19वीं सदी में मुस्लिम, पारसी एवं सिख सुधार आंदोलन (Muslim, Parsi and Sikh reform movements in the 19th century)

मुस्लिम सुधार आंदोलन

उन्नीसवीं शताब्दी में न केवल हिंदू समाज में जागरण लाने के लिए सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए, बल्कि मुस्लिम समाज में भी सुधार के लिए आंदोलनों का सूत्रपात किया गया। यह शताब्दी हिंदू समाज के लिए उत्साहवर्द्धक थी, किंतु मुस्लिम समाज के लिए अधिक उत्साहवर्द्धक सिद्ध नहीं हो सकी। जहाँ हिंदू समाज में सुधार लाने के लिए ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी तथा अन्य सनातनी संस्थाओं ने अलग-अलग आंदोलन प्रारंभ किये, वहीं मुस्लिम समाज में सुधार लाने के लिए बहावी आंदोलन, फरायजी आंदोलन, अलीगढ़ आंदोलन, अहमदिया आंदोलन और देवबंद आंदोलन प्रारंभ हुए, किंतु इनमें केवल अकेला ‘अलीगढ़ आंदोलन’ ही लोकप्रिय हो सका। चूंकि इन मुस्लिम आंदोलनों के उद्देश्य सीमित थे, इसलिए हिंदुओं की तरह मुस्लिम जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करने में असफल रहे।

अठारहवीं शताब्दी में मुसलमान निराशाजनक स्थिति में थे क्योंकि औरंगजेब के दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में मुगल साम्राज्य की केंद्रीय शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई थी और मुस्लिम समाज की प्रभा धूमिल होने लगी थी। देश में अब न तो राजनीतिक एकता थी और न पतनोन्मुख साम्राज्य को सँभालने के लिए बादशाहों के पास शक्ति ही थी। इस समय राजपूत और मराठे अपनी शक्ति में वृद्धि करके मुगलों की शक्ति को चुनौती देने लगे थे, किंतु भारत की इन तमाम शक्तियों की सफलता क्षणिक सिद्ध हुई।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ही भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से यूरोपीय जातियों का आगमन होने लगा था। इस सदी के उत्तरार्द्ध में इन यूरोपीय व्यापारियों ने केंद्रीय सत्ता की कमजोरी का लाभ उठाकर भारत में अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए प्रयास करना प्रारंभ किया और उनमें प्रतिद्वद्विता प्रारंभ हो गई। इस प्रतिद्वद्विता में डच और पुर्तगाली पीछे छूट गये और बाजी अंग्रेजों के हाथ लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 और 1764 में क्रमशः प्लासी और बक्सर में भारत की प्रमुख शक्तियों को हराकर अपनी सत्ता कायम कर ली। इससे भारत के मुसलमानों की बची-खुची आशा भी समाप्त हो गई।

1857 की क्रांति के दौरान बहादुरशाह ‘जफर’ के गद्दी से हटाये जाने के बाद मुगलों के राजनीतिक गौरव का भी अंत हो गया, जिससे मुसलमानों की राजनीतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा, धर्म, आर्थिक संपन्नता आदि सब कुछ खतरे में पड़ गये। कंपनी सरकार ने भी उनकी संपत्ति को जब्त करके, उन्हें राजनीतिक पदों से हटाकर और बहुत हद तक उनका दमन कर उनके मनोबल को तोड़ डाला, जिससे मुसलमान समाज में सर्वत्र निराशा व्याप्त गई थी।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों से विभिन्न इस्लामी सुधार आंदोलनों के माध्यम से आम जनता के स्तर पर एक सुस्पष्ट मुस्लिम पहचान विकसित होने लगी थी। इन आंदोलनों ने पहले के समन्वयवाद को अस्वीकार किया तथा मुसलमानों की संस्कृति, भाषा और रोजमर्रा के तौर-तरीकों के इस्लामीकरण और अरबीकरण के प्रयास में उन चीजों को बाहर निकाल दिये, जिनको वे ‘गैर-इस्लामी’ समझते थे। इस प्रकार जहाँ पश्चिम के प्रति आरंभिक हिंदू प्रतिक्रिया जिज्ञासा भरी थी, वही मुसलमानों में पहली प्रतिक्रिया अपने आपको बाहरी प्रभाव से बचाये रखने और उसे एक संकीर्ण ढक्कन में बंद रखने की थी।

19वीं सदी के आरंभ में मुस्लिम सुधार आंदोलन

1860 के दशक में धार्मिक सुधार की दो सुस्पष्ट धाराएँ विकसित हुईं। एक ओर अब्दुल लतीफ खाँ और उनकी ‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसायटी’ (1863) ने इस्लामी शिक्षा की परंपरागत व्यवस्था के अंदर आधुनिक विचारों के आलोक में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया और पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए उच्च तथा मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया, तो दूसरी ओर सैयद अमीरअली (1877-1878) और उनके ‘सेंट्रल नेशनल मुहम्मडन एसोसिएशन’ ने पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण पुनर्गठन की या मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण आंग्लीकरण का समर्थन किया। इस प्रकार अब धार्मिक कट्टरता के स्थान पर मुसलामानों ने आधुनिकीकरण पर बल दिया।

मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी

‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसायटी’ की स्थापना कलकत्ता में 1863 में नवाब अब्दुल लतीफ (1828-1893) ने की थी। इसका प्रमुख उद्देश्य शोषित, वंचित एवं पिछड़े मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार करना और उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाना था। अब्दुल लतीफ ने शिक्षा के प्रसार, विशेष रूप से बंगाल के मुस्लिमों के बीच, के साथ साथ हिंदू-मुस्लिम एकता को भी बढावा दिया। यही कारण है कि लतीफ को ‘बंगाल के मुस्लिम पुनर्जागरण का पिता’ कहा जाता है।

सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ आंदोलन

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुस्लिम समाज में सुधार आंदोलन के प्रणेता सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) थे। सर सैयद अहमद आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से काफी प्रभावित थे और जीवनभर इस्लाम के साथ उनका तालमेल बिठाने के लिए प्रयत्नशील रहे। सैयद अहमद खाँ जानते थे कि भारत के मुसलमान तभी प्रगति कर सकते हैं, जब वे आधुनिक शिक्षा को अपनाएँ। उन्होंने भारत की ब्रिटिश सरकार तथा अंग्रेजी शिक्षा के सहयोग से मुसलमानों की बेहतरी और सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए आधुनिकता का जो आंदोलन आरंभ किया, उसे ‘अलीगढ आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। सर सैयद अहमद खाँ को आधुनिक भारत में ‘मुसलमानों का राजनीतिक पथ-प्रदर्शक’ कहा जाता है। सर सैयद अहमद के अलीगढ़ समूह में चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली तथा नजीर अहमद जैसे कुछ अन्य प्रमुख नेता भी थे।

19वीं सदी में मुस्लिम, पारसी एवं सिख सुधार आंदोलन (Muslim, Parsi and Sikh reform movements in the 19th century)
सर सैयद अहमद खाँ
सर सैयद अहमद खाँ का आरंभिक जीवन

सर सैयद अहमद खाँ का जन्म 17 अक्टूबर, 1817 को दिल्ली के एक सैयद परिवार में हुआ था। इनका खानदान धार्मिक विचारों से प्रभावित था। इनके पिता मीर मुत्तकी नक्शबंदी संप्रदाय से संबंधित थे। पिता की ओर से इनका परिवार मुगल साम्राज्य की सेवा में था और इस कारण सैयद अहमद खाँ का मुगल दरबार से निकट का संपर्क था।

सर सैयद अहमद खाँ ने प्राचीन शिक्षा के आधार पर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। अठारह-उन्नीस वर्ष की आयु तक उन्होंने कुरानशरीफ, अरबी तथा फारसी का अध्ययन कर लिया और गणित का भी थोड़ा-बहुत ज्ञान अर्जित किया। किंतु उनकी शिक्षा नियमित ढंग से नहीं हुई थी। यही कारण था कि उनके इस्लामी विषयों का ज्ञान अधूरा था। इसके बावजूद, उनकी विद्यानुरागिता जीवनभर जीवित रही। 1857 के बाद उन्होंने पश्चिमी विचारों का अध्ययन किया और अंग्रेजी का भी कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त किया। पश्चिमी विचारों के अध्ययन और इंग्लैंड की यात्रा (1869-1870) ने सैयद अहमद खाँ को अंग्रेजों और उनकी तहजीब का भक्त बना दिया।

सरकारी सेवा (1839-1876 ई.)

जब सर सैयद अहमद खाँ इक्कीस वर्ष के थे, उनके पिता का देहावसान हो गया और परिवार का सारा भार उनके कंधों पर आ पड़ा। परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए उन्होंने अपने चाचा के साथ अदालती काम सीखना प्रारंभ किया। दिल्ली में काम सीखने के दौरान उनका परिचय हैमिल्टन नामक एक अंग्रेज जज से हुआ, जिसने उन्हें (सैयद अहमद को) आगरा बुलाकर 1839 में कमिश्नरी के दफ्तर में नायब मुंशी के पद पर नियुक्त किया। सैयद अहमद ने 1841 में मुंसिफी की परीक्षा उत्तीर्ण की और मुंसिफ बनकर मैनपुरी आ गये। 1846 में उनका स्थानांतरण दिल्ली हो गया। आगरा और दिल्ली में सरकारी सेवा करते समय उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। तत्पश्चात् 1855 में सदर अमीन बनकर वे बिजनौर आ गये। 1857 की सिपाही क्रांति के समय वे बिजनौर में ही थे, जहाँ उन्होंने 1857 की क्रांति पर एक ऐतिहासिक पुस्तिका ‘असबाब-ए-बगाबत-ए-हिंद’ का प्रणयन किया।

एक अधिकारी के रूप में सर सैयद अहमद ने अनेक विद्यालय स्थापित किये, कई पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद करवाये और अनेक पुस्तकों तथा पत्रिकाओं को प्रकाशित कर मुस्लिम जागरण का कार्य किये। उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की और वहाँ लगभग डेढ़ वर्ष (1869-1870) रहकर अंग्रेजों के विचारों एवं सभ्यता का अध्ययन किया। वे अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजों के रहने के तौर-तरीकों से काफी प्रभावित हुए। भारत वापस आकर सैयद अहमद ने अलीगढ़ आंदोलन प्रारंभ किया और 1875 में ‘अलीगढ़ मुस्लिम स्कूल’ की स्थापना की। 1876 में वे सरकारी सेवा से मुक्त हुए और स्थायी रूप से अलीगढ़ में रहने लगे। उनको 1878 में ‘इंडियन लेजिस्लेटिव कौंसिल’ का सदस्य बनने का अवसर मिला। अब वे एक नेता के रूप में सुधार और जागरण का काम करने लगे थे। सैयद अहमद खाँ का 81 वर्ष की उम्र में 1898 में हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया।

अलीगढ आंदोलन

सर सैयद अहमद खाँ पाश्चात्य शिक्षा द्वारा मुसलमानों का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन, पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। सर सैयद ने पारंपरिक शिक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अंग्रेज़ी सीखने और पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए मुस्लिम शिक्षा के आधुनिकीकरण का प्रयत्न किया।

साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना (1864 ई.)

अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सैयद अहमद ने गाजीपुर में 1864 में एक ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ (वैज्ञानिक समाज) की स्थापना की ताकि पश्चिमी कार्यों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया जा सके, मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा स्वीकार करने के लिए तैयार किया जा सके और मुसलमानों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति पैदा की जा सके। यह सोसाइटी ऊर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पत्रिकाएँ निकालती थी। बाद में, साइंटिफिक सोसाइटी को अलीगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया।

सर सैयद अहमद पश्चिमी वैज्ञानिक शिक्षा को कुरान की शिक्षाओं के साथ समेटना चाहते थे। उन्होंने कुरान पर लिखी अपनी महत्त्वपूर्ण टीका में परंपरागत टीकाकारों की आलोचना की और आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के अनुसार अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने घोषित किया कि इस्लाम की एक मात्र प्रमाणिक पुस्तक ‘कुरान’ है और बाकी सभी इस्लामी-लेखन गौण महत्त्व का है। उनके अनुसार कुरान की कोई भी व्याख्या अगर मानव-बुद्धि, विज्ञान या प्रकृति से टकरा रही है, तो वह गलत व्याख्या है। उनका कहना था कि सांसारिक मामले में हदीस का हुक्म नहीं भी माना जा सकता है, किंतु धर्म के मामले में हदीस के अनुसार आचरण करना अनिवार्य है। 1870 में उन्होंने फारसी भाषा में ‘तहजीब-उल-अखलाक’ (सभ्यता और नैतिकता) पत्रिका को प्रकाशित किया और मुसलमानों की परंपरागत मान्यताओं पर कुठाराघात किया।

सर सैयद अहमद खाँ ने लोगों से आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा विचार की स्वतंत्रता अपनाने का आग्रह किया और कहा कि, ‘‘जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती तब तक सभ्य जीवन संभव नहीं है।’’ उनका मानना था कि बंद दिमाग सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है। इस प्रकार सैयद अहमद खाँ ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचार की स्वतंत्रता की वकालत की।

मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (1877 ई.)

सर सैयद ने 1875 में ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों की तर्ज पर एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए 24 मई, 1875 ई. को महारानी विक्टोरिया की 56वें वर्षगांठ पर अलीगढ़ में ‘मदरसतुल उलूम मुसलमान-ए-हिंद’ (अलीगढ़ स्कूल) स्थापित किया, जिसका 8 जनवरी, 1877 को लॉर्ड लिटन ने ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज’ के नाम से शिलान्यास किया। रूढ़िवादियों के विरोध के बावज़ूद सर सैयद अहमद का यह कॉलेज प्रगति करता गया और 1920 में ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। सर सैयद अहमद खाँ के शैक्षिक कार्य में मुहसिन-उल-मुल्क तथा बकरूल मुल्क जैसे नवाब और डा. नाजीर अहमद तथा शायर अल्ताफ हुसैन हाली जैसे विद्वानों ने सहयोग किया। इस प्रकार सर सैयद भारतीय मुसलमानों के ऐसे पहले समाज सुधारक थे जिन्होंने अज्ञानता की काली चादर की धज्जियाँ उड़ाकर मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना जागृत की।

यद्यपि सर सैयद का अलीगढ़ कॉलेज एक पक्की तरह से ‘राजनीतिक उद्यम था, जिसका उद्देश्य अपने मुस्लिम छात्रों में एक कौम की सदस्यता की भावना पैदा करना और उनके माध्यम से उत्तर भारत की मुस्लिम आबादी में अपनी सामाजिक पहुँच को और बढ़ाना था, किंतु इस कॉलेज के कोष में हिंदुओं, पारसियों और ईसाइयों ने भी दिल खोलकर दान दिया था। इसके दरवाजे भी सभी भारतीयों के लिए खुले थे। उदाहरण के लिए 1898 में इस कॉलेज में 64 हिंदू और 285 मुसलमान छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिंदू थे और इनमें एक संस्कृत का प्रोफेसर था।

सर सैयद अहमद खाँ सामाजिक सुधारों के प्रबल पक्षधर और लोकतांत्रिक आदर्शों व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक थे। वे जीवन भर परंपराओं के अंधानुकरण, रिवाजों पर भरोसा, अज्ञान तथा तर्कहीनता के खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने मुसलमानों से मध्यकालीन रीति-रिवाजों तथा विचार और कर्म की पद्धतियों को छोड़ देने का आग्रह किया और समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए पर्दाप्रथा खत्म करने तथा स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने का समर्थन किया। वे सामान्य परिस्थिति में बहुविवाह प्रथा और छोटी-छोटी बातों पर तलाक के रिवाज के भी विरुद्ध थे। उन्होंने ‘जिहाद’ का समर्थन नहीं किया, किंतु यह कहा कि यदि कोई गैर-मुसलमान शक्ति इस्लाम अथवा मुस्लिम संप्रदाय पर आक्रमण करती है, तब मुसलमान ‘जिहाद’ कर सकते हैं।

सैयद अहमद खाँ न केवल मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर कर मुसलमानों के दृष्टिकोण को आधुनिक बनाना चाहते थे, बल्कि वे यह भी मानते थे कि अंग्रेजों के शासन के अधीन रहकर ही मुसलमानों की स्थिति को उन्नत बनाया जा सकता था। सैयद अहमद का विश्वास था कि इस विदेशी सत्ता की छत्रछाया में ही उनके समुदाय की स्थिति समुन्नत हो सकती है। इसीलिए सैयद अहमद का कहना था कि मुसलमानों और अंग्रेजों के मध्य जो भी आपसी संदेह और द्वेष की भावना है, उसे दूर करना चाहिए। वे चाहते थे कि अंग्रेजों को इस बात का विश्वास दिलाया जाए कि मुसलमान उनके शासन के सहयोगी हैं, शत्रु नहीं।

सैयद अहमद खाँ ने कुरान और हदीस से कुछ आयतों को निकालकर बड़ी बुद्धिमानी से यह सिद्ध किया कि मुसलमानों और ईसाइयों में सदा से ही मैत्रीपूर्ण संबंध रहा है। यद्यपि उन्होंने कुरान शरीफ में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, किंतु धर्म की नई व्याख्या करके भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों के बीच मंत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने लाहौर में 1873 में भाषण देते हुए यह कहा था कि, ‘मुसलमानों का अंग्रेजों से शत्रुता रखना वैसा ही होगा जैसा नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर रखना। इसलिए उनके लिए यह आवश्यक है कि वे उनसे मैत्री रखें।’ इसके प्रतिदान में वे चाहते थे कि अंग्रेज सरकार मुसलमानों के हितों की रक्षा करे और उनके धार्मिक और अनुष्ठानों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे।

वास्तव में, सर सैयद का राजनीतिक दर्शन इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता था कि भारतीय समाज तमाम ऐसे प्रतियोगी समूहों (कौमों) का महासंघ है, जिसमें से हरेक की एक साझी वंश-परंपरा है। भूतपूर्व शासक वर्ग के रूप में मुसलमानों को शक्ति और सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उनका एक विशेष संबंध होना चाहिए। ।

सर सैयद अहमद खाँ धार्मिक सहिष्णुता के पक्के हिमायती थे। उन्होंने अपने कई व्याख्यानों तथा निबंधों में उन्होंने इस राष्ट्रीय एकता पर बल दिया। सर सैयद का विश्वास था कि सभी धर्मों में एक बुनियादी एकता मौजूद है, जिसे व्यवहारिक नैतिकता कहा जा सकता है। वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है और इसलिए वे वैयक्तिक संबंधों में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते थे। वे सांप्रदायिक टकराव के भी विरोधी थे। हिंदुओं और मुसलमानों से एकता का आग्रह करते हुए उन्होंने 27 जनवरी, 1883 को पटना में कहा था:

‘‘हम दोनों भारत की हवा में साँस लेते हैं और गंगा-यमुना का पवित्र जल पीते हैं। हम भारत की जमीन की उपज से अपनी भूख मिटाते हैं। जीवन और मृत्यु, दोनों में हम एक साथ हैं। भारत में हमारे निवास ने हमारा खून बदल डाला है, हमारे शरीरों के रंग एक हो चुके हैं, हमारे हुलिए समान हो चुके हैं। निःसंदेह इस आधार पर कि हम दोनों एक ही देश में रहते हैं, हमारा एक राष्ट्र तथा देश है, हम दोनों की प्रगति और कल्याण हमारी एकता, पारस्परिक सहानुभूति और प्रेम पर निर्भर है, जबकि हमारे पारस्परिक मतभेद, अकड़, विरोध तथा फूट निश्चित ही हमें नष्ट कर देंगे।’’

आर्य समाज के सदस्यों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने शिकायत भरे शब्दों में कहा था कि ‘मैं हिंदू क्यों नहीं माना जाता?’ उनके शब्द थे: ‘मेरे विचार में हिंदू किसी धर्म का नाम नहीं है, बल्कि हर एक व्यक्ति जो हिंदुस्तान का रहने वाला है, अपने-आपको हिंदू कहता है, इसलिए मुझे खेद है कि आप मुझे हिंदू नहीं समझते, यद्यपि में हिंदुस्तान का रहनेवाला हूँ।’ उन्होंने आगे कहा कि भारत की उन्नति के लिए यह नितांत आवश्यक है कि हिंदू और इस्लाम धर्म के माननेवाले आपस में मिलकर कार्य करें। निस्संदेह धर्म के भेद पर ध्यान न देकर हम यह चाहते हैं कि हिंदू और मुसलमानों में दोस्ती, मुहब्बत, एकता और हमदर्दी उसी प्रकार से हो, जैसे राजनीतिक मतभेद भूलकर हम यह चाहते हैं कि हमारे सामाजिक बर्ताव में मुहब्बत, हमदर्दी और भाईचारा रहे।

अकसर कहा जाता है कि सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ कॉलेज के अंतर्गत अलीगढ़ आंदोलन का विकास कांग्रेसी नेतृत्व वाले राष्ट्रवाद के विरोध में और अंग्रेजी राज से वफादारी के रूप में हुआ। दरअसल, सर सैयद जीवन के प्रारंभिक दौर में राष्ट्रवादी थे, किंतु जीवन के अंतिम वर्षों में वह मुस्लिम हितों की पैरवी करते हुए इससे दूर चले गये। जब 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ तब सैयद अहमद ने कांग्रेस को हिंदुओं के वर्चस्व वाला संगठन बताया और अपने अनुयायियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए ‘शिक्षा सम्मेलन कॉन्फ्रेंस’ के रंगमंच से 1888 में ‘इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ की स्थापना की। इस संगठन का मुख्य लक्ष्य मुस्लिम जनमत को संगठित करना और सामंतीय तथा रूढ़िवादी तत्त्वों का राष्ट्रीय आंदोलन के विरूद्ध समर्थन प्राप्त करना था। बाद में इस एसोसिएशन के नाम में ‘यूनाइटेड’ शब्द जोड़ दिया गया। कांग्रेस का विरोध करने के लिए उन्होंने 1890 में ‘मुहम्मडन एजुकेशजनल कॉन्फ्रेंस’ और दिसंबर, 1893 में ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल डिफेंस एसोसिएशन’ (1893) जैसे संगठनों की स्थापना की।

फिर भी, सैयद बुनियादी तौर पर सांप्रदायिक नहीं थे और वे मात्र उच्च तथा मध्य वर्ग के मुसलमानों का पिछड़ापन खत्म करना चाहते थे। चूंकि उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार को आसानी से हटाया जाना संभव नहीं है और अंग्रेजों से शत्रुता शिक्षा-प्रसार के लिए घातक हो सकती है, इसलिए उन्होंने भारतीयों, विशेषकर पिछड़े मुसलमानों से अपील की कि वे कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहें।

किंतु उत्तर भारत के मुस्लिम समुदाय ने सर सैयद के नेतृत्व को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया और देवबंद के उलेमाओं ने 1888 में सैयद अहमद खान के विरुद्ध फतवा (धार्मिक आज्ञा) जारी किया। उलेमा सर सैयद की पश्चिमीकरण की मुहिम को निश्चित ही पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह मुस्लिम समाज में उनकी प्रधानता के लिए खतरा पैदा करेगी। जमालुद्दीन अल-अफगानी जैसे लोग भी थे, जो कट्टर उपनिवेशवाद विरोधी थे और सर सैयद की अंग्रेजों के प्रति वफादारी को प्रसंद नहीं करते थे।

1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत के अनेक मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे, जबकि 1887 में बंबई के बदरूद्दीन तैय्यब जी उसके पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने। 1890 के दशक के अंत तक पंजाब के अनेक उर्दू अखबार यह कहने लगे थे कि अलीगढ़ संप्रदाय भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। 1898 में सर सैयद की मृत्यु के बाद अलीगढ़ की युवा पीढ़ी अलीगढ़ राजनीति की मौजूदा परंपरा से धीरे-धीरे दूर होने लगी।

कई इतिहासकारों ने अलीगढ़ आंदोलन और सर सैयद अहमद खाँ की बड़ी भर्त्सना की है कि इस आंदोलन के परिणामस्वरूप ही देश में सांप्रदायिकता की शुरूआत हुई। दरअसल यह आंदोलन उतना हिंदू-विरोधी नहीं था, जितना मुस्लिम-समर्थक। भारत के मुसलमानों के लिए इस आंदोलन का वही महत्त्व था, जो हिंदुओं के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण का। इस आंदोलन ने मुस्लिम समुदाय को मध्ययुगीन वातावरण से बाहर निकाला और आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर किया। राममोहन रॉय की तरह सैयद अहमद अपने समाज को अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान के माध्यम से उन्नत और आधुनिक बनाने के लिए कृत-संकल्प थे। सैयद अहमद अपने अलीगढ़ कॉलेज और शिक्षा के प्रसार के लिए इतना कटिबद्ध थे कि वे इसके लिए अन्य सभी हितों का बलिदान करने को तत्पर थे। रूढ़िवादी मुसलमानों को कॉलेज का विरोध करने से रोकने के लिए उन्होंने धार्मिक-सुधार के आंदोलन को भी लगभग त्याग दिया था। वे ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार से रुष्ट नहीं करना चाहते थे, किंतु सांप्रदायिकता और अलगाववाद को प्रोत्साहन देना एक गंभीर राजनीतिक भूल साबित हुई।

जो भी हो, सैयद अहमद खाँ भारत में मुस्लिम समाज के जागरण के अग्रदूत थे तथा चाहे कोई भी उनका उद्देश्य रहा हो, उन्होंने मुस्लिम समाज की प्रगति और विकास के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। सर सैयद अहमद के प्रयास से ही अखिल भारतीय मुस्लिम महिलाओं की सभाएँ होने लगीं। भोपाल की बेगम साहिबा ने 1914 और 1918 के दौरान अखिल भारतीय नारी सभा का सभापतित्व किया और स्त्रियों के लिए बहुत-से सामाजिक तथा शिक्षा संबंधी सुधार आंदोलन चलाया। कुलीन तथा शिक्षित क्षेत्रों की प्रमुख महिलाएँ उच्च शिक्षा ग्रहण करने लगी,ं उन्होंने पर्दा करना छोड़ दिया और राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। ताराचंद लिखते हैं कि, ‘उन्होंने (सैयद अहमद) अपने गौरवमय नेतृत्व से मुस्लिम समाज को निराशा के कीचड़ से उबार लिया। उन्होंने उनके मन को दकियानूसी इल्म से हटाकर आधुनिक शिक्षा की ओर प्रवृत्त किया, जिससे वह अपने देश के मामलों में सही भाग लेने में समर्थ हुए। उन्होंने अंग्रेज शासकों के संदेह और शत्रुता को विश्वास तथा प्रेम में बदल दिया।’

देवबंद स्कूल और नदवत-उल-उलमा

देवबंद स्कूल एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। इस स्कूल का आरंभ उदारवादी आंदोलन के विरोध में रूढ़िवादी मुस्लिम उलेमा मुहम्मद कासिम नानौत्वी तथा राशिद अहमद गंगोही के नेतृत्व में 1866 में सहारनपुर (संयुक्त प्रांत) के देवबंद नामक स्थान पर एक मदरसा ‘दारुल उलूम’ की स्थापना के साथ किया गया था।

इस आंदोलन के मुख्यतः दो उद्देश्य थे- एक तो मुसलमानों में कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भावी नेताओं को तैयार करना और दूसरे, विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद की भावना को जीवित रखना था।

जहाँ एक ओर अलीगढ़ आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी शिक्षा के प्रसार और ब्रिटिश सरकार के समर्थन से मुसलमानों की बेहतरी के लिए प्रयास करना था, वहीं इसके विपरीत देवबंद आंदोलन का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय का नैतिक और धार्मिक उत्थान करना था।

राजनीतिक क्षेत्र में देवबंद स्कूल ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन का स्वागत किया, किंतु 1888 में सैयद अहमद खान के संगठनों- ‘यूनाइटेड पैट्रियटिक एसोसिएशन’ (संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा) और ‘मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल एसोसिएशन’ के विरुद्ध फतवा (धार्मिक आज्ञा) जारी किया था।

इस संस्था के मौलाना महमूद-उल-हसन, जो ‘शैखुल हिंद’ (भारतीय विद्वान्) की उपाधि से सम्मानित थे, ने इस संस्था के धार्मिक विचारों को राजनीतिक और बौद्धिक विचार प्रदान किये। उन्होंने इस्लामी सिद्धांतों और राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के संश्लेषण पर काम किया। ‘जमीयत-उल-उलेमा’ ने भारतीय एकता और राष्ट्रीय उद्देश्यों के समग्र संदर्भ में मुसलमानों के धार्मिक व राजनीतिक अधिकारों के संरक्षण संबंधी हसन के विचारों को एक ठोस आकार दिया।

देवबंद स्कूल के समर्थकों में शिबली नूमानी फारसी और अरबी के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् और लेखक थे। उन्होंने परंपरागत मुस्लिम शिक्षा में सुधार लाने के लिए औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अंग्रेजी भाषा तथा यूरोपीय विज्ञान को शामिल करने का समर्थन किया। वह कांग्रेस के आदर्शवाद में विश्वास करते थे और भारत के मुसलमानों तथा हिंदुओं के बीच एक ऐसा राज्य बनाने के लिए सहयोग की वकालत करते थे जिसमें दोनों सौहार्दपूर्ण ढंग से रह सकें।

मुस्लिम समाज के भीतर विभिन्न समूहों के बीच सामंजस्य और सहयोग के लिए 1893 में कानपुर में ‘नदवत-उल-उलेमा’ की स्थापना की गई थी, जिसे 1898 में लखनऊ स्थानांतरित कर दिया गया। नदवत-उल-उलेमा ने अप्रैल, 1894 में अपना पहला सम्मेलन किया, जिसमें मौलाना अब्दुल्ला अंसारी और मौलाना शिबली नोमानी सहित अरबी और फारसी के विद्वानों ने भाग लिया था। नदवत-उल-उलेमा के पहले नाजिम सैयद मुहम्मद अली थे। ‘नदवा’ का अर्थ है- विधानसभा और समूह, इसका नाम इसलिए रखा गया क्योंकि इसका गठन विभिन्न इस्लामिक स्कूलों के भारतीय इस्लामी विद्वानों के एक समूह द्वारा किया गया था।

आरंभ में दारुल उलूम देवबंद के संस्थापक जैसे रशीद अहमद गंगोही, कासिम नानौत्वी नदवा आंदोलन के खिलाफ थे, किंतु बाद में वे इसमें शामिल हो गये। अब नदवा ‘दारुल उलूम’ देवबंद का ही एक संस्थान है, जो इसके उपदेशों का प्रचार भी करता है।

अहमदिया आंदोलन

अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई। इस संप्रदाय की स्थापना मिर्जा गुलाम अहमद (1838-1908) ने 23 मार्च, 1889 को गुरुदासपुर (पंजाब) के कादियान नामक स्थान पर की थी। इस संप्रदाय का उद्देश्य भारत में शुद्ध इस्लाम की स्थापना करना एवं मुसलमानों की आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। मिर्जा गुलाम अहमद के शिष्य ‘कादियानी’ कहे जाते थे, जिसके कारण इस आंदोलन को ‘कादियानी आंदोलन’ भी कहा जाता है।

मिर्जा गुलाम अहमद का जन्म गुरुदासपुर जिले (पंजाब) के कादियान नामक एक छोटे नगर में 1879 में हुआ था। अहमद को मुस्लिम धर्मशास्त्र का ज्ञान तो था ही, अरबी और फारसी भाषा का भी उसे जानकारी थी।

मिर्जा गुलाम अहमद पश्चिमी उदारवाद, ब्रह्मविद्या तथा हिंदुओं के धार्मिक सुधार आंदोलन से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने 1890 में अपनी पुस्तक ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ में अपने सिद्धांतों की व्याख्या की। उन्होंने मुसलमानों को मौलवियों की बुराइयों से बचने और पीरों और कब्रों की इबादत न करने की अपील की। उन्होंने पर्दा प्रथा तथा तलाक का समर्थन किया।

मिर्जा गुलाम ने मुस्लिमों के ‘जेहाद’ का विरोध किया, 1891 में अपने-आपको हजरत मुहम्मद की बराबरी का इस्लाम का ‘पैगंबर’ (मसीहा) घोषित किया और स्वयं को ‘पुनर्जागरण का वाहक’ बताया। यही नहीं, बाद में वे अपने को कृष्ण तथा विष्णु का आखिरी अवतार मानने लगे।

अहमदिया समुदाय एकमात्र इस्लामी संप्रदाय है जो यह मानता है कि मसीहा मिर्जा गुलाम अहमद का जन्म धार्मिक युद्धों और रक्तपात को समाप्त करने तथा नैतिकता, शांति व न्याय को बहाल करने के लिए हुआ था। वे मस्जिद (धर्म) को राज्य से अलग करने के साथ-साथ मानवाधिकार और सहिष्णुता में भी विश्वास करते थे।

1908 में मिर्जा गुलाम अहमद की मृत्यु के बाद अहमदिया आंदोलन की बागडोर एक खलीफा ने संभाली। किंतु प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस संप्रदाय में फूट पैदा हो गई। कादियानी दल से पृथक होकर ख्वाजा कमीमुद्दीन और मोहम्मद अहमदअली ने ‘लाहौरी दल’ का गठन किया। कादियानी दल का कहना था कि संप्रदाय के प्रवर्तक को ‘नवी’ समझना चाहिए, जबकि लाहौरी दल के अनुयायियों का कहना था कि वह इस्लाम में महज ‘मुजाहिद’ अथवा ‘सुधारक’ था।

इसके साथ ही पंजाब में अन्य मुस्लिम आंदोलन भी प्रारंभ हुए। 1885 में ‘अंजुमने हिमायते इस्लाम’ का आंदोलन प्रारंभ हुआ और इसके सदस्यों ने मुस्लिम समाज के सामाजिक, नैतिक तथा बौद्धिक स्तर को उन्नतशील बनाने का प्रयास किया।

पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने ‘खुदाई खिदमतगार आंदोलन’ का सूत्रपात किया और भ्रातृत्व भावना का प्रसार किया। इसी प्रकार, इनायतुल्लाह खां ने ‘खाकसार आंदोलन’ को जन्म दिया। इस आंदोलन ने अनुशासन तथा सैनिक शिक्षा पर बल दिया।

मुहम्मद इकबाल

आधुनिक भारत के महानतम् कवियों में एक मुहम्मद इकबाल (1876-1938) ने अपनी कविता द्वारा युवा मुसलमानों तथा हिंदुओं के दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव डाला। स्वामी विवेकानंद की तरह उन्होंने भी निरंतर परिवर्तन तथा अबाध कर्म पर बल दिया और विराग, ध्यान तथा एकांतवास की निंदा की। उन्होंने ऐसा गतिमान दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह किया, जो दुनिया को बदलने में सहायक हो। वे मूलतः एक मानवतावादी थे और मानव कर्म को प्रमुख धर्म मानते थे। उनका मानना था कि निरंतर कर्म द्वारा इस विश्व को नियंत्रित करना चाहिए क्योंकि स्थिति को निष्क्रिय रूप से स्वीकारना सबसे बड़ा पाप है। कर्मकांड, विराग तथा दूसरी दुनिया में विश्वास की र्प्रवृत्ति की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि मानव को इसी चलती-फिरती दुनिया में सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी आरंभिक कविताओं में उन्होंने देशभक्ति के गीत गाये हैं, यद्यपि बाद में वे मुस्लिम अलगाववाद के समर्थक हो गये।

पारसियों में धार्मिक सुधार

सुधारवादी वातावरण में पारसी धर्म और समाज में भी सुधार की शुरूआत हुई। 1851 में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली तथा कुछ अन्य लोगों ने बंबई में ‘रहनुमाए मज्दायासन सभा’ (रिलीजस रिफॉर्म एसोसिएशन) का गठन किया। इसका उद्देश्य पारसियों की सामाजिक अवस्था का पुनरुद्धार करना और पारसी धर्म को प्राचीन शुद्धता प्रदान करना था। सभा के संदेशों को प्रसारित करने के लिए गुजराती भाषा में एक पत्रिका ‘रास्त गोफ्तार’ (सत्यवादी) शुरू की गई। दादाभाई नौरोजी (1825-1917) पारसी कानून संघ के जन्मदाताओं में भी थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ नामक एक महिला हाईस्कूल की स्थापना की। पारसी धर्म में व्याप्त रूढ़ियों एवं कर्मकांडों को दूरकर उनके सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का प्रयास किया गया। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार कर पर्दाप्रथा को समाप्त कर दिया गया, विवाह की आयु बढ़ा दी गई तथा स्त्री-शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे पारसी भारतीय समाज के सबसे विकसित अंग बन गये।

सिखों में धार्मिक सुधार

कूका आंदोलन

पश्चिम के विकासशील तथा तर्कसंगत विचारों ने सिख संप्रदाय को भी प्रभावित किया। सिख सुधार आंदोलन के अगुआ दयालदास थे, जिन्होंने निरंकारी आंदोलन आरंभ किया था। पंजाब में पहला सामाजिक-धार्मिक आंदोलन कूका आंदोलन था, जिसकी शुरूआत 1840 में भगत जवाहर मल (सियेन साहब) ने की थी। इसने सिख धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों को मिटाने, जाति-भेद व अस्पृश्यता को दूर करने तथा अंतर्जातीय विवाहों पर बल दिया। इन सुधारकों ने सभी प्रकार की सामाजिक कुरीतियों और पूजा को बंद करवा दिया तथा सिर्फ गुरुबानी और उसके शब्दों के तेज आवाज में उच्चारण पर बल दिया। इस प्रकार के उच्चारण को पंजाब में ‘कूका’ कहते हैं। इस आंदोलन ने ब्राह्मणों के प्रभाव को कम किया, जिससे बड़ी संख्या में दलित भी इसमें शामिल हुए।

नामधारी आंदोलन

नामधारी आंदोलन के संस्थापक बालकसिंह (1799-1862) माने जाते हैं। इन्होंने सिख समाज में व्याप्त दिखावटीपन तथा आडंबरों को दूर करने में काफी सीमा तक सफलता प्राप्त की। बालकसिंह के एक कारीगर (शिल्पकार) जाति के शिष्य रामसिंह ने इस आंदोलन को नई दिशा दी और समाज-सुधार के साथ-साथ देश की स्वतंत्रता के लिए भी संघर्ष किया। बाद में ब्रिटिश सरकार ने रामसिंह गिरफ्तार कर देशद्रोह के आरोप में अंडमान (कालापानी) भेज दिया।

अकाली आंदोलन

19वीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में ‘सिंह सभा’ द्वारा खालसा कॉलेज की स्थापना के साथ ही सिख-सुधार आंदोलन का आरंभ हुआ। ‘मुख्य खालसा दीवान’ के नाम से प्रसिद्ध इस संस्था ने पंजाब में अनेक गुरुद्वारों एवं स्कूल-कॉलेजों की स्थापना की। किंतु सुधार के प्रयासों को अधिक बल तब मिला, जब 1920 के बाद अकाली आंदोलन आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। इन गुरुद्वारों को भक्तों की ओर से भूमि और धन दानस्वरूप मिलते थे, किंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट और स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढ़ंग से किया जा रहा था। इन महंतों को सरकार का भी समर्थन प्राप्त था। 1921 में अकालियों के नेतृत्व में सिख जनता ने भ्रष्ट महंतों और सरकार के विरुद्ध एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। पहले सरकार ने इस आंदोलन को शक्ति से कुचलना चाहा, किंतु आंदोलन की प्रचंडता के कारण अंततः सरकार को झुकना पड़ा। 1922 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित हुआ, जिसे 1925 में संशोधित किया गया। कभी-कभी इस कानून की सहायता से, मगर अधिकतर सीधी कार्यवाही द्वारा सिखों ने गुरुद्वारों से भ्रष्ट महंतों को धीरे-धीरे बाहर खदेड़ दिया, यद्यपि इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों को जान से हाथ भी धोना पड़ा।

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