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गुप्तकालीन प्रशासन और आर्थिक जीवन
गुप्तकाल में भारत ने राजनैतिक, सामाजिक एवं भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष का साक्षात्कार किया। अपने उत्कर्ष-काल में यह साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्यपर्वत तक तथा पूरब में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। धरणिबंध, कृत्स्नपृथ्वीविजय तथा सर्वपृथ्वीविजय के पवित्र आदर्श पर आधारित गुप्त-शासन में शांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय जीवन के विविध क्षेत्रों का सर्वांगीण विकास संभव हुआ। गुप्त-प्रशासन की प्रशंसा करते हुए चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है कि भारत के लोग सुखी और समृद्ध थे। गुप्तों के समय में कहीं चोरी और डकैती का भय नहीं था। जूनागढ़ लेख में कहा गया है कि उस समय कोई दुःखी, दरिद्र, व्यसनी, कठोर दंड से पीड़ित अथवा राजकीय नियंत्रणों से कष्टयुक्त नहीं था-
तस्मिन्नृपे शासति नैव कश्चिद्धर्म्मादपेतोमनुजः प्रजासु।
आर्त्तो दरिद्रो व्यसनी कदर्यो दंडयो न वा यो भृशपीड़ितः स्यात्।।
कालीदास ने भी अपने आदर्श नरेश के शासन-प्रबंध की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसके शासनकाल में उपवनों में मद पीकर सोई हुई पुर सुंदरियों के वस्त्र को वायु तक नहीं छू सकता था, तो उनके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था?
यस्मिन्नृपे शासति वाणिनीनां निद्रा विहारार्थ पथे गतानाम्।
वातोऽपि नासंश्रयदंशुकानि को लम्बयेदाभरणाय हस्तम्।।
गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था
भारतीय राजनीति में राजतंत्र और गणतंत्र दोनों शासन-प्रणालियाँ प्राचीनकाल से चली आ रही थीं। पहले अजातशत्रु फिर मौर्यों के साम्राज्यवाद की चपेट में आकर गणतंत्रों को भारी क्षति हुई और वे पराजित होकर राजतांत्रिक परंपरा के अंग हो गये, किंतु अशोक के उपरांत केंद्रीय शक्ति के दुर्बल होने पर गणतंत्र पुनः स्वतंत्र होने लगे। गुप्तों के उदय के पूर्व कई गणतंत्र विद्यमान थे। मालव, अर्जुनायन और यौधेयों के सिक्के भी मिले हैं, जिनमें इन्हें ‘गण’ कहा गया है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के सैनिक अभियानों के कारण अधिकांश गणराज्य गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये। उसने मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, काक, खरपरिक, आभीर, प्रार्जुन एवं सनकानीक आदि को प्रणामागमन और आज्ञाकरण के लिए बाध्य कर धरणिबंध के आदर्श को पूर्ण किया। भारतीय गणों में प्रमुख लिच्छवियों के ही दौहित्र समुद्रगुप्त ने उनकी स्वतंत्रता का हरण कर लिया। यह भारतीय गणराज्यों के भाग्य-चक्र की विडंबना ही थी कि उन्हीं के सगे-संबंधियों ने उन पर प्रहार किया, जैसे वैदेहीपुत्र अजातशत्रु, मोरियगण के राजकुमार चंद्रगुप्त मौर्य, लिच्छवि-दौहित्र समुद्रगुप्त।
केंद्रीय शासन
गुप्त प्रशासनिक तंत्र राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। गुप्त-सम्राटों ने परमदेवता, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, पृथ्वीपाल, परमेश्वर, सम्राट, एकाधिकार एवं चक्रवर्तिन् जैसी भारी-भरकम उपाधियाँ धारण की और अश्वमेध यज्ञों के द्वारा छोटे शासकों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित की। प्रशस्तियों में गुप्त शासकों की महानता को प्र्रदर्शित करने के लिए उनकी तुलना देवताओं से की गई है। प्रयाग-प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को ‘देव’ तथा ‘अचिंतयपुरुष’ (विष्णु के तुल्य) कहा गया है तथा उसे कुबेर, वरुण, इंद्र व यमराज के समान बताया गया है। संभवतः प्रजा अपने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि में रूप में स्वीकार करती थी। राजा का मुख्य कार्य जनता के धर्म की रक्षा करना, उसके कष्टों को दूर करना और उसे न्याय व दंड देना था। राजपद प्रायः वंशानुगत सिद्धांत पर आधारित था और सम्राट अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था।
किंतु, केंद्रीय शासन का जो नियंत्रण मौर्ययुग में था, वह इस युग में नहीं था। गुप्तयुग से ही विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ सर उठाने लगी थीं। गुप्त राजाओं ने अपने साम्राज्य के भीतर छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया। समुद्रगुप्त ने जिन शासकों को पराजित किया था, उनमें से अधिकांश को अपने साम्राज्य में शामिल न करके उन्हें अपने-अपने राज्यों पर शासन करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया था। इस प्रकार मौर्योत्तर काल में उद्भूत सामंतवाद अब जोर पकड़ने लगा था और साम्राज्य के अधिकतर भाग सामंतों के अधीन होते जा रहे थे। दूरवर्ती राज्यों के सामंत शासक गुप्त सम्राट के दरबार में स्वयं उपस्थित होकर सम्मान-निवेदन करते थे, भेंट चढ़ाते थे और विवाहार्थ अपनी कन्याएँ समर्पित करते थे। इसके बदले में सम्राट उन्हें अपने क्षेत्र पर शासन करने का प्रमाण-पत्र प्रदान करता था। गुप्त शासकों ने ऐसे दूरवर्ती शासकों के आंतरिक शासन में हस्तक्षेप करके उनके उत्तरदायित्व को बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया।
अमात्य, मंत्री और सचिव
प्रशासन के कुशल संचालन में सम्राट की सहायता के लिए अमात्य, मंत्री और सचिव होते थे। गुप्तकालीन अभिलेखों से कुमारामात्य, संधिविग्रहिक, महादंडनायक जैसे मंत्रिमंडलीय सदस्यों के विषय में जानकारी मिलती है।
अमात्य संभवतः आधुनिक काल की ब्यूरोक्रेसी (शासन-तंत्र) के समान पदाधिकारियों का सर्वश्रेष्ठ वर्ग का था, जिन्हें उच्च से उच्च पदों पर नियुक्त किया जा सकता था। कामंदक के नीतिसार में भी अमात्य को सामान्य रूप से राज्याधिकारियों का पर्यायवाची माना गया है। संभवतः अमात्य से तात्पर्य प्रशासनिक अधिकारियों से था और उन्हीं में से मंत्री एवं सचिव नियुक्त किये जाते थे। कात्यायन स्मृति में इस बात पर जोर दिया गया है कि अमात्य की नियुक्ति ब्राह्मण वर्ग से होनी चाहिए। गुप्तकालीन शासकों ने एक सीमा तक इस नीति का पालन भी किया। करमदंडा लेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम के अमात्य ब्राह्मण ही थे। किंतु गुप्त सम्राटों ने केवल ब्राह्मण अमात्यों की ही नियुक्ति नहीं की थी।
रोमिला थापर के अनुसार कुमारामात्य प्रांतीय पदाधिकारी होते थे जो स्थानीय प्रशासन तथा केंद्र के बीच कड़ी का काम करते थे। कुमारामात्य का कार्यालय ‘कुमारामात्याधिकरण’ कहलाता था। इलाहाबाद से प्राप्त एक मुद्रा में ‘मूलकुमारामात्यस्य’ उत्कीर्ण मिलता है, जिससे लगता है कि एक मुख्य कुमारामात्य होता था और उसके नीचे कई कुमारामात्य होते थे।
कामंदक और कालीदास दोनों ने मंत्रिमंडल या मंत्रिपरिषद् का उल्लेख किया है, जिससे लगता है कि गुप्तयुग में मंत्रिपरिषद् नामक संस्था मौजूद थी। कामंदक के नीतिसार में मंत्रियों और अमात्यों के बीच के अंतर को स्पष्ट किया गया है। मंत्री का मुख्य कार्य राजा को मंत्रणा देना और किसी गूढ़ विषय के विभिन्न पहलुओं पर विचार कर किसी निर्णय पर पहुँचना था।
अमात्यों और उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था। कभी-कभी एक ही व्यक्ति को कई प्रमुख पदों पर नियुक्त कर दिया जाता था। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि हरिषेण एक ही साथ समुद्रगुप्त का कुमारामात्य, संधिविग्रहिक एवं महादंडनायक का कार्य करता था। उदयगिरि गुहालेख के अनुसार वीरसेन शैव चंद्रगुप्त द्वितीय का संधिविग्रहिक मंत्री था।
करमदंडा के अभिलेख के अनुसार शिखरस्वामी चंद्र्रगुप्त द्वितीय का तथा पृथिवीषेण कुमारगुप्त का मंत्री और कुमारामात्य था। इससे लगता है कि प्रायः महादंडनायक ही संधिविग्रहिक हुआ करता था।
गुप्तकाल में उच्च पद वंशानुगत किये जाने लगे थे, जैसे हरिषेण के पिता ध्रुवभूति तथा पृथिवीषेण के पिता शिखरस्वामी पहले अमात्य और मंत्री थे। इसी प्रकार पिता-पुत्र पर्णदत्त और चक्रपालित दोनों ही स्कंदगुप्त के अधीन अधिकारी थे।
चंद्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था
केंद्रीय अधिकारी वर्ग
गुप्तकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि केंद्रीय अधिकारियों में एक प्रमुख अधिकारी सर्वाध्यक्ष था जो राज्य के सभी केंद्रीय विभागों का पर्यवेक्षण करता था। प्रतिहार एवं महाप्रतिहार जैसे अधिकारी सम्राट से मिलने की इच्छा रखने वालों को आज्ञापत्र देते थे।
प्रतिहार अंतःपुर का रक्षक एवं महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का मुखिया होता था। इसके अलावा महापीलुपति (गजसेना का अध्यक्ष), महाश्वपति (अश्वसेना का अध्यक्ष), दंडपाशिक (पुलिस विभाग का मुख्य अधिकारी), विनयस्थितिस्थापक (धार्मिक मामलों का प्रमुख अधिकारी), रणभांडागारिक (सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला प्रधान अधिकारी), महाबलाधिकृत (सैनिक अधिकारी), महादंडनायक (युद्ध एवं न्याय-विभाग का कार्य देखनेवाला), महाभंडागाराधिकृत (राजकीय कोष का प्रधान), महाअक्षपटलिक (अभिलेख विभाग का प्रधान), ध्रुवाधिकरण (कर वसूलने वाले विभाग का प्रधान) और अग्रहारिक (दान विभाग का प्रधान) प्रमुख अधिकारी थे।
प्रांतीय प्रशासन ‘भुक्ति’
कुशल प्रशासन के लिए विशाल गुप्त साम्राज्य को कई प्रांतों (भुक्तियों) में विभाजित किया गया था। प्रांतों को देश, भुक्ति अथवा अवनी कहा जाता था। सम्राट द्वारा जो क्षेत्र स्वयं शासित होता था, उसकी सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई संभवतः देश या राष्ट्र कहलाती थी। जूनागढ़ अभिलेख में सौराष्ट्र को एक देश कहा गया है।
चंद्रगुप्त द्वितीय के एक अभिलेख में सुकुली (मध्यभारत) नामक देश का उल्लेख मिलता है। गुप्तकालीन प्रांतों (भुक्तियों) में सौराष्ट्र, जूनागढ़ (गुजरात), पश्चिमी मालवा (अवंति), पूर्वी मालवा (एरण), तीरभुक्ति (उत्तरी बिहार), पुंड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल), वर्द्धमान (पश्चिमी बंगाल) तथा मगध उल्लेखनीय हैं।
भुक्ति के प्रशासक को ‘उपरिक’ व ‘उपरिक महाराज’ कहा जाता था। सीमा प्रांतों के प्रशासक ‘गोप्ता’ कहलाते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट स्वयं करता था और इन पदों पर प्रायः राजकुमार या राजवंश से संबंधित व्यक्ति ही नियुक्त किये जाते थे। जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र के गोप्ता पर्णदत्त की नियुक्ति स्वयं गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त ने की थी। चंद्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविंदगुप्त तीरभुक्ति (आधुनिक दरभंगा) का, कुमारगुप्त का प्रथम पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का और चिरादत्त उत्तरी बंगाल का राज्यपाल था।
जनपद शासन ‘विषय’
प्रांतों (भुक्तियों) का विभाजन जनपदों में किया गया था जिन्हें ‘विषय’ कहा जाता था। विषय का प्रधान अधिकारी ‘विषयपति’ कहलाता था, जिसकी नियुक्ति राजा स्वयं करता था। कुमारगुप्त प्रथम के मंदसौर लेख में लाट विषय का उल्लेख है। हूण शासक तोरमाण के एरण वराह अभिलेख में एरिकिण विषय का वर्णन मिलता है। अंतर्वेदी विषय के विषयपति शर्वनाग की नियुक्ति स्वयं सम्राट स्कंदगुप्त ने की थी।
विषयपति का प्रधान कार्यालय अधिष्ठान् कहलाता था। विषयपति के सहयोग हेतु विषय-परिषद् होती थी। विषय-परिषद् के सदस्यों को ‘विषयमहत्तर’ कहा जाता था, जिसमें नगरश्रेष्ठि (पूँजीपति वर्ग का प्रधान), सार्थवाह (विषय के व्यापारियों का प्रधान), प्रथम कुलिक (शिल्पियों व व्यवसायियों का प्रधान) और प्रथम कायस्थ (मुख्य लेखक) सदस्य होते थे। विषयपति के अधीन शौल्किक (कर वसूलने वाला), गौल्मिक (स्थानीय फौज अथवा जंगलों का अधिकारी) तथा पुस्तपाल या करणिक (दस्तावेज संरक्षक) जैसे कर्मचारी शासकीय कार्यों का संपूादन करते थे।
ग्राम समूह ‘वीथि एवं पेठ’
विषय का विभाजन वीथियों में किया गया था। वीथि की समिति में भूस्वामियों एवं सैनिक कार्यों से संबद्ध व्यक्तियों को रखा जाता था। ‘पेठ’ वीथि से छोटी ग्राम समूह की इकाई थी। संक्षोभ के खोह अभिलेख से पता चलता है कि ओपनी नामक ग्राम कणनाग पेठ के अंतर्गत था।
ग्राम प्रशासन
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी। स्कंदगुप्त के कहौम स्तंभलेख में कुकुम ग्राम का नाम मिलता है। ग्राम का शासन ‘ग्रामिक’ ग्रामसभा की सहायता से करता था। ग्रामसभा को मध्य भारत में ‘पंचमंडली’ तथा बिहार में ‘ग्राम-जनपद’ कहा जाता था। दामोदरपुर से प्राप्त तीसरे ताम्रपत्र में ग्रामसभा के कुछ पदाधिकारियों का नाम मिलता है, जैसे-महत्तर, अष्टकुलाधिकारी, ग्रामिक, कुटुंबिन् आदि। ग्रामसभा गाँव की भूमि का लेखा-जोखा तैयार करती थी और ग्रामोत्थान के लिए जनहित के कार्य करती थी।
गुप्तकालीन नगर प्रशासन
नगरों का प्रशासन संभवतः नगरमहापालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। नगर का मुख्य अधिकारी पुरपाल होता था जो कुमारामात्य के श्रेणी का अधिकारी होता था। इस पद पर सुयोग्य व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी। जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि स्कंदगुप्त के काल में गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था। लेख के अनुसार उसके दो प्रधान कर्त्तव्य थे- एक तो नगर की रक्षा और दूसरा दुष्टों का दमन। इस पदाधिकारी से अपेक्षा की जाती थी कि वह पुरवासियों के हितों की रक्षा करेगा और उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करेगा। नागरिकों की भलाई के लिए ही चक्रपालित ने सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार करवाया था।
नगर के सुव्यवस्थित प्रशासन के लिए एक परिषद् होती थी जिसे प्राचीन ग्रंथों में ‘पौर’ कहा गया है। यह नगर परिषद् नगर में शांति-व्यवस्था बनाये रखने और सार्वजनिक हित से संबंधित कार्यों का संपादन करती थी। संभवतः नगर-परिषद् का एक कार्यालय होता था, जहाँ इस सभा की बैठकें होती थीं। नालंदा से प्राप्त एक मुहर पर ‘पुरिका’ शब्द उत्कीर्ण मिला है, जिससे लगता है कि नगर सभा की अपनी मुद्रा भी होती थी।
गुप्तकालीन न्याय व्यवस्था
सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश होते थे। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों का उल्लेख महादंडनायक, दंडनायक एवं सर्वदंडनायक के रूप में मिलता है। इस काल में अनेक विधि-ग्रंथ संकलित किये गये। पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली-भाँति पारिभाषित एवं पृथक्कृत किये गये। संपत्ति-संबंधी विवाद दीवानी कानून के अंतर्गत और चोरी तथा व्यभिचार के मामले फौजदारी कानून में सम्मिलित किये गये।
नगरों में न्यायिक कार्य प्रधानतः राजकीय न्यायालयों द्वारा किया जाता था। मृच्छकटिक में नगर के न्यायालय को अधिकरण-मण्डप तथा नगर-न्यायाधीश को अधिकरणिक कहा गया है। नगर-न्यायाधीश की तुलना अशोककालीन धौली के शिलालेख के नगल-वियोहालक तथा अर्थशास्त्र के पौर-व्यावहारिक से की जा सकती है। न्यायाधीश के पद पर योग्य व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी। अधिकरणिक (न्यायाधीश) की सहायता के लिए राजपुरुष, दूत, गुप्तचर तथा मुहर्रिर आदि कर्मचारी होते थे।
न्यायालयों की कार्य-पद्धति के संबंध में मृच्छकटिक में विस्तृत विवरण मिलता है। पता चलता है कि न्यायालयों में शपथ-ग्रहण करने की प्रथा थी। ब्राह्मण को सत्य, क्षत्रिय को वाहन या आयुध, वैश्य को गऊ, बीज एवं सुवर्ण तथा शूद्र को सभी पापों की शपथ लेनी पड़ती थी। झूठा शपथ लेनेवाला निंदा तथा तिरस्कार का पात्रा बनता था। अधिकाशतः गवाहों और प्रमाणों के आधार पर निर्णय दिया जाता था। बिना प्रमाण का निर्णय न्यायोचित नहीं माना जाता था। गवाह से सत्य की अपेक्षा की जाती थी। यद्यपि नारद ने कहा है कि सभी वर्णों से गवाही ली जा सकती है, किंतु बृहस्पति के अनुसार साक्षी कुलीन होने के साथ-साथ नियमपूर्वक वेदों और स्मृतियों का अध्ययन करने वाला भी होना चाहिए। तपस्वी, दानशील, कुलीन, सत्यवादी, ऋजु, पुत्रवान्, धर्मप्रधान तथा धनिक व्यक्तियों की गवाही ही ठीक मानी जाती थी। इस नियम से शूद्र स्वतः बहिष्कृत हो जाते थे। निम्न जाति का वादी उच्च जाति के गवाहों से अपना वाद प्रमाणित नहीं करा सकता था।
मृच्छकटिक के अनुसार इस समय चार प्रकार की दिव्य-परीक्षाओं का भी विधान था। न्याय संहिताओं के अनुसार ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की परीक्षा अग्नि से, वैश्य की परीक्षा जल से तथा शूद्र की परीक्षा विष से की जानी चाहिए। बृहस्पति ने कहा है कि सभी वर्णों से सभी दिव्य कराये जा सकते हैं, किंतु विषवाला दिव्य ब्राह्मण से न कराया जाए। नारद भी इस विचार का समर्थन करते हैं। इससे स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज में सामाजिक-विभेद का भाव विद्यमान था।
फाह्यान के अनुसार दंड-विधान कठोर नहीं था। मृत्यदंड नहीं दिया जाता था, किंतु बार-बार राजद्रोह करने वाले का दाहिना हाथ काट लिया जाता था। महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है कि यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र ब्राह्मण की हत्या करे तो उसे देश निकाला दिया जाए। नारद ने पुराने मत का समर्थन किया है कि चोरी करने पर ब्राह्मण का अपराध सबसे अधिक और शूद्र का अपराध सबसे कम माना जाना चाहिए। विष्णु ने हत्या के पाप से शुद्धि के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र की हत्या के लिए क्रमशः बारह, नौ, और तीन वर्ष का महाव्रत नामक तप बताया है। इस प्रकार सपष्ट है कि गुप्तकालीन न्याय और दंड व्यवस्था व्यवस्था पूर्णतः वर्ण-विभेद पर आधारित थी, जिसमें ब्राह्मणों के प्रति विशेष अनुग्रह परिलक्षित होता है।
गुप्तकालीन सैनिक संगठन
गुप्त सम्राटों के पास विशाल स्थायी सेना थी जिसके चार प्रमुख अंग थे- पदाति, रथारोही, अश्वारोही और हस्तिसेना। सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी ‘महाबलाधिकृत’ कहलाता था। हाथियों की सेना के प्रधान को महापीलुपति तथा नायक को ‘कटुक’ कहते थे। अश्वारोही सेना के प्रधान को ‘अटाश्वपति’ कहते थे। पदाति सेना की टुकड़ी को ‘चमूय’ कहा जाता था। पदाति सेना के सामानों की व्यवस्था करने वाले अधिकारी को ‘रणभंडागारिक’ कहते थे। प्रयाग-प्रशस्ति में परशु, शर, शंकु, तोमर, भिंदिपाल, नाराच आदि कुछ अस्त्र-शस्त्रों के नाम मिलते हैं।
गुप्तकालीन आर्थिक जीवन
गुप्तकाल में भूमि एवं भू-राजस्व व्यवस्था
राजस्व नीति
गुप्तकालीन प्रशासनिक व्यवस्था और राजस्व-नीति बहुत सुदृढ़ थी। राजकीय आय के प्रमुख स्रोत कर थे। गुप्तकाल में भूमिकर संग्रह के लिए ‘ध्रुवाधिकरण’ एवं भू-आलेखों को सुरक्षित रखने के लिए ‘महाक्षपटलिक’ और ‘करणिक’ नामक पदाधिकारी थे। कामंदक के नीतिसार में राजा को सलाह दी गई है कि ‘जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा कर ग्रहण करे।’ राजा की तुलना ग्वाले और माली से करते हुए कहा गया है कि पहले राजा को प्रजा का पोषण करना चाहिए और फिर बाद में उससे कर ग्रहण करना चाहिए।
गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को ‘भाग’ कहा गया है। जो लोग राजकीय भूमि पर कृषि करते थे, उन्हें 1/6 भाग भूमिकर देना पड़ता था। राजा को भूमि के उत्पादन का छठवाँ हिस्सा ‘भागकर’ के रूप में मिलता था। स्मृति ग्रंथों में राजा को ‘षष्टांश-वृत्ति’ कहा गया है (षष्टांशवृत्तेरपि धर्म एषः)। नारद के अनुसार राजा प्रजा-रक्षण के बदले में उपज का षष्ठांश राजस्व के रूप में प्राप्त करने का अधिकारी होता है। कालीदास के अनुसार तपस्वियों के तप की रक्षा तथा संपत्ति की चोरों से संरक्षा के बदले राजा चारों आश्रमों तथा वर्णों से उनके धन के अनुसार छठां भाग प्राप्त करता है-
तपोरक्षन्स विघ्नेभ्यस्तस्करेभ्यश्च संपूदः।
यक्षास्वमाश्रमैश्चक्रे वर्णैरपि षडंशभाक्।।
दूसरे प्रकार का भूमिकर ‘भोग’ संभवतः राजा को प्रतिदिन दी जाने वाली फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में था। गुप्त-अभिलेखों में ‘उद्रंग’ और ‘उपरिकर’ नामक करों का उल्लेख मिलता है। ब्यूलर के अनुसार उद्रंग राज्य को दिया जानेवाला भूमिकर था। भूमिकर का भुगतान हिरण्य (नकद) या मेय (अन्न) दोनों ही रूपों में किया जा सकता था, किंतु छठी शताब्दी के बाद मुद्राओं का प्रचलन कम होने के कारण संभवतः कृषकों को भूमिकर का भुगतान अनाज के रूप में करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
कहीं-कहीं ‘भूतोपात्तप्रत्यय’ नामक कर का उल्लेख मिलता है जो अल्तेकर के अनुसार राज्य में उत्पन्न होने वाली वस्तुओं (भूत) तथा राज्य के अंदर आयात की जानेवाली वस्तुओं (उपात्त) के ऊपर लगाया जाने वाला कर था। ‘भूतप्रत्यय’ कर संभवतः नशीली वस्तुओं पर लगाया जाता था। नगर में आनेवाली वस्तुओं पर शुल्काध्यक्ष द्वारा ‘चुंगी शुल्क’ लिया जाता था। इसका कार्यालय नगर के प्रवेशद्वार पर होता था।
स्कंदगुप्त के बिहार लेख में ‘शौल्किक’ नामक पदाधिकारी का उल्लेख है, जो संभवतः सीमा-शुल्क विभाग का अधीक्षक होता था जिसे व्यापारियों और सौदागरों के माल पर कर लगाने और वसूल करने का अधिकार था। ‘हलदंड’ नामक कर हल पर लगाया जाता था। ‘प्रणयकर’ ग्रामवासियों पर लगाया जाने वाला स्वैच्छिक कर था।
गुप्तकाल में वणिकों, शिल्पियों, शक्कर एवं नील बनाने वाले पर ‘राजकर’ लगता था। नगरों में प्रयुक्त होनेवाले बाट व माप की जाँचकर उन पर राजकीय मुहर लगाई जाती थी और इसके लिए बनियों से कर वसूल किया जाता था। कारीगरों (कारुकर) और शिल्पियों से कर दो रूपों में लिया जाता था- बिष्टि (बेगार) और नगद। बिष्टि कुम्हार, बढ़ई और लोहार जैसे छोटे कारीगरों से ली जाती थी। सुनार, जुलाहे तथा शराब बनाने वाले बड़े कारीगरों से कर द्रव्य के रूप में लिया जाता था।
गुप्तकालीन राजस्व के अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोतों में भूमिरत्न, गड़ा हुआ धन, खानें, नमक इत्यादि थे। नारद स्मृति के अनुसार इस प्रकार की संपूर्ण संपत्ति पर प्रत्यक्ष रूप से सम्राट का एकाधिकार होता था, किंतु यदि खान या गुप्त धन किसी दान दी गई भूमि पर निकलती थी, तो उस धन पर ग्रहीता का अधिकार माना जाता था। अपराधियों पर लगाया गया जुर्माना भी राजकीय आय का एक स्रोत था।
गुप्तकालीन लेखों में मिलने वाले भूमिदानों के विवरणों से लगता है कि इस समय सामंतवादी प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। भूमिदान के साथ-साथ गाँव की भूमि से उत्पन्न होनेवाली आय भी ग्रहीता को सौंप दी जाती थी। दानपत्रों में कृषकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे कर भूपति को दें। वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलता है कि भूस्वामी कृषकों तथा उनकी स्त्रियों से बेगार या विष्टि भी ले सकता था। दान में दिये गये क्षेत्रों से जब भूमिकर राजा को प्रत्यक्ष न मिलकर सामंतों, ब्राह्मणों और उच्चपदाधिकारियों के माध्यम से मिलने लगा तो निश्चित रूप से केंद्रीय कोष पर बुरा प्रभाव पड़ा। अब राजा के लिए विशाल स्थायी सेना रखना संभव नहीं रहा और वह सामन्तों की सेना पर आश्रित हो गया।
गुप्तकाल में भूमि-अनुदान
गुप्तकाल में प्रशासन की एक मुख्य विशेषता यह थी कि इस समय बड़े पैमाने पर भूमिदान दिया गया। भूमिदान की प्रथा को महाकाव्यों और पुराणों में पुण्य कार्य बताया गया था। भूमिदान का सर्वप्रथम अभिलेखीय प्रमाण एक सातवाहन अभिलेख में मिलता है, जिसमें अश्वमेध यज्ञ में एक गाँव देने का उल्लेख है। किंतु सर्वाधिक भूमि-अनुदान गुप्तकाल में दिया गया। इस समय प्रायः दो प्रकार के भूमि-अनुदान प्रचलन में थे।
‘अग्रहार’ (ब्रह्मदेय) भूमि-अनुदान सिर्फ ब्राह्मणों को दिया जानेवाला अनुदान था। इसके अंतर्गत आनेवाली भूमि कर-मुक्त होती थी। इस भूमि पर ग्रहीता का वंशानुगत अधिकार होता था, किंतु राजा यदि ग्रहीता के व्यवहार से संतुष्ट नहीं है, तो वह इस भूमि को वापस भी ले सकता था। किंतु लगता है कि पाँचवीं शती तक भूमिदान की प्रवृत्ति में काफी परिवर्तन हुए और अब भूदान प्राप्तकर्ता को भूमि पर राजस्व प्राप्त करने के अधिकार के साथ-साथ उस भूखंड की सुरक्षा और प्रशासन का अधिकार भी मिल जाता था। इन दोनों अधिकारों से सुरक्षित वर्ग ‘सामंत’ कहा जा सकता है।
गुप्तकाल के प्रारंभिक दिनों में गुप्त साम्राज्य के केंद्रीय प्रांतों में कोई सामंत सम्राट की अनुमति के बिना भूमिदान नहीं दे सकता था, किंतु लगता है कि छठी शताब्दी तक विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति इतनी पूर्णता प्राप्त कर चुकी थी कि सामंत अपनी-अपनी भूमि के वास्तविक स्वामी बन बैठे और कुमारामात्य नंदन जैसे सामंत भी सम्राट की अनुमति के बिना भूमिदान करने लगे।
दूसरे प्रकार का भूमि-अनुदान वह था जिसे राजा अपने उपरिक, कुमारामात्य जैसे अधिकारियों को उनके वेतन के बदले भूमि प्रदान करता था। ह्वेनसांग भी बताता है कि राज्य के प्रमुख कर्मचारियों को कभी वेतन मिलता था और कभी भूमिदान दिया जाता था। संभवतः वेतनों का भुगतान नकद में न करके भूमि-अनुदान के रूप में दिया जाने लगा था। इन अधिकारियों का पद वंशानुगत होने लगा और ये भी सामंतों की तरह स्वतंत्र होने लगे। इन सामंतों का सम्राट से मात्र इतना ही संपर्क होता था कि वे समय-समय पर उपस्थित होकर उसके प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करते थे और अपनी अधीनता का प्रदर्शन करते थे। सामंत न केवल जनता से कर वसूल करते थे, वरन् स्थायी सेना भी रखते थे और आवश्यकता पड़ने पर सम्राट को सैनिक सहायता भी देते थे। इस प्रकार सम्राट सामन्तों पर आश्रित हो गया, जिससे केंद्रीय सत्ता और क्षीण हुई।
भू-घृतियाँ
गुप्तकालीन भूमि अनुदान अभिलेखों के आधार पर कई प्रकार की भू-घृतियाँ दिखाई पड़ती हैं। ‘निविधर्म’ भू-घृति में भूमि अनुदान सदा के लिए होता था। ‘निविधर्म अक्षयण’ भू-घृति भी सदा के लिए दिया गया भूमि-अनुदान था, किंतु प्राप्तकर्त्ता इसे किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं कर सकता था। ‘अप्रद’ भू-घृति में प्राप्तकर्त्ता को संपत्ति के सभी अधिकार प्राप्त होते थे, किंतु वह इसे दूसरे को अनुदान में नहीं दे सकता था और न ही उसे प्रशासकीय अधिकार प्राप्त होते थे।
‘भूमिछिद्रन्याय’ भू-घृति में जो व्यक्ति बंजर भूमि पर खेती प्रारंभ करता था, वही उसका स्वामी होता था और उसे किसी प्रकार का कर नहीं देना पड़ता था। निविधर्म भू-घृति का प्रचलन उत्तरी तथा मध्य भारत में था, अन्य भू-घृतियाँ संभवतः गुप्त साम्राज्य के पूर्वी भाग में प्रचलित थीं। यही कारण है कि बंगाल के लेखों में उनका अधिक उल्लेख मिलता है।
भू-स्वामित्व
स्मृतिकारों के अनुसार राजा भूमि का स्वामी माना गया है। मनु और गौतम जैसे स्मृतिकारों ने राजा को भूमि का अधिपति बताया है। गुप्तकाल में राजाओं द्वारा बड़े पैमाने पर दिये जाने वाले भूमिदानों से स्पष्ट है कि शासक भूमि को किसी ब्राह्मण, किसी गृहस्थ या किसी राज्याधिकारी को दान देने का अधिकारी था। भूमि को जोतनेवाले के अधिकार के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। मनु जैसे स्मृतिकारों के अनुसार ‘भूमि पर उसी का अधिकार होता है, जो भूमि को सर्वप्रथम जंगल से भूमि में परिवर्तित करता है’। इससे लगता है कि मनु के समय में नये-नये गाँव बसाये जा रहे थे। गुप्तकाल में गाँव भली-भाँति स्थापित हो चुके थे, क्योंकि गुप्तकाल में जमीन किसकी है, यह जानकारी रखना आवश्यक था। भू-आलेखों को सुरक्षित रखने के लिए महाक्षपटलिक और करणिक नामक पदाधिकारी नियुक्त किये जाते थे और न्यायाधिकरण नामक पदाधिकारी भूमि-संबंधी विवादों का निपटारा करता था। बृहस्पति और नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति का भूमि पर स्वामित्व तभी माना जा सकता है, जब उसके पास कानूनी दस्तावेज हो।
आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से भूमि कई प्रकार की होती थी। अमरसिंह ने अमरकोष में बारह प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है, जैसे- उर्वरा, ऊसर, मरु, अप्रहत, सद्वल, पंकिल, जल, कच्छ, शर्करा, शर्कावती, नदीमातृक और देवमातृक आदि। इस समय प्रायः पाँच प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है- खेती के योग्य भूमि को ‘क्षेत्र’ कहा जाता था। ऐसी भूमि जो निवास के योग्य होती थी, ‘वास्तु भूमि’ कहलाती थी। चारागाह भूमि पशुओं के चारा के योग्य होती थी। जो भूमि जोती नहीं जाती थी, उसे ‘सिल’ कहा जाता था और बिना जोती गई जंगली भूमि को ‘अप्रहत’ कहा जाता था।
भूमि की खरीद-बिक्री
गुप्तकाल के भूमि-विक्रय संबंधी लगभग दस ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। भूमि खरीदने के समय कुछ नियमों का पालन करना होता था। सर्वप्रथम संबंधित जिले (विषय) के पुस्तपाल के पास एक आवेदन भेजा जाता था। पुस्तपाल स्थानीय तथा पड़ोस के व्यक्तियों को सूचित करता था कि यदि कोई विरोध हो तो वे उसे प्रस्तुत करें। जब कोई विरोध नहीं होता था तो विषयपति के सहयोग से पुस्तपाल का विभाग भूमि को बेंच देता था।
कृषि एवं कृषक
कृषि एवं भूमि से जुडे हुए कार्यों को ‘महाक्षटलिक’ एवं ‘करणिक’ देखते थे। अधिकांश कृषि वर्षा पर आधारित थी। वराहमिहिर की बृहत्संहिता में वर्षा की संभावना और वर्षा के अभाव के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श हुआ है तथा वर्षा से होनेवाली तीन फसलों का उल्लेख किया गया है। एक सावन के महीने में, दूसरी बसंत के महीने में और तीसरी चैत या वैशाख के महीने में तैयार होती थी। संभवतः राज्य की ओर से सिंचाई के लिए कुंओं, नहरों एवं जलाशयों का निर्माण करवाया जाता था। जूनागढ़ के अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील के बाँध की मरम्मत करवाई थी। इसका उद्देश्य सिंचाई के साथ-साथ नगरवासियों को पेयजल भी उपलब्ध कराना रहा होगा। सिंचाई में ‘रहट’ या ‘घटीयंत्र’ का भी प्रयोग होता था।
गुप्तकाल की फसलों के विषय में ह्वेनसांग ने लिखा है कि पश्चिमोत्तर भारत में ईख (गन्ना) और गेहूँ तथा मगध एवं उसके पूर्वी क्षेत्रों में चावल की पैदावार होती थी। अमरकोश में हल के लोहे के फाल के लिए पाँच नाम दिये गये हैं, जिससे लगता है कि यह महत्त्वपूर्ण कृषि-उपकरण सर्वसुलभ था। इस काल में प्रायः छोटे-छोटे किसान होते थे जो स्वयं अपने परिवार के साथ भूमि जोतते थे। ग्रामीण भूमिस्वामी को ग्रामिका, कुटुंबिका और नस्तर कहा जाता था। छोटे किसानों को कृषिवाला, कृषक और किसान कहा जाता था। दानस्वरूप प्राप्त भूमि को ग्रहीता स्वयं नहीं जोतता था, वरन् भूमिहर मजदूरों द्वारा भूमि जुतवाता था।
नारद और बृहस्पति स्मृति के अनुसार इन भूमिहरों को नगद वेतन उपज का 1/5 भाग मिलता था और जो खाना-कपड़़ा नहीं लेते थे, उन्हें 1/3 भाग पारिश्रमिक प्राप्त होता था। जब बड़े पैमाने पर भूमि मठों और मंदिरों को दान दी जाने लगी, तो भूमिहर किसान भूमिपतियों के अधीन अर्द्धदास बनते चले गये क्योंकि दानपत्रों से पता चलता है कि केवल भूमि ही दान में नहीं दी जाती थी, वरन् उसमें रहने वाली स्त्रियाँ तक भी ग्रहीता को सौंप दी जाती थी।
गुप्तकाल में उद्योग-धंधे और पशुपालन
गुप्त काल में सोना, चाँदी, ताँबा एवं लोहा जैसी धातुओं का प्रचलन था। तत्कालीन साहित्य और मूर्तियों में आभूषणों का अंकन मिलता है। ताँबे का प्रयोग ताम्रपत्र, बर्तन और सिक्का बनाने में किया जाता था। मेहरौली का लौह-स्तंभ तत्कालीन लौह-प्रौद्योगिकी का उत्कृष्ट नमूना है। वराहमिहिर की बृहत्संहिता में हीरा, मोती, मणिक तथा शंख आदि की बनी वस्तुओं का उल्लेख है। अमरकोष में कताई-बुनाई, हथकरघा एवं धागे का उल्लेख हुआ है। कालीदास ने भी महीन वस्त्रों का वर्णन किया है।
पशुपालन जीविका का अन्य प्रमुख साधन था। कामंदक के अनुसार गोपालन वैश्य का पेशा है। अमरकोष में पालने योग्य पशुओं में घोड़े, भैंस, ऊँट, बकरी, भेड़, गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि की गणना की गई है। बैल सामान ढ़ोने और हल चलाने के काम आते थे।
स्थानीय समितियाँ: श्रेणी, पूग और कुल : पारस्परिक विवादों का निर्णय प्रायः स्थानीय समितियों एवं समुदायों द्वारा किया जाता था। इन समितियों में तीन- श्रेणी, पूग और कुल विशेष महत्त्वपूर्ण थे। इन तीनों समितियों को अपने-अपने क्षेत्रों में राज्य की ओर से निर्णय देने का अधिकार प्राप्त था (नृपेणाधिकृताः पूगाः श्रेणयोडथ कुलानि च)। निर्णय देने का कार्य समितियों के प्रधान करते थे।
गुप्तकालीन व्यवसाय और उद्योग का संचालन श्रेणियाँ करती थी। व्यापारियों एवं व्यवसायियों की समितियों को श्रेणी कहा जाता था। श्रेणी एक ही प्रकार के व्यवसाय या शिल्प का अनुसरण करनेवालों की समिति होती थी। प्रत्येक श्रेणी का एक प्रधान तथा चार-पाँच व्यक्तियों की एक समिति होती थी।
श्रेणी के प्रधान को ‘ज्येष्ठक’ कहा जाता था। यह पद आनुवांशिक होता था। श्रेणियों के रीति-रिवाज को स्मृतियों में ‘श्रेणीधर्म’ कहा गया है। श्रेणियाँ अपने आंतरिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्र होती थीं। स्मृतियों में राजा को निर्देश दिया गया है कि वह श्रेणियों के रीति-रिवाजों का पालन करवाये। प्रत्येक श्रेणी की अपनी अलग मुहर होती थी। वैशाली से एक संयुक्त श्रेणी की 274 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। श्रेणियाँ आधुनिक बैंक का भी काम करती थीं; धन को अपने पास जमा करतीं एवं ब्याज पर धन उधार देती थीं। ब्याज के रूप में प्राप्त धन का उपयोग मंदिरों के रख-रखाव और उनमें दीपक जलाने में किया जाता था। मंदसौर अभिलेख में रेशम बुनकरों की श्रेणी के द्वारा सूर्यमंदिर के निर्माण एवं मरम्मत का उल्लेख है। स्कंदगुप्त के इंदौर के ताम्रपत्र अभिलेख में इंद्रपुर के देव विष्णु ब्राह्मण द्वारा तैलिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है, जो ब्याज के रुपये में से सूर्य मंदिर में दीपक जलाने में प्रयुक्त तेल के खर्च को वहन करता था। श्रेणी से बड़ी संस्था ‘निगम’ थी। निगम का प्रधान ‘श्रेष्ठी’ कहलाता था। व्यापारिक नेतृत्व करनेवाला ‘सार्थवाह’ कहलाता था।
‘पूग’ नगर में निवास करनेवाली विभिन्न जातियों की समितियाँ होती थीं। संभवतः ‘कुल’ एक समान परिवारों के सदस्यों की समिति होती थी। इन समितियों के विभिन्न धर्मों को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त थीं। इन्हीं के अनुसार समितियाँ अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करती थीं। यदि कुल, जाति तथा श्रेणी के सदस्य अपने धर्म का पालन नहीं करते थे, तो राज्य को दंड देने का अधिकार था-
कुलानि जातीः श्रेणीश्च गणंजानपदानपि।
स्वधर्माच्चलितान्राजा विनीय स्थापयेत्पथि।।
गुप्तकाल में मुद्राएँ
गुप्तों ने सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्राओं का प्रचलन करवाया था। गुप्तों की स्वर्ण मुद्राओं को अभिलेखों में ‘दीनार’ कहा गया है। गुप्त साम्राज्य के विभिन्न भागों से सिक्कों के सोलह ढ़ेर प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण बयाना (भरतपुर क्षेत्र) का पुंज है। यद्यपि गुप्तकाल की हजारों स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं, किंतु परवर्ती काल की स्वर्ण मुद्राओं का वजन बढ़ने के बावजूद सोने की कम मात्रा गुप्तकालीन समृद्धि के सामने एक प्रश्नचिन्ह है। चाँदी के सिक्के सर्वप्रथम चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक विजय के पश्चात् आरंभ किया था, किंतु इनकी संख्या बहुत कम है और प्रचलन-क्षेत्र भी सीमित है। ताँबे के सिक्के कम प्रचलित थे और रामगुप्त को छोड़कर चंद्रगुप्त द्वितीय के पहले के ताँबे के सिक्के नहीं के बराबर हैं। इससे स्पष्ट है कि मुद्रा-प्रणाली का पतन हो रहा था।
कुसीदवृत्ति
महाजनी अथवा सूदखोरी यद्यपि एक स्थापित व्यवसाय था, किंतु गुप्तकाल में इससे प्राप्त धन को प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त थी। नारद तथा बृहस्पति ने व्यापार के संचालन के लिए नियमों का निर्धारण किया तथा ब्याज के वैधानिक, नैतिक तथा आर्थिक आधार को सही ठहराया। ऋणदाता तथा ऋण-प्राप्तकर्त्ता के बीच अनुबंध में राज्य का कोई दायित्व नहीं था। राज्य मात्र विषम परिस्थितियों में ही हस्तक्षेप करता था। राज्य का नियंत्रण न होने के कारण ऋण-प्राप्तकर्ता को कभी-कभी कठिनाई उठानी पड़ती थी।
निगमों तथा श्रेणियों के अलावा निजी व्यक्ति भी इस व्यवसाय में संलग्न थे। वे कर्ज देने के लिए अपने नियम बनाते थे, यद्यपि स्थानीय रीति-रिवाजों का ध्यान रख जाता था। नारद तथा बृहस्पति ने सुरक्षा, जमानतकर्ता, वैधता और ऋणपत्र की उपयोगिता के संबंध में नियमों का निर्माण किया। ब्याज की सामान्य दर 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी जो जाति के अनुसार अलग-अलग होती थी। ब्राह्मणों को सबसे कम ब्याज देना पड़ता था। कर्जदार की मृत्यु होने पर कर्ज वापस करने का उत्तरदायित्व उसके उत्तराधिकारी का होता था।
मौर्योत्तरकालीन राज्य-व्यवस्था एवं आर्थिक जीवन
गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य
गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग व्यापार एवं वाणिज्य था। गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राओं के आधिक्य और निगमीय प्रशासन में श्रेणियों और व्यापारियों की भूमिका के आधार पर माना जाता है कि गुप्तकाल में आंतरिक और वैदेशिक व्यापार उन्नत अवस्था में था, किंतु सोने, चाँदी, ताँबे आदि धातुओं के सिक्कों की जो बहुलता प्राक्-गुप्त युग में दिखाई देती है, वह गुप्तकाल में नहीं दिखाई पड़ती है। गुप्तों की स्वर्ण मुद्राओं में स्वर्ण की मात्रा भी कुषाणकालीन स्वर्ण मुद्राओं की तुलना में कम थी। इस प्रकार कुषाण युग की तुलना में गुप्तयुग में व्यापार में हृास के लक्षण दिखाई देते हैं।
इस समय उज्जैन, भड़ौंच, प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, मथुरा, अहिच्छत्रा, कोशांबी, दशपुर आदि महत्त्वपूर्ण व्यापारिक नगर थे। उज्जैन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल था क्योंकि देश के हर कोने से मार्ग उज्जैन की ओर आते थे। भड़ौच पश्चिमी भारत का प्रमुख बंदरगाह था, जहाँ से पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्यापार होता था। व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान को माल लेकर जाते समय समूह में चलते थे जिसे ‘सार्थ’ कहा जाता था। सार्थ का प्रधान ‘सार्थवाह’ कहलाता था। व्यापारियों की समिति को ‘निगम’ कहा जाता था, जिसका प्रधान ‘श्रेष्ठि’ होता था।
नवीन अनुसंधानों से पता चलता है कि इस समय गाँव लगभग आत्म-निर्भर इकाई के रूप में विकसित हो चुके थे। संभवतः किसी को नगद वेतन नहीं दिया जाता था और मात्र सोने और चाँदी के सिक्कों से दैनिक जीवन को चलाना संभव नहीं लगता। गुप्तों के पास ऐसी कोई सामान्य मुद्रा नहीं थी जो उनके जीवन का अभिन्न अंग बन सकती थी। फाह्यान ने भी लिखा है कि जनता रोज के विनिमय में वस्तुओं की अदला-बदली अथवा कौड़ियों से काम चलाती थी। इस प्रकार गुप्त काल में आंतरिक व्यापार में गिरावट आ रही थी।
एस.के. मैती के अनुसार गुप्तकाल में भारत तथा पाश्चात्य विश्व के बीच व्यापारिक संबंधों में गिरावट आ गई थी। मंदसौर लेख से सूचना मिलती है कि भारतीय रेशम की विदेशों में माँग कम होने के कारण 5वीं शताब्दी के मध्य लाट विषय (प्रदेश) से रेशम बुनकरों की एक श्रेणी को अपना व्यवसाय छोड़ कर दशपुर (मालवा) में जाकर बसना पड़ा था। इससे लगता है कि पश्चिमी देशों के साथ व्यापार लाभकारी नहीं रह गया था। वस्तुतः तीसरी शताब्दी ई. के बाद से रोमन साम्राज्य की स्थिति इतनी डावाँडोल हो गई थी कि वह प्राच्य-जगत् से व्यापार को प्रोत्साहन नहीं दे सकता था। रोमन लोग स्वयं रेशम उद्योग को विकसित करने का गंभीर प्रयास कर रहे थे। प्रोकोपियस के वर्णन से पता चलता है कि छठीं शताब्दी के मध्य फारसवासियों ने रेशम व्यापार पर एकाधिकार-सा कर लिया था। चूंकि रेशम व्यापार ही भारत और रोम के मध्य महत्त्वपूर्ण व्यापार का आधार था, इसलिए भारतीय व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
पूर्व में भारत का व्यापार चीन से हो रहा था। कॉसमस के वृतांत से पता चलता है कि इन दोनों के बीच बिचौलिये की भूमिका सिंहलद्वीप (श्रीलंका) निभाता था। चीन और भारत के मध्य होनेवाला व्यापार संभवतः वस्तु-विनिमय प्रणाली पर आधारित था क्योंकि न तो चीन के सिक्के भारत में मिले हैं और न ही भारत के सिक्के चीन में। भारत चीन को रत्न, केसर, सुगंधित पदार्थ, सिले-सिलाये सुंदर वस्त्र आदि निर्यात करता था और बदले में चीन से रेशम आयात किया जाता था।
गुप्तकालीन प्रमुख बंदरगाह
कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्तकाल में पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति, घंटाशाला एवं कदूरा से दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार होता था, किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है। पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच (ब्रोच), कैम्बे, सोपारा, कल्याण आदि बंदरगाहों से भूमध्य सागर एवं पश्चिम एशिया के साथ व्यापार का अनुमान किया जाता है। संभवतः इथोपिया से हाथीदाँत, अरब, ईरान एवं बैक्ट्रिया से घोड़ा आदि आयात किये जाते थे। समृद्ध व्यापार का प्रभाव मात्र शहरी जीवन पर था क्योंकि पाटलिपुत्र, मथुरा, कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा एवं गंगाघाटी के अनेक महत्त्वपूर्ण केंद्रों का हृास गुप्तकालीन समृद्ध व्यापार पर एक प्रश्नचिन्ह है। रोमिला थापर के अनुसार ‘गुप्त काल की व्यापारिक समृद्धि उस आर्थिक प्रगति का अंतिम चरण थी, जो पिछले काल में प्राप्त हुई थी।’
शहरी केंद्रों का पतन
गुप्तकाल में आत्म-निर्भर स्थानीय इकाइयों के उदय से शहरी केंद्रों का पतन हुआ। जहाँ एक ओर प्रथम तीन शताब्दियों का कुषाण संस्तर पुरातत्त्व की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है, वहीं दूसरी ओर चौथी से छठीं शताब्दी तक का गुप्त संस्तर पतन की स्थिति में दिखाई देता है। कई स्थानों पर कुषाणकालीन ईंटों का प्रयोग गुप्त संरचनाओं में किया गया है। संघोल (लुधियाना), इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर तथा चिरांद जैसे उत्तर भारत के स्थलों के उत्खननों से पता चलता है कि कई शहरी बस्तियाँ छठीं शताब्दी में समाप्त हो गई थीं। महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश की भी यही स्थिति है।
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