भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में पूँजीपति वर्ग की भूमिका (Role of Capitalist Class in Indian National Movement)

औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय पूँजीपति वर्ग का विकास औपनिवेशिक शासन के दौरान 19वीं सदी […]

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और पूँजीपति वर्ग (Indian National Movement and Capitalist class)

औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय पूँजीपति वर्ग का विकास

औपनिवेशिक शासन के दौरान 19वीं सदी के मध्य में भारतीय पूँजीपति वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग विदेशी पूँजी की बैसाखी पर निर्भर नहीं था और न ही विदेशी पूँजीपतियों का स्थानीय एजेंट था। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारतीय पूँजीपति वर्ग धीरे-धीरे परिपक्व और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली होने लगा। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के अंत तक विभिन्न कारणों से पंजीकृत औद्योगिक उद्यमों की संख्या लगातार बढ़ रही थी।

भारतीय पूँजीपतियों ने यूरोपीय एकाधिकार को तोड़कर और विदेशी आयात के स्थान पर स्वदेशी उत्पादों का हिस्सा बढ़ाकर साधारण औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित किया। 1920 के बाद नए क्षेत्रों में अधिकांश पूँजी निवेश भारतीय पूँजीपतियों का ही था। 1944 तक, एक हजार से अधिक मजदूरों वाली बड़ी औद्योगिक इकाइयों में लगभग 62 प्रतिशत इकाइयाँ और उनके श्रम-बल का 58 प्रतिशत भारतीय पूँजी के नियंत्रण में था। छोटे कारखानों, जो औद्योगिक क्षेत्र का 95.3 प्रतिशत हिस्सा थे, में भारतीय पूँजी का पूर्ण नियंत्रण था। यह विकास तब हुआ जब भारतीय पूँजी ने विदेशी पूँजी द्वारा अविकसित क्षेत्रों, जैसे चीनी, कागज, सीमेंट, लोहा और इस्पात, में प्रवेश किया। साथ ही, भारतीय पूँजी उन क्षेत्रों में भी पहुँची, जिन पर पहले विदेशी पूँजी का कब्जा था, जैसे वित्त, बीमा, जूट, खदानें, और बागान। स्वतंत्रता के समय देसी बाजार पर 72-73 प्रतिशत नियंत्रण भारतीय पूँजी का था, और संगठित बैंकिंग क्षेत्र की कुल जमाराशि का 80 प्रतिशत भारतीय उद्यमियों के पास था। यह औद्योगिक प्रगति उपनिवेशवाद की स्वाभाविक परिणति नहीं थी, बल्कि उसके बावजूद हुई थी।

पिछली पीढ़ी के भारतीय उद्योगपति विदेशी पूँजी पर अधिक निर्भर थे और औपनिवेशिक सत्ता के प्रभुत्व व भेदभावपूर्ण नीतियों को स्वीकार करने को तैयार थे। किंतु एक विस्तृत सामाजिक आधार से उभरे भारतीय उद्योगपतियों की नई पीढ़ी अधिक परिपक्व और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक थी। अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए उन्होंने संगठन बनाना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप 1887 में बंगाल में ‘नेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स’ और 1907 में बंबई में ‘इंडियन मर्चेंट्स चैंबर’ की स्थापना हुई।

भारतीय पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक दृष्टिकोण

भारतीय पूँजीपति वर्ग का अंतर्विरोध

साम्राज्यवाद के सापेक्ष राष्ट्रवाद के प्रति भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि साम्राज्यवाद के साथ अल्पकालिक निर्भरता और तालमेल के बावजूद भारतीय पूँजीपति वर्ग का दीर्घकालिक अंतर्विरोध विकसित हुआ। बाद में पूँजीपति साम्राज्यवादी शोषण के अंत और एक राष्ट्र-राज्य की स्थापना की कामना करने लगे। किंतु उनकी संरचनात्मक कमजोरियाँ और औपनिवेशिक सरकार पर निर्भरता ने उन्हें समझौते और दबाव की संतुलित रणनीति अपनाने के लिए बाध्य किया।

उद्योगपति राष्ट्रवादी आंदोलन के पक्ष में थे, लेकिन सुरक्षित और स्वीकार्य सीमाओं के भीतर, न कि अतिवादी वामपंथियों के मार्गदर्शन में। वे दक्षिणपंथी और नरमपंथी नेताओं के भरोसेमंद हाथों में आंदोलन देखना चाहते थे। उद्योगपति संगठित मजदूरों, अतिवादी वामपंथ, और जन-आंदोलनों से भयभीत थे, किंतु इनसे सुरक्षा के लिए उन्होंने साम्राज्यवाद के समक्ष समर्पण नहीं किया। उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को संविधानवादी मार्ग पर लाने, दक्षिणपंथियों को संरक्षण देने और कांग्रेस को पूँजीवादी वैचारिक प्रभाव में ढालने की वर्गीय रणनीति विकसित की।

इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि भारतीय व्यापारी समूह राजनीतिक रूप से काफी हद तक औपनिवेशिक सरकार के प्रति निष्ठावान थे। बंबई के व्यापारी समूहों में छोटे व्यापारी (सौदागर) अधिक राष्ट्रवादी थे, जबकि बड़े उद्योगपति सरकार के परंपरागत सहयोगी थे। फिर भी, भारतीय व्यापारियों के विभिन्न समूहों के राजनीतिक रवैये में समय के साथ तालमेल और परिवर्तन दिखाई देता है। वे एक साथ ‘सहयोग और विरोध’ की नीति अपनाते थे, जिसके कारण उनके दृष्टिकोण का स्पष्ट सामान्यीकरण करना संभव नहीं है।

उद्योगपतियों की राजनीति व्यवहारवादी दृष्टिकोण से संचालित होती थी। वे कांग्रेस और सरकार दोनों से समान दूरी बनाए रखते थे, ताकि किसी को भी दुश्मन न बनाएँ। इस प्रकार 20वीं सदी के पूर्वार्ध में भारतीय व्यापारी शायद ही एक ‘निज-हेतु-वर्ग’ (क्लास फॉर इटसेल्फ) थे। उद्योगपति और व्यापारियों के हित अलग-अलग थे, उनके विचारों में टकराव और रणनीतियों में अंतर्विरोध थे। इसलिए, एक सुसंगठित पूँजीवादी विचारधारा या राष्ट्रवाद व साम्राज्यवाद के प्रति स्पष्ट राजनीतिक रणनीति की पहचान करना कठिन है।

प्रथम विश्वयुद्ध के आर्थिक और सामाजिक प्रभाव

प्रथम विश्वयुद्ध के आर्थिक और सामाजिक परिणामों ने भारतीय और ब्रिटिश हितों के अंतर्विरोधों को उजागर और तीव्र किया। युद्ध के दौरान उद्योगपति फले-फूले, किंतु विनिमय दरों के उतार-चढ़ाव और भारी करों ने सौदागरों को नुकसान पहुँचाया। दिसंबर 1920 में रुपये का मूल्य गिर गया, जिससे आयातकों को पिछले अनुबंधों पर लगभग 30 प्रतिशत घाटा हुआ, जबकि निर्यातकों और मिल-मालिकों को लाभ मिला।

युद्धकालीन भारी करों से सभी प्रभावित थे। 1917-18 में पहली बार व्यक्तिगत आय का ब्यौरा माँगा गया, जिससे परंपरागत तरीके से व्यापार करने वाले कई व्यापारी आयकर के दायरे में आ गए। उसी वर्ष कंपनियों और अविभाजित हिंदू व्यापारिक घरानों पर भारी कर लगाया गया, और 1919 में अस्थायी लाभांश शुल्क भी लागू किया गया। आयकर कानून में परिवर्तनों से संयुक्त परिवारों के व्यवसायों को नुकसान हुआ, क्योंकि उनकी लेखा-प्रणाली नए कानूनों की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं थी। मारवाड़ी और गुजराती व्यापारी सरकार की कर और मुद्रा नीतियों से असंतुष्ट थे, किंतु उद्योगपति कम चिंतित थे, क्योंकि सरकार उनका समर्थन पाने का प्रयास कर रही थी।

1919 के मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों ने हितों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू की, जिसके तहत मजदूरों के साथ-साथ भारतीय उद्योगों को भी केंद्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व मिला। 1919 की वित्तीय स्वतंत्रता संविदा (फिस्कल ऑटोनॉमी कन्वेंशन) और 1922 के बाद ‘संरक्षणमूलक भेदभाव’ की नीति ने संरक्षणवादी शुल्कों की आशा जगाई। जब गांधीवादी जन-राष्ट्रवाद शुरू हुआ, तो व्यापार जगत की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही। भारतीय पूँजीवाद की बढ़ती शक्ति के साथ देशव्यापी संपर्क भी बढ़ रहे थे। 1926 में हिल्टन-यंग आयोग ने रुपये और पाउंड की विनिमय दर को 1 शिलिंग 6 पेंस पर स्थिर किया। 1920 और 1930 के दशकों में भारतीय व्यापारी समुदाय लगातार इस दर को घटाकर 1 शिलिंग 4 पेंस करने की माँग करता रहा, ताकि आयात महँगा हो और भारतीय सूती कपड़ों व कच्चे कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ाया जा सके।

गांधीवादी राजनीति की ओर झुकाव

राष्ट्रवाद और गांधीवादी राजनीति में भारतीय व्यापारियों की रुचि और भागीदारी समय की माँग थी। युद्धकालीन कराधान और रुपये-पाउंड की विनिमय दर की अनिश्चितता के कारण कुछ मारवाड़ी और गुजराती सौदागर व नए उद्यमी, जो धार्मिक थे, गांधीजी की ओर आकर्षित हुए। गांधीजी का अहिंसा पर बल और ‘ट्रस्टीशिप’ का सिद्धांत, जो संपत्ति को वैध ठहराता था, उनके लिए आकर्षक था। यद्यपि गांधीवादी विचारधारा पूँजीवादी हितों पर आधारित नहीं थी, फिर भी इसकी कुछ धारणाएँ सौदागरों और उद्यमियों को लुभाती थीं। इस कारण उन्होंने गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक योगदान दिया। घनश्यामदास बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे उद्योगपति उनके घनिष्ठ सहयोगी बने। हालाँकि साबरमती आश्रम को आर्थिक सहायता देने वाले अहमदाबाद के मिल-मालिक अंबालाल साराभाई 1918 की मजदूर हड़ताल के दौरान गांधीजी की नेतृत्व शैली से पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे, फिर भी व्यापारियों को लगता था कि वे ही कांग्रेस को पूँजीवाद-विरोधी बनने से रोक सकते हैं।

मार्च 1919 में रॉलेट एक्ट-विरोधी सत्याग्रह शुरू होने पर उद्योगपति सशंकित रहे, किंतु बंबई के व्यापारियों ने गांधीजी का जमकर समर्थन किया। सत्याग्रह की शपथ लेने वालों में 74 प्रतिशत बंबई के व्यापारी थे। अप्रैल 1919 में गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद बंबई में उद्योगों में हड़ताल हुई। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान व्यापारियों ने ब्रिटिश माल के बहिष्कार की सामूहिक प्रतिज्ञा की और तिलक स्वराज कोष में 37.5 लाख रुपये का दान दिया।

स्पष्ट है कि सौदागर कांग्रेस के साथ थे, और कांग्रेस को भी उनके समर्थन की आवश्यकता थी, क्योंकि उनके बिना बहिष्कार आंदोलन की सफलता संदिग्ध थी। किंतु कई उद्योगपति या तो चुप रहे या जन-आंदोलन का खुलकर विरोध करते रहे। बंबई के कपास निर्यातक और बड़े व्यापारी पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और आर.डी. टाटा ने ‘असहयोग-विरोधी समिति’ का गठन किया। इस समय मजदूरों की संख्या में वृद्धि के कारण बड़े उद्योगपतियों को श्रमिक असंतोष के खिलाफ सरकारी सहायता की आवश्यकता थी, जिसके कारण वे राजभक्त बने रहे। छोटे और मझोले व्यापारियों का राष्ट्रवाद की ओर अधिक झुकाव था।

1922 के बाद बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों ने भारतीय व्यापारी समुदाय को राष्ट्रवाद की ओर और आकर्षित किया। युद्धकालीन तेजी 1921-22 में समाप्त हो गई, और 1920 के दशक में मंदी छाई रही। माल की बिक्री रुक गई, भंडार अनबिके माल से भर गए, और मजदूरी बढ़ने से लागत बढ़ी। आयातित धागों पर निर्भरता और जापानी माल की सस्ती प्रतियोगिता ने बंबई के सूती कपड़ा मिल-मालिकों की स्थिति को और खराब कर दिया। 1920-23 के बीच सूती मिलों के शेयरों के दाम तेजी से गिरे, जिससे उद्योगपतियों में घबराहट फैली। कपास पर 3.5 प्रतिशत आबकारी शुल्क के उन्मूलन के लिए उद्योगपतियों ने विधायिका में स्वराज्यवादियों से सहयोग किया। दिसंबर 1925 में यह शुल्क समाप्त हुआ, किंतु सूती मिलों की समस्याएँ बनी रहीं। 1926 में 11 मिलें बंद हुईं, और 13 प्रतिशत मजदूर बेरोजगार हो गए। जनवरी 1927 में भारतीय शुल्क बोर्ड ने धागों को छोड़कर सभी सूती मालों पर आयात शुल्क को 11 से 15 प्रतिशत करने की सिफारिश की, किंतु लंकाशायर के विरोध के कारण सरकार ने इसे स्थगित कर दिया।

1920 के दशक में लंदन के दबाव के कारण भारत सरकार भारतीय उद्योगपतियों की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील थी। कलकत्ता और बंबई में विदेशी पूँजी के साथ उनके संबंध बिगड़ रहे थे। 1919 के सुधारों के बाद ब्रिटिश पूँजीपति अपने नस्लीय अलगाव और स्वतंत्रता पर अड़े रहे, और भारतीय उद्योगपतियों को कोई रियायत देने के पक्ष में नहीं थे। 1921 में यूरोपीय व्यापारियों ने ‘एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स’ बनाया। इसके जवाब में भारतीय पूँजीपतियों ने 1927 में ‘फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री’ (फिक्की) की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास थे।

फिक्की के दूसरे अधिवेशन (1928) में ठाकुरदास ने घोषणा की: “हम अब अपनी राजनीति को अर्थनीति से अलग नहीं रख सकते। भारतीय वाणिज्य और उद्योग राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े हैं। राष्ट्रीय आंदोलन जितना मजबूत होगा, भारतीय वाणिज्य और व्यापार भी उतना ही विकसित होगा।” 1930 में घनश्यामदास बिड़ला ने भी यही बात दोहराई। भारतीय पूँजीपतियों ने अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध शुरू किया और असमान उत्पादकता वाले देशों के बीच व्यापार में विनिमय असंतुलन का मुद्दा भी उठाया।

कांग्रेस और पूँजीपतियों का निकटता

1929 की वैश्विक आर्थिक मंदी ने भारतीय उद्योगपतियों को प्रभावित किया। मार्च 1930 में सरकार ने कपास संरक्षण कानून के तहत कपास-संबंधी कर को 11 से 15 प्रतिशत बढ़ाया, वह भी केवल गैर-ब्रिटिश मालों के लिए। इस साम्राज्यिक प्राथमिकता से उद्योगपति नाराज हुए, और बिड़ला व ठाकुरदास समेत कई ने विधायिका से इस्तीफा दे दिया। सरकार ने रुपये और स्टर्लिंग की विनिमय दर को 1 शिलिंग 6 पेंस पर तय किया, जो भारतीय आयातकों के खिलाफ और ब्रिटिश निर्यातकों के पक्ष में थी। सितंबर 1931 में ब्रिटेन स्वर्णमान से अलग हुआ, किंतु रुपये को 1 शिलिंग 6 पेंस पर बाँधा गया, जिससे ब्रिटेन को लाभ हुआ, लेकिन भारतीय हितों को नहीं। व्यापारी 1 शिलिंग 4 पेंस की दर की माँग कर रहे थे और 1926 में गांधी और पटेल के समर्थन से बंबई में एक मुद्रा लीग बनी। इस प्रकार, मुद्रा-संबंधी मुद्दे व्यापारियों और कांग्रेस को एक मंच पर ला रहे थे।

पूँजीपति वर्ग की आशंकाएँ

साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के लिए रणनीति को लेकर पूँजीपतियों की राय भिन्न थी। पहले वे संविधानवाद और दबाव समूह की राजनीति के पक्ष में थे, जिसके कारण उन्होंने 1920-21 के असहयोग आंदोलन से दूरी बनाए रखी। किंतु जब कांग्रेस संविधानवाद की ओर लौटी, तो उद्योगपति स्वराज्यवादियों के करीब आए और विधायिका में राष्ट्रीय आर्थिक मुद्दों, जैसे सरकारी खरीद नीति में संशोधन, कपास पर आबकारी शुल्क की समाप्ति, जापानी प्रतियोगिता से निपटने के लिए आयात शुल्क में वृद्धि, साम्राज्यिक प्राथमिकता, और मुद्रा नीति के विरोध पर सहयोग करने लगे। व्यापारियों ने गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों और स्वराज्यवादी अभियान कोषों में उदारतापूर्वक दान दिया। फिर भी, गांधीवादी आंदोलनों से जुड़ने को लेकर कई पूँजीपति सशंकित थे।

1929 की मंदी ने व्यापारियों की स्थिति खराब की, और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) में भागीदारी के पक्ष में जनमत की लहर पैदा हुई। फिर भी, यह समर्थन जटिलताओं से मुक्त नहीं था। कई पूँजीपति आंदोलनों को जोखिम भरा मानते थे और इसे नागरिक असंतोष व बोल्शेविकवाद की उर्वर जमीन समझते थे, जबकि कुछ अन्य इसे रियायतें प्राप्त करने का अंतिम अवसर मानते थे।

नवंबर 1929 में लॉर्ड इरविन के गोलमेज सम्मेलन के प्रस्ताव से पूँजीपति उत्साहित हुए, किंतु दिसंबर 1929 में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज’ प्रस्ताव ने उन्हें चिंतित किया। प्रस्ताव में कर्ज रद्द करने का प्रावधान व्यापारियों को स्वीकार्य नहीं था। 1928-29 में कम्युनिस्ट प्रभाव वाली गिरनी कामगार यूनियन जैसी ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व में हड़तालें हुईं। पूँजीपति साम्यवाद और मजदूर असंतोष से डरते थे, किंतु साम्राज्यवाद के सामने समर्पण नहीं किया। घनश्यामदास बिड़ला ने कहा: “पूँजीपति की मुक्ति प्रतिक्रियावादी ताकतों से हाथ मिलाने में नहीं है। उनका भला संवैधानिक तरीके से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों का समर्थन करने में है।” 1928 में सरकार के सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक (पब्लिक सेफ्टी बिल) का पूँजीपतियों ने विरोध किया, क्योंकि यह राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने का साधन था।

1930 के प्रारंभ तक भारतीय व्यापारी समुदाय कांग्रेस के साथ आ चुका था। गांधीजी ने लॉर्ड इरविन को दी गई ग्यारह सूत्रीय चेतावनी में पूँजीपतियों की तीन माँगें शामिल कीं: 1 शिलिंग 4 पेंस की विनिमय दर, सूती उद्योग के लिए संरक्षण, और भारतीय कंपनियों के लिए तटीय जहाजरानी का आरक्षण। सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने पर व्यापारी और सौदागर उत्साही रहे, धन दिया और बहिष्कार में भाग लिया। किंतु मिल-मालिकों का समर्थन सीमित रहा, और टाटा जैसे सरकारी आदेशों पर निर्भर उद्योगपति सशंकित थे। फिक्की ने आंदोलन के सिद्धांतों का समर्थन किया और पुलिस ज्यादतियों की निंदा की। किंतु सितंबर 1930 तक मिल-मालिकों का उत्साह समाप्त हो गया। पूँजीपति लंबे समय तक आक्रामक आंदोलन का समर्थन करने से हिचकते थे, क्योंकि यह उनकी व्यापारिक गतिविधियों को प्रभावित करता था और उनके वर्गीय अस्तित्व के लिए खतरा था। लालाजी नारनजी ने मार्च 1930 में ठाकुरदास को चेताया: “इससे निजी संपत्ति को खतरा होगा और व्यवस्था के प्रति असम्मान का भाव पैदा होगा, जिसके परिणाम बुरे होंगे।” बढ़ते नागरिक असंतोष ने बड़े व्यापारियों में सामाजिक क्रांति का भय पैदा किया और वे संविधानवाद की ओर लौटना चाहते थे।

फरवरी 1931 में गांधी-इरविन समझौते से पहले सरकार ने सूती कपड़ों पर 5 प्रतिशत शुल्क बढ़ाकर मिल-मालिकों को रियायत दी, बिना लंकाशायर को प्राथमिकता दिए। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में फिक्की ने गांधीजी के आर्थिक विचारों का समर्थन किया, किंतु लंदन में संवैधानिक वार्ताओं के विफल होने पर वे आंदोलनों की ओर नहीं लौटे। जनवरी 1932 में दूसरे सविनय अवज्ञा आंदोलन में उद्योग जगत का स्पष्ट समर्थन नहीं मिला। अहमदाबाद के मिल-मालिकों ने समर्थन किया, किंतु बंबई, कलकत्ता और दक्षिण भारत के कुछ समूहों ने विरोध किया। बिड़ला और ठाकुरदास ढुलमुल रहे। 1932 में ओटावा साम्राज्यिक आर्थिक सम्मेलन में वायसराय ने फिक्की नेताओं के बजाय अपने वफादारों को भेजा, जिससे पूँजीपति नाराज हुए। अगस्त 1932 के ओटावा समझौते को फिक्की और राष्ट्रवादियों ने शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रिया दी।

1930 के दशक में बड़े व्यापारियों की राजनीतिक सोच साम्राज्य और राष्ट्रवाद के बीच बँटी थी। बंबई के व्यापारी ब्रिटिश पूँजी के प्रति समझौतावादी थे और गैर-ब्रिटिश मालों के मुकाबले ब्रिटिश कंपनियों से सहयोग को प्राथमिकता देते थे। टाटा और मोदी जैसे नेता विदेशी पूँजी से सहयोग को तैयार थे और 1933 में ‘इंप्लॉयर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया’ बनाया। किंतु यह प्रयोग असफल रहा, क्योंकि अंग्रेज व्यापारी भारतीय समकक्षों से सहयोग के लिए उत्साहित नहीं थे। अक्टूबर 1933 में बंबई के सूती मिल-मालिकों ने ‘लीस-मोदी’ समझौता किया, जिसकी राष्ट्रवादियों और अन्य व्यापारी संगठनों ने निंदा की। इससे व्यापारी समुदाय में दरार बढ़ी। रिजर्व बैंक विधेयक और 1934 में चीनी पर आबकारी के बावजूद पूँजीपतियों का एक वर्ग कांग्रेस के साथ संबंध बनाए रखने को मजबूर था। अप्रैल 1934 में गांधीजी द्वारा सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने का व्यापारी समुदाय ने स्वागत किया।

संविधानवाद और समाजवाद का प्रभाव

संविधानवाद की वापसी व्यापार जगत के लिए राहतकारी थी। सरकार ने टिस्को के हित में ‘इस्पात संरक्षण विधेयक’ पारित किया और हिंद-जापान समझौते से बंबई के कपड़ा उद्योग को लाभ पहुँचाया। किंतु जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से पूँजीपति चिंतित थे। समाजवाद के डर से वे साम्राज्यवाद के साथ नहीं गए। इसके बजाय, उन्होंने कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं—वल्लभभाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, और राजेंद्र प्रसाद को समर्थन दिया, जो बिड़ला के शब्दों में “साम्यवाद और समाजवाद से लड़ रहे थे।” पूँजीपति कांग्रेस को संवैधानिक राजनीति के दायरे में रखना चाहते थे और इसके लिए कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करने को तैयार थे।

1936 के ‘बंबई घोषणापत्र’ में बंबई के 21 पूँजीपतियों ने नेहरू के समाजवादी विचारों की निंदा की और इसे निजी संपत्ति व देश की शांति के लिए खतरा बताया। इस घोषणापत्र को व्यापक समर्थन नहीं मिला, फिर भी इसने भूलाभाई देसाई और गोविंद बल्लभ पंत जैसे नरमपंथियों को मजबूत किया, जिन्होंने नेहरू पर अपने समाजवादी विचारों को नरम करने का दबाव डाला। 1937 के चुनावों में कांग्रेस की भागीदारी और सत्ता स्वीकार करने के निर्णय ने पूँजीपतियों को और करीब लाया। बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों में मोदी जैसे सशंकित उद्योगपति भी राष्ट्रवादियों के करीब आए। व्यापारिक पूँजी ने 1937 के चुनावों में कांग्रेस की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, किंतु पार्टी पर पूँजीपतियों का पूर्ण वर्चस्व नहीं था।

कांग्रेसी मंत्रिमंडल और पूँजीपति

जब कांग्रेस ने आठ प्रांतों में मंत्रिमंडल बनाए, तो मजदूर और पूँजीपति दोनों ने उत्सव मनाया। कांग्रेस को इनके परस्पर-विरोधी हितों में संतुलन बनाना पड़ा। मद्रास और संयुक्त प्रांत में ट्रेड यूनियन गतिविधियों और श्रमिक असंतोष बढ़ने पर कांग्रेस ने श्रमिक-कल्याण कार्यक्रम लागू किए, जिससे पूँजीपति असंतुष्ट हुए। प्रांतीय सरकारों ने संपत्ति-कर और विक्रय-कर बढ़ाए, जिससे व्यापारिक घराने एकजुट हुए और कांग्रेस हाईकमान चिंतित हुआ। फलस्वरूप कांग्रेस ने अपनी श्रम नीति में परिवर्तन कर पूँजीवादी हितों को संतुष्ट करने का प्रयास किया। नवंबर 1938 का ‘बॉम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट’ इसका चरम उदाहरण था, जिसका उद्देश्य हड़ताल और तालाबंदी पर रोक लगाना था। इस नीति से पूँजीपतियों का भय कम हुआ और नेहरू की आर्थिक नियोजन प्रक्रिया में कुछ उद्योगपतियों, जैसे ए.डी. श्रॉफ, अंबालाल साराभाई, पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और बालचंद हीराचंद, ने सक्रिय भाग लिया।

1938 में सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय योजना समिति में इन उद्योगपतियों को शामिल किया गया। फिर भी, संयुक्त प्रांत और मद्रास के कुछ उद्योगपति कांग्रेस के प्रति सशंकित रहे, और मुस्लिम उद्योगपति सामान्यतः उससे विमुख रहे।

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन और पूँजीपति

पूँजीपति वर्ग राष्ट्रवाद का विरोधी नहीं था, किंतु वे संविधानवाद को पसंद करते थे और विद्रोहों से डरते थे। 5 अगस्त 1942 को ठाकुरदास, जे.आर.डी. टाटा और बिड़ला ने वायसराय को पत्र लिखकर कहा कि वर्तमान संकट से बचने और सविनय अवज्ञा आंदोलन को रोकने का एकमात्र उपाय भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता देना है। किंतु जब ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ, तो उन्होंने इसका विरोध करने का आश्वासन दिया। आंदोलन के बाद वे फिर कांग्रेस की ओर झुके और सत्ता हस्तांतरण की बातचीत में सहयोग के लिए तत्पर दिखे।

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के बाद कांग्रेस रूढ़िवादी नेतृत्व के अधीन आई, जो पूँजीपतियों से सहयोग और संविधानवाद के दायरे में रहना चाहता था। पूँजीपतियों ने सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल को रोकने के लिए सुधार कार्यक्रमों की आवश्यकता महसूस की। 1942 में उन्होंने ‘आर्थिक विकास समिति’ गठित की, जिसने 1944 में ‘बॉम्बे प्लान’ तैयार किया। इस योजना का उद्देश्य समाजवादी माँगों को स्वीकार करना था, जो पूँजीवाद के लिए खतरा नहीं थीं।

भारतीय पूँजीपति वर्ग समाजवाद-विरोधी और बुर्जुआ था, किंतु साम्राज्यवाद का समर्थक नहीं था। उनकी संवैधानिक गतिविधियाँ, जैसे विधानसभा या वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में भागीदारी, साम्राज्यवादी सत्ता के प्रति विरोध का साधन थीं। कांग्रेस के साथ उनका संबंध रणनीतिक और व्यवहारमुखी था। उनकी राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता व्यापारिक हितों से ऊपर नहीं थी, और कांग्रेस को समर्थन सशर्त था। फिर भी, वे न तो अंग्रेजों के वफादार थे और न ही देशद्रोही। पूँजीपतियों को कांग्रेस की ताकत और विभिन्न वर्गों के साथ उसके संबंधों का अहसास था, इसलिए वे इसके कई कार्यक्रमों से सहमत रहे।

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