अशोक के उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य का पतन (The Successors of Asoka and the Fall of the Maurya Empire)

अशोक के उत्तराधिकारी अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया और लगभग […]

असोक के उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य का पतन (The Successors of Asoka and the Fall of the Maurya Empire)

अशोक के उत्तराधिकारी

अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया और लगभग पचास वर्षों के भीतर इस साम्राज्य का अंत हो गया। अभिलेखों से पता चलता है कि अशोक के कई पुत्र थे, किंतु लेखों में केवल उनके पुत्र तीवर और उनकी माता कारुवाकी का ही उल्लेख मिलता है। संभवतः तीवर कभी मगध के राजसिंहासन पर नहीं बैठा। बौद्ध साहित्य में महेंद्र का नाम अशोक के पुत्र के रूप में उल्लिखित है, जिसे सम्राट ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था। बौद्ध धर्मानुयायी होने के कारण संभवतः महेंद्र ने राजकार्य में रुचि नहीं ली।

वायु पुराण में अशोक के बाद कुणाल, बंधुपालित, इंद्रपालित, देववर्मन, शतधनुष और बृहद्रथ, तथा विष्णु पुराण में सुयशस, दशरथ, संगत, शालिशुक, सोमशर्मन, और बृहद्रथ का उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में दशरथ, संप्रति, शतधनु, और बृहद्रथ तथा भगवत पुराण में अशोक के बाद सुयश, संगत, शालिशुक, सोमशर्मा, शतधन्वा और बृहद्रथ का उल्लेख है। दिव्यावदान में अशोक के बाद संप्रति, बृहस्पति, वृषसेन, पुण्यधर्मन और पुष्यमित्र का नाम प्राप्त होता है। इसी प्रकार कलियुगराजवृत्तांत में सुपार्श्व, बंधुपालित, इंद्रपालित, संगत, शालिशुक, देववर्मा, शतधनु और बृहद्रथ का उल्लेख है। तारानाथ ने अशोक के उत्तराधिकारियों में कुणाल, विगताशोक, और वीरसेन का नाम दिया है।

पुराणों के अनुसार अशोक के बाद कुणाल गद्दी पर बैठा। रायचौधरी का अनुमान है कि विष्णु और भगवत पुराण में सुयशस नामक जिस शासक का उल्लेख है, वह वास्तव में कुणाल ही है। सुयशस उसकी उपाधि थी। दिव्यावदान में उसे ‘धर्मविवर्धन’ कहा गया है, किंतु अशोक के अन्य पुत्र भी थे। राजतरंगिणी के अनुसार जालौक कश्मीर का स्वतंत्र शासक था। तारानाथ के अनुसार वीरसेन अशोक का पुत्र था, जो गांधार का स्वतंत्र शासक था। ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक की मृत्यु के बाद ही मौर्य साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया था। कुणाल अंधा था, इसलिए वह शासन-कार्य में असमर्थ था। जैन और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार शासन की बागडोर उसके पुत्र संप्रति के हाथ में थी। इन अनुश्रुतियों के अनुसार संप्रति ही कुणाल का उत्तराधिकारी था।

पुराणों तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफाओं के शिलालेखों के अनुसार दशरथ कुणाल का पुत्र था। दशरथ ने ‘देवानांप्रिय’ उपाधि धारण की थी और नागार्जुनी गुफाओं को आजीविकों को दान में दिया था। मत्स्य और वायु पुराण में भी दशरथ को अशोक के पौत्र के रूप में उल्लिखित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि दशरथ और संप्रति अशोक के पौत्र तथा कुणाल के पुत्र थे। इन प्रमाणों के आधार पर अनुमान किया जाता है कि मगध साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया था। दशरथ का अधिकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में था, जबकि संप्रति का पश्चिमी भाग में। पुराणों में दशरथ का शासनकाल आठ वर्ष बताया गया है।

संप्रति दशरथ के बाद भी जीवित रहा और संभवतः उसने पाटलिपुत्र पर पुनः अधिकार कर लिया। जैन साहित्य में संप्रति को वही स्थान प्राप्त है, जो बौद्ध साहित्य में अशोक को। जैन ग्रंथों में उसे ‘त्रिखंडाधिपति’ कहा गया है। इसके अनुसार संप्रति मौर्य शासकों में सर्वश्रेष्ठ था, और उसके काल में मौर्य साम्राज्य का विकास चरम पर पहुँच गया था। पुराणों के अनुसार उसने नौ वर्ष तक शासन किया। विष्णु पुराण और गार्गी संहिता के अनुसार दशरथ और संप्रति के बाद उल्लेखनीय मौर्य शासक शालिशुक था। दिव्यावदान में संप्रति के पुत्र बृहस्पति का उल्लेख मिलता है। रायचौधरी शालिशुक और बृहस्पति को एक ही मानते हैं। गार्गी संहिता में उसे अत्यंत झगड़ालू और धूर्त शासक बताया गया है, जो अधार्मिक था और प्रजा पर निर्दयतापूर्वक अत्याचार करता था। देववर्मन और सोमशर्मन संभवतः एक ही थे। इसी प्रकार शतधनुष और शतधन्वा भी एक ही व्यक्ति के नाम प्रतीत होते हैं। वृषसेन और पुण्यधर्मन के संबंध में अधिक जानकारी नहीं है। पुराणों में ही नहीं, बल्कि हर्षचरित में भी मगध के अंतिम सम्राट का नाम बृहद्रथ मिलता है। हर्षचरित के अनुसार मौर्यवंश के अंतिम सम्राट बृहद्रथ की उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने सेना के सामने हत्या कर दी और स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।

मौर्य साम्राज्य का पतन

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

चंद्रगुप्त मौर्य की महत्त्वाकांक्षाओं, अनवरत युद्धों, कौटिल्य की कूटनीति और अशोक की बंधुत्व-भावना के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य अशोक के समय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। इतिहास के ग्रंथों में उस समय मौर्य साम्राज्य एक इतिहास रच रहा था, किंतु अशोक की मृत्यु के तुरंत बाद यह विस्तृत साम्राज्य बिखरने लगा और अगले पचास वर्षों में मौर्य साम्राज्य अतीत की वस्तु बन गया। इसके खंडहरों पर सातवाहन और शुंग वंश की नींव पड़ गई। इतने अल्प समय में इतने विस्तृत साम्राज्य का नष्ट हो जाना एक ऐसी घटना है, जिसने इतिहासकारों में साम्राज्य-विनाश के कारणों की जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से जागृत की है। आखिर वे कौन-से कारण थे, जो इसके पतन के लिए उत्तरदायी थे? क्या इसकी शुरुआत अशोक के समय से ही हो गई थी, अथवा इसके लिए परवर्ती शासक ही दोषी थे? क्या इसके लिए अशोक की धम्म-नीति को दोषी ठहराया जा सकता है अथवा मौर्यों के केंद्रीकृत प्रशासन को? वास्तव में, मौर्य साम्राज्य का पतन किसी एक कारण का परिणाम नहीं था। इस साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों और कारणों की समीक्षा निम्नलिखित है:

अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण अशोक के अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारी थे। वंशानुगत साम्राज्य तभी तक बने रह सकते हैं, जब तक योग्य शासकों की शृंखला बनी रहे। सम्राट अशोक के बाद परवर्ती मौर्य शासकों में शासन-संगठन और संचालन की योग्यता का अभाव था, इसलिए वे साम्राज्य की एकता को बनाए रखने में असफल रहे। साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि अशोक का साम्राज्य उसके उत्तराधिकारियों में विभाजित हो गया था। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गांधार में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली थी। विदर्भ भी स्वतंत्र हो गया था और संभवतः सातवाहनों ने दकन में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इस प्रकार, अयोग्य और दुर्बल उत्तराधिकारियों के कारण साम्राज्य के विभिन्न भाग धीरे-धीरे स्वतंत्र होने लगे।

चंद्रगुप्त की विजयों, कौटिल्य की कूटनीति और चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श के बावजूद मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत कई अर्ध-स्वतंत्र राज्य थे, जैसे यवन, काम्बोज, भोज और आटविक राज्य। केंद्रीय सत्ता के दुर्बल होते ही ये प्रदेश स्वतंत्र हो गए। स्थानीय स्वतंत्रता की भावना को चंद्रगुप्त ने अपने सुसंगठित प्रशासन से और अशोक ने अपनी नैतिकता पर आधारित धम्म से कम करने का प्रयास किया, किंतु अयोग्य उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यह भावना और बढ़ी, जो साम्राज्य के विघटन में सहायक सिद्ध हुई।

प्रांतीय शासकों के अत्याचार

हेमचंद्र रायचौधरी के अनुसार मौर्यों के दूरस्थ प्रांतों के शासक अत्याचारी थे। दिव्यावदान में बिंदुसार और अशोक के समय तक्षशिला में विद्रोह होने का उल्लेख है। दोनों बार वहाँ के लोगों ने दुष्ट अमात्यों के विरुद्ध शिकायतें कीं:

न वयं कुमारस्य विरुद्धाः नापि राज्ञो बिंदुसारस्य।

अपितु दुष्टाः अमात्याः अस्माकं परिभवं कुर्वन्ति।।

दिव्यावदान में उल्लिखित अमात्यों (उच्चाधिकारियों) की दुष्टता की पुष्टि अशोक के कलिंग अभिलेख से भी होती है। कलिंग के उच्च अधिकारियों को संबोधित करते हुए अशोक ने कहा है कि नागरिकों की नजरबंदी या उन्हें दी जाने वाली यातना अकारण नहीं होनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्राट अशोक ने प्रत्येक पाँचवें वर्ष केंद्र से निरीक्षण के लिए उच्चाधिकारियों को भेजने की व्यवस्था की थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक ने इन उच्च अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर नियंत्रण रखा, किंतु उनके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ये अमात्य और उच्च अधिकारी अधिक स्वतंत्र हो गए और प्रजा पर अत्याचार करने लगे। परवर्ती मौर्य शासकों में शालिशुक को अत्याचारी शासक बताया गया है (स राष्ट्रं मर्दति घोरं धर्मवादी अधार्मिकम्)। अत्याचार और उत्पीड़न के कारण जनता मौर्य शासन से घृणा करने लगी और अवसर पाते ही अनेक राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।

आर्थिक कारण

कुछ विद्वानों ने आर्थिक कारणों को भी मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण माना है। उत्तरकालीन मौर्यों के शासनकाल में अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। कर-वृद्धि के लिए अनेक उपाय अपनाए गए; अभिनेताओं और गणिकाओं पर भी कर लगाए गए। इस काल के आहत सिक्कों में काफी मिलावट है। सिक्कों में मिलावट होने से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव था।

रोमिला थापर का सुझाव है कि मौर्यों के काल में ही सर्वप्रथम करों को राज्य की आय के प्रमुख साधन के रूप में समझा गया। विकसित अर्थव्यवस्था और राज्य के कार्य-क्षेत्र के विस्तार के साथ करों में वृद्धि होना स्वाभाविक है। उत्तरकालीन मौर्य शासकों ने जो कर लगाए, वे अर्थशास्त्र के अनुरूप थे। संभवतः उत्तरकालीन मौर्यों के शासन में क्षीण नियंत्रण के कारण मिलावट वाले सिक्के अधिक मात्रा में जारी होने लगे, विशेषकर उन प्रदेशों में जो साम्राज्य से अलग हो गए थे। चाँदी की अधिक माँग होने के कारण संभव है कि चाँदी के सिक्कों में चाँदी की मात्रा कम कर दी गई हो। इसके अलावा, कोशांबी की यह धारणा कि ये आहत सिक्के मौर्यकाल के हैं, निश्चित नहीं है। हस्तिनापुर और शिशुपालगढ़ की खुदाइयों से प्राप्त मौर्यकालीन अवशेषों से एक विकसित अर्थव्यवस्था और भौतिक समृद्धि का ही परिचय मिलता है।

फिर भी, हस्तिनापुर और शिशुपालगढ़ की खुदाइयों के आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि मौर्य अर्थव्यवस्था पर कोई दबाव नहीं था। पतंजलि के अनुसार मौर्य शासकों ने कोष-वृद्धि के लिए जनता की धार्मिक भावनाओं को जागृत करने का प्रयास किया। इसके लिए मौर्य शासकों ने देवी-देवताओं की मूर्तियों की बिक्री शुरू कर दी थी। बार-बार पड़ने वाले दुर्भिक्षों से भी आर्थिक संतुलन बिगड़ता गया। इसकी पुष्टि सोहगौरा और महास्थान लेखों से होती है, जिनमें अकाल-पीड़ितों के लिए बनाए गए अन्नागारों का उल्लेख है। परवर्ती काल में दूरस्थ प्रांतों के मौर्य साम्राज्य से अलग होने के कारण भी केंद्रीय कोष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अशोक की दानशीलता से मौर्य अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। दिव्यावदान में अशोक के दान की जो कथाएँ दी गई हैं, उनकी पुष्टि अन्य बौद्ध अनुश्रुतियों से भी होती है। किंतु आर्थिक कारणों को मौर्य साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि मौर्य अर्थव्यवस्था पर दबाव था। सोहगौरा और महास्थान अभिलेखों में उल्लिखित अन्नागार केवल आपातकाल के लिए थे और इन्हें प्रारंभिक मौर्यकाल का ही माना जाता है।

विदेशी विचारों का अस्वीकरण

निहाररंजन राय के अनुसार पुष्यमित्र की राज्य-क्रांति मौर्य अत्याचारों और मौर्यों द्वारा अपनाए गए विदेशी विचारों के, विशेषतः कला के क्षेत्र में अस्वीकरण का परिणाम थी। इस तर्क का आधार यह है कि साँची और भरहुत की कला लोक-परंपरा के अनुकूल और भारतीय है, किंतु मौर्य कला इस लोककला से भिन्न और विदेशी कला से प्रभावित है। निहाररंजन राय के अनुसार जनसाधारण के विद्रोह का दूसरा कारण अशोक द्वारा सामाजिक रीतियों का निषेध था, जिससे जनता अशोक के विरुद्ध हो गई। किंतु यह निश्चित नहीं है कि यह निषेध अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी जारी रखा था। इसके अतिरिक्त, जनता के विद्रोह के लिए यह आवश्यक है कि मौर्यों की प्रजा में विभिन्न स्तरों पर एक संगठित राष्ट्रीय जागरण हो, ताकि वे पुष्यमित्र के समर्थन में मौर्य अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर सकें। किंतु तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसी जागृति की संभावना नहीं दिखाई देती।

प्रशासनिक व्यवस्था

रोमिला थापर ने प्रशासन के संगठन और राज्य या राष्ट्र की अवधारणा को मौर्य साम्राज्य के पतन के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में गिना है। उनके अनुसार मौर्य साम्राज्य के पतन की संतोषजनक व्याख्या सैनिक अकर्मण्यता, ब्राह्मण रोष, सार्वजनिक विद्रोह, या आर्थिक दबाव के आधार पर नहीं की जा सकती। शासन-संगठन का अत्यधिक केंद्रीकरण और राष्ट्र की संकल्पना का अभाव मौर्य साम्राज्य के पतन का महत्त्वपूर्ण कारण था। मौर्य प्रशासन में केंद्रीकरण की प्रधानता थी, और सभी कार्य सम्राट के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे। केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था की सफलता सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी। सम्राट द्वारा ही वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। इन वरिष्ठ पदाधिकारियों की निष्ठा राज्य के प्रति न होकर सम्राट के प्रति होती थी। अशोक की मृत्यु के बाद, विशेषकर जब साम्राज्य का विभाजन हो गया, तो केंद्र का नियंत्रण शिथिल हो गया और एक-एक करके प्रांत साम्राज्य से पृथक होने लगे। दूसरा कारण यह है कि अधिकारी-तंत्र भली-भाँति प्रशिक्षित नहीं था। प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर चुने हुए अधिकारी ही राजनीतिक हलचल के बीच शांति और व्यवस्था बनाए रखने में समर्थ हो सकते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसी व्यवस्था पाई जाती है। किंतु थापर का यह मत स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थशास्त्र से स्पष्ट है कि सभी उच्च कर्मचारी योग्यता के आधार पर नियुक्त किए जाते थे। यथार्थ परीक्षण के आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति की जो व्यवस्था मौर्यकाल में थी, वह प्राचीन या मध्यकालीन भारत में कहीं और नहीं पाई जाती और आधुनिक प्रतियोगिता परीक्षा-पद्धति की कल्पना उस युग में करना ऐतिहासिक दृष्टि से अनुचित है। शासन-संगठन के संबंध में यह भी कहा गया है कि ऐसी प्रतिनिधि सभा का अभाव था, जो राजा के कार्यों पर नियंत्रण रखती। किंतु राजतंत्र पर आधारित सभी प्राचीन और मध्यकालीन राज्यों की यही विशेषता रही है। ऐसी स्थिति में प्रतिनिधि संस्था के अभाव को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण नहीं माना जा सकता।

यह भी कहा गया है कि मौर्यकालीन राजनीतिक व्यवस्था में राज्य की संकल्पना का अभाव था। राज्य की संकल्पना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि राज्य को राजा, शासन और सामाजिक व्यवस्था से ऊपर माना जाता है। राज्य वह सत्ता है, जिसके प्रति व्यक्ति की शासन और समाज से परे पूर्ण निष्ठा या भक्ति होती है। संपूर्ण मौर्य साम्राज्य में समान रीति-रिवाज, भाषा, और परंपराएँ नहीं थीं। आर्थिक दृष्टि से उत्तरी भारत समृद्ध था, जबकि दकन का प्रदेश अविकसित और आर्थिक रूप से कमजोर था। किंतु मौर्यकाल में राज्य की संकल्पना विद्यमान थी। कौटिल्य ने जिस सप्तांग राज्य की कल्पना की थी, वह अत्यंत विकसित थी। यदि यह मान भी लिया जाए कि मौर्य युग में राज्य की संकल्पना नहीं थी, तो यूनान को छोड़कर विश्व में प्राचीन और मध्यकाल में ऐसी संकल्पना कहीं नहीं पाई जाती, जहाँ राज्य को राजा और समाज से ऊपर माना जाता हो और जिसके प्रति व्यक्ति की निष्ठा राजा और समाज से अधिक हो। राष्ट्रीय भावना के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। राष्ट्र की भावना आधुनिक राजनीतिक तत्त्व है। प्राचीन और मध्यकाल में इसकी खोज करना व्यर्थ है। एथेंस और स्पार्टा जैसे छोटे देशों में यह भावना संभव थी, किंतु एक साम्राज्य में, जिसमें अनेक राज्यों और जातियों के लोग रहते हों, इसकी कल्पना करना असंगत है। इस प्रकार रोमिला थापर द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त कारणों में से कोई भी मौर्य साम्राज्य के विघटन का प्रमुख कारण नहीं माना जा सकता है।

मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार

मौर्य साम्राज्य के पतन का एक कारण उसका अत्यधिक विस्तार था। इस विस्तृत साम्राज्य पर नियंत्रण करना सरल नहीं था, इसलिए इसका प्रांतों में विभाजन किया गया था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन उचित था, किंतु इसके दूरगामी परिणाम साम्राज्य के लिए अहितकर सिद्ध हुए। प्रांतीय अधिकारियों को जब भी केंद्रीय शक्ति की दुर्बलता का आभास हुआ, उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, जिससे साम्राज्य में अराजकता और अव्यवस्था का वातावरण निर्मित हुआ।

गृह-कलह और दरबारी षड्यंत्र

परवर्ती मौर्य शासकों की गृह-कलह और परस्पर ईर्ष्या ने भी मौर्य साम्राज्य को कमजोर किया। इस अंतर्कलह और दरबारी षड्यंत्र के प्रमाण अशोक के समय से ही मिलते हैं, जब उन्होंने राधागुप्त की सहायता से सुसीम को हटाकर सत्ता पर अधिकार किया था। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य का विभाजन इसका स्पष्ट प्रमाण है। मालविकाग्निमित्र से पता चलता है कि बृहद्रथ के समय राजदरबार में दो गुट बन गए थे—एक सचिव गुट और दूसरा सेनापति गुट। दोनों गुटों में सतत प्रतिद्वंद्विता थी। अंततः सेनापति गुट का प्रमुख पुष्यमित्र शुंग सेना के समक्ष राजा बृहद्रथ की हत्या करके सत्ता प्राप्त करने में सफल हो गया।

अशोक का उत्तरदायित्व

अनेक इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अशोक और उनकी नीतियों को उत्तरदायी ठहराया है। कुछ इतिहासकार अशोक की ब्राह्मण-विरोधी नीति को, तो कुछ उनकी अहिंसावादी नीति को इसका कारण मानते हैं।

अशोक की ब्राह्मण-विरोधी नीति

महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने अशोक की धार्मिक नीति को साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण माना है। उनके अनुसार अशोक की धार्मिक नीति बौद्धों के पक्ष में थी और ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों तथा उनकी सामाजिक श्रेष्ठता पर कुठाराघात करती थी। अशोक ने पशुबलि पर रोक लगाकर ब्राह्मण वर्ग को नाराज कर दिया, क्योंकि वे यज्ञादि संपन्न करते थे, जिनमें पशुबलि एक महत्त्वपूर्ण कृत्य माना जाता था। ब्राह्मण यज्ञ संपन्न कराते थे और मनुष्यों तथा देवताओं के बीच मध्यस्थता करते थे। अतः अशोक के इस कार्य से ब्राह्मणों की शक्ति और सम्मान को धक्का लगा। अपने रूपनाथ लघुस्तंभलेख में अशोक स्पष्ट कहता है कि उसने भू-देवों को मिथ्या सिद्ध कर दिया। ब्राह्मण भू-देव माने जाते थे, जिससे उनकी प्रतिष्ठा कम हुई। इसके अतिरिक्त, अशोक ने धम्म-महामात्रों की नियुक्ति करके न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में दंड-समता और व्यवहार-समता का सिद्धांत लागू किया, जो ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों का हनन था।

अशोक पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को जिस प्रकार प्रोत्साहन दिया, वह ब्राह्मण धर्म के लिए चुनौती था और ब्राह्मण वर्ग अपने को उपेक्षित महसूस करने लगा था। शास्त्री जी का अनुमान है कि शक्तिशाली अशोक के समय तक ब्राह्मणों पर नियंत्रण बना रहा, किंतु उनकी मृत्यु के बाद परवर्ती मौर्य शासकों और ब्राह्मणों में संघर्ष शुरू हो गया, जिसकी चरम परिणति पुष्यमित्र के विद्रोह में दिखाई देती है।

हेमचंद्र रायचौधरी, हरप्रसाद शास्त्री के मतों की समीक्षा कर उन्हें निराधार सिद्ध करते हैं। रायचौधरी का कहना है कि एक तो अशोक ने पशुबलि पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया था। दूसरे, स्वयं ब्राह्मण ग्रंथों में भी यज्ञादि अवसरों पर पशुबलि के विरोध के स्वर स्पष्ट सुनाई देते हैं। उपनिषद् पशुबलि और हिंसा का निषेध करते हैं। मुंडकोपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है कि यज्ञ टूटी नौकाओं के समान हैं, और जो मूढ़ इन्हें श्रेय मानकर इनकी प्रशंसा करते हैं, वे बार-बार जरामृत्यु को प्राप्त होते हैं।

यह कहना कि अशोक ने भू-देवों को मिथ्या सिद्ध कर दिया, उचित नहीं है। वास्तव में, शास्त्री जी ने रूपनाथ लघुशिलालेख की पदावली का गलत अर्थ लगाया है। सिलवां लेवी के अनुसार इसका अर्थ है, “भारतवासी, जो पहले देवताओं से अलग थे, अब अपने उन्नत चरित्र के कारण देवताओं से मिल गए।” इसमें ब्राह्मणों के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार धम्म-महामात्रों के दायित्वों में भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं है, जिसे ब्राह्मण-विरोधी कहा जा सकता है। वे ब्राह्मण, श्रमण आदि सभी के कल्याण के लिए थे। राजूकों जैसे न्यायाधिकारियों को जो अधिकार दिए गए थे, वे ब्राह्मणों के अधिकारों पर आघात करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि दंड-विधान को अधिक लोकहितकारी और मानवीय बनाने के उद्देश्य से प्रेरित थे। उनके तीसरे, चौथे और पाँचवें लेखों से स्पष्ट है कि वे ब्राह्मणों का सम्मान करते थे। इस बात का कोई सबल प्रमाण नहीं है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया। यद्यपि वे भाब्रू लेख में बौद्ध संघ को प्रणाम करते हैं, किंतु अशोक उस शैक्षिक संस्थान में अतिथि के रूप में गए थे। इसलिए एक बौद्ध संस्थान में बौद्ध संघ को प्रणाम करना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया। इसके विपरीत, अपने शिलालेखों में वे कहते हैं कि सभी धर्मों में संवृद्धि हो, अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरे धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए। परवर्ती मौर्यों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष होने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। राजतरंगिणी से पता चलता है कि कश्मीर के शासक जालौक और ब्राह्मणों के बीच मधुर संबंध थे। सेनापति के पद पर पुष्यमित्र की नियुक्ति स्वयं इस बात का प्रमाण है कि प्रशासन में उच्च पदों पर ब्राह्मणों की नियुक्ति की जाती थी।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार सेनानी पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह को ब्राह्मणों द्वारा संगठित क्रांति कहना भी उचित नहीं है। उनके अनुसार यह एक सैनिक क्रांति थी, जिसमें धर्म का पुट नहीं था। वास्तव में, पुष्यमित्र की राज्य-क्रांति का कारण सेना पर पूर्ण अधिकार रखने वाले सेनापति की महत्त्वाकांक्षा थी, न कि असंतुष्ट ब्राह्मणों के समुदाय का नेतृत्व। नीलकंठ शास्त्री भी प्रस्ताव करते हैं कि अशोक की बौद्ध नीति संकीर्ण नहीं थी। उनकी धार्मिक नीति विश्वात्मक सहिष्णुता और विविध धर्मों में मैत्री स्थापित करने की थी। पुष्यमित्र की प्रधान सेनापति के रूप में नियुक्ति यह सिद्ध करती है कि परवर्ती मौर्य शासक ब्राह्मणों को प्रतिक्रियावादी नहीं मानते थे। मालविकाग्निमित्र से भी पता चलता है कि बृहद्रथ की हत्या एक प्रकार से राजदरबार की गुटबंदी का परिणाम थी।

अशोक की शांति और अहिंसा की नीति

आर.डी. बनर्जी, आर.के. मुकर्जी, भंडारकर, रायचौधरी, और एन.एन. घोष जैसे इतिहासकारों के अनुसार, अशोक की शांति और अहिंसा की नीति ने मौर्य साम्राज्य के पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बनर्जी के अनुसार अशोक के आदर्शवाद और धार्मिक नीति से अनुशासन प्रभावित हुआ। जब भेरीघोष का स्थान धम्म-विजय ने ले लिया, तो स्वयं साम्राज्य के पतन की घंटी बज गई।

भंडारकर का विचार है कि विजय के स्थान पर धम्म-विजय की नीति अपनाने का परिणाम आध्यात्मिक दृष्टि से शानदार होने के बावजूद राजनीतिक दृष्टि से विनाशकारी सिद्ध हुआ। रायचौधरी भी मानते हैं कि अशोक की शांतिवादी नीति ने मौर्य साम्राज्य की सैन्य शक्ति को दुर्बल कर दिया, जिसके कारण वह यवनों के आक्रमण का सामना करने में असमर्थ हो गया। अशोक स्वयं अपने चौथे शिलालेख में कहते हैं कि उनके राज्य में भेरीघोष अब धम्म-घोष में बदल गया है। एन.एन. घोष का मानना है कि कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने रणचंडी के आह्वान की नीति को त्याग दिया। राधाकुमुद मुकर्जी भी मानते हैं कि मौर्य साम्राज्य के पतन में अशोक की धार्मिक नीति का योगदान था, किंतु यह पतन का एकमात्र कारण नहीं था।

साम्राज्य के पतन के उत्तरदायी कारणों की दृष्टि से देखा जाए, तो उपर्युक्त आरोप निराधार प्रतीत होते हैं, क्योंकि अशोक की बौद्ध नीति शांतिवादी थी, इसे सिद्ध करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं है। यदि अशोक इतना अहिंसावादी और शांतिवादी होता, तो उन्होंने अपने राज्य में मृत्युदंड को बंद करवा दिया होता। अभिलेखों से स्पष्ट है कि उनकी सैन्य शक्ति सुदृढ़ थी। अपने तेरहवें शिलालेख में वह सीमांत प्रदेशों के लोगों और जंगली जनजातियों को स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि वह केवल उन्हें ही क्षमा कर सकते हैं, जो इसके योग्य हैं। अशोक ने न तो अपनी सेना भंग की थी और न ही उनका अनुशासन किसी प्रकार कम हुआ था। वास्तव में, यदि अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त और लौह की नीति का अनुसरण करते, तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन कभी न कभी अवश्य होता। किंतु सभ्य संसार के एक बड़े भाग पर भारतीय संस्कृति का जो नैतिक आधिपत्य स्थापित हुआ, जिसके लिए अशोक ही मुख्य कारण थे, वह शताब्दियों तक उनकी ख्याति का स्मारक बना रहा और आज लगभग दो हजार वर्षों से अधिक समय बीतने के बाद भी, यह पूर्णतः लुप्त नहीं हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक की शांति और अहिंसा की नीति को मौर्य साम्राज्य के अधःपतन के लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता।

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