चालुक्य राजवंश (Chalukya Dynasty)

चालुक्य राजवंश

छठीं शताब्दी ईस्वी के मध्यकाल में संपूर्ण भारतीय प्रायद्वीप में राजनीतिक विकेंद्रीकरण का एक महत्त्वपूर्ण सिलसिला शुरू हुआ। जिस समय उत्तरी भारत में गुप्त-साम्राज्य के पतन के पश्चात् अनेक स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ, ठीक उसी समय दक्षिण में भी कई नये स्वतंत्र राज्यों का उत्थान हुआ। चालुक्य राजवंश भी इनमें से एक था। चालुक्यों ने छठीं से बारहवीं शताब्दी ईस्वी के बीच दक्षिणी और मध्य भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इनकी कई शाखाएँ थीं- जैसे वातापी (बादामी) के चालुक्य, वेंगी के चालुक्य, कल्याणी के चालुक्य तथा गुजरात के चालुक्य। बादामी के चालुक्यों ने दक्षिण के पल्लव शासकों तथा उत्तर भारत के यशस्वी सम्राट हर्ष के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद (अल्पकालिक अंतराल को छोड़कर) लगभग दो सौ वर्षों तक दक्षिण भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध कर दकन पर अपनी विजय पताका फहराया। इस बीच चालुक्य वंश के प्रतिभाशाली राजकुमारों ने गुजरात और वेंगी में अपने अर्द्ध-स्वतंत्र राज्यों की नींव डाली। वेंगी के चालुक्य चार सौ वर्षों से भी अधिक समय तक शासन करते रहे। बाद में, जब राष्ट्रकूटों के उत्कर्ष से उनके साम्राज्य पर विपत्ति आई तो उन्होंने सुदूर दक्षिण के चोलों की सहायता से अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। दशवीं शती ईस्वी के अंत में जब राष्ट्रकूटों की शक्ति का हृास होने लगा, तो चालुक्यों को पुनः शक्ति अर्जित करने का सुअवसर मिला। इस बार उन्होंने संसार प्रसिद्धि कल्याणपुरी नगर को अपनी शक्ति का केंद्र बनाया।

चालुक्य राजवंश (Chalukya Dynasty)
चालुक्य राज्य की अवस्थिति

ऐतिहासकि साधन

साहित्यिक स्रोत

चालुक्यों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों ही स्रोतों से सहायता मिलती है। साहित्यिक स्रोतों में विद्यापति बिल्हण रचित ‘विक्रमांकदेवचरित’ तथा कन्नड़ कवि रन्न द्वारा विरचित ‘गदायुद्ध’ विशेष उल्लेखनीय हैं। बिल्हण मूलतः काश्मीर के निवासी थे, जिन्हें चालुक्य शासक विक्रमादित्य पष्ठ ने ‘विद्यापति’ की उपाधि दी थी। यद्यपि इन्होंने तीन काव्यों- ‘विक्रमांकदेवचरित’, ‘कर्णसुंदरी’ तथा ‘चौरपंचाशिका’ (गीति काव्य) की रचना की थी, किंतु इनमें ‘विक्रमांकदेवचरित’ ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, जिसमें चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के चरित का निरूपण किया गया है। इसमें चालुक्यों की उत्पत्ति, उनके वंशक्रम, आहवमल्ल के तीन पुत्रों- सोमेश्वर, विक्रमादित्य तथा जयसिंह के आविर्भाव, उनके सत्ता-संघर्ष तथा विक्रमादित्य के राज्यारोहण का वर्णन मिलता है। यद्यपि काव्य की दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय है, किंतु इसमें अनेक ऐतिहासिक त्रुटियाँ हैं। फिर भी, इससे चालुक्यकालीन राजनीतिक इतिहास एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। रन्न नामक कन्नड़ कवि ने लगभग 993 ई. में ‘गदायुद्ध’ की रचना की थी। यद्यपि इसमें मूलरूप से भीम और दुर्योधन के द्वंद्व का वर्णन मिलता है, किंतु इस ग्रंथ से समकालीन राष्ट्रकूट-चोल संबंधों पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। इनके अलावा, कन्नड़ साहित्य के सुप्रसिद्ध कवि पम्प (941 ई.) की रचनाओं- भारत अथवा विक्रमार्जुन एवं आदि पुराण से भी तत्कालीन इतिहास तथा संस्कृति के विविध पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।

विदेशी यात्रियों के विवरणों में चीनी यात्री युवान चुआंग (ह्वेनसांग) के यात्रा-वृतांत के वे अंश, जिनमें महाराष्ट्र एवं उसके निवासियों का वर्णन है, विशेष रूप से उपयोगी हैं। यह चीनी यात्री पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में गया था। ईरानी इतिहासकार तबरी के विवरणों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट खुसरो द्वितीय ने पुलकेशिन द्वितीय के साथ राजदूतों का आदान-प्रदान किया था। तबरी के विवरणों से ही यह प्रमाणित होता है कि अजंता की पहली गुफा के चित्रों में ईरान के शाह खुसरो द्वितीय, उसकी पत्नी शीरी और पुलकेशिन द्वितीय का ईरान के राजदूत से भेंट का चित्रण है।

पुरातात्त्विक साक्ष्य

चालुक्यों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक साक्ष्यों की अपेक्षा पुरातात्त्विक साक्ष्य- अभिलेख, मुद्राएँ एवं स्मारक- अधिक प्रामाणिक और उपयोगी हैं। चालुक्यों के इतिहास निर्माण में अभिलेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो शिलापट्टों, स्तंभों तथा ताम्रफलकों पर उत्कीर्ण हैं तथा संस्कृत, तेलगु एवं कन्नड़ भाषाओं में हैं। बादामी के चालुक्य इतिहास के संबंध में जानकारी के मुख्य स्रोत संस्कृत और कन्नड़ में लिखे गये शिलालेख हैं, जिनमें पुलकेशिन प्रथम के बादामी प्रस्तर लेख, पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति, महाकूट स्तंभ-लेख, हैदराबाद दानपत्राभिलेख आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। पुलकेशिन प्रथम का बादामी प्रस्तर शिलालेख शक संवत 465 (543 ई.) का है, जो बादामी दुर्ग के एक प्रस्तर खंड पर खुदा हुआ है। इसकी खोज 1941 ई. में हुई थी। इस लेख में ‘वल्लभेश्वर’ (संभवतः पुलकेशिन प्रथम) नामक चालुक्य शासक का उल्लेख मिलता है, जिसने बादामी के किले का निर्माण करवाया था तथा अश्वमेध आदि यज्ञ किये थे। पुलकेशिन द्वितीय की ऐहोल प्रशस्ति पर शक संवत 556 (634 ई.) की तिथि अंकित है। ऐहोल आधुनिक कर्नाटक प्रांत के बीजापुर जिले में स्थित है। इस लेख की रचना पुरानी कन्नड़ लिपि एवं संस्कृत भाषा में रविकीर्ति ने की है। इस लेख में मुख्यतः पुलकेशिन द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, फिर भी, इससे पुलकेशिन के पूर्व के चालुक्य इतिहास तथा उसके समकालीन लाट, मालव, गुर्जर आदि शासकों के विषय में भी कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। हर्षवर्धन के साथ पुलकेशिन के युद्ध पर भी इस लेख से प्रकाश पड़ता है। इस प्रशस्ति की रचना कालिदास तथा भारवि की काव्य शैली पर की गई हैं। हैदराबाद दानपत्राभिलेख पुलकेशिन द्वितीय के तीसरे शासन वर्ष का है। इसकी तिथि शक संवत 534 (612 ई.) है। इससे ज्ञात होता है कि पुलकेशिन द्वितीय ने युद्ध में सैकड़ों योद्धाओं को जीता था और ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण किया था। बीजापुर के महाकूट नामक स्थान से महाकूट स्तंभ-लेख मिला है, जिस पर 602 ई. की तिथि अंकित है। इस लेख में चालुक्य वंश के शासकों की बुद्धि, बल, साहस तथा दानशीलता की प्रशंसा की गई है। इससे चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन प्रथम की विजयों का भी ज्ञान होता है।  इनके अतिरिक्त कर्नूल, तलमंचि, नौसारी, गढ़वाल, रायगढ़, पट्टदकल आदि स्थानों से बहुसंख्यक ताम्रपत्र एवं लेख मिले हैं, जिनसे चालुक्यों का काँची के पल्लवों के साथ संघर्ष तथा पुलकेशिन द्वितीय के बाद के शासकों की उपलब्धियों का ज्ञान होता है।

पुरातात्त्विक स्रोत के रूप में सिक्के भी बहुत उपयोगी हैं। इन पर अंकित लांक्षनों, प्रतीकों और उपाधिसूचक लेखों से समकालीन राजवंशों की ऐतिहासिकता और उनकी राजनीतिक गतिविधियों की कुछ जानकारी मिलती है। कदंबों के पद्मटका सिक्कों का अनुकरण चालुक्यों ने भी किया था। परवर्ती चालुक्यों की कुछ सिक्के भारत के बाहर स्याम से भी मिले हैं, जो संभवतः मंगलेश के हैं जिसने रेवती द्वीप पर अधिकार स्थापित किया था। कुछ चोल सिक्कों (एक विशेष सिक्का जिस पर दो द्वीप-स्तंभों के बीच एक व्याघ्र बना है और ऊपर छत्र अंकित है) से चोलों की कल्याणी के चालुक्यों पर विजय का संकेत मिलता है। चालुक्य सिक्कों पर सूकर लांक्षन मिलता है।

चालुक्यों के स्मारक, मंदिर तथा भित्तिचित्र न केवल चालुक्य राजाओं के वैभव एवं कलात्मक अभिरुचि के द्योतक हैं, बल्कि इनसे तत्कालीन धार्मिक स्थिति और राजनीतिक घटनाओं का भी संकेत मिलता है। गुफा मंदिरों में अनेक पौराणिक कथाएँ अंकित हैं। विरुपाक्ष के मंदिर में अंकित रामकथा के अनेक दृश्य, जैसे- बालि-सुग्रीव युद्ध, सीताहरण आदि शैव तथा वैष्णव संप्रदायों के सामंजस्य के सूचक हैं। अजंता के भित्तिचित्रों में से एक में ईरान के शाह और उनकी रानी तथा एक में चालुक्य सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय का ईरानी राजदूत से भेंट का प्रदर्शन अत्यंत सजीवता से किया गया है। इसकी पुष्टि तबरी के विवरणों से भी हो जाती है।

चालुक्यों का नामकरण एवं उद्भव

चालुक्य वंश के नामकरण और उत्पत्ति के विषय में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। चालुक्यों के लेखों में इन्हें चलुक्य, चल्का, चलुक्की, चलेक्य, चलिक्य, चलुक्कि इत्यादि अनेक नामों से संबोधित किया गया है। इन्हीं अभिधानों से बाद में इस वंश के लिए चालुक्य तथा चौलुक्य नाम प्रचलित हुए। आर.जी. भंडारकर तथा भगवानलाल इंद्रजी के अनुसार इस वंश का प्रारंभिक नाम ‘चलुक्य’ था। जे.एफ. फ्लीट तथा के.ए. नीलकंठ शास्त्री का भी मानना है कि इस वंश का प्रारंभिक नाम ‘चलक्य’ था, बाद में इसी के चालुक्य, चौलुक्य रूप हो गये।

इस वंश का आदि पुरुष चल्क, चलिक अथवा चलुक था। किंतु अभिलेखों तथा ग्रंथों में चालुक्यों की उत्पत्ति से संबद्ध अनेक पारंपरिक कहानियाँ मिलती हैं। परवर्ती चालुक्यों के हंदरिके एवं कल्याण अभिलेख के अनुसार विष्णु की नाभि से स्यूत कमल से ब्रह्मा आविर्भूत हुए, ब्रह्मा से मनु, मनु से माण्डव्य, माण्डव्य से हरित तथा हरित से हारित उत्पन्न हुए। इसी हारित के चुल्लक (अंजलि) से चालुक्य का जन्म हुआ।

इसी प्रकार अन्य कई लेखों में चालुक्यों को ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से उत्पन्न बताते हुए इन्हें चंद्रवंशीय क्षत्रिय स्वीकार किया गया है। चंद्रवरदाई द्वारा विरचित ‘पृथ्वीराजरासो’ में राजपूतों की भाँति चालुक्यों को भी आबूपर्वत पर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ द्वारा किये गये यज्ञ के अग्निकुंड से उद्भूत बताया गया है। चालुक्यों की उत्पत्ति से संबंधित इसी प्रकार की कहानी बिल्हण के ‘विक्रमांकदेवचरित’ में भी मिलती है। इसके अनुसार पुरातन काल में पृथ्वी पर दुष्टों का विनाश करने के लिए इंद्र की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने अपने चुलुक से एक पुरुष उत्पत्र किया, जो ‘चुलुक’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके वंशज आगे चलकर चालुक्य अभिधान से प्रसिद्ध हुए।

चालुक्यों के संबंध में एक कहानी यह भी है कि इनका मूल वासस्थान अयोध्या था। वहाँ का एक शासक दक्षिण आया, उसने पल्लवों को हराकर एक पल्लव राजकुमारी से विवाह किया। उनसे विजयादित्य नाम का एक पुत्र हुआ, जो अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के प्रयत्न में पल्लवों से युद्ध करता हुआ मारा गया। बाद में, उसके पुत्र विष्णुवर्धन ने कदंबो और गंगों को पराजित कर वहाँ अपने राज्य की स्थापना की। नीलकंठ शास्त्री का भी अनुमान है कि चालुक्य उत्तर भारत के किसी क्षत्रिय वंश से संबद्ध थे, परंतु कालांतर में वे कर्नाटक में जाकर बस गये तथा वहाँ उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया।

चालुक्यों की उत्पत्ति से संबंधित उपर्युक्त आख्यान काल्पनिक हैं, जिन्हें बाद में समय-समय पर चालुक्यों की उत्पत्ति को महिमामंडित करने के लिए प्रशस्तिकारों तथा कवियों द्वारा परिकल्पित किया गया। इसका कोई साक्ष्य नहीं है कि वे मूलतः अयोध्या के निवासी थे अर्थात् उत्तर भारतीय थे और बाद में दक्षिणापथ आकर अपनी शक्ति स्थापित किये। कई इतिहासकारों का मानना है कि ग्यारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के राजपरिवारों में अपनी वंशावली को उत्तरी साम्राज्य से जोड़ना एक लोकप्रिय परंपरा बन गई थी। बादामी के चालुक्यों के अभिलेख स्वयं अयोध्या मूल के संबंध में मौन हैं।

कुछ विद्वान चालुक्यों को विदेशी मानते हैं। विंसेन्ट स्मिथ का मानना है कि चालुक्य चाप जाति से संबंधित थे, जो विदेशी गुर्जर जाति की एक शाखा थी। कुछ अन्य इतिहासकार उन्हें पश्चिमोत्तर भारतीय क्षेत्र में रहने वाले चुलिक जाति से जोड़ते हैं, जो सोग्डियन राजवंश की एक शाखा से संबंधित थी। बी. एल. राइस भी मानते हैं कि चालुक्य तथा पल्लव दोनों सेल्यूसिया तथा पार्थिया से आये थे। किंतु चालुक्यों की उत्पत्ति-संबंधी विदेशी मत मानने का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।

अनेक इतिहासकारों ने चालुक्यों की भारतीय उत्पत्ति का समर्थन किया है। चालुक्यों के किसी भी लेख से ऐसा संकेत नहीं मिलता कि वे पंजाब से आये थे। चालुक्यों तथा सिल्यूसियों के नामों में ध्वनि साम्य अवश्य है, किंतु चालुक्य गुर्जरों से भी संबंधित नहीं थे। चालुक्यों को गुर्जरों से संबंधित करके भी उन्हें विदेशी नहीं माना जा सकता क्योंकि इसका कोई सबल प्रमाण नहीं है कि गुर्जर विदेशी ही थे।

दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार चालुक्य जाति संभवतः कन्नड़ जाति की ही एक शाखा थी, जिसके संस्थापक का नाम ‘चलिक’ ‘चल्क’ अथवा ‘चलुक’ था। इस राजवंश के लोग कालांतर में शक्ति-संपन्न हो जाने पर अपने को क्षत्रिय घोषित करने लगे थे। इतिहासकार एस.सी. नंदीनाथ का मत है कि ‘चालुक्य’ शब्द की उत्पत्ति कन्नड़ शब्द ‘चल्कि’, ‘शल्कि’ अथवा ‘चलुकी’ से हुई है, जो एक कृषि उपकरण है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि चालुक्य वंश के मूल संस्थापक मूलतः कर्नाटक प्रदेश के कृषक थे, जो अपनी प्रतिभा एवं पौरुष के बल पर बाद में कदंब नरेशों की कृपा प्राप्त करके धीरे-धीरे उनके सामंत शासक बन गये। कालांतर में, इन्हीं चालुक्यों ने अपने सामरिक शक्ति तथा लोकप्रिय शासन के कारण वातापी को केंद्र बनाकर अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि चुटुशातकर्णि, कदंब, राष्ट्रकूट आदि की भाँति चालुक्य भी किसी स्थानीय कुल से संबंधित थे। वे प्रारंभ में कदंब राजाओं की अधीनता में कार्य करते थे। क्रमशः अपनी शक्ति बढ़ाकर उन्होंने राजनीतिक प्रभुता प्राप्त कर लिया।

ए.एस. अल्तेकर का मानना है कि चालुक्य भारतीय वंशजों की संतान थे, चुटुशातकर्णि तथा कदंब कुलों के वंशज थे और ब्राह्मण थे। किंतु परवर्ती चालुक्य शासकों के कुछ अभिलेखों में उन्हें चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग भी इस वश के शासक पुलकेशिन द्वितीय को क्षत्रिय बताता है। इस प्रकार चालुक्यों का संबंध क्षत्रिय कुल से था, जो आधुनिक कर्नाटक क्षेत्र के मूल निवासी थे। वे मानव्य गोत्रीय चंद्रवंशीय क्षत्रिय थे। इनके अधिष्ठातृ देव विष्णु थे और वे वैष्णव थे।

चालुक्य राजवंश की मुख्य शाखाएँ

वातापी (बादामी) का चालुक्य वंश

ईसा की छठीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर चालुक्य वंश की जिस मूल शाखा का आधिपत्य रहा, उसका उदय और विकास वर्तमान कर्नाटक में बागलकोट जिले के वातापी (आधुनिक बादामी) में हुआ था। चालुक्यों की इस शाखा को ‘वातापी या बादामी का चालुक्य वंश’ कहा जाता है। बादामी के चालुक्य संभवतः बनवासी के कदंबों के सामंत थे। कदंबों के पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस वंश का वास्तविक संस्थापक पुलकेशिन प्रथम (540-566 ई.) था। आरंभ में चालुक्यों की इस प्राचीनतम शाखा को पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता था। किंतु जब कल्याणी के कल्याणी के चालुक्यों को पश्चिमी चालुक्य कहा जाने लगा, तो इस मूल शाखा को वातापी (बादामी) का चालुक्य वंश के नाम से पुकारा जाने लगा। वातापी (बादामी) के चालुक्य वंश की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-

वेंगी का पूर्वी चालुक्य वंश

वेंगी के चालुक्य वंश का उत्थान बादामी के चालुक्य वंश की ही एक शाखा के रूप में हुआ। वेंगी के स्वतंत्र चालुक्य राज्य का संस्थापक पुलकेशिन द्वितीय का छोटा भाई कुब्ज (कुबड़ा) विष्णुवर्धन था। वातापी (बादामी) के पुलकेशिन द्वितीय ने पूर्वी दक्षिणापथ (पूर्वी दक्कन) को सुव्यवस्थित एवं नियंत्रित करने के लिए अपने छोटे भाई विष्णुवर्धन को आंध्र राज्य का प्रांतपति नियुक्त था। कालांतर में, विष्णुवर्धन ने अपनी शक्ति बढ़ाकर वेंगी को केंद्र बनाकर वहाँ एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली, जिसे वेंगी का पूर्वी चालुक्य वंश के नाम से अभिहित किया जाता है। पूर्वी चालुक्यों ने 7वीं शताब्दी से आरंभ करके 1130 ई. तक चार सौ वर्षों से भी अधिक समय तक करते रहे।। यह चालुक्य राज्य मुख्यतः कृष्णा एवं गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्र में विस्तृत था। इसकी राजधानी वेंगी (वेंगिपुर) की पहचान आंध्र राज्य के गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान पेड्डवेगी से की जाती है। वेंगी के पूर्वी चालुक्य वंश की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-

कल्याणी का पश्चिमी चालुक्य वंश

दशवीं शताब्दी के अंतिम चरण में कल्याणी या कल्याण में चालुक्यों की एक नई शाखा का राजनीतिक उत्कर्ष हुआ। अंतिम राष्ट्रकूट शासक कर्क द्वितीय के समय उसके शक्तिशाली सामंत चालुक्यवंशीय तैलप द्वितीय ने 973-74 ई. में अपनी शक्ति और कूटनीति से संपूर्ण राष्ट्रकूट राज्य पर अधिकार कर लिया। आगे चलकर तैलप द्वितीय ने कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार एक नये राजवंश की स्थापना की, जो कल्याणी का पश्चिमी चालुक्य वंश के नाम से विश्रुत हुआ। इन पश्चिमी चालुक्यों ने बारहवीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक शासन किया। कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंश की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-

चालुक्य शासन का महत्त्व

दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक के इतिहास में चालुक्यों की भूमिकाएँ अत्यंत प्रशंसनीय रहीं। कर्नाटक प्रदेश में आविर्भूत होने वाला यह पहला राजवंश था, जिसने भारत में ही नहीं, बल्कि भारत से बाहर ईरान तक अपने नाम और यश को प्रतिष्ठापित किया। बादामी के चालुक्यों ने अपने प्रभुत्व के कारण दक्षिण भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने के प्रयास में एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की और कावेरी तथा नर्मदा नदियों के बीच पूरे क्षेत्र को नियंत्रित किया।

चालुक्य दक्षिण भारत में एक राजनीतिक शक्ति के ही प्रतीक नहीं थे, वे कुशल प्रशासक, महान निर्माता, साहित्य एवं संस्कृति के उन्नायक भी थे। उन्होंने न केवल एक स्थायी साम्राज्य स्थापित किया, अपितु विद्या, साहित्य, कला एवं धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया। ऐहोल, बादामी तथा पट्टदकल की वास्तुकृतियाँ इनकी शक्ति, सामर्थ्य एवं कलात्मक अभिरुचि के उत्कृष्ट प्रमाण हैं। चालुक्य नरेशों ने कन्नड़ एवं तेलगु साहित्य के विकास और संवर्धन में अप्रतिम योगदान दिया। चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ ने न्यायशास्त्र के विद्वान विज्ञानेश्वर और विक्रमांकदेवचरित, कर्णसुंदरी नाटिका तथा चौरपंचाशिक जैसे काव्यग्रंथों के प्रणेता बिल्हण को संरक्षण प्रदान किया।

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