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भारत में शक (सीथियन)
मगध के विशाल मौर्य साम्राज्य की शक्ति के क्षीण होने पर भारत पर पश्चिमोत्तर से पुनः विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण प्रारंभ हो गये और डेमेट्रियस तथा मिनेंडर सदृश यवन-विजेताओं ने भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में अपने अनेक राज्य स्थापित किये जहाँ उनके वंशधरों ने शासन किया। परंतु दूसरी सदी ई.पू. और उसके बाद यवनों (बैक्ट्रिया के ग्रीक) के अतिरिक्त पार्थियन और सीथियन (शक) लोगों ने भी इस देश पर अनेक आक्रमण किये। वस्तुतः पश्चिमोत्तर भारत से यवन-सत्ता का उन्मूलन करने वाले विदेशी आक्रांता शक या पार्थियन ही थे। शकों ने भारत में हिंद-यवनों की अपेक्षा अधिक बड़े भाग पर शासन किया।
ऐतिहासिक स्रोत
शकों के आरंभिक इतिहास की जानकारी मुख्यतः चीनी स्रोतों से मिलती है जिसमें पान-कू की ‘सिएन-हान-शू’ (प्रथम हान वंश का इतिहास) और फान-ए की ‘हाऊ-हान-शू’ (परवर्ती हान वंश का इतिहास) महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में यू-ची, हूण तथा पार्थियनों के साथ शकों के संघर्ष और उनके प्रसार का ज्ञान होता है। चीनी साहित्य में शकों को ‘सई’ व ‘सईवांग’ कहा गया है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में सीथियनों को ‘शक’ कहा गया है। पुराण, रामायण, महाभारत आदि भारतीय ग्रंथों से शकों के विषय में सूचनाएँ मिलती हैं। पुराणों में शक, यवन, मुरुंड आदि जातियों का उल्लेख है। रामायण तथा महाभारत में यवन, पह्लव आदि विदेशी जातियों के साथ शकों का भी वर्णन है। कात्यायन तथा पतंजलि भी शकों से परिचित थे।
जैन ग्रंथ ‘कालकाचार्य कथानक’ में उज्जयिनी पर शकों के आक्रमण और विक्रमादित्य द्वारा उन्हें पराजित करने का विवरण मिलता है। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति, गार्गी संहिता, मालविकाग्निमित्रम् (कालीदास), देवीचंद्रगुप्तम् (विशाखदत्त), हर्षचरित (बाणभट्ट), काव्यमीमांसा (राजशेखर) आदि ग्रंथों में शकों का उल्लेख मिलता है।
शक तथा पह्लव शासकों के इतिहास-निर्माण में उनके लेख एवं सिक्के भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। शकों के विषय में प्रारंभिक जानकारी दारा के नक्श-ए-रुस्तम प्रस्तर लेख से मिलती है। इसके साथ ही राजवुल का मथुरा के सिंह-ध्वज व स्तंभ लेख, शोडास के मथुरा दानपत्र लेख, नहपानकालीन नासिक तथा जुन्नार के लेख, उषावदात के नासिक गुहालेख, रुद्रदामन के अंधौ का लेख व जूनागढ़ लेख तथा गोंडोफर्नीज के तख्त-ए-बाही के लेख महत्त्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही सातवाहन एवं कुषाण शासकों के लेखों तथा पश्चिमी और उत्तर पश्चिमी भारत के विभिन्न भागों से पाये गये शक शासकों के सिक्के भी शकों के इतिहास निर्माण में उपयोगी हैं।
शकों (सीथियनों) का मूलस्थान
शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था जो मूलतः सीरदरिया के उत्तर में रहनेवाली एक खानाबदोश और बर्बर जाति थी। चूंकि प्राचीन भारतीय, ईरानी, यूनानी और चीनी स्रोतों में इनका अलग-अलग विवरण मिलता है, इसलिए अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि सभी शक स्किथी तो थे, लेकिन सभी स्किथी शक नहीं थे।’ इस प्रकार शक स्किथी समुदाय के कुछ समुदायों का जाति नाम था।
चीनी ग्रंथों से पता चलता है कि ई.पू. 165 के आसपास यू-ची नामक एक अन्य जाति ने शकों को परास्त कर वहाँ से भगा दिया। शक सीरदरिया पारकर दो शाखाओं में बँट गये। यही समय था जब शकों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया पर आक्रमण किया और वहाँ के यवन राजा हेलियोक्लीज को पराभूत कर अधिकार कर लिया। शक लोगों की जिस शाखा ने बैक्ट्रिया की विजय की थी, वह हिंदुकुश पर्वत को पारकर कभी भारत में प्रविष्ट नहीं हुई। इसीलिए हेलियोक्लीज का शासन उत्तर-पश्चिमी भारत में कायम रहा।
शकों की दूसरी शाखा ने दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़कर वंक्षु नदी के पार पार्थिया के राज्य पर आक्रमण कर दिया। पार्थियन राजा फ्रात द्वितीय (लगभग ई.पू. 128) और उसके उत्तराधिकारी आर्तेबानस (ई.पू. 123) अपने प्राण देकर भी शकों की बाढ़ को रोक नहीं सके और शकों ने पार्थियन राज्य में घुसकर उसे बुरी तरह से लूटा।
आर्तेबानस के उत्तराधिकारी मिथ्रिदात द्वितीय (ई.पू. 123-88) ने अपनी शक्ति के बल पर न केवल शकों के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा की, बल्कि शकों को यह क्षेत्र छोड़ने पर विवश कर दिया। विवश होकर शक हेलमंड नदी घाटी में आकर बस गये जिसे ‘सीस्तान’ (शकस्थान) कहा गया है। यहाँ से शक, गंधार और बोलन दर्रा होते हुए सिंधु नदी घाटी में आये और सिंधु प्रदेश को अपना निवासस्थान बना लिये, इसलिए इस स्थान को ‘शकद्वीप’ कहा गया है। इसी समय शकों ने भारत पर आक्रमण करना शुरू किया।
भारत पर शकों (सीथियनों) का आक्रमण
पार्थिया को जीत सकने में असमर्थ होकर शकों ने सीस्तान और सिंधु मार्ग से भारत में प्रवेश किया। उनके भारत आक्रमण का समय ई.पू. 123 के आसपास माना जा सकता है। शकों ने सिंधु नदी के तट पर स्थित मीननगर को अपनी राजधानी बनाया जो भारत का पहला शक राज्य था। यहीं से उन्होंने भारत के अन्य प्रदेशों में अपना प्रसार किया। एक जैन अनुश्रुति के अनुसार भारत में शकों को आमंत्रित करने का श्रेय जैन आचार्य कालक को है। उन्होंने उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के अत्याचारों से तंग आकर पार्थियन राज्य (पारस कुल) में शरण ली थी। जब पार्थिया के राजा मिथ्रिदात द्वितीय की शक्ति के कारण शक संकट में थे, तो कालकाचार्य ने उन्हें भारत आने के लिए प्रेरित किया। शक पहले सिंधु में प्रविष्ट हुए और वहाँ पर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया। इसके बाद उन्होंने सौराष्ट्र को जीतकर उज्जयिनी पर आक्रमण किया, और वहाँ के राजा गर्दभिल्ल को परास्त किया।
मीननगर को राजधानी बनाकर शक आक्रांताओं ने सिंधु में अपना जो राज्य स्थापित किया था, वह भारत के शक राज्यों में सबसे प्रमुख था। शकों ने पश्चिमोत्तर प्रदेशों में यवन-सत्ता को समाप्त कर उत्तरापथ एवं पश्चिमी भारत के एक बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र, उज्जयिनी आदि स्थानों में शकों की भिन्न-भिन्न शाखाएँ स्थापित हुईं। अन्य शक राज्यों के शासक क्षत्रप या महाक्षत्रप कहलाते थे, जिससे लगता है कि वे स्वतंत्र राजा न होकर किसी शक्तिशाली महाराजा की अधीनता स्वीकार करते थे। इस प्रकार शकों की मुख्य राजधानी मीननगर थी, किंतु भारत के विविध प्रदेशों में उन्होंने जो अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित किये, वे संभवतः मीननगर के शकराज की अधीनता स्वीकार करते थे।
इस प्रकार भारत और अफगानिस्तान में शक शासकों की पाँच शाखाएँ थीं। उनकी राजधानियाँ भारत और अफगानिस्तान के अलग-अलग भागों में थीं। तत्कालीन अफगानिस्तान का शक राज्य आज तक ‘शकस्तान’ अथवा ‘सीस्तान’ के नाम से जाना जाता है। भारत में शकों की चार क्षेत्रीय शाखाओं को दो भागों में संगठित किया जाता है, जो उत्तरी क्षत्रप तथा पश्चिमी क्षत्रप के नाम से जाने जाते हैं. उत्तरी क्षत्रप के केंद्र तक्षशिला और मथुरा थे जबकि पश्चिमी क्षत्रप के केंद्र नासिक एबं उज्जैन थे।
उत्तरी क्षत्रप एवं पश्चिमी क्षत्रप
भारत में शक शासक अपने आप को क्षत्रप कहते थे। ‘क्षत्रप’ शब्द पुराने ईरानी शब्द ‘क्षत्रपवन’ (प्रांतीय गर्वनर) से लिया गया था। शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ हो गई थीं- एक, उत्तरी क्षत्रप कहलाते थे जो तक्षशिला एवं मथुरा में शासन करते थे और दूसरे, पश्चिमी क्षत्रप कहलाते थे, जो कालांतर में यू-ची लोगों से भयभीत होकर दक्षिण की ओर जाकर नासिक एवं उज्जैन में शासन किये।
तक्षशिला के शक शासक
तक्षशिला के प्रथम क्षत्रप शासक के रूप में मोग या मोयेज का (ई.पू. 80) उल्लेख मिलता है। पंजाब के मैरा से प्राप्त एक शिलालेख से ‘मोअ’ नामक शक राजा का परिचय मिलता है। इसी प्रकार तक्षशिला ताम्र-पात्र पर ‘मोग’ नामक शक राजा का उल्लेख है, जिसके नाम के साथ ‘महाराज’ और ‘महान’ विशेषण प्रयुक्त है। संभवतः मोअ और मोग एक ही व्यक्ति हैं। इस मोग के बहुत से सिक्के पश्चिमी पंजाब से पाये गये हैं, जो कि यवन सिक्कों के नमूने पर बने हुए हैं। इन सिक्कों पर ‘राजाधिराजस महतस मोअस’ लेख मिलता है। इस लेख से स्पष्ट है कि शक राजा मोअ या मोग की स्थिति क्षत्रप या महाक्षत्रप से अधिक ऊँची थी। वह राजाधिराज और महान था और शकों के अन्य राजकुल उसकी अधीनता स्वीकार करते थे। सिक्कों के प्रसार के आधार पर इसके साम्राज्य का विस्तार पुष्कलावती, कपिशा एवं पूर्वी मथुरा तक सिद्ध होता है।
मोग के बाद एजेज तक्षशिला का शक शासक हुआ। उसने पंजाब में यूथीडेमस कुल के यवनों को पराजित कर अपनी सत्ता स्थापित की। उसने यवन नरेश अपोलोडोटस द्वितीय तथा हिप्पास्ट्रेट की मुद्राओं को पुनर्टंकित करवाया।
एजेज के बाद उसके पुत्र एजिलिसेज का उल्लेख मिलता है। एजिलिसेज की दो प्रकार की मुद्राएँ मिलती हैं। पहले प्रकार की मुद्राओं के मुखभाग पर यूनानी लिपि में एजेज का नाम तथा पृष्ठभाग पर खरोष्ठी में एजिलिसेज का नाम मिलता है। दूसरे प्रकार की मुद्राओं पर यूनानी में एजिलिसेज का नाम और खरोष्ठी में एजेज का नाम उत्कीर्ण है। इस आधार पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि एजेज नाम के दो शक राजा हुए।
एजेज प्रथम ने एजिलिसेज के पूर्व और एजेज द्वितीय ने एजिलिसेज के बाद शासन किया। तक्षशिला के शक शासकों ने संभवतः ई.पू. 20 से 43-44 ई. तक शासन किया। संभवतः एजेज द्वितीय के समय से ही पश्चिमोत्तर भारत में शक-शक्ति क्षीण होने लगी थी। पहले फ्रायोटीज और बाद में पार्थियन गोंडोफर्नीज ने तक्षशिला से शकों का शासन समाप्त कर दिया।
मथुरा के शक क्षत्रप
सिंधु से शकों की शक्ति का विस्तार काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, महाराष्ट्र और मालवा में हुआ, और वहाँ से उत्तर की ओर मथुरा में। संभवतः उज्जयिनी की विजय के बाद ही शकों ने मथुरा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। टार्न और स्टेनकेनो जैसे विद्वानों ने कालकाचार्य कथानक के आधार पर प्रतिपादित किया है कि मालवा में विक्रमादित्य (57 ई.पू.) द्वारा पराजित होकर शक मथुरा में आकर बस गये। इसी शासक को मालव अथवा विक्रम संवत् का संस्थापक माना जाता है। जैनग्रंथों के अनुसार इसके 135 वर्ष बाद शक-संवत् (78 ई. में) प्रारंभ हुआ।
मथुरा के सिंह-ध्वज अभिलेख से रजुल के प्रथम शक क्षत्रप होने का उल्लेख मिलता है। यह सिंह-ध्वज अभिलेख महाक्षत्रप रजुल के काल में उसकी प्रधान महिषी ने उत्कीर्ण करवाया था। शिलालेख में महाक्षत्रप राजवुल की पटरानी कमुइअ (कंबोजिका) के द्वारा बुद्ध के अवशेषों पर एक स्तूप तथा एक गुहा विहार बनवाने का उल्लेख मिलता है। रजुल का समीकरण महाक्षत्रप राजवुल से किया जाता है जिसका उल्लेख मोरा (मथुरा) से प्राप्त ब्राह्मी में उत्कीर्ण लेख में किया गया है।
राजवुल पहले शाकल का शासक था और उसके सिक्कों पर ‘महाक्षत्रप’ उपाधि अंकित मिलती है। इसने पूर्वी पंजाब को जीतकर यवन शासन का अंत किया। इसके सिक्के सिंधु नदी की घाटी से गंगा के दोआब तक पाये गये हैं। सिक्कों के प्राप्ति-स्थानों से लगता है कि रजवुल का अधिकार पूर्वी पंजाब से मथुरा तक था। मथुरा के सिंह-ध्वज अभिलेख में इस क्षेत्र के हगामश और हगान जैसे अनेक शक सरदारों का नाम मिलता है, किंतु इनके आपसी संबंधों का ज्ञान नहीं है।
राजवुल के बाद उसका पुत्र शोडास क्षत्रप या महाक्षत्रप पद पर अधिष्ठित हुआ। शोडास ने मथुरा पर लंबे समय तक शासन किया। मथुरा सिंह-ध्वज शिलालेख पर शोडास की उपाधि क्षत्रप अंकित है, किंतु मथुरा में ही मिले अन्य शिलालेखों और अनेक सिक्कों पर महाक्षत्रप संबोधन मिलता है। कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त एक शिलापट्ट पर ब्राह्मी लेख है, जिसके अनुसार स्वामी महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या अमोहिनी ने एक जैन विहार की स्थापना की थी।
शोडास के सिक्के दो प्रकार के हैं, पहले प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर खड़ी हुई लक्ष्मी तथा पृष्ठ भाग पर लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है। इन सिक्कों पर ‘राजवुल पुतस खतपस शोडासस’ लिखा हुआ है। दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख में केवल ‘महाक्षत्रप शोडासस’ अंकित है। इससे अनुमान होता है कि शोडास के पहलेवाले सिक्के उस समय के हैं जब उसका पिता जीवित था और दूसरे राजवुल की मृत्यु के बाद के हैं, जब शोडास को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके थे।
मथुरा के सिंह-शीर्ष लेख में शोडा के नाम के साथ क्षत्रप ही मिलता है। संभवतः इस लेख के समय राजवुल जीवित था और शोडास उस समय राजकुमार था। गार्गीसंहिता से युगपुराण में शकों द्वारा कुणिंद गण के विनाश का उल्लेख है। संभवतः शोडास ने ही इन गणों को विजित कर महाक्षत्रप का पद ग्रहण किया था। पूर्वी पंजाब से इसका कोई सिक्का नहीं मिला है, जिससे लगता है कि इसका अधिकार क्षेत्र मथुरा तक ही सीमित था। शोडास के अभिलेखों में सबसे महत्त्वपूर्ण लेख एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएं पर मिली थी। यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में कृष्ण-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है।
एक सिक्के पर ‘महास्वतपसपुतस तोरणदासस‘ लेख मिलता है जो शोडस के सिक्कों जैसा ही है। तोरणदास संभवतः राजवुल के दूसरे पुत्र का नाम था। मोरा के लेख में राजवुल के दूसरे पुत्र का उल्लेख है।
शोडास का समकालीन तक्षशिला का शासक पतिक था। मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है। गणेशरा गाँव (मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है। शोडास के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह स्पष्ट नहीं है। ई.पू. पहली शती के पूर्वार्द्ध में तक्षशिला से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र तक शकों का ही एकछत्र राज्य हो गया था।
मथुरा के शक क्षत्रप बौद्ध धर्म के प्रति बहुत श्रद्धालु थे। मथुरा के सिंहध्वज की सिंहमूर्तियों के आगे-पीछे तथा नीचे खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण एक लेख में महाक्षत्रप राजवुल या रजुल की अग्रमहिषी द्वारा शाक्य-मुनि बुद्ध के शरीर-धातु को प्रतिष्ठापित करने और बौद्ध विहार को एक जागीर दान देने का उल्लेख है। मथुरा से प्राप्त एक अन्य लेख में महाक्षत्रप शोडास के शासनकाल में हारिती के पुत्र पाल की भार्या मोहिनी द्वारा अर्हत् की पूजा के लिए एक मूर्ति की प्रतिष्ठा का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि महाराष्ट्र के क्षहरात शकों की तरह मथुरा के शक-कुल भी सद्धर्म के प्रति श्रद्धावान् थे।
गांधार का शक वंश
शकों के बहुत से सिक्के और अनेक उत्कीर्ण लेख गांधार तथा पश्चिमी पंजाब से उपलब्ध हुए हैं। तक्षशिला से प्राप्त एक महत्त्वपूर्ण ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार महाराज महान् मोग के राज्य में क्षहरात चुक्ष के क्षत्रप लिअक कुसुलक के पुत्र पतिक ने तक्षशिला में भगवान् शाक्यमुनि के अप्रतिष्ठापित शरीर-धातु को प्रतिष्ठापित किया था। पतिक शोडास का समकालीन तक्षशिला का शासक था। मथुरा के सिंह-शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि महाक्षत्रप दी हुई है। तक्षशिला से प्राप्त एक दूसरे शिलालेख में महादानपति पतिक का नाम आया है। संभवतः ये दोनों पतिक एक ही हैं और जब शोडास मथुरा का क्षत्रप था, उस समय पतिक तक्षशिला में महाक्षत्रप था।
पश्चिमी भारत के शक क्षत्रप
वस्तुतः यू-ची आक्रमणों के भय से कई क्षत्रप ई.पू. पहली शती से ई. की पहली शती के बीच उत्तर-पश्चिम से दक्षिण की ओर बढ़कर पश्चिमी भारत में अपने राज्य स्थापित कर लिये थे। पश्चिमी भारत में दो शक वंशों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं- महाराष्ट्र का क्षहरात वंश (नासिक के क्षत्रप) और सौराष्ट्र तथा मालवा के कार्दमक शक (उज्जैन के क्षत्रप)।
क्षहरात वंश
मीननगर के शक महाराज की अधीनता में जो सबसे अधिक शक्तिशाली शक क्षत्रप थे, उनका शासन काठियावाड़, गुजरात, कोंकण, पश्चिमी महाराष्ट्र और मालवा तक के प्रदेशों में विस्तृत था। इस विशाल राज्य पर शासन करने वाले शक कुल को ‘क्षहरात’ कहते हैं। इसकी राजधानी संभवतः भरुकच्छ (सौराष्ट्र) में थी, किंतु इनके बहुत से उत्कीर्ण लेख महाराष्ट्र से उपलब्ध हुए हैं।
शकों के क्षहरात कुल का पहला क्षत्रप भूमक था। ताँबे के सिक्कों में भूमक ने अपने आपको क्षत्रप लिखा है। उसके अनेक सिक्के महाराष्ट्र और काठियावाड़ से मिले हैं। इससे अनुमान किया जाता है कि महाराष्ट्र और काठियावाड़ दोनों उसके शासन के अधीन थे।
नहपान (नहवाण)
नहपान क्षहरात वंश का सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त योग्य शासक था जो भूमक के बाद क्षहरात वंश का वास्तविक उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था। किंतु भूमक के साथ इसका संबंध स्पष्ट नहीं है। नहपान ने अपनी मुद्राओं पर ‘राजा’ की उपाधि धारण की थी। नहपान अपने प्रारंभिक अभिलेखों में स्वयं को क्षत्रप कहता है और उषावदात के नासिकवाले लेख में उसे केवल क्षत्रप कहा गया है, किंतु वर्ष 46 के पूना गुहालेख में उसके नाम के साथ महाक्षत्रप विशेषण प्रयुक्त मिलता है। इससे लगता है कि नहपान को अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए कई युद्ध करने पड़े थे और इसी कारण उसकी स्थिति क्षत्रप से बढ़कर महाक्षत्रप की हो गई थी।
नहपान का साम्राज्य उत्तर में अजमेर एवं राजपूताना तक विस्तृत था। इसके अंतर्गत काठियावाड़, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, नासिक व पूना आदि सम्मिलित थे। इसके सात उत्कीर्ण लेख और हजारों चाँदी व ताँबे सिक्के अजमेर से नासिक तक के क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। नहपान के दामाद उषावदात के नासिक गुहा के एक लेख से ज्ञात होता है कि उस समय उसके दक्षिणी प्रांत गोवर्धन (नासिक) तथा मामल्ल (पूना) का वायसराय उषावदात था। नासिक गुहा के एक अन्य लेख से पता चलता है कि उषावदात ने पोक्षर (अजमेर) जाकर वहाँ पर अभिषेक (स्नान) कर तीन हजार गायें और गाँव दान दिया था।
नासिक गुहा के इन लेखों से स्पष्ट है कि अजमेर के समीपवर्ती प्रदेश नहपान के राज्य के अंतर्गत थे। इस लेख में उल्लिखित प्रभास (सोमनाथ, पाटन) सौराष्ट्र (काठियावाड़) में है। भरुकच्छ की स्थिति भी इसी प्रदेश में है, गोवर्धन नासिक का नाम है और शोर्पारण (सोपारा) कोंकण में है। इस प्रकार स्पष्ट है कि काठियावाड़, महाराष्ट्र और कोंकण अवश्य ही क्षत्राप नहपान के शासनांतर्गत थे। नासिक के लेख में जिन नदियों का उल्लेख है, उनका भी संबंध गुजरात से है। अतः यह प्रदेश भी नहपान के राज्य के अंतर्गत था।
नासिक के इस गुहालेख के निकट ही उषावदात का एक अन्य लेख भी मिला है जिसमें दाहूनक नगर और कंकापुर के साथ उजेनि (उज्जयिनी) का भी उल्लेख है। इन नगरों में भी उषावदात ने ब्राह्मणों को बहुत कुछ दान-पुण्य किया था। इससे लगता है कि उज्जयिनी भी नहपान के अधीन थी। उज्जयिनी पर नहपान के आधिपत्य की पुष्टि जैन और पौराणिक अनुश्रुतियों से भी होती है। जैन अनुश्रुति में उज्जयिनी के राजाओं का उल्लेख करते हुए गर्दभिल्ल के बाद नहवाण नाम दिया गया है और पुराणों में अंतिम शुंग राजाओं के समकालीन विदिशा के राजा को ‘नखवानजः’ (नखवान का पुत्र) कहा गया है। नहवाण व नखवान क्षहरातवंशी क्षत्रप नहपान का ही रूपांतर प्रतीत होता है।
इस प्रकार नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक विस्तृत था। उसके राज्य में काठियावाड़, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, पूना आदि शामिल थे। उसने महाराष्ट्र के एक बड़े भू-भाग को सातवाहन राजाओं से छीन लिया था।
नहपान के समय में व्यापार और वाणिज्य की बड़ी प्रगति हुई। नहपान के सिक्के निश्चित मानक के हैं। उसके समय में सोने तथा चाँदी के सिक्के (कर्षापण) की विनिमय दर 1ः35 थी। नासिक के एक लेख में 70 हजार कर्षापणों का मूल्य 2,000 स्वर्ण मुद्रा में बताया गया है। भड़ौच व्यापारिक गतिविधि का प्रमुख केंद्र और प्रसिद्ध बंदरगाह था जहाँ से उज्जैन, प्रतिष्ठान से लाई गई व्यापारिक वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजी जाती थीं।
नहपान के अभिलेखों में 41 से 46 तक की तिथियाँ मिलती हैं, जो संभवतः 78 ई. में प्रारंभ होनेवाले शक-संवत् में हैं। इसलिए नहपान का राज्यकाल 119 से 124 ई. तक माना जा सकता है। लगता है कि सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र सातकर्णि ने नहपान को पराजित कर उसकी हत्या कर दी और क्षहरातवंशीय शकों द्वारा शासित प्रदेशों को छीन लिया। इसकी पुष्टि जोगलथंबी मुद्राभांड के पुनर्टंकित सिक्कों और नासिक-प्रशस्ति से होती है।
कार्दमक शक
सुराष्ट्र तथा मालवा के शक क्षत्रपों का एक अन्य कुल भी उज्जैन में शासन करता था। यह नया कुल ‘कार्दमक वंश’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस वंश ने 130 ई. से 388 ई. तक शासन किया। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने इस कुल को समाप्त किया।
उज्जयिनी का पहला स्वतंत्र शक शासक यसामोतिक का पुत्र चष्टन था, जो संभवतः पहले कुषाणों की अधीनता में सिंधु क्षेत्र का क्षत्रप था। उसे कुषाण साम्राज्य के दक्षिणी पश्चिमी प्रांत का वायसराय नियुक्त किया गया था। लगता है कि बाद में इसने स्वतंत्र होकर ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि धारण कर ली। चष्टन ने अपने पुत्र जयदामन् को क्षत्रप नियुक्त किया, किंतु जयदामन् की शीघ्र ही मृत्यु हो गई। इसके बाद चष्टन ने अपने पौत्र (जयदामन् के पुत्र) रुद्रदामन को क्षत्रप नियुक्त किया। अंधौ अभिलेख से पता चलता है कि 130 ई. में चष्टन अपने पौत्र रुद्रदामन के साथ शासन कर रहा था।
शक-क्षत्रप रुद्रदामन
रुद्रदामन कार्दमक वंश का सर्वाधिक योग्य और शक्तिशाली शासक था जो चष्टन की मृत्यु के बाद पश्चिमी भारत के शकों का शासक हुआ। रुद्रदामन के संबंध में विस्तृत जानकारी उसके शक संवत् 72 (150 ई.) के जूनागढ़ (गिरनार) अभिलेख से मिलती है।
जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि ‘सभी जाति के लोगों ने रुद्रदामन को अपना रक्षक चुना था’ तथा उसने ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि स्वयं ग्रहण की थी (सर्ववर्णेभिगम्य रक्षार्थ पतित्वे वृत्तेन। स्वयमधिगत-महाक्षत्रपनाम्ना)। इससे प्रतीत होता है कि रुद्रदामन के पूर्व शकों की शक्ति निर्बल पड़ गई थी और रुद्रदामन ने अपनी शक्ति एवं दूरदर्शिता के बल पर शक-सत्ता को पुनः प्रतिष्ठापित किया।
जूनागढ़ लेख के अनुसार रुद्रदामन के राज्य में आकर-अवंति (पूर्वी पश्चिमी मालवा), द्वारका के आसपास के प्रदेश, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु-सौवीर (सिंधु नदी का मुहाना), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), मरु (मारवाड़) आदि प्रदेश सम्मिलित थे। इसी अभिलेख से पता चलता है कि रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी सातकर्णि को दो बार पराजित किया, किंतु संबंध की निकटता के कारण उसका वध नहीं किया। यह सातकर्णि संभवतः वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि था।
नासिक अभिलेख से स्पष्ट है कि असिक, अश्मक, मूलक, सुराष्ट्र, कुकुर, अपरांत, अनूप, विदर्भ, आकर तथा अवंति पर गौतमीपुत्र सातकर्णि का अधिकार था। इससे लगता है कि रुद्रादामन् ने मालवा, सौराष्ट्र, कोंकण आदि प्रदेशों को गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारी वाशिष्ठीपुत्र से जीता था, परंतु निकट-संबंधी होने के कारण उसे नष्ट नहीं किया। संभवतः सिंधु नदी की घाटी रुद्रदामन ने कुषाणों से जीता था क्योंकि सुईविहार लेख से पता चलता है कि इस क्षेत्र पर कनिष्क प्रथम का अधिकार था।
जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि रुद्रदामन ने पूर्वी पंजाब के स्वाभिमानी यौधेयों को पराजित किया था जिन्होंने संभवतः उत्तर की ओर से उसके राज्य पर आक्रमण किया था। यौधेयों को पराजित कर उसने इस आयुधजीवी संघ पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।
रुद्रदामन महान् विजेता होने के साथ-साथ एक प्रजावत्सल सम्राट भी था। जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्यके मंत्री वैश्य पुष्यगुप्त द्वारा बनवाई गई सुदर्शन झील के बाँध में भारी वर्षा के कारण चौबीस हाथ लंबी-चौड़ी एवं पचहत्तर हाथ गहरी दरार पड़ गई थी। झील का सारा पानी बह जाने के कारण प्रजा को भीषण कठिनाई का सामना कर पड़ रहा था। रुद्रदामन ने प्रजा को संकट से बचाने के लिए अपने मंत्रिपरिषद् से धन व्यय करने की स्वीकृति माँगी, किंतु जब मंत्रिपरिषद् ने धन व्यय करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया तो प्रजापालक रुद्रदामन ने अपने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बाँध को तिगुना मजबूत बनवा दिया (स्वास्मात्कोशान् महताधनौघेन अनतिमहता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारयामं सेतुं विधाय)।
प्रजावत्सल रुद्रदामन ने इस लोक कल्याणकारी कार्य के लिए प्रजा से न तो कोई अतिरिक्त कर लिया और न ही बेगार (विष्टि) तथा प्रणय (पुण्यकर) ही वसूल किया (अपीडयित्वा करविष्टि प्रणयक्रियाभिपोरजानपदं जन)। उसका कोष स्वर्ण, रजत, हीरे आदि बहुमूल्य धातुओं से परिपूर्ण था (कनक रजत वज्रवैदूर्य रत्नोपचयविष्यन्दमानकोशेन)।
रुद्रदामन एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अपने साम्राज्य को प्रांतों में विभक्त कर रखा था जिसमें प्रशासन के लिए योग्य और विश्वासपात्र अमात्य (राज्यपाल) नियुक्त किये गये थे। आनर्त-सुराष्ट्र प्रांत का शासक सुविशाख था।
शक्ति-संपन्न होकर भी रुद्रदामन निरंकुश नहीं था। शासन-संचालन के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी जिसमें दो प्रकार के मंत्री होते थे- एक तो मतिसचिव, जो उसके व्यक्तिगत सलाहकार होते थे और दूसरे कर्मसचिव, जो कार्यकारी मंत्री और कार्यपालिका के अधिकारी होते थे। इन्हीं कर्मसचिवों में से राज्यपाल, कोषाध्यक्ष, अधीक्षक आदि की नियुक्ति की जाती थी। वह समस्त प्रशासनिक कार्य मंत्रिपरिषद् के परामर्श से ही करता था।
जूनागढ़ अभिलेख में रुद्रदामन को ‘भ्रष्ट-राज-प्रतिष्ठापक’ कहा गया है। इससे लगता है कि रुद्रदामन ने एक कुशल राजनीतिज्ञ की भाँति अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए विजित राजाओं का राज्य वापस कर उन्हें पुनः प्रतिष्ठापित कर दिया था।
रुद्रदामन महान् विजेता और कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ व्याकरण व तर्कशास्त्र का विद्वान् तथा कला व संगीत का प्रेमी भी था। वह आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था। गिरनार अभिलेख के अनुसार उसने अनेक स्वयंवरों में जाकर अनेक राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया था (नरेन्द्रकन्या स्वयंवरानेक माल्यप्राप्तदाम्ना)। वह स्वयं संस्कृत का ज्ञाता और गद्य-पद्य रचना में निपुण था (स्फुटलघुमधुरचित्रकांत शब्द समयोदारालंकृत गद्यपद्य काव्य विधान प्रवीणेन..)। विशुद्ध संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण उसका जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत भाषा का प्रचीनतम् अभिलेख है, जो तत्युगीन संस्कृत-साहित्य के विकास का सूचक है। इसके समय में उज्जयिनी शिक्षा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुकी थी।
इस प्रकार रुद्रदामन महान् विजेता, साम्राज्य-निर्माता, कुशल प्रशासक, उदार एवं लोकोपकारी शासक था। संस्कृत भाषा के विकास की दृष्टि से इसका काल एक सीमा-चिन्ह है। इसका शासनकाल आमतौर पर 130 ई. से 150 ई. माना जाता है।
रुद्रदामन के पश्चात् ही शक साम्राज्य की शक्ति का हृास प्रारंभ हो गया। शक साम्राज्य चौथी शताब्दी ई. तक पश्चिमी भारत में बना रहा। गुप्त राजवंश के प्रतापी शासक चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ‘शकारि’ ने पश्चिमी भारत के अंतिम शक नरेश रुद्रसिंह तृतीय की हत्या कर शकों के क्षेत्रों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
पार्थियन (पह्लव) शासक
पार्थियन मूलतः पार्थिया के निवासी थे। पार्थिया, बैक्ट्रिया के पश्चिम की ओर कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित है, सेल्यूसिड साम्राज्य का सीमावर्ती प्रांत था। तीसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य बैक्ट्रिया के साथ ही पार्थिया के यवन क्षत्रपों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
मिथ्रदात प्रथम
पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मिथ्रदात प्रथम (ई.पू. 171-130) था। पूर्व में उसने जेड्रोसिया, हेरात तथा सीस्तान की विजय की थी। उसके बाद फ्रात द्वितीय (ई.पू. 138-128) तथा फिर आर्तेबानस (ई.पू. 128-123) राजा हुए जो शकों के विरुद्ध लड़ते हुए मारे गये। मिथ्रदात द्वितीय (ई.पू. 123-88) इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था जिसने शकों को परास्त कर सीस्तान और कांधार पर अधिकार कर लिया।
मिथ्रदात द्वितीय के बाद भी पह्लवों का सीस्तान, आरकोसिया, एरिया तथा काबुल घाटी में अधिकार बना रहा। इन क्षेत्रों से पाये गये सिक्कों से अनेक राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं। वे पहले पार्थियन शासकों के गवर्नर (राज्यपाल) थे, किंतु बाद में स्वतंत्र हो गये तथा हिंद-यवनों को पराजित कर भारत के कुछ भागों पर अधिकार भी कर लिये। भारत पर आक्रमण करनेवाले पार्थियन सरदार मूलतः सीस्तान तथा अराकोसिया से आये थे और उन्हीं पार्थियनों को भारतीय ग्रंथों में ‘पह्लव’ कहा गया है।
जिस समय शक शासक मेउस गंधार में शासन कर रहा था, उस समय वोनानीज सीस्तान, अराकोसिया तथा एरिया का शासक था। उसके सिक्कों पर ‘महाराजाधिराज’ उपाधि मिलती है। इसके कुछ सिक्के यवन शासक युक्रेटाइडीज के सिक्कों के अनुकरण पर ढाले गये हैं, जिन पर यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों में लेख मिलते हैं। सिक्कों के पृष्ठभाग पर उसके भाई श्पलहोर तथा भतीजे श्पलगडम का नाम मिलता है, जो संभवतः उसके प्रांतीय शासक (गवर्नर) थे।
वोनानीज के बाद श्पेलिरस राजा हुआ। इसके कुछ सिक्कों के मुखभाग पर यूनानी लिपि में श्पेलिरस तथा पृष्ठभाग पर एजेज का नाम उत्कीर्ण है। संभवतः शक शासक एजेज उसके अधीन उपराजा (वायसराय) था। इससे तक्षशिला पर पार्थियनों का अधिकार सूचित होता है।
गोंडोफर्नीज
गोंडोफर्नीज पार्थियन वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसके शासनकाल का एक अभिलेख तख्त-ए-बाही (पेशावर) से मिला है जिस पर 103 की तिथि अंकित है। यदि यह तिथि विक्रम् संवत् की मानी जाये तो वह 46 ई. में राज्य कर रहा था। यह तिथि उसके शासन के 26वें वर्ष की है, इसलिए उसने (46-26 ई.) 20 ई. में शासन-कार्य प्रारंभ किया था।
गोंडोफर्नीज के सिक्के पंजाब, सिंधु, कन्धार, सीस्तान तथा काबुल घाटी से पाये गये हैं। इससे लगता है कि गोंडोफर्नीज ने पंजाब तथा सिंधु के शकों को पराजित कर अधिकृत किया था। तक्षशिला उसकी राजधानी थी। शक शासक एजेज द्वितीय के अधीनस्थ क्षत्रप अस्पवर्मन् ने गोंडोफर्नीज की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
ईसाई अनुश्रुतियों में गोंडोफर्नीज को ‘संपूर्ण भारत का राजा’ कहा गया है। उसी के शासनकाल में ईसाई धर्म-प्रचारक सेंट टॉमस भारत आया और उसी समय भारत का पहली बार ईसाई धर्म से संपर्क हुआ। संभवतः गोंडोफर्नीज ने ईसाई धर्म स्वीकार भी कर लिया था।
पार्थियन सत्ता का विस्थापन
गोंडोफर्नीज के उत्तराधिकारियों के संबंध में कुछ कह सकना कठिन है। सिक्कों से दो राजाओं- एब्डगेमस तथा पकोरिस के नाम की जानकारी अवश्य मिलती है, किंतु और कोई जानकारी नहीं मिलती। लगता है कि इसके बाद कुषाणों ने पार्थियनों को विस्थापित कर अपना शासन स्थापित कर लिया। इसके बावजूद पार्थियन किसी न किसी रूप में द्वितीय शताब्दी ई. तक पश्चिमी भारत में बने रहे। गौतमीपुत्र सातकर्णि को नासिक गुहालेख में पह्लव शासक को उखाड़ फेंकने का श्रेय दिया गया है। महाक्षत्रप रुद्रदामन की अधीनता में पह्लव सुविशाख सुराष्ट्र में शासन करता था।
पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर उत्कीर्ण ‘ध्रमिक’ उपाधि से लगता है कि शकों की तरह वे भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म अंगीकर कर लिये थे।
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