजा का जन्मदिन महोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसे ‘पेरूनल’ कहा जाता था। राजमहल में एक विशेष प्रथा ‘करलमारम’ या ‘कादिमारस’ थी, जिसके अंतर्गत प्रत्येक राजा अपनी शक्ति के प्रतीक के रूप में राजमहल में एक वृक्ष लगाता था।

मनरम (सभा)

संगम साहित्य से तत्कालीन न्याय-व्यवस्था के संबंध में कुछ जानकारी मिलती है। राज्य का सर्वोच्च न्यायालय ‘मनरम’ (सभा) कहलाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘भवन’ है। राजा सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था, किंतु उसकी सहायता के लिए अन्य सदस्य भी होते थे। न्यायाधीशों से निष्पक्ष न्याय की अपेक्षा की जाती थी। दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर थी। संगमकाल के बाद की कृति कुरल में मनरम को सभी कार्यों को संपादित करने वाली साधारण परिषद कहा गया है। ग्रामीण जीवन की सामाजिक और धार्मिक समस्याओं के समाधान के लिए भी ‘मनरम’ जैसी सभाएँ होती थीं।

संगमयुगीन राजाओं का मुख्य आदर्श दिग्विजय प्राप्त करना, प्रजा को संतान के समान पालना और पक्षपातरहित शासन करना था। राजा से विजेता (विजिगीषु) होने की अपेक्षा की जाती थी,और इसके लिए उसे युद्ध करना पड़ता था। पुरनानुरु में चक्रवर्ती राजा की अवधारणा मिलती है।

संगमकालीन शासकों के पास चतुरंगिणी सेना—रथ, हाथी, अश्व और पदाति होती थी। सेना के प्रमुख की उपाधि ‘एनाड़ी’ थी। युद्ध गौरव का विषय था और युद्धभूमि में राजा सैनिकों के साथ स्वयं लड़ता था। युद्ध में वीरगति प्राप्त करने वालों की स्मृति में शिलापट्ट लगाए जाते थे। राजा और राजमहल की सुरक्षा के लिए सशस्त्र महिलाएँ नियुक्त की जाती थीं। नगाड़ा या ढोल बजाकर सैनिकों को बुलाया जाता था और जलघड़ी द्वारा समय की सूचना दी जाती थी। पेशेवर सैनिक ‘पक्षेय’ कहलाते थे, जिसका अर्थ ‘विनाशक’ होता था। युद्ध में शत्रु के खेतों और फसलों को नष्ट कर दिया जाता था।

राजकीय आय के प्रमुख स्रोत

राजकीय आय के प्रमुख स्रोत कृषि और व्यापार-वाणिज्य थे। तमिल प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध था। कावेरी डेल्टा अत्यंत उपजाऊ था। भूमिकर संभवतः उपज का 1/6 भाग वसूल किया जाता था, जिसे ‘करै’ कहा जाता था। कर देने के लिए अनाज को ‘अंबानम’ में तौला जाता था। संभवतः यह बड़ा तौल था। छोटे तौल के रूप में ‘नालि’, ‘उलाकै’, और ‘अलाक’ प्रचलित थे। सामंतों द्वारा दिया गया अंश या युद्ध से प्राप्त लूट ‘दुरै’ कहलाता था। अतिरिक्त कर या जबरन वसूला गया कर ‘इरावु’ कहलाता था। राजा को दिया गया उपहार ‘पदु’ कहलाता था।

व्यापारियों से सीमा-शुल्क और चुंगी वसूल की जाती थी, जिससे राज्य को भारी आय होती थी। सीमा-शुल्क ‘उलगु’ या ‘उल्कु’ कहलाता था। पत्तिनप्पालै में कावेरीपट्टनम में कार्यरत सीमा-शुल्क अधिकारियों का वर्णन मिलता है। दस्तकारों को अपने उत्पादों पर शुल्क देना पड़ता था, जिसे ‘कारुकार’ कहा जाता था। अनधिकृत व्यापार की रोकथाम के लिए सड़कों पर पुलिस दिन-रात निगरानी करती थी।

संगम युग में स्थानीय प्रशासन को विशेष महत्त्व दिया गया था। राज्य को ‘मंडल’, ‘नाडु’ (जिले) और ‘उर’ (गाँव) में विभाजित किया गया था। नगर और गाँव में अलग-अलग सभाएँ होती थीं, जो प्रशासन में राजा की सहायता करती थीं। ‘उर’ (ग्राम) प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी, जहाँ स्थानीय ग्राम-पंचायतों के प्रतिनिधियों द्वारा ग्रामीण शासन का संचालन किया जाता था। बड़े गाँव ‘पेरूर’, छोटे गाँव ‘सिरूर’ और पुराने गाँव ‘मुदूर’ कहलाते थे। समुद्रतटीय कस्बों को ‘पत्तनम’ कहा जाता था।

संगमकालीन सामाजिक जीवन
तमिल समाज का स्वरूप

प्राचीन तमिल समाज का स्वरूप मूलतः जनजातीय था। संगम कवियों ने ‘मरवर’ नामक जनजातियों में प्रचलित ‘वेल्वी’ (गोहरण) प्रथा के अंतर्गत पशुओं की चोरी या लूट का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं इन पशुहरण करने वाले योद्धाओं की तुलना मांसाहारी गिद्धों से की गई है और कहीं उनकी प्रशंसा की गई है। इससे प्रतीत होता है कि पहाड़ी ढलानों पर निवास करने वाली लड़ाकू ‘मरवर’ जाति और मैदानी क्षेत्रों के पशुपालकों के बीच संघर्ष संगमकाल की प्रमुख विशेषता थी। पुरनानुरु में संकलित एक कविता में जंगल में चरवाहे को मारकर गाय के झुंड को लाकर उपहारस्वरूप बाँटने वाले नायक की प्रशंसा की गई है। परंतु कृषि क्षेत्र में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था।

संगम साहित्य से पता चलता है कि इस युग में उत्तरी और दक्षिणी भारत के सांस्कृतिक तत्त्वों का समन्वय हो रहा था। उत्तर भारतीय समाज की भाँति तमिल समाज भी वर्गभेद पर आधारित था। तमिल समाज में ब्राह्मणों के उदय के कारण धीरे-धीरे पुरानी नातेदारी व्यवस्था टूट रही थी और वैदिक वर्णव्यवस्था स्थापित हो रही थी, किंतु संगम युग में वर्ण-विभाजन स्पष्ट रूप से नहीं दिखता। वैदिक संस्कृति के प्रचलन के कारण ब्राह्मणों और पुरोहितों की प्रतिष्ठा में पर्याप्त वृद्धि हुई थी। राजा उन्हें भूमि, अश्व, रथ, हाथी और धन दान में देते थे। ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना राजा का कर्तव्य था। संगमकालीन ब्राह्मण मांस-भक्षण और सुरापान करते थे, किंतु समाज में इसे निंदनीय नहीं माना जाता था।

ब्राह्मणों के बाद संगमयुगीन समाज में ‘वेल्लालर’ जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। चोल और पांड्य राज्यों में सैनिक और असैनिक दोनों प्रकार के अधिकारियों के पद पर वेल्लालर लोगों की नियुक्ति की जाती थी, जो संपन्न कृषक थे और युद्धों में भाग लेते थे। राजपरिवार से जुड़े व्यक्तियों को ‘अरसर’ कहा जाता था, और उनके वैवाहिक संबंध वेल्लालरों से होते थे। वेल्लालर दो वर्गों में बँटे थे—एक वर्ग बड़े किसानों (वेलिर) का और दूसरा वर्ग भूमिहीन किसानों का। खेतिहर मजदूरों को ‘कडैसियार’ कहा जाता था।

संगम साहित्य में ‘वेनिगर’ नामक व्यापारिक जाति का भी उल्लेख मिलता है। इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अच्छी नहीं थी और इनकी गणना शूद्रों में की जाती थी। इनके अलावा समाज में अन्य कई जातियाँ थीं। ‘पुलैयन’ जाति रस्सी और चमड़े से चारपाई और चटाई बनाती थी। तमिल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर ‘मलवर’ जाति के लोग रहते थे, जिनका पेशा लूट-मार करना था। चरवाहों और शिकारियों का अलग वर्ग था। ‘एयिनार’ शिकारियों की जाति थी। इसके अलावा कुछ विशेष पेशों से जुड़े लोगों में लोहार (कोल्लम), बढ़ई (तच्चन), नमक का व्यापारी (कवण), अनाज का व्यापारी (कुलवण), वस्त्र का व्यापारी (वायवणिकम) और स्वर्ण व्यापारी (पोन, वाणिकम) आदि थे।

सामाजिक विषमता

संगमकालीन रचनाओं से सामाजिक विषमता का बोध होता है। उच्च और संपन्न वर्ग के लोग पक्की ईंटों और सुरखी से बने बड़े मकानों में रहते थे, जबकि निम्न वर्ग के लोग घास-फूस की झोपड़ियों में निवास करते थे। भवनों का निर्माण शास्त्रीय नियमों के अनुसार किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि इस युग में आर्थिक प्रगति का लाभ समाज के सभी वर्गों को समान रूप से नहीं मिल सका था। किंतु संगम युग में दास प्रथा के प्रचलन का साक्ष्य नहीं मिलता, यद्यपि समाज में अस्पृश्यता विद्यमान थी। तोल्काप्पियम् से पता चलता है कि तमिल समाज में विवाह एक संस्कार के रूप में स्थापित था।

तमिल देश में स्त्री और पुरुष के सहज प्रणय को मान्यता दी गई थी, जिसे ‘पांचतिणै’ कहा जाता था। एकपक्षीय प्रेम को ‘कैक्किलै’ और औचित्यहीन प्रेम को ‘पेरुंदिणै’ कहा जाता था। इन उल्लेखों से प्रतीत होता है कि वैदिक धर्मशास्त्रों में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों को समन्वित करने का प्रयास किया जा रहा था।

शिक्षा

संगमकालीन समाज की विशेषता थी कि समाज के सभी वर्गों में शिक्षा का समुचित प्रचलन था। साहित्य, विज्ञान, ज्योतिष, गणित और व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षकों को ‘कणक्कायन’ और विद्यार्थियों को ‘पिल्लै’ कहा जाता था। मंदिर शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे और गुरु-दक्षिणा देने की प्रथा थी। इस काल में चित्रकला और मूर्तिकला का भी विकास हुआ था।

स्त्रियों का स्थान

संगमकालीन पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों का स्थान अपेक्षाकृत निम्न था। कन्या का जन्म अशुभ माना जाता था। स्त्रियों को संपत्ति में कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। किंतु स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण करती थीं और सामाजिक अनुष्ठानों में भाग ले सकती थीं। तमिल साहित्य में ओवैयर और नच्चेल्लियार जैसी स्त्री कवयित्रियों की चर्चा मिलती है। राजा के अंगरक्षक के रूप में भी स्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी।

संगमकालीन समाज में गणिकाओं और नर्तकियों के रूप में क्रमशः ‘पाणर’ और ‘कणिगैचर’ का उल्लेख मिलता है, जो वेश्यावृत्ति द्वारा जीवन-यापन करती थीं। नर्तकियाँ घरेलू स्त्रियों के लिए अशुभ मानी जाती थीं। विधवाओं को सिर मुड़ाकर सादा जीवन बिताना पड़ता था। उनकी स्थिति इतनी दयनीय थी कि वे स्वेच्छा से सती होना पसंद करती थीं। संभवतः इसी से सती प्रथा का प्रचलन हुआ।

संगम कवियों ने समाज में मदिरापान, विषय-वासना और मांस-भक्षण के रीति-रिवाजों का सजीव वर्णन किया है। मांसाहार का व्यापक प्रचलन था, और ब्राह्मण भी मांस का आनंदपूर्वक भक्षण करते थे। भेड़, सुअर आदि का मांस खाया जाता था। कहीं-कहीं मछली खाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। शिकार खेलना, कुश्ती लड़ना, द्यूत, गोली खेलना, कविता, नाटक, नृत्य और संगीत मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। इस समय का एक प्रमुख वाद्य-यंत्र ‘याल’ था, जिसमें तार लगे होते थे। कौवे को शुभ पक्षी माना जाता था, जो अतिथि के आगमन की सूचना देता था। कौवे नाविकों को सही दिशा का ज्ञान भी कराते थे, इसलिए सागर के बीच चलने वाले जहाजों पर उन्हें ले जाया जाता था।

संगमकालीन मृतक संस्कार

संगम साहित्य से तत्कालीन मृतक संस्कार के संबंध में भी कुछ जानकारी मिलती है। अग्निदाह और समाधिकरण दोनों विधियों से शवों को विसर्जित किया जाता था। कभी-कभी शवों को खुले में जानवरों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता था और बाद में मृतक की अस्थियों को एकत्र कर कलश में या बिना कलश के दफनाया जाता था। मणिमेकलै में वर्णित नगर के बाहर के शवाधानों का विवरण महापाषाणीय साक्ष्यों से मिलता-जुलता है। इस युग में वीरों और योद्धाओं की समाधियों के स्थान पर पत्थर गाड़ने की प्रथा थी, जिन्हें ‘वीरगल’ या ‘वीर-प्रस्तर’ कहा जाता था। इससे प्रतीत होता है कि महापाषाणिक संस्कृति की कुछ प्रथाएँ संगम काल में भी प्रचलित थीं। स्त्रियाँ अपने मृत पतियों की आत्मा की शांति के लिए चावल के पिंड का दान देती थीं।

इस प्रकार संगम कवियों के वर्णन से स्पष्ट है कि चेर, चोल और पांड्य तथा दक्षिण के अन्य छोटे राज्यों के अंतर्गत जिस सामाजिक ढाँचे में ब्राह्मण संस्कृति की नैतिकता और उच्च आदर्श स्थापित हो रहे थे, उसी में जनजातीय रीति-रिवाज और उनके जीवन-मूल्य भी प्रतिष्ठित थे। इनमें प्रचलित युद्ध के तरीके, नायकों की परिकल्पना, शूरवीरता-संबंधी उनकी मर्यादा, गोमांसाहार की परंपरा और मृत नायकों के सम्मान में पाषाण-स्मारकों की स्थापना आदि का तत्कालीन जीवन पर गहरा प्रभाव था।

संगमकालीन आर्थिक जीवन

संगमयुगीन राज्यों के अस्तित्व और उत्थान का आधार कृषि-व्यवस्था थी। संगम साहित्य के अनुसार दक्षिण भारत की भूमि अत्यंत उपजाऊ थी और यहाँ पर्याप्त अनाज पैदा होता था। आबूरकिलार के अनुसार जितनी भूमि एक हाथी बैठने में घेरता है, उतनी भूमि में सात व्यक्तियों के लिए अन्न पैदा होता था। एक अन्य कवि के अनुसार एक ‘वेली’ भूमि में एक सहस्र कलम चावल पैदा होता था। चावल, रागी, गन्ना और कपास आदि की खेती की जाती थी।

इसके अतिरिक्त, कटहल, कालीमिर्च, और हल्दी आदि का भी उत्पादन होता था। संगम कवियों ने रागी, गन्ने के उत्पादन, शक्कर बनाने, फसल काटने और खाद्यान्नों को सुखाने जैसे कृषि-कार्यों का सजीव वर्णन किया है।

किसानों को ‘वेल्लालर’ और उनके प्रमुखों को ‘वेलिर’ कहा जाता था। काले और लाल मृद्भांडों के निर्माण का श्रेय इन्हीं वेलिर लोगों को दिया जाता है। वेल्लालर दो वर्गों में बँटे थे—एक वर्ग भूसंपन्न किसानों का और दूसरा खेतिहर मजदूरों का, जो संपन्न किसानों की भूमि पर मजदूरी करते थे। संगम साहित्य से ज्ञात होता है कि निम्नवर्ग की स्त्रियाँ खेतों में काम करती थीं, जिन्हें ‘कडैसियार’ कहा जाता था। इस समय नदियों, तालाबों, नहरों और कुओं द्वारा सिंचाई की जाती थी।

कृषि के अतिरिक्त, इस युग में उद्योग-धंधों का भी विकास हुआ। कपड़ा बुनना इस काल का प्रमुख उद्योग था। सूत और रेशम के कपड़े बनाए जाते थे। चोलों की राजधानी उरैयूर और मदुरै वस्त्र-उद्योग के प्रमुख केंद्र थे। सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थीं। संगम साहित्य से पता चलता है कि इस समय बेलबूटेदार रेशमी वस्त्रों का भी निर्माण होता था। सूती कपड़े साँप के केचुल या भाप के बादल जैसे महीन होते थे, और उनकी कताई इतनी बारीक होती थी कि वे आँखों से दिखाई नहीं देते थे। इसके अतिरिक्त, इस काल में रस्सी बुनने, हाथीदाँत की वस्तुएँ बनाने, जहाज निर्माण, सोने के आभूषण बनाने और समुद्र से मोती निकालने का कार्य भी होता था।

संगमकालीन आर्थिक समृद्धि का एक प्रमुख कारण तत्कालीन आंतरिक और विदेशी व्यापार था। इस काल में तमिल देश का व्यापार पश्चिम में रोम, मिस्र और अरब, तथा पूर्व में मलय द्वीपसमूह के साथ होता था। संगम साहित्य में चोल राज्य में पुहार (कावेरीपट्टनम), पांड्य राज्य में शालियूर और चेर राज्य में बंदर नामक तटों की गणना महत्त्वपूर्ण व्यापारिक बंदरगाहों में की गई है।

पुहार बंदरगाह इतना सुविधाजनक था कि विदेशों से सामान लेकर आने वाले बड़े जहाज पाल उतारे बिना तट तक आ जाते थे। पांड्य और अन्य राज्यों में घोड़ों का आयात किया जाता था। पांड्य राज्य में कोरकै भी एक प्रसिद्ध बंदरगाह था, जो मोती खोजने का प्रमुख पत्तन था। पेरिप्लस के अनुसार नौरा, मुशिरी, मजरिस, नेलसिंडा, तोंडी, बकरे, वलीता और कोमारी पश्चिमी समुद्र तट पर महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे। यहाँ से कालीमिर्च, मसाले, रत्नमणि, सूती वस्त्र, शंख, इमारती लकड़ी और हाथीदाँत जहाजों में भरकर पश्चिमी देशों को भेजे जाते थे और ताँबा, टीन, शराब आदि वस्तुओं का आयात किया जाता था। पूर्वी तट के प्रमुख पत्तन कोलची, कमरा, पोदुका और मसलिया थे।

सुदूर दक्षिण के तोंडी, मुशिरी, और पुहार में यवन लोग बड़ी संख्या में रहते थे। चेरों की प्राचीन राजधानी करूर (तिरुचिरापल्ली) से चक्रांकित बर्तन, निचले आवासीय स्थल से एक ताम्र सिक्का और ग्रैफिटी चिन्हों वाले काले और लाल मृद्भांड मिले हैं।

कोरोमंडल समुद्रतट पर अरिकमेडु भारत और रोम के बीच एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। यहाँ से रोमन बस्ती के प्रमाण मिले हैं। इसके समीप मुजरिस बंदरगाह भी था। यहाँ से एक मालगोदाम, दो रंगाई के हौज, रोमन दीप के टुकड़े, काँच के कटोरे, रत्न, मनके और बर्तन प्राप्त हुए हैं। एक मनके पर रोमन सम्राट अगस्तस का चित्र बना है।

उत्तर भारत और सुदूर दक्षिण के बीच आंतरिक व्यापार की सूचना ई.पू. चौथी शताब्दी से मिलती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक दक्षिणी मार्गों के नाम दिए गए हैं। उत्तर के उत्तरी काले मृद्भांड सुदूर दक्षिण में भी लोकप्रिय थे। उत्तर और दक्षिण के बीच प्रायः मोती, रत्न, स्वर्ण और उत्तम किस्म के वस्त्रों का व्यापार होता था।

संगम साहित्य में नमक के व्यापारियों का विशेष उल्लेख मिलता है। आंतरिक व्यापार वस्तु-विनिमय द्वारा होता था। विनिमय की दर निश्चित नहीं थी। धान और नमक दो ऐसी वस्तुएँ थीं, जिनकी विनिमय दर निश्चित थी। धान की समान मात्रा के बदले नमक दिया जाता था। विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, पशु, गन्ना, ताड़ी, मछली का तेल और मांस आदि का उल्लेख साहित्य में मिलता है, जिनकी अदला-बदली की जा सकती थी। चेरों के समय में रजत और ताम्र धातुओं के आहत सिक्के प्रचलित किए गए। प्राचीन तमिल साहित्य में कुछ सिक्कों की जानकारी मिलती है, जैसे—काशई, कनम, पोन और वेनपोन। माल ढोने के लिए गाड़ियों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। व्यापारियों के स्थलमार्ग के कारवाँ का नेतृत्व करने वाले सार्थवाह को ‘वासातुस्वा’ और समुद्री सार्थवाह को ‘मानानिकम’ कहा जाता था।

संगम साहित्य से पता चलता है कि इस युग में उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक संपर्क स्थापित हो चुका था। वैदिक और ब्राह्मण धर्मों का समाज में प्रचार-प्रसार था। दक्षिण में वैदिक संस्कृति के प्रसार का श्रेय अगस्त्य को दिया जाता है। वहाँ अनेक मंदिर अगस्त्येश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं, जिनमें शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। एक परंपरा के अनुसार पांड्य राजवंश के पुरोहित अगस्त्य वंश के थे। एक परंपरागत अनुश्रुति है कि तमिल भाषा और व्याकरण की उत्पत्ति अगस्त्य ने की। पुरनानुरु और तोल्काप्पियम् के अनुसार अगस्त्य का संबंध द्वारका से था। महाभारत और पुराणों में वर्णित आख्यानों में भी दक्षिण के भागों में वन जलाने और कृषि के विस्तार से अगस्त्य का संबंध स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया है। इससे दक्षिण में अगस्त्य द्वारा कृषि-विस्तार की परंपरा की पुष्टि होती है।

संगम युग में ब्राह्मणों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था, और राजा द्वारा उन्हें दान दिया जाता था। यज्ञों का आयोजन किया जाता था। धार्मिक कार्यों का संचालन ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था। कौडिण्य गोत्र के ब्राह्मणों ने दक्षिण भारत में वैदिक धर्म को लोकप्रिय बनाया। यहाँ ब्राह्मण धर्म से संबंधित विष्णु, शिव, कृष्ण,और इंद्र आदि देवताओं की पूजा की जाती थी। मणिमेकलै में शैव सन्यासियों की चर्चा की गई है।

तमिल देश का सबसे प्राचीन और लोकप्रिय देवता ‘मुरुगन’ था। कालांतर में मुरुगन को सुब्रह्मण्यम कहा गया और स्कंद-कार्तिकेय के साथ इसका एकीकरण कर दिया गया। उत्तर भारत में स्कंद-कार्तिकेय को शिव-पार्वती का पुत्र माना जाता है। स्कंद का एक नाम ‘कुमार’ भी है और तमिल भाषा में मुरुगन का अर्थ भी ‘कुमार’ होता है। मुरुगन का प्रतीक मुर्गा (‘कुक्कट’) माना गया है और कहा जाता है कि उसे पर्वत-शिखर पर क्रीड़ा करना पसंद है। उसका अस्त्र बर्छा था। मुरुगन का एक अन्य नाम ‘वेलन’ भी मिलता है, जिसका संबंध वेल (बर्छा) से है। मुरुगन की पत्नियों में ‘कुरवस’ नामक एक पर्वतीय जनजाति की स्त्री की गणना की गई है। आदिच्चनल्लूर से शव-कलश के साथ मिले काँसे के कुक्कट और लोहे के बर्छे आदि से प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत में इस देवता की पूजा प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित थी। किसान लोग इंद्र (मरुदम—जुते खेत) की पूजा करते थे। पुहार (कावेरीपट्टनम) में इंद्र के सम्मान में वार्षिक उत्सव मनाए जाने का विवरण मिलता है।

संगमकालीन समाज में वीर-पूजा और सती-पूजा का भी प्रचलन था। ‘कोरनाबै’ विजय की देवी थी। बहेलिए ‘कोर्रलै’ की उपासना करते थे और पशुचारक लोग कृष्ण की पूजा करते थे।

संगम काल में तमिल प्रदेश में बलि प्रथा प्रचलित थी। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेड़ और भैंस आदि की बलि चढ़ाई जाती थी। देवताओं की पूजा-अर्चना के लिए मंदिरों की व्यवस्था थी, जिन्हें नगर, कोट्टम, पुराई या कोलि कहा जाता था। यद्यपि मंदिर अस्तित्व में थे, किंतु धार्मिक कार्य प्रायः खुले में वृक्षों के नीचे आयोजित किए जाते थे।

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