मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था एवं आर्थिक जीवन (Post-Mauryan Polity and Economic Life)

मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था एवं आर्थिक जीवन

मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था

मौर्य साम्राज्य के अंत के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए खंडित हो गई। देश के उत्तर-पश्चिमी मार्गों से कई विदेशी आक्रांताओं ने आकर देश के विभिन्न भागों में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये। दक्षिण में स्थानीय शासक वंश स्वतंत्र हो उठे। कुछ समय के लिए मध्य देश का सिंधु घाटी एवं गोदावरी क्षेत्र से संबंध टूट गया और मगध के वैभव का स्थान साकल, विदिशा, प्रतिष्ठान आदि नगरों ने ले लिया।

ऐतिहासिक स्रोत

भारतीय धार्मिक एवं धर्मेतर साहित्य, विदेशी साहित्यक ग्रंथों, अभिलेखों, सिक्कों एवं अन्य पुरातात्त्विक खोजों के आधार पर इस काल के इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है। पुराण एवं स्मृति-ग्रंथ इस काल के विषय में जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध धार्मिक ग्रंथों- जातक कथाओं, दिव्यावदान, ललितविस्तर, आर्यमंजुश्रीमूलकल्प, मिलिंदपन्हो से भी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।

धर्मेतर साहित्य में पतंजलि के महाभाष्य, गार्गी संहिता और कालिदासकृत मालविकाग्निमित्रम् से इस काल के संबंध में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।

अज्ञात यूनानी नाविक द्वारा लिखी गई ‘पेरीप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी’ नामक पुस्तक से ईस्वी सन् की पहली शती में (46 ई.) भारत की व्यापारिक गतिविधियों का पता चलता है। स्ट्रैबो के भूगोल (ज्योग्राफी) एवं प्लिनीकृत प्राकृतिक इतिहास (नेचुरल हिस्ट्री) में उन देशों के विविध पक्षों का वर्णन मिलता है जिनके साथ उस समय भूमध्यसागरीय देशों का व्यापारिक संबंध था। ये दोनों कृतियाँ ईस्वी सन् की आरंभिक दो शताब्दियों की हैं। चीन के राजवंशों के प्रारंभिक इतिहास-ग्रंथ भी इस काल के संबंध में उपयोगी सामग्री प्रदान करने में सहायक हुए हैं।

इस काल के अभिलेखों में प्रशस्तियाँ और राजाज्ञाएँ प्रमुख हैं। प्रशस्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है गौतमीबलश्री का नासिक अभिलेख, जिसमें गौतमीपुत्र सातकर्णि की उपलब्धियों का वर्णन है। तथाकथित संस्कृत भाषा में लिखा गया रुद्रदामन् का गिरनार शिलालेख भी उस समय का एक प्रसिद्ध अभिलेख है।

मौर्योत्तरकालीन इतिहास-लेखन में सिक्के भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इसके पूर्व भारतीय सिक्कों पर केवल देवताओं के चित्र ही अंकित किये जाते थे, शासक का नाम या तिथि उत्कीर्ण नहीं की जाती थी। जब उत्तर पश्चिमी भारत पर बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं का शासन प्रारंभ हुआ, तो सिक्कों पर राजाओं के नाम व तिथियाँ उत्कीर्ण की जाने लगीं। शक, पार्थियन और कुषाण राजाओं ने भी यूनानी शासकों के अनुरूप सिक्के चलाये। भारतीय शक राजाओं और मालव, यौधेय आदि गणराज्यों के इतिहास पर उनके सिक्कों से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। वस्तुतः सिक्कों के इतिहास की दृष्टि से यह काल अभूतपूर्व है। सिक्कों की मात्रा से ही नहीं, वरन् विविध धातुओं तथा विविध इकाइयों में मिलने वाले सिक्कों से भी पता चलता है कि मुद्रा-प्रणाली सामान्य जन-जीवन का अनिवार्य अंग बन चुकी थी।

मौर्योत्तरकालीन प्रशासन

ई.पू. पहली शताब्दी से लेकर ईसा की तृतीय शताब्दी तक का भारत का राजनीतिक इतिहास परस्पर संघर्षरत शासकों एवं विदेशी आक्रांताओं का एक अव्यवस्थित चित्र उपस्थित करता है। मौर्योत्तर काल में अधिकतर राज्य छोटे-छोटे थे। यद्यपि उत्तर में कुषाणों एवं दक्षिण में सातवाहनों ने काफी विस्तृत प्रदेशों पर शासन किया, किंतु सातवाहनों और कुषाणों के राजनीतिक संगठन में मौर्यों जैसा केंद्रीयकरण नहीं था। इन दोनों ही राजवंशों के शासकों ने कई छोटे-छोटे राजाओं से सामंती संबंध स्थापित किये थे।

सातवाहन शासकों के कई अधीनस्थ शासक थे, जैसे- इक्ष्वाकु आदि, जिन्होंने सातवाहन शासकों का पतन होने पर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये। ऑक्सस से लेकर बनारस तक कुषाणों का शासन था। कुषाण शासकों के द्वारा धारण की जानेवाली प्रभावशाली उपाधियों से पता चलता है कि उनके अधीन कई छोटे राज्य थे जो उन्हें सैनिक सेवाएँ प्रदान करते थे। संभवतः कुषाणों ने भू-धारण अधिकार की अक्षयनीवि प्रणाली भी आरंभ की, जिसका आशय है भू-राजस्व का स्थायी दान, किंतु इस प्रणाली का व्यापक चलन गुप्तकाल में दिखाई देता है।

विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए इस काल में राजतंत्र में दैवी तत्त्वों को समाविष्ट करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। जहाँ अशोक स्वयं को ‘देवानांप्रिय’ कहता है, वहीं कुषाण राजाओं ने चीनी शासकों के अनुरूप ‘देवपुत्र’ जैसी उपाधियाँ धारण की। यही नहीं, रोम का उदाहरण लेकर कुषाण शासकों ने मृत-राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिए मंदिर बनवाने (देवकुल) की प्रथा भी प्रारंभ की। यद्यपि तत्कालीन रचनाओं में प्रायः राजतंत्र की दैवी-उत्पत्ति की ओर संकेत मिलता है, किंतु राजाओं के इस दैवीकरण ने उनकी सत्ता एवं देश पर उनके नियंत्रण में कोई विशेष सहायता नहीं की। पहले राजाओं से देवताओं की तुलना की जाती थी, किंतु अब राजाओं की तुलना देवताओं से की जाने लगी। पराक्रम आदि की दृष्टि से सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र सातकर्णि की तुलना कई देवताओं से की गई है।

शकों तथा पार्थियन शासकों ने भारत में संयुक्त-शासन का चलन प्रारंभ किया, जिसमें युवराज सत्ता के उपभोग में राजा का समानांतर सहयोगी होता था। शक और कुषाण लोग पार्थियनों के माध्यम से हखामनी राजवंश की क्षत्रप-प्रणाली भी इस देश में ले आये। कुषाणों ने प्रांतों में द्वैध शासकत्व की अद्भुत प्रणाली का भी प्रचलन किया।

मौर्योत्तर राज्य-व्यवस्था की एक उल्लेखनीय बात यह है कि ई.पू. दूसरी तथा पहली शताब्दी में उत्तर भारत में कम से कम एक दर्जन ऐसे नगर थे जो लगभग स्वशासी संगठनों की तरह काम करते थे। इन नगरों के व्यापारियों के संघ सिक्के जारी करते थे। हिंद-यूनानी युग से पहले के पांँच सिक्कों में ‘निगम’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जो तक्षशिला में उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। गंधिकों, जिसका शब्दार्थ गंध-विक्रेता है, किंतु वास्तविक अर्थ व्यापारी है, के संघ के सिक्के कोशांबी के आसपास के क्षेत्र में भी पाये गये हैं। त्रिपुरी, महिष्मती, विदिशा, एरण, माध्यमिका, वाराणसी, कोशांबी, भागिल (साँची के निकट), कौरर तथा संभवतः टगर और अयोध्या से भी सिक्के जारी हुए थे। सभी सिक्के ताँबे अथवा इसके सम्मिश्रण से बने होते थे। ई. सन् की दो शताब्दियों के दौरान जब सातवाहनों तथा कुषाणों ने अपने राज्य स्थापित किये, तब इन नगरों का स्वायत्त स्वरूप समाप्त हो गया, किंतु शासकों को व्यापारियों के निगमों का, जिन्हें ‘निगम सभा’ कहा जाता था, ध्यान रखना पड़ता था।

मौर्योत्तरकालीन अर्थव्यवस्था

भूमि एवं कृषक

मौर्यों ने अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर जो नियंत्रण स्थापित किया था, वह मौर्योत्तर काल में नहीं दिखाई देता है। संभवतः इस काल में भूमि पर किसानों का निजी स्वामित्व था और कृषि-क्षेत्रों के विस्तार में राजकीय प्रयासों का स्थान अब निजी प्रयासों ने ले लिया था। मिलिंदपन्हो में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख मिलता है जो भूमि को कृषि-योग्य बनाने के लिए जंगल साफ करता है तथा कुछ अन्य कदम उठाता है। वह भूमि का प्रयोग करता है, इसलिए वह उसका स्वामी कहा जाता है। इसकी पुष्टि मनु ने भी की है। मनु के अनुसार ऋषिगण भूमि उसकी मानते हैं, जिसने जंगल को काट-कूटकर साफ किया हो, और आखेटित हिरण उसका मानते हैं, जिसने उसे पहले घायल किया हो। ऐसा संभवतः कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए कहा गया था।

दिव्यावदान में किसानों की विशाल संख्या को कठोर श्रम करते हुए और खेती के काम में लगे हुए दिखाया गया है, किंतु इसका आशय यह नहीं है कि राज्य का कोई स्वामित्व नहीं था। मिलिंदपन्हो में पृथ्वी पर स्थित सभी शहरों, समुद्रतटों, खानों आदि पर राजा के स्वामित्व को मान्यता प्रदान की गई है। इससे सामान्य क्षेत्रीय प्रभुसत्ता का संकेत मिलता है। स्पष्ट है कि राज्य अपने स्वामित्व के अधिकार का उपयोग करता था।

सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों एवं बौद्ध श्रमणों को राजस्व एवं प्रशासनिक करों से मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा प्रारंभ की, जिससे अंततः केंद्रीय सत्ता क्षीण हुई। यद्यपि पूर्ववर्ती साहित्य में पुजारियों को भूमिदान दिये जाने का उल्लेख मिलता है, किंतु अभिलेखों में भूमिदान का पहला प्रमाण ई.पू. प्रथम शताब्दी का है, जब सातवाहनों ने महाराष्ट्र में अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर उपहारस्वरूप पुरोहितों को एक गाँव दान दिया था। पहले ये दान केवल कर-मुक्त ही होते थे, किंतु धीरे-धीरे दान की गई भूमि पर दानग्रहीता को प्रशासनिक अधिकार भी दिया जाने लगा। प्रशासनिक अधिकार सबसे पहले सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने छोड़ा था। इस तरह के आवंटित भूक्षेत्र में न तो राजकीय सेना प्रवेश कर सकती थी, न सरकारी कर्मचारी उसमें दखल दे सकते थे और न जिला पुलिस ही इसमें किसी तरह की बाधा उत्पन्न कर सकती थी।

यद्यपि ये अनुदान प्रायः धार्मिक दायित्व निभाने के उद्देश्य से प्रेरित थे, किंतु कुछ अनुदान परती भूमि पर खेती कराने के उद्देश्य से भी दिये जाते थे। पश्चिमी दकन से प्राप्त 130 ई. के एक सातवाहन अभिलेख में कुछ बौद्ध-भिक्षुओं को राजकीय भूखंडों के अनुदान का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख में कहा गया है कि ‘जब तक भूमि पर खेती नहीं की जाती, तब तक गाँव नहीं बसाया जा सकता’ (त च खेत न कसते चे गामो न वसति)। दान में दिये गये ऐसे ग्राम एक प्रकार से राज्य के भीतर अर्ध-स्वतंत्र क्षेत्र बन गये जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों से राजा का नियंत्रण धीरे-धीरे कम होता गया।

इस काल में संभवतः कृषि को संरक्षण देने के लिए राज्य द्वारा प्रयास किये गये। मनु ने लिखा है कि ब्राह्मणों के लिए बिना जुती जमीन का लेना उतना पाप नहीं, जितना जुती जमीन का लेना। खारवेल ने कलिंग में एक पुरानी नहर का विस्तार किया था और रुद्रदामन् ने सौराष्ट्र स्थित सुदर्शन झील की मरम्मत कराई थी। इस समय नहरों का ज्यादा उपयोग नहीं किया जाता था और कुंओं अथवा तालाबों द्वारा सिंचाई की जाती थी। शक और कुषाण सरदारों ने उत्तर-पश्चिम भारत में संभवतः कुछ सरोवरों का निर्माण करवाया था। कुछ व्यक्तियों ने उत्तर प्रदेश में भी ऐसे तालाब बनवाये थे, जहाँ ईसा की आरंभिक दोनों शताब्दियों में धमार्थ सरोवर बनवाने की प्रथा प्रचलित थी।

गाथासप्तशती से ज्ञात होता है कि सिंचाई के लिए सबसे पहले रहट का प्रयोग इसी काल में हुआ था। मनु के अनुसार व्यक्तियों के मकानों, तालाबों, फलोद्यानों और खेतों को अन्य लोगों द्वारा कब्जा किये जाने से रोका जाना चाहिए। मनु ने राजा को निर्देश दिया है कि वह कृषि-उपकरणों की चोरी करने वालों को दंडित करे, साथ ही उसने दूषित बीज बेचने, पहले बोये हुए बीजों को निकाल लेने और सीमा-चिन्हों को नष्ट करने के अपराध के लिए अंगभंग की व्यवस्था दी है। इसके बदले राज्य किसान से कर की वसूली करता था। मिलिंदपन्हो में गामसामिक (गाँव के मुखिया) का उल्लेख मिलता है जो सभी गृहस्वामियों को अपने घर बुलाकर राजा की ओर से कर वसूल करता था।

मौर्योत्तरकालीन व्यापार और वाणिज्य

आर्थिक दृष्टि से इस काल में वाणिज्य-व्यापार का विकास हुआ। इस काल में व्यापार एवं वाणिज्य को प्रोत्साहन देने वाले प्रमुख कारक थे- नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में नये वर्गों का उदय, रोम एवं चीन के साथ व्यापारिक संबंधों का विकास, रोम के साथ व्यापारिक संबंधों के फलस्वरूप दक्षिण-पूर्व एशिया के मसालों के साथ जुड़ाव। विदेशों में भारतीय माल की माँग बढ़ती जा रही थी। इन दिनों पश्चिम में रोमन साम्राज्य एवं उत्तर में चीन में हान् साम्राज्य का विकास हो रहा था।

रोमन सम्राज्य के अंतर्गत पूर्व के उत्पादों- जैसे गरम मसाले, सुगंधित लकड़ी, रेशमी एवं अन्य वस्त्रों की माँग थी। इसी प्रकार उत्तर में हान् साम्राज्य ने व्यापारियों को काफी प्रोत्साहन दिया जिसके कारण भारत, मध्य एशिया तथा चीन के संपर्क बढ़ते गये। बढ़ते विदेशी व्यापार ने स्थानीय आभूषण निर्माताओं, वस्त्र-उत्पादकों एवं कृषकों को विविध व्यापार-योग्य वस्तुओं के उत्पादन को प्रेरित किया।

रोमन साम्राज्य के उदय से ई.पू. प्रथम शती में भारतीय व्यापार को काफी प्रोत्साहन मिला, क्योंकि इस साम्राज्य का पूर्वी भाग भारत में निर्मित विलासिता के सामान का बड़ा ग्राहक बन गया। लगता है कि रोमवासी मुख्य रूप से मसालों का आयात करते थे जिसके लिए दक्षिण भारत प्रसिद्ध था। कालीमिर्च को ‘यवनप्रिय’ कहा जाता था। रोमन साम्राज्य की मसालों की आवश्यकता केवल भारतीय सामग्री से ही पूर्ण नहीं होती थी, इसलिए भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया से संपर्क स्थापित करने लगे।

इसके अतिरिक्त लोहे की वस्तुएँ, खासकर बर्तन, मलमल, मोटे कीमती पत्थर, हाथीदाँत और पाकशाला की वस्तुएँ रोम भेजी जाती थीं। मध्य तथा दक्षिण भारत से मलमल, मोती और मणि-माणिक्य रोम भेजा जाता था। ये सभी संगठित व्यापार के अंग थे, क्योंकि ये उत्पाद सीधे भारत द्वारा ही भेजे जाते थे।

इसके अलावा, रेशम भी महत्त्वपूर्ण वस्तु थी। इस चीनी रेशम व्यापार में भारतीय व्यापारियों ने मध्यस्थ के रूप में भाग लेना प्रारंभ किया। भारतीय व्यापारी चीन से कच्चे रेशम, रेशमी वस्त्र और रेशम के धागे खरीदकर रोमन व्यापारियों तक पहुँचाते थे। ई. सन् की पहली शती में एक अज्ञात ग्रीक नाविक द्वारा लिखी ‘पेरीप्लस ऑफ एरिथ्रियन सी’ से पता चलता है कि भारत रोमन साम्राज्य को मोती, हाथीदाँत जैसे सामानों को निर्यात करता था। पेरीप्लस और टॉल्मी से ज्ञात होता है कि भारत से रोम को तोते, शेर और चीतों का निर्यात होता था। इसके बदले रोमवासी भारत को सुराहीनुमा मदिरा-पात्रों (एम्फोरा) और लाल चमकीले ऐरेटाई मृद्भांडों का निर्यात करते थे जिसके अवशेष पश्चिम बंगाल के तामलुक, पांडिचेरी के निकट अरिकामेडु और दक्षिण भारत के कई स्थानों की खुदाई से मिले हैं।

तमिल कवि नाविकयार ने लिखा है कि स्थानीय शासक के लिए पश्चिमी देशों से सुरा एवं सुंदरियों का आयात किया जाता था। व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था और अपने निर्यात के बदले भारत में अन्य सामानों के अतिरिक्त रोम भारी मात्रा में सिक्कों का निर्यात करता था जो निश्चित ही सोने और चाँदी के होते थे। इस प्रायद्वीप की खुदाई में अब तक रोमन सिक्कों के 129 संग्रह मिल चुके हैं, जिनमें से अधिकांशतः प्रायद्वीपीय भारत से मिले हैं। प्लिनी बार-बार दुःख प्रकट करता है कि भारत के साथ व्यापार के कारण भारी मात्रा में रोम का सोना बाहर चला जा रहा है।

मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था एवं आर्थिक जीवन (Post-Mauryan Polity and Economic Life)
मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था एवं आर्थिक जीवन

रोमन शासक क्लेडियस के काल में भारत एवं रोम साम्राज्य के मध्य होने वाले सामुद्रिक व्यापार को सर्वाधिक प्रोत्साहन मिला। औरेंगलियन ने रेशम का मूल्य सोने के बराबर घोषित कर दिया था। पेरीप्लस के अनुसार इथियोपिया से भारत को हाथीदाँत (अफ्रीकन) और सोना भेजा जाता था, इसके बदले में यहाँ से मलमल भेजा जाता था। काबुल के बेग्राम से इटली, मिस्र और सीरिया में निर्मित वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। महाभारत के अनुसार श्रीलंका मोतियों एवं कीमती पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। शिलाजीत भारत से मिस्र भेजा जाता था। तक्षशिला से यूनानी रोम काँस्य-मूर्तियों के नमूने भी मिले हैं। यहाँ से रोमन सम्राट् टिविरियस के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, किंतु ऐसे ऐरेटाई मृद्भांड, जो सामान्यतः दक्षिण भारत में पाये जाते हैं, पश्चिम एशिया और अफगानिस्तान में नहीं पाये गये हैं।

अयोध्या की खुदाई में पहली-दूसरी शताब्दी के चक्रला (रुलेटेड) मृद्भांड (मुख्यतः विंध्यपार क्षेत्र में पाये जाने वाले विशेष प्रकार के रोमन मृद्भांड) के ठीकरे मिले हैं जो ताम्रलिप्ति (तामलुक) से गंगा और फिर सरयू नदी होकर इस क्षेत्र में आये होंगे। इसी प्रकार पहली-तीसरी सदी के लाल पॉलिशदार मृद्भांड के कुछ ठीकरे कर्नूल जिले के अंतर्गत सतनिकोट से पाये गये हैं। पता चलता है कि काँच के सामान और नील-गार्नेट आदि से बनी चीजों का व्यापार दूर-दूर तक होता था।

मथुरा और गांधार के बीच व्यापारिक संबंधों की स्पष्ट सूचना मिलती है। मथुरा से देवी की एक मूर्ति मिली है जो गांधार के नीले पत्थर से निर्मित है और इसमें यूनानी-बौद्ध दुशाला-शैली की छाप है। कश्मीर और उज्जयिनी से लाई गई अनेक वस्तुएँ भड़ौच के बंदरगाह से पश्चिमी देशों को भेजी जाती थीं। सोपारा और कल्याण भी पश्चिमी तट पर प्रसिद्ध नगर थे। प्रतिष्ठान नगर भी व्यापार का प्रमुख केंद्र था। तक्षशिला में पश्चिमी देशों से बहुत सी वस्तुएँ लाई जाती थीं।

मौर्योत्तरकालीन व्यापारिक मार्ग

मौर्यों ने आंतरिक यातायात के साधनों एवं मार्गों को विकसित कर व्यापार की प्रगति का प्रारंभिक आधार तैयार कर दिया था। पाटलिपुत्र को तक्षशिला से जोड़ने वाला मार्ग मौर्यों की ही देन था। स्थल मार्ग से पाटलिपुत्र ताम्रलिप्ति से जुड़ा था, जो बर्मा एवं श्रीलंका के जहाजों के लिए प्रमुख बंदरगाह था। उत्तरापथ (दूसरा पथ) तक्षशिला से होकर आधुनिक पंजाब होते हुए यमुना के तट पर पहुँचता था और मथुरा तक जाता था, फिर मथुरा से उज्जैन में आकर एक और मार्ग से मिलता था। फिर वह उज्जैन से भड़ौच चला जाता था।

दक्षिण भारत के स्थल मार्गों का विकास मौर्यों के पश्चात् हुआ। दक्षिणापथ में एक मार्ग अवंति से विंध्य क्षेत्र पार करता हुआ अमरावती तक पहुँचता था, दूसरा प्रतिष्ठान से नासिक जाता था, तीसरा भृगुकच्छ से सोपारा और कल्याणी पहुँचता था, चौथा मुसिरी से पुहार तक जाता था। ये मार्ग नदी-घाटियों के साथ-साथ तटीय प्रदेशों और पर्वतीय दर्रों में विकसित किये गये।

विदेशी आक्रांताओं के कारण देश के विभिन्न भाग उन व्यापारिक मार्गों से जुड़ गये थे जिनमें से कुछ मध्य एशिया एवं पश्चिम एशिया को जाते थे। एक स्थल मार्ग द्वारा तक्षशिला काबुल से जुड़ गया था, जहाँ से विभिन्न दिशाओं को मार्ग जाते थे। उत्तरवर्ती मार्ग बैक्ट्रिया से होकर कैस्पियन सागर होता हुआ कृष्ण सागर को जाता था। मध्य एशिया से एक व्यापारिक मार्ग गुजरता था जो चीन को रोमन साम्राज्य के पश्चिमी प्रांतों से जोड़ता था, जिसे ‘सिल्क मार्ग’ कहा जाता था। चीन से होने वाला रेशम का समस्त व्यापार प्रायः इसी मार्ग से होता था।

ईसा की पहली शती (46 ई.) में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसून हवाओं की जानकारी दी, जिससे अरब सागर से यात्रा की जा सकती थी और इस प्रकार भारत और पश्चिमी एशिया के बंदरगाहों के बीच कम समय लगता था। पश्चिम एवं दक्षिण भारत का व्यापार दक्षिण अरब, लाल सागर तथा ऐलेक्जेंड्रिया से होता था।

मौर्योत्तरकालीन व्यापारिक केंद्र एवं बंदरगाह

पेरीप्लस के अनुसर सिंधु नदी के पास एक व्यापारिक प्रतिष्ठान था जिसका नाम वारविकम था। सोपारा अथवा सुरपराका कल्याण का एक बंदरगाह था। पेरीप्लस एक बंदरगाह बेरीगाजा (भडौंच) की भी चर्चा करता है। भडौंच उस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। भड़ौंच के बंदरगाह से सुंदर लड़कियाँ (कुमारियां) लाई जाती थीं।

कौंडोक साइला (घंटाशाला) और निट्रिग आधुनिक आंध्र प्रदेश के तट पर स्थित थे। पोलूरा कलिंग अथवा आधुनिक उड़ीसा में स्थित था। उड़ीसा में ही फ्लूरो नामक एक नगर था, जिसकी पहचान दंतपुर से की गई है। दंतपुर हाथीदाँत के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ से हाथीदाँत का निर्यात होता था। टेमाटाइलस निचली गंगा पर स्थित था।

मालाबार तट पर मुजिरस नामक बंदरगाह था। तमिल तट पर पुहार अथवा कावेरीपट्टनम बंदरगाह था। टॉल्मी के अनुसार तमिल तट पर एक और बंदरगाह नेगपट्टनम या नेगपत्तनम था। पेरीप्लस के अनुसार आंध्र क्षेत्र में मसिलिया या मसुलीपट्टम नामक बंदरगाह था। पेरीप्लस और टॉल्मी के ज्योग्राफी में समिल्ला (चौल), नौरा (कन्नौर या मंगलौर), टिंडीस, कारालुगी, मुजरिस जैसे कुछ अन्य बंदरगाहों का भी उल्लेख मिलता है।

अरिकामेडु को पेरीप्लस में पेडूक कहा गया है, यहाँ खुदाई में एक विशाल रोमन बस्ती के प्रमाण मिले हैं। बैक्ट्रिया, सीरिया और अलेक्जेन्ड्रिया मुख्य व्यापारिक डिपो थे। अरब से घोड़े लाये जाते थे। परिपतन (देवल) सिंधु का बंदरगाह था।

मौर्योत्तरकालीन मुद्रा-प्रणाली

कुछ विद्वानों का विचार है कि प्रायद्वीपीय भारत में रहने वाले लोग सोने या चाँदी की मुद्रा का उपयोग नहीं जानते थे। वस्तुतः ई.पू. और ईसा की शती के प्रारंभ में व्यापार के विकास के साथ ही मुद्रा-प्रणाली में विशिष्ट प्रगति हुई। रोम से आनेवाला सोना अधिकतर सर्राफ के काम आता था और संभवतः बड़े स्तर के व्यापारिक लेन-देन में भी इसका प्रयोग होता था।

ईसा से पाँच सौ साल पहले भारतीय क्षत्रप फारस के साम्राज्य को प्रतिवर्ष 320 टेलेंट सोना भेंट (शुल्क) के रूप में देता था। पश्चिमी जगत् में स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन हुआ, तो भारतीय राजाओं ने परस्पर व्यापार में सुविधा एवं अन्य राष्ट्रों की तुलना में राष्ट्रीय मान को बनाये रखने के लिए सोने के सिक्के जारी किये।

व्यापारिक विकास के साथ मौद्रिक व्यवस्था में परिवर्तन एवं बड़ी तादाद में प्रचलन इस युग का विशिष्ट लक्षण रहा है। कुछ चाँदी के सिक्के मिले हैं, जो आंध्रों के समय के बताये जाते हैं और अभिलेखीय साक्ष्य से चाँदी के पणों के चलन का संकेत मिलता है।

उत्तर में इंडो-ग्रीक शासकों ने सोने के कुछ सिक्के चलाये और कुषाण शासकों ने बड़ी मात्रा में ऐसे सिक्कों का प्रयोग किया। इस धातु की खानें सिंधु क्षेत्र में विद्यमान थीं और संभवतः धालभूम की सोने की खानें कुषाणों के अधिकार में थीं। इसके अलावा, भारत एवं रोमन साम्राज्य के मध्य व्यापारिक संबंधों के कारण प्रभूत मात्रा में रोमन स्वर्ण मुद्राओं का भारत में आगमन हुआ।

इंडो-ग्रीक शासकों ने ‘दैक्रम’ नामक सिक्का चलाया। भारत में कुछ यूनानी शासकों एवं शकों ने चाँदी के सिक्के चलाये थे, किंतु कुषाणों के चाँदी के सिक्के नहीं मिले हैं। पेरीप्लस ने लिखा है कि दक्षिणापथ में इंडो-ग्रीक एवं शकों के सिक्के प्रचलित थे। कुषाण सिक्के अपनी बनावट एवं योजना में पह्लव सिक्कों की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर हैं। कुषाणकालीन ठप्पा बनाने की कला में पश्चिमी शैली का स्पष्ट अनुकरण दिखाई देता है। उस काल में रोमन मुद्रा ओरेई अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जगत् में स्वीकृत थी, इसलिए कुषाण शासकों ने इन्हीं सिक्कों के तौल एवं मान का अनुकरण किया। कुषाणकालीन सिक्कों में ग्रीक, पार्थियन, रोमन एवं भारतीय तत्त्वों का अनूठा मिश्रण देखा जा सकता है। सोने एवं ताँबे के सिक्के एक निश्चित तौल परंपरा पर आधारित थे। कुषाणों की सोने की दीनार मुद्राएँ प्रायः रोम के ओरई सिक्कों के तौल एवं मान के निकट हैं। कुषाणों के सिक्कों का वजन औसतन 123.2 ग्राम होता था, जबकि इंडो-ग्रीक के सोने के सिक्के का वजन 134.4 ग्राम होता था। सिक्कों को ढालने एवं ठप्पा अंकित करने से पूर्व साफ किये जाने की प्रक्रिया का वर्णन मिलिंदपन्हो आदि ग्रंथों में मिलता है। सोने के सिक्के निष्क, सुवर्ण और पण कहलाते थे। चाँदी के सिक्के शतमान्, पूरण और धरण थे। ताँबे एवं रांगे के सिक्के को काकणि कहा जाता था।

सातवाहन नरेश भी कई प्रकार को सिक्कों को प्रचलित किये थे। अवंति से प्राप्त ताँबे के एक सातवाहन सिक्के पर नाव का चिन्ह है। सातवाहनों ने सीसे के सिक्के भी चलाये। कार्षापण सोना, चाँदी, ताँबा और सीसा चारों धातु का होता था। कुषाणों ने 35 देवताओं का अंकन अपने सिक्कों पर किया है। कनिष्क के सिक्कों पर बौद्ध देवता- अद्वैत बुद्ध, शाक्यमुनि, ब्राह्मण देवता- महासेन, स्कंद, कुमार, विशाख, उमा, वरुण (हेरोन), भवेस, ईरानी देवता- मिथ्र, हेलियोस, शेलेन, हेराक्लीज आदि देवताओं के चित्र मिलते हैं।

इस काल से संबद्ध बड़ी संख्या में मुद्राओं की प्राप्ति न केवल समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि व्यापारिक गतिविधियों के विस्तार को भी इंगित करती है। संभवतः सोने और चाँदी के ये सिक्के दैनिक जीवन में प्रयुक्त नहीं होते थे। पतंजलि ने दैनिक मजदूरों को निष्कों में अदायगी किये जाने का उल्लेख किया है, किंतु ये संभवतः सोने के सिक्के नहीं थे। दैनिक जीवन में व्यापारिक उपयोग के लिए कुषाण शासकों ने भी ताँबे के सिक्के प्रचलित किये थे। नाग शासकों और अन्य देशी राजवंशों (यौधेय और कोशांबी, मथुरा, अवंति तथा अहिछत्र के मित्र राजवंश आदि) ने भी ताँबे के सिक्के प्रचलित किये थे। शहरों तथा उसके आसपास के लोगों के जीवन में मुद्रा-अर्थव्यवस्था जितनी गहराई तक इस युग में प्रवेश कर चुकी थी, उतनी शायद किसी अन्य युग में नहीं।

भारतीय मुद्रा की कलात्मकता पर विदेशी विजेताओं का बहुत प्रभाव पड़ा। बैक्ट्रियाई शासकों के द्वारा जारी किये गये सिक्कों में शासक की आकृति और नाम खुदा होता था। इस काल के प्रारंभिक सिक्कों में प्रदर्शित पौराणिक कथाएँ ग्रीक हैं। अब सिक्कों पर खुदी आकृतियाँ ग्रीक स्रोतों से ली जाने लगीं और कथाएँ खरोष्ठी तथा ग्रीक दोनों लिपियों में लिखी जाने लगीं। मुद्राओं की यह कलात्मकता एवं विनिमय में नियमित रूप से मुद्रा का प्रयोग वस्तुतः इस युग की एक बड़ी देन है।

मौर्योत्तरकालीन शिल्प एवं उद्योग

मौर्योत्तर काल में कलाओं और शिल्पों पर राज्य का नियंत्राण नहीं था, इसलिए उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी विकास हुआ। आरंभिक बौद्ध ग्रंथों अथवा अर्थशास्त्र में दस्तकारों की इतनी विवधिता नहीं दिखाई देती, जितनी इस काल में देखने को मिलती है। दीघनिकाय में लगभग दो दर्जन व्यवसायों का उल्लेख किया गया है। ई.पू. दूसरी शताब्दी के महावस्तु नामक एक बौद्ध ग्रंथ में राजगृह नगर में रहने वाले 36 प्रकार के कामगारों की सूची दी गई है।

मिलिंदपन्हो में जिन 75 विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है, उनमें से 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों से संबंधित हैं। मिलिंदपन्हो में उल्लिखित व्यवसायों में से आठ शिल्प धातु-उत्पादों- सोना, चाँदी, सीसा, टीन, ताँबा, पीतल, लोहा और हीरा-जवाहरातों के काम से जुड़े हुए थे। एक विशेष तरह की पीतल (आरकूट), जस्ता, सुरमा और लाल संखिया का संकेत भी किया गया है। पतंजलि के महाभाष्य से भी विविध शिल्पों का ज्ञान होता है। उद्योगों के विकास ने शिल्पों में विशिष्टीकरण को भी प्रोत्साहन दिया, जिससे तकनीकी कौशल का भी विकास हुआ।

इस काल में संभवतः सूती और रेशमी वस्त्रों के साथ-साथ हथियार तथा विलासिता की वस्तुएँ बनाने के काम में काफी प्रगति हुई थी। बुद्ध की विमाता गौतमी ने वस्त्र-निर्माण की पाँच प्रक्रियाओं का उत्तरदायित्व अपने हाथ में लिया था। दिव्यावदान में खालिकचक्र अथवा तेल पेरने के लिए कोल्हू का भी उल्लेख मिलता है, जिससे लगता है कि तेल निकालने के काम में भी प्रगति हुई थी। चीनी रेशम के आयात से देश में रेशम उद्योग को प्रोत्साहन मिला। शिल्पी गाँव में भी बसते थे। स्वर्णकार, बढ़ई (वर्धकी), माली (मालाकार), बाँस के टोकरी निर्माता (बेसकार), गान्धिक, मछुए (धनक), कुम्हार (कुलाल), लुहार, धनुष-निर्माता (धनुषकार), रंगरेज (रंजक) आदि व्यवसायों से संबंधित लोगों के गाँवों में निवास करने का उल्लेख मिलता है। तेलंगाना के करीमनगर गाँव में विभिन्न प्रकार के शिल्पी अलग-अलग बसते थे।

इस काल में धातुकर्म के क्षेत्र में पर्याप्त विकास और विशेषीकरण का संकेत मिलता है। इस समय विशेषरूप से लोहा-ढ़ुलाई के तकनीकी ज्ञान में काफी वृद्धि हो चुकी थी। पेरीप्लस के अनुसार भारतीय इस्पात इतना विकसित था कि वह विश्व में अद्वितीय था और यह भारत में अरियाका (काठियावाड़) से पूर्वी अफ्रीका भेजा जाता था। आंध्र क्षेत्र में करीमनगर और नालगोंडा जिले से बहुत सी लोहे की सामग्रियां प्राप्त हुई हैं। प्लिनी के अनुसार भारत में पीतल और सीसे का उत्पादन नहीं होता था।

देश के भिन्न-भिन्न प्रदेश भिन्न-भिन्न वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध थे। मथुरा, वाराणसी आदि कपड़ा उत्पादन के कई केंद्र थे। पतंजलि के अनुसार मथुरा नगर शाटक (एक विशेष प्रकार का कपड़ा) के निर्माण के लिए विख्यात था। महाभारत, मिलिंदपन्हो एवं दिव्यावदान के अनुसार गंगा बेसिन, वाराणसी, कोयम्बटूर और अपरान्त (महाराष्ट्र) में विभिन्न प्रकार के सूती वस्त्र निर्मित किये जाते थे। मगध वृक्षों के रेशों से बने वस्त्रों के लिए, तो बंगाल मलमल के लिए प्रसिद्ध था। बंग और पुंड्र क्षेत्र के मलमल को गंगई कहा जाता था। मसलिया और अरगुरु (उरैयूर) भी मलमल के लिए प्रसिद्ध थे। मनु ने बुनकरों के उत्पाद पर कर लगाने की व्यवस्था दी है।

कुछ दक्षिण भारतीय नगरों में रंगरेजी एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय था। तमिलनाडु के अंतर्गत तिरुचिरपल्ली के उपनगर उरैयूर में ईंटों से बनी एक रंगाई की टंकी खुदाई में मिली है। ऐसी ही रंगाई की टंकियाँ अरिकमेडु में खुदाई के दौरान पाई गई हैं। मगध में लोहा बहुत अधिक मात्रा में होता था और वहाँ से बाहर भेजा जाता था। ताँबे की खानें राजस्थान में मिली हैं। हिमालय की ढलान में कस्तूरी और केसर का उत्पादन होता था। पंजाब की नमक की पहाड़ी नमक का प्रमुख स्रोत थी। दक्षिण भारत में मसाला, सोना, रत्न तथा चंदन की लकड़ी मिलती थी। कश्मीर, कोसल, विदर्भ और कलिंग हीरों के लिए विख्यात थे। प्लिनी ने भारत को रत्नों की एकमात्र जननी कहा है, साथ ही भारत को सबसे महंगी वस्तुओं की जन्मदात्री कहा है। पेरीप्लस के अनुसार मोती कोलची (कोरकोई क्षेत्र से) और निचले गंगा क्षेत्र से निकाले जाते थे। टॉल्मी के अनुसार यह सुदूर दक्षिण से प्राप्त होता था। प्लिनी के अनुसार मोती पेरीमोला (आधुनिक चौल) बंदरगाह से प्राप्त होता था। हीरे, कोसा (बैराट), सबराई (संबलपुर) और एडम नदी के मुहाने से प्राप्त किये जाते थे।

पेरीप्लस के अनुसार गोमेद और कालॅनियन दक्कन के पहाड़ों में पाया जाता था। भारत में सोने का उत्पादन कम होता था। महाभारत से ज्ञात होता है कि सोना पूरब से आता था अर्थात् दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से। छोटानागपुर एवं असम क्षेत्र में नदी की रेत से भी सोना प्राप्त किया जाता था। पेरीप्लस के अनुसार सुवर्ण (बुलियन) फारस की खाड़ी से पूर्वी अरब क्षेत्र होकर पश्चिम भारत में आता था। उत्तर में उज्जैन मनके बनाने का मुख्य केंद्र था। यहाँ मनके अर्द्ध-बहुमूल्य पत्थरों, काँच, हाथीदाँत तथा मिट्टी के बनाये जाते थे। उत्तर में अनेक नगरों में इनकी बड़ी माँग थी। अफगानिस्तान के प्राचीन कपिसा में हाथीदाँत गठित आकृतियाँ भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं।

श्रेणी, संघ और निगम

व्यापारिक प्रगति के परिणामस्वरूप उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था को भली-भाँति संगठित करने की आवश्यकता ने शिल्प-श्रेणियों के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया। शिल्प-श्रेणियों के सबसे आरंभिक अभिलेखीय साक्ष्य मौर्योत्तर काल में ही मिलते हैं। श्रेणियों का उल्लेख मथुरा क्षेत्र एवं पश्चिमी दक्कन के अभिलेखों में प्राप्त होता है। विभिन्न शिल्पकारों और व्यापारियों ने अपने मुखिया के नेतृत्त्व में एकत्र होकर अपनी श्रेणियों का संगठन किया, जो श्रेणी, निगम, पूग और सार्थ कहलाते थे।

‘श्रेष्ठि’ वित्तीय व्यवस्था की देखरेख करते थे। ‘श्रेणी’ एक सामान्य शब्द था जिसमें सभी प्रकार के गिल्ड आते थे। व्यापारियों का संघ ‘निगम’ कहलाता था। ‘पूग’ किसी विशेष क्षेत्र के विभिन्न व्यापारियों, शिल्पियों और व्यवसायियों के हितों का संरक्षण करता था। ‘सार्थ’ नामक व्यापारिक गिल्ड पारगमन व्यापार से जुड़ा था और एक प्रमुख के अधीन होता था जिसे सार्थवाह कहते थे। विक्रेता और क्रेता के मध्य सौदेबाजी ‘पणितव्य’ कहलाती थी।

श्रेणी सदस्यों के व्यवहार को एक श्रेणी न्यायाधिकरण के माध्यम से नियंत्रित किया जाता था। श्रेणी धर्म को कानून के सदृश मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी अपने सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन में भी हस्तक्षेप करती थी। यह इस नियम से सिद्ध होता है कि यदि कोई विवाहित स्त्री भिक्षुणी बनकर संघ में शामिल होना चाहती थी तो उसे पति के साथ-साथ उसकी श्रेणी की भी अनुमति लेनी होती थी। गौतम के अनुसार व्यापारियों और शिल्पियों को अपने सदस्यों को नियमित करने के लिए विधि बनाने का अधिकार था। श्रेणी अन्य संघ अध्यक्ष या मुखिया के अधीन होता था। इसे परामर्श देने के लिए एक समिति होती थी जिसमें 2, 3 या 5 सदस्य होते थे। इस समिति को ‘समुकहितवादिन’ कहा जाता था। बृहस्पति के अनुसार संघ प्रमुख को दोषी सदस्यों को दंडित करने का अधिकार था। सामान्यतः श्रेणी के विधि निर्माण में राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, किंतु अगर अध्यक्ष और उसकी समिति के बीच कोई विवाद होता तो राजा निर्णय दे सकता था।

श्रेणियों की सदस्यता शिल्पकारों-कामगारों को समाज में प्रतिष्ठा एवं सुरक्षा प्रदान करती थी। श्रेणियों के पास अपना सैनिक बल होता था। प्रत्येक श्रेणी का अपना तमगा, पताका एवं मुहर होती थी। ये श्रेणियाँ कभी-कभी धरोहर रखने एवं महाजन का भी कार्य करती थीं। श्रेणी के विज्ञापन का सर्वोत्तम ढंग था- धार्मिक आधार पर उदारतापूर्वक धन का दान। पश्चिमी दकन, साँची, भरहुत, मथुरा और बोधगया से प्राप्त अभिलेखों में अत्तार, जुलाहे, स्वर्णकार आदि सभी की श्रेणियों के द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को गुफाएँ, स्तंभ, शिलाएँ, हौज आदि के दान देने का उल्लेख मिलता है।

इस काल के मथुरा क्षेत्र के एक लेख में इस बात का उल्लेख हुआ है कि एक प्रमुख ने आटा पीसनेवालों की एक श्रेणी (गिल्ड) के पास कुछ राशि जमा कराई थी जिसके मासिक ब्याज से प्रतिदिन सौ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था। पश्चिमी दक्कन में गोवर्धन नामक नगर शिल्प-श्रेणियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। दूसरी शताब्दी में सातवाहन वंश के एक लेख में इस बात का उल्लेख है कि बौद्ध धर्म के अनुयायी कुम्हारों, तेलियों और बुनकरों के पास धन (पण नामक चाँदी के सिक्के) जमा कराते थे ताकि भिक्षुओं के लिए अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराई जा सकें। स्पष्टतः श्रेणियाँ इस जमा किये गये धन का उपयोग कच्चा माल और औजार खरीद कर उत्पादन बढ़ाने के लिए करती रही होंगी और बिक्री से प्राप्त आय से पूँजी पर ब्याज देती रही होंगी।

संभवतः उत्पादन में वृद्धि के लिए श्रेणियों ने अपने कारीगरों के अतिरिक्त बाहर से भी कारीगर बुलाने की ओर ध्यान दिया होगा। मौर्यकाल की अपेक्षा इस काल में कारीगरों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। संभवतः अपने धन के कारण मौर्योत्तर प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापारियों एवं शिल्पकारों की श्रेणियों का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान था। कई नगरों में उन्होंने अपने सिक्के तक प्रचलित किये थे, जो सामान्यतः शासकों का कार्य था।

बाट, माप और विनिमय

प्राचीन काल के बाटों में प्रस्थ, आढ़क, द्रोण और खारी होते थे, जो क्रमशः बढ़ते हुए क्रम से थे। खारी और द्रोण अनाज का माप था। अर्थशास्त्र में अन्य प्रकार के बाटों का भी उल्लेख मिलता है, जैसे- पल, माष, कर्षापण, सर्प, कुडव। कुडव अनाज का वाट था जो लकड़ी या लोहे का बना होता था। दिव्यावदान में अंजलि, मनिका, विलभागम और प्रबोध का उल्लेख है। उत्तरकालीन अभिलेखों में कुछ स्थानीय माप मणि, पलिका, तली और तुला का उल्लेख है। काल और स्थान से संबंधित मापों में अक्ष, पद, अरत्नी, प्रदेश, वित्सती और दिष्टि महत्त्वपूर्ण हैं। मिलिंदपन्हो में जाली बाटों का भी उल्लेख है जिनका प्रयोग निषिद्ध था।

महाजनी व्यवस्था

प्रारंभिक धर्मसूत्रों में ब्याज की चर्चा मिलती है। सामान्यतः प्रचलित दर 1.25 प्रतिशत मासिक (15 प्रतिशत वार्षिक) थी, किंतु अलग-अलग सूत्रकारों ने अलग-अलग दरें भी बताई हैं। गौतम इसकी दर 2 प्रतिशत मासिक मानता है। दूसरी तरफ मनु ने विभिन्न वर्णों के लिए अलग-अलग दरों का उल्लेख किया है- ब्राह्मण 2 प्रतिशत, क्षत्रिय 3 प्रतिशत, वैश्य 4 प्रतिशत और शूद्र 5 प्रतिशत मासिक। असुरक्षित कर्ज के लिए अधिक दर थी। अर्थशास्त्र के अनुसार कर्ज का सामान्य दर 5 प्रतिशत मासिक था, किंतु जंगल से गुजरने वाले से 10 प्रतिशत और समुद्र-यात्रा करने वाले से 20 प्रतिशत मासिक लिया जाता था। जब सूद की दर उधार ली गई रकम से अधिक हो जाती थी, तो सूद की अदायगी बंद हो जाती थी। पति, पत्नी के ऋण के लिए उत्तरदायी था, किंतु पत्नी, पति के ऋण के लिए नहीं।

शहरी केंद्रों का विकास

मौर्योत्तर काल शहरीकरण के साक्ष्यों की दृष्टि से एक अभूतपूर्व काल था। मुद्रा-व्यवस्था, शिल्प कला एवं व्यापार की प्रगति के परिणामस्वरूप देश में कई नगरों का विकास हुआ। इस काल में अनेक ऐसे शहर थे जो वाणिज्य एवं दस्तकारी के केंद्र्र्र थे। वाराणसी कपड़ा उत्पादन एवं हाथीदाँत का महत्त्वपूर्ण केंद्र था। वैशाली (उत्तरी बिहार) से भारी संख्या में मुहरें आदि प्राप्त हुई हैं जो व्यापारिक गतिविधियों को इंगित करती हैं।

तामलुक तथा चंद्रकेतुगढ़ बंगाल के प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। मध्य पश्चिमी भारत में उज्जैन मनका उत्पादन के लिए विख्यात था। ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों के दौरान संपूर्ण भारत, विशेषकर गंगा घाटी, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि क्षेत्रों में शहरीकरण अपने उत्कर्ष पर पहुँच गया। अभी तक जितने कुषाण तथा सातवाहन स्थलों की खुदाई हुई है उनमें भवनों की अच्छी संरचना मिली है। इस काल में कई स्थानों पर छत बनाने के लिए पकी हुई टाइलों के उपयोग की सूचना मिलती है। उत्तर प्रदेश के उत्तर-पूर्वी भाग में अनेक जगहों (जैसे मथुरा और सिद्धार्थनगर जिले के गनवरिया) पर पकी ईंटों की कंकरीट में चूना मिलाकर फर्श का निर्माण किया जाता था। इससे सुर्खी के उपयोग का भी संकेत मिलता है। इस काल में छाजन के लिए पके खपड़ों का प्रयोग किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि ईसा की आरंभिक शताब्दियों में बनने वाले भवन ठोस और टिकाऊ होते थे।

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