संवैधानिक संकट : अक्टूबर घोषणा, अगस्त-प्रस्ताव और वैयक्तिक सत्याग्रह (Constitutional Crisis: October Declaration, August Offer and Individual Satyagraha)

द्वितीय विश्व युद्ध का आरंभ

सितंबर 1939 में जर्मन प्रसारवाद की हिटलर की नीति के अनुसार नाजी जर्मनी ने पौलैंड पर आक्रमण कर दिया, जिससे दूसरा विश्व युद्ध आरंभ हो गया। इसके पहले मार्च 1938 में वह आस्ट्रिया और मार्च 1939 में चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार कर चुका था। ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर को खुश करने के लिए सब कुछ किया था, किंतु अब वे पौलैंड की सहायता करने को बाध्य हो गये। 3 सितंबर 1939 को भारत के तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने घोषणा की कि भारत भी द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्रराष्ट्रों की ओर से शामिल है। घोषणा से पूर्व उसने भारत के किसी भी राजनीतिक दल से परामर्श नहीं किया, जबकि उस समय देश के ग्यारह प्रांतों में से आठ प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल थे। इस प्रकार भारत की ब्रिटिश सरकार कांग्रेस या केंद्रीय विधानसभा के चुने हुए सदस्यों से परामर्श किये बिना फौरन युद्ध में शामिल हो गई।

यद्यपि कांग्रेस को फासीवादी हमले के शिकार लोगों से पूरी सहानुभूति थी और वह फासीवाद-विरोधी संघर्ष में लोकतांत्रिक शक्तियों की सहायता करने को तैयार भी थी। किंतु कांग्रेस के अधिकांश नेताओं का सवाल था कि एक पराधीन देश दूसरे देशों के मुक्ति-संघर्ष में कैसे साथ दे सकता है? कांग्रेस ने माँग की कि भारत को स्वाधीन देश घोषित किया जाए या कम से कम भारतीयों को समुचित अधिकार दिये जाये ताकि वे युद्ध में सक्रिय रूप से भाग ले सकें।

कांग्रेस का वर्धा अधिवेशन (10-14 सितंबर 1939)

ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने के मुद्दे पर विचार करने के लिए वर्धा में 10-14 सितंबर 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक हुई। इस बैठक में प्रस्ताव पारित कर पोलैंड पर नाजी हमले और फासीवाद तथा नाजीवाद की निंदा की गई, लेकिन प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि भारत किसी ऐसे युद्ध में शामिल नहीं हो सकता, जो प्रत्यक्षतः लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए लड़ा जा रहा हो, जबकि खुद उसे ही स्वतंत्रता से वंचित रखा जा रहा हो। यदि ब्रिटेन प्रजातांत्रिक मूल्यों और स्वाधीनता की रक्षा के लिए युद्ध कर रहा है, तो उसे पहले भारत को स्वाधीनता प्रदान कर यह साबित करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस ने माँग की कि युद्ध में उसका सक्रिय सहयोग प्राप्त करने के लिए या तो प्रभावी सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंप दी जाए अथवा उन्हें पूर्ण स्वतंत्र घोषित किया जाए।

अक्टूबर घोषणा (17 अक्टूबर 1939)

वायसरॉय लिनलिथगो ने कांग्रेस की माँगों को मानने से इनकार कर दिया और धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा देसी रियासतों को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया। उसने 17 अक्टूबर 1939 के अपने वक्तव्य में घोषणा की कि युद्ध के पश्चात जितना शीघ्र हो सकेगा, वेस्टमिनिस्टर जैसा प्रादेशिक स्वशासन देना अंग्रेजी सरकार का उद्देश्य होगा। लिनलिथगो ने भविष्य के लिए यह आश्वासन दिया कि युद्धोपरांत ब्रिटिश सरकार भारत के विभिन्न दलों, समुदायों और हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों तथा देसी राजाओं से 1935 के भारत सरकार अधिनियम में संशोधन किये जाने के लिए विचार-विमर्श करेगी और आवश्यकता पड़ने पर परामर्श लेने के लिए एक परामर्श समिति का गठन करेगी। लिनलिथगो की घोषणा से स्पष्ट था कि ब्रिटिश सरकार युद्ध के पूर्व या बाद अपनी उपनिवेशवादी पकड़ में किसी भी प्रकार की ढील नहीं देना चाहती थी। फलतः 23 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति के निर्देश पर कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया।

कांग्रेस मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र के बाद जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 22 दिसंबर 1939 को ‘मुक्ति-दिवस’ के रूप में मनाया, क्योंकि देश को कांग्रेस से छुटकारा मिल गया था। अब केवल सिंध, पंजाब और बंगाल में लोकप्रिय मंत्रिमंडल कार्य कर रहे थे। इस युद्धकालीन संकट में ब्रिटिश सरकार को समर्थन देकर लीग को अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिल गया और जिन्ना वायसरॉय के पसंदीदा संभाषी बन गये। जीवन-पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णतः सेकुलर होने के बावजूद कांग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था।

पाकिस्तान की माँग (23 मार्च 1940)

नये घटनाक्रम से उत्साहित जिन्ना ने 23 मार्च 1940 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में भारत से अलग एक पृथक् राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित किया। अधिवेशन में जिन्ना ने कहा कि वे अलग मुस्लिम राष्ट्र के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे। जिन्ना के निर्देशानुसार अलग राष्ट्र की माँग का प्रस्ताव खलीकुज्जमाँ ने तैयार किया था। उसका शब्दांकन जानबूझकर अस्पष्ट रखा गया था और ‘पाकिस्तान’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था।

वास्तव में, मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य के विचार का प्रवर्तक प्रख्यात कवि एवं राजनैतिक चिंतक मोहम्मद इकबाल को माना जाता है क्योंकि 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में मोहम्मद इकबाल ने ही सर्वप्रथम पृथक् मुस्लिम देश की स्थापना की बात कही थी, किंतु मुसलमानों के पृथक् राज्य का नाम ‘पाकिस्तान’ हो, यह विचार 1933 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक अनुस्नातक विद्यार्थी चौधरी रहमतअली के मस्तिष्क की उपज थी, जिसने एक पर्चा कैंब्रिज पम्फ्लेट जारी किया था। उसके अनुसार पंजाब, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रीय देश होना चाहिए, जिसे उसने ‘पाकिस्तान’ की संज्ञा दी थी।

लाहौर अधिवेशन में सर्वसम्मति से पृथक् राष्ट्र का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने से वायसरॉय को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने भारत सचिव को लाहौर अधिवेशन की कार्यवाहियों का विवरण देते हुए लिखा कि इससे मुसलमानों और कांग्रेस के बीच दरार कहीं अधिक चौड़ी हो जायेगी। इस प्रकार लाहौर के पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव ने भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदल दिया और मुस्लिम अलगाववाद के झंडे और ऊँचा कर दिया।

अगस्त-प्रस्ताव (8 अगस्त 1940)

द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की असाधारण सफलता और बेल्जियम, हॉलैंड तथा फ्रांस के पतन के पश्चात् जून 1940 में ब्रिटेन की स्थिति अत्यंत नाजुक हो गई। अब युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए वायसरॉय लिनलिथगो ने 8 अगस्त 1940 को ‘अगस्त प्रस्ताव’ की घोषणा की। इस प्रस्ताव में कहा गया था कि अनिश्चित भविष्य में भारत को डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा दिया जायेगा, वायसरॉय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल का विस्तार कर उसमें कुछ भारतीय शामिल किये जायेंगे और एक युद्ध-परामर्श परिषद् (वार एडवाइजरी कौंसिल) का गठन किया जायेगा। युद्ध के बाद विभिन्न भारतीय दलों के प्रतिनिधियों की एक संविधान सभा गठित की जायेगी, जो भारतीयों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक धारणाओं के अनुरूप संविधान के निर्माण की रूपरेखा सुनिश्चित करेंगी। इस संविधान में रक्षा, अल्पसंख्यकों के हित, राज्यों से संधियाँ तथा अखिल भारतीय सेवाएँ इत्यादि मुद्दों पर भारतीयों के अधिकार का पूरा ध्यान रखा जायेगा। अल्पसंख्यकों से वादा किया गया कि सरकार ऐसी किसी संस्था को शासन नहीं सौंपेगी, जिसके विरुद्ध सशक्त मत हो। चूंकि इस समय ब्रिटिश सरकार जीवन और मृत्यु के संघर्ष में लगी है, इसलिए समस्या का हल करना संभव नहीं है। लेकिन ब्रिटिश सरकार यह विश्वास दिलाती है कि युद्ध के समाप्त होते ही वह ऐसी व्यवस्था करेगी जिसमें भारतीय राजनीतिक जीवन के मुख्य तत्त्वों के प्रतिनिधि नये संविधान की रूपरेखा तैयार करें। इस बीच ब्रिटिश सरकार आशा करती है कि भारत के भिन्न-भिन्न संप्रदाय तथा वर्ग युद्ध में पूर्णरूपेण सहयोग प्रदान करेंगे।

यद्यपि एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रगति थी क्योंकि इसमें स्पष्ट कहा गया था कि भारत का संविधान बनाना भारतीयों का अपना अधिकार है, और स्पष्ट प्रादेशिक स्वशासन की प्रतिज्ञा की गई थी। किंतु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह उसकी उम्मीद से बहुत कम था और इसमें अल्पसंख्यकों तथा राजा-महाराजाओं को पूर्ण महत्त्व दिया गया था। जवाहरलाल नेहरू ने तो प्रादेशिक स्वशासन की धारणा को ही ठुकरा दिया। गांधीजी ने कहा कि अगस्त प्रस्तावों से राष्ट्रवादियों तथा उपनिवेशी सरकार के बीच खाई और चौड़ी होगी। वास्तव में, लंदन की सरकार ऐसे किसी प्रस्ताव के लिए तैयार ही नहीं थी, जो संवैधानिक प्रश्नों पर युद्ध के बाद किसी भी वार्ता में उसके हाथ बाँध देती। फलतः जहाँ कांग्रेस ने अगस्त प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, वहीं मुस्लिम लीग ने अगस्त-प्रस्ताव के उस भाग का, जिसमें कहा गया था कि ‘भावी संविधान उनकी अनुमति से ही बनेगा’ का स्वागत किया और कहा कि भारत का बँटवारा ही इस समस्या का एक मात्र समाधान है।

अगस्त-प्रस्ताव की असफलता से खिन्न होकर ब्रिटेन की चर्चिल सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन तथा कांग्रेस के प्रति अड़ियल रवैया अपना लिया और घोषित किया कि कांग्रेस जब तक मुस्लिम संप्रदायवादियों के साथ किसी तरह के समझौते को मूर्तरूप नहीं देती, तब तक भारत में किसी प्रकार का संवैधानिक सुधार संभव नहीं है। इस प्रकार अब संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं, बल्कि कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन के बीच था। भारत के राज्य सचिव एल.एस. एमरी ने कहा कि आज मुख्य झगड़ा ब्रिटिश सरकार और स्वतंत्रता माँगने वाले तत्त्वों में नहीं, अपितु भारत के राष्ट्रीय जीवन में भिन्न-भिन्न तत्त्वों में है।

सितंबर 1940 में गांधीजी वायसरॉय से दो-दो बार मिले, किंतु कोई समझौता नहीं हो सका। दूसरी ओर सरकार एक के बाद एक अध्यादेश जारी कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता और सभा करने तथा संगठन बनाने जैसे अधिकार छीनने लगी। देश भर में राष्ट्रवादी मजदूरों, विशेषकर वामपंथी समूहों से जुड़े मजदूरों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा और उन्हें गिरफ्तार कर जेलों में डाला जाने लगा। 1940 के अंत में कांग्रेस ने एक बार पुनः गांधीजी से राष्ट्रीय आंदोलन की कमान सँभालने का आग्रह किया।

वैयक्तिक सत्याग्रह (17 अक्टूबर 1940)

ब्रिटिश सरकार के शत्रुतावादी रवैये से तंग होकर कांग्रेस ने 1940 के अंत में गांधीजी के नेतृत्व में सीमित पैमाने पर ‘वैयक्तिक सत्याग्रह’ प्रारंभ किया। इस सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के इस दावे को खोखला साबित करना था कि भारत की जनता द्वितीय विश्वयुद्ध में सरकार के साथ है। वायसरॉय के नाम एक पत्र में गांधी ने इसके उद्देश्यों की व्याख्या इस प्रकार की: ‘‘कांग्रेस नाजीवाद के विजय की उतनी ही विरोधी है, जितना कि कोई अंग्रेज हो सकता है; लेकिन उसकी आपत्ति को युद्ध में उसकी भागीदारी की सीमा तक नहीं खींचा जा सकता, और चूंकि आपने तथा भारतीय मामलों से संबंधित मंत्री ने घोषणा की है कि पूरा भारत स्वेच्छा से युद्ध में सहायता कर रहा है, अतः यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भारतीयों को वस्तुतः युद्ध में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनके लिए नाजीवाद और भारत पर शासन करने वाली दोहरी तानाशाही में कोई अंतर नहीं है।’’ दरअसल, कांग्रेस यह प्रदर्शित करना चाहती थी कि राष्ट्रवादियों के धैर्य को उनकी दुर्बलता न माना जाए। इसके अलावा वह अपनी की माँगों को शांतिपूर्वक स्वीकार करने के लिए सरकार को एक और मौका देना चाहती थी। लेकिन लगता है कि सत्याग्रह को जानबूझकर सीमित और वैयक्तिक रखा गया था ताकि देश में व्यापक उथल-पुथल न हो और ब्रिटेन के युद्ध-प्रयासों में बाधा न पहुँचे।

वैयक्तिक सत्याग्रह में सत्याग्रही को सार्वजनिक रूप से युद्ध के खिलाफ प्रचार करना था और जनता से अपील करनी थी कि वह ब्रिटिश सरकार के युद्ध-कार्य में किसी भी प्रकार से सहयोग नहीं करेगी। सत्याग्रही को अपने युद्ध-विरोधी भाषण को दुहराते हुए गाँवों की ओर प्रस्थान करना था। तत्पश्चात् गाँवों में उन्हें अपना संदेश फैलाते हुए दिल्ली की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना था। यही कारण है कि इस आंदोलन को ‘दिल्ली चलो आंदोलन’ भी कहा जाता है।

गांधीजी ने 11 अक्टूबर 1940 को विनोबा भावे को पहले सत्याग्रही के रूप में चुना था। विनोबा ने 17 अक्टूबर 1940 को पवनार में सत्याग्रह शुरू किया और पहली सभा ‘सेलु’ नामक गाँव में तथा दूसरी सभा ‘सेवाग्राम’ में हुई। चार दिन के युद्ध-विरोधी प्रचार के बाद 21 अक्टूबर को ब्रिटिश सरकार ने विनोबा को गिरफ्तार कर लिया। दूसरे सत्याग्रही जवाहरलाल नेहरू को 7 नवंबर 1940 को वैयक्तिक सत्याग्रह शुरू करना था, किंतु गोरखपुर में दिये गये भाषणों के कारण उन्हें 31 अक्टूबर 1940 को ही गिरफ्तार कर लिया गया।

इसके बाद, कांग्रेस ने वैयक्तिक सत्याग्रह को गिरफ्तारी देने के आंदोलन के रूप में चलाया। देश के कोने-कोने से लोग अपना घर-बार, खेती-बारी, जमीन-जायदाद छोड़कर सरकारी प्रतिबंधों को तोड़कर युद्ध-विरोधी प्रचार करने लगे और जेल जाने लगे। छह प्रांतों के भूतपूर्व मुख्यमंत्री, 29 मंत्री तथा 290 विधानमंडलों के सदस्य भी गिरफ्तार किये गये। सत्याग्रह की इस नई पद्धति ने लोगों को बता दिया कि लड़ाई अंग्रेजों से नहीं, बल्कि अंग्रेजी शासन से है। 15 मई 1941 तक 25,000 से अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार किये जा चुके थे। जेल में जहाँ कुछ सत्याग्रही एक-दूसरे का हाथ देखकर हस्तरेखा का अध्ययन करने या छूटने की तिथियों का अनुमान या बाजी लगाते थे, वहीं कुछ सत्याग्रहियों ने जेल का समय चिंतन-मनन, अध्ययन और लेखन में लगाया। इस अध्ययन और चिंतन का एक सुखद परिणाम यह हुआ कि 1920 से 1947 के बीच भारत में उत्तम साहित्य लिखा गया।

वैयक्तिक सत्याग्रह का मूल्यांकन

वैयक्तिक सत्याग्रह और गिरफ्तारी का आंदोलन किसी भी तरह सफल नहीं रहा और इस बीच जापानी सैनिक भारत की सीमाओं के और निकट आ गये, जबकि अंग्रेज किसी भी संवैधानिक परिवर्तन का वादा न करने पर अड़े रहे। 9 सितंबर 1941 को चर्चिल ने एक घोषणा की: ‘‘एटलांटिक चार्टर भारत पर लागू नहीं होगा।’’ उसका कहना था कि उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें। चर्चिल की इस घोषणा से भारतीयों में यह भावना व्याप्त हो गई कि ब्रिटिश सरकार भारतीय स्वतंत्रता के प्रति ईमानदार नहीं है। इसी बीच वायसरॉय ने कांग्रेस की माँगों की अनदेखी करते हुए अपनी कार्यपालिका परिषद् में पाँच भारतीय सदस्यों को और बढ़ा दिया। अब कार्यपालिका परिषद् में 8 सदस्य हो गये थे, किंतु रक्षा, गृह, वित्त जैसे महत्त्वपूर्ण विभाग अंग्रेजों के ही अधीन थे।

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