मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन (Mauryan Social, Religious and Cultural Life)

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन

मौर्यकालीन सामाजिक जीवन

पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समाज के चारों वर्गों का उल्लेख है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। उसके अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किये थे, किंतु शूद्र को शिल्पकला और सेवा-वृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हें सम्मिलित रूप में ‘वार्ता’ कहा गया है। निश्चित है कि इस आर्थिक सुधार का प्रभाव शूद्रों की सामाजिक स्थिति पर पड़ा होगा। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप से भी शूद्र कृषि, पशुपालन तथा व्यापार किया करते थे। अर्थशास्त्र में एक और परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है कि यहाँ शूद्र को ‘आर्य’ कहा गया है और उसे ‘म्लेच्छ’ से भिन्न बताया गया है। कहा गया है कि आर्य शूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता, यद्यपि म्लेच्छों में संतान को दास रूप में बेचना या खरीदना दोष नहीं है।

ब्राह्मण

समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था, किंतु मनु तथा पूर्वगामी धर्मसूत्रों की भाँति इस तथ्य को बार-बार दुहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया है। ब्राह्मण दो वर्गों में विभाजित थे- उदीची और सतलक्खन। उदीची ब्राह्मण शिक्षित एवं रूढ़िवादी थे और शिक्षक एवं पुरोहित का काम करते थे। सतक्लखन ब्राह्मण सांसारिक और अज्ञानी थे।

ब्राह्मण, समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख मेगस्थनीज ने भी किया है। राजा के पुरोहित और कानून-मंत्री प्रायः इसी वर्ग से नियुक्त किये जाते थे। उन्हें आर्थिक और कानून-संबंधी अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहितों (आचार्यों) तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। यह भूमि ‘ब्रह्मदेय’ कहलाती थी और पूर्णतः कर-मुक्त होती थी।

वर्णसंकर जातियाँ

ब्राह्मणादि चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख किया है। इनकी उत्पत्ति धर्मशास्त्रों की भाँति विभिन्न वर्णों के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से बताई गई है। जिन वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है, वे हैं- अंबष्ठ, निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वैदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चंडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं, जो निश्चित व्यवसाय से आजीविका चलाती थीं। कौटिल्य ने चांडालों (अंतावसायी) के अतिरिक्त अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र माना है।

मौर्य युग में अनेक ऐसी जातियों का विकास हो चुका था जिनका आधार कोई विशेष शिल्प या पेशा था। इस काल में तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), चर्मकार (चमार), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग, जाति का रूप धारण कर चुके थे। अर्थशास्त्र में इन सबका समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में ‘दास’ और ‘कर्मकर’ का उल्लेख है, जो शूद्र वर्ग के अंदर ही समाविष्ट किये जा सकते हैं।

जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज की इंडिका से होती है। मेगस्थनीज ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता था और न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल सकता था। केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपात्काल में क्षत्रिय तथा वैश्य का व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गई है।

मेगस्थनीज ने भारतीय सामाज को, भारतीय ग्रंथों में वर्णित वर्गीकरण से भिन्न, सात जातियों में विभाजित किया है- दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर, अमात्य एवं सभासद। मेगस्थनीज का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जाति व्यवस्था से मेल नहीं खाता। उसके अनुसार दार्शनिक कर से मुक्त थे। उसने दार्शनिकों की जाति को दो श्रेणियों में विभक्त किया है- ब्राह्मण और श्रमण।

ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। वे माँस खाते थे, परंतु उन पशुओं का नहीं, जिनका प्रयोग श्रम-कायों में होता था।

ब्राह्मणों को कई पत्नियाँ रखने का अधिकार था। ब्राह्मणों की वृत्ति के संबंध में मेगस्थनीज लिखता है कि यज्ञ, अत्येष्टि-क्रिया तथा अन्य धार्मिक-कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती थी।

श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। जो वनों में रहते थे और कंदमूल-फलों पर आजीविका चलाते थे, इन्हें ‘वैखानस’ कहा जाता था और ये ‘वानप्रस्थ आश्रम’ से संबद्ध थे। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। स्ट्रैबो ने दार्शनिकों की एक श्रेणी को ‘प्रमोनोई’ अर्थात् प्रमाणिक कहा है। वे ऐसे दार्शनिक होते थे जिन्हें शास्त्रार्थ से प्रेम होता था।

इस प्रकार मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया गया है। संभवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ रहा।

स्त्रियों की स्थिति

परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। पुनर्विवाह की व्यवस्था के बावजूद समाज में ऐसी विधवाओं का अस्तित्व था जो पुनर्विवाह न करके स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करती थीं। कौटिल्य ने ऐसी स्त्री को ‘स्वच्छंदवासिनी’ (स्वतंत्र रूप से रहने वाली) कहा है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में परिव्राजिकाओं (संन्यासिनी) का भी उल्लेख किया गया है जिन्हें समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त था। कौटिल्य ने इनके लिए ‘कृत्सकारा’ शब्द का प्रयोग किया है।

फिर भी, मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति को बहुत उन्नत नहीं माना जा सकता। स्त्रियाँ प्रायः विभिन्न पेशे से दूर रहती थीं, केवल बुनाई के पेशे में ही उनकी भागीदारी अधिक थी। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और वे पति की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। अभिजात घर की स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर ही रहती थीं। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को ‘अनिष्कासिनी’ कहा है। राजघराने के अंतःपुर का उल्लेख अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों में हुआ है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सतीप्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस समय के धर्मशास्त्र इस प्रथा के विरुद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है, किंतु यूनानी लेखकों ने उत्तर पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है।

नगर जीवन

नगरों का जीवन चहल-पहल का था। नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले तथा मदारी, गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों के गाँवों में प्रवेश पर निषेध था, किंतु नगरों में ऐसा प्रतिबंध नहीं था। नगरों में प्रेक्षाएँ (नाट्य संस्थाएँ) लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे, इन्हें ‘रंगोपजीवी’ तथा ‘रंगोपजीविनी’ कहते थे।

जनता समाज, विहार यात्रा, प्रवहण आदि के माध्यम से सामूहिक रूप से अपना मनोरंजन करती थी। समाज में लोग सुरापान, मांस-भक्षण तथा मल्ल-युद्ध को देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक इस प्रकार के समाजों को पसंद नहीं करता था, इसलिए उसने नये समाजों को प्रारंभ किया, जिनमें हस्ति, अग्नि-स्तंभ तथा विमानों की झांकियाँ दिखाई जाती थीं, ताकि लोगों को धर्माचरण की प्रेरणा मिल सके। कुछ ऐसे समाज भी थे, जो सरस्वती के भवन में आयोजित होते थे और इनमें साहित्यिक नाटकों का अभिनय तथा गोष्ठियों का आयोजन होता था। विहार-यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता रहती थी। अशोक ने इन यात्राओं को प्रतिबंधित कर धम्म-यात्राओं को आरंभ किया। ‘प्रवहण’ भी एक प्रकार का सामूहिक समारोह था, जिसमें भोज्य और पेय-पदार्थों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता था।

गणिकाएँ

मौर्ययुग में भी बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर ‘गणिका’ या ‘वेश्या’ के रूप में जीवन-यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ ‘रूपाजीवा’ कहलाती थीं।

राज्य गणिकाओं के प्रशिक्षण पर खर्च करता था और इस प्रकार की गणिकाएँ राज्य के नियंत्रण में गणिकाध्यक्ष तथा एक राजपुरुष की देखरेख में कार्य करती थीं। इनसे राज्य को अच्छी आय होती थी। बहुत सी गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं।

मौर्य साम्राज्य की विस्तृत नौकरशाही के लिए यह आवश्यक था कि राज्य प्रत्येक संभव स्रोत से धनार्जन करे। एक ओर जहाँ विकासशील कृषि एवं व्यापार के क्षेत्र से राज्य की आय बढ़ाना स्वाभाविक था, वहाँ दूसरी ओर जुआघरों, मद्यपान की दुकानों, वेश्यालयों आदि को भी आय का स्रोत बनाया गया। वेश्याघरों के पनपने में तो राज्यों ने पूँजी-निवेश भी किया। गणिकाओं के प्रशिक्षण और उन्हें ललित-कलाओं में निपुण बनाने में राज्य का जो व्यय होता था, उसके कारण वे गणिकाएँ पूर्णरूप से राज्य के नियंत्रण में रहती थीं। उनकी आमदनी एवं संपत्ति पर राज्य का अधिकार था। उनकी मुक्ति तभी संभव थी, जब उन पर किये गये खर्च का 24 गुना धन दिया जाये। इस प्रावधान की पूर्ति लगभग असंभव ही थी। अतः वे गणिकाएँ दासी-तुल्य ही थीं, यद्यपि उनको सभी प्रकार के कामों में नहीं लगाया जा सकता था।

दास प्रथा

मेगस्थनीज ने लिखा है कि सभी भारतवासी समान हैं और उनमें कोई दास नहीं है। डायोडोरस ने लिखा है कि कानून के अनुसार उनमें से कोई भी किसी भी परिस्थिति में दास नहीं हो सकता था। मेगस्थनीज को ही उद्धृत करते हुए स्ट्रैबो का कहना है कि भारतीयों में किसी ने अपनी सेवा में दास नहीं रखे। एक अन्य स्थल पर स्ट्रैबो ने कहा है कि चूँकि उनके पास दास नहीं हैं, अतः उन्हें बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है।

किंतु इन विदेशी उल्लेखों को शब्दशः स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कम से कम बुद्धकाल से ही दासों को उत्पादन के काम में लगाया जाता था और पालि त्रिपिटक में इसके असंख्य उल्लेख मिलते हैं। संभव है कि मेगस्थनीज को भारत में दासों के प्रति स्वामियों का व्यवहार निर्मल और सद्भावनापूर्ण लगा हो अथवा यह भी संभव है कि उसने किसी विशेष क्षेत्र का ही उल्लेख किया हो। इस संदर्भ में मेगस्थनीज के कथन का यह अर्थ हो सकता है कि स्वतंत्र लोगों को आजीवन दासता में परिणत करने की सीमाएँ थीं।

वस्तुतः मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। त्रिपिटक की तुलना में कौटिल्य ने कहीं अधिक विस्तार से दासों का वर्गीकरण किया है। जहाँ त्रिपिटक में दासों के चार प्रकार बताये गये हैं, वहीं कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है और दास प्रथा की कानूनी वैधता को स्वीकार किया है। बौद्ध ग्रंथों एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उत्पत्ति एवं कार्यों के आधार पर किये गये दासों के वर्गीकरण से लगता है कि वे संपत्ति का ही एक रूप थे। वस्तुतः इन कृतियों में पाई जाने वाली दास-संबंधी परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ उस अंतर की ओर इंगित नहीं करती हैं जो वैदिक काल में दास एवं आर्य में था। इस समय सांस्कृतिक एवं नृजातीय विभिन्नताओं को आधार नहीं माना गया है, दास प्रथा केवल आर्थिक कारणों से संबंधित थी।

केंद्रीय राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित मौर्य साम्राज्य की स्थापना से दास प्रथा में अन्य रूपांतरण भी हुए। अभियान करके जबरदस्ती लोगों का अपहरण करने की नीति पर कौटिल्य द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों का निर्वचन इसी प्रकार किया जा सकता है। देश की राजनीतिक एकता के पश्चात् इस प्रकार के अभियानों का अर्थ गौण हो गया, किंतु दूसरी ओर इस राजनीतिक एकीकरण ने एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया, जो देश के आर्थिक एकीकरण तथा साम्राज्य के कोने-कोने में व्यापार के विकास को प्रोत्साहित कर रही थी। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप नगरों का उदय हुआ और व्यापारियों का प्रभाव बढ़ा। सेट्ठियों के स्वार्थहित न केवल नगरों में थे, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों से भी जुड़े थे। वे भू-स्वामी थे और कभी-कभी तो संपूर्ण गाँव उनके अधीन होते थे। इन भूमियों पर उनके दास काम करते थे अथवा उन्हें किराये पर उठा दिया जाता था। दास-श्रम के द्वारा भूमि-कर्षण का यह तरीका सामान्य बात थी। मौर्य शासकों ने इसको समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया।

अशोक के काल में कलिंग के युद्ध के पश्चात् हजारों लोग बंदी बनाये गये थे और संभव है कि उनमें से कुछ मगध के बाजारों में पहुँचे हों और कुछ को उन उत्पादक गतिविधियों में लगाया गया हो, जिनके माध्यम से मध्य गंगाघाटी की संस्कृति के तत्वों का प्रसार दूरस्थ कबायली क्षेत्रों में किया गया।

कौटिल्य के विवरणों से स्पष्ट है कि राज्य की भूमि पर कृषि-कार्य में, खादानों में, कारखानों में, सुरक्षा-प्रबंधों में दासों एवं दासियों का प्रयोग किया जाता था।

दासप्रथा पर आधारित अन्य पुरातन समाजों की भाँति भारत में भी दासों के व्यक्तित्व एवं उनके श्रम का निपटारा करने में स्वामी को असीमित अधिकार प्राप्त थे। एक दास के रूप में जो व्यक्ति किसी अन्य की संपत्ति था, वह सभ्य समाज का सदस्य नहीं हो सकता था। यह अभिधारणा तो पूर्ण दासों के लिए ही सही थी, किंतु दूसरी ओर ऐसे लोग भी थे, जो अस्थायी रूप से बंधक एवं आश्रित थे।

दास प्रथा से संबंधित कौटिल्य के विवरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग ‘आहितकों’ का वर्णन है। कौटिल्य ने आजीवन दासों एवं किसी काल-विशेष के लिए समझौते द्वारा उत्पन्न दासों (आहितक) में अंतर किया है। आहितक लोग एक निश्चित काल के लिए ही सेवा करने के लिए उत्तरदायी होते थे और यह अवधि बीत जाने के बाद स्वतंत्र व्यक्तित्व के अधिकारी हो जाते थे। कर्मकांडीय अशौचकृत्यों को करने के लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जा सकता था, उन्हें बेचा नहीं जा सकता था और न उन्हें धारक बनाया जा सकता था। स्वामी की इच्छा के बिना समय आने पर वे स्वतंत्र हो जाते थे।

अर्थशास्त्र के अनुसार सही अर्थों में तो केवल बर्बर, म्लेच्छ ही, जो वर्ण से बाहर थे तथा अनार्य (यहाँ पर आर्यों में शूद्र सम्मिलित हैं) समाज के सदस्य स्थायी रूप से दास बनाये जा सकते थे। यह निर्धारित करना कठिन है कि इस नियम का पालन वास्तविकता में कितना होता था, किंतु बंधक रखने की सीमाओं को सीमित करने के प्रयास तथा समुदाय में स्वतंत्र सदस्यों को दास रूप में परिणत करने की संभावनाओं को कम करना प्राचीन युग के अनेक समाजों की विशेषता रही है। कुल मिलाकर लगता है कि राज्य किसी प्रकार से दासों के स्तर को नियंत्रित और दास प्रथा की समस्याओं का स्पष्टीकरण करने के लिए इच्छुक था।

मौर्यकालीन धर्म एवं धार्मिक विश्वास

धार्मिक दृष्टि से मौर्य काल में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस दौरान बौद्ध धर्म का काफी विस्तार हुआ और उसे कई शासकों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। मौर्यकाल में यज्ञ इत्यादि कर्मकांड काफी प्रचलित थे। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म को स्वीकार किया था। जबकि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। उसके बाद अशोक ने दक्षिण एशिया व अन्य क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए काफी प्रयत्न किये। आरम्भ में अशोक वैदिक धर्म का अनुयायी थी, कई अभिलेखों में उसे देवानाम्प्रिय कह कर संबोधित किया गया है। बौद्ध धर्म का अनुयायी होने पर भी अशोक सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

यह सही है कि मौर्यकाल में धार्मिक दृष्टि से वैदिक धर्म की प्रधानता थी, किंतु कर्मकांडप्रधान वैदिक धर्म अभिजात ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। मेगस्थनीज के अनुसार ब्राह्मणों का समाज में प्रधान स्थान था। दार्शनिक यद्यपि संख्या में कम थे, किंतु वे सबसे श्रेष्ठ समझे जाते थे और यज्ञादि के कार्य में लगाये जाते थे। कौटिल्य के अनुसार ‘त्रयी’ अर्थात् तीन वेदों के अनुसार आचरण करते हुए संसार सुखी रहेगा और अवसाद को प्राप्त नहीं होगा। तदनुसार राजकुमार के लिए चोलकर्म, उपनयन, गोदान इत्यादि वैदिक संस्कार निर्दिष्ट किये गये थे। ऋत्विक, आचार्य और पुरोहित को राज्य से नियत वार्षिक वेतन मिलता था। वैदिक ग्रंथों और कर्मकांडों का उल्लेख प्रायः तत्कालीन बौद्धग्रंथों में मिलता है।

वेदों में निष्णात कुछ ब्राह्मण वेदों की शिक्षा देते थे तथा बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। उनको पालि ग्रंथों में ‘ब्राह्मणनिस्साल’ कहा गया है। वे अश्वमेघ, वाजपेय इत्यादि यज्ञ करते थे। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से कर-मुक्त भूमि दान में मिलती थी। अर्थशास्त्र में ऐसी भूमि को ‘ब्रह्मदेय’ कहा गया है और इन यज्ञों की इसलिए निंदा की गई है कि इनमें गौ और बैल का वध होता था जो कृषि की दृष्टि से उपयोगी थे।

उपनिषदों के अध्यात्म-जीवन, चिंतन तथा मनन का सम्मान खत्म नहीं हुआ था। सुत्तनिपात में ऐसे ऋषियों का उल्लेख है, जो पंचेंद्रिय सुख को त्यागकर इंद्रिय-संयम रखते थे। विद्या और पवित्रता ही इनका धन था। वे भिक्षा में मिलने वाले ‘ब्रीही’ से यज्ञ करते थे। यूनानी लेखकों के अनुसार ये वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले ब्राह्मण कुटियों में निवास करते थे। वहाँ संयम का जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन और मनन करते थे। वे अपना समय गहन प्रवचनों को सुनने और विद्या-दान में बिताते थे। मेगस्थनीज ने मंडनि और सिकंदर के बीच वार्तालाप का जो वृतांत दिया है, उससे मौर्यकालीन ब्राह्मण ऋषियों की जीवन-चर्या पर प्रकाश पड़ता है।

मौर्यकाल में वैदिक धर्म के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार के धार्मिक-जीवन का चित्र भी मिलता है, जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। ब्रह्मा, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित इत्यादि देवताओं का भी उल्लेख हुआ है। इनमें से बहुत से देवताओं के स्थान थे। स्थानीय तथा कुल-देवताओं के स्थान भी होते थे। इन देवताओं की पूजा पुष्प तथा सुगंधित पदार्थों से होती थी। नमस्कार, प्रणतिपात या उपहार से देवताओं को संतुष्ट किया जाता था। इन देवस्थानों पर मेले और उत्सव होते थे। यह जनसाधारण का धर्म था।

देवताओं की पूजा के साथ भूत-प्रेत तथा राक्षसों के अस्तित्व में जनसाधारण का विश्वास था। इन्हें अभिचार विद्या में कुशल व्यक्तियों की सहायता से संतुष्ट किया जाता था। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के जादू-टोनों का भी प्रयोग होता था। अक्षय धन, लंबी आयु, शत्रु का नाश आदि उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक अभिचार क्रियाएँ की जाती थीं। चैत्य-वृक्षों तथा नागपूजा का प्रचलन जन-साधारण में था। मौर्य सम्राट अशोक ने भी अपने नवें शिलालेख में लोगों द्वारा किये जाने वाले मांगलिक कार्यों का उल्लेख किया है। ये मांगलिक कार्य बीमारी के समय, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा यात्रा के अवसर पर किये जाते थे।

अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रंथों के साथ-साथ आजीवकों का भी उल्लेख किया है। राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में अशोक ने बराबर की पहाड़ियाँ में उन्हें दो गुफाएँ प्रदान की थीं। संपूर्ण मौर्यकाल में आजीवकों का प्रभाव बना रहा। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुन की पहाड़ियों में कुछ गुफाएँ आजीवकों को भेंट की थीं।

मौर्यकालीन शिक्षा, भाषा और साहित्य

मौर्यकाल में शिक्षा, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अच्छी उन्नति हुई। मौर्यकालीन शासकों के संरक्षण में शिक्षा की उन्नति को अनुकूल अवसर मिला। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सुविख्यात केंद्र था। यहाँ दूर-दूर के देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। कोशलराज प्रसेनजित् तक्षशिला में विद्यार्थी के रूप में रह चुका था। सम्राट बिंबिसार का राजवैद्य जीवक तक्षशिला का ही आचार्य था। चंद्रगुप्त मौर्य भी कुछ समय तक तक्षशिला में आचार्य चाणक्य का शिष्य बनकर रह चुका था। इसी प्रकार अनेक राजकुमार तक्षशिला में अध्ययन किया करते थे। तक्षशिला के आचार्य अपने ज्ञान के लिए सुविश्रुत थे। तक्षशिला में तीनों वेदों के अलावा विविध शिल्प, धनुर्विद्या, हस्ति विद्या, मंत्र विद्या, चिकित्सा शास्त्र आदि की शिक्षा दी जाती थी।

मौर्यकाल में तक्षशिला जैसे उच्च शिक्षा- केंद्रों के अतिरिक्त गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में शिक्षा दी जाती थी। राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि नगर शिक्षा के सुविख्यात केंद्र थे। इन शिक्षा केंद्रों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी। इसके अतिरिक्त अनेक आचार्य, पुरोहित तथा श्रोत्रिय आदि व्यक्तिगत रूप से शिक्षा दिया करते थे। शिक्षा-केंद्रों या विद्यापीठों में दो प्रकार के अंतेवासी आचार्य से शिक्षा ग्रहण करते थे- पहले धम्मनतेवासिक, जो दिन में आचार्य का काम करते थे और रात्रि में शिक्षा ग्रहण करते थे, दूसरे आचारिय भागदायक, जो आचार्य के निवास में रहकर उसके ज्येष्ठ पुत्र की तरह शिक्षा प्राप्त करते थे। ये अपना सारा समय ज्ञानार्जन में लगाते थे।

मौर्यकाल में तीन भाषाओं का प्रचलन था- संस्कृत, प्राकृत और पालि। पालि एक प्रकार की जन भाषा थी। अशोक ने पालि को संपूर्ण साम्राज्य की राजभाषा बनाया और इसी भाषा में अपने अभिलेख उत्कीर्ण कराये। इस युग में इन तीनों भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, भद्रबाहु का ‘कल्पसूत्र’ तथा बौद्ध ग्रंथ ‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ मौर्यकालीन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं। इसके अलावा, पतंजलि का ‘महाभाष्य’, हरिषेण का जैन ‘वृहत्कथाकोष’ तथा अभिनवगुप्त का ‘नाट्यशास्त्र’ भी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। समाति, यवकृत, प्रियंसु, सुमनोत्तरा, भीमरथ, वारुवदत्ता तथा देवासुर आदि की सुविश्रुत रचनाएँ इसी युग की हैं।

धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में भी इस युग में महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रणयन हुआ। प्रसिद्ध जैन आचार्य भद्रबाहु ने निर्युक्ति (प्रारंभिक धर्म ग्रंथ) पर एक भाष्य लिखा। जैन धर्म के प्रसिद्ध लेखक जंबूस्वामी, प्रभव और स्वयंभव की रचनाएँ इसी काल में लिखी गईं। ‘आचारांग सूत्र’, ‘समवायांग सूत्र’, ‘प्रश्न-व्याकरण’ आदि इसी युग की रचनाएँ हैं। बौद्ध साहित्य में ‘त्रिपिटकों’ का प्रणयन इसी काल में हुआ। वैदिक साहित्य के अंतर्गत आने वाली कई रचनाएँ भी इसी काल की हैं।

मौर्यकालीन कलात्मक उपलब्धियाँ

कला की दृष्टि से हड़प्पा की सभ्यता और मौर्यकाल के बीच लगभग 1500 वर्ष का अंतराल है। इस बीच की कला के भौतिक अवशेष उपलब्ध नहीं है। महाकाव्यों और बौद्ध ग्रंथों में हाथीदाँत, मिट्टी और धातुओं के काम का उल्लेख है, किंतु मौर्यकाल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के मूर्त उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। मौर्यकाल में ही पहले-पहल कलात्मक गतिविधियों का इतिहास प्रारंभ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकारों और कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला।

मौर्य कला के रूप

मौर्ययुगीन कला के दो रूप मिलते हैं- एक तो राजतक्षकों के द्वारा निर्मित दरबारी कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक-स्तंभों में पाई जाती है; दूसरा लोकप्रिय कला का वह रूप जो परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर-ग्राहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है। राज्यसभा से संबंधित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष-यक्षिणियों में लोककला कोरूप मिलता है। काष्ठ और मिट्टी के माध्यम से लोककला के रूपों की जो परंपरा पूर्व युगों से चली आ रही थी, इस काल में उसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।

राजकीय कला

राजकीय कला का सबसे पहला उदाहरण चंद्रगुप्त का राजप्रासाद है। एरियन के अनुसार राजप्रासाद की शान-शौकत का मुकाबला न तो सूसा और न एकबतना के राजप्रासाद ही कर सकते थे। यह प्रासाद संभवतः वर्तमान पटना के निकट कुम्रहार गाँव के समीप था। कुम्रहार की खुदाई में इस प्रासाद के सभा-भवन के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उससे प्रासाद की विशालता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह सभा-भवन खंभों पर आधारित विशाल भवन था।

सन् 1914-15 ई. तथा 1951 ई. की खुदाई में कुल मिलाकर 40 पाषाण-स्तंभ प्राप्त हुए हैं, जो इस समय भग्नदशा में हैं। इस सभा-भवन के फर्श और छत लकड़ी के बने थे। भवन की लम्बाई 140 फुट और चौड़ाई 120 फुट है। भवन के स्तंभ बलुआ पत्थर के बने हैं और उनमें चमकदार पॉलिश की गई थी। फाह्यान के अनुसार यह प्रासाद मानवकृति नहीं है, वरन् देवों द्वारा निर्मित है। प्रासाद के प्रस्तर-स्तंभ पर सुंदर उकेरन और उभरे चित्र बने हुए हैं। फाह्यान के वृत्तांत से लगता है कि अशोक के समय इस भवन का विस्तार हुआ था।

मेगस्थनीज के अनुसार पाटलिपुत्र, सोन और गंगा के संगम पर बसा हुआ था। नगर की लंबाई 9.5 मील और चौड़ाई 1.5 मील थी। नगर के चारों ओर लकड़ी की प्राचीर बनी हुई थी जिसके बीच-बीच में तीर चलाने के लिए छिद्र बने हुए थे। प्राचीर के चारों ओर एक खाई (परिखा) थी जो 60 फुट गहरी और 600 फुट चौड़ी थी। नगर में आने-जाने के लिए 64 द्वार थे। दीवारों पर बहुत से बुर्ज थे जिनकी संख्या 570 थी। पटना में गत वर्षों में जो खुदाई हुई है उसमें काष्ठ निर्मित प्राचीर के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 1920 में बुलन्दीबाग की खुदाई में प्राचीर का एक अंश उपलब्ध हुआ है, जो लंबाई में 150 फुट है। लकड़ी के खंभों की दो पंक्तियाँ पाई गई हैं जिनके बीच 14.5 फुट का अंतर है। यह अंतर लकड़ी के स्लीपरों से ढका गया है। खंभों के ऊपर शहतीर जुड़े हुए हैं। खंभों की ऊँचाई जमीन की सतह से 12.5 फुट है और ये जमीन के अंदर 5 फुट गहरे गाड़े गये थे। यूनानी लेखकों ने लिखा है कि नदी-तट पर स्थित नगरों में प्रायः काष्ठ-शिल्प का उपयोग होता था। पाटलिपुत्र की भी यही स्थिति थी। सभा-मंडप में शिला-स्तंभों का प्रयोग एक नई प्रथा थी।

अशोकीय एकाश्मक स्तंभ

मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्मक स्तंभ हैं जो उसने धम्म-प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में स्थापित किये थे। ये स्तंभ संकिसा, निग्लीव, लुंबिनी, सारनाथ, बसरा-बीसरा (वैशाली), साँची आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनकी संख्या बीस से अधिक है और ये चुनार (बनारस के निकट) के बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। चुनार की खानों से प्राप्त पांडुरंग के सूक्ष्म दानेदार कड़े पत्थर पर अधिकांशतः छोटी-छोटी काली चित्तियाँ हैं।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
वैशाली का अशोक-स्तंभ

चुनार की खानों से पत्थरों को काटकर निकालना, शिल्पकला में इन एकाश्मक खम्भों को काट-तराशकर वर्तमान रूप देना, इन स्तंभों को देश के विभिन्न भागों में पहुँचाना, शिल्पकला तथा तकनीकी-कौशल का अनोखा उदाहरण है। फाह्यान ने अशोक के छः स्तंभ एवं ह्वेनसांग ने बारह स्तंभों को देखा था। किंतु उनमें से कुछ स्तंभ नष्ट हो गये हैं।

इन स्तंभों के दो मुख्य भाग उल्लेखनीय हैं- स्तंभ-यष्टि या गावदुम लाट और शीर्ष भाग। लाट एक शुंडाकार दंड है जिसकी लंबाई 40 से 50 फीट तक है। शीर्ष को कला की दृष्टि से कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। सबसे नीचे रस्सी की आकृति को मेखला (मेकला) कहा गया। शीर्ष भाग का मुख्य अंश है घंटाकृति, जो हखामनी स्तंभों के घंटों से मिलते-जुलते हैं। भारतीय विद्वान् इसे ‘अवांगमुखी’ कमल कहते हैं, इसे पूर्णकुंभ भी कहा गया है।

घंटाकृति के ऊपर गोल अंड या चौकी है, जिसे आधार पीठिका की संज्ञा दी गई है। कुछ चौकियों (जैसे सारनाथ स्तंभ-शीर्ष की चौकी) पर चार पशु-अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति और चार छोटे चक्र तथा कुछ पर हंस-पंक्ति अंकित है। सारनाथ के अतिरिक्त सभी स्तंभों पर एक पशु की आकृति है, किंतु सारनाथ स्तंभ में चार सिंह पीठ से पीठ सटाये बनाये गये हैं।

धौली का प्रस्तर-हस्ति अपेक्षाकृत सुडौल और कला की दृष्टि से प्रौढ़ है। हस्ति की छवि का अंकन एवं रूपांकन विशिष्ट प्रकार का है एवं उसकी रेखाओं का प्रवाह सुंदर है। इसमें आकार की विशालता के साथ उसकी छवि में कल्पना का भाव है। उसकी शांतिपूर्ण गरिमा अपूर्व है।

संकिसा की गजमूर्ति में संतुलन का अभाव है अर्थात् स्तंभ की ऊँचाई की दृष्टि से हाथी अत्यंत लघु है जो प्रारंभिक अवस्था कोद्योतन करता है। लौरियानंदनगढ़ की सिंह-मूर्ति में बखिरा सिंह-मूर्ति की अपेक्षा अधिक दृढ़ता है जिसमें माँसपेशियों एवं शिराओं का सफल चित्रण है।

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रमपुरवा का नटवा बैल

रामपुरवा से प्राप्त दो वृषभ एवं सिंह-शीर्षों में अधिक विकास दृष्टिगोचर होता है। रामपुर में नटवा बैल ललित मुद्रा में खड़ा है। साँची सिंह-शीर्ष में भी सारनाथ की भाँति चार पशु पीठ सटाये बैठे हैं एवं गोल अंड पर चुगते हंसों की पंक्ति रामपुरवा शीर्षक की भाँति उत्कीर्ण है।

सारनाथ का सिंह-स्तंभ

अशोक के एकाश्मक स्तंभों का सर्वोत्कृष्ट नमूना सारनाथ के सिंह-स्तंभ का शीर्षक है। मौर्य शिल्पियों के रूप-विधान का इससे अच्छा दूसरा नमूना और कोई नहीं है। सारनाथ के शीर्ष-स्तंभ पर चार सिंह पीठ सटाये बैठे हैं। इनके बीच एक बड़ा पत्थर का चक्र है जो बुद्ध द्वारा किये गये धर्मचक्रप्रवर्त्तन का प्रतीक है। चक्र में संभवतः 32 तीलियाँ थीं। सिंहों के नीचे चार छोटे-छोटे चक्र हैं जिनमें 24-24 तीलियाँ हैं। ऊपरी सिंहों में जैसी शक्ति का प्रदर्शन है, उनकी फूली नसों में जैसी स्वाभाविकता है और उनके नीचे उकेरी आकृतियों में जो प्राणवान् वास्तविकता है, उसमें कहीं भी आरंभिक कला की छाया नहीं है। शिल्पकारों ने सिंहों के रूप को प्राकृतिक सच्चाई से प्रकट किया है।

अशोकीय स्तंभों, विशेषतः सारनाथ स्तंभ की चमकीली पॉलिश, घंटाकृति तथा शीर्ष भाग में पशु-आकृति के कारण जॉन मार्शल तथा पर्सीब्राउन जैसे विद्वानों ने अशोक के स्तंभों को ईरानी स्तंभों की अनुकृति बताया है। चौकी पर हंसों की उकेरी गई अकृतियों और अन्य सज्जाओं में यूनानी प्रभाव भी दिखाई देता है। भारतीय विद्वानों के अनुसार अशोक के स्तंभ की कला का स्रोत भारतीय है।

वस्तुतः मौर्य स्तंभ-शीर्षों की पशु-मूर्तियाँ, सारनाथ का सिंह-स्तंभ, रामपुरवा का बैल प्राचीन सिंधुघाटी से प्रवाहमान परंपरा के अनुकूल हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल ने महाभारत और आपस्तंबसूत्र के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास किया है कि चमकीली पॉलिश उत्पन्न करने की कला ईरान से कहीं पहले भारत में ज्ञात थी। मौर्यकाल से पूर्व और एक हद तक मौर्यकालीन स्थानों पर जो काली पॉलिश वाले मृद्भांड पाये गये हैं, उनसे लगता है कि देश के इतिहास में एक युग ऐसा था जब ओपदार चमक में रुचि ली जाती थी। यह भी सिद्ध होता है कि पॉलिश का रहस्य केवल राजशिल्पियों तक ही सीमित नहीं था। पिपरहवा स्तूप से मिली स्फटिक मंजूषा, पाटलिपुत्र के दो यक्ष और दीदारगंज की यक्षी में भी यह पॉलिश पाई जाती है। सारनाथ के धर्मचक्र की कल्पना नितांत भारतीय है।

ईरानी स्तंभों और मौर्य स्तंभों में कई मूलभूत अंतर दिखाई देते हैं। स्वतंत्र स्तंभों की कल्पना भारतीय है और अशोक के स्तंभ एकाश्म अर्थात् एक ही पत्थर से तराशकर बनाये गये हैं, जबकि ईरानी स्तंभ अलग-अलग पाषाण-खंडों के बने हुए हैं। ईरानी स्तंभ विशाल भवनों में लगाये गये थे, इसके विपरीत अशोक के स्तंभ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। अशोक के स्तंभ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाये गये हैं, जबकि ईरानी स्तंभों को चौकी पर टिकाया गया है। अशोक के स्तंभों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तंभों पर मानव आकृतियाँ मिलती हैं। ईरानी स्तंभ गराड़ीदार हैं, किंतु अशोक के स्तंभ सपाट हैं। अशोक के स्तंभ नीचे से ऊपर क्रमशः पतले होते गये हैं, जबकि ईरानी स्तंभों की चौड़ाई नीचे से ऊपर तक एक ही है। इसके अलावा ईरानी और मौर्य स्तंभ शीर्षकों के अलंकरणों में भी अंतर है। स्तंभ के शीर्ष भाग को घण्टा कहा गया है, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार यह आवांगमुख कमल अथवा पूर्णघट है जो बाहर की ओर लहराती हुई कमल की पंखुड़ियों से ढका हुआ है। यदि इसे घंटा मान भी लिया जाये, तो भी यह ईरानी घंटा से भिन्न है। मौर्यकालीन घंटा ‘घटपल्लव’ या ‘पूर्णघट’ के अभिप्राय के सदृश बनाया गया है। इस प्रकार मौर्यकालीन शिल्पियों ने चिर-परिचित परंपरा को अपनाया और अपनी प्रतिभा से उसे नवीन आकार प्रदान किया। यदि ईरानी प्रभाव को मान भी लिया जाये, तो भी अशोक स्तंभों की संगतराशी मूर्तिकला तथा अलंकरण को हखामनी, ईरानी या यूनान की मूलाकृतियों की नकल मात्र नहीं माना जा सकता। लगता है कि भारतीय कलाकारों ने अपनी प्रतिभा से विदेशी कला-लक्षणों का सम्यक् अध्ययन करके उनका रूपांतरण किया और फिर उन्हें अपने ढंग से कलाकृतियों में अभिव्यक्त किया है।

स्तूप

अशोक ने स्तूप-निर्माण की परंपरा को भी प्रोत्साहन दिया। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अस्थि-अवशेषों पर पूर्व निर्मित आठ स्तूपों को तुड़वाकर बुद्ध के अवशेषों को पुनर्वितरित कर 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया। यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि अशोक ने बड़ी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया होगा। साँची तथा भरहुत स्तूपों का निर्माण मूलरूप में अशोक ने ही करवाया था और शुगों के समय में साँची-स्तूप का मात्र विस्तार किया गया।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
साँची का स्तूप

स्तूप (पालि में थूप) का अभिप्राय चिता पर निर्मित टीला होता है जो प्रारंभ में मिट्टी का बनाया जाता था। ‘स्तूप’ शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। महापरिनिर्वाणसुत्त में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा था कि ‘मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाये, जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं।’

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटकर उन पर स्तूप बनाये गये थे। कालांतर में बौद्ध संघ ने इसे अपनी संघ व्यवस्था में शामिल कर लिया। चूंकि इनमें बुद्ध या उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियाँ थीं, अतः वे बौद्धों के तीर्थस्थल बन गये।

स्तूपों के प्रकार

बौद्ध साहित्य में चार प्रकार के स्तूपों का उल्लेख किया गया है- शारीरिक स्तूप में अस्थियाँ या अवशेष रखे जाते हैं, पारिभोगिक स्तूप में बुद्ध से संबंधित वस्तुएँ (जैसे-पादुका, दंड, भिक्षापात्र आदि) रखी गई थीं। उद्देशिक स्तूप बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं से जुड़े पवित्र स्थलों पर बनाये गये थे। संकल्पित स्तूप वे हैं, जो बौद्ध उपासकों ने बुद्ध के प्रति श्रद्धा में या पुण्य-लाभार्थ निर्मित करवाये थे।

साधारणतः स्तूप का संबंध बौद्ध मत से रहा है। अशोक से पूर्व किसी स्तूप के अवशेष नहीं मिले हैं। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में अफगानिस्तान एवं भारत के विभिन्न भागों में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप होने का उल्लेख किया है। उसके विवरण से ज्ञात होता है कि ये स्तूप तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, गया, बनारस आदि नगरों में विद्यमान थे और इनकी ऊँचाई 300 फीट तक थी। पिपहरवा (बस्ती, उ.प्र.) से अशोक के एक स्तूप के भग्नावशेष मिले हैं। सारनाथ में अशोककालीन धर्मराजिका स्तूप का निचला भाग आज भी विद्यमान है। अशोक द्वारा निर्मित एक स्तूप का अवशेष तक्षशिला में भी उपलब्ध है।

सर मार्शल के अनुसार अशोककालीन साँची स्तूप का आकार वर्तमान स्तूपों के आकार का आधा था। इसका व्यास 70 फीट और ऊँचाई 35 फीट थी। ईंटों से निर्मित अर्द्धगोलाकार, उठी हुई मेधी, चतुर्दिक काष्ठ-वेदिका तथा स्तूप की चोटी पर पत्थर का छत्र लगा हुआ था।

अशोक के बाद इस प्रकार के स्तूपों को न केवल प्रस्तर-शिलाओं से आच्छादित किया जाने लगा, बल्कि काष्ठ-वेदिका के स्थान पर प्रस्तर-वेदिका लगाकर तोरणद्वारों का संयोजन किया जाने लगा और स्तूप-शीर्ष पर हर्मिका बनाकर मध्य में यष्टि और छत्र स्थापित होने लगे।

गुहा-वास्तु

अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में चट्टानों को काटकर आवासगृह के रूप में कंदराओं के निर्माण द्वारा एक नई शैली को आरंभ किया। गया के निकट बराबर पहाड़ी पर ऐसी अनेक गुफाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें आवास-योग्य बनवाकर आजीवकों को दान दिया गया था। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में सुदामा गुहा आजीवक भिक्षुओं को दान में दिया था।

मौर्यकाल में बराबर की पहाड़ी को खलतिक पर्वत कहा जाता था। इस गुफा में दो प्रकोष्ठ हैं। एक कक्ष गोल व्यास का है जिसकी छत अर्धवृत्त या खरबूजिया आकार की है। उसके बाहर का मुख-मंडप आयताकार है, किंतु छत गोलाकार है। दोनों कोष्ठों की भित्तियों और छतों पर शीशे जैसी चमकती हुई पॉलिश है। इससे ज्ञात होता है कि चैत्यगृह का मौलिक विकास अशोक के समय में ही प्रारंभ हो गया था और इस शैली का पूर्ण विकास महाराष्ट्र के भाजा, कन्हेरी और कार्ले चैत्यगृहों में दिखाई देता है।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
गोपी गुफा

अशोक के पुत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियाँ में आजाविकों को तीन गुफाएँ प्रदान की थी, जिनमें ‘गोपी गुफा’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इन गुहाओं के बाहर इनके निर्माण से संबद्ध अभिलेख मिलते हैं। इन गुफाओं का विन्यास सुरंग जैसा है। इनके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों सिरों पर दो गोल मंडप हैं, जिनमें से एक को गर्भगृह और दूसरे को मुखमंडप की संज्ञा दी जा सकती है। यद्यपि वास्तुकला की दृष्टि से इनका अधिक महत्त्व नहीं है, किंतु इनमें अशोककालीन गृहशिल्प की पूर्णतः रक्षा हुई है।

लोक कला

मौर्यकाल की लोककला का ज्ञान उन महाकाय यक्ष-यक्षियों की मूर्तियों के द्वारा होता है जो मथुरा से पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग और पश्चिम में सूर्पारक तक पाई जाती हैं। इन यक्ष-यक्षियों की मूर्तियों की अपनी व्यक्तिगत शैली है, जिसका देशज रूप देखते ही अलग पहचाना जा सकता है। इनका निर्माण स्थानीय मूर्तिकारों द्वारा किया गया है। इस लोक कला के संरक्षक स्थानीय प्रांतपति या नागरिक थे, जिनके प्रोत्साहन से अतिमानवीय महाकाय मूर्तियाँ खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थीं। यक्ष-यक्षिणी जैसे देवी-देवताओं की आराधना प्राचीन काल से ही की जाती रही है। संभवतः यह देव परंपरा मूलतः प्राक्-आर्य थी। यद्यपि मौर्यकाल से पूर्व इस प्रकार की प्रतिमाएँ अनुपलब्ध हैं, तथापि इनसे संबद्ध साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जिनसे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।

मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
दीदारगंज की यक्षिणी

भारत के अनेक भागों से यक्षों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माण मौर्य काल से कुषाणकाल के मध्य हुआ। मथुरा जिले के परखम ग्राम से प्राप्त यक्ष मूर्ति, पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति, जिस पर ओपदार चमक है और एक लेख भी है, पटना शहर में दीदारगंज से प्राप्त चामर-ग्राहिणी यक्षिणी और बेसनगर से प्राप्त यक्षिणी विशेष उल्लेखनीय हैं। मथुरा क्षेत्र के बरोदा ग्राम से भी एक यक्ष मूर्ति मिली है। ये मूर्तियाँ महाकाय हैं और माँसपेशियों की बलिष्ठता तथा दृढ़ता उनमें जीवंत रूप से व्यक्त हुई है। वे पृथक् रूप से खड़ी हैं, पर उनके दर्शन का प्रभाव सम्मुखीन है, मानो शिल्पी ने उन्हें सम्मुख दर्शन के लिए ही बनाया हो। उनका वेश है सिर पर पगड़ी, कन्धों और भुजाओं पर उत्तरीय, नीचे धोती, जो कटि में मेखला से काय-बंधन से बँधी है। कानों में भारी कुंडल, गले में कंठा, छाती पर तिकोना हार और बाँहुओं पर अंगद है। मूर्तियों को थोड़ा घटोदर दिखाया गया है, जैसे परखम की मूर्ति में देखने को मिलता है।

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