मालवा का औलिकार वंश और यशोधर्मन् (Aulikar Dynasty of Malwa and Yashodharman)

मालवा का औलिकार वंश

पाँचवीं शताब्दी के मध्य में मालवा पर औलिकार राजवंश के लोग गुप्त साम्राज्य के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे। इस समय गुप्तों की शक्ति क्षीण हो चली थी और वाकाटकों तथा हूणों के आक्रमण के कारण मालवा राजनीतिक अस्थिरता का शिकार था। अभिलेखों से पता चलता है कि बुधगुप्त के शासनकाल में पश्चिमी मालवा पर आदित्यवर्धन का अधिकार था। वस्तुतः कुमारगुप्त द्वितीय के बाद मालवा की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाते हुए औलिकार राजवंश के आदित्यवर्धन (490 ई.) ने पश्चिमी मालवा में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और औलिकार वंश की स्थापना की। कुछ इतिहासकार इस वंश के प्रथम स्वतंत्र शासक आदित्यवर्धन के नाम के आधार पर इस राजवंश को ‘औलिकारवंशीय वर्धन वंश’ भी कहते हैं।

मालवा का औलिकार वंश और यशोधर्मन् (Aulikar Dynasty of Malwa and Yashodharman)
मालवा की अवस्थिति

औलिकारवंशीय ज्ञात शासकों में प्रकाशधर्मन् (भगवत्प्रकाश), विष्णुवर्धन अर्थात् यशोधर्मन् तथा द्रव्यवर्धन का नाम मिलता है। प्रकाशधर्मन् का मालव संवत् 572 (515 ई.) का एक पाषाण-फलक लेख मंदसौर के निकट रिष्ठलपुर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। लेख की तिथि से स्पष्ट है कि प्रकाशधर्मन् 515-16 ई. में मालवा में शासन कर रहा था। इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि उसने 515 ई. के पूर्व हूण नरेश तोरमाण को पराजितकर पूर्वी मालवा पर अधिकार किया था और ‘अधिराज’ की उपाधि धारण की थी।

यशोधर्मन् (विष्णवर्धन)

किंतु औलिकारवंशीय शासकों में सबसे शक्तिशाली यशोधर्मन् (विष्णवर्धन) था। मालवा के इस शक्तिशाली नरेश ने न केवल हूण नरेश मिहिरकुल का मान-मर्दन किया, बल्कि गुप्त साम्राज्य को भी गहरा आघात पहुँचाया।

यशोधर्मन् (विष्णुवर्धन) की उपलब्धियाँ

मध्य भारत के राजनीतिक गगनमंडल में यशोधर्मन् (विष्णवर्धन) का उदय एक उल्का की भाँति तीव्रगति से हुआ और उसने शीघ्र ही अपनी वीरता की चमक से पूरे उत्तरी भारत को चकाचौंध कर दिया। रिष्ठलपुर पाषाण-फलक लेख में यशोधर्मन् के पिता का नाम प्रकाशधर्मन् मिलता है।

औलिकारवंशीय वर्धन वंश के यशोधर्मन् की उपलब्धियों के संबंध में मंदसौर से प्राप्त दो अभिलेखों से सूचना मिलती है। इसमें एक की तिथि मालव संवत् 589 (532 ई.) है। इस लेख में उसकी विजयों का संक्षिप्त विवरण मिलता है। लेख के अनुसार ‘पूरब के कई अत्यंत शक्तिशाली राजाओं तथा उत्तर के अनेक राजाओं को हराकर उसने राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि ग्रहण की। उसके प्रांतपाल अभयदत्त के अधिकार में विंध्य और पारियात्र के बीच का प्रदेश था, जो अरब सागर तक फैला हुआ था।’ यह संक्षिप्त विवरण परंपरागत दिग्विजय का है।

दूसरे अभिलेख में उसके विजयों की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि उसका अधिकार उन प्रदेशों पर भी था, जहाँ गुप्त राजाओं का शासन स्थापित नहीं हो पाया था और जहाँ हूणों की आज्ञा भी प्रवेश नहीं कर पाई थी। पूरब में लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) से लेकर पश्चिम में समुद्र तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में महेंद्र पर्वत (गंजाम जिला) तक के प्रदेशों को उसने जीता था-

‘ये भुक्ता गुप्तनाथैर्न सकलवसुधाक्रान्त

दृष्टप्रतापैर्नाज्ञाहूणाधिपानां क्षितिपति मुकुटध्यासिनीयान्प्रविष्टा।

आलौहित्यापकंठात्तलवनगहनोपत्यकादा

महेन्द्रादागंगाश्लिष्टसानोस्तुहिनशिखरिण पश्चिमादापयोधे।।’

इस विस्तृत साम्राज्य की विजय के संबंध में उसने किन-किन राजवंशों को पराजित किया, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। अभिलेख में उसके द्वारा पराजित शत्रुओं में मात्र मिहिरकुल का ही नाम काव्यात्मक ढ़ंग से प्राप्त होता है।

परवर्ती गुप्त सम्राट और गुप्त राजवंश का अवसान 

मंदसौर प्रशस्ति यशोधर्मन् का चित्रण उत्तर भारत के चक्रवर्ती नरेश के रूप में करती है। यद्यपि इन प्रशस्तियों में अतिशयोक्ति का अंश तो है, किंतु इस प्रकार का दावों को नितांत निराधार भी नहीं माना जा सकता है। यशोधर्मन् एक शक्तिशाली शासक था और उसके द्वारा मिहिरकुल की पराजय उसकी महानतम् उपलब्धियों में से थी। ह्वेनसांग के विवरण और मंदसौर लेख से स्पष्ट है कि मिहिरकुल को मगध नरेश बालादित्य और मालवा के शासक यशोधर्मन् ने पराजितकर उत्तरी भारत से उखाड़ फेंका था। मिहिरकुल को सबसे पहले किसने पराजित किया, यह विवाद का विषय है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मालवा नरेश यशोधर्मन् और मगध के राजा बालादित्य ने 528 ई. में हूणों के विरुद्ध एक संघ बनाया था और भारत के शेष राजाओं के साथ मिलकर मिहिरकुल को परास्त किया था, किंतु अब यह असत्य प्रमाणित हो चुका है।

मालवा के पराक्रमी शासक यशोधर्मन् ने छठीं शताब्दी ई. में मिहिरकुल को पराजित किया था। मंदसौर लेख में यशोधर्मन् की गर्वोक्ति है कि ‘विख्यात राजा मिहिरकुल भी उसके चरणों में सम्मानोपहार लाया था।’ लेख में काव्यात्मक ढ़ंग से कहा गया है कि ‘जिसने भगवान् शिव के अलावा अन्य किसी के सामने मस्तक नहीं झुकाया था, जिसकी भुजाओं से आलिंगित होने के कारण हिमालय व्यर्थ ही दुर्गम होने का अभिमान करता था, ऐसे मिहिरकुल के मस्तक को अपने बाहुबल से यशोधर्मन् ने नीचे झुकाकर उसे पीड़ित कर दिया तथा उसके बालों की जूट में लगे पुष्पों द्वारा अपने दोनों पैरों की पूजा करवाई।’ यशोधर्मन् की मिहिरकुल को संकेत करने की शैली, विशेषतः इसकी कि ‘उसका सिर इससे पहले कभी किसी के आगे नहीं झुका था’ इस विचार से साम्य नहीं रखता कि वह बालादित्य के हाथों पराजित हो चुका था। इससे ह्वेनसांग का कथन सत्य माना जाना चाहिए कि मिहिरकुल की शक्ति का अंतिम विनाश बालादित्य द्वारा हुआ और परिणामतः यशोधर्मन् की विजय उस घटना की पूर्ववर्तिनी थी। फादर हेरास भी इसी विचार का समर्थन करते हैं।

भारत में हूण सत्ता का उत्थान-पतन 

हार्नले का विचार है कि यशोधर्मन् ने एक सामंत राजा की हैसियत से मिहिरकुल के विरुद्ध अभियान में नरसिंहगुप्त का साथ दिया और इसके बाद दृढ़ता से अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित करके अपने अधिपति के ही विरुद्ध विजयी आक्रमणों की परंपरा बाँध दी और बाद में मिहिरकुल के विरुद्ध उसकी पुरानी सफलताओं को उसकी स्वतंत्र विजय के रूप में मान लिया गया।

मंदसौर लेख की भाषा से लगता है कि मिहिरकुल मात्र पराजित हुआ था, उसका राज्य और प्रभुत्व नष्ट नहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मिहिरकुल उसके 10-15 वर्ष बाद तक जीवित रहा। यशोधर्मन् ने मिहिरकुल को 532 ई. से पूर्व पराजित किया होगा क्योंकि 532 ई. के मंदसौर के दूसरे लेख से पता चलता है कि यशोधर्मन् ने उत्तर तथा उत्तर-पूर्व राजाओं को पराजितकर ‘राजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। इन्हीं उत्तर के राजाओं में मिहिरकुल भी रहा होगा। मिहिरकुल को पहले गुप्त सामंत की ओर से यशोधर्मन् ने और उसके बाद स्वयं बालादित्य ने पराजित किया। ह्वेनसांग के अनुसार बालादित्य के हाथों पराजित होने पर मिहिरकुल ने कश्मीर और गांधार पर अधिकार स्थापित किया, किंतु एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो गई।

यशोधर्मन् ने पहले गुप्त सम्राट की ओर से शक्तिशाली हूणों को पराजित किया, फिर अपनी स्वतंत्रता घोषितकर गुप्त साम्राज्य को भी रौंद डाला। रायचौधरी का अनुमान है कि यशोधर्मन् ने बालादित्य के पुत्र वज्र को पराजितकर मार डाला तथा पुंड्रवर्धन के दत्त वंश का विनाश किया। किंतु ह्वेनसांग के विवरण से इसकी पुष्टि नहीं होती है। मंदसौर लेख में यशोधर्मन् ने ऐसे प्रदेश को जीतने का दावा किया है जिस पर कभी गुप्तों या हूणों का अधिकार नहीं था। संभवतः इसका आशय वाकाटक राजवंश से है क्योंकि अजंता लेख से पता चलता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण का 525 ई. में गुजरात, मालवा, कोशल, आंध्र, कुंतल आदि पर अधिकार था। लगता है कि यशोधर्मन् ने उसे पराजितकर मालवा पर अधिकार कर लिया था। जो भी हो, यशोधर्मन् की विजयें स्थायी नहीं रह सकीं और उसके प्रभुत्व का कोई प्रभाव शेष नहीं रहा। 543 ई. के उत्तरी बंगाल से प्राप्त ताम्रपत्र-लेख यशोधर्मन् का उल्लेख न करके गुप्त सम्राट का ही उल्लेख करता है। इसके अलावा मालवा क्षेत्र पर शासन करनेवाले परिव्राजक महाराज गुप्त नरेशों की ही अधीनता स्वीकार करते थे। इस प्रकार यशोधर्मन् का उत्थान-काल 528 से 543 ई. के ही बीच रहा होगा। संभवतः उसका शासन 535 ई. में ही समाप्त हो गया था। यशोधर्मन् का महत्त्व मात्र इतना है कि उसने अपने उदाहरण से अन्य सामंतों को स्वतंत्र होने के लिए प्रोत्साहित किया, जिनकी बढ़ती शक्ति और तज्जनित संघर्ष के फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

मंदसौर प्रशस्ति में यशोधर्मन् को ‘जनेंद्र’ कहा गया है। संभवतः उसका पूरा नाम जनेंद्र यशोधर्मन् था। उसका एक अन्य नाम विष्णुवर्धन भी था। उसने राजाधिराजपरमेश्वर और सम्राट की उपाधि धारण की थी। वह शिव का भक्त था। अभिलेखों में उसके अच्छे शासन और सद्गुणों के कई उल्लेख हैं। उसकी तुलना मनु, भरत, अलर्क और मान्धाता से की गई है।

औलिकारवंशीय द्रव्यवर्धन संभवतः गुप्तवंश के अंतिम शासक विष्णुगुप्त का समकालीन था। वराहमिहिर की बृहत्संहिता में उसे ‘अवंति-नृप’ की उपाधि से संबोधित किया गया है।

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