राजराज चोल तृतीय (Rajaraja Chola III, 1216-1256 AD)

राजराज तृतीय (Rajaraja Chola III, 1218-1256 AD)

कुलोत्तुंग तृतीय की मृत्यु के पश्चात् राजराज तृतीय 1218 ई. में चोल राजगद्दी पर बैठा, जो संभवतः कुलोत्तुंग का पुत्र था। कुलोत्तुंग तृतीय ने 1216 ई. में ही राजराज तृतीय का युवराज के रूप में अभिषेक कर दिया था, इसलिए राजराज तृतीय लेखों में उसके शासनकाल की गणना 1216 ई. से की गई है।

राजराज तृतीय का शासनकाल चोल राज्य के लिए संकट का काल था। इस समय दक्षिण भारत की राजनीति में व्यापक परिवर्तन हो चुका था। दक्षिण में पांड्य शक्ति के उदय के साथ ही चोल कावेरी नदी के दक्षिण के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण खो चुके थे। उत्तर में होयसल शक्ति के उदय के साथ वेंगी क्षेत्र पर भी चोलों की पकड़ कमजोर होती जा रही थी। राजराज तृतीय में इतनी सामर्थ्य और योग्यता नहीं थी कि वह इन नवोदित शक्तियों का सामना कर सके। इसके साथ ही, प्रशासनिक दुर्बलता के कारण काकतीय, तेलुगूचोड, यादव तथा काडव जैसे अनेक अधीनस्थ सामंत भी विद्रोही हो गये थे और चोल सत्ता की अवहेलना करने लगे थे।

राजराज चोल तृतीय (Rajaraja Chola III, 1216-1256 AD)
1146 ई. में चोल साम्राज्य

राजराज तृतीय के शासनकाल की घटनाएँ

आंतरिक विद्रोह और कठिनाइयाँ

राजराज तृतीय के शासनकाल में विप्लव एवं राजद्रोह आम बात हो गई थी। तंजौर से प्राप्त राजराज तृतीय के लेखों में उसके शासन के पाँचवें वर्ष में हुए विद्रोहों का स्पष्ट विवरण मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस विद्रोह और क्षोभ के कारण चोल राज्य असुरक्षित हो गया था और धन-संपत्ति की भारी हानि हुई थी। मंदिर उजाड़ दिये गये थे और उनमें स्थापित प्रतिमाओं एवं चल-संपत्ति को दूसरे सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया गया था। यही नहीं, दो गाँवों के दानपत्रों को भी नष्ट कर दिया गया था। इस विद्रोह के स्वरूप और विद्रोहियों के संबंध में कुछ स्पष्ट संकेत नही मिलता है, किंतु लगता है कि यह स्थानीय उपद्रव रहा होगा।

चोल राज्य में चोलों के विरूद्ध अशांति तो थी ही, उनके अधीनस्थ सामंत भी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सक्रिय और संघर्षरत थे। उत्तरी अर्काट से प्राप्त 1223-24 ई. के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि चोलों के सामंत वीरनरसिंहदेव यादवराय और उरत्ति के काडवराय आपस में संघर्षरत थे। वीरनरसिंहदेव के लेखों में उसे ‘काँचनकाडवकुलांतक’ कहा गया है, जिससे स्पष्ट है कि वीरनरसिंहदेव ने काडवराज्य पर विजय प्राप्त की थी।

पांड्य आक्रमण

राजराज तृतीय न तो महान् योद्धा था और न ही दूरदर्शी राजनीतिज्ञ। वह पांड्यों का सामंत था, किंतु उसमें राजनैतिक दूरदर्शिता का अभाव था। उसने अपने पांड्य अधिपति जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम से की गई संधि की शर्तों का उल्लंघन करते हुए न केवल वार्षिक कर देना बंद कर दिया, बल्कि उसकी अधिसत्ता को चुनौती देते हुए पांड्य राज्य पर आक्रमण भी कर दिया, जिससे चोल साम्राज्य के अधःपतन का मार्ग प्रशस्त हो गया।

पांड्य सेना ने राजराज तृतीय को दंडित करने के लिए चोल राज्य आक्रमण किया। इस युद्ध का वर्णन जटावर्मन् के शासनकालीन लेखों में मिलता है, जिसके अनुसार पांड्यों ने चोल सेना को बुरी तरह पराजित कर उरैयूर तथा तंजोर को भस्मीभूत कर दिया और चोल राजधानी पर अधिकार कर चोल शासक की रानी एवं अंतःपुर की अन्य स्त्रियों को बंदी बना लिया। जटावर्मन् सुंदरपांड्य ने चोल राजधानी मुडिकोंडशोलपुरम् में अपना अभिषेक कराया। तिरुवेंदिपुरम् लेख के अनुसार पराजित चोल शासक राजराज तृतीय अपनी राजधानी छोड़कर कुंतल शासक के यहाँ शरण लेने के लिए भागा, किंतु रास्ते में ही उसे काडव सामंत कोप्पेरुजिंग ने, जो कभी चोलों का सामंत था, पकड़कर सेंदामंगलम् में कैद कर लिया।

होयसलों की सहायता

कुलोत्तुंग तृतीय के समय से ही चोलों का होयसलों के साथ गठबंधन था और राजराज तृतीय ने स्वयं वीरनरसिंह द्वितीय की बहन या पुत्री से विवाह किया था। इसलिए जब होयसल राजा वीरनरसिंह को कोप्पेरुचिंग द्वारा राजराज तृतीय को बंदी बनाये जाने की सूचना मिली, उसने तुरंत दंडनाथ के साथ अपनी एक सेना चोल राज्य में भेज दिया। होयसल सेना ने कोप्पेरुचिंग की सेना पर आक्रमण कर उसके दो नगरों को लूट लिया। अभी होयसल सेना काडव राजधानी सेंदामंगलम् की घेराबंदी करने की तैयारी कर रही थी, तभी कोप्पेरुचिंग ने होयसलों से संधि करके चोल राजा को मुक्त कर दिया और चोलों के प्रति निष्ठावान रहने का वादा भी किया।

जिस समय होयसल सेनापति दंडनाथ काडव सरदार कोप्पेरुचिंग पर आक्रमण में व्यस्त था, उसी समय होयसल नरेश वीरनरसिंह ने स्वयं पांड्य राज्य पर आक्रमण कर दिया। पांड्य और होयसल सेनाओं के बीच कावेरी नदी के तट पर महेंद्रमंगलम के निकट एक निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें पांड्यों की पराजय हुई और होयसल सैनिक रामेश्वरम् तक पहुँच गये। इस प्रकार होयसलों के हस्तक्षेप से दक्षिण भारत में पुनः शक्ति-संतुलन स्थापित हुआ और चोल साम्राज्य तात्कालिक विनाश से बच गया।

होयसल नरसिंह ने राजराज तृतीय को पुनः चोल गद्दी पर प्रतिष्ठित किया और इस उपलक्ष्य में ‘चोलराज्यप्रतिष्ठापनाचार्य’ की उपाधि धारण की। चोल-होयसल मित्रता को और दृढ़ करने के लिए नरसिंह के पुत्र सोमेश्वर से एक चोल राजकुमारी का विवाह किया गया। राजराज तृतीय चोल सिंहासन पर तो बैठ गया, किंतु अब वह होयसलों के अधिपति के बजाय उनका संरक्षित शासक था और वास्तविक सत्ता होयसलों के हाथ में थी। नरसिंह द्वितीय के पुत्र सोमेश्वर ने 1239-40 ई. में तिरुचिरापल्ली जिले में श्रीरंगम् के निकट कण्णनूर को अपनी शक्ति का केंद्र बनाया और चोलों की सक्रिय रूप से सहायता करने लगा।

राजराज तृतीय के अभिलेख तिरुचिरापल्ली, तंजौर, सलेम, चित्तूर, चिंगलेपुट, उत्तरी एवं दक्षिणी अर्काट कडप्पा तथा नेल्लोर जिलों से मिले हैं। तेलुगू चोड, बाण, वैदुम्ब, नोलंब एवं गंग राजवंश अभी भी उसकी अधीनता में थे। इस प्रकार पराजय के बावजूद चोल साम्राज्य की सीमा, जो कुलोत्तुंग तृतीय की मृत्यु के समय थी, में कोई विशेष कमी नहीं आई थी, किंतु राजराज के राज्यकाल में चोल साम्राज्य के पतन एवं विघटन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।

गृहयुद्ध और उत्तराधिकार

 राजराज तृतीय ने 1246 ई. में अपने बेटे राजेंद्रचोल तृतीय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। किंतु राजराज तृतीय के जीवित रहते ही राजेंद्रचोल तृतीय ने प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। राजेंद्र तृतीय के लेखों से संकेत मिलता है कि राजराज तृतीय और उसके बीच एक गृहयुद्ध हुआ और राजराज तृतीय की हत्या के बाद राजेंद्र तृतीय ने चोल सिंहासन पर अधिकार कर लिया। राजेंद्र के शिलालेखों में चालाक नायक के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। जो भी हो, राजराज तृतीय की 1256 ई. में मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी राजेंद्रचोल तृतीय हुआ।

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