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बंगाल में अंग्रेजी शक्ति की स्थापना
भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का बीजारोपण बंगाल से ही हुआ। अंग्रेजों ने 23 जून, 1757 ई. को प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को पराजित किया और मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया।
मुगल साम्राज्य के प्रांतों में बंगाल सर्वाधिक संपन्न था। भारत में अंग्रेजों को व्यापार करने का अधिकार 1618 ई. में जहाँगीर ने दिया था। बंगाल में अंग्रेजों की पहली कोठी 1651 ई. में हुगली में बंगाल के तत्कालीन सूबेदार शाहशुजा (शाहजहाँ के दूसरे पुत्र) की अनुमति से बनी। मुगल राजवंश की एक स्त्री की डाक्टर बौटन द्वारा चिकित्सा करने पर शाहशुजा ने अंग्रेजों को 3,000 रुपये सालाना बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त-व्यापार की अनुमति दी। अंग्रेजों ने बंगाल से शोरे, रेशम और चीनी का व्यापार शुरू किया। जल्दी ही अंग्रेजों ने कासिम बाजार, पटना और राजमहल में अपने कारखाने (कोठियाँ) स्थापित कर लिये। 1656 ई. में दूसरा फरमान मंजूर किया गया।
औरंगजेब ने 1658 ई. में मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार बनाया। मीर जुमला ने अंग्रेजों के व्यापार पर कठोर प्रतिबंध लगाया, जिसके कारण 1658 से 1663 ई. तक अंग्रेजों को बड़ी कठिनाई हुई। 1672 ई. में कंपनी को शाइस्ता खाँ से और 1680 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब से व्यापारिक रियायतों से संबंधित फरमान मिला। इसके बाद अंग्रेजों ने मुगल राजनीति में हस्तक्षेप शुरू किया। अंग्रेजों को बंगाल में सूबेदार शाहशुजा के फरमान के बाद भी बलात् चुंगी देनी पड़ती थी, इसलिए कंपनी ने थाना के मुगल किलों पर अधिकार कर लिया। 1686 ई. में हुगली को लूटने के बाद अंग्रेजों और मुगलों में संघर्ष हुआ। मुगल सेना ने अंग्रेजों को हुगली से भागकर ज्वारग्रस्त फुल्टा द्वीप पर शरण लेने के लिए विवश किया और कंपनी को सूरत, मसुलीपट्टम, विशाखापत्तनम आदि के कारखानों से अपने अधिकार खोने पड़ गये।
फरवरी, 1690 में कंपनी के एजेंट जॉब चारनाक ने बादशाह औरंगजेब से क्षमा माँगी। औरंगजेब ने अंग्रेजों को 1,50,000 रुपया मुआवजा लेकर पुनः व्यापार करने का अधिकार दिया। औरंगजेब ने 1691 ई. में एक फरमान निकाला, जिसमें 3,000 रुपये के निश्चित वार्षिक कर के बदले बंगाल में कंपनी को सीमा-शुल्क में छूट मिल गई। बंगाल के सूबेदार अजीमुश्शान ने 1698 ई. में 1,200 रुपये में कंपनी को तीन गाँव- सुतानाती, कालीकट और गोविंदपुर की जमींदारी दी। जाब चारनाक ने सुतानाती, कालीकट और गोविंदपुर क्षेत्रों को विकसित कर कलकत्ता का रूप दिया और फोर्ट विलियम की स्थापना की। चार्ल्स आयर फोर्ट विलियम का पहला गर्वनर बना।
फर्रुखसियर का फरमान
जान सरमन के नेतृत्व में 1715 ई. में एक व्यापारिक मिशन मुगल बादशाह फर्रुखसियर से मिला। जॉन सरमन के व्यापारिक मिशन में एडवर्ड स्टीफेंसन, विलियम हैमिल्टन (सर्जन) तथा ख्वाजा सेहुर्द (अर्मेनियाई द्विभाषिया) थे। डाक्टर विलियम हैमिल्टन ने सम्राटफर्रुखसियर को एक प्राणघातक फोड़े से मुक्ति दिलाई थी। हैमिल्टन की सेवा से प्रसन्न होकर फर्रुखसियर ने 1717 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल में 3,000 रुपये वार्षिक कर देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार दिया। कंपनी को कलकत्ता के आसपास के अन्य क्षेत्रों को भी किराये पर लेने का अधिकार मिला। बंबई की टकसाल से जारी किये गये सिक्कों को कंपनी के द्वारा मुगल साम्राज्य में मान्यता मिली। सूरत में कंपनी को 10,000 रुपये वार्षिक कर देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार मिल गया। फर्रुखसियर द्वारा जारी इस आदेश को ‘कंपनी का महाधिकार पत्र’ कहा जाता है।
18वीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में बंगाल के सूबेदारों ने स्वतंत्रता होकर ‘नवाब’ की उपाधि धारण करना आरंभ किया था। 1717 ई. में मुर्शीदकुली खाँ बंगाल का स्वतंत्र नवाब बना। मुर्शीदकुली खाँ बंगाल की राजधानी को ढ़ाका से मुर्शिदाबाद ले गया। मुर्शीदकुली खाँ ने बंगाल में नये भूराजस्व बंदोबस्त के लिए जागीर भूमि के एक बड़े भाग को खालसा भूमि बनाया और ‘इजारा व्यवस्था’ (ठेके पर भूराजस्व वसूल करने की व्यवस्था) शुरू की।
बंगाल के नवाब ने 1732 ई. में अलीवर्दी खाँ को बिहार का सूबेदार बनाया। अलीवर्दी खाँ ने बंगाल के नवाब शुजाउद्दीन के पुत्र सरफराज खाँ को 1740 ई. में ‘घेरिया के युद्ध‘ में पराजित कर बंगाल की सूबेदारी हासिल की। अलीवर्दी खाँ ने मुगल सम्राट मुहम्मदशाह को 2 करोड़ रुपये नजराना देकर स्वीकृति-पत्र भी प्राप्त कर लिया। अलीवर्दी खाँ ने लगभग 15 वर्ष तक मराठों से संघर्ष किया। मराठा आक्रमणों से बचने के लिए अंग्रेजों ने नवाब अलीवर्दी खाँ की अनुमति से फोर्ट विलियम के चारों ओर एक गहरी खाई बनाई। अलीवर्दी खाँ ने यूरोपियनों की तुलना मधुमक्खियों से करते हुए कहा था कि ‘यदि उन्हें छेड़ा न जाए तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काटकर मार डालेंगी।’
कलकत्ता का पतन
अलीवर्दी खाँ के मरने के बाद 1756 ई. में दौहित्र सिराजुद्दौला उत्तराधिकारी हुआ। नवाब सिराजुद्दौला को पूर्णिया के नवाब शौकतजंग (सिराजुद्दौला की मौसी का लड़का), मौसी घसीटी बेगम के अलावा अंग्रेजों से निपटना पड़ा। सिराजुद्दौला का सबसे बड़ा शत्रु बंगाल का सेनानायक और अलीवर्दी खाँ का बहनाई मीरजाफर था। अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों से भयभीत होकर कलकत्ता की फोर्ट विलियम कोठी की किलेबंदी की और उसके परकोटे पर तोपें चढ़ा दी। जब सिराज ने अंग्रेजों के इस जघन्य कार्यों को रोकने की कोशिश की, तो सिराजुद्दौला ने 15 जून, 1756 ई. को फोर्ट विलियम को घेर लिया। सिराजुद्दौला ने 5 दिन में ही अंग्रेजों को आत्म-समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया। नवाब सिराजुद्दौला कलकत्ता मानिकचंद्र को सौंपकर स्वयं मुर्शिदाबाद वापस आ गया।
काल-कोठरी की दुर्घटना (23 जून, 1756 ई.)
कहा जाता है कि बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने 146 अंग्रेज बंदियों, जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, को एक छोटे-से कमरे में 20 जून, 1756 की रात को बंद कर दिया था, जो 18 फीट लंबा तथा 14 फुट 10 इंच चौड़ा था। 23 जून को जब कोठरी खोली गई, तो उसमें केवल 23 लोग ही जिंदा मिले। जिंदा रहनेवालों में एक हालवैल भी था और वही इस घटना का सूत्रधार माना जाता है। इतिहासकार गुलाम हुसैन की पुस्तक ‘सियार-उल-मुत्खैरीन’ में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं है। इस घटना का केवल इतना ही महत्त्व है कि अंग्रेजों ने इसे आगे के आक्रामक युद्ध का कारण बनाया।
कलकत्ता के पतन की सूचना पाकर मद्रास से अंग्रेज अधिकारियों ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में कलकत्ता के लिए सेना भेजी। इस सैन्य-अभियान में एडमिरल वाटसन, क्लाइव का सहायक था। यह सेना 16 अक्टूबर को मद्रास से चलकर 14 दिसंबर को बंगाल पहुँची। नवाब के प्रभारी अधिकारी मानिकचंद्र ने घूस लेकर कलकत्ता अंग्रेजों के दे दिया। अंग्रजों ने 2 जनवरी, 1757 को कलकत्ता पर अधिकारकर नवाब के खिलाफ युद्ध की घोषणा की।
फरवरी, 1757 ई. में नवाब सिराजुद्दौला ने क्लाइव के साथ अलीनगर की संधि क़ी। अलीनगर की संधि के अनुसार अंग्रेजों को व्यापार के पुराने अधिकार पुनः मिल गये, जिनमें कलकत्ता की किलेबंदी भी शामिल थी। अंग्रेजों को तीन लाख रुपये क्षतिपूर्ति भी मिला। रॉबर्ट क्लाइव ने कूटनीति के सहारे नवाब से असंतुष्ट सेनापति मीरजाफर, साहूकार जगतसेठ, व्यापारी रायदुर्लभ, मानिकचंद्र तथा अमीनचंद्र को अपनी ओर मिला लिया।
प्लासी का युद्ध (23 जून, 1757)
कंपनी 1717 ई. में मिले दस्तक पारपत्र का प्रयोग करके अवैध व्यपार कर रही थी। नवाब सिराजुद्दौला को उसका नाना अलीवर्दी खाँ मरने से पहले होशियार कर गया था। नवाब सिराजुद्दौला ने मजबूर होकर 1756 ई. की संधि की थी। मीरजाफर, अमीनचंद्र, जगतसेठ आदि अपने हितों की पूर्ति हेतु कंपनी से मिलकर षडयंत्र कर रहे थे। इस बीच मार्च, 1757 ई. में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों से चंद्रनगर के जीत लिया। नवाब के विरुद्ध क्लाइव ने सेना के साथ मुर्शिदाबाद की ओर प्रस्थान किया।
अंग्रेज और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनाएँ 23 जून, 1757 ई. को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर नदिया जिले में भागीरथी नदी के किनारे प्लासी गाँव में आम के बगीचे में आमने-सामने हुईं। अंग्रेजों की सेना में 9,50 यूरोपीय पदाति, 1,00 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2,100 भारतीय सैनिक थे। नवाब की 50,000 की सेना का नेतृत्व विश्वासघाती मीरजाफर कर रहा था। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे शुरू हुआ। सिराजुद्दौला की सेना की एक अग्रगामी टुकड़ी का नेतृत्व मीरमदान और मोहनलाल ने किया। मीरमदान के मरने के बाद मीरजाफर ने नवाब को पीछे हटने को कहा और सुझाव दिया कि उसे युद्ध-क्षेत्र से चला जाये। सिराज 2,00 घुड़सवारों सहित मुर्शिदाबाद लौट आया। मीरजाफर एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ खड़े रहे और रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही जीत गया। युद्ध के तुरंत बाद मीरजाफर के पुत्र मीरन ने नवाब सिराजुद्दौला की हत्या कर दी।
मीरजाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौटा और स्वयं को बंगाल का नवाब घोषित किया। मीरजाफर ने अंग्रेजों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगनों की जमींदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 2,34,000 पौंड की भेंट दी। मीरजाफर ने 150 लाख रुपये, सेना और नाविकों को दिया। बंगाल की सभी फ्रांसीसी बस्तियाँ अंग्रेजों को मिल गईं और भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर चुंगी देने से छूट मिल गई।
प्लासी के युद्ध एक छोटी-सी झड़प थी जिसमें कंपनी के 65 सैनिक और नवाब के 5,000 सैनिक मारे गय थे। प्लासी के युद्ध के बाद भारत में दासता की शुरुआत हुई। एक व्यापारिक कंपनी राजा बन गई। देश से धन-निष्कासन शुरू हुआ जिससे इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई।बंगाल अंग्रेजों के अधीन हो गया और फिर कभी स्वतंत्र नहीं हो सका। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में ल्यूक स्क्राफ्ट्रन को नवाब के दरबार में अंग्रेज रेजिडेंट नियुक्त किया गया।
मीरजाफर अपनी रक्षा तथा पद के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी पर निर्भर था। मीरजाफर को मुर्शिदाबाद के एक दरबारी ने ‘कर्नल क्लाइव का गधा’ की उपाधि दी थी। मीरजाफर क्लाइव की बढ़ती धनलिप्सा की पिपासा को शांत नहीं कर सका। हॉलवेल का आरोप है कि मीरजाफर अंग्रेज-विरोधी गतिविधियों में लिप्त था। वह डच लोगों एवं मुगल राजकुमार अलीगौहर (जो बाद में सम्राट शाहआलम द्वितीय हुआ) से मिलकर अंग्रेज-विरोधी षड्यंत्र रच रहा था। क्लाइव ने बेदरा के युद्ध में डचों को पराजित किया।
शांतिपूर्ण क्रांति का वर्ष (1760 ई.)
मीरजाफर के दामाद मीरकासिम ने अंग्रेजों को वित्तीय कठिनाइयों में सहायता देने का वादा किया। 27 सितंबर, 1760 ई. को अंग्रेजों तथा जाफर के दामाद मीरकासिम के मध्य एक संधि हुई। मीरकासिम ने 5 लाख रुपये तथा बर्दवान, मिदनापुर, चटगाँव के जिले कंपनी को दिया। दक्षिण के सैन्य-अभियान में कंपनी को 5 लाख रुपये देने की भी बात कही गई थी। कंपनी ने वादा किया कि वह नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी। केलाड और वेंसिटार्ट 14 अक्टूबर, 1760 ई. को मुर्शिदाबाद पहुँचे। मीरजाफर सत्ता से स्वयं हट गया और 15,000 रुपये मासिक पेंशन पर कलकत्ता में रहना स्वीकार कर लिया। इस घटना के कारण 1760 ई. को ‘शांतिपूर्ण क्रांति का वर्ष’ कहा जाता है।
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मीरकासिम
मीरकासिम ने नवाब बनते ही कंपनी के अधिकारियों को पुरस्कृत किया। वेंसिटार्ट को 5 लाख और हॉलवैल को 2,70,000, कर्नल केलॉड को 2 लाख तथा अन्य अधिकारियों को लगभग 7 लाख रुपया दिया। अधिकारियों ने कंपनी की दशा सुधारने के नाम पर लगभग 17 लाख रुपया नये नवाब से लिये।
अलीवर्दी खाँ के बाद बंगाल के नवाबों में मीरकासिम सर्वाधिक योग्य था। मीरकासिम ने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थानांतरित की। मीरकासिम ने अपने विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे बिहार के उप-सूबेदार रामनारायण, जिसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था, को सेवा से हटाकर मरवा दिया।
मीरकासिम ने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से गठित करने का फैसला किया। उसने मुंगेर में तोड़ेदार बंदूकों एवं तोपों के कारखानों की स्थापना की और गुर्गिन खाँ नामक आर्मेनियाई के नियंत्रण में अपनी सेना के सैनिकों की संख्या में वृद्धि की। मीरकासिम ने गबन करने वाले अधिकारियों पर बड़े-बड़े जुमाने किये गये, कुछ नये कर लगाये गये और पुराने करों पर 3/32 भाग अतिरिक्त कर के रूप में लगाया गया। मीरकासिम ने एक और कर खिजरी जमा, जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था, भी वसूल किया। मीरकासिम के कार्य को देखकर अंग्रेजों का बौखलाना स्वाभाविक था।
मीरकासिम और कंपनी का झगड़ा
हैनरी वेरेल्स्ट ने मीरकासिम और कंपनी के बीच झगड़े के कारणों को दो भागों में बाँटा है- तात्कालिक तथा वास्तविक। तात्कालिक कारण तो आंतरिक व्यापार था, लेकिन वास्तविक कारण नवाब की राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा थी। मीरकासिम राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए कोई प्रयत्न नहीं कर रहा था। वह केवल अंग्रेजों की शक्ति अधिक बढ़ने से अथवा अपनी शक्ति अधिक कम होने से रोकने का प्रयास कर रहा था। उसने संधियों का अक्षरशः पालन किया था। अंग्रेज तथा उनके एजेंट और गुमाश्ते मीरकासिम की राजसत्ता के लिए खतरा बनते जा रहे थे। कंपनी के सेवक वृक्षों के नीचे अदालत लगाते थे और मनमाना दंड देते थे। मीरकासिम का झगड़ा स्वतंत्रता के प्रश्न पर नहीं था, बल्कि अंग्रेजों के अपने राजनैतिक तथा कानूनी अधिकारों के दुरुपयोग पर था।
1717 ई. में फर्रुखसियर ने एक फरमान द्वारा कंपनी को आयात और निर्यात कर से छूट प्रदान दी थी और इस पर कोई विवाद नहीं था। नवाब ने केवल ‘दस्तक’ का प्रश्न उठाया, जिसकी सहायता से कंपनी के कर्मचारी अपना निजी व्यापार करते थे तथा नवाब को कर नहीं देते थे। कंपनी के अधिकारी नवाब के कानूनों का पालन नहीं करते थे और जनता को लूटते थे।
एक बार एक अर्मीनियन ने नवाब के लिए कुछ शोरा खरीदा, तो पटना के एजेंट एलिस ने उसे बंदी बना लिया था क्योंकि शोरा के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार था। वेंसिटार्ट, वारेन हेस्टिंग्स तथा परिषद् के एक सदस्य ने मुंगेर में नवाब से भेंट की और एक समझौता किया, किंतु कलकत्ता परिषद् ने इस समझौते को अस्वीकार कर दिया।
मीरकासिम ने देखा कि अंग्रेज गुमाश्ते दश्तक का दुरुपयोग कर रहे हैं, और चुंगी देने की व्यवस्था का उल्लंघन कर रहे हैं तो उसने चुंगी ही हटा दी और यही निर्णय बाद में बक्सर के युद्ध का कारण बना। कलकत्ता परिषद् चाहती थी कि नवाब अपनी प्रजा पर चुंगी लगाये। मार्च, 1763 ई. मं कंपनी ने इसे अपने विशेषाधिकार का हनन माना और पटना के अधिकारी एलिस ने पटना पर आक्रमण कर दिया।
बक्सर का युद्ध (22 अक्टूबर, 1764 ई.)
कंपनी तथा नवाब के बीच युद्ध 1763 ई. में ही आरंभ हो गया था। नवाब ने अवध के नवाब शुजाउदौला से सहायता मांगी और जनवरी, 1764 ई. में मुगल सम्राट से मिलकर अंग्रेजों को बंगाल से निकालने की योजना बनाई।
बंगाल के नबाब मीरकासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला, तथा मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय की संयुक्त सेना की टक्कर कंपनी की सेना से 22 अक्टूबर, 1764 ई. को बक्सर के निकट हुई। कंपनी की सेना में 7,027 सैनिक थे जिसकी कमान मेजर मुनरो के हाथ में थी। बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों के 8,47 सैनिक मारे गये और दूसरी ओर लगभग 2,000 घायल हुए। बंगाल के नवाब मीरकासिम तथा मुगल सम्राट शाहआलम पराजित हुए। बक्सर का युद्ध ने प्लासी के निर्णयों पर मुहर लगा दी। नवाब शुजाउदौला ने मई, 1765 ई. में कंपनी के सामने आत्म-समर्पण कर दिया। पूरा अवध कंपनी को मिल गया। शाहआलम भी कंपनी की शरण मे आ गया।
इलाहाबाद की संधियों के द्वारा 1765 ई. अंग्रेजों ने मुगल सम्राट शाहआलम के साथ संधि करके बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दीवानी अधिकार प्राप्त कर लिया। बंगाल पर दीवानी का अधिकार कंपनी द्वारा प्रादेशिक सत्ता की ओर प्रथम महान् कदम था।’ शाहआलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले तथा 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन दी गई।
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