क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय (Revival of the revolutionary movement)

एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनकारियों को बुरी तरह कुचल दिया […]

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह (Revival of the revolutionary movement: HRA, HSRA and Bhagat Singh)

एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनकारियों को बुरी तरह कुचल दिया गया। अनेक नेता जेल में डाल दिए गए और बाकी भूमिगत हो गए या इधर-उधर बिखर गए। किंतु राष्ट्रवादी जनमत को संतुष्ट करने और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को लागू करने हेतु सद्भावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए सरकार ने 1920 ई. के शुरू में क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को आम माफी देकर जेल से रिहा कर दिया। गांधी, चितरंजन दास और अन्य नेताओं की अपील पर जेल से रिहा क्रांतिकारियों में से अधिकांश सशस्त्र क्रांति का रास्ता छोड़कर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

चौरी चौरा कांड (4 फरवरी 1922 ई.) के कारण असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगन से इन जुझारू नवयुवकों ने राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति तथा अहिंसा के सिद्धांत पर प्रश्नचिह्न लगाना प्रारंभ कर दिया। क्रांतिकारी विचारधारा के प्रायः सभी प्रमुख नेताओं, जैसे- योगेशचंद्र चटर्जी, सूर्यसेन, भगतसिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद, शिववर्मा, भगवतीचरण बोहरा, जयदेव कपूर व जतीन दास ने गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। असहयोग आंदोलन के दौरान 16 वर्षीय किशोर चंद्रशेखर जब पहली और अंतिम बार गिरफ्तार हुए थे, तब वह बार-बार ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारे लगा रहे थे।

स्वराज्यवादियों के संसदीय संघर्ष तथा अपरिवर्तनवादियों (नो चेंजर्स) के रचनात्मक कार्य भी इन जुझारू युवाओं को आकृष्ट नहीं कर सके। अधिकांश युवकों का अहिंसक आंदोलन की विचारधारा से विश्वास उठ गया और उन्हें लगने लगा कि देश को सिर्फ क्रांतिकारी मार्ग द्वारा ही मुक्त कराया जा सकता है। फलतः बंगाल, संयुक्त प्रांत और पंजाब में शिक्षित नवयुवक क्रांतिकारी तरीकों की ओर आकृष्ट होने लगे। बंगाल में पुरानी अनुशीलन तथा युगांतर समितियाँ पुनः जाग उठीं तथा उत्तरी भारत के लगभग सभी प्रमुख नगरों में क्रांतिकारी संगठन बन गए।

प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् साम्यवादी विचारों के प्रसार और अनेक वामपंथी संगठनों ने भी क्रांतिकारी आंदोलन के पुनरोदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा 1922 ई. के बाद से ही ‘आत्मशक्ति’, ‘सारथी’ और ‘बिजली’ जैसी बंगला पत्रिकाओं में, जिनके संपादक प्रायः भूतपूर्व कैदी होते थे, ऐसे अनेक लेख और संस्मरण छापे जाते थे जिनमें पुराने क्रांतिकारियों का गौरवगान किया जाता था। सचिन सान्याल के ‘बंदी जीवन’ का, जो हिंदी और गुरुमुखी में भी छपा था, युवा पीढ़ी पर भारी प्रभाव पड़ा। बंगाल के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1926 ई. में ‘पथेर दाबी’ प्रकाशित किया, जिसमें शहरी मध्यवर्ग की क्रांति की स्तुति की गई थी।

इस चरण के क्रांतिकारी आंदोलन का झुकाव कुछ-कुछ समाजवाद की ओर होने लगा था। पहली बार क्रांतिकारियों ने कांग्रेस का विकल्प ढूँढ़ने के उद्देश्य से स्वतंत्रता के बाद समाजवाद पर आधारित एक नए समाज की संरचना का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। 1925 ई. के एक पर्चे में, जिसे शायद सचिन सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए लिखा था, वैयक्तिक आतंकवाद का इस आधार पर पक्ष लिया गया था कि नए तारे के जन्म के लिए उथल-पुथल आवश्यक है, लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य था, उन सभी व्यवस्थाओं की समाप्ति, जो मानव द्वारा मानव के शोषण को संभव बनाती है।

इस चरण के क्रांतिकारी संगठनों में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए.), नौजवान भारत सभा तथा हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) और बंगाल में सूर्यसेन की भारतीय गणतंत्र सेना की क्रांतिकारी गतिविधियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.आर.ए.)

सबसे पहले उत्तर भारत के क्रांतिकारी संगठित होने शुरू हुए। पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं बिहार में क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन मुख्य रूप से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) ने किया। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना अक्टूबर 1924 ई. को कानपुर में क्रांतिकारी युवकों के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में की गई, जिसमें संयुक्त प्रांत में रहनेवाले बंगाली सचिन सान्याल और योगेश चटर्जी के अलावा अशफाकउल्ला खाँ, रोशनसिंह और रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे पुराने नेताओं के साथ भगतसिंह, शिववर्मा, सुखदेव, भगवतीचरण बोहरा और चंद्रशेखर आजाद जैसे नए नेता भी शामिल हुए थे। इस संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ (यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया) की स्थापना करना था।

1925 ई. में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के घोषणा-पत्र में कहा गया था कि इसका उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है। एच.आर.ए. ने रेलवे तथा परिवहन के अन्य साधनों तथा इस्पात और जहाज निर्माण जैसे बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखा। किसानों और मजदूरों का संगठन बनाने तथा संगठित हथियारबंद क्रांति के लिए काम करने का भी फैसला किया।

ब्रिटिश सरकार ने इस क्रांतिकारी संगठन पर कड़ा प्रहार किया। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के नेता सचिन सान्याल बाँकुड़ा में गिरफ्तार कर लिये गए। योगेश चटर्जी कानपुर में एच.आर.ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़े गए और हजारीबाग जेल में बंद कर दिए गए। दोनों प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के कारण रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन का भी उत्तरदायित्व आ गया।

क्रांतिकारियों द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने के लिए धन की आवश्यकता पहले भी थी, किंतु अब यह आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई थी। धन प्राप्त करने के लिए क्रांतिकारियों ने 7 मार्च 1925 ई. को बिचपुरी और 24 मई 1925 ई. को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं, किंतु इन डकैतियों से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, जबकि दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मारे भी गए थे। अंततः धन की व्यवस्था करने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल ने 8 अगस्त 1925 ई. को शाहजहाँपुर में बैठक कर ट्रेन से आने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई।

काकोरी ट्रेन एक्शन

ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन एक्शन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के क्रांतिकारियों द्वारा सरकारी खजाना लूटने की एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी, जो 9 अगस्त 1925 ई. को घटित हुई थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के केवल दस सदस्यों- शाहजहाँपुर के रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खाँ, मुरारीशर्मा तथा बनवारीलाल, बंगाल के राजेंद्र लाहिड़ी, सचिन सान्याल तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस के चंद्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया के मुकुंदीलाल ने काकोरी ट्रेन एक्शन को अंजाम दिया।

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह (Revival of the revolutionary movement: HRA, HSRA and Bhagat Singh)
अशफाक उल्ला खाँ, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और ठाकुर रोशनसिंह

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों की योजनानुसार 9 अगस्त 1925 ई. को 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींचकर ट्रेन को रोक लिया। बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाकउल्ला खाँ, चंद्रशेखर आजाद व 6 अन्य सहयोगियों की सहायता से रेलगाड़ी पर धावा बोलकर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। इस ट्रेन एक्शन में जर्मनी के बने चार माउजर पिस्तौल काम में लाये गए और अहमद अली नामक एक यात्री मारा गया। जल्दबाजी में चाँदी के सिक्कों और नोटों से भरे चमड़े के थैले को चादरों में बाँधकर क्रांतिकारी वहाँ से भाग निकले, लेकिन एक चादर वहीं छूट गई। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन एक्शन को बड़ी गंभीरता से लिया।

ब्रिटिश सरकार ने काकोरी ट्रेन एक्शन में शामिल लोगों की गिरफ़्तारी के लिए 5000 रुपये का इनाम घोषित किया और इससे संबंधित इश्तहार सभी रेलवे स्टेशनों और थानों पर चिपकाये गए। फलतः तीन महीने के अंदर इस ट्रेन एक्शन में भाग लेने के आरोप में 40 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया, जबकि इसमें मात्र 10 लोग ही सम्मिलित थे। ब्रिटिश पुलिस सिर्फ़ चंद्रशेखर आजाद को गिरफ्तार नहीं कर सकी।

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह (Revival of the revolutionary movement: HRA, HSRA and Bhagat Singh)
काकोरी ट्रेन एक्शन

ब्रिटिश सरकार ने काकोरी ट्रेन एक्शन के आरोपियों पर ‘काकोरी षड्यंत्र केस’ के नाम से मुकदमा चलाया। इस ऐतिहासिक मुकदमे का अंतिम निर्णय 22 अगस्त 1927 ई. को सुनाया गया, जिसके अनुसार रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खाँ, ठाकुर रोशनसिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी, शचींद्रनाथ सान्याल, योगेशचंद्र चटर्जी, मुकुंदीलाल तथा गोविंदचरण को आजीवन कारावास और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य, विष्णुशरण दुब्लिश और रामकृष्ण खत्री को 10 वर्ष की सजा मिली। मन्मथनाथ गुप्त, जिनके गोली चलाने से अहमद अली मारा गया था, को 14 वर्ष की सजा दी गई। सुंदर हस्तलेख के कारण प्रणवेश चटर्जी की सजा 5 वर्ष के बजाय 4 वर्ष कर दी गई। एक दूसरे क्रांतिकारी रामदुलारे त्रिवेदी को पाँच वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई। इस ट्रेन एक्शन में सबसे कम 3 वर्ष की सजा रामनाथ पांडेय को मिली।

ठाकुर मनजीतसिंह राठौर, मदनमोहन मालवीय और बैरिस्टर मोहनलाल सक्सेना ने काकोरी ट्रेन एक्शन के मृत्युदंड-प्राप्त कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदलवाने के बहुत प्रयास किए, किंतु सफलता नहीं मिली। अंततः 17 दिसंबर 1927 ई. को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा जेल में और 19 दिसंबर 1927 ई. को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में, ठाकुर रोशनसिंह को प्रयागराज के नैनी जेल में और अशफाकउल्ला खाँ को फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। रामप्रसाद बिस्मिल 19 दिसंबर 1927 ई. को यह कहते हुए हँसते हुए फाँसी पर लटक गए: ‘‘मैं अंग्रेजी राज्य के पतन की कामना करता हूँ।’’ रोशनसिंह वंदेमातरम् गाते हुए शहीद हो गए। इसी प्रकार अशफाकउल्ला खाँ ने कहा : ‘‘आप सब एक होकर नौकरशाही का सामना कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसा मुझे साबित किया गया है।’’

नौजवान भारत सभा

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में पंजाब के नवयुवकों द्वारा स्थापित ‘नौजवान भारत सभा’ की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। नौजवान भारत सभा की स्थापना मूल रूप से लाहौर में मार्च 1926 ई. में सरदार भगतसिंह ने भगवतीचरण बोहरा, सुखदेव, यशपाल, छबीलदास आदि क्रांतिकारियों के साथ मिलकर की थी। भगतसिंह नौजवान भारत सभा के सचिव और भगवतीचरण प्रचारमंत्री थे। 1907 ई. में किशनसिंह के घर जनमे भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह और स्वर्णसिंह भी क्रांतिकारी थे। भगवतीचरण बोहरा ने ‘नौजवान भारत सभा’ का ऐतिहासिक घोषणापत्र अंग्रेजी में तैयार किया था, जो उनकी वैचारिकता, कूटनीति, दूरदर्शिता और सशक्त शैली का स्पष्ट प्रमाण है। बोहरा की एक लघु पुस्तिका ‘मैसेज ऑफ इंडिया’ पंजाब के नौजवानों में काफी लोकप्रिय थी। नौजवान भारत सभा के अन्य प्रमुख सदस्यों में केदारनाथ सहगल, सोढ़ी पिंडीदास, आनंदकिशोर मेहता, अब्दुल मजीद, मुहम्मद तुफैल, एहसान इलाही, गोपाल सिंह कौमी, कपिलदेव शर्मा तथा सरदूलसिंह जैसे लोग सम्मिलित थे।

नौजवान भारत सभा का मुख्य उद्देश्य संपूर्ण भारत में स्वतंत्र मज़दूर और किसानों के राज्य की स्थापना के लिए पंजाब के युवा छात्रों और कार्यकर्त्ताओं में संवैधानिक संघर्ष के विरुद्ध क्रांतिकारी विचारधाराओं का प्रचार करना, संगठित भारत राष्ट्र का निर्माण करने के लिए नौजवानों में देशभक्ति की भावना को जाग्रत करना तथा गैर-सांप्रदायिक आर्थिक, औद्योगिक और सामाजिक आंदोलनों के साथ सहानुभूति प्रकट करना था। दरअसल, भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के दलित, शोषित व गरीब तबके के जन-आंदोलन का विकास करना चाहते थे। यही कारण है कि इस सभा ने पहली बार स्वतंत्रता के बाद समाजवादी समाज की स्थापना की योजना को प्रस्तुत किया था।

नौजवान सभा के कार्यक्रम

नौजवान भारत सभा अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रचार करने के लिए नैतिक, साहित्यिक और सामाजिक विषयों पर बहसों तथा स्वदेशी वस्तुओं, एकता, साधारण जीवन-स्तर, शारीरिक दृढ़ता, भारतीय संस्कृति और सभ्यता आदि विषयों पर व्याख्यान आयोजित करती थी। इस सभा ने अपनी जनसभाओं, बयानों, पर्चों आदि के माध्यम से क्रांतिकारियों के उद्देश्यों तथा उनके विचारों का प्रचार किया और देश के नवयुवकों का स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने का आह्वान किया। भगतसिंह ने स्वयं शचींद्रनाथ सान्याल की पुस्तक ‘बंदी जीवन’ का पंजाबी में अनुवाद किया। नौजवान सभा की बैठकों में पं. जवाहरलाल नेहरू, भूपेंद्रनाथ दत्त तथा श्रीपाद डांगे जैसे लोगों ने भी भाषण दिए थे।

नौजवान सभा के तत्वावधान में भगतसिंह और सुखदेव ने खुले तौर पर काम करने के लिए लाहौर छात्रसंघ का गठन किया, जो नौजवान भारत सभा की सह-संस्था थी। भगतसिंह कहा करते थे कि गाँव और कारखाने ही वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएँ हैं। अप्रैल 1928 ई. में अमृतसर में एक सम्मेलन में नौजवान सभा ने किर्ती किसान पार्टी के साथ मिलकर पंजाब के प्रत्येक गाँव में अपनी शाखाएँ खोलने का निर्णय किया, जिससे सभा और कीर्ति किसान पार्टी का संबंध और मजबूत हो गया। नौजवान भारत सभा का दूसरा अधिवेशन लाहौर में फरवरी 1929 ई. में हुआ, जिसमें कीर्ति किसान पार्टी के सोहनसिंह जोश, एम.ए. मजीद और हरसिंह चकवालिया क्रमशः अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सेक्रेटरी चुने गए थे। बाद में, मेरठ षड्यंत्र के सिलसिले में इनकी गिरफ्तारी के कारण रामकिशन, दौलतराम और एहसान इलाही इन पदों पर आसीन हुए। इस सभा ने जालियाँवाला बाग हत्याकांड की बरसी के दिन 13 अप्रैल 1929 ई. को अमृतसर में अपना प्रथम प्रांतीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता केदारनाथ सहगल ने की, जो 1915 ई. के लाहौर षड्यंत्र केस में आरोपी रह चुके थे। किंतु लाहौर षड्यंत्र केस के बाद सभा की गुप्त गतिविधियों की भनक पुलिस को लग गई और 3 मई 1930 ई. को यह सभा ‘राजद्रोहात्मक सभा कानून’ के अंतर्गत अवैध घोषित कर दी गई।

नौजवान भारत सभा की गतिविधियाँ

नौजवान भारत सभा ने पंजाब के राजनीतिक इतिहास में 1926-29 के मध्य युवकों में ब्रिटिश विरोधी तथा क्रांतिकारी विचारों का प्रसार कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस सभा ने अन्य पार्टियों द्वारा किए जाने वाले ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों का समर्थन किया और उनमें भाग लिया। इस सभा ने सभी राजनीतिक दलों के साथ मिलकर साइमन कमीशन का बहिष्कार के लिए विरोध-प्रदर्शन किया और जून 1928 ई. में कांग्रेस के बारदोली सत्याग्रह का समर्थन किया। नौजवान भारत सभा ने बंगाल के क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा के, जिसने बंगाल में एक अंग्रेज डे की हत्या की थी, शहादत की प्रशंसा की और गदर पार्टी के शहीद युवक शिरोमणि करतार सिंह सराभा का बलिदान दिवस एक उत्सव के रूप में मनाया। इस सभा ने रूस के साथ ‘मित्रता-सप्ताह’ और काकोरी कांड की स्मृति में ‘काकोरी दिवस’ मनाने की परंपरा शुरू की, जिससे नवयुवकों में सरकार विरोधी भावनाओं का संचार हुआ। यही नहीं, इस सभा ने देश के अन्य भागों में फैले क्रांतिकारियों की गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करने और उन्हें एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया। इस प्रकार नौजवान भारत सभा एक प्रकार से सितंबर 1928 ई. में स्थापित क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) की पृष्ठभूमि थी।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.)

काकोरी ट्रेन एक्शन उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के लिए एक बड़ा आघात अवश्य था, किंतु वह क्रांतिकारी गतिविधियों को रोक नहीं सका। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को पुनः संगठित करने के उद्देश्य से चंद्रशेखर आजाद ने पंजाब, संयुक्त प्रांत आगरा व अवध, राजपूताना, बिहार एवं उड़ीसा आदि अनेक प्रांतों के जुझारू नवयुवकों को संघ से जोड़ा और पंजाब के प्रतिभाशाली युवा विद्यार्थी भगतसिंह के नेतृत्व में उभरनेवाले समूह के साथ संबंध स्थापित किया। किंतु अभी नए संगठन के गठन पर मतभेद था क्योंकि इस समय युवा क्रांतिकारी समाजवादी विचारधारा से गहराई से प्रभावित थे।

8-9 सितंबर 1928 ई. को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के मैदान में उत्तर भारत के युवा क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें विजयकुमार सिन्हा, भगतसिंह, शिववर्मा, जयदेव कपूर, सुखदेव, कुंदनलाल, फणींद्रनाथ घोष, मनमोहन बनर्जी, सुरेंद्र पांडेय और ब्रह्मदत्त मिश्र शामिल हुए थे। सुरक्षा कारणों से चंद्रशेखर आजाद इस बैठक में सम्मिलित नहीं हुए थे। बैठक में भगतसिंह ने अपनी नौजवान भारत सभा का हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में विलय कर दिया और व्यापक विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एच.एस.आर.ए.) कर दिया गया। एच.एस.आर.ए. का अंतिम उद्देश्य स्वाधीनता प्राप्त करना और भारत में एक समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना था।

एच.एस.आर.ए. की योजना और कार्यक्रम

एच.एस.आर.ए. ने अपने कार्यों के संचालन के लिए तीन विभागों का गठन किया- संगठन, प्रचार और सामरिक विभाग। संगठन का दायित्व विजयकुमार सिन्हा, प्रचार का दायित्व भगतसिंह और सामरिक विभाग का दायित्व चंद्रशेखर आजाद को सौंपा गया था। इन क्रांतिकारियों ने जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने के लिए ‘द फिलॉसफी ऑफ द बॉम्ब’ (बम का दर्शन) नामक एक लघु पुस्तिका प्रकाशित किया, जिसे चंद्रशेखर आजाद के अनुरोध पर भगवतीचरण बोहरा ने तैयार किया था।

एच.एस.आर.ए. ने अपने कार्यकर्ताओं को बम बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए बंगाल के क्रांतिकारियों को आमंत्रित करने का फैसला किया और धन इकट्ठा करने तथा देश में सशस्त्र क्रांति लाने के लिए बैंक, डाकखाने एवं सरकारी खज़ानों को लूटने का भी निश्चय किया। एच.एस.आर.ए. के क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन करने और इसमें गाँव तथा शहरों के युवकों को भरती कर सैनिक शिक्षा देने का भी निर्णय किया। इस प्रकार पहली बार क्रांतिकारियों ने स्पष्ट तौर पर आजादी के बाद समाजवादी समाज स्थापित करने की घोषणा की और गांधीवादी विचारधारा का विकल्प लोगों के सामने रखा।

एच.एस.आर.ए. के अधिकतर नेता और कार्यकर्त्ता शहरों के मध्य वर्ग और निचले मध्य वर्ग से थे। इसलिए उन्होंने संघर्ष के लिए जनता को संगठित करने की बजाय अपने वीरतापूर्ण कार्यों और वैयक्तिक आतंकवाद के द्वारा लोगों तक अपना संदेश पहुँचाने का निश्चय किया। यद्यपि ये लोग सिद्धांततः आतंकवाद के विरुद्ध थे, लेकिन क्रांति लाने के लिए आतंकवाद को एक आवश्यक तरीक़ा समझते थे। इनके लिए आतंकवाद क्रांति का एक आवश्यक और अपरिहार्य चरण था। एच.एस.आर.ए. ने अपने घोषणा-पत्र में लिखा था: ‘आतंकवाद पूर्ण क्रांति नहीं है और क्रांति आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती। आतंकवाद शोषणकर्ताओं के दिल में डर बैठा देता है, यह शोषित जनता के मन में बदला लेने और मुक्ति की आशाएँ जगा देता है, और यह डाँवाडोल मनःस्थिति वालों में साहस और आत्मविश्वास भर देता है। यह शासक वर्ग की श्रेष्ठता के जादू को तोड़ डालता है और दुनिया की नज़रों में आम जनता की हैसियत को ऊँचा उठा देता है, क्योंकि यही राष्ट्र को स्वतंत्र कराने की लालसा का सबसे अधिक विश्वासोत्पादक प्रमाण है।’ एच.एस.आर.ए. का नारा था: ‘हम दया की भीख नहीं माँगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक की लड़ाई है- यह फैसला है जीत या मौत।’

सॉण्डर्स हत्याकांड

यद्यपि क्रांतिकारी धीरे-धीरे व्यक्तिगत वीरता के कार्यों और हिंसात्मक गतिविधियों से दूर हटने लगे थे, किंतु दिसंबर 1927 ई. में राजेंद्र लाहिड़ी, अशफाकउल्ला खाँ, रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ तथा रोशनसिंह को एक साथ फाँसी दिए जाने के बाद जब पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज से घायल पंजाब के नेता लाला लाजपतराय नवंबर 1928 ई. में शहीद हो गए, तो युवा क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह ‘राष्ट्र का अपमान’ था, जिसका उत्तर केवल ‘खून का बदला खून’ था।

लाहौर में एच.एस.आर.ए. के तीन सदस्यों- भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु ने 17 दिसंबर 1928 ई. को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेम्स ए. स्कॉट को मारने की योजना बनाई, किंतु धोखे में सॉण्डर्स और उसके रीडर चरनसिंह गोलियों से भून दिए गए। अगले दिन लाहौर की दीवारों पर चिपके एक इश्तिहार में लिखा था: ‘‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपतराय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है।’’ सॉण्डर्स की हत्या को इन शब्दों द्वारा न्यायोचित करार दिया गया था : ‘‘हमें सॉण्डर्स की हत्या का अफसोस है, किंतु वह उस अमानवीय व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं।’’ सॉण्डर्स हत्याकांड से ब्रिटिश सत्ता काँप उठी।

सॉण्डर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी आंदोलन के नायक राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता मेल से नया इतिहास बनाने लाहौर से कलकत्ता पहुँच गए। अब एच.एस.आर.ए. के नेताओं ने निर्णय किया कि अपने बदले हुए राजनीतिक उद्देश्य तथा जनक्रांति की आवश्यकता के बारे में जनता को बताया जाये। इसके लिए क्रांतिकारियों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई, ताकि अदालत को मंच के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। इस कार्य के लिए पहले बटुकेश्वर दत्त और विजयकुमार सिन्हा को चुना गया था, किंतु बाद में भगतसिंह ने यह कार्य बटुकेश्वर दत्त के साथ स्वयं करने का फैसला लिया।

सेंट्रल असेंबली बमकांड

सेंट्रल असेंबली बमकांड की घटना 8 अप्रैल 1929 ई. को घटी। सरकार दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में पब्लिक सेफ्टी बिल (जन सुरक्षा बिल) और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल (औद्योगिक विवाद बिल) लाने की तैयारी कर रही थी। इन बिलों का प्रयोग देश में उठते युवा आंदोलन को कुचलने और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखने के लिए किया जाना था। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इन दमनकारी कानूनों के विरुद्ध थे, फिर भी, वायसरॉय इन्हें अपने विशेषाधिकार से पारित कराना चाहता था।

निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जब वायसरॉय इन दमनकारी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठा, बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह भी खड़े हो गए। जैसे ही बिल-संबंधी घोषणा की गई, पहला बम भगतसिंह ने और दूसरा बम दत्त ने फेंका। इश्तिहार फेंकते हुए क्रांतिकारियों ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘दुनिया भर के मजदूरो एक हो’ के नारे लगाये। बम के धमाके से एकदम खलबली मच गई। जॉर्ज शुस्टर अपनी मेज के नीचे छिप गया। सार्जेंट टेरी इतना भयभीत हो गया कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर सका। बमों से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा, क्योंकि उन्हें जानबूझकर ऐसा बनाया गया था कि किसी को चोट न आये। वैसे भी, बम असेंबली में खाली स्थान पर ही फेंक गए थे और इनके फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं, बल्कि क्रांतिकारियों के एक पर्चे के अनुसार ‘बहरों को सुनाना’ भर था। इस घटना पर टिप्पणी करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने लिखा था : ‘‘यह बम देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक बहुत बड़ा धमाका था।’’ भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो बम फेंकने के बाद आसानी से भाग सकते थे, किंतु उन्होंने जान-बूझकर अपने को गिरफ्तार करा लिया क्योंकि वे क्रांतिकारी प्रचार के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग करना चाहते थे।

भगतसिंह के मुकदमे

ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों पर तीखा प्रहार किया। राजगुरु, भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ प्रजातांत्रिक संघ के अनेक सदस्य गिरफ्तार किए गए और उन पर लाहौर षड्यंत्र एवं असेंबली बमकांड से संबंधित मुकदमे चलाये गए। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेंबली बमकांड के आधार पर फाँसी नहीं दी जा सकती थी, इसलिए सॉण्डर्स की हत्या का मुकदमा भी असेंबली बमकांड से जोड़ दिया गया।

इन युवा क्रांतिकारियों ने अदालतों में दिए गए अपने निर्भीक बयानों और अवज्ञापूर्ण व्यवहारों से देशवासियों का दिल जीत लिया। इनके बचाव के लिए कांग्रेसी नेता आगे आये, जो वैसे अहिंसा के समर्थक थे। जेलों की अमानवीय परिस्थितियों के विरोध में उनकी भूख-हड़तालें विशेष प्रेरणाप्रद थीं। राजनीतिक बंदियों के रूप में उन्होंने जेलों में अपने साथ सम्मानित तथा सुसंस्कृत व्यवहार किए जाने की माँग की। इसी प्रकार 63 दिनों की ऐतिहासिक भूख-हड़ताल के बाद एक युवा क्रांतिकारी जतीन दास शहीद हो गए। जतीन की शहादत से भारत के युवकों पर बहुत प्रभाव पड़ा और युवक तथा विद्यार्थी-संगठनों की सदस्यता में काफ़ी वृद्धि हुई।

लाहौर षड्यंत्र केस और क्रांतिकारी संघर्ष ने सारे देश का ध्यान आकृष्ट किया। जब नौ माह तक कोर्ट में फ़ैसला नहीं हो सका तो गवर्नर जनरल ने अध्यादेश के द्वारा विशेष अदालत का गठन किया जहाँ से अभियुक्त किसी और न्यायालय में अपील नहीं कर सकते थे। देशव्यापी विरोध के बावजूद विशेष अदालत ने वही फैसला सुनाया, जिसकी उम्मीद थी। 26 अगस्त 1930 ई. को अदालत ने भगतसिंह और उनके साथियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आई.पी.सी. की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी करार दिया। 7 अक्टूबर 1930 ई. को अदालत का फैसला जेल में पहुँचा, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड; कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिववर्मा, गयाप्रसाद कटियार, किशोरलाल और महावीरसिंह को आजीवन कारावास; कुंदनलाल को सात वर्ष तथा प्रेमदत्त को तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई थी।

क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाये जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई, जिससे पूरे देश में उत्तेजना फैल गई। क्रांतिकारियों की फाँसी की सजा रद्द करने के लिए प्रिवी परिषद् में अपील की गई, जो 10 जनवरी 1931 ई. को रद्द कर दी गई। इसके बाद, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 ई. को वायसराय से मानवता के आधार पर सजामाफी के लिए अपील दायर की। 17 फरवरी 1931 ई. को ‘भगतसिंह दिवस’ मनाया गया और उसी दिन गांधीजी ने सजा माफ करने के लिए वायसराय से बात की। किंतु इन अपीलों का ब्रिटिश हुकूमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च 1931 ई. की सुबह तय थी, किंतु जनाक्रोश से डरी-सहमी सरकार ने 23 मार्च 1931 ई. की शाम को ही भगतसिंह, सुखदेव और शिवराम राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया और रात के अंधेरे में ही सतलज नदी के किनारे फिरोजपुर में उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। तीनों वीर युवक भारत माँ को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने, देश के जवानों को बलिदान एवं त्याग की नई राह दिखाने के लिए स्वयं बलिपथ के पथिक बन गए। तीनों शेर जब फाँसी के लिए चले थे, तो उनके होठों पर गीत था-

‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत,

मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी।।’

फाँसी के कुछ दिन पहले जेल सुपरिटेंडेंट को लिखे गए एक पत्र में इन तीनों क्रांतिकारियों ने कहा था : ‘‘बहुत जल्द ही अंतिम संघर्ष की दुंदुभि बजेगी। इसका परिणाम निर्णायक होगा। हमने इस संघर्ष में भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है।’’

भगतसिंह की शहादत को देशभर में याद किया गया। भगतसिंह की मृत्यु की खबर को लाहौर के दैनिक ‘ट्रिब्यून’ तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र ‘डेली वर्कर’ ने मुख पृष्ठ पर छापा। लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र ‘पयाम’ ने लिखा: ‘हिंदुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊँचा समझता है। यदि हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिरायें, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिंदुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव! अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया, लेकिन वो गलती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया है, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम जिंदा हो और हमेशा जिंदा रहोगे।’ दक्षिण भारत में रामास्वामी पेरियार ‘नायकर’ ने अपने साप्ताहिक-पत्र ‘कुडई आरसू’ के 22-29 मार्च 1931 ई. के अंक में भगतसिंह के लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ पर संपादकीय लिखा। इस संपादकीय में भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी और उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर विजय के रूप में रेखांकित किया गया था। भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुभाषचंद्र बोस ने कहा : ‘भगतसिंह जिंदाबाद और इंकलाब जिंदाबाद का एक ही अर्थ है।’ डॉ. सत्यपाल ने कहा : ‘ऐसे लोग अपने साहस और दृढ़ निश्चय से जीवन और मौत की खाई को समाप्त कर देते हैं।’ गांधीजी ने भी स्वीकार किया कि हमारे मस्तक भगतसिंह की देशभक्ति, साहस और भारतीय जनता के प्रति प्रेम तथा बलिदान के आगे झुक जाते हैं।

भगतसिंह का समाजवाद और क्रांतिकारी दर्शन

भगतसिंह एक असाधारण बुद्धिजीवी थे जो अपने समय के कई राजनेताओं की तुलना में अधिक पढ़े-लिखे थे। उन्होंने समाजवाद, सोवियत संघ और क्रांतिकारी आंदोलन से संबद्ध बहुत-सी पुस्तकों का गहराई से अध्ययन किया था। वह लगभग 2 साल जेल में रहे और बराबर अध्ययन करते रहे। जेल के दिनों में उनके द्वारा लिखे गए लेख व सगे-संबंधियों को लिखे गए पत्र उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है।

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह (Revival of the revolutionary movement: HRA, HSRA and Bhagat Singh)
सरदार भगतसिंह

अपने अंतिम दो पत्रों में भगतसिंह ने समाजवाद में अपनी आस्था व्यक्त की है। उन्होंने समाजवाद की एक वैज्ञानिक परिभाषा दी कि इसका अर्थ पूँजीवाद और वर्ग-प्रभुत्व का पूरी तरह अंत है। वह लिखते हैं: ‘‘किसानों को केवल विदेशी शासन से ही नहीं, बल्कि जमींदारों और पूँजीपतियों के शोषण से भी मुक्त कराना होगा।’’ 3 मार्च 1931 ई. को भेजे गए अपने अंतिम संदेश में उन्होंने घोषणा की थी: ‘‘भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा, जब तक कि मुट्ठीभर शोषक अपने स्वार्थ के लिए साधारण जनता की मेहनत का शोषण करते रहेंगे। इस बात का कोई विशेष महत्त्व नहीं है कि शोषणकर्ता अंग्रेज पूँजीपति हैं या भारतीयों और अंग्रेजों का गठबंधन है या पूरी तरह भारतीय हैं।’’

भगतसिंह जानते थे कि क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था: ‘‘क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से ही आती है।’’ इसलिए भगतसिंह और उनके साथियों ने पहली बार क्रांतिकारियों के समक्ष क्रांतिकारी संघर्ष के तरीके एवं क्रांति के लक्ष्य के रूप में एक क्रांतिकारी दर्शन प्रस्तुत किया।

भगतसिंह व उनके कामरेड साथियों ने क्रांति को व्यापक ढंग से परिभाषित किया। क्रांति का तात्पर्य हिंसा या लड़ाकूपन ही नहीं था। इसका पहला उद्देश्य था- राष्ट्रीय स्वतंत्रता की स्थापना के लिए साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकना और समाजवादी समाज की स्थापना करना। समाजवादी समाज का तात्पर्य ऐसे समाज से था जहाँ व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण न हो। असेंबली बमकांड में भगतसिंह ने अदालत में कहा था कि क्रांति के लिए रक्तरंजित संघर्ष आवश्यक नहीं है, व्यक्तिगत वैर के लिए भी उसमें कोई जगह नहीं है। यह पिस्तौल और बम की उपासना नहीं है। क्रांति से हमारा आशय यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए।

दरअसल, भगतसिंह अब मार्क्सवादी हो चले थे और इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में, जनता ही जनता के लिए क्रांति कर सकती है। 4 जून 1929 ई. को सेशन जज के समक्ष बयान देते हुए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कहा था: ‘‘क्रांति के विरोधियों द्वारा भ्रांतिवश इस विचार को अपना लिया गया है कि क्रांति का तात्पर्य शस्त्रों, हथियारों या अन्य साधनों से हत्या या हिंसक कार्य करना है, जबकि क्रांति का अभिप्राय बम और पिस्तौल मात्र नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है कि आज की वस्तुस्थिति और समाज व्यवस्था को, जो स्पष्ट रूप से अन्याय पर टिकी हुई है, बदला जाय। क्रांति व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण को समाप्त करने और हमारे राष्ट्र के लिए पूर्ण आत्म-निर्णय का अधिकार प्राप्त करने के लिए है। हमारे विचार से क्रांति का अंतिम लक्ष्य यही है।’’

अपनी गिरफ्तारी के पहले ही भगतसिंह ने आतंकवाद का त्याग कर दिया था। 19 अक्टूबर 1929 ई. को पंजाब विद्यार्थी कॉन्फ्रेंस के एक संदेश में भगतसिंह और दत्त ने लिखा था: ‘‘हम युवकों को बम और पिस्तौल उठाने की सलाह नहीं देते।…..उन्हें लाखों मजदूरों और गाँवों में रहने वाले गरीब किसानों के पास क्रांति का संदेश ले जाना चाहिए।’’ भगतसिंह ने 2 फरवरी 1931 ई. को अपने नौजवान साथियों के नाम एक पत्र में लिखा था : ‘‘देखने में मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है, किंतु मैं आतंकवादी नहीं हूँ।……मैं अपनी पूरी शक्ति से यह घोषणा करना चाहूँगा कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और शायद अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर मैं कभी आतंकवादी नहीं था और मुझे विश्वास है कि इन विधियों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।’’

भगतसिंह पूरी तरह से एक जागरुक तथा धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे। वह प्रायः अपने साथियों से कहते थे कि सांप्रदायिकता भी उतना ही बड़ा शत्रु है जितना कि उपनिवेशवाद और इसका सख्ती से मुकाबला करना होगा। नौजवान सभा के प्रथम सचिव के रूप में उन्होंने सांप्रदायिक विचार फैलानेवाले संगठनों या पार्टियों से कोई संबंध न रखने और लोगों में सामान्य सहिष्णुता की भावना जगाने का नियम बनाया था। वे जनता को अंधविश्वास तथा धर्म की जकड़न से मुक्त करने पर बहुत जोर देते थे।

अपनी मौत से कुछ समय पहले भगतसिंह ने जेल में अंग्रेजी में ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जो 27 सितंबर 1931 ई. को लाहौर के समाचारपत्र ‘दि पीपुल’ में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में उन्होंने धर्म एवं धार्मिक दर्शन की आलोचना की है और ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल उठाये हैं। उन्होंने घोषित किया है कि प्रगति के लिए संघर्षरत प्रत्येक व्यक्ति को अंधविश्वासों की आलोचना करनी होगी और पुरातनपंथी विचारों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित विश्वासों की हरेक कड़ी की प्रासंगिकता और सत्यता को परखना होगा।

भगतसिंह की गिरफ्तारी के बाद चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारी दल का कार्य यशपाल तथा भगवतीचरण बोहरा के साथ जारी रखा। 23 दिसंबर 1929 ई. को निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के समीप वायसरॉय लॉर्ड इरविन की रेलगाड़ी को उड़ाने की कोशिश की गई, किंतु वायसरॉय बच गया। इसी प्रकार 23 दिसंबर 1930 को हरिकिशन ने पंजाब के गवर्नर को गोली मारी, जिससे वह घायल हो गया। इस कांड में हरिकिशन को मृत्युदंड की सजा मिली।

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : एच.आर.ए., एच.एस.आर.ए. और भगतसिंह (Revival of the revolutionary movement: HRA, HSRA and Bhagat Singh)
चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर आजाद 27 फरवरी 1931 ई. को इलाहाबाद (प्रयागराज) के कंपनी बाग (अल्फ्रेड पार्क) में पुलिस से लड़ते हुए शहीद हो गए। आजाद की मृत्यु के बाद यशपाल ने एच.एस.आर.ए. को संगठित करने का प्रयास किया, किंतु 23 जनवरी 1932 ई. को उन्हें भी इलाहाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया और 14 वर्ष की सजा दी गई। बाद में गोविंदवल्लभ पंत के प्रयत्नों से वह 1938 ई. में रिहा कर दिए गए।

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