1793 का चार्टर ऐक्ट (Charter Act of 1793)

1793 का चार्टर ऐक्ट (Charter Act of 1793)

1793 का चार्टर ऐक्ट

1773 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्राप्त हुआ था। यह समय-सीमा 1793 में समाप्त हो रही थी। लॉर्ड कॉर्नवालिस के शासनकाल के अंतिम दिनों में चार्टर ऐक्ट के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश संसद में बहस चलने लगी। इंग्लैंड के व्यापारियों ने कंपनी के एकाधिकार के विरुद्ध आंदोलन किया, किंतु संचालकों की धूर्तता और फ्रांस के साथ हो रहे युद्ध के कारण आंदोलन सफल नहीं हो सका। नियंत्रण बोर्ड और निदेशक मंडल ने पूर्व में व्यापार और उद्योगों की स्थापना के संबंध में रिपोर्ट देने के लिए एक कमेटी गठित की। 23 फरवरी, 1793 को नियंत्रण-बोर्ड के अध्यक्ष डुंडास ने संसद में भारतीय मामलों के प्रशासन के प्रति संतोष प्रकट किया और चार्टर को दुहराये जाने की माँग की। प्रधानमंत्री पिट और डुंडास की कृपा से संसद ने बिना किसी अवरोध के 1793 का ऐक्ट पारित कर कंपनी के राजपत्र का 20 वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। पिट के शब्दों में ‘यह ऐक्ट इतनी शांति से पारित हुआ कि इसका उदाहरण संसद के इतिहास में नहीं मिलता।’

1793 के चार्टर ऐक्ट की प्रमुख विशेषताएँ

इस चार्टर ऐक्ट का उद्देश्य केवल कंपनी की व्यवस्था को सुदृढ़ करना था। इस चार्टर ऐक्ट की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्त्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ निम्न थीं-

इस ऐक्ट द्वारा कंपनी को बीस वर्ष के लिए पुनः पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया। अधिनियम के विरोधियों की आवाज बंद करने के लिए इंग्लैंड के अन्य व्यापारियों को तीन हजार टन तक का वार्षिक व्यापार करने की अनुमति देनी पड़ी, किंतु यह सुविधा ऐसी शर्तों से आच्छादित थी कि अन्य व्यापारी इसका कोई लाभ नहीं उठा सके।

इस अधिकार-पत्र के द्वारा कंपनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित कर यह अनुमान लगाया गया कि कंपनी को प्रतिवर्ष 12,29,241 पौंड का लाभ होगा, जिसमें से वह पाँच लाख पौंड इंग्लैंड के कोष में देगी और पाँच लाख पौंड से अपने ऋणों का भुगतान करेगी। शेष लाभांश हिस्सेदारों (शेयरधारकों) का मुनाफा होगा। यद्यपि ब्रिटेन को अपने हिस्से के पाँच लाख पौंड प्रतिवर्ष कभी नहीं मिले, किंतु शेयरधारकों का लाभांश 8 से 10 प्रतिशत जरूर हो गया।

इस अधिनियम के द्वारा यह संशोधित व्यवस्था की गई कि नियंत्रण-बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों का वेतन भारतीय आय से दिया जायेगा। यद्यपि यह प्रथा बहुत दुर्भाग्यपूर्ण थी, किंतु 1919 के भारतीय शासन अधिनियम के लागू होने तक यह व्यवस्था चलती रही।

इस चार्टर ऐक्ट द्वारा गवर्नर जनरल, गवर्नरों और प्रधान सेनापति की नियुक्ति के लिए इंग्लैंड के सम्राट की स्वीकृति अनिवार्य हो गई। अब नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी-कौंसिलर होना जरूरी नहीं था। गवर्नर जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कंपनी के उच्च पदाधिकारी पद पर रहते हुए छुट्टी लेकर भारत से बाहर नहीं जा सकते थे। यह व्यवस्था 1925 तक संसद द्वारा इससे संबंधित एक विशेष अधिनियम पारित होने तक बनी रही।

सपरिषद् गवर्नर जनरल को प्रांतीय सरकारों के सैनिक तथा असैनिक शासन-प्रबंध, राजस्व-संग्रह तथा भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और संधि से संबंधित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार मिल गया।प्रत्येक प्रांत का शासन एक गवर्नर और तीन सदस्यों की परिषद् को सौंपा गया। प्रांतीय परिषद् के सदस्य केवल वही व्यक्ति हो सकते थे, जिन्हें नियुक्ति के समय कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत में काम करते हुए कम से कम 12 वर्ष हो गये हों।

गवर्नर जनरल तथा गवर्नर को अपनी परिषद् के ऐसे निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार मिला, जिनसे भारत में शांति-व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की संभावना हो। उन्हें न्याय, विधि तथा कर-संबंधी मामलों में परिषद् के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था। प्रधान सेनापति किसी भी परिषद् का सदस्य तब तक नहीं हो सकता था, जब तक उसको विशेष रूप से संचालकों द्वारा सदस्य नियुक्त न किया जाए। इसके पूर्व प्रधान सेनापति के लिए परिषद् का सदस्य होना आवश्यक था।

इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि जब गवर्नर जनरल किसी प्रांत का दौरा करेगा, तो उस समय प्रांतीय शासन-प्रबंध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा। गवर्नर जनरल बंगाल में अपने अनुपस्थिति के समय परिषद् के किसी सदस्य को अपनी परिषद् का उपाध्यक्ष नियुक्त करेगा।

कंपनी के कर्मचारियों के संबंध में ज्येष्ठता के सिद्धांत का पालन किया गया। यदि गवर्नर जनरल या गवर्नर का पद रिक्त हो जाए, तो उस पद पर स्थायी नियुक्ति होने तक परिषद् का सबसे वरिष्ठ सदस्य (प्रधान सेनापति के सिवाय) उस पद पर काम करेगा। कंपनी के असैनिक कर्मचारियों को पदोन्नति देने के संबंध में नियम बनाये गये।अधिनियम के द्वारा कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों में वृद्धि की गई। उसे शांति-व्यवस्था के लिए नागरिक सेवा के सदस्यों, स्वास्थ्य करों का निर्धारण करने तथा बिना लाइसेंस शराब बेचने पर रोक लगाने का अधिकार मिल गया। यही नहीं, उसका नौसैनिक क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।

अधिनियम में यह बात फिर दुहराई गई कि भारत में कंपनी द्वारा राज्य-विस्तार और विजय करना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, प्रतिष्ठा और उसके सम्मान के विरुद्ध है। सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेंसी (बंबई या मद्रास) के नागरिक सेवा के किसी भी सदस्य को ‘शांति के न्यायाधीश’ नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। उपहार आदि लेना दुराचरण तथा अपराध घोषित किया गया और इसके लिए दोषी व्यक्ति को कठोर दंड देने की व्यवस्था की गई।

गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को प्रेसीडेंसी नगरों में सड़कों की सफाई, देख-रेख और मरम्मत करने के लिए मेहतरों की नियुक्ति करने का अधिकार मिला। अब वे इन बस्तियों में स्वच्छता के लिए उप-शुल्क लगाकर इस कार्य के लिए आवश्यक धन भी जुटा सकते थे।

1773 का रेग्युलेटिंग ऐक्ट एवं 1781 का संशोधित अधिनियम

1793 के चार्टर ऐक्ट का मूल्यांकन

इस ऐक्ट का कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं था। फिर भी, भारतीय संविधान पर इसका प्रभाव बहुत लंबे समय तक बना रहा। यद्यपि युद्ध और विस्तार की नीति न अपनाने की बात दोहराई गई, किंतु प्रसारवादी नीति के पोषक अंग्रेज अधिकारियों की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण विस्तारवादी युद्ध होते रहे। इस चार्टर की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके द्वारा नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई, जिसके कारण भारत को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी।

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