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बहमनी साम्राज्य
नर्मदा नदी के दक्षिण में भारत के प्रायद्वीप को दक्कन क्षेत्र कहा जाता है। इसमें महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उड़ीसा के कुछ हिस्से तथा नर्मदा और कृष्णा नदियों के बीच का दोआब क्षेत्र आता है। चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली के नवाचारी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के समय में दक्षिण भारत के इस दक्कन क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण साम्राज्यों का उदय हुआ-एक तो विजयनगर साम्राज्य और दूसरा बहमनी साम्राज्य। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1337 ई. दो भाइयों- हरिहर और बुक्का ने की थी, जबकि दूसरे बहमनी साम्राज्य के संबंध में इस ब्लॉग में चर्चा की गई है।
बहमनी साम्राज्य मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में होने वाले विद्रोहों का परिणाम था। सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासनकाल के अंतिम दिनों में गुजरात के अमीरों के बाद गुलबर्गा, सागर और दौलताबाद के अमीरों ने भी सुल्तान के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इन अमीरों को ‘अमीरान–ए–सदा’ कहा जाता था और वे विदेशी थे। इन अमीरों ने दौलताबाद पर अधिकार कर लिया और अपने में से एक वरिष्ठ अमीर इस्माइल मुख को अपना नेता चुना। इस्माइल मुख ने सुल्तान नासिरुदीन शाह की उपाधि धारण की और अमीरों के संघ के मुखिया तुर्की गवर्नर हसन गंगू को अमीरुल-उमरा तथा ‘जफर खाँ’ की उपाधि प्रदान की।
अभी दौलताबाद का यह नवीन राज्य सुरक्षित नहीं था क्योंकि गुलबर्गा, कल्याणी और सागर पर अभी भी सुल्तान मुहम्मद का नियंत्रण था। जफर खाँ ने सागर और गुलबर्गा को सुल्तान से छीन लिया। उसने सुल्तान की सेना को पराजित किया जो दौलताबाद को घेरे हुए थी। इन सफलताओं से जफर खाँ की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई। सुल्तान नासिरूद्दीन बूढ़ा हो चला था और नवीन राज्य को जफर खाँ जैसे कुशल सेनापति की आवश्यकता थी। इसलिए नासिरूद्दीन ने सिंहासन त्याग दिया और दक्कन के सरदारों ने 3 अगस्त, 1347 को हसन गंगू को, ‘अलाउद्दीन अबुल मुजफ्फर अलाउद्दीन हसन बहमनशाह’ के नाम से सुल्तान घोषित किया। यही स्वतंत्र मुस्लिम राज्य भारत में बहमनी साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बहमनी सल्तनत उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक फैला हुआ था। दौलताबाद, बरार, बीदर, गोलकुंडा, अहमदनगर, गुलबर्गा आदि इसके प्रमुख क्षेत्र थे। आरंभ में 1347 ई. से 1425 ई. के बीच इस साम्राज्य की राजधानी हसनाबाद (कुलबर्गी/गुलबर्गा) थी, जिसे बाद में 1425 ई. में मुहम्मदाबाद (बीदर) में स्थानांतरित कर दिया गया। इस साम्राज्य के कुल अठारह सुल्तानों ने लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। इस साम्राज्य के सुल्तानों का वारंगल और विजयनगर साम्राज्य के शासकों से निरंतर संघर्ष चलता रहा, विशेषकर विजयनगर से कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के बीच के रायचूर दोआब को लेकर।
विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन
बहमनी साम्राज्य 1466-1481 ई. के दौरान अपने विस्तार के चरम पर पहुँच गया जब वजीर महमूद गवाँ ने गोवा पर अधिकार कर लिया जो विजयनगर साम्राज्य के अधीन था। दक्कनी व अफाकी अमीरों के आपसी संघर्ष के कारण 1481 ई. में मुहम्मदशाह तृतीय ने महमूद गवाँ को फांसी की सजा दे दी। दरअसल बहमनी साम्राज्य में अमीर दो गुटों में विभाजित थे- अफाकी़ और दक्कनी। अफा़की़ अमीर विदेशी मूल के शिया थे, जबकि दक्कनी देशी मूल के सुन्नी मुसलमान थे जो बहुत पहले ही दक्षिण भारत में आकर बस गये थे।
वज़ीर महमूद गवाँ की मौत के बाद बहमनी साम्राज्य का विघटन हो गया और उसके भग्नावशेषों पर पाँच नये राज्य- बीदर, बीजापुर, अहमदनगर, बरार और गोलकुंडा- का उदय हुआ, जिन्हें संयुक्त रूप से ‘दक्कन की सल्तनत’ कहा जाता है। बहमनी वंश का अंतिम सुल्तान कलीमुल्लाशाह था, लेकिन 1527 ई. में उसकी मृत्यु के साथ बहमनी राज्य का भी अंत हो गया।
बहमनी साम्राज्य दक्षिण और उत्तर के मध्य एक सांस्कृतिक सेतु साबित हुआ क्योंकि बहमनी सुलतानों के संरक्षण में जिस समन्वित संस्कृति का विकास हुआ, उसमें कुछ ऐसी निजी विशेषताएँ थीं, जो उसे उत्तर की संस्कृति से अलग करती थीं। बाद के सुल्तानों ने इन सांस्कृतिक परंपराओं को सुरक्षित रखा और कालांतर में मुग़ल-संस्कृति को भी प्रभावित किया।
बहमनी साम्राज्य के शासक
अलाउद्दीन हसन बहमनशाह (1347-1358 ई.)
अलाउद्दीन हसन बहमनशाह दक्षिण के बहमनी वंश का प्रथम सुल्तान था। उसने 1347 ई. में गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाकर बहमनी के स्वतंत्र राज्य की नींव डाली और गुलबर्गा का नाम बदलकर ‘हसनाबाद’ कर दिया।
अलाउद्दीन बहमनशाह अपने को ईरान के ‘इस्फंदियार’ के वीर पुत्र बहमनशाह का वंशज मानता था, किंतु इतिहासकार फ़रिश्ता के अनुसार वह प्रारंभ में दिल्ली के एक ब्राह्मण ज्योतिषी गंगू (गंगाधर शास्त्री वाबले) का नौकर था। इसलिए उसने अपने संरक्षक गंगू ब्राह्मण के प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से शासक बनने के बाद ‘बहमनशाह’ की उपाधि धारण की थी। किंतु फ़रिश्ता के मत को स्वीकार करना कठिन है, क्योंकि इसका समर्थन सिक्कों अथवा अन्य किसी स्रोत से नहीं होता है। ‘बुरहान–ए–मआसिर’ से पता चलता है कि हसन बहमन वंश का था। इसीलिए उसका वंश बहमनी कहलाया। रिचर्ड ईटन का मानना है कि जफर खाँ खिलजी दरबार में एक पूर्व उच्च अधिकारी का भतीजा था।
बहमनी राज्य के दक्षिण में विजयनगर तथा पूर्व में वारंगल के हिंदू राज्य थे। अलाउद्दीन हसन एक योग्य सेनापति तथा कुशल प्रशासक था। वह स्वयं को दक्षिण भारत में तुगलक साम्राज्य का उत्तराधिकारी समझता था। वह संपूर्ण दक्षिण को बहमनी शासन के अंतर्गत लाना चाहता था। यही कारण है कि अगले सौ वर्षों तक बहमनी राज्य का दक्षिण के राज्यों से संघर्ष होता रहा।
बहमन शाह ने नासिक, बगलान से अवशिष्ट तुगलक सेनाओं को निकाल कर इन क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने दक्षिणी प्रदेशों को जीतकर बहमनी राज्य की सीमा कृष्णा नदी तक पहुँचा दी।
बहमनशाह ने 1350 ई. में वारंगल के शासक कपाया नायक को पराजित करके उसे खिराज देने को बाध्य किया, लेकिन वह वारंगल को जीत कर बहमनी राज्य में सम्मिलित नहीं कर सका। उसने विजयनगर साम्राज्य पर भी आक्रमण करने का विचार किया था, किंतु अपने एक विश्वस्त सेवक सैफुद्दीन गोरी के परामर्श पर उसने इस अभियान का विचार त्याग दिया।
बहमनशाह ने अपने राज्य के प्रशासनिक संचालन के लिए एक अमीर वर्ग का निर्माण किया और संपूर्ण साम्राज्य चार प्रांतों (तरफों) में विभाजित किया- गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर। प्रत्येक तरफ एक तरफदार के अधीन था। गुलबर्गा का तरफ सबसे महत्वपूर्ण था जिसमें बीजापुर भी सम्मिलित था।
बुरहान-ए-मआसिर के अनुसार बहमनशाह एक प्रजापालक और इंसाफ-पसंद सुल्तान था। इतिहासकारों ने भी एक न्यायकारी सुल्तान के रूप में उसकी प्रशंसा की है। उसने दक्षिण के हिंदू शासकों को अपने अधीन किया, लेकिन हिंदुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया।
अपने शासन के अंतिम दिनों में बहमनशाह ने दाबुल पर अधिकार किया जो पश्चिमी समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह था। 4 फ़रवरी, 1358 को उसकी मृत्यु हो गई, किंतु मृत्यु के पूर्व ही उसने अपने सबसे बड़े पुत्र मुहम्मदशाह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
मुहम्मदशाह प्रथम (1358-1375 ई.)
अलाउद्दीन हसन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र मुहम्मदशाह प्रथम हुआ जो बहमनी वंश का दूसरा सुल्तान था। उसे खलीफा का औपचारिक स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ था। मुहम्मदशाह बहमनी साम्राज्य का महान् शासक था। किंतु उसके शासन का अधिकांश समय दक्षिण के विजयनगर और उत्तर में वारंगल के काकतीय हिंदू शासकों से युद्ध करने में व्यतीत हुआ। इन युद्धों का जो वर्णन फरिश्ता ने किया है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण के साथ ही साथ विरोधाभासी भी है। युद्ध का आरंभ वारंगल के शासक कपाया नायक की माँग से हुआ। इसी समय विजयनगर के शासक बुक्का ने भी रायचूर दोआब की माँग की। मुहम्मदशाह ने अठारह महीने तक इन माँगों का कोई जवाब नहीं दिया और युद्ध की तैयारी में लगा रहा। अंततः मुहम्मदशाह ने रक्षात्मक युद्ध आरंभ किया। उसने पहले वारंगल की सेनाओं को पराजित किया और इसके बाद विजयनगर की बढ़ती हुई सेनाओं को रायचूर दोआब से निकाल दिया। फरिश्ता के विवरण से पता चलता है कि उसने इन राज्यों से भारी हर्जाना वसूल किया था। उसने कपाया नायक से गोलकुंडा और तख्त-ए-फिरोजा छीन लिया। मुहम्मदशाह ने बुक्का के विरुद्ध युद्ध में पहली बार बारूद और तोपखाने का प्रयोग किया था।
मुहम्मदशाह परिश्रमी था और प्रशासनिक कार्यों की देखभाल स्वयं करता था। उसने अपने सारे राज्य में चोरी-डकैती, लूटमार की अराजकता का पूर्णतया अंत कर दिया। उसने प्रशासन का पुनर्गठन किया और केंद्रीय प्रशासन को आठ विभागों में बाँटकर आठ अलग-अलग मंत्रियों की नियुक्ति की। इन सभी विभागों का प्रमुख वकील-उल-सल्तनत था। उसने सेना के पुनर्गठन पर भी ध्यान दिया और प्रांतीय शासकों पर प्रभावशाली नियंत्रण के लिए प्रतिवर्ष शाही दौरे की प्रथा आरंभ की। किंतु अत्यधिक मद्यपान के कारण 1375 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
मुजाहिदशाह और दाऊदशाह: मुहम्मदशाह के बाद मुजाहिदशाह बहमनी (1375-1377 ई.) सुल्तान बना। मुजाहिदशाह के संक्षिप्त शासनकाल में बहमनी और विजयनगर राज्य में फिर युद्ध हुआ। सुल्तान ने तुंगभद्रा के दक्षिणी प्रदेशों की माँग की और इसके प्रत्युत्तर में बुक्का ने हाथियों की माँग कर दी। इस युद्ध के आरंभ में सुल्तान को सफलता मिली, लेकिन वह अडोनी दुर्ग पर अधिकार करने में असफल रहा। इसलिए उसने बुक्का से संधि कर ली और वापस लौट गया। उसके बाद उसके चाचा (चचेरे भाई?) दाउद खाँ ने उसकी हत्या करवा दी और 1378 ई. में स्वयं सुल्तान बन गया।
दाऊदशाह बहमनी दक्षिण के बहमनी वंश का चौथा सुल्तान था। लेकिन वह केवल एक वर्ष (1378 ई.) तक ही शासन कर सका क्योंकि मुजाहिदशाह की दूध-बहन ने उसकी हत्या करवा दी। इसके बाद अमीरों ने हसनशाह के एक पौत्र मुहम्मदशाह द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया।
मुहम्मदशाह द्वितीय (1378-1397 ई.)
मुहम्मदशाह द्वितीय बहमनी वंश का पाँचवाँ सुल्तान था। मुहम्मदशाह उदार, शांतिप्रिय, अध्ययन में रुचि रखने वाला तथा विद्या का संरक्षक था। बहमनी राज्य में सिहासन प्राप्त करने के लिए विभिन्न दावेदारों में होने वाले संघर्ष का लाभ उठाकर विजयनगर राज्य ने बहमनी राज्य के कुछ दक्षिणी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। लेकिन मुहम्मदशाह द्वितीय ने इन क्षेत्रों को पुनर्विजित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।
इस विद्या-प्रेमी सुल्तान के शासनकाल में गुलबर्गा विद्वानों का केंद्र बन गया। उसने शीराज के प्रसिद्ध विद्वान मीर फजलुल्ला अंजू को अपना सद्रेजहाँ नियुक्त किया और प्रसिद्ध फारसी कवि हाफिज शीराजी को गुलबर्गा आने का निमंत्रण दिया। दर्शन व कविता के प्रति उसकी अभिरुचि के कारण मुहम्मदशाह द्वितीय को ‘दूसरे अरस्तू’ की उपाधि से विभूषित किया गया। उसने कई मस्जिदों का निर्माण करवाया और अनाथों के लिए निःशुल्क विद्यालयों की स्थापना की। 1397 ई. में मुहम्मदशाह की मृत्यु हो गई।
मुहम्मदशाह द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके पुत्र- गयासुद्दीन (1397 ई.) और उत्तराधिकारी हुआ, लेकिन तघलचिन नामक एक तुर्की अमीर ने उन्हें अंधा कर दिया और कैद कर लिया।
इसके बाद मुहम्मदशाह का दूसरा पुत्र शम्सुद्दीन (1397 ई.) सुल्तान बना, किंतु ताजुद्दीन फिरोज ने तघलचिन को मार कर शम्सुद्दीन को अंधा कर दिया और 1397 ई. स्वयं को सुल्तान घोषित किया।
ताजुद्दीन फिरोजशाह (1397-1422 ई.)
बहमनी वंश का आठवाँ सुल्तान ताजुद्दीन फ़िरोजशाह चौथे सुल्तान दाऊदशाह का पुत्र था। फिरोजशाह का शासनकाल कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। फ़िरोज ने खेरला के गोंड शासक नरसिंह राय को पराजित करके बरार की ओर अपने राज्य का विस्तार किया। उसने नरसिंह से चालीस हाथी, पाँच मन सोना और पचास मन चाँदी का उपहार प्राप्त किया। इसके अलावा, राय ने अपनी एक पुत्री का विवाह भी फ़िरोज के साथ कर दिया।
फ़िरोजशाह ने अपने पड़ोसी विजयनगर राज्य के विरुद्ध तीन सैनिक अभियान किये। 1406 ई. में उसने शासक देवराय प्रथम (1406-22 ई.) को पराजित कर संधि करने और अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान के साथ करने के लिए विवश किया। इस विवाह के कारण रायचूर दोआब का बाँकापुर का क्षेत्र फिरोज को दहेज में मिल गया।
लेकिन 1419 ई. में फिरोजशाह बहमन को देवराय प्रथम से पराजित होना पड़ा और रायचूर दोआब विजयनगर के नियंत्रण में ही बना रहा।
फ़िरोजशाह ने प्रशासन में बड़े स्तर पर हिंदुओं को भर्ती किया था। कहा जाता है कि इसके शासनकाल में दक्कनी ब्राह्मण राज्य के प्रशासन, विशेषकर भूमि राजस्व के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
फ़िरोजशाह की निर्माण-कार्यों में विशेष रुचि थी। उसने अपनी राजधानी गुलबर्गा को अनेक भव्य इमारतों से अंलकृत किया और स्पेन की कुर्तुबा (कारडोवा) मस्जिद की शैली पर आधारित एक मस्जिद का निर्माण भी करवाया। इतना ही नहीं, उसने राजधानी के दक्षिण में भीमा नदी के तट पर फिरोजाबाद नामक नगर की स्थापना की और एक प्राचीरयुक्त भव्य राजप्रासाद भी बनवाया। फिरोज गुलबर्गा का अंतिम सुल्तान था। उसने अपने राज्य के प्रमुख बंदरगाहों चौल और दभोल को विशेष रूप से विकसित किया, जहाँ फ़ारस की खाड़ी और लाल सागर से व्यापारिक जहाज आते-जाते थे।
फिरोजशाह बहमनी वंश के विद्वान सुल्तानों में से एक था। वह स्वयं अनेक भाषाओं का ज्ञाता था। फ़रिश्ता के अनुसार उसे फ़ारसी, अरबी और तुर्की ही नहीं, बल्कि तेलुगु, कन्नड़ और मराठी का भी ज्ञान था। वह अकसर आधी रात तक साधुओं, कवियों, इतिहासकारों और श्रेष्ठ विद्वानों और बुद्धिमानों के साथ रहता था। उसकी अनेक पत्नियाँ थी जो अलग-अलग धर्मों और देशों की थी। कहा जाता है कि वह अपनी पत्नियों से उन्हीं की भाषा में बातचीत करता था। फ़रिश्ता ने फ़िरोजशाह को ऐसा पुरातनपंथी मुसलमान कहा है, जिसमें केवल शराब पीने और संगीत सुनने की ही कमज़ोरियाँ थीं। फ़िरोजशाह ने खगोलशास्त्र को प्रोत्साहन दिया और दौलताबाद में एक बेधशाला की स्थापना की थी।
फ़िरोजशाह ने दक्कन को भारत का सांस्कृतिक केंद्र बनाने के लिए विदेशियों को साम्राज्य में आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया, जिनमें अधिकांश ईरानी, अरब या तुर्क थे और जिन्हें ‘अफाकी कहा जाता था। इससे बहमनी का अमीर वर्ग ‘अफाकी’ और ‘दक्कनी’ दो गुटों में विभाजित हो गया। यह दलबंदी बहमनी साम्राज्य के पतन और विघटन का मुख्य कारण सिद्ध हई। फिरोजशाह ने विदेशियों (अफाकियों) को राज्याश्रय प्रदान कर उन्हें ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। फिरोजशाह के निमंत्रण पर प्रसिद्ध सूफ़ी संत बंदा नवाज़ या गेसू दराज 1397 ई. में गुलबर्गा में आकर बस गये। हिंदू और मुसलमान दोनों उनका आदर करते थे। 1422 ई. में फिरोजशाह की मृत्यु हो गई।
शिहाबुद्दीन अहमदशाह प्रथम (1422-1436 ई.)
अहमदशाह बहमनी सल्तनत का नवाँ सुल्तान था, जो 1422 ई. में सूफ़ी संत गेसूदराज़ के समर्थन से फ़िरोजशाह के बाद सिंहासन प्राप्त किया। अहमदशाह के समय में गुलबर्गा विद्रोह तथा षड्यंत्रों का केंद्र बन गया था, अतः उसने 1425 ई. राजधानी गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित किया तथा बीदर का नाम अहमदनगर (मुहम्मदाबाद) रखा। बीदर साम्राज्य के मध्य में स्थित था, विजयनगर से दूर होने के कारण सुरक्षित था, जलवायु तथा सैनिक दृष्टि से गुलबर्गा की अपेक्षा उत्तम था।
सुल्तान अहमदशाह बहमनी ने अपने सैनिक अभियान के अंतर्गत विजयनगर पर आक्रमण किया और विजयनगर के शरासक वीरविजय बुक्का से संधि के फलस्वरूप एक बड़ी धनराशि युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में वसूल किया। इसी क्रम में उसने वारंगल के काकतीय राज्य पर आक्रमण किया और राजा की हत्या कर वारंगल का अधिकांश भाग हड़प लिया। इसके बाद उसने मालवा, गुजरात और कोंकण के सामंतों को भी पराजित किया। उसने दक्षिण भारत में पूर्वी तट पर अधिकार करने के लिए निरंतर संघर्ष किया।
अहमदशाह ने विदेशी ‘अफाकियों’ की सहायता से सिंहासन प्राप्त किया था, इसलिए उसने अफ़ाकियों के वंशज खलाफ़ हसन बसरी को ‘मलिक–उल–तुज्जार’ की उपाधि दी। जब उसने सभी मुख्य पदों पर अफाकियों की नियुक्ति करना आरंभ किया तो दक्कनी अमीरों का असंतुष्ट होना स्वाभाविक था। अंततः इस असंतोष ने सांप्रदायिक रूप धारण कर लिया क्योंकि इन विदेशियों में अधिकांश शिया थे और दक्कनी गुट के मुस्लिम सुन्नी थे। इस संघर्ष का बहमनी राज्य की संस्कृति और राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
अहमदशाह का शासनकाल न्याय एवं धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध था। उसे इतिहास में ‘शाह वली’ या ‘संत अहमद’ के नाम से भी जाना जाता है। खुरासान में स्थित इस्फरायनी का कवि शेख आजरी उसके दरबार में आया था। 1436 ई. में इस सुल्तान की मृत्यु हो गई।
अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय (1436-1458 ई.)
अहमदशाह प्रथम के बाद उसका पुत्र अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय 1436 ई. में बहमनी के सिंहासन पर बैठा। वह बहमनी साम्राज्य का दसवाँ सुल्तान था। अलाउद्दीन अहमदशाह भी अपने पिता की तरह युद्धों में व्यस्त रहा। सुल्तान बनने के बाद उसने कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब पर अधिकार को लेकर विजयनगर के शासक देवराय द्वितीय से दो बार युद्ध किया। 1436 ई. के पहले युद्ध में उसे सफलता नहीं मिल सकी, लेकिन 1443 ई. के दूसरे युद्ध में उसने देवराय को पराजित कर एक अपमानजनक संधि करने के लिए बाध्य किया और रायचूर दोआब के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। उसने अपने भाई मुहम्मद को रायचूर का सूबेदार नियुक्त किया, जो जीवन भर उसके प्रति निष्ठावान रहा।
अहमदशाह ने कोंकण पर आक्रमण कर उसके शासक को अपने अधीन किया। उसने संगमेश्वर की पुत्री से बलपूर्वक विवाह किया, उसके श्वसुर खानदेश के नसीर खाँ ने अपनी पुत्री का पक्ष लेकर उस पर आक्रमण किया, लेकिन वह पराजित हुआ। इस युद्ध की विशेषता यह थी कि बहमनी सेना का सेनापति खलाक हसन बसरी था और सुल्तान की आज्ञा से उसने केवल अफाकी सैनिकों की सेना गठित की थी। इससे दक्कनी और अफाकी सैनिकों में भी विभाजन हो गया। इस प्रकार अहमदशाह द्वितीय के समय में दक्कनी तथा विदेशी मुसलमानों में पारस्परिक विरोध बहुत बढ़ गया। ईरान का महमूद गवाँ इसी के समय में बहमनी दरबार में आया था।
अलाउद्दीन अहमद द्वितीय इस्लाम का उत्साही प्रचारक था। फरिश्ता एवं बुरहाने-मआसिर के लेखक से पता चलता है कि उसने मस्जिदों, सार्वजनिक विद्यालयों एवं दातव्य संस्थाओं की स्थापना की थी। सुल्तान का महत्वपूर्ण कार्य अपनी राजधानी बीदर में एक विशाल शफ़ाख़ाना (दवाखाना) का निर्माण करवाना था, जिसमें हिंदू-मुस्लिम चिकित्सकों की नियुक्ति की गई थी और सभी रोगियों का बिना किसी धार्मिक भेदभाव के इलाज किया जाता था। उसने अस्पताल में दवाओं एवं पेय-पदार्थों की आपूर्ति के लिए दो गाँवों के राजस्व को दान दिया था। अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय 1458 ई. में मृत्यु हो गई।
हुमायूँशाह (1458-1461 ई.)
अलाउद्दीन द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ गद्दी पर बैठा जो बहमनी का ग्यारहवाँ सुल्तान था। इसे ‘अलाउद्दीन हुमायूँ’ के नाम से भी जाना जाता है। इसने अफाकी महमूद गवाँ को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। अपने अल्पकालीन शासनकाल में हुमायूँ को अनेक विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनका उसने बड़ी निर्ममता के साथ दमन किया। उसकी इसी निर्ममता के कारण उसे ‘दक्कन का नीरो’ और ‘जालिम’ कहा गया है।
हुमायूँ का उत्तराधिकारी अल्पायु था, इसलिए उसने अपने जीवनकाल में ही राजमाता मकदूमेजहाँ (नरगिस बेगम) के संरक्षण में एक प्रशासनिक परिषद् की स्थापना कर दी थी जिसमें महमूद गवाँ भी था। 1461 ई. में हुमायूँ की मृत्यु हो गई।
निजामशाह (1461-1463 ई.)
हुमायूँ की मृत्यु के बाद 1461 ई. में निज़ामशाह महमूद गवाँ के सहयोग से बहमनी का सुल्तान बना। यह बहमनी साम्राज्य का बारहवाँ सुल्तान था। सिंहासनारोहण के समय निजामशाह की आयु मात्र आठ वर्ष थी। उसने राजमाता मकदूमेजहाँ ने संरक्षण में ‘प्रशासनिक परिषद’ के सहयोग से शासन किया। इस परिषद में राजमाता मकदूमेजहाँ के अलावा महमूद गवाँ एवं ख्वाजाजहाँ भी सम्मिलित थे।
सुल्तान की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर उड़ीसा के शासक कपिलेश्वर गजपति ने दक्षिण की ओर से तथा मालवा के महमूद खिलजी ने उत्तर की ओर से बहमनी पर आक्रमण किया, किंतु अंततः बहमनी सेनाएँ विजयी हुईं।
कालांतर में उड़ीसा तथा ख़ानदेश की संयुक्त सेना के साथ मालवा के शासक महमूद खिलजी ने दक्कन पर आक्रमण कर बीदर पर अधिकार कर लिया और सुल्तान के परिवार को फिरोजाबाद में शरण के लिए बाध्य किया। परंतु कूटनीतिज्ञ एवं महत्वाकांक्षी महमूद गवाँ ने गुजरात के सहयोग से मालवा के सुल्तान को पराजित किया। दो वर्ष के अल्पकालीन शासन के बाद अचानक 1463 ई. में अल्पायु में सुल्तान निज़ामशाह की मृत्यु हो गई और उसका छोटा भाई शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह सुल्तान हुआ।
शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह तृतीय (1463-1482 ई.)
शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह तृतीय 1463 में नौ वर्ष की अवस्था में बहमनी का तेरहवाँ सुल्तान हुआ। महमूद गवाँ ने अल्पवय सुल्तान की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था की। राजमाता मकदूमेजहाँ को महमूद गवाँ की राजभक्ति और योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। उन्होंने महमूद गवाँ को नये सुल्तान का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। वास्तव में फिरोज के बाद बहमनी सुल्तानों में मुहम्मदशाह तृतीय (1463-1482 ई.) सर्वाधिक शिक्षित था। ख्वाजाजहाँ की मृत्यु के बाद उसने महमूद गवाँ को ‘ख्वाजाजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। एक श्रेष्ठ मंत्री तथा प्रशासक के रूप में महमूद गवाँ ने भी पूरी निष्ठा के साथ साम्राज्य और सुल्तान की सेवा की। फलतः बहमनी वंश का अगले बीस वर्ष का इतिहास महमूद गवाँ के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गया।
महमूद गवाँ और उसकी उपलब्धियाँ
महमूद गवाँ जन्म से ईरानी था। उसके पूर्वज शाह गिलन के वजीर थे। वह 45 वर्ष की आयु में व्यापार के उद्देश्य से गुलबर्गा आया था। किसी ने सुल्तान से उसका परिचय कराया और और शीघ्र ही वह उसका प्रिय पात्र बन गया। सुल्तान अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय उसकी योग्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे अपने दरबारी अमीरों में शामिल कर लिया।
सुल्तान हुमायूँ ने महमूद गवाँ को ‘मलिक उल तुज्जार’ (व्यापारियों का प्रधान) की उपाधि प्रदान की और अपनी मृत्यु के पूर्व उसे अपने नाबालिग पुत्र के संरक्षक परिषद् का सदस्य नियुक्त कर दिया था। राजमाता मकदूमेजहाँ उसकी निष्ठा और योग्यता पर पूरा भरोसा करती थीं। निजामशाह के समय में महमूद गवाँ के प्रभाव और लोकप्रियता में वृद्धि हुई। मुहम्मदशाह तृतीय के काल में राजमाता ने उसे सल्तनत का वजीर (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया और नये सुल्तान ने भी उसे ‘ख्वाजाजहाँ’ की उपाधि प्रदान की।
महमूद गवाँ ने बहमनी राज्य के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विकास में बहुमूल्य योगदान दिया। वह आजीवन पूरी निष्ठा और लगन के साथ बहमनी साम्राज्य की सेवा में लगा रहा। दरअसल प्रशासनिक परिषद् के सदस्य और प्रधानमंत्री के रूप में महमूद गवाँ बहमनी साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं से भलीभाँति परिचित हो चुका था। उसका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उसने बहमनी साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं का समाधान कर उसे उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।
महमूद गवाँ ने बहमनी साम्राज्य का विस्तार कोरोमंडल से अरब महासागर के तट तक किया, जिससे उसके राज्य की सीमा उत्तर में उड़ीसा की सीमा एवं काँची तक विस्तृत हो गई। उसने सबसे पहले मालवा के विरुद्ध अभियान किया और मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित करके बरार को बहमनी राज्य में मिला लिया। उसने कूटनीति तथा युद्धनीति का ऐसा सफल संमिश्रण किया जिससे मालवा के साथ स्थायी शांति स्थापित हो गई। इसके बाद उसने 1472 ई. में विजयनगर से गोवा छीनकर बहमनी में मिला लिया और रायचूर के अनेक किलों पर अधिकार कर लिया। वास्तव में गोवा पर अधिकार महमूद गवाँ की सर्वोत्कृष्ठ सैनिक उपलब्धि थी, क्योंकि यह पश्चिमी समुद्री तट पर विजयनगर साम्राज्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बंदरगाह था।
महमूद गवाँ ने उड़ीसा पर भी बहमनी की प्रभुसत्ता स्थापित की और राजमुंद्री पर अधिकार कर लिया। उसके एक सहायक ने कोंडवीर तथा राजामहेंद्री के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। महमूद गवाँ का अंतिम सैनिक अभियान विजयनगर के मेल्लार एवं कांची प्रदेशों पर हुआ जिसमें राजा की पराजय हुई। इन विजयों से बहमनी राज्य का क्षेत्रफल लगभग दुगना हो गया।
एक सफल प्रशासक के रूप में महमूद गवाँ ने कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार किये। अभी तक बहमनी साम्राज्य में चार प्रांत थे और उनके गवर्नरों को असीमित अधिकार मिले हुए थे। महमूद गवाँ ने नवविजित प्रदेशों के साथ बहमनी साम्राज्य के भूतपूर्व चार प्रांतों (तरफों) को आठ प्रांतों में बाँट दिया-बरार को गाविल और माहुर में, गुलबर्गा को बीजापुर एवं गुलबर्गा में, दौलताबाद को दौलताबाद एवं जुन्नार में तथा तेलंगाना को राजमुंद्री और वारंगल में। उसने तरफदारों पर प्रभावी नियंत्रण रखने के लिए उनके सैनिक अधिकारों में कटौती की और संपूर्ण प्रांत में केवल एक किले को ही गवर्नरों के अधीन रहने दिया। प्रांत के बाकी किलों में केंद्र की ओर से किलेदार या कमांडर नियुक्त किये गये। यही नहीं, उसने गवर्नरों की सेनाओं के निरीक्षण की प्रणाली भी लागू की। उसकी गतिविधियाँ केवल बहमनी साम्राज्य तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि उसने मिस्र, तुर्की और ईरान के विद्वानों के साथ पत्र-व्यवहार किया और वैदेशिक संबंध स्थापित किया।
महमूद गवाँ ने कृषि के विकास के लिए उसने भूमि की व्यवस्थित नाप–जोख कराई, उचित लगान का निर्धारण किया और किसानों को अनेक रियायतें दी। अर्थव्यवस्था को सुव्यवस्थित करके उसने प्रत्येक प्रांत में खालसा भूमि का विस्तार किया, जिससे राजकीय आय में वृद्धि हुई। गवाँ के प्रयास से गोवा और दभोल पर अधिकार हो जाने से ईरान और ईराक जैसे देशों के साथ बहमनी का समुद्री व्यापार बढ़ा जिससे उत्पादन में भी वृद्धि हुई।
महमूद गवाँ एक दूरदर्शी राजनेता और कुशल प्रशासक होने के साथ ही साथ विद्वान् और कलाओं का संरक्षक भी था। उसने अनेक विद्वानों को संरक्षण दिया और बीदर में उच्च शिक्षा के लिए आधुनिक सुविधाओं से युक्त बड़े मदरसे (विश्वविद्यालय) का निर्माण करवाया। इस तिमंज़िला सुंदर भवन में रंगीन ईंटों का प्रयोग किया गया था। इसमें एक हज़ार अध्यापक और विद्यार्थी रह सकते थे, जिन्हें राज्य की ओर से मुफ्त भोजन और कपड़ा मिलता था। मदरसे में अध्यापन के लिए महमूद गवाँ ने प्रसिद्ध ईरानी और इराकी विद्वानों भी आमंत्रित किया। गणित, औषधि विज्ञान तथा साहित्य के अध्ययन में उसकी विशेष रुचि थी और उसके पुस्तकालय में 3,000 से अधिक पुस्तकें थीं। उसने ‘रौजत–उल–इंशा’ और ‘दीवार–ए–असरा’ जैसे ग्रंथों की रचना की थी, जो उसके विद्वान् होने के प्रमाण हैं। वह निर्धनों की सहायता करता था और विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देता था।
महमूद गवाँ का शासनकाल सैनिक एवं प्रशासनिक सफलताओं से पूर्ण था, किंतु उसका अंत बहुत दुखद हुआ। अफाकी दल का नेता होने के बावजूद उसने विदेशी (अफाकी) और दक्किनी अमीरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया और दक्कनियों को यथासंभव संतुष्ट रखने का प्रयास किया। वह बहुत उदार था और अफ़ाकियों और दक्कनियों में समझौता करवाना चाहता था, किंतु अंत में उनके पारस्परिक षड्यंत्र का शिकार हो गया। दक्कनी अमीरों ने एक जाली पत्र के माध्यम से सुल्तान मुहम्मद तृतीय को विश्वास दिलाया कि महमूद गवाँ देशद्रोही है और शत्रु राज्य विजयनगर से उसके संबंध हैं। कान के कच्चे सुल्तान ने बिना कोई जाँच-पड़ताल किये 1481 ई. में उसके वध की आज्ञा दे दी। इस प्रकार बहमनी राज्य के श्रेष्ठ और स्वामिभक्त सेवक का अंत हो गया। महमूद गवाँ की मृत्यु के बाद शीघ्र ही बहमनी साम्राज्य का पतन हो गया।
महमूद गवाँ की मृत्यु के बाद सुल्तान को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने राजकीय कार्यों में रुचि लेना बंद कर दिया और शोक के कारण मदिरापान में डूबा रहने लगा जिससें प्रांतों के गवर्नर भी सुल्तान की आज्ञा की अवहेलना करने लगे। मुहम्मद तृतीय के शासनकाल में ही रूसी यात्री निकितिन ने बहमनी राज्य की यात्रा की थी। उसने अपने विवरणों में बहमनी साम्राज्य में जनसाधारण की स्थिति का वर्णन किया है। अंततः 1482 ई. में मुहम्मदशाह तृतीय की मृत्यु हो गई।
परवर्ती शासक और बहमनी साम्राज्य का विघटन
मुहम्मदशाह तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र शिहाबुद्दीन महमूदशाह द्वितीय (1482-1518 ई.) बारह वर्ष की आयु में 1482 ई. में बहमनी के सिंहासन पर बैठा। इस अल्पवयस्क सुल्तान के शासनकाल में सत्ता मुख्य रूप से निजाम–उल–मुल्क के हाथ में रही, जो प्रधानमंत्री के साथ-साथ सुल्तान का संरक्षक भी था। लेकिन शक्तिशाली तरफदार इस व्यवस्था से असंतुष्ट थे और साम्राज्य में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई। चार दिनों तक राजधानी बीदर में कत्लेआम होता रहा। अंततः सुल्तान ने निजाम–उल–मुल्क की हत्या करवा दी और अफाकियों का पक्ष लिया। किंतु इसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ और प्रांतीय तरफदार एक-एक कर अपनी स्वतंत्रता घोषित करने लगे।
बहमनी साम्राज्य का औपचारिक रूप से विघटन 1490 ई. में आरंभ हुआ, जब अहमदनगर, बीजापुर और बरार के गवर्नरों ने सुल्तान की उपाधि धारण करके अपनी-अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस प्रकार निजामशाही, आदिलशाही और इमादशाही राजवंशों की स्थापना हुई। लेकिन उन्होंने नाममात्र के लिए सुल्तान महमूद का सम्मान करते हुए सिक्के जारी किये। इसी प्रकार कुतुबुल्मुल्क ने गोलकुंडा में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली।
सुल्तान महमूदशाह की 1518 ई. में मृत्यु हो गई। सुल्तान महमूद में प्रशासन की योग्यता नहीं थी और वह भोग-विलास में लिप्त रहता था। दरअसल सुल्तान तुर्क अमीर कासिमअली बरीद का बंदी था जो बीदर का कोतवाल था और दलीय संघर्ष के कारण 1486 ई. में नायब मलिक बन गया था। कासिम अली बरीद के बाद बाद उसका पुत्र अमीरअली बरीद बहमनी का वजीर बन गया जिसे ‘दक्कन की लोमड़ी’ कहा गया है।
सुल्तान महमूदशाह के बाद चार बहमनी शासक- अहमदशाह चतुर्थ (1518-1520 ई.), अलाउद्दीनशाह द्वितीय (1520-1523 ई.), वलीउल्लाह शाह (1523-1526 ई.) और कलीमुल्लाह शाह (1525-1527 ई.) गद्दी पर बैठे। किंतु वे वजीर अमीर अली बरीद के हाथ की कठपुतली मात्र थे, जो बीदर के बरीदशाही राजवंश का संस्थापक था।
बहमनी साम्राज्य का अंतिम सुल्तान कलीमुल्लाह शाह (1525-1527 ई.) था, किंतु 1526 ई. में कासिमअली बरीद के भय से कलीमुल्लाह बीजापुर भाग गया। बाद में वह अहमदनगर चला गया, जहाँ 1538 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
बहमनी सल्तनत के विघटन से उसके ध्वंसावशेषों पर पाँच राज्यों की स्थापना हुई- अहमदनगर के निजामशाही, बीजापुर के आदिलशाही, गोलकुंडा (हैदराबाद) के कुतुबशाही, बरार के इमादशाही और बीदर के बरीदशाही। इमादशाही और निजामशाही राजवंशों के संस्थापक हिंदू से इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दक्कनी लोग थे। उन पाँचों राज्यों को सामूहिक रूप से ‘दक्कन सल्तनत’ के रूप में जाना जाता है।
बहमनी साम्राज्य के पतन के कारण
बहमनी साम्राज्य का अस्तित्व 179 वर्षों तक बना रहा, यद्यपि प्रभावशाली ढंग से इसकी सत्ता 140 वर्ष तक रही थी। इस राजवंश में अठारह सुल्तान हुए। इनमें से कुछ ही सुल्तान योग्य एवं शक्तिशाली थे। इनमें से पाँच सुल्तानों की हत्या की गई थी, दो को अंधा किया गया था, दो अत्यधिक मद्यपान से मर गये और तीन को पदच्युत् किया गया था।
बहमनी राज्य की सबसे बड़ी समस्या अमीरों का आपसी संघर्ष था। इन अमीरों की दो श्रेणियाँ थीं- पुराने अमीर और नये अमीर अथवा ‘दक्कनी’ और ‘अफाकी’ अमीर। महमूद गवाँ भी नये अमीरों में से एक था और उसे दक्कनियों का विश्वास जीतने के लिए हरसंभव प्रयास किया। किंतु दलगत संघर्ष समाप्त नहीं हो सका और जाली पत्रों के आधार पर उसे 1481 ई. में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। महमूद गवाँ की मृत्यु के पश्चात् दलगत संघर्ष और भी उग्र हो गया जिसका लाभ उठाकर प्रांतीय तरफदार एक-एक करके स्वतंत्र होने लगे। अंततः 1518 ई. में बहमनी राज्य के अवशेषों पर पाँच स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ।
साधारणतः बहमनी सुल्तानों का नैतिक स्तर निम्न था। कुछ अपवादों को छोड़कर सुल्तानों का दरबार अकसर षड्यंत्रों तथा कुचक्रों का केंद्र बना रहता था। इन षड्यंत्रों और कुचक्रों के कारण विघटनकारी प्रवृत्तियों को फलने-फूलने का अवसर मिला। जब वजीर महमूद गवाँ ने केंद्रीकरण की नीति अपनाई और विघटनकारी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने का प्रयास किया, तो उसकी हत्या कर दी गई।
बहमनी सल्तनत के अधिकांश सुल्तान अपने पड़ोसी राज्यों-वारंगल, विजयनगर, उड़ीसा, मालवा आदि से निरंतर संघर्ष करने में लगे रहे, जिससे साम्राज्य की अर्थव्यवस्था और स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। बहमनी सुल्तानों ने रायचूर दोआब पर अधिकार को लेकर विजयनगर के हिंदू राज्य को नष्ट करने का हरसंभव प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल सकी और उनके सभी प्रयास निष्फल सिद्ध हुए।
बहमनी साम्राज्य के पतन का एक कारण धार्मिक अत्याचार भी बताया जाता है क्योंकि फरिश्ता ने अपने अतिरंजित विवरण में बड़े पैमाने पर हिंदुओं की हत्याओं का उल्लेख किया है।
बहमनी सल्तनत में प्रशासन, समाज और सांस्कृतिक गतिविधियाँ
केंद्रीय प्रशासन
सुल्तान
बहमनी राज्य की प्रशासनिक पद्धति बहुत व्यवस्थित थी। शासन का प्रधान सुल्तान था, जो निरंकुश और स्वेच्छाचारी होता था। यद्यपि सामान्य सामान्य रूप से ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त किया जाता था, किंतु उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। अल्पवयस्क सुल्तान के लिए संरक्षक परिषद् की स्थापना की जाती थी, जिसकी नियुक्ति सुल्तान अपनी मृत्यु से पूर्व कर देते थे। राजमाता को संरक्षक बनाये जाने का भी उदाहरण मिलता है।
राजधर्म इस्लाम था और सुल्तानों ने इस्लामी नियमों के आधार पर शासन व्यवस्था स्थापित की थी। कहा जाता है कि बहमनी साम्राज्य में हिंदुओं को कोई अधिकार नहीं थे, किंतु कुछ सुल्तानों ने हिंदुओं को प्रशासन में भर्ती किया था। 1487 और 1495 ई. के मध्य साम्राज्य में भीषण अकाल पड़ा और कहा जाता है कि सुल्तान महमूद द्वितीय ने खाद्याान्न की व्यवस्था केवल मुसलमानों के लिए ही की थी। महमूद गवाँ ने शिक्षा के लिए कई सराहनीय कार्य किये, किंतु वह संभवतः केवल मुसलमानों के लिए ही थे। संक्षेप में, राज्य का स्वरूप इस्लामी था और धार्मिक अत्याचार बहमनी इतिहास की मुख्य विशेषता थी।
मंत्री
बहमनी साम्राज्य में प्रशासन के संगठन का कार्य सबसे पहले सुल्तान मुहम्मद प्रथम के काल में हुआ था और यही प्रशासनिक व्यवस्था लगभग उसी अवस्था में पूरे बहमनी काल में चलती रही। केंद्रीय प्रशासन सामान्यतः 8 मंत्रियों के सहयोग से संचलित किया जाता था,, जो इस प्रकार थे-
(1) वकील–ए–सल्तनत: सल्तनत के नायब का यह पद प्रधानमंत्री जैसा होता था। सुल्तान के सभी आदेश वकील-ए-सल्तनत के द्वारा ही पारित किये जाते थे।
((2) अमीर–ए–जुमला: यह पद वित्तमंत्री के समान था, जो सल्तनत की आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था।
(3) वकील–ए–कुल: यह पद प्रधानमंत्री के जैसा था जो अन्य मंत्रियों के कार्यों का निरीक्षण करता था।
(4) पेशवा: यह पदाधिकारी वकील-ए-सल्तनत का सहायक होता था और उसके साथ मिलकर कार्य करता था।।
(5) वजीर–ए–अशरफ: यह पद विदेशमंत्री जैसा था।
(6) नाजिर: यह वित्त विभाग से संबद्ध था और उपमंत्री की भाँति कार्य करता था।
(7) कोतवाल: यह पुलिस विभाग का अध्यक्ष था।
(8) सद–ए–जहाँ : यह सुल्तान के पश्चात् राज्य का मुख्य न्यायाधीश था और धर्म एवं दान विभाग का मंत्री था।
अमीर
बहमनी सल्तनत के सभी अमीर मुख्यतः दो गुटों या दलों में विभाजित थे- विदेशी या अफाकी और दक्कनी या घरीबों। घरीबों के अंतर्गत स्थानीय मुस्लिम अप्रवासी थे जो बहुत पहले से ही दक्षिण भारत में आकर बस गये थे। वे प्रायः सुन्नी इस्लाम के अनुयायी थे। दूसरा समूह ‘अफाक़ियों’ या विदेशी मुसलमान अमीरों का था, जिनमें हाल ही में फारस, तुर्की, मध्य एशिया, अरब तथा अफगानिस्तान से आकर दक्कन क्षेत्र में बसने वाले साहसी सैनिक थे जो मुख्यतया शिया इस्लाम के अनुयायी थे। मुजाहिदशाह के समय से इन विदेशी अमीरों को उच्च पदों पर नियुक्ति में प्रमुखता दी जाने लगी। कुछ अबीसीनिया के मुसलमान भी थे, लेकिन वे सुन्नी थे और दक्कनियों का साथ देते थे। इन दोनों गुटों के आपसी संघर्ष का बहमनी सल्तनत की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
प्रांतीय शासन
प्रांतपति या तरफदार
आरंभ में प्रांतीय शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए बहमनी साम्राज्य को चार प्रशासकीय इकाई में बाँटा गया था, जिन्हें ‘अतराफ’ या ‘प्रांत कहते थे। ये प्रांत थे- दौलताबाद, बीदर, बरार और गुलबर्गा। हर प्रांत एक ‘तरफदार’ के अधीन होता था। प्रांतीय गवर्नर या ‘तरफदार’ अपने-अपने प्रांत में सर्वोच्च होता था तथा उसका प्रमुख कार्य अपने प्रांत में राजस्व वसूलना, सेना संगठित करना व प्रांत के सभी नागरिक व सैनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की नियुक्ति करना था। दौलताबाद के प्रांतपति या तरफदार को मनसद-ए-आली, बरार का मुजलिस-ए-आली, बीदर का आजम-ए-हुमायूँ और गुलबर्गा का मलिक-नायब कहलाते थे।
महमूद गवाँ ने तरफदारों की शक्ति को कम करने के लिए साम्राज्य के भूतपूर्व चार प्रांतों (तरफों) को आठ प्रांतों में बाँट दिया- बरार को गाविल और माहुर में, गुलबर्गा को बीजापुर एवं गुलबर्गा में, दौलताबाद को दौलताबाद एवं जुन्नार में तथा तेलंगाना को राजमुंद्री और वारंगल में।
उसने तरफदारों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए उनके सैनिक अधिकारों में कटौती की और संपूर्ण प्रांत में केवल एक किले को ही गवर्नरों के अधीन रहने दिया। प्रांत के बाकी किलों में केंद्र की ओर से किलेदार या कमांडर नियुक्त किये गये। यही नहीं, उसने गवर्नरों की सेनाओं के निरीक्षण की प्रणाली भी लागू की और उसने उनके हिसाब-किताब की जाँच भी आरंभ की थी।
सुल्तान के महल तथा दरबार की सुरक्षा के लिए विशेष अंगरक्षक सैनिक दल था, जिसे ‘साख–ए–खेल’ कहा जाता था। इसमें 200 अधिकारी तथा 4,000 सैनिक थे। यह चार भागों या नौबत में विभाजित थे। इसका मुख्य अधिकारी सर–ए–नौबत कहलाता था। इस पद पर सुल्तान किसी उच्चपदस्थ और विश्वस्त अमीर को नियुक्त करते थे। सुल्तान को व्यक्तिगत सेना का मुख्य अधिकारी साख-ए खेल होता था। मुहम्मद प्रथम के काल में ही सबसे पहले बारूद और तोपखाने का प्रयोग किया गया था।
राजस्व
बहमनी सल्तनत की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था, लेकिन आरंभ में भू-राजस्व के निर्धारण और संग्रह की व्यवस्था ठीक नहीं थी। जागीरदारों के द्वारा जो राजस्व संग्रह कराया जाता था, उसके हिसाब-किताब की जाँच नहीं होती थी, जिसके कारण अधिकारी वर्ग राजस्व का गबन करते थे। जनता पर करों का भार अधिक था और अधिकारी मनमाने ढंग से कर वसूल करते थे।
महमूद गवाँ ने प्रचलित कर-प्रणाली व कर-संग्रह में महत्वपूर्ण सुधार किये थे। कृषि के विकास के लिए उसने भूमि की व्यवस्थित पैमाइश करवा कर उचित लगान का निर्धारण किया। उसने किसानों को अनेक सुविधाएँ दी और सिंचाई की व्यवस्था के लिए जलाशयों का निर्माण करवाया। वित्तीय मामलों में अनुशासन स्थापित करने के लिए उसने अमीरों के हिसाब-किताब की जाँच करवाई और सैनिक कम होने पर उनका वेतन कम कर दिया। अकाल के समय सुल्तान जनता के कल्याण के लिए कार्य करते थे।
समाज
बहमनी समाज दो भागों में विभक्त था। प्रथम हिंदू, जो कृषक, शिल्पकार, व्यापारी आदि थे और दूसरे मुस्लिम, जो मुख्य रूप से सैनिक एवं राज्य के अधिकारी थे। आर्थिक दृष्टि से राज्य में हिंदुओं की दशा दयनीय थी और मुस्लिम वर्ग की अवस्था अच्छी थी, विशेष रूप से अधिकारी वर्ग वैभव संपन्न था और विलासिता का जीवन व्यतीत करता था। यद्यपि कुछ पदों पर अपरिहार्य कारणों से हिंदुओं की निुयक्ति की जाती थी, किंतु उनकी दशा भी बहुत अच्छी नहीं थी। 1468 ई. में रूसी यात्री निकितिन ने बीदर की यात्रा की थी। वह लिखता है कि ‘ग्रामीण लोगों को दशा अत्यंत दयनीय है और अमीर तथा सरदार लोग अत्यंत धनी है और विलासिता में डूबे रहते हैं। उनका यह स्वभाव है कि वे चाँदी के वाहनों पर निकलते हैं, 50 स्वर्णालंकृत घोड़े उनकी सवारी के आगे तथा 300 अश्वारोही, 500 पदाति दुंदुभीधारी तथा 10 मशाल वाले और 10 गायक पीछे चलते हैं।’
राज्य गैर-मुस्लिमों को विभिन्न प्रकार से इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करता था। ऐसा लगता है कि निकोलो कोंटी के समान निकितिन को भी ईसाई धर्म त्यागकर इस्लाम स्वीकार करना पड़ा था। एक स्थान पर वह कहता है कि, ‘अब रूस के मेरे ईसाई भाइयों, तुममें से अगर कोई कभी हिंदुस्तान जाना चाहे तो उसे अपना धर्म रूस में छोड़ जाना चाहिए, इस्लाम को स्वीकार करना चाहिए और उसके बाद हिंदुस्तान जाना चाहिए।’
शिक्षा एवं साहित्य
बहमनी सुल्तानों ने शिक्षा, साहित्य तथा संगीत को प्रोत्साहित किया। ग्रामीण क्षेत्रों में मस्जिदों का निर्माण कराया गया, जिनमें बालकों की शिक्षा की व्यवस्था की गई थी। नगरों में उच्च शिक्षा के लिए मदरसे स्थापित किये गये थे। उन्होंने अरबी और फ़ारसी विद्वानों को अपने राज्य में आमंत्रित किये और मदरसों को अनुदान दिये। सुल्तान मुहम्मद द्वितीय ने ईरान से अनेक विद्वानों को आमंत्रित किया था और प्रसिद्ध विद्वान् फजलुल्ला शिराजी को सद्र-ए-जहाँ नियुक्त किया था। ताजउद्दीन फिरोजशाह स्वयं फारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं का विद्वान् था। प्रसिद्ध सूफी संत गेसूदराज दक्षिण के प्रथम विद्वान् थे जिन्होंने उर्दू पुस्तक ‘मिरात-उल-आशिकी’ की फ़ारसी भाषा में रचना की। मुहम्मदशाह तृतीय और उसका वजीर महमूद गवाँ दोनों विद्वान् थे। गवाँ के निजी पुस्तकालय में 3,000 पुस्तकें थीं। उसके दो ग्रंथ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं- ‘उरोजात-उन-इंशा’ और ‘दीवाने अश्र’, जो उसके विद्वान् होने के प्रमाण हैं। उसने शिक्षा के प्रचार के लिए एक विशाल मदरसे (विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी जिसमें विदेशों से बुलाकर विद्वान् प्राघ्यापक नियुक्त किये गये थे। मदरसे में अरबी और फारसी के अध्ययन की उत्तम व्यवस्था थी। विद्या-केंद्रों के खर्च के लिए राज्य को ओर से गाँवों के राजस्व का अनुदान दिया जाता था।
कलात्मक उपलब्धियाँ
बहमनी सुल्तान शिक्षा-साहित्य के साथ-साथ कला के भी उत्साही संरक्षक थे। बहमनियों के अधीन तुर्की सैन्य विशेषज्ञों और वास्तुकारों ने अनेक किलों, मस्जिदों और भवनों का निर्माण किया जिससे वास्तुकला की एक अनूठी दक्कन शैली विकास हुआ जिसमें भारतीय शैली के साथ इस्लाम की तुर्की, मिस्री और ईरानी शैलियों का मिश्रण था। गुलबर्गा और बीदर की मस्जिदें इस शैली के सुंदर उदाहरण हैं। बहमनी शासकों ने गुलबर्गा, दौलताबाद, गाविलगढ़, नारनाला, परेंडा, रायचूर आदि क्षेत्रों में अनेक किलों का पुनर्निर्माण कराया और उन्हें सैनिक आवश्यकताओं के अनुसार संशोधित किया।
बहमनी सुल्तानों ने गुलबर्गा में भव्य भवनों का निर्माण कराया था जिनमें जामा मस्जिद और बाला हिसार शामिल हैं। जब 1425 ई में बीदर सल्तनत की राजधानी बनी, तब नई राजधानी को भी किलों, महलों, मस्जिदों और मकबरों जैसी आकर्षक इमारतों से सजाया गया। इनमें रंगीन महल, गगन महल, चीनी महल और नागिन महल शामिल हैं। सुल्तान के बीदर में राजप्रासाद के बारे में निकितिन ने लिखा है कि ‘यह प्रसाद अद्भुत है। इसमें प्रत्येक वस्तु पर नक्काशी अथवा सोने का काम किया गया है और छोटे–से–छोटा भाग भी आश्चर्यजनक रूप से कटा हुआ तथा स्वर्ण मंडित है।
फारसी विद्वान और सल्तनत के वजीर महमूद गवाँ द्वारा 1472 ई में बनवाया गया प्रसिद्ध मदरसा बहमनी वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इस इमारत में तीन मंज़िलें हैं जिनमें व्याख्यान कक्ष, एक पुस्तकालय, एक मस्जिद और आवास है। वास्तुशिल्प की दृष्टि से दौलताबाद, गुलबर्गा, बीदर और कोविलकोंडा में निर्मित ईदगाह (प्रार्थना घर) और कुछ मकबरे भी महत्वपूर्ण हैं। बीदर के शिल्पकार तांबे और चांदी पर जड़ाई के काम के लिए इतने प्रसिद्ध थे कि उसे बिदरी के नाम से जाना जाने लगा था। इस अवधि के दौरान विकसित फारसी इंडो-इस्लामिक शैली की वास्तुकला को बाद में दक्कन सल्तनत ने भी अपनाया।
इस प्रकार बहमनी साम्राज्य मध्यकालीन भारत में एक शक्तिशाली राज्य था जिसने तत्कालीन राजनीति, संस्कृति और कला के विकास में भरपूर योगदान दिया और दक्कन की संस्कृति और समाज को गहराई से प्रभावित किया।
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