दक्षिण-पूर्वी यूरोप: बाल्कन प्रायद्वीप
दक्षिण-पूर्वी यूरोप के बाल्कन प्रायद्वीप की भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अपनी विशिष्ट पहचान है। पंद्रहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर सोलहवीं सदी के अंत तक पूर्वी यूरोपीय राज्यों पर ऑटोमन तुर्कों के निरंतर आक्रमणों और साम्राज्य विस्तार के परिणामस्वरूप यूरोपीय राज्यों की राजनीतिक सुरक्षा, प्रभुता, प्रादेशिक अखंडता और सामुद्रिक व व्यापारिक हितों को गंभीर खतरा उत्पन्न हुआ। तुर्की साम्राज्य के असहिष्णु शासन और जातीय शत्रुता के कारण बाल्कन प्रायद्वीप के ईसाइयों और यहूदियों का शोषण होता रहा।
पूर्वी प्रश्न
अठारहवीं सदी के मध्य में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रसार के कारण बाल्कन प्रायद्वीप के ईसाइयों ने रूस के संरक्षण में तुर्की प्रभुसत्ता के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन शुरू किए, जिससे बाल्कन प्रायद्वीप के अधिकांश ईसाई राज्य तुर्की से स्वतंत्र होने लगे और तुर्की साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हुआ। तुर्की साम्राज्य से सबसे पहले स्वतंत्र होने वाला राज्य सर्बिया था, जिसने रूस के सहयोग से 1829 में स्वतंत्रता प्राप्त की। सर्बिया का अनुकरण करते हुए यूनान, रोमानिया, बुल्गारिया और स्लोवाकिया आदि ने स्वतंत्रता के लिए विद्रोह किया। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने समस्त यूरोपीय राष्ट्रों में राष्ट्रीय भावना को प्रेरित किया, जिसके कारण इन राज्यों में स्वतंत्रता के लिए होने वाले संघर्षों में समस्त यूरोप दो गुटों में विभाजित हो गया। रूस के नेतृत्व में एक गुट इन राज्यों की स्वतंत्रता का समर्थक था और तुर्की पर अधिकार करना चाहता था, जबकि इंग्लैंड, फ्रांस और ऑस्ट्रिया का दूसरा गुट अपने स्वार्थों के कारण तुर्की साम्राज्य को विघटन से बचाना चाहता था। इस प्रकार बाल्कन प्रायद्वीप में अपने-अपने राष्ट्रीय हितों और स्वार्थों की पूर्ति के लिए यूरोपीय राष्ट्रों के बीच होने वाली पारस्परिक प्रतिस्पर्धा को ही ‘पूर्वी प्रश्न’ कहा जाता है।
क्रीमिया युद्ध के कारण
क्रीमिया युद्ध (जुलाई 1853दृमार्च 1856) काला सागर के आसपास लड़ा गया, जिसमें तुर्की के साथ फ्रांस, ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया एक पक्ष में थे और दूसरी ओर महत्त्वाकांक्षी रूस था। क्रीमिया युद्ध को ‘मूर्खतापूर्ण और अनिर्णायक युद्ध’ माना जाता है, क्योंकि इसकी शुरुआत रूस ने तुर्की के विरुद्ध यरुशलम स्थित बेथलेहम के चर्च की चाबियों को लेकर की थी, और अपने-अपने स्वार्थों और महत्त्वाकांक्षाओं के कारण इंग्लैंड, फ्रांस और सार्डिनिया (इटली) इसमें शामिल हो गए।
रूस का स्वार्थ
रूस, पीटर के समय से ही साम्राज्यवादी नीति का समर्थक था। वह यूरोप के ‘बीमार तुर्की’ साम्राज्य का अंत करके अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था, जिससे यूरोप में शक्ति संतुलन की समस्या उत्पन्न हुई। तुर्की साम्राज्य के बाल्कन क्षेत्र में स्लाव जाति निवास करती थी, और समान जाति, भाषा, और धर्म के कारण रूस का जार उनसे सहानुभूति रखता था। जार, तुर्की शासन के अत्याचारों से स्लाव जाति की रक्षा करने के बहाने काला सागर और भूमध्य सागर पर अधिकार करना चाहता था। जार निकोलस की दृष्टि पहले से ही तुर्की साम्राज्य पर केंद्रित थी। उन्हें पूरा विश्वास था कि ‘बीमार तुर्की’ साम्राज्य किसी न किसी दिन स्वयं समाप्त हो जाएगा, इसलिए उन्होंने इसके पहले ही उसके भाग्य का निर्णय करने का विचार किया।
निकोलस ने तुर्की के विभाजन की एक योजना बनाई और उसमें इंग्लैंड को शामिल करने के लिए 1844 में स्वयं इंग्लैंड गए, किंतु जब इंग्लैंड ने उनकी योजना को अस्वीकार कर दिया, तो क्रुद्ध जार निकोलस ने तलवार के बल पर तुर्की को हड़पने के लिए आक्रमण कर दिया। महारानी विक्टोरिया ने क्रीमिया युद्ध का एक कारण जार निकोलस और उनके सेवकों की स्वार्थपरता और महत्त्वाकांक्षा को बताया था।
फ्रांस की महत्त्वाकांक्षा
1848 में नेपोलियन तृतीय ने फ्रांस के गणतंत्र का अंत करके स्वयं को सम्राट घोषित किया। वह पूर्वी प्रश्न में भाग लेकर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहता था ताकि वह अपने चाचा नेपोलियन बोनापार्ट का सच्चा वारिस सिद्ध हो सके। फ्रांस को तुर्की साम्राज्य में व्यापार की विशेष सुविधाएँ प्राप्त थीं। नेपोलियन तृतीय तुर्की के माध्यम से मिस्र और सीरिया के साथ भी व्यापारिक संबंध स्थापित करना चाहता था।

इसके अतिरिक्त, फ्रांस लंबे समय से तुर्की साम्राज्य में निवास करने वाले रोमन कैथोलिकों का संरक्षक था। रूस का तुर्की साम्राज्य पर अधिकार होने का अर्थ था फ्रांस की व्यापारिक सुविधाओं और रोमन कैथोलिकों पर उसके संरक्षण का अंत, जिसके लिए फ्रांस कतई तैयार नहीं था। साथ ही, रूस के सम्राट जार निकोलस प्रथम और फ्रांस के नेपोलियन तृतीय के बीच पारस्परिक द्वेष, प्रतिस्पर्धा, और महत्त्वाकांक्षा ने पूर्वी प्रश्न को और जटिल बना दिया। जार निकोलस नेपोलियन तृतीय को फ्रांस का वैध शासक नहीं मानता था और उसे ‘मेरे प्रिय मित्र’ कहकर संबोधित करता था, जिसके फलस्वरूप फ्रांस ने निश्चय किया कि वह तुर्की साम्राज्य पर रूस का प्रभुत्व नहीं होने देगा।
इंग्लैंड के व्यापारिक स्वार्थ
इंग्लैंड यूरोप का पहला देश था, जहाँ सबसे पहले औद्योगिक क्रांति हुई। उसे अपने उद्योगों के लिए कच्चे माल और तैयार माल की खपत के लिए बाजार की आवश्यकता थी। इंग्लैंड की ये आवश्यकताएँ उसके उपनिवेशों द्वारा काफी हद तक पूरी हो रही थीं और वह ‘शानदार पृथकता की नीति’ अपनाए हुए था। किंतु अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विलियम पिट ने ‘पूर्वी प्रश्न’ के महत्त्व को समझते हुए इस ओर ध्यान दिया, क्योंकि रूस का निकट-पूर्व में धीरे-धीरे अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करना पिट को स्वीकार्य नहीं था। पिट ने निकट-पूर्व की समस्या को संसद के समक्ष प्रस्तुत किया और रूस के बढ़ते प्रभाव को कम करने में काफी हद तक सफल रहे।
यद्यपि इंग्लैंड, फ्रांस और रूस दोनों को खतरा मानता था, क्योंकि दोनों तुर्की साम्राज्य पर अधिकार करना चाहते थे, किंतु रूस द्वारा तुर्की के विभाजन की संभावना से इंग्लैंड सतर्क हो गया। भूमध्य सागर में रूस का प्रवेश इंग्लैंड के लिए संकट उत्पन्न कर सकता था और तुर्की पर रूस का प्रभुत्व होने से इंग्लैंड का भारतीय उपनिवेश भी खतरे में पड़ सकता था। इंग्लैंड ने फ्रांस से मित्रता कर ली और निश्चय किया कि वह रूस को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकने के लिए तुर्की साम्राज्य की रक्षा करेगा और उस पर रूस का प्रभुत्व स्थापित नहीं होने देगा।
ऑस्ट्रिया की आशंका
ऑस्ट्रिया को भी बाल्कन की ओर रूस के विस्तार से भय था। बाल्कन प्रदेश की तरह ऑस्ट्रिया के साम्राज्य में भी स्लाव जाति निवास करती थी। बाल्कन के स्लाव स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित होकर ऑस्ट्रिया के स्लाव भी स्वतंत्रता संग्राम शुरू कर सकते थे। यद्यपि 1849 में ऑस्ट्रिया के सम्राट को रूसी सैनिकों के कारण ही अपना पैतृक सिंहासन प्राप्त हुआ था, किंतु स्लाव स्वतंत्रता आंदोलन की संभावना को रोकने के लिए ऑस्ट्रिया का झुकाव फ्रांस और इंग्लैंड की ओर हो गया। सार्डिनिया (इटली) के काउंट कावूर ने भी ऑस्ट्रिया के अत्याचारों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने के लिए उपयुक्त अवसर देखकर क्रीमिया युद्ध में मित्र राष्ट्रों की ओर से भाग लिया।
तात्कालिक कारण: बेथलेहम के चर्च की चाबियाँ
क्रीमिया युद्ध का तात्कालिक कारण यरुशलम में बेथलेहम के पवित्र चर्च की चाबियाँ थीं। ईसाइयों का पवित्र स्थान यरुशलम तुर्की साम्राज्य के अधीन था। यरुशलम में बेथलेहम का चर्च ईसा मसीह के जन्मस्थान पर बना था। इस चर्च का उपयोग यूनानी आर्थोडॉक्स पादरी और रोमन कैथोलिक दोनों करते थे।
1740 की एक संधि के अनुसार फ्रांस रोमन कैथोलिकों का संरक्षक था, और फ्रांस के प्रभाव के कारण चर्च के मुख्य द्वार की चाबी रोमन कैथोलिकों को प्राप्त थी। यूनानी पादरियों को चर्च के बगल के एक छोटे द्वार की चाबी मिली थी, जिससे वे चर्च में प्रवेश कर सकते थे। फ्रांस की क्रांति से लाभ उठाकर यूनानी पादरियों ने छोटे द्वार की चाबी रोमन कैथोलिकों को दे दी और मुख्य द्वार की चाबी स्वयं ले ली। जब नेपोलियन तृतीय फ्रांस का सम्राट बना, तो उसने पोप और रोमन कैथोलिकों को प्रसन्न करने के लिए 1850 में पवित्र स्थानों पर अपने संरक्षण की माँग की, ताकि रोमन कैथोलिकों को चर्च के मुख्य द्वार की चाबी पुनः प्राप्त हो जाए।
यूनानी पादरियों का समर्थक होने के कारण जार निकोलस ने फ्रांस की माँग का विरोध किया और तुर्की से माँग की कि पवित्र स्थानों पर उसका संरक्षण स्वीकार किया जाए। किंतु तुर्की के सुल्तान पर अंग्रेजी राजदूत स्ट्रैटफोर्ड का इतना अधिक प्रभाव था कि उसने निकोलस की माँग को अनसुना कर दिया। रूस की माँग का इंग्लैंड, स्पेन, ऑस्ट्रिया और अन्य रोमन कैथोलिक देशों ने भी विरोध किया। जब 1852 में नेपोलियन ने रोमन कैथोलिकों के संरक्षण की माँग पुनः की, तो कुछ अनिच्छा के बाद तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस की माँग स्वीकार कर ली।
यद्यपि तुर्की की इस स्वीकृति से रूस को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, लकिन जार निकोलस को लगा कि यह तुर्की को हड़पने का उचित अवसर है। उन्होंने तुर्की के सुल्तान द्वारा यूनानी ईसाइयों पर अपना संरक्षण अस्वीकार किए जाने पर जुलाई 1853 में डेन्यूब नदी के उत्तरवर्ती तुर्की के भूभाग- मोल्डाविया और वालाचिया के प्रांतों पर अधिकार कर लिया।
क्रीमिया युद्ध का आरंभ (23 अक्टूबर 1853)
4 अक्टूबर 1853 को तुर्की के सुल्तान ने रूस से अपने प्रदेश मोल्डाविया और वालाचिया को खाली करने की माँग की। रूस द्वारा इस माँग को अस्वीकार किए जाने पर तुर्की ने 23 अक्टूबर 1853 को रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
क्रीमिया युद्ध की घटनाओं को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम चरण 23 अक्टूबर 1853 से 28 मार्च 1854 तक माना जा सकता है, जब युद्ध में केवल रूस और तुर्की थे। द्वितीय चरण 1854 से 1856 तक माना जा सकता है, जब युद्ध में इंग्लैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया और सार्डिनिया भी शामिल हो गए।

प्रथम चरण
23 अक्टूबर 1853 से 28 मार्च 1854 तक केवल तुर्की और रूस के बीच युद्ध हुआ। युद्ध की घोषणा के बाद तुर्की ने डेन्यूब नदी के तट पर रूसी सेनाओं पर आक्रमण किया। 30 नवंबर 1853 को तुर्की का एक जहाजी बेड़ा बटुम की ओर जा रहा था, तभी रूस के एक जहाजी बेड़े ने ‘सिनोप’ नामक स्थान पर तुर्की के सभी सैनिकों का संहार कर दिया। इस समय इंग्लैंड और फ्रांस का संयुक्त बेड़ा कॉन्स्टेंटिनोपल में था। दोनों देशों में सिनोप में तुर्की सैनिकों की सामूहिक हत्या से भारी रोष फैल गया।
सिनोप की घटना से ऑस्ट्रिया युद्ध की घोषणा के लिए विवश हो गया। तुर्की की सहायता के लिए जनवरी 1854 के प्रारंभ में इंग्लैंड और फ्रांस का संयुक्त नौसैनिक बेड़ा काला सागर में पहुँच गया और कॉन्स्टेंटिनोपल की रक्षा के लिए ‘गैलीपोली’ में किलेबंदी करने का निर्णय लिया। 27 फरवरी 1854 को फ्रांस और इंग्लैंड ने रूस को चेतावनी दी कि वह तुर्की के प्रदेश खाली कर दे। 28 मार्च 1854 को फ्रांस और इंग्लैंड ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। किंतु इससे पहले कि फ्रांस और इंग्लैंड की सेनाएँ काला सागर के पश्चिमी तट पर एकत्र होतीं, रूस ने तुर्की के अधीन मोल्डाविया और वालाचिया से अपनी सेना वापस बुला ली और इस प्रकार प्रथम चरण का युद्ध समाप्त हो गया।
द्वितीय चरण
यद्यपि रूस ने मोल्डाविया और वालाचिया खाली कर दिए और युद्ध का कारण समाप्त हो गया था, किंतु मित्र राष्ट्रों को बिना युद्ध किए अपनी सेना वापस ले जाना स्वीकार्य नहीं था। मित्र राष्ट्र रूस के सैनिक अड्डे सेबास्तोपाल पर अधिकार करना चाहते थे। ब्रिटिश सेना लॉर्ड रैगलन और फ्रांसीसी सेना मार्शल सेंट अरनॉ के नेतृत्व में 14 सितंबर 1854 को क्रीमिया पहुँच गई, किंतु दोनों देशों को क्रीमिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
17 सितंबर को मित्र राष्ट्रों ने सेबास्तोपाल की ओर बढ़ना शुरू किया। 20 सितंबर को रूसी सेना ने ‘आल्मा के युद्ध’ में मित्र राष्ट्रों का सामना किया, जिसमें रूसी सेना पीछे हट गई। रूसी सेनापति टॉडलेबेन ने सेबास्तोपाल के दुर्ग में प्रवेश कर उसकी रक्षा का प्रयास किया। मित्र राष्ट्रों की सेना ने 11 महीने तक दुर्ग का घेरा डाले रखा। सेबास्तोपाल के घेरे में अंग्रेजी सेना को भारी कष्ट उठाना पड़ा। रूसी सर्दी के कारण हजारों ब्रिटिश सैनिक ठंड से मारे गए। यातायात, खाद्यान्न की कमी और अस्त्र-शस्त्र की अव्यवस्था के कारण इंग्लैंड के तत्कालीन एबरडीन मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ा और पामर्स्टन प्रधानमंत्री बने।

जार निकोलस की मृत्यु और 1855 में मित्र राष्ट्रों का सेबास्तोपाल पर अधिकार हो जाने के कारण रूस पूरी तरह निःशक्त हो गया और उसने युद्ध जारी रखना व्यर्थ समझा। नेपोलियन तृतीय भी युद्ध करने के पक्ष में नहीं था और रूस से अकेले लड़ना इंग्लैंड के वश की बात नहीं थी। इसलिए मार्च 1856 में ‘पेरिस की संधि’ द्वारा युद्ध समाप्त हो गया।
पेरिस की संधि (30 मार्च 1856)
30 मार्च 1856 को इंग्लैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, तुर्की, सर्बिया, सार्डिनिया और रूस के प्रतिनिधियों ने ‘पेरिस की संधि’ पर हस्ताक्षर किए। इस संधि में कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए, जिनमें प्रमुख हैं:
- डेन्यूब नदी को सभी देशों के जहाजों के लिए खोल दिया गया।
- रूस को सेबास्तोपाल के दुर्ग का पुनर्निर्माण करने से रोक दिया गया।
- काला सागर को तटस्थ क्षेत्र घोषित कर दिया गया और किसी भी देश के युद्धपोतों के लिए निषिद्ध कर दिया गया।
- रूस को काला सागर से अपने युद्धपोत हटाने पड़े।
किंतु पंद्रह वर्षों के भीतर यह संधि अप्रभावी हो गई।
क्रीमिया युद्ध के परिणाम
क्रीमिया युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह था कि रूस का कॉन्स्टेंटिनोपल पर अधिकार करने और काला सागर को रूसी झील बनाने का सपना टूट गया।
क्रीमिया युद्ध के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर रूस की तुर्की को हड़पने की योजना विफल हो गई, वहीं दूसरी ओर तुर्की को नवजीवन मिल गया।
युद्ध के बाद सर्बिया को स्वतंत्रता मिली, जो अन्य पराधीन देशों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी।
क्रीमिया युद्ध का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह था कि इंग्लैंड और फ्रांस में मित्रता स्थापित हो गई। इंग्लैंड को धन और जन की अपार क्षति हुई। नेपोलियन तृतीय ने फ्रांस की पराजय का बदला रूस से ले लिया। ऑस्ट्रिया की तटस्थता की नीति से रूस तो नाराज था ही, इंग्लैंड और फ्रांस भी नाराज हो गए, जिसके कारण ऑस्ट्रिया मित्रविहीन हो गया।
इटली के दूरदर्शी काउंट कावूर ने मित्र राष्ट्रों की ओर से क्रीमिया में सेना भेजकर और पेरिस की संधि में शामिल होकर इटली की समस्या को अंतरराष्ट्रीय बना दिया। इसलिए कहा जाता है कि ‘क्रीमिया के कीचड़ से ही इटली का जन्म हुआ था।’
क्रीमिया युद्ध के दौरान ‘लेडी विद द लैंप’ के नाम से प्रसिद्ध फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने महिला स्वयंसेविकाओं के साथ मित्र राष्ट्रों के घायल सैनिकों की सेवा-सुश्रूषा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी प्रेरणा से नर्सिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आए और रेड क्रॉस की स्थापना हुई।











