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राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग
इंद्र द्वितीय के बाद उसकी चालुक्यवंशीय पत्नी भवनागा से उत्पन पुत्र दंतिदुर्ग (735-756 ई.) राजा हुआ, जिसे राष्ट्रकूट राजवश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यद्यपि दंतिदुर्ग भी आरंभ में वातापी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय का सामंत था, किंतु उसने अपनी योग्यता और दूरदर्शिता से राष्ट्रकूट राजवश एवं राज्य को एक स्वतंत्र राजवंश और साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। इसके सिंहासनारोहण की तिथि लगभग 735 ई. निर्धारित की जा सकती है क्योंकि इसने 742 ई. तक पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली थी।
दंतिदुर्ग के शासनकाल के दो अभिलेख मिले हैं- एक 742 ई. का एलोरा से प्राप्त खंडित दशावतार अभिलेख और दूसरा 753-54 ई. का समनगद अभिलेख। इन अभिलेखों से उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में भी उसकी विजयों की चर्चा मिलती है।
दंतिदुर्ग की राजनैतिक उपलब्धियाँ
राजनीतिक स्थिति: दंतिदुर्ग के सिंहासनारोहण के समय उत्तर में अरबी सेनापति जुबैद के आक्रमण के कारण काठियावाड़ एवं गुजरात क्षेत्र में अव्यवस्था फैल चुकी थी। अरबों के निरंतर आक्रमण के कारण नौसारी, नंदिपुरी तथा वल्लभी के राज्य आर्थिक रूप से कमजोर हो चुके थे। मैत्रक शासक शीलादित्य पंचम् तथा गुर्जर नरेश जयभट्ट तृतीय ने उनके अभियान को अवरुद्ध करने का सफल प्रयास किया, किंतु उन्हें स्थायी सफलता नहीं मिल सकी। किंतु गुजरात का चालुक्य नरेश जनाश्रय पुलकेशिन् जुबैद के आक्रमण को अवरुद्ध करने में सफल रहा। यद्यपि नौसारी ताम्रलेख में इस विजय का पूरा श्रेय चालुक्यराज विक्रमादित्य को दिया गया है, लेकिन अल्तेकर जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि इस युद्ध में दंतिदुर्ग ने भी अपने स्वामी चालुक्य विक्रमादित्य की आज्ञा से पुलकेशिन् की सहायता की थी, जिससे प्रसन्न होकर ही विक्रमादित्य ने दंतिदुर्ग को पृथिवीवल्लभ और खड्वालोक की उपाधियाँ प्रदान की थी।
दंतिदुर्ग ने चालुक्य नरेश विक्रमादित्य के सामंत के रूप में अपनी योग्यता ओर दूरदर्शिता के बल पर अपनी शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया। एलोरा, समनगद तथा इंद्र तृतीय के बेग्रुमा लेखों में उसे माही, महानदी एवं रेवा नदियों के तटों पर युद्ध करने तथा कांची, कलिंग, कोशल, श्रीशैल, मालव, लाट, टंक तथा सिंध के शासकों को पराजित करने का श्रेय दिया गया है। लेख के अनुसार उसने उज्जैन पर अधिकार कर वहाँ हिरण्यगर्भ महादान नामक यज्ञ किया, जिसमें गुर्जर प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का काम किया था।
दुतिदुर्ग की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि 753 ई. में चालुक्यों को पराजित कर अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना करना था। समकालीन लेखों में उसे कर्नाटक सेना पर विजय प्राप्त करने और वल्लभ को पराजित करने का उल्लेख मिलता है। परवर्ती लेखों में भी दंतिदुर्ग को चालुक्यों की अधिसत्ता से मुक्त होने तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक के अनेक राजाओं का विजेता कहा गया है।
किंतु दंतिदुर्ग की इन विजयों का सही क्रम निर्धारित करना कठिन है। अल्तेकर के अनुसार उसने कुछ शासकों को चालुक्यों के सामंत के रूप में और कुछ शासकों को स्वतंत्र होने के बाद पराजित किया था। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि दंतिदुर्ग ने चालुक्यों के अधीन सामंत के रूप में सबसे पहले अरबों, पल्लवों के विरूद्ध सफलता प्राप्त की। इसके बाद उसने गुर्जर, मालवा, उज्जैन तथा मध्य भारत को विजित किया। वातापी के चालुक्यों को पराजित कर सार्वभौम स्थिति को प्राप्त करना दंतिदुर्ग की अंतिम उपलब्धि रही होगी।
दंतिदुर्ग की आरंभिक विजयें
अरबों के विरूद्ध सहयोग: संभवतः चालुक्यों के सामंत के रूप में दंतिदुर्ग को पहली सफलता अरबों के विरूद्ध मिली थी। दंतिदुर्ग के 742 ई. के एलोरा लेख में पृथ्वीवल्लभ तथा खड्गावलोक की उपाधियों से विभूषित किया गया है, जबकि इसी लेख में इसके पूर्ववर्ती शासकों को मात्र समधिगतपंचमहाशब्द तथा सामंताधिपति जैसी उपाधियाँ प्रदान की गई है। इससे लगता है कि 742 ई. के लगभग इसने किसी युद्ध में विशिष्ट ख्याति अर्जित की थी।
अल्तेकर का अनुमान है कि इसने अपने स्वामी की आज्ञा से गुजरात के चालुक्यराज जनाश्रय पुलकेशिन् को अरबों के विरूद्ध युद्ध में सैनिक सहयोग दिया था और उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। इसी सहयोग से प्रसन्न होकर विक्रमादित्य ने दंतिदुर्ग को पृथ्वीवल्लभ तथा खड्वालोक की उपाधियों से सम्मानित किया था, जिसका उल्लेख 742 ई. के एलोरा लेख में मिलता है।
पल्लवों तथा श्रीशैल के विरुद्ध अभियान
दंतिदुर्ग ने 743 ई. के आसपास संभवतः चालुक्य युवराज कीर्तिवर्मन् द्वितीय के साथ कांची के पल्लवों के विरुद्ध अभियान में भाग लिया और पल्लवराज को पराजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कांची अभियान से वापस लौटते हुए उसने कर्नूल में श्रीशैल के शासक को भी पराजित किया। अल्तेकर महोदय का अनुमान है कि उस समय संपूर्ण कर्नाटक कीर्तिवर्मन् द्वितीय के अधीन था और उसके सामंत के रूप में ही दंतिदुर्ग ने कॉँची एवं श्रीशैल पर आक्रमण किया होगा।
इस प्रकार दंतिदुर्ग ने अरबों, पल्लवों और श्रीशैल के विरूद्ध अभियानों में अपने अधिराज चालुक्य विक्रमादित्य की आज्ञा से भाग लिया था।
स्वतंत्र राज्य की स्थापना का प्रयास
अरबों, पल्लवों और श्रीशैल के विरूद्ध युद्धों में प्राप्त सफलता से दंतिदुर्ग की महत्वाकांक्षा का बढ़ना स्वाभाविक था। उसकी माँ चालुक्य राजकुमारी थी, इसलिए उसमें जन्म से ही सामाजिक महत्वाकांक्षा विद्यमान थी। सौभाग्य से इस समय चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन् द्वितीय उसके जैसा योग्य तथा अनुभवी नहीं था।
दंतिदुर्ग एक साहसी योद्धा और विजेता होने के साथ-साथ एक दूरदर्शी शासक भी था। उसने 744 ई. के आसपास अपने स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना के लिए अपना विजय-अभियान प्रारंभ किया। चूंकि दंतिदुर्ग केवल बरार (महाराष्ट्र का आधुनिक एलीचपुर) तथा पश्चिमी मध्य भारत के एक भू-भाग का स्वामी था और कर्नाटक पर चालुक्यों का शक्तिशाली शासन था। इसलिए उसने अपने विजय अभियान का श्रीगणेश पश्चिम तथा पूरब दिशा से किया, ताकि चालुक्य सम्राट का कम से कम प्रतिरोध सहन करना पड़े।
नंदीपुरी तथा नौसारी की विजय
अरबों के आक्रमण के कारण नंदीपुरी के गुर्जरों और नौसारी के चालुक्य सामंतों की शक्ति काफी क्षीण हो चुकी थी। इस अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाकर दंतिदुर्ग ने अपने चचेरे भाई गोविंद की सहायता से नंदीपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्य सामंत को पराजित किया। उसने चचेरे भाई गोविंद को दक्षिणी गुजरात का शासक नियुक्त किया और नंदीपुरी को राष्ट्रकूट राज्य में सम्मिलित किया।
मालवा के प्रतिहारों पर आक्रमण
दंतिदुर्ग ने पूरब की ओर मालवा पर नजर डाली, जो गुर्जर प्रतिहारों का अधीनस्थ राज्य था। इस समय मालवा में सीलुक और देवराज के बीच गद्दी के लिए संघर्ष चल रहा था। इसका लाभ उठाते हुए दंतिदुर्ग ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उसकी राजधानी उज्जयिनी को अधिकृत कर लिया। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने उज्जयिनी के राजप्रासाद में हिरण्यगर्भ-महादान संपन्न किया और नगर के प्रसिद्ध देव महाकाल को रत्न-जटित मुकुट भेंट किया। संजन लेख के अनुसार हिरण्यगर्भ यज्ञ में गुर्जर प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का काम किया था-
हिरण्यगर्भं राजन्यैरुज्जयन्यां यदासितम्।
प्रतिहारीकृतं येन गुर्जरेशादिराजकम्।।
अल्तेकर के अनुसार मालवा पर आक्रमण एक धावा मात्र था। दंतिदुर्ग ने प्रतिहार राज्य पर अपना अधिकार नहीं किया तथा उसे अपने प्रभाव में लाकर ही संतुष्ट हो गया।
कोशल और कलिंग की विजय
मालवा से वापस लौटकर दंतिदुर्ग ने पूर्वी मध्य प्रदेश की ओर आगे बढ़कर महाकोशल अर्थात मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। समनगद अभिलेख के अनुसार दंतिदुर्ग की हस्तिसेना ने माही तथा महानदी में स्नान का आनंद लिया था। महाकोशल का राजा कौन था? इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। वापस लौटते हुए उसने कलिंग को भी पराजित किया।
सुदूर दक्षिण में अभियान
नीलकंठ शास्त्री जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि इसके बाद दंतिदुर्ग ने सुदूर दक्षिण की ओर सैनिक अभियान किया और श्रीशैल राज्य को जीतता हुआ चालुक्यों के पराने शत्रु पल्लवों की राजधानी कांची तक पहुँच गया। इसके पहले इसने चालुक्यों के सहायक के रूप में कांची पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण में भी दंतिदुर्ग ने पल्लव राजा नंदिवर्मन् द्वितीय को पराजित किया। किंतु बाद में दोनों शासकों में मित्रता हो गई और दंतिदुर्ग ने नंदिवर्मन् के साथ अपनी पुत्री रेवा का विवाह कर दिया, जो बाद में नंदिवर्मन् पल्लवमल्ल की प्रधान महिषी बनी।
चालुक्यों से संघर्ष
दंतिदुर्ग की विजयें और उसकी सैनिक सफलताएँ कीर्तिवर्मन् के लिए खुली चुनौती थीं। शक्ति-संतुलन बनाये रखने के लिए कीर्तिवर्मन् द्वितीय का दंतिदुर्ग से युद्ध होना अनिवार्य था। अल्तेकर का अनुमान है कि कीर्तिवर्मन् ने जब नौसारी के अपने गुर्जर सामंत को गुजरात में पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, तो दंतिदुर्ग ने इसका विरोध किया और दक्षिणी गुजरात को छोड़ने से इनकार कर दिया। फलतः दोनों के बीच युद्ध आरंभ हो गया। यद्यपि इस युद्ध का विस्तृत विवरण नहीं मिलता है, किंतु राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि युद्ध में दंतिदुर्ग को निर्णायक रूप से विजय मिली थी। समनगद लेख (753-54 ई.) के अनुसार दंतिदुर्ग ने बिना शस्त्र उठाये ही अपनी भृकुटीभंग मात्र से चालुक्यों की विशाल कर्नाट सेना को पराजित कर दिया था-
सभ्रूविभंगमग्रहीतनिशातशस्त्रम्।
अश्रान्तमप्रतिहताज्ञमपेतयत्नम्।।
यो वल्लभं सपदि दण्डबलेन जित्वा।
भृत्यैः कियद्भिरपियः सहसा जिगाय।।
राष्ट्रकूटों तथा चालुक्य सम्राट की सेनाओं के बीच यह युद्ध कहाँ हुआ था, इसकी स्पष्ट सूचना नहीं है। संभवतः यह युद्ध मध्य महाराष्ट्र में किसी स्थान पर हुआ था।
चालुक्य सम्राट को पराजित करने के बाद दंतिदुर्ग ने चालुक्य साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया और इस विजय के उपलक्ष्य में महाराजाधिराज, परमेश्वर, परमभट्टारक जैसी सम्राट-सूचक उपाधियाँ धारण की।
यद्यपि दंतिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन् को पराजित कर महाराष्ट्र पर अधिकार कर लिया, किंतु इस पराजय से चालुक्यों की शक्ति का विनाश नहीं हुआ और वातापी तथा कर्नाटक पर उनका प्रभुत्व बना रहा। स्रोतों से पता चलता है कि कीर्तिवर्मन् ने 754 ई. में सतारा में एक गाँव दान में दिया था और 757 ई. में भीमा नदी के तट पर अपनी विजयवाहिनी सेना का एक शिविर लगाया था।
राष्ट्रकूटों की आरंभिक राजधानी
दंतिदुर्ग के राज्यकाल में राष्ट्रकूटों की राजधानी कहाँ थी, इस संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। कथाकोश में शुभतुंग को, जो कृष्ण प्रथम की उपाधि थी, माल्खेद का शासक बताया गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का सुझाव है कि मान्यखेट आरंभ से ही राष्ट्रकूटों की राजधानी थी। अल्तेकर के अनुसार शुभतुंग कृष्ण द्वितीय की उपाधि थी और कर्क द्वितीय के दानपत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अमोघवर्ष प्रथम ने सर्वप्रथम मान्यखेट को राष्ट्रकूटों की राजधानी बनाया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि अमोघवर्ष प्रथम के पहले राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट के अलावा कहीं और थी।
कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि नासिक जिले में स्थित मयूरखिंडि या मारेखिंड दुर्ग ही आरंभिक राष्ट्रकूटों की राजधानी थी क्योंकि वांनि डिंडोरि दानपत्र इसी स्थान से जारी किया गया था। किंतु अल्तेकर के अनुसार लेख में प्रयुक्त ‘मयूरखिंडीशमा वासितेनमया’ से पता चलता है कि इस दानपत्र के जारी करने के समय गोविंद तृतीय ने यहाँ अस्थायी शिविर लगाया था। इसलिए मयूरखिंडि एक सैनिक अड्डा था, राजधानी नहीं। इसी प्रकार नासिक को भी इनकी प्रारंभिक राजधानी नहीं माना जा सकता है क्योंकि धुलिया तथा पिप्पेरी अनुदानपत्रों में नासिक को वायसराय का केंद्र बताया गया है।
इसी प्रकार लट्टलूर तथा पैठन को भी इनकी प्रारंभिक राजधानी नहीं माना जा सकता है। संभवतः राष्ट्रकूटों की आरंभिक राजधानी एलोरा के निकट सोलोबंजुन में स्थित थी क्योंकि इस स्थल से कुछ पुरातात्विक अवशेष और एक विशाल जलाशय के प्रमाण मिले हैं। संभव है कि बरार में एलिचपुर आरंभिक राष्ट्रकूटों की राजधानी रही हो।
दंतिदुर्ग का मूल्यांकन
दंतिदुर्ग एक महान् विजेता, कुशल कूटनीतिज्ञ और महान् प्रशासक था। वह राष्ट्रकूट साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था। उसने अपने सामरिक अभियानों में भतीजे कर्क द्वितीय तथा चाचा कृष्ण प्रथम का भरपूर सहयोग लिया। उसने अपने समकालीन मध्य भारत, दक्षिणापथ एवं सुदूर दक्षिण के लगभग सभी महत्वपूर्ण शासकों को पराजित कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो उत्तर में गुजरात तथा मालवा की उत्तरी सीमा से लेकर दक्षिण में पल्लव राज्य की उत्तरी सीमा तक विस्तृत था।
दंतिदुर्ग धार्मिक प्रवृत्ति का बाह्मण धर्मावलंबी शासक था। उसने शास्त्रों के आदर्शानुसार शासन किया और अपनी माँ के आदेशानुसार कई गाँवों का दान दिया था। उज्जयिनी में उसने हिरण्यगर्भ महादान यज्ञ के अवसर पर बड़ी मात्रा में स्वर्ण और रत्नों का भी दान किया था। 754 ई. के रथसप्तमी के पुण्य अवसर पर भी उसने ब्राह्मणों में स्वर्ण तुलाभार दान वितरित किया था।
समनगद दानपत्र 753-54 ई. में प्रकाशित किये गये थे, इसलिए दंतिदुर्ग के शासनकाल की अंतिम तिथि 754 ई. है। इसके उत्तराधिकारी की प्रथम ज्ञात तिथि 758 ई. है। संभवतः 754 और 758 ई. के बीच 756 ई. के आसपास इसकी मृत्यु हुई होगी। इस प्रकार दंतिदुर्ग ने राष्ट्रकूट राजवंश को स्वतंत्र स्थायित्व प्रदान कर अपने उत्तराधिकारियों के लिए साम्राज्य-विस्तार का स्वर्णिम मार्ग प्रशस्त किया।
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